मंगलवार, 22 जुलाई 2014

अभूतपूर्व चुनाव का अहम दस्तावेज 'मोदी लाइव'

पुस्तक समीक्षा


- लोकेन्द्र सिंह (लेखक युवा साहित्यकार और लेखक हैं l)
    सोलहवीं लोकसभा का आम चुनाव अपने आप में अनोखा था। भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में यह पहला मामला था जब समस्त राजनीतिक दल सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ न होकर एक विपक्षी पार्टी के खिलाफ मोर्चाबंदी कर रहे थे। भाजपा की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को घेरने का काम सिर्फ राजनीतिक दल ही नहीं कर रहे थे बल्कि लेखक और बुद्धिजीवी वर्ग भी निचले स्तर तक जाकर मोदी विरोधी अभियान चला रहे थे। लेकिन, कांग्रेस के भ्रष्टाचार, घोटालों-घपलों और कुनीतियों से तंग जनता ने न केवल मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया बल्कि भारतीय जनता पार्टी को अभूतपूर्व, अकल्पनीय बहुमत दिया और कांग्रेस के गले में डाल दी ऐतिहासिक हार।
                भारत के सबसे लम्बे चलने वाले आम चुनाव-2014 की तारीखों की घोषणा के पहले से लेकर परिणाम के बाद तक की प्रक्रिया पर पैनी नजर रखने वाले देश के जाने-माने चुनाव विश्लेषक संजय द्विवेदी की पुस्तक 'मोदी लाइव' इस अभूतपूर्व चुनाव का एक अहम दस्तावेज है। श्री द्विवेदी भले ही आमुख में यह लिखें - ''यह कोई गंभीर  और मुकम्मल किताब नहीं है। एक पत्रकार की सपाटबयानी है। इसे अधिकतम चुनावी नोट्स और अखबारी लेखन ही माना जा सकता है।'' लेकिन, दो दशक से पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में सक्रिय संजय द्विवेदी को जानने वाले जानते हैं कि उनका राजनीतिक विश्लेषण गंभीर रहता है। वे सपाटबयानी के साथ गहरी बातें कहते हैं, जो भविष्य में सच के काफी करीब होती हैं। इसी पुस्तक के कई लेखों में उनकी गहरी राजनीतिक समझ और ईमानदार विश्लेषण से परिचित हुआ जा सकता है। 25 जनवरी को लिखे गए एक आलेख में उन्होंने संकेत दिया था- ''इस बार के चुनाव साधारण नहीं, विशेष हैं। ये चुनाव खास परिस्थियों में लड़े जा रहे हैं जब देश में सुशासन, विकास और भ्रष्टाचार मुक्ति के सवाल सबसे अहम हो चुके हैं। नरेन्द्र मोदी इस समय के नायक हैं। ऐसे में दलों की बाड़बंदी, जातियों की बाड़बंदी टूट सकती है। गठबंधनों की तंग सीमाएं टूट सकती हैं। चुनाव के बाद देश में एक ऐसी सरकार बन सकती है जिसमें गठबंधन की लाचारी, बेचारगी और दयनीयता न हो।'' चुनाव परिणाम से उनकी एक-एक बात सच साबित हुई। लम्बे समय बाद किसी एक दल को पूर्ण बहुमत मिला। गठबंधन की अवसरवादी राजनीति से देश को राहत मिली। जात-पात और वोटबैंक की राजनीति काफी कुछ छिन्न-भिन्न हुई। अवसरवादी राजनीति के पर्याय बनते जा रहे क्षेत्रीय दलों का सफाया हो गया। राजनीतिक छुआछूत की शिकार भाजपा सही मायने में राष्ट्रीय पार्टी बनकर उभरी, दक्षिण-पूर्व में भी कमल खिला।
                कांग्रेस के भ्रष्टाचार से अधिक, समय के साथ लोकनायक बनते जा रहे नरेन्द्र मोदी के कारण यह आम चुनाव सर्वाधिक चर्चा का विषय बना। संभवत: यह नए भारत का एकमात्र चुनाव है, जिसने फिर से राजनीतिक चर्चा-बहस को घर-घर तक पहुंचाया। राजनीति के नाम से ही बिदकने वाले लोग भी सकारात्मक परिवर्तन की बात कर रहे नरेन्द्र मोदी के भाषण गौर से सुन रहे थे। सबसे अहम बात यह है कि राजनीति में रुचि रखने वाले लोगों के बीच ही नहीं युवाओं और महिलाओं के बीच भी नरेन्द्र मोदी चर्चा का केन्द्र बने। बच्चों की तोतली जुबान पर भी मोदी का नाम चढ़ा हुआ था। गुजरात से निकलकर देश के जनमानस पर यूं छा जाने के नरेन्द्र मोदी के सफर को 'मोदी लाइव' में आसानी से समझा जा सकता है। नरेन्द्र मोदी को किन-किन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, कैसे उन्होंने विरोधियों की ओर से उछाले गए पत्थरों से मंजिल तक पहुंचने के लिए सीढ़ी बनाई, कैसे अपनों से मिल रही चुनौती से पार पाई, इन सवालों के जवाब आपको मिलेंगे मोदी लाइव में। इसके साथ ही श्री द्विवेदी ने बहुत से सवाल राजनीतिक विमर्श और शोध के लिए अपनी तरफ से प्रस्तुत किए हैं। निश्चित ही उन सवालों पर भविष्य में राजनीति के विद्यार्थियों को शोध करना चाहिए और राजनीतिक विचारकों को सार्थक विमर्श।
                पुस्तक के एक लेख 'भागवत, भाजपा और मोदी!' में श्री द्विवेदी उन तमाम विश्लेषकों का ध्यान दुनिया के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन के सफल प्रयोग की ओर दिलाते हैं, जिसके कारण भारतीय जनता पार्टी को ऐतिहासिक विजय मिली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को एक खास नजरिए से देखने वाले बुद्धिजीवी सदैव उसका गलत मूल्यांकन करते हैं। इस सच को सबको स्वीकार करना होगा कि आरएसएस राजनीतिक संगठन नहीं है लेकिन जब बात देश की आती है तो राजनीतिक परिवर्तन के लिए भी वह चुप रहकर काम करता है। लोकनायक जेपी के नेतृत्व में व्यवस्था परिवर्तन के लिए खड़ा किया गया आंदोलन हो या फिर आपातकाल के खिलाफ संघर्ष, आम समाज की नजर में संघ की भूमिका किसी से छिपी नहीं है। बावजूद इसके देश के तमाम तथाकथित बड़े साहित्यकार, इतिहासकार और बुद्धिजीवी संघ की भूमिका और ताकत को नजरंदाज ही नहीं करते बल्कि उसकी गलत व्याख्या करते हैं। श्री द्विवेदी अपने इसी लेख में बताते हैं कि किस तरह संघ ने 'मोदी प्रयोग' को सफल बनाया। वे लिखते हैं - ''संघ के क्षेत्र प्रचारकों ने अपने-अपने राज्यों में तगड़ी व्यूह रचना की और माइक्रो मॉनीटरिंग से एक अभूतपूर्व वातावरण का सृजन किया। चुनाव में मतदान प्रतिशत बढ़ाने और शत प्रतिशत मतदान के लिए संपर्क का तानाबाना रचा गया।'' संघ के इस प्रयास का खुले दिल से स्वागत करना चाहिए कि दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र के महायज्ञ की तैयारी की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठाने वाले चुनाव आयोग के अलावा आरएसएस ही एकमात्र ऐसा संगठन था जिसने अपनी पूरी ताकत मतदान प्रतिशत बढ़ाने में झोंक रखी थी। पुस्तक का आखिरी लेख भी संघ को समझने में काफी मदद करता है। वरिष्ठ पत्रकार भुवनेश तोमर ने इस बात का जिक्र बातचीत के दौरान किया था कि इस आम चुनाव में संघ की भूमिका का सही विश्लेषण किसी ने किया है तो वे संजय द्विवेदी ही हैं। वे बताते हैं कि यह संघ की ही तैयारी थी कि उत्तरप्रदेश में उम्मीद से अधिक अच्छा प्रदर्शन भाजपा ने किया।
                'मोदी लाइव' 22 आलेखों का संग्रह है। हर एक आलेख चुनाव से जुड़ी अलग-अलग जिज्ञासाओं का समाधान है। चुनाव के दौरान की परिस्थितियों का बयान करते आलेखों में मीडिया गुरु संजय द्विवेदी ने नरेन्द्र मोदी के नाम पर बौद्धिक प्रलाप कर रहे बुद्धिजीवियों के चयनित दृष्टिकोण पर भी सवाल उठाए हैं। उन्होंने ऐसे लेखकों को 'सुपारी लेखक' बताया है। लेखक ने लोकतंत्र में अलोकतांत्रिक तरीके से एक व्यक्ति के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाने वाले यूआर अनंतमूर्ति, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, के. सच्चिदानंद और प्रभात पटनायक जैसे स्वयंभू बुद्धिजीवियों को आड़े हाथ लिया है। मोदी का भय दिखाकर सदैव से मुस्लिम वोटबैंक की राजनीति करने वालों की हकीकत बयान की है। श्री द्विवेदी ने अपने एक आलेख में बताया है कि कैसे कांग्रेस सहित अन्य दल मुस्लिमों का अपनी राजनीतिक दुकान चलाने के लिए इस्तेमाल करते आए हैं। इसके अलावा इस अभूतपूर्व आम चुनाव में मीडिया की भूमिका, चुनाव से पहले अंगड़ाई लेने वाले तीसरे मोर्चे का वजूद, राष्ट्रीय दलों की स्थिति, परिवारवाद और अवसरवाद की राजनीति को समझने का मौका 'मोदी लाइव' में संग्रहित श्री द्विवेदी के चुनिंदा आलेख उपलब्ध कराते हैं।
                छत्तीसगढ़ सरकार के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने 99 पृष्ठों की बड़ी महत्वपूर्ण पुस्तक 'मोदी लाइव' की भूमिका लिखी है। 'मीडिया विमर्श' ने 30 मई को हिन्दी पत्रकारिता दिवस के मौके पर पुस्तक को प्रकाशित किया है। इसका आवरण शिल्पा अग्रवाल ने तैयार किया है। पुस्तक कितनी चर्चित और पाठकप्रिय हो गयी है, उसे यूँ समझिये कि एक ही माह बाद यानी 24 जून, 2014 को रानी दुर्गावती बलिदान दिवस के मौके पर मोदीलाइव का द्वितीय संस्करण प्रकाशित हो गया।l
पुस्तक : मोदी लाइव, लेखक : संजय द्विवेदी
मूल्य : 25 रुपये, पृष्ठ : 99
प्रकाशक : मीडिया विमर्श, एम.आई.जी.-37, हाऊसिंग बोर्ड कॉलोनी,
कचना, रायपुर (छत्तीसगढ़)-492001

