विशेषः आज (30 मई ) हिंदी पत्रकारिता दिवस है। इसी तिथि को पं0 युगुल किशोर शुक्ल ने 1826 में प्रथम हिन्दी समाचार पत्र उदन्त मार्तण्ड का प्रकाशन आरम्भ किया था। इस विशेष अवसर पर यह लेख आपके विचारार्थः
संचार माध्यमों को जनोन्मुख और सरोकारी बनाने की चुनौती
पत्रकारिता
के धर्म और संकट पर बात करते हुए हम कई बार संकोच से भर जाते हैं या भावुक
प्रलापों में लग जाते हैं। एक स्वर तो कहता है कि सब कुछ नष्ट हो गया है तो दूसरा
स्वर आज के मीडिया के वैभव से चमत्कृत है। सही बात यह है कि पत्रकारिता आज एक बेहद
सामान्य शब्द बन चुका है। इस दौर में उसकी जगह ले ली है मीडिया ने। ऐसे समय में जनसंचार
माध्यमों की उपयोगिता और उनका बढ़ता प्रभाव आज हमारे होने और जीने में सहायक बन
चुका है। समाज का कोई भी तबका या व्यक्ति अब मीडियामुक्त नहीं कहा जा सकता। हर
व्यक्ति किसी न किसी मीडिया की गिरफ्त या पहुंच में है। परंपरागत संचार माध्यमों
से आगे आज रेडियो, अखबार, टीवी, इंटरनेट और
मोबाइल ने देश के हर व्यक्ति तक पहुंचने की ठान रखी है। संवाद के कई तल दिखने लगे
हैं, वह सहज
हुआ है और कई तरह से समाज पर अपने प्रभाव को प्रक्षेपित कर रहा है। सही मायने में
इतिहास में इस समय को मीडिया युग न भी कहा जाए तो मीडियामय समय तो कह ही सकते हैं।
इन बाइस सालों में(1990 से 2012) दुनिया जितनी
तेजी से बदली शायद इतिहास में कभी इतनी तेजी से परिवर्तन दर्ज नहीं किए गए।
परिर्वतनों की इसी गति को बढ़ाने में मीडिया का एक खास रोल रहा है। हम आज जैसे बन
रहे हैं, जैसा
सीख रहे हैं, जैसी
प्रतिक्रिया दर्ज करा रहे हैं- वह कहीं न कहीं मीडिया द्वारा प्रक्षेपित या
स्थापित किए गए विचारों से प्रभावित है। मीडिया निरंतर समर्थ हो रहा है और वह अपनी
निरंतरता में समाज को भी शामिल कर रहा है। वह प्रगामी है, अग्रगामी है और
समाज उसका अनुगामी बनता दिख रहा है। जाहिर तौर पर उसके प्रभाव को कम करके नहीं
आंका जा सकता है। मीडिया की दुनिया में जिस तरह की बेचैनी इन दिनों देखी जा रही
है। वैसी पहले कभी नहीं देखी गयी। यह ऐसा समय है जिसमें उसके परंपरागत मूल्य और जन
अपेक्षाएं निभाने की जिम्मेदारी दोनों कसौटी पर हैं। बाजार के दबाव और सामाजिक
उत्तरदायित्व के बीच उलझी मीडिया की दुनिया अब नए रास्तों की तलाश में है । तकनीक
की क्रांति,
मीडिया की बढ़ती ताकत, संचार के साधनों की गति ने इस समूची दुनिया को जहां
एक स्वप्नलोक में तब्दील कर दिया है वहीं पाठकों एवं दर्शकों से उसकी रिश्तेदारी
को व्याख्यायित करने की आवाजें भी उठने लगी हैं ।
हाल-ए-प्रिंट मीडियाः सबसे पहले बात
करेंगें प्रिंट मीडिया की। वे अखबार जो जनचेतना जगाने के माध्यम थे और देश की
