शनिवार, 19 मई 2012

बाजार और मीडिया के बीच भारतीय भाषाएं


-         संजय द्विवेदी
     हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर समाज में एक अजीब सा सन्नाटा है। संचार व मीडिया की भाषा पर कोई बात नहीं करना चाहता। उसके जायज-नाजायज इस्तेमाल और भाषा में दूसरी भाषाओं खासकर अंग्रेजी की मिलावट को लेकर भी कोई प्रतिरोध नजर नहीं आ रहा है। ठेठ हिंदी का ठाठ जैसे अंग्रेजी के आतंक के सामने सहमा पड़ा है और हिंदी और भारतीय भाषाओं के समर्थक एक अजीब निराशा से भर उठे हैं। ऐसे में मीडिया की दुनिया में इन दिनों भाषा का सवाल काफी गहरा हो जाता है। मीडिया में जैसी भाषा का इस्तेमाल हो रहा है उसे लेकर शुध्दता के आग्रही लोगों में काफी हाहाकार व्याप्त है। चिंता हिंदी की है और उस हिंदी की जिसका हमारा समाज उपयोग करता है। बार-बार ये बात कही जा रही है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में अंग्रेजी की मिलावट से हमारी भाषाएं अपना रूप-रंग-रस और गंध खो रही है।