ईमेल : mediavimarsh@gmail.com

सोमवार, 21 जुलाई 2014

कहां जाएं औरतें



-संजय द्विवेदी
        आखिर औरतें कहां जाएं? इस बेरहम दुनिया में उनका जीना मुश्किल है। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता (जहां नारियों की पूजा होती है देवता वहां निवास करते है)का मंत्रजाप  करने वाले देश में क्या औरतें इतनी असुरक्षित हो गयी हैं कि उनका चलना कठिन है। शहर-दर-शहर उन पर हो रहे हमले और शैतानी हरकतें बताती हैं कि हमारा अपनी जड़ों से नाता टूट गया है। अपने को साबित करने के लिए निकली औरत के खिलाफ शैतानी ताकतें लगी हैं। वे उन्हें फिर उन्हीं कठघरों में बंद कर देना चाहती हैं, जिन्हें सालों बाद तोड़कर वे निकली हैं।
     एक लोकतंत्र में होते हुए स्त्रियों के खिलाफ हो रहे जधन्य अपराधों की खबरें हमें शर्मिन्दा करती हैं। ये बताती हैं कि अभी हमें सभ्य होना सीखना है। घरों की चाहरदीवारी से बाहर निकली औरत सुरक्षित घर आ जाए ऐसा समाज हम कब बना पाएंगें? जाहिर तौर पर इसका विकास और उन्नति से कोई लेना-देना नहीं है। इस विषय पर घटिया राजनीति हो रही है पर यह राजनीति का विषय भी नहीं है। पुलिस और कानून का भी नहीं। यह विषय तो समाज का है। समाज के मन में चल रही व्यथा का है। हमने ऐसा समाज क्यों बनने दिया जिसमें कोई स्त्री,कोई बच्चा, कोई बच्ची सुरक्षित नहीं है? क्यों हमारे घरों से लेकर शहरों और गांवों तक उनकी व्यथा एक है? वे आज हमसे पूछ रही हैं कि आखिर वे कहां जाएं। स्त्री होना दुख है। यह समय इसे सच साबित कर रहा है। जबकि इस दौर में स्त्री ने अपनी सार्मथ्य के झंडे गाड़े हैं। अपनी बौद्धिक, मानसिक और शारीरिक क्षमता से स्वयं को इस कठिन समय में स्थापित किया है। एक तरफ ये शक्तिमान स्त्रियों का समय है तो दूसरी ओर ये शोषित-पीड़ित स्त्रियों का भी समय है। इसमें औरत के खिलाफ हो रहे अपराध निरंतर और वीभत्स होते जा रहे हैं। इसमें समाज की भूमिका प्रतिरोध की है। वह कर भी रहा है, किंतु इसका असर गायब दिखता है। कानून हार मान चुके हैं और पुलिस का भय किसी को नहीं हैं। अपराधी अपनी कर रहे हैं और उन्हें नियंत्रित करने वाले हाथ खुद को अक्षम पा रहे हैं। कड़े कानून आखिर क्या कर सकते हैं, यह भी इससे पता चलता है। अपराधी बेखौफ हैं और अनियंत्रित भी। स्त्रियों के खिलाफ ये अपराध क्या अचानक बढ़े हैं या मीडिया कवरेज इन्हें कुछ ज्यादा मिल रहा है। इसमें मुलायम सिंह यादव की जनसंख्या जैसी चिंताओं को भी जोड़ लीजिए तो भी हमारा पूरा समाज कठघरे में खड़ा है। स्त्री को गुलाम और दास समझने की मानसिकता भी इसमें जुडी है। पुरूष, स्त्री को जीतना चाहता है। वह इसे अपने पक्ष में एक ट्राफी की तरह इस्तेमाल करना चाहता है। यह मानसिकता कहां से आती है ?हमारे घर-परिवार, नाते-रिश्ते भी सुरक्षित नहीं रहे। छोटे बच्चों और शिशुओं के खिलाफ हो रहे अपराध और उनके खिलाफ होती हिंसा हमें यही बताती है। इसकी जड़ें हमें अपने परिवारों में तलाशनी होंगीं। अपने परिवारों से ही इसकी शुरूआत करनी होगी, जहां स्त्री को आदर देने का वातावरण बनाना होगा। परिवारों में ही बच्चों में शुरू से ऐसे संस्कार भरने होंगें जहां स्त्री की तरफ देखने का नजरिया बदलना होगा। बेटे-बेटी में भेद करती कहानियां आज भी हमारे समाज में गूंजती हैं। ये बातें साबित करती हैं और स्थापित करती हैं कि बेटा कुछ खास है। इससे एक नकारात्मक भावना का विकास होता है। इस सोच से समूचा भारतीय समाज ग्रस्त है ऐसा नहीं है, किंतु कुछ उदाहरण भी वातावरण बिगाड़ने का काम करते हैं। आज की औरत का सपना आगे बढ़ने और अपने सपनों को सच करने का है। वह पुरूष सत्ता को चुनौती देती हुयी दिखती है। किंतु सही मायने में वह पूरक बन रही है। समाज को अपना योगदान दे रही है। किंतु उसके इस योगदान ने उसे निशाने पर ले लिया है। उसकी शुचिता के अपहरण के प्रयास चौतरफा दिखते हैं। फिल्म, टीवी, विज्ञापन और मीडिया माध्यमों से जो स्त्री प्रक्षेपित की जा रही है, वह यह नहीं है। उसे बाजार लुभा रहा है। बाजार चाहता है कि औरत उसे चलाने वाली शक्ति बने, उसे गति देने वाली ताकत बने। इसलिए बाजार ने एक नई औरत बाजार में उतार दी है। जिसे देखकर समाज भौचक है। इस औरत ने फिल्मों,विज्ञापनों, मीडिया में जो और जैसी जगह घेरी है उसने समूचे भारतीय समाज को, उसकी बनी-बनाई सोच को हिलाकर रख दिया है। बावजूद इसके हमें रास्ता निकालना होगा।
  औरत को गरिमा और मान देने के लिए मानसिकता में परिवर्तन करने की जरूरत है। हमारी शिक्षा में, हमारे जीवन में, हमारी वाणी में, हमारे गान में स्त्री का सौंदर्य, उसकी ताकत मुखर हो। हमें उसे अश्लीलता तक ले जाने की जरूरत कहां है। भारत जैसे देश में नारी अपनी शक्ति, सौंदर्य और श्रद्धा से एक विशेष स्थान रखती है। हमारी संस्कृति में सभी प्रमुख विधाओं की अधिष्ठाता देवियां ही हैं। लक्ष्मी- धन की देवी, सरस्वती –विद्या की, अन्नपूर्णाः खाद्यान्न की, दुर्गा- शक्ति यानि रक्षा की। यह पौराणिक कथाएं भी हैं तो भी हमें सिखाती हैं। बताती हैं कि हमें देवियों के साथ क्या व्यवहार करना है। देवियों को पूजता समाज, उनके मंदिरों में श्रद्धा से झूमता समाज, त्यौहारों पर कन्याओं का पूजन करता समाज, इतना असहिष्णु कैसे हो सकता है, यह एक बड़ा सवाल है। पौराणिक पाठ हमें कुछ और बताते हैं, आधुनिकता का प्रवाह हमें कुछ और बताता है। हालात यहां तक बिगड़ गए हैं हम खून के रिश्तों को भी भूल रहे हैं। कोई भी समाज आधुनिकता के साथ अग्रणी होता है किंतु विकृतियों के साथ नहीं। हमें आधुनिकता को स्वीकारते हुए विकृतियों का त्याग करना होगा। ये विकृतियां मानसिक भी हैं और वैचारिक भी। हमें एक ऐसे समाज की रचना की ओर बढ़ना होगा,जहां हर बच्चा सहअस्तित्व की भावना के साथ विकसित हो। उसे अपने साथ वाले के प्रति संवेदना हो, उसके प्रति सम्मान हो और रिश्तों की गहरी समझ हो। सतत संवाद, अभ्यास और शिक्षण संस्थाओं में काम करने वाले लोगों की यह विशेष जिम्मेदारी है। समस्या यह है कि शिक्षक तो हार ही रहे हैं, माता-पिता भी संततियों के आगे समर्पण कर चुके हैं। वे सब मिलकर या तो सिखा नहीं पा रहे हैं या वह ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं है। जब उसका शिक्षक ही कक्षा में उपस्थित छात्र तक नहीं पहुंच पा रहा है तो संकट  और गहरा हो जाता है। हमारे आसपास के संकट यही बताते हैं कि शिक्षा और परिवार दोनों ने इस समय में अपनी उपादेयता पर सवाल खड़े कर दिए हैं। स्त्रियों के खिलाफ इतना निरंतर और व्यापक होता अपराध, उनका घटता सम्मान हमें कई तरह से प्रश्नांकित कर रहा है। यहां बात प्रदेश, जिले और गांव की नहीं है, यही आज भारत का चेहरा है। कर्नाटक से लेकर उत्तर प्रदेश से एक जैसी सूचनाएं व्यथित करती हैं। राजनेताओं के बोल दंश दे रहे हैं और हम भारतवासी सिर झुकाए सब सुनने और झेलने के लिए विवश हैं। अपने समाज और अपने लोगों पर कभी स्त्री को भरोसा था, वह भरोसा दरका नहीं है, टूट चुका है। किंतु वह कहां जाए किससे कहे। इस मीडिया समय में वह एक खबर से ज्यादा कहां है। एक खबर के बाद दूसरी खबर और उसके बाद तीसरी। इस सिलसिले को रोकने के लिए कौन आएगा, कहना कठिन है। किंतु एक जीवंत समाज अपने समाज के प्रश्नों के हल खुद खोजता है। वह टीवी बहसों से प्रभावित नहीं होता, जो हमेशा अंतहीन और प्रायः निष्कर्षहीन ही होती हैं। स्त्री की सुरक्षा के सवाल पर भी हमने आज ही सोचने और कुछ करने की शुरूआत नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