आजादी की लड़ाई में उन्हें एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया वे आज ज्यादा पृष्ठ, ज्यादा
सामग्री देकर भी अपने पाठक से जीवंत रिश्ता जोड़ने में स्वयं को क्यों असफल पा रहे
हैं,
यह पत्रकारिता के सामने एक बड़ा सवाल है । क्या बात है कि जहां पहले पाठक को
अपने ‘खास’ अखबार
की आदत लग जाती थी । वह उसकी भाषा, प्रस्तुति और
संदेश से एक भावनात्मक जुड़ाव महसूस करता था, अब वह आसानी से
अपना अखबार बदल लेता है । हिन्दी क्षेत्र में समाचार पत्र विक्रेता मनचाहा अखबार
दे देते हैं और अब उसका पाठक किसी खास अखबार की तरफदारी में खड़ा नहीं होता । क्या
हिंदी क्षेत्र के अखबार अपनी पहचान खो रहे हैं, क्या उनकी अपनी
विशिष्टता का लोप हो रहा है-जाहिर है पाठक को सारे अखबार एक से दिखने लगे हैं। ‘जनसत्ता’ जैसे
प्रयोग भी अपनी आभा खो चुके हैं। बात सिर्फ यहीं तक नहीं है, हिन्दी
क्षेत्र में पत्रकारिता आज भी ‘मिशन’ और ‘प्रोफेशन’ की
अर्थहीन बहस के द्वन्द से उबरकर कोई मानक नहीं गढ़ पा रही है। जबकि बदलती दुनिया
के मद्देनजर ऐसी बहसें अप्रांसगिक और बेमानी हो उठी हैं।आज अखबार के प्रकाशन में
लगने वाली भारी पूंजी के चलते इसने उद्योग का रूप ले लिया है। ऐसे में उसमें लगने
वाला पैसा किस प्रकार मिशनरी संकल्पों का वाहक बन सकता है। यह तंत्र अब सीधा अखबार
प्रकाशक के हित लाभ से जुड़ गया है। करोड़ों की पूंजी लगाकर बैठे किसी अखबार मालिक
से धर्मादा कार्य की अपेक्षा नहीं पालनी चाहिए। व्यवसायीकरण का यह दौर पत्रकारिता
के सामने चुनौती जरूर दिखता है, पर रास्ता इससे ही निकालना होगा। पत्रकारिता का
भला-बुरा जो कुछ भी है वह मुख्यतः समाचार पत्र के प्रकाशक की निर्धारित की नई
रीति-नीति पर निर्भर करता है। ऐसे में समाचार-विचार के संदर्भ में अखबार मालिक की
रीति-नीति को चुनौती भी कैसे दी जा सकती है। समाचार पत्रों का प्रबंधन यदि संपादक
की संप्रभुता को अनुकुलित कर रहा है तो आप विवश खड़े देखने के अलावा क्या कर सकते
हैं। यह बात भी काफी हद तक काबिले गौर है कि पत्रकार अपनी भूमिका और दायित्वों पर बहस
करने के बजाए समाचार पत्र मालिक की भूमिका के बारे में ज्यादा बातें करते हैं। अब
जबकि मीडिया में एफडीआई ने उसके चाल, चरित्र और चेहरे तीनों को बदलने की ठान ली हो
तो चुनौती और बड़ी हो जाती है।