बाजार की सबसे प्रिय भाषाः
 हिंदी हमारी भाषा के नाते ही नहीं,अपनी उपयोगिता के नाते भी आज बाजार की सबसे प्रिय भाषा है। आप लाख अंग्रेजी के आतंक का विलाप करें। काम तो आपको हिंदी में ही करना है, ये मरजी आपकी कि आप अपनी स्क्रिप्ट देवनागरी में लिखें या रोमन में। यह हिंदी की ही ताकत है कि वह सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा ही लेती है। उड़िया न जानने के आरोप झेलनेवाले नेता नवीन पटनायक भी हिंदी में बोलकर ही अपनी अंग्रेजी न जानने वाली जनता को संबोधित करते हैं। इतना ही नहीं प्रणव मुखर्जी की सुन लीजिए वे कहते हैं कि वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते क्योंकि उन्हें ठीक से हिंदी बोलनी नहीं आती। कुल मिलाकर हिंदी आज मीडिया, राजनीति,मनोरंजन और विज्ञापन की प्रमुख भाषा है।  हिंदुस्तान जैसे देश को एक भाषा से सहारे संबोधित करना हो तो वह सिर्फ हिंदी ही है। यह हिंदी का अहंकार नहीं उसकी सहजता और ताकत है। मीडिया में जिस तरह की हिंदी का उपयोग हो रहा है उसे लेकर चिंताएं बहुत जायज हैं किंतु विस्तार के दौर में ऐसी लापरवाहियां हर जगह देखी जाती हैं। कुछ अखबार प्रयास पूर्वक अपनी श्रेष्टता दिखाने अथवा युवा पाठकों का ख्याल रखने के नाम पर हिंग्लिश परोस रहे हैं जिसकी कई स्तरों पर आलोचना भी हो रही है। हिंग्लिश का उपयोग चलन में आने से एक नई किस्म की भाषा का विस्तार हो रहा है। किंतु आप देखें तो वह विषयगत ही ज्यादा है। लाइफ स्टाइल, फिल्म के पन्नों, सिटी कवरेज में भी लाइट खबरों पर ही इस तरह की भाषा का प्रभाव दिखता है। चिंता हिंदी समाज के स्वभाव पर भी होनी चाहिए कि वह अपनी भाषा के प्रति बहुत सम्मान भाव नहीं रखता, उसके साथ हो रहे खिलवाड़ पर उसे बहुत आपत्ति नहीं है। हिंदी को लेकर किसी तरह का भावनात्मक आधार भी नहीं बनता, न वह अपना कोई ऐसा वृत्त बनाती है जिससे उसकी अपील बने।
समर्थ बोलियों का संसारः
हिंदी की बोलियां इस मामले में ज्यादा समर्थ हैं क्योंकि उन्हें क्षेत्रीय अस्मिता एक आधार प्रदान करती है। हिंदी की सही मायने में अपनी कोई जमीन नहीं है। जिस तरह भोजपुरी, अवधी, छत्तीसगढ़ी, बुंदेली, बधेली, गढ़वाली, मैथिली,बृजभाषा जैसी तमाम बोलियों ने बनाई है। हिंदी अपने व्यापक विस्तार के बावजूद किसी तरह का भावनात्मक आधार नहीं बनाती। सो इसके साथ किसी भी तरह की छेड़छाड़ किसी का दिल भी नहीं दुखाती। मीडिया और मनोरंजन की पूरी दुनिया हिंदी के इसी विस्तारवाद का फायदा उठा रही है किंतु जब हिंदी को देने की बारी आती है तो ये भी उससे दोयम दर्जे का ही व्यवहार करते हैं। यह समझना बहुत मुश्किल है कि विज्ञापन, मनोरंजन या मीडिया की दुनिया में हिंदी की कमाई खाने वाले अपनी स्क्रिप्ट इंग्लिश में क्यों लिखते हैं। देवनागरी में किसी स्क्रिप्ट को लिखने से क्या प्रस्तोता के प्रभाव में कमी आ जाएगी, फिल्म फ्लाप हो जाएगी या मीडिया समूहों द्वारा अपने दैनिक कामों में हिंदी के उपयोग से उनके दर्शक या पाठक भाग जाएंगें। यह क्यों जरूरी है कि हिंदी के अखबारों में अंग्रेजी के स्वनामधन्य लेखक, पत्रकार एवं स्तंभकारों के तो लेख अनुवाद कर छापे जाएं उन्हें मोटा पारिश्रमिक भी दिया जाए किंतु हिंदी में मूल काम करने वाले पत्रकारों को मौका ही न दिया जाए। हिंदी के अखबार क्या वैचारिक रूप से इतने दरिद्र हैं कि उनके अखबारों में गंभीरता तभी आएगी जब कुछ स्वनामधन्य अंग्रेजी पत्रकार उसमें अपना योगदान दें। यह उदारता क्यों। क्या अंग्रेजी के अखबार भी इतनी ही सदाशयता से हिंदी के पत्रकारों के लेख छापते हैं।
रोमन में हो रहा है कामः
 पूरा विज्ञापन बाजार हिंदी क्षेत्र को ही दृष्टि में रखकर विज्ञापन अभियानों को प्रारंभ करता है किंतु उसकी पूरी कार्यवाही देवनागरी के बजाए रोमन में होती है। जबकि अंत में फायनल प्रोडक्ट देवनागरी में ही तैयार होना है। गुलामी के ये भूत हमारे मीडिया को लंबे समय से सता रहे हैं। इसके चलते एक चिंता चौतरफा व्याप्त है। यह खतरा एक संकेत है कि क्या कहीं देवनागरी के बजाए रोमन में ही तो हिंदी न लिखने लगी जाए। कई बड़े अखबार भाषा की इस भ्रष्टता को अपना आर्दश बना रहे हैं। जिसके चलते हिंदी सरमायी और सकुचाई हुई सी दिखती है। शीर्षकों में कई बार पूरा का शब्द अंग्रेजी और रोमन में ही लिख दिया जा रहा है। जैसे- मल्लिका का BOLD STAP या इसी तरह कौन बनेगा PM जैसे शीर्षक लगाकर आप क्या करना चाहते हैं। कई अखबार अपने हिंदी अखबार में कुछ पन्ने अंग्रेजी के भी चिपका दे रहे हैं। आप ये तो तय कर लें यह अखबार हिंदी का है या अंग्रेजी का। रजिस्ट्रार आफ न्यूजपेपर्स में जब आप अपने अखबार का पंजीयन कराते हैं तो नाम के साथ घोषणापत्र में यह भी बताते हैं कि यह अखबार किस भाषा में निकलेगा क्या ये अंग्रेजी के पन्ने जोड़ने वाले अखबारों ने द्विभाषी होने का पंजीयन कराया है। आप देखें तो पंजीयन हिंदी के अखबार का है और उसमें दो या चार पेज अंग्रेजी के लगे हैं। हिंदी के साथ ही आप ऐसा कर सकते हैं। संभव हो तो आप हिंग्लिश में भी एक अखबार निकालने का प्रयोग कर लें। संभव है वह प्रयोग सफल भी हो जाए किंतु इससे भाषायी अराजकता तो नहीं मचेगी।
हिंदी के खिलाफ मनमानीः
हिंदी में जिस तरह की शब्द सार्मथ्य और ज्ञान-विज्ञान के हर अनुशासन पर अपनी बात कहने की ताकत है उसे