रविवार, 13 जुलाई 2014

भाजपा की उम्मीदों का चेहरा हैं अमित शाह


पार्टी में पीढ़ीगत परिवर्तन के प्रतीक हैं नए राष्ट्रीय अध्यक्ष
-संजय द्विवेदी
    भारतीय जनता पार्टी के नए अध्यक्ष अमित शाह की ताजपोशी सही मायने में दल की बदलती हुई राजनीति की बानगी पेश करती है। एक समय के साथ चलती हुयी पार्टी किस तरह से अपने राजनीतिक नेतृत्व और सांगठनिक नेतृत्व में बदलाव करती है, भाजपा इसका उदाहरण है। नरेंद्र मोदी को सरकार और अमित शाह को संगठन की कमान सौंपने की घटना यही बताती है।
   अमित शाह नए जमाने के नेता हैं और गुजरात से लेकर उत्तर प्रदेश तक अपने संगठन कौशल, प्रबंधन क्षमता और चुनावी रणनीति के जानकार के रूप धाक जमा चुके हैं। जाहिर तौर पर किसी भी राजनीतिक दल के लिए ऐसा व्यक्ति उपयोगी ही कहा जाएगा। उनकी नियुक्ति पर भाजपा के भीतर कम, बाहर ज्यादा हाहाकार है। यह बताता है अमित शाह में विरोधियों को भी संभावनाएं दिख रही हैं। एक ही राज्य से आने के साथ-साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वे गुजरात मंत्रिमंडल में भी अभिन्न सहयोगी रहे हैं। यानि सत्ता और संगठन की राह अब एक होगी। वे अलग-अलग मार्गों पर नहीं चलेंगें और सुर भी एक होगा।
  भाजपा एक अलग तरह से चलने वाला संगठन है। यह एक परिवार के बजाए आरएसएस के विचार परिवार से आए लोगों द्वारा चलाई जाने वाली पार्टी है। राजनीतिक क्षेत्र में होने के नाते भाजपा ने समय-समय पर विचारधारा से समझौते किए और सत्ता पाई। कई नीतियों पर आज भी भाजपा और संघ के मतभेद सामने आते रहते हैं। किंतु आरएसएस के लोग यह मानते रहे कि अल्पमत में होने के नाते भाजपा का ऐसा करना मजबूरी है। किंतु इस बार पूर्ण बहुमत की सरकार पाकर संघ का आशावाद चरम पर है। वह किसी कीमत पर इस अवसर को गंवाना नहीं चाहता है। उसे पता है कि सत्ता की राह रपटीली होती है और यह फिसलन भरा रास्ता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आकर्षक नेतृत्व और प्रभावी भाषणकला के बावजूद कुछ ऐसी बातें है जो सरकार की छवि बनाने के लिए जरूरी हैं। इसलिए पहले दिन से ही मंत्रियों से लेकर सांसदों तक को सहयोगियों को सावधानी से चुनने की हिदायतें दी जा रही हैं। पार्टी के सत्ता में आने के बाद दल का प्रभावशाली नेतृत्व सरकार में जा चुका है। ऐसे समय में संगठन की शक्ति को सहेजने और अपनी चुनावी मिशनरी को सजग रखने के लिए एक ऐसे व्यक्तित्व की जरूरत थी, जिसमें नरेंद्र मोदी की छवि भी दिखे और वह नरेंद्र मोदी को भरोसे में लेकर सरकार से प्रभावी फैसले भी करवा सके। अमित शाह की जगह कोई भी अध्यक्ष होता तो उसे नरेंद्र मोदी के यस मैन सरीखा ही व्यवहार करना पड़ता अन्यथा टकराव के रास्ते खुल जाते। किंतु अमित शाह की शख्सियत ऐसी है कि वे नरेंद्र मोदी के सामने अपनी बात न सिर्फ रख सकते हैं बल्कि मनवा भी सकते हैं। वहीं संगठन में उनकी भूमिका इसलिए प्रभावी होगी क्योंकि यह माना जाएगा कि शाह जो कह रहे हैं, उसमें मोदी की सहमति जरूर होगी। यह सही मायने में भाजपा के एक सुनहरे दौर की शुरूआत है। जहां सत्ता और संगठन पर दो अलग-अलग और प्रभावी शख्सियतों की उपस्थिति के बावजूद उनमें संघर्ष नहीं समन्वय देखने को मिलेगा। भाजपा जैसी पार्टी में संघ के आए प्रचारकों और पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं का खासा प्रभाव है, किंतु आप भाजपा के संविधान को देखें तो वह दरअसल अध्यक्ष को बहुत शक्तिमान बनाता है। सही मायने में यह अध्यक्ष का ही दल है। पार्टी में विचारों की बहुलता के बावजूद एक समन्वय दिखता है। शायद इसीलिए भाजपा ने देश के किसी भी राजनीतिक दल से ज्यादा अध्यक्ष बनाए और हटाए हैं। शेष दलों में दशकों तक कोई परिवर्तन नहीं होता और कई में तो लोग मृत्यु तक अध्यक्ष बने रहते हैं किंतु भाजपा लगातार बदलती हुयी पार्टी है और एक नदी की धारा की तरह चल रही है। विचारधारा के प्रति कभी आक्रामक और कभी समझौतावादी रूख अपनाने के बावजूद अब वह पूरी तरह से सत्ता का दल बन चुकी है, इसमें संदेह नहीं है। उसके पास आज नेताओं की एक लंबी श्रृंखला है जिनमें हर जाति, वर्ग, धर्म तथा क्षेत्रीयताओं का नेतृत्व मौजूद है। अपने भौगोलिक और सामाजिक विस्तार को उसने साबित भी किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि अमित शाह एक रणनीतिकार होने के नाते एक इसे और आगे बढ़ाएंगें। गुजरात, उत्तर प्रदेश और बिहार के प्रयोग के बाद अमित शाह दरअसल भाजपा की उम्मीदों का चेहरा भी हैं। यह भी महत्व की बात है कि शाह केंद्रीय मंत्रिमंडल में जाने के बजाए दल के अध्यक्ष के रूप में कार्य करना स्वीकार करते हैं। इससे पता चलता है कि नरेंद्र मोदी और उनके रणनीतिकारों की नजर में संगठन की सतत सक्रियता बनाए रखने का भी मानस बना हुआ है।
    नरेंद्र मोदी सरकार के प्रयोग पर दरअसल आरएसएस का बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है। इसलिए वह इस अवसर को खोना नहीं चाहता। पहले प्रचारक प्रधानमंत्री की सफलता से उसका राजपथ मजबूत बनेगा, वहीं जनता के मन में उसकी विचारधारा के प्रति आस्था बनेगी। आप देखें तो संघ राजनीति के प्रति इतिहास के समूचे समय में इतना उत्सुक कभी नहीं दिखा। क्योंकि चाहे-अनचाहे यह बात लोगों तक पहुंच चुकी है, इस सरकार को बनाने में संघ का प्रत्यक्ष योगदान बहुत ज्यादा है। इसमें संघ का बेहतर पक्ष यह है कि वह व्यक्तियों की नहीं, नीतियों की बात कर रहा है। उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह फ्री हैंड दिया है कि वे व्यक्तियों के चयन में तो अपनी चलाएं पर नीतियों से समझौता न करें। नीतियों और कार्यक्रमों को लेकर संघ की बातचीत के शुभ फलितार्थ देश को प्राप्त होंगें, इसमें दो राय नहीं हैं। एक दल के नाते भाजपा के अध्यक्ष पद पर अमित शाह की ताजपोशी बताती है, भाजपा सत्ता पाकर अभी भरी और संतुष्ठ नहीं हैं। सरकार आने पर आमतौर पर संगठन हाशिए पर और दरकिनार कर दिया जाता है। यह फैसला बताता है भाजपा सत्ता पाकर बहुत ज्यादा मुदित नहीं है वह अपने संगठन को और बेहतर और प्रभावी बनाना चाहती है, तभी उसने आलोचनाओं को दरकिनार करते हुएचुनावी समर-2014 में अपने सबसे बेहतर सेनापति साबित हुए अमित शाह को संगठन का ताज पहनाया है। यह अमित शाह के लिए पुरस्कार भी है और अपेक्षित परिणाम लाने की चुनौती भी । उनके लिए उन इलाकों में भाजपा का कमल खिलाने की चुनौती अभी भी है, जहां आज भी भाजपा का शून्यकाल चल रहा है। दक्षिण के राज्यों और पूर्वोत्तर पर उन्हें ज्यादा फोकस करने के साथ, जीती हुयी जमीनें भी बचाने के जतन करने होगें। इसके साथ ही जिन पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं वहां भाजपा को अपेक्षित सफलता भी दिलानी होगी। संगठन का मंच तो हमेशा कांटों का ताज होता है, पार्टी सत्ता में हो तो यह चुनौती और कठिन हो जाती है। अमित शाह ने बहुत सारे संकटों को पार कर यहां तक की यात्रा की है, उनका दिल्ली आना उन्हें कितना रास आता है इस सवाल के जवाब के लिए थोड़ा इंतजार करना पड़ेगा।