पाठकों से बदलते रिश्तेः हम देखें तो पता चलता है कि अखबार की घटती स्वीकार्यता एवं संपादक के घटते कद ने मालिकों की सीमाएँ बढ़ा दी हैं । अखबार अगर वैचारिक अधिष्ठान का रास्ता छोड़कर बाजार की हर सड़ी-गली मान्यताओं को स्वीकारते जाएंगे तो यह खतरा तो आना ही था । आज मालिक-संपादक के रिश्तों की तस्वीर बदल चुकी है। आज का रिश्ता प्रतिस्पर्धा और अविश्वास का रिश्ता है। अवमूल्यन दोनों तरफ से हुआ है । हिंदी पत्रकारिता पर सबसे बड़ा आरोप यह है कि वह आजादी के बाद अपनी धार खो बैठी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में आए अवमूल्यन का असर उस पर भी पड़ा जबकि उसे समाज में चल रहे सार्थक बदलाव के आंदोलनों का साथ देना था। मूल्यों के स्तर पर जो गिरावट आई वह ऐतिहासिक है तो विचार एवं पाठकों के साथ उसके सरोकार में भी कमी आई है। साधन सम्पन्नता एवं एक राजनीतिक एवं आर्थिक शक्ति के रुप में विकसित होने के बावजूद पत्रकारिता का क्षेत्र संवेदनाएं खोता गया,जो उसकी मूल पूंजी थे। उसकी विश्वसनीयता और नैतिक शक्ति भी लगातार घटी है। यही कारण है कि लोग बीबीसी की खबरों पर तो भरोसा करते रहे पर अपने अखबार पर से उन्हें भरोसा कम होता गया। हिन्दी पत्रकारिता की दुनिया बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी, अम्बिका प्रसाद वाजपेयी जैसे तमाम यशस्वी पत्रकारों की बनाई जमीन पर खड़ी है, पर इन नामों और इनके आदर्शों को हमने बिसरा दिया । अपने उज्जवल और क्रांतिकारी अतीत से कटकर अंग्रेजी पत्रकारिता की जूठन उठाना और खाना हमारी दिनचर्या बन गई है। हिन्दी में ‘विचार दारिद्रय’ का संकट गहराने के कारण पत्रकारिता में ‘अनुवादी लालों’ की पूछ-परख बढ़ गई है।
जनांदोलनों से कटी हमारी पत्रकारिताः आजादी के पूर्व हमारी हिन्दी पट्टी की पत्रकारिता सामाजिक एवं राजनीतिक आंदोलन से जुड़कर ऊर्जा प्राप्त करती थी। आज वह जनांदोलनों से कटकर मात्र सत्ताधीशों की वाणी एवं सत्ता-संघर्ष का आईना भर रह गई है। ऐसे में अगर अखबारों एवं पाठकों के बीच दूरियां बढ़ रही हैं तो आश्चर्य क्या है ? अगर आप पाठकों एवं उनके सरोकारों की चिंता नहीं करते तो पाठक आपकी चिंता क्यों करेगा ? ऊंचे प्रतिष्ठानों, विशालकाय छपाई मशीनों, विविध रंगों तथा आकर्षक प्रस्तुति के साथ छपने के बावजूद अखबार अपनी आभा क्यों खो रहे हैं, यह सवाल हमारे लिए एक बड़ी चुनौती है। अकेला आपातकाल का प्रसंग गवाह है कि कितने पत्रकार पेट के बल लेट गए थे। इस दौर में जैसी रीढ़ विहीनता और केंचुए सी गति पत्रकारों ने दिखाई थी उस प्रसंग को हम सब भले भूल जाएं देश कैसे भूल सकता है ? सारे कुछ के बावजूद अखबार कभी सिर्फ उद्योग की भूमिका में नहीं रह सकते । व्यापार के लिए भी नियम और कानून होते हैं व्यापार के नाम पर भी अपने ग्राहक को मूर्ख नहीं बनाया जा सकता । आजादी के बाद हमारे अखबार सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना से दूर हटे हैं। स्वतंत्रता मिलने के बाद राजनीतिक नेताओं, अफसरों, माफिया गिरोहों की सांठगांठ से सार्वजनिक धन की लूटपाट एवं बंदरबांट में देश का कबाड़ा हो गया, पर हिंदी के अखबारों की इन प्रसंगों पर कोई जंग या प्रतिक्रिया देखने को नहीं मिलती । उल्टे ऐसे घृणित समूहों-जमातों के प्रति नरम रूख अपनाने एवं उन्हें सहयोग देने के आरोप पत्रकारों पर जरूर लगे।
आत्मविश्वास को बचाने की जरूरतः मुख्यधारा की
हिंदी पत्रकारिता ने मूलतः शहरी मध्यवर्ग के पाठकों को केन्द्र में रखकर अपना सारा
ताना-बाना बुना। इसके चलते अखबार सिर्फ इन्हीं पाठकों के प्रतिनिधि बनकर रह गए और
एक बड़ा तबका जो गरीबी, अत्याचार एवं व्यवस्था के दंश को झेल रहा है, अखबारों
की नजर से दूर है। ऐसे में अखबारों की संवेदनात्मक ग्रहणशीलता पर सवालिया निशान
लगते हैं तो आश्चर्य क्या है ? इस संदर्भ में आप अंग्रेजी अखबारों की तुलना हिन्दी
अखबारों से करके प्रसन्न हो सकते हैं और यह निष्कर्ष बड़ी आसानी से निकाल सकते हैं
कि हम हिन्दी वाले उनकी तुलना में ज्यादा संवेदनाओं से युक्त हैं। परंतु अंग्रेजी पत्रकारिता
ने तो पहले ही बाजार की सत्ता और उसकी महिमा के आगे समर्पण कर दिया है। अंग्रेजी
के अपने ‘खास’ पाठक
वर्ग के चलते उनकी जिम्मेदारियां अलग हैं। उनके केन्द्र में वैसे भी ‘आम
आदमी’
तो नहीं ही है। किन्तु भारत जैसे विविध स्तरों पर बंटे देश में हिंदी अखबारों
की जिम्मेदारी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। क्योंकि अगर हम व्यापक पाठक वर्ग की
बात करते हैं तो हमारी जिम्मेदारीयां भी अंग्रेजी अखबारों के मुकाबले बड़ी हैं।
वस्तुतः हिंदी अखबारों को अपनी तुलना भाषाई समाचार पत्रों से करनी चाहिए। जो आज स्वीकार्यता
के मामले में अपने पाठकों के बीच खासे लोकप्रिय हैं। यहां अंग्रेजी पत्रों का
वैचारिक योगदान जरूर हिंदी पत्रों के लिए प्रेरणा बन सकता है। इस पक्ष पर हिंदी के
पत्र कमजोर साबित हुए हैं। हिंदी अखबारों में वैचारिकता एवं बौद्धिकता का स्तर
निरंतर गिरा है। अब तो गंभीर समझे जाने वाले हिंदी अखबार भी अश्लील एवं बेहूदा
सामग्री परोसने में कोई संकोच नहीं करते और यह सारा कुछ इलेक्ट्रानिक मीडिया के
आतंक में हो रहा है। इस आतंक में आत्मविश्वास खोते संपादक एवं उनके अखबार कुछ भी
छापने पर आमादा हैं। सनसनी, झूठ और अश्लीलता उन्हें किसी भी चीज से परहेज नहीं
है।सत्ता से आलोचनात्मक विमर्श रिश्ता बनाने एवं जनता की आवाज उस तक पहुंचाने के
बजाए अखबार उनसे रिश्तेदारियां गाठंने में लगे हैं। प्रायः अखबारों पर उसके पाठकों
के बजाय विज्ञापनदाताओं एवं राजनेताओं का नियंत्रण बढ़ाता जा रहा है। खबरपालिका की
अंदरूनी समस्याओं को हल करने एवं उनके बीच से रास्ता निकालने के बजाए ‘आत्म-समर्पण’ जैसी
स्थितियों को विकल्प माना जा रहा है। ऐसे में पाठक और अखबार के रिश्ते मजबूत हो
सकते हैं ?