रविवार, 6 जुलाई 2014

मौसम की तरह तुम भी बदल तो न जाओगे


-संजय द्विवेदी
    उनका संकट यह है कि उन्हें अरसे बाद देश में एक ऐसी सरकार का नेतृत्व करने का अवसर मिला है, जो पूर्ण बहुमत की सरकार है। जिसके साथ प्रबल जनादेश और जनांकांक्षाएं संयुक्त हैं। जाहिर तौर पर समर्थ राजनीतिक नेतृत्व के बिना दस साल तक चली यूपीए सरकार के मुकाबले वे ज्यादा आदमकद और सरोकारी राजनेता हैं। गुजरात में अपने कामकाज और बेहद धारदार चुनाव अभियान चलाकर वे वैसे भी आकांक्षाओं का विस्तार जरूरत से ज्यादा कर चुके हैं। नरेंद्र मोदी का वर्णन इससे ज्यादा भी किया जा सकता है, किंतु मोदी अब केंद्रीय सत्ता में हैं जो उनके लिए एक अनजानी जगह है।
   यहां यह भी स्वीकारना होगा कि उनके विरोधी बेहद चतुर-चालाक और सत्ता संविमर्श में दशकों से लगे हुए लोग हैं। वे इतने टीवी और मीडिया चपल हैं कि एक महीने में ही अच्छे दिन आने वाले हैं के नारे को एक मजाक में बदल चुके हैं। यह देखना भी रोचक है कि मप्र से लेकर दिल्ली तक कांग्रेस अब महंगाई और भ्रष्टाचार के खिलाफ सड़क पर संघर्ष कर रही है। तो क्या महंगाई अलग-अलग होती है? मनमोहन और मोदी की महंगाई का अंतर क्या है? जाहिर तौर पर जनता को इन सवालों से मतलब नहीं होता, उसे राहत चाहिए, जीवन जीने की न्यूनतम जरूरतें पूरी होनी चाहिए। उसे राज और ताज बदलने से बहुत मतलब नहीं होता। उसने बदलाव इसी आशा से किया है कि उसके अच्छे दिन आएंगें। क्योंकि चुनावी मैदान में यह वादा करने वाले मोदी अकेले थे इसलिए जनता ने उनके सर्वाधिक सांसदों को चुनकर भेजा। शेष राजनीतिक दल महंगाई, भ्रष्टाचार और निर्णयहीनता से लड़ने के बजाए मोदी को रोकने में लगे थे, ऐसे में मोदी को वे अतिरिक्त ताकत और सहानुभूति दोनों दे रहे थे। इस अभूतपूर्व चुनाव के परिणाम बताते हैं कि लोग आज भी उम्मीदों से खाली नहीं हैं और वे एक नई तरह की राजनीति को जन्म देना चाहते हैं। राजनीतिक दलों के तमाम किंतु-परंतु के बावजूद देश की जनता एक नई राजनीतिक शैली को पसंद कर रही है और उसे ताकत दे रही है।
   एक विशाल देश की आकांक्षाएं और सपने जाहिर तौर पर एक नहीं हो सकते। दिल्ली को इसे समझकर कदम उठाने होंगें किंतु देश आगे बढ़े और जनता का एजेंडा राजनीति का भी एजेंडा बने यह सोच सबकी है। सत्ता पर नियंत्रण और राजनीतिक दलों पर सामाजिक समूहों का निरंतर दबाव जरूरी है। वरना सत्ता मनमाने व्यवहार से जनविरोधी चरित्र जल्दी ही ओढ़ लेती है। पांच साल का जनादेश उसे शासन करने का प्रमाणपत्र लगने लगता है। एक अतिरिक्त अहंकार के बोझ से दबी हमारी राष्ट्रीय राजनीति और नौकरशाही की नजर में हम भारतीय सबसे निकम्मे,काहिल और बेईमान लोग दिखने लगते हैं। दिल्ली में बैठे राजपुत्रों को दो समय के भोजन के बंदोबस्त में जुटा भारत नजर नहीं आता है और यहीं जनता और सत्ता से रिश्ते टूट जाते हैं। अंग्रेजी राज की मानसिकता और अंग्रेजी कानूनों से देश आज भी मुक्त नहीं है। जनसेवक और लोकसेवक की परिभाषा में आने वाले पदाधिकारी आज भी अपने को साहब कहलाना पसंद करते हैं, उनके लिए आमजन तो सेवक और नौकर सरीखे ही होंगें। जिस मानसिकता से अंग्रेज नौकरशाही हम भारतीयों को हेय दृष्टि से, हिकारत की नजर से देखती थी, हमें काहिल-कामजोर, नमक हराम समझकर दमनचक्र चलाती थी, उसमें बदलाव कहां आया है? साहब आज भी साहब है। लोकतंत्र के सात दशक की यात्रा सिर्फ आम भारतीय के अपमान और तिरस्कार की यात्रा बनकर रह गयी है। पांच रूपए, एक रूपए में भरपेट भोजन हमें मिलता है, यह बताने वाली राजनीति और नौकरशाही की खुद की एक थाली कितने में पड़ती है, उसका भी हिसाब लेने की जरूरत है। अखबार आपको बता ही रहे हैं एक गरीब राज्य छत्तीसगढ़ के विधानसभा अध्यक्ष के बंगले में कितने एसी लगाए गए हैं। यह प्रतीकात्मक सूचनाएं बताती हैं कि हिंदुस्तान कहां से और कितना बदला है।
  सरकारी अफसरों की अकड़, हेकड़ी और देहभाषा देखिए उनके लिए आम जनता तो छोड़िए सामान्य आम जनप्रतिनिधि भी कोई मायने नहीं रखता। उन्हें साहब कहलाना और साहबी दिखाना पसंद है। जिस भारतीय आम जन को हम निकम्मा समझने की अंग्रेजी सरकार की मानसिकता से ग्रस्त हैं, अपना चश्मा उतारेंगें तो आपको इनमें ही श्रमदेव और श्रमदेवियां नजर आएंगीं। एक गरीब देश और उसके अमीर शासक। यह देश अफसरों की फौज और राजनेताओं को इतनी सुविधाएं साधन इसलिए दे रहा है कि ये इन सुविधाओं को पाकर अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ जनता के एजेंडे पर काम करेंगें। किंतु सत्ता पाकर लोगों की दृष्टि और सृष्टि दोनों बदल जाती है।
     दिल्ली की सत्ता पर ऐसे समय में नरेंद्र मोदी का आगमन एक ठंडी हवा के झोंके की तरह है, क्योंकि वे मनमोहन सिंह की तरह इंडिया नहीं भारत के प्रतिनिधि हैं। वे गांवों के दर्द, उसकी गरीबी और संघर्ष को जानते हैं। दिल्ली उन्हें बदल न सके इसके लिए हम सबको प्रार्थना करनी चाहिए। उनके जीवन के अनुभव और उनकी समूची जीवन यात्रा उम्मीदों को जागने वाली है। देश ने उनके इसी देशीपने पर मुग्ध होकर उन्हें स्वीकारा है। खतरा यहीं बड़ा है कि वे जनादेश पा चुके हैं और लुटियंस जोन को क्रेक कर चुके हैं। कल तक जो ताकतें उन्हें दिल्ली न आने देने के लिए सारे जुगत लगा रही थीं और इसमें उनके दल के अंदर-बाहर के लोग भी शामिल थे, अब वे उनका अनूकूलन करने का प्रयास करेंगें। दिल्ली आपको अपने जैसा बना लेती है या फिर वेबफा हो जाती है। नरेंद्र मोदी अपार जनशक्ति से समर्थन से वहां पहुंचे हैं तो उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस जनविश्वास की रक्षा करते हुए शासन-प्रशासन में आम आदमी के लिए ज्यादा संवेदना का विस्तार करेंगें। वे उन इलाकों पर भी ध्यान देंगें जहां असली नक्सलियों से ज्यादा लूट और अत्याचार शासन का खुद का तंत्र और उद्योंगों कर रहे हैं। वे इस बात को समझने की कोशिश करेंगें कि क्यों जमीनों, जंगलों और पानी की लूट का माहौल बना हुआ है और उन लोगों की परवाह किए बिना जो इन संसाधनों पर अपना पहला हक रखते हैं। सवाल यह भी हैं कि सरकार एक व्यापारी की तरह काम करेगी या एक संवेदनशील मानवीय आचरण भी करेगी। दिल्ली की बेरहमी के किस्से हमारे इतिहास में बिखरे पड़े हैं। दिल्ली के बारे में हमारे समय के एक बड़े कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं-
दिल्ली हमका चाकर कीन्ह
दिल दिमाग भूसा भर-दीन्ह।

  इतिहास की इस घड़ी में समूचा देश नरेंद्र मोदी को दिल्ली में रहकर भी देशी आदमी बने रहने की प्रार्थना प्रभु से कर रहा है। वह उम्मीद कर रहा है कि वे देश की राजधानी को उस सोच से मुक्त कराएंगें जिसमें आम भारतीय के बारे में अच्छी धारणा नहीं है। उस प्रशासन तंत्र में संवेदना भरने का काम भी करेंगें जिसे भारतीयता, उसके मूल्यों, संस्कृति और यहां के लोगों से दूरी बनाना ही पसंद है। वह भारतीय मेघा का सम्मान करने वाला वातावरण भी बनाने का काम करेंगें। हिंदुस्तान को समझकर झकझोरने और इस देश की एकता के लिए गुजरात से आए नायकों स्वामी दयांनद, महात्मा गांधी और सरदार पटेल ने अभूतपूर्व काम किया है। सही मायने में हमारे अंदर सोये हुए मनुष्य को जगाने, झकझोरने और एक भारतीय दृष्टि से सोचने का जो जज्बा महात्मा गांधी ने हमें दिया वह आज हमारा मार्गदर्शक हो सकता है। गुजरात की घरती से आने के नाते, अपने पूर्व जीवन के अनुभवों के आधार पर नरेंद्र मोदी अगर कुछ कर पाते हैं तो यही बात देश के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी। ऐसे में उन्हें यह परवाह करने की जरूरत नहीं है कि देश के प्रभु वर्गों में उनको लेकर क्या राय बनती है। उन्हें तो देश की महान जनता पर भरोसा करना चाहिए, जिसने उन्हें भारत जैसे महादेश की कमान तब सौंप दी जब हर प्रभावी विचार, व्यक्ति, बुद्धिजीवी और संस्थाएं उनके दिल्ली की तरफ बढ़ रहे अश्वमेघ को रोकने के लिए हम संभव उपाय अपना रहे थे। दिल्ली उन्हें अनूकूलित करने के प्रयासों में विफल होती है तो नरेंद्र मोदी को इतिहास पुरूष बनने से कोई रोक नहीं सकता। वे विश्व इतिहास के एक ऐसे नायक बनेंगें जिस पर हमारी पीढियों को गर्व होगा और वे कहेंगी कि हमने नरेंद्र मोदी को देखा था।

शनिवार, 28 जून 2014

कुछ ज्यादा ही हड़बड़ी में हैं मोदी के आलोचक !


-संजय द्विवेदी
    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जनाकांक्षाओं के उस उच्च शिखर पर विराजे हैं जहां से उन्हें नीचे ही आना है। चुनावी सभाओं में उनकी वाणी पर मुग्ध राष्ट्र उन्हें मुक्तिदाता मानकर वोट कर चुका है। किंतु हमें समझना होगा कि यह टीवी समय है। इसमें टीवी को हर दिन एक शिकार चाहिए। टीवी चैनलों को मैदान में गए बिना और कोई खर्च किए बिना बन जाने वाली उत्तेजक टीवी बहसें चाहिए, जो निश्चय ही किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचती और उनका एजेंडा पहले से सेट होता है। इसमें अतिथि वक्ता और एंकर की जुगलबंदियां भी अब दिखने लगी हैं। जाहिर तौर इन बहसों का सबसे आसान शिकार सरकार ही होती है। कल तक जो सत्ता में थे वे इसके शिकार बने और अब नरेंद्र मोदी सरकार इसके निशाने पर है।
   आप देखें तो नरेंद्र मोदी जिन ताकतों के घता बताकर दिल्ली के शासक वर्गों को चुनौती देते हुए वहां पहुंचे हैं। वे आसानी से उन्हें स्वीकार कहां करने वाले हैं। भाजपा और संघ परिवार का संकट यह है कि उनके पास न तो बौद्धिक योद्धाओं की लंबी-चौड़ी जमात है, न ही राजनीतिक-सामाजिक-मीडिया विमर्श को नई राह दिखाने वाले व्याख्याकार। ये व्याख्याकार और टिप्पणीकार वही हैं जिन्हें मोदी और उनकी सरकार पहले दिन से नापसंद है। वे उस सिर्फ उस विचार से नफरत नहीं करते जिसे नरेंद्र मोदी मानते हैं, उन्हें नरेंद्र मोदी से व्यक्तिगत धृणा भी है।  शायद इसीलिए सरकार के साधारण फैसलों पर जैसा मीडिया हाहाकार व्याप्त है, वह आश्चर्य में डालता है। नई सरकार भी इससे घबराई हुयी लगती है और उसका प्रबंधन कमजोर नजर आता है। क्या ही अच्छा होता कि रेलभाड़ा बजट में ही बढाया जाता और यदि तुरंत बढ़ाना जरूरी था तो सरकार समूचे तर्कों के साथ जनता के बीच आती और बताती कि रेलवे के आर्थिक हालात यह हैं, इसलिए किराया वृद्धि जरूरी है और किराया बढ़ाने से जो धन आ रहा है उससे सरकार क्या करने जा रही है। नरेंद्र मोदी का सम्मोहन अभी टूटा नहीं है, जनता उनकी हर बात को स्वीकार करती। वे टीआरपी दिलाते हैं, इसलिए उनकी बात जनमाध्यमों से अक्षरशः लोगों को पहुंचती। किंतु मोदी ने भी लंबी खामोशी की चादर ओढ़ ली और लंबे समय बाद एक बयान ट्विटर पर दिया जिसमें समाधान कम तल्खी और दुख ज्यादा था। नरेंद्र मोदी को यह समझना होगा कि वे वास्तव में इस देश के प्रभुवर्गों, शासक वर्गों, वैचारिक दुकानें चलाने वाले बहसबाजों, नामधारी और स्वयंभू बौद्धिकों और टीवी चर्चाओं में मशगूल दिल्लीवालों के नेता नहीं है, वे उन्हें नेता मान भी नहीं सकते क्योंकि मोदी उनकी सारी समझ को चुनौती देकर यहां पहुंचे हैं। मोदी को जनता को प्रधानमंत्री चुन लिया है किंतु यह वर्ग उन्हें मन से स्वीकार नहीं कर पाया है। इसलिए मोदी सही कहते हैं कि उन पर 100 घंटे में हमले तेज हो गए। लोकतंत्र की इस त्रासदी से उन्हें कौन बचा सकता है? जबकि उनके पास सांसदों का संख्या बल और जनसमर्थन तो है किंतु बौद्धिकों का खेमा जो यूपीए-3 के इंतजार में बैठा था, उसे मोदी कहां सुहाते हैं।
   यह सोचना कितना रोमांचक है कि यूपीए-3 की सरकार केंद्र में बन जाती तो उसके नेताओं की देहभाषा और प्रतिक्रिया क्या होती? जिस लूट तंत्र और दंभी शासन को उन्होंने दस साल चलाया और मान-मर्यादाओं की सारी हदें तोड़ दीं, उसके बावजूद वे सरकार बना लेते तो क्या करते? यह सोच कर भी रूहें कांप जाती हैं। किंतु जनता का विवेक सबसे बड़ा है वो टीवी बहसबाजों और बौद्धिक जमातों पर भारी है। जनता के केंद्र में भारत है, उसके लोग हैं, उनका हित है किंतु हमारी बौद्धिक जमातों के लिए उनकी कथित विचारधारा, सेकुलरिज्म का नित्य आलाप, उनकी समाज तोड़क सोच देश से बड़ी है। वे ही हैं जो कश्मीर में देशतोड़कों के साथ खड़े हैं, वे ही हैं जो माओवादी आतंक के साथ खड़े हैं, वे ही हैं जो जातियों,पंथों की जंग में अपने राजनीतिक विचारों को पनपते हुए देखना चाहते हैं, वे ही हैं जो यह मानने को तैयार नहीं है कि भारत एक राष्ट्र है। वे इसे अंग्रेजों द्वारा बनाया गया राष्ट्र मानते हैं। इसलिए उन्हें सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसे शब्दों से नफरत है। वे गांधी, लोहिया, दीनदयाल और जयप्रकाश के सपनों का देश बनते नहीं देखना चाहते। उन्हें पता है कि भारत का अगर भारत से परिचय होता है तो उनके समाज तोड़क नकारात्मक विचारों की दूकान बंद हो जाएगी। इसलिए वे मोदी के चुनावी नारे अच्छे दिन आने वाले हैं का मजाक इसलिए बनाते हैं क्योंकि कुछ जरूरी चीजों के दाम बढ़ गए हैं। किसे नहीं पता था कि चुनाव के बाद चीजों के दाम बढ़ेंगें? किसे नहीं पता था कि सरकारों को देश चलाने के लिए कुछ अप्रिय कदम उठाने पड़ते हैं? किसे नहीं पता था कि चुनावी नारे और सरकारें चलाने कि वास्तविकता में अंतर होता है? सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना और अपने रचे नकारात्मक विचारों के संसार में विचरण करने वालों की चिंताओं को छोड़िए। यह भी देखिए कि सरकार के कदम उसकी नीयत कैसे बता रहे हैं। कोई सरकार कैसे काम करेगी, उसके प्राथमिक यह कदम बता देते हैं। मोदी का पहला महीना चीनी, रेलवे भाड़ा बढ़ाने वाला साबित हुआ है किंतु हमें यह भी सोचना होगा कि हमारी अर्थव्यवस्था को अभी लंबी यात्रा तय करनी है। देश का बजट ही उसकी दिशा तय करेगा। वित्तमंत्री अरूण जेतली के बजट का अभी सभी को इंतजार है। उससे ही सरकार के सपनों और उम्मीदों की दिशा तय होगी। इतना तय है कि सरकार की नीयत पर अभी शक नहीं किया जा सकता। मोदी ने जिस तरह प्रधानमंत्री पद संभालते ही काले धन  का पता लगाने के लिए  विशेष जांच दल का गठन किया वह बताता है कि सरकार को अपने संकल्प याद हैं और वह सत्ता पाकर सब कुछ भूल नहीं गयी है। इसके साथ ही मंत्रियों और अपने सांसदों को नियंत्रित करने के लिए, उनके सार्वजनिक व्यवहार व आचरण को ठीक रखने के लिए जो प्रयत्न किए जा रहे हैं वे साधारण नहीं हैं और शायद भारतीय राजनीति में यह पहली बार हैं। पिछली सरकार में प्रधानमंत्री कुछ करने और कहने के पहले को कहीं और से सिग्नल का इंतजार करना पड़ता था। शासक की यह दयनीयता तो मोदी सरकार में शायद ही दिखे।

  कमजोर मानसून को लेकर सरकार की चिंताएं लगातार हो रही बैठकों से व्यक्त हो रही है। यह बात बताती है कि सरकार को अपनी चिंताओं का पूर्व में ही आभास है। कृषि मंत्रालय ने देश के 500 जिलों के लिए आकस्मिक योजना तैयार की है। खाद्य सुरक्षा कानून लागू करने के लिए राज्यों को तीन माह का वक्त और दिया गया है। इसके साथ ही जमाखोरी को रोकने के लिए राज्यों को त्वरित अदालतें गठित करने को कहा गया है। मोदी सरकार के एक महीने आधार पर उनकी सरकार के बारे में कोई राय बना पाना संभव नहीं दिखता। किंतु जो लोग नरेंद्र मोदी को जानते हैं उन्हें पता है कि मोदी जल्दी ही दिल्ली को समझ जाएंगें और सत्ता के सूत्रों को पूरी तरह नियंत्रण में ले लेगें। गुजरात जैसे छोटे राज्य में शासन करना और दिल्ली की सरकार चलाना दोनों एक ही चीज नहीं हैं। संघीय ढांचे में केंद्र की ज्यादातर योजनाओं का क्रियान्वयन राज्यों की मिशनरी ही करती है। जाहिर तौर पर मोदी राज्यों को विश्वास में लेकर एक वातावरण बना रहे हैं, जो विकास और सुशासन की ओर जाता हुआ दिखता है। एक ऐसे समय में जब देश निराश-हताश हो चुका था, दिल्ली की राजसत्ता पर मोदी का आना निश्चय ही नई सरकार के साथ ढेर सारी अपेक्षाओं को बढ़ाता है। जाहिर तौर पर यह यूपीए-3 नहीं है, इसलिए इससे उम्मीदें ज्यादा हैं और यह आशा भी है कि कम से कम यह सरकार भ्रष्ट और जनविरोधी नहीं होगी। इतना तो देशवासी भी मानते हैं कि यह सरकार फैसले लेने वाली और सपनों की ओर दौड़ लगाने वाली सरकार होगी। यह भी अच्छा ही है कि नरेंद्र मोदी के आलोचक इतने सशक्त हैं कि वे उन्हें भटकने भी नहीं देंगें।

रविवार, 22 जून 2014

स्त्रियों के खिलाफ बुरी खबरों का समय



-संजय द्विवेदी

  यह शायद बेहद खराब समय है, जब औरतों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों की खबरें रोजाना हमें हैरान कर रही हैं। भारत में औरतों के खिलाफ हो रहे ये अत्याचार बताते हैं कि प्रगति और विकास के तमाम मानकों को छू रहे इस देश का मन अभी भी औरत को एक खास नजर से ही देखता है। स्त्री के प्रति अपेक्षित संवेदनशीलता का विस्तार अभी न समाज में हुआ है, न पुलिस में, न ही परिवारों में। सोचने का विषय यह भी है कि नवरात्रि के साल में दो बार आने वाले पर्व में कन्या पूजन करने वाला समाज स्त्री के प्रति इतना असहिष्णु कैसे हो सकता है? इसके साथ ही घरेलू हिंसा का एक अलग संसार है, जहां परिजन और रक्त संबंधी ही स्त्री के खिलाफ अत्याचार करते हुए दिखते हैं।
   स्त्री के खिलाफ हो रही हिंसा में स्त्री की भी उपस्थिति चौंकाने वाली है। यानि स्त्री भी अपने ही वर्ग के खिलाफ हो रही हिंसा में उसी उत्साह से शामिल है जैसे पुरूष। यह देखना और सुनना दुखद है किंतु सच है कि स्त्री के खिलाफ हिंसा की जड़ें समाज में बहुत गहरी जम चुकी हैं। आर्थिक स्वालंबन और प्रतिकार कर रही स्त्री के इस अनाचार के विरूद्ध खड़े होने से ये मामले ज्यादा संख्या में सामने आने लगे हैं। प्रकृति प्रदत्त कोमलता और कमजोरियों के नाते स्त्री के खिलाफ समाज का इस तरह का रवैया ही था, जिसके नाते सरकार को घरेलू हिंसा रोकथाम के लिए 2006 में एक कानून लाना पड़ा। इसके बाद दिल्ली में हुए निर्भया कांड ने सारे देश को झकझोरकर रख दिया। इस बीच बदांयू और उप्र के अनेक स्थानों से बेहद शर्मनाक खबरें आईं। निर्ममता और वहशियत की ये कहानियां बताती है समाज आज भी उसी मानसिकता में जी रहा है जहां औरतें को इस्तेमाल की वस्तु समझा जाता है। हम देखें तो हमारे पूरे परिवेश में ही स्त्री को एक कमोडिटी की तरह स्थापित करने के प्रयास चल रहे हैं। मनोरंजन, फिल्मों और विज्ञापनों की दुनिया में ये सच्चाई और नंगे रूप में सामने आती है। जहां औरतें एक वस्तु की तरह उपस्थित हैं। उन्हें सेक्स आब्जेक्ट की तरह प्रस्तुत करने पर जोर है। वे विज्ञापनों में ऐसी वस्तुएं भी बेचती नजर आ रही हैं जिसका वे स्वयं इस्तेमाल नहीं करतीं। रूपहले स्क्रीन के बाजार में उतरी इस बोल्ड-बिंदास-लगभग निर्वसन स्त्री ने, समाज में रह रही स्त्री का जीना मुहाल कर दिया है।

   पल-पल सजे बाजार में उपस्थित स्त्री के सपने और उसकी दुनिया को इस समय ने बेहद सीमित कर दिया है। उसके लिए अवसर बढ़े हैं, किंतु सुरक्षा घट रही है। वह चमकते परदे पर बेहद शक्तिशाली दिखती है, किंतु उसके घर पहुंचने तक चिंतांएं उतनी ही गहरी हैं, जितनी पहले हुए करती थीं। द सेंकेंड सेक्स की लेखिका सिमोन लिखती हैं कि स्त्री बनती नहीं है, उसे बनाया जाता है। जाहिर है सिमोन के समय के अनुभव आज भी बदले नहीं हैं। बदलते समय ने स्त्री को अवसरों के तमाम द्वार खोले हैं, किंतु उसकी तरफ देखने का नजरिया अभी बदलना शेष है। आवश्यक्ता इस बात की है कि हम परिवार से ही इसकी शुरूआत करें। पितृसत्ता की निर्मम छवियों से मुक्त हमें एक ऐसा समाज बनाने की ओर बढ़ना है जहां स्त्री को समान अवसर और समान सम्मान हासिल हैं। तमाम परिवारों में नारकीय जीवन जी रही स्त्रियां हैं, वैसा ही सीखते युवा हैं। बदलती दुनिया में औरतें हर क्षेत्र में अपनी क्षमताएं साबित कर चुकी हैं। वे कठिन कामों को अंजाम दे रही हैं और कहीं भी पुरूषों से कमतर नहीं हैं। शैक्षणिक परिणामों से लेकर मैदानी कामों में उनका हस्तक्षेप कहीं भी अप्रभावी नहीं है। वे जिम्मेदार,कुशल, ज्यादा संवेदनाओं से युक्त और ज्यादा मानवीय हैं। परिवारों में आज स्थितियां बदल रही हैं। स्त्री की क्षमता और उसकी संवेदना को आदर मिल रहा है, वे अवसर पाकर आकाश नाप रही हैं। तमाम परिवारों में अकेली लड़की पैदा करके पुत्र न करने के फैसले भी लिए हैं। यह बदलती दुनिया का एक चेहरा है। किंतु हमें देखना होगा कि एक बहुत बड़ा समाज आज भी अंधेरे में हैं। वह अपनी बनी-बनी धारणाओं को तोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं। जहां आज भी पुत्री के जन्म पर दुख के बादल छा जाते हैं। स्त्री को सम्मान नहीं हैं और उसे ही पहला शिकार बनाया जाता है। मध्ययुगीन बर्बरता के निशान आज भी हमारे मनो में हैं। इसलिए हम स्त्री को सबसे पहले और आसान निशाना बनाते हैं, क्योंकि वह कमजोर तो है ही, घर की इज्जत भी है। प्रतिष्ठा से जुड़े होने के नाते तमाम क्षेत्रों में आपसी रंजिशों में भी पहला शिकार औरत को बनाया जाता है। इसलिए लगता है कि एक मानवीय समाज बनाने और औरतों के प्रति संवेदना भरने में हम विफल ही रहे हैं। यहां अंतर गांव और शहर का नहीं समझ और मान्यताओं का भी है। गांवों में भी आपको ऐसे परिवार मिल जाएंगें जहां स्त्रियों को बेहद सम्मान से देखा जाता है और फैसलों में वे ही निर्णायक होती हैं। शहरों में भी ऐसे परिवार मिलेंगें जहां औरतें कोई मायने नहीं रखतीं हैं। हमें यह भी समझना होगा कि स्त्री का सशक्तिकरण पुरूष के विरूद्ध नहीं है। पुरूषों के सम्मान के विरूद्ध नहीं है, वरन वह समाज के पक्ष में है। परिवार और समाज को चलाने की एक धुरी स्त्री है तो दूसरा पुरुष है। दोनों के समन्वित सहभाग से ही एक सुंदर समाज की रचना हो सकती है। स्त्रियों ने इस समय में अपनी शक्ति को पहचान लिया है। वे बेहतर कर रही हैं और आगे आसमां छूने की कोशिशों में हैं। यहां भी पुरूष सत्ता चोटिल होती हुयी लगती है। उसके प्रति सम्मान और संवेदनशीलता के बजाए, किस्से बनाने और उसे कमतर साबित करने की कोशिशें हर स्तर हो रही हैं। तेज होते सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के इस दौर में सिर्फ कानून ही स्त्री के साथ खड़े हैं। कई जगह तो स्त्रियां भी, स्त्रियों के खिलाफ खड़ी हैं। यह एक संक्रमण काल है, स्त्री को अपने वजूद को साबित करते हुए निरंतर आगे बढ़ने का समय है। वह जीत रही है और आगे बढ़ रही है। अपने सपनों में रंग भर रही है। आसान शिकार होने के नाते कुछ शिकारी उसकी घात में हैं किंतु आज की औरत इससे डरती नहीं, घबराती नहीं, वह बने-बनाए कठघरों को तोड़कर आगे आ रही है। मीडिया, महिला आयोग, पुलिस और सरकार सहित तमाम स्वयंसेवी संगठन रात दिन इस काम में लगे हैं कि कैसे औरतें ज्यादा सुरक्षित और ज्यादा अधिकार सम्पन्न हों। यह काम अगर इनके बस का होता तो हो गया होता, सबसे जरूरी है परिवारों में बच्चों को सही संस्कार। वे घर से औरतों का सम्मान करना सीखें। वे अपनी बहन-मां का आदर करना सीखें। वे यह देख पाएं कि उनके पिता और मां दोनों बराबरी के हैं, कोई किसी से कम नहीं हैं। वे परिवार की धुरी हैं। वे यह भी सीखें की कि हमारी संस्कृति में कन्या पूजन जैसे विधान क्यों रखे गए हैं? क्योंकि हमारी सभी विद्याओं की मालिका देवियां हैं? क्यों हम दुर्गा से शक्ति, सरस्वती से बुद्धि और लक्ष्मी से वैभव की मांग करते हैं? क्यों हमें यह पढ़ाया और बताया गया कि जहां स्त्रियां की पूजा होती है देवता वहीं निवास करते हैं। जाहिर तौर पर संस्कृति का हर पाठ स्त्री के सम्मान और उसकी शुचिता के पक्ष में है, किंतु जाने किन प्रभावों में हम अपनी ही सांस्कृतिक मान्यताओं और संदेशों के खिलाफ खड़े हैं। स्त्री को आदर देता समाज ही एक संवेदनशील और मानवीय समाज कहा जाएगा।अगर हम ऐसा नहीं कर सकते तो हमें अपनी महान संस्कृति पर गर्व करने का अभिनय और ढोंग बंद कर देना चाहिए।

सोमवार, 16 जून 2014

लंबे समय के बाद एक सरकार!


-संजय द्विवेदी
       हिंदुस्तानी मन की आकांक्षाएं बहुत अलग हैं। वह बहुत कम प्रतिक्रिया करके भी ज्यादा कहता है। 2014 के चुनाव इस बात की गवाही देते हैं कि जनता के मन में चल रही हलचलों का भान हमें कहां हो पाया। हम सब सेकुलरिज्म की ढोल बजाते रहे और ऐसे लोग सरकार में आ गए जिनके सेकुलर होने पर लगभग सभी राजनीतिक दलों को सामूहिक शक है। तो क्या देश की जनता अब सेकुलर नहीं रही? या उसकी पंथनिरपेक्षता को एक संकल्प नहीं, बल्कि राजनातिक नारे के रूप में इस्तेमाल करने वालों को उसने पहचान लिया है। उसने जता दिया कि काम कीजिए तभी भरोसा बनेगा और तभी आपकी राजनीति चलेगी। सिर्फ नारे पर अब वोट बरसने वाले नहीं हैं। ये भरोसा तब और गहरा होता है जब नवीन पटनायक (उड़ीसा), जयललिता (तमिलनाडु) और ममता बनर्जी (बंगाल) जैसे नेताओं की जमीन बनी रहती है, किंतु तमाम भूमिपुत्रों के पैर जमीन से उखड़ जाते हैं।
   एक सक्षम विकल्प बनी भाजपा के लिए भी संदेश साफ हैं कि सारा कुछ नारों से हासिल नहीं हो सकता। विकास-सुशासन और नकली पंथनिरपेक्षता नारों की स्पर्धा के बीच लोगों ने विकास-सुशासन को जगह दी है। लोग उम्मीद से खाली नहीं हैं। एक राजनेता के तौर नरेंद्र मोदी ने फिर एक हारे हुए देश की उम्मीदों को जगा दिया है।  आप अन्ना हजारे के आंदोलन में रामलीला मैदान में जमे लोगों को याद कीजिए। उनकी भाषा को सुनिए- मध्यवर्ग के वे चेहरे किस तरह राजनीति और राजनेताओं से खिसियाए हुए थे। किस तरह वे हमारी राजनीति और संसद के खिलाफ एकजुट थे। संसद और सरकार मिमिया रही थी। वक्त की उस तारीख ने आज काफी कुछ बदल दिया है। राजनेताओं के प्रति घृणा का स्तर, एक अकेले नेता ने कम कर दिया है। आज लोगों का जनतंत्र पर भरोसा बढ़ा है तो राजनीतिक नेतृत्व पर भी। राजनीति और राजनीतिज्ञों के प्रति लोकधृणा का वह स्तर आज नहीं है। इसके लिए निश्चय ही देश के राजनेताओं को रामलीला मैदान के दृश्यों को ध्यान में रखते हुए नरेंद्र मोदी को बधाई देनी चाहिए। यह बात बताती है कि कम काम और कम सफलताओं के बावजूद अगर आपके जीवन और मन में सच्चाई है। आप ईमानदार प्रयत्न करते हुए भी दिखते हैं तो लोग आपको सिर-माथे बिठाते हैं। किंतु जब आप अहंकार भरी देहभाषा से जनतंत्र में जनता को प्रजा समझने की भूल करते हैं, तो वह भारी पड़ती है।
संवाद से सार्थक होता जनतंत्रः
सत्ताधीशों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे संवाद से भागते हैं। जनता के सवालों पर बातचीत करने के बजाए असुविधाजनक प्रश्नों से वे बचना चाहते हैं। पिछली सरकार ने इसी संवादहीनता के फल अर्जित किए हैं। वहां खामोशी एक रणनीति की तरह इस्तेमाल की जा रही थी। सरकार के मुखिया खामोश थे तो शेष पार्टी नेतृत्व दूसरों की लिखी स्क्रिप्ट पढ़ने में व्यस्त था। असुविधाजनक सवालों पर गहरी और लंबी चुप्पी उनकी रणनीति बन गयी थी। यूपीए के दुबारा चुनाव जीतने के बाद यह चुप्पी, अहंकार में बदल गयी। पांच साल तक जनता द्वारा दी गयी सत्ता को जागीर मानने की भ्रम भी पैदा हुआ। रामलीला मैदान के सभी प्रतिरोधों में सरकार का जवाब यही होता था कि हमें पांच साल का जनादेश मिला है। जनादेश को जागीर और उपनिवेश में बदलने की शैली भारी पड़ी। कांग्रेस की त्यागमूर्ति अध्यक्षा ने प्रधानमंत्री का पद तो चाहे-अनचाहे छोड़ दिया किंतु सत्ता के मोह से वे बच नहीं पाईं। भरोसा न हो तो संजय बारू की किताब जरूर देखिए। सत्ता पर नाजायज नियंत्रण और जनता से संवादहीनता दोनों ही खबरें हवा में रहीं और समय ने इसे सच साबित किया। नरेंद्र मोदी यहीं बाजी मार ले गए। वे जनता के बीच रहे और संवाद में कोई कमी नहीं की। लगातार बातचीत करते हुए मोदी ने जनता के दिलों में उतरकर वो उम्मीदें जगा दीं, जिनके इंतजार में लोग लंबे अरसे से प्रतिक्षारत थे। संवाद की शैली, संचार माध्यमों के सही इस्तेमाल ने उन्हें नायक से महानायक बना दिया।
सपनों के सौदागरः
इस पूरे दौर में नरेंद्र मोदी सपनों के सौदागर की तरह प्रकट हुए हैं। हताश-निराश देश और उम्मीद तोड़ती राजनीतिक धाराओं के बीच वे एक नई और ताजा विचारधारा तथा एक ठंडी हवा के झोंके की तरह हैं। भारत जैसे महादेश को संभालने और उससे संवाद करने के लिए उनके पीछे एक चमकदार अतीत है। संघर्ष है और त्याग से उपजी सफलताएं हैं। जनमानस के बीच वे एक ऐसे धीरोदात्त नायक की तरह स्थापित हैं, जो बदलाव ला सकता है। परिवारवादी, जातिवादी, क्षेत्रवादी राजनीति के पैरोकारों के लिए वे सचमुच एक चुनौती की तरह हैं। उनकी वाणी और कृति में बहुत कुछ साम्य दिखता है। वे जैसे हैं, वैसे ही प्रस्तुत हुए हैं। उन्होंने गुजरात दंगों के लिए माफी न मांगकर और टोपी पहनने के सवाल पर जो स्टैंड लिया है वह बताता है कि वे इस नकली राजनीति में एक असली आदमी हैं। सवा करोड़ हिंदुस्तानियों की बात करने वाले मोदी, अगर जाति-धर्म के बंटवारे से अलग सबको एक मानने की बात कर रहे हैं तो उनके साहस की दाद देनी पड़ेगी। यह पारंपरिक राजनीति से अलग है और अच्छा भी। कश्मीर जैसे संवेदनशील सवालों पर कश्मीर पंडितों को उनकी जमीन पर वापस ले जाने की पहल एक नई तरह की शुरूआत है। अपने शपथ ग्रहण से लेकर भूटान यात्रा तक जो भी संदेश उन्होंने दिए हैं वह एक बेहतर शुरूआत तो है ही। इसके अलावा सांसदों-मंत्रियों को निजी स्टाफ में रिश्तेदारों को न रखने की हिदायत, है तो छोटी पर इसके मायने बहुत बड़े हैं। राजनीतिक क्षेत्र में आज मोदी का कद अपने समतुल्य नेताओं में सबसे बड़ा है तो इसके पीछे उनके सुनियोजित प्रयास,निजी ईमानदारी,कर्मठता और निरंतर कुछ करते रहने की भावना ही है। वे सही मायने में एक ऐसे राजनेता हैं जो परिवारवाद की राजनीति को घता बताकर मैदान में उतरा है।
सुशासन नारा नहीं एक संकल्पः

जिसके लिए सुशासन एक नारा नहीं पवित्र संकल्प है। उसने देश की नौकरशाही को शक्ति देने की बात कही ताकि वे तेजी से फैसले ले सकें। राजनीति में पारदर्शिता और संवाद से ही वे आगे बढ़ने की सोचते हैं। ऐसा व्यक्ति कोई भी हो, लोगों का दुलारा बन जाता है। वे सिर्फ नायक हैं नहीं, नायक सरीखा आचरण भी कर रहे हैं। देश की जनता बहुत भावुक है। लंबी गुलामी ने उसके मन में यह बैठा दिया है कि केंद्र कमजोर होगा, शासक कमजोर होगा तो देश टूट जाएगा। इस निराशाजनक समय में मोदी को लाकर जनता ने एक मजबूत केंद्र और मजबूत शासक देकर दरअसल अपने मन में पल रहे अज्ञात भयों से मुक्ति पायी है। उसे अब सेकुलरिज्म के बदले अराजकता, सार्वजनिक धन की लूट, वंशवाद की लहलहाती बेलें नहीं चाहिए- उसे एक ऐसा भारत चाहिए जिसमें सम्मान,सुरक्षा,रोजगार और आर्थिक प्रगति के अवसर हों। नरेंद्र मोदी जब अपनी सरकार को गरीबों को समर्पित करते हैं तो इसके मायने बहुत अलग हैं। वे जानते हैं कि सरकारी स्कूलों और अस्पतालों के हालात क्या हैं। इनके बरबाद होने के मायने क्या हैं। वे यह भी जानते हैं कि गरीब आदमी के हक में कोई खड़ा है तो वह सिर्फ सरकार है। इसलिए सरकारी तंत्र को अपेक्षित संवेदना से युक्त करना जरूरी है। सरकारी तंत्र की संवेदनशीलता ही इस जनतंत्र की जड़ों को मजबूती देगी। संसाधनों की लूट में लगी कंपनियों और रोज और विकराल होती गैरबराबरी के बीच भी उम्मीदों का एक दिया टिमटिमा रहा है कि आखिर कभी तो हम अपने लोकतंत्र को न्यायपूर्ण और संवेदनशील होता देख पाएंगें। एक सक्षम सरकार को लगभग तीन दशक बाद पाकर लोगों में आशाएं जगी हैं। राजनीति से भी कुछ बदल सकता है, यह भरोसा भी जगा है। लोगों की आशाएं पूर्ण हों इसके लिए सरकार के साथ आम लोगों को भी अपनी सार्वजनिक सक्रियता बढ़ानी होगी। समाज एक दंडशक्ति के रूप में, निगहबानी के लिए सरकारी तंत्र पर नजर रखे तभी जनतंत्र अपने को सार्थक होता हुआ देख पाएगा। उम्मीद की जानी चाहिए आमजन भी चुनाव के बाद अपने कठघरों में बंद होने के बजाए सरकार और उसके तंत्र पर चौकस निगाहें रखेंगें।