कोई अखबार या उसकी आवाज कैसे पाठकों के दिल में उतर जाएगी ? उत्पाद
बन चुका सुबह का अखबार तभी अपनी आभा खोकर शाम तक रद्दी की टोकरी में चला जाता है।
अखबार सार्वजनिक सवालों पर बहस का वातावरण बनाने में विफल रहे हैं । भाषा के सवाल
पर भी हिंदी अखबार खासे दरिद्र हैं। सहज-सरल भाषा के प्रयोग का नारा पत्रकारों के लिए
शब्दों के बचत की प्रेरणा बन गया है। ऐसे में तमाम शब्द अखबारों से गायब हो गए हैं
। इसका एक बहुत बड़ा कारण भाषा के प्रति हमारा अल्पज्ञान एवं उसके प्रति लापरवाही
है। दूसरा बड़ा कारण हमारा बौद्धिक कहा जाने वाला वर्ग अखबारों से कट सा गया है।
उसने अखबारों को बेवजह की चीज माने लिया । हिंदी पत्रकारिता में विचारशीलता के लिए
कम हो आई जगह से पाठकों को वैचारिक नेतृत्व मिलना बंद हो गया। इस बौद्धिक नेतृत्व
के अभाव ने भी पाठक एवं अखबार के रिश्तों को खासा कमजोर किया । संवेदनाएं कम हुईं, राग
घटा एवं शब्दों की महत्ता घटी। बौद्धिकों ने हिंदी क्षेत्र की पत्रकारिता पर दबाव बनाने
के बजाए इस क्षेत्र को छोड़ दिया। फलतः आज हमारे पास सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन ‘अज्ञेय’, सर्वेश्वर
दयाल सक्सेना,
धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, राजेन्द्र
माथुर,
श्रीकांत वर्मा, प्रभाष जोशी जैसे संपादकों का दौर अतीत की बात बन
गयी है।
जनसंर्घषों में ही फलती-फूलती है पत्रकारिताःयह बात
खासी महत्वपूर्ण है कि हिंदी पत्रकारिता का वैचारिक अधिष्ठान एवं श्री गणेश ऐसा है
कि वह जनसंघर्षों में ही फल-फूल सकती है। अब रास्ता यही है कि अखबार की पूंजी से
घृणा करने के बजाए ऐसे रिश्तों का विकास हो, जिसमें देश का
बौद्धिक तबका भी अपना मिथ्याभिमान छोड़कर अखबार की दुनिया का हम सफर बने। क्योंकि
तकनीकी चमक-दमक अखबार की प्रस्तुति को बेहतर बना सकती है उसमें प्राण नहीं भर सकती
।हिंदी क्षेत्र में एक नए प्रकार के पाठक वर्ग का उदय हुआ है जो सचेत है और संवाद
को तैयार है। वह तमाम सूचनाओं के साथ आत्मिक बदलाव वाला अखबार चाहता है। वह सच के
निकट जाना चाहता है। इसलिए चुनौती महत्व की है और यह जंग हिंदी अखबारों को पाठकों
के साथ जुड़कर ही जीतनी होगी । क्योंकि लाख नंगेपन से भी अखबार इलेक्ट्रानिक मीडिया
का मुकाबला नहीं कर सकता ।
इलेक्ट्रानिक मीडिया की चुनौतियां- इलेक्ट्रानिक मीडिया
का विकास बहुत नया है जाहिर तौर पर उसके पैंरों में संस्कारों की बेडियां नहीं
थीं। उसके पास कोई ऐसा अतीत भारतीय संदर्भ में नहीं था जिसके चलते वह कुलांचे भरने
से बाज आता। सो कम समय में उसने जो धमाल मचाया है वह किसी से छिपा नहीं है।
इलेक्ट्रानिक मीडिया के विकास के साथ-साथ इंटरनेट, ब्लाग और
वेबसाइट की पत्रकारिता का आमतौर पर इस्तेमाल औरत की देह को अनावृत करने में ही हो
रहा है। नए आए निजी रेडियो में परंपरागत आकाशवाणी की बेहद सांस्कृतिक शैली की झलक
भी नहीं है। ये निजी रेडियो एमएम मनोरंजन के नाम पर फूहड़ता के ही वाहक होते हैं।
रेडियो जाकी नाम के जीव प्रायः बकवास करते हैं, कुछ एफएम पर तो
लव गुरू बैठे हुए हैं जो नई पीढ़ी को प्रेम का पाठ पढ़ाते हैं। कुल मिलाकर औरत की
देह इस समय इलेक्ट्रानिक मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है । सेक्स और मीडिया के
समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है ।
फिल्मों,
इंटरनेट,
मोबाइल,
टीवी चेनलों से आगे अब वह सभी संचार माध्यमों पर पसरा हुआ है। इंटरनेट ने सही
रूप में अपने व्यापक लाभों के बावजूद सबसे ज्यादा फायदा सेक्स कारोबार को पहुँचाया
। पूंजी की ताकतें सेक्सुएलिटी को पारदर्शी बनाने में जुटी है।
मीडिया इसमें उनका सहयोगी बना है, अश्लीलता और सेक्स के कारोबार को मीडिया किस तरह
ग्लोबल बना रहा है ,जाहिर है मीडिया ने हर मामले को ग्लोबल बना दिया है। हमारे ‘गोपन विमर्शों’ को’ओपन’ करने
में मीडिया का एक खास रोल है। शायद इसीलिए मीडिया के कंधों पर सवार यह सेक्स
कारोबार तेजी से ग्लोबल हो रहा है। महानगरों में लोगों की सेक्स हैबिट्स को लेकर
भी मुद्रित माध्यमों में सर्वेक्षण छापने की होड़ है । वे छापते हैं 80 प्रतिशत
महिलाएं शादी के पूर्व सेक्स के लिए सहमत हैं । दरअसल यह छापा और बताया जा रहा
सबसे बड़ा झूठ है। इस षड़यंत्र में शामिल मीडिया बाजार की बाधाएं हटा रहा है।
फिल्मों की जो गंदगी कही जाती थी वह शायद उतना नुकसान न कर पाए जैसा धमाल इन दिनों
संचार माध्यम मचा रहे हैं । कामोत्तेजक वातावरण को बनाने और बेचने की यह होड़ कम
होती नहीं दिखती ।
समाज को प्रभावित करती फिल्में- मीडिया का हर
माध्यम एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। यह होड़ है नंगई की । उसका विमर्श
है-देह ‘जहर’ ‘मर्डर’ ‘कलियुग’ ‘गैगस्टर’ ‘ख्वाहिश’, ‘जिस्म’ जैसी
तमाम फिल्मों ने बाज़ार में एक नई हिंदुस्तानी औरत उतार दी है । जिसे देखकर समाज
चमत्कृत है। कपड़े उतारने पर आमादा इस स्त्री के दर्शन ने मीडिया प्रबंधकों के
आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। एड्स की बीमारी ने पूंजी के ताकतों के लक्ष्य
संधान को और आसान कर दिया है । अब सवाल रिश्तों की शुचिता का नहीं, विश्वास
का नहीं,
साथी से वफादारी का नहीं- कंडोम का है। कंडोम ने असुरक्षित यौन के खतरे को एक
ऐसे खतरनाक विमर्श में बदल दिया है जहाँ व्यवसायिकता की हदें शुरू हो जाती है। अस्सी के
दशक में दुपट्टे को परचम की तरह लहराती पीढ़ी आयी, फिर नब्बे का
दशक बिकनी का आया और अब सारी हदें पार कर चुकी हमारी फिल्मों तथा मीडिया एक ऐसे देहराग
में डूबे हैं जहां सेक्स एकतरफा विमर्श और विनिमय पर आमादा है। उसके केंद्र में
भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की
पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता
है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता
के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं । भारतीय स्त्री के सौंदर्य पर विश्व
का अचानक मुग्ध हो जाना, देश में मिस युनीवर्स, मिस वर्ल्ड की
कतार लग जाना-खतरे का संकेतक ही था। हम उस षड़यंत्र को भांप नहीं पाए । अमरीकी
बाजार का यह अश्वमेघ, दिग्विजय करता हुआ हमारी अस्मिता का अपहरण कर ले गया
। इतिहास की इस घड़ी में हमारे पास साइबर कैफे हैं, जो
इलेक्ट्रानिक चकलाघरों में बदल रहे हैं । हमारे बेटे-बेटियों के साइबर फ्रेंड से
अश्लील चर्चाओं में मशगूल हैं । कंडोम के रास्ते गुजर कर आता हुआ प्रेम है । अब
सुंदरता परिधानों में नहीं नहीं उन्हें उतारने में है। कुछ साल पहले स्त्री को
सबके सामने छूते हाथ कांपते थे अब उसे चूमे बिना बात नहीं बनती । कैटवाक करते
कपड़े गिरे हों,
या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक
पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं । ‘भोगो
और मुक्त हो,’
यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे ‘मर्द’ की आंख
का आकर्षण बनें यही आज के मीडिया का स्त्री विमर्श है । जीवन शैली अब ‘लाइफ
स्टाइल’
में बदल गयी है । बाजारवाद के मुख्य हथियार ‘विज्ञापन’ अब
नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं । नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन
गयी है। मेगा माल्स, ऊँची ऊँची इमारतें, डियाइनर कपड़ों
के विशाल शोरूम,
रातभर चलने वाली मादक पार्टियां और बल्लियों उछलता नशीला उत्साह । इस पूरे
परिदृश्य को अपने नए सौंदर्यबोध से परोसता, उगलता मीडिया
एक ऐसी दुनिया रच रहा है जहाँ बज रहा है सिर्फ देहराग, देहराग
और देहराग ।
जिंदगी के सवालों से जुड़ने से ही सार्थकताः मीडिया
जैसे प्रभावी जनसंचार माध्यम की सारी विधाएं प्रिंट, इलेक्ट्रानिक
और इंटरनेट जब एक सुर से जनांदोलनों और जिंदगी के सवालों से मुंह चुराने में लगे
हों तो विकल्प फिर उसी दर्शक और पाठक के पास है। वह अपनी अस्वीकृति से ही इन
माध्यमों को दंडित कर सकता है। एक जागरूक समाज ही अपनी राजनीति, प्रशासन
और जनमाध्यमों को नियंत्रित कर सकता है। पर क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं। इस
द्वंद को भी समझने की जरूरत है कि बकवास करते न्यूज चैनल, घर
फोड़ू सीरियल हिट हो जाते हैं और सही खबरों को परोसते चैनल टीआरपी की दौड़ में
पीछे छूट जाते हैं। वैचारिक भूख मिटाने और सूचना से भरे पूरे प्रकाशन बंद हो जाते
हैं जबकि हल्की रूचियों को तुष्ट करने वाली पत्र- पत्रिकाओं का प्रकाशन लोकप्रियता
के शिखर पर है। ये कई सवाल हैं जिनमें इस संकट के प्रश्न और उत्तर दोनों छिपे हैं।
यह अकारण नहीं है देश की सर्वाधिक बिकनेवाली पत्रिका को साल में दो बार सेक्स
हैबिट्स पर सर्वेक्षण छापने पड़ते हैं। क्या इसके बाद यह कहना जरूरी है कि जैसा
समाज होगा वैसी ही राजनीति और वैसा ही उसका मीडिया। पत्रकारिता का सबसे बड़ा धर्म
तो पारिभाषित है कि वह सत्य का अनुगामी हो, सत्य के साथ खड़ा दिखे, जनसंर्घषों और
जनाकांक्षाओं को स्वर दे किंतु उसके संकट नए-नए रूप लेकर सामने आ रहे हैं। जिसमें
बदलते समय से उपजे संकट ज्यादा गहरे हैं। हमें इन संकटों के समाधान के लिए नए
रास्तों की तलाश करनी होगी। हमें यह स्वीकारना होगा कि इन बेहद प्रभावशाली
माध्यमों के इस्तेमाल की शैली हमने अभी विकसित नहीं की है। एक जागरूक समाज और सजग
पाठक ही अपने माध्यमों को नियंत्रित कर सकता है। मीडिया जैसे प्रभावकारी माध्यम को
इसलिए यूं ही अकेला छोड़ा नहीं जा सकता। अच्छे पाठक, दर्शक, मीडिया के शोधछात्र और प्रतिक्रिया करने
वाला समाज ही इस दृश्य को बेहतर बना सकता है। यह बेहतर ही है कि अब तमाम प्रसंगों
पर समाज प्रतिक्रिया करने लगा है वह अपने मीडिया को भी इसमें साथ लेगा और उसे उसका
धर्म निभाने के लिए बाध्य भी करेगा, यह उम्मीद ही भारत के मीडिया के जनोन्मुख और
सरोकारी बनाएगी।
(लेखक माखनलाल
चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में
जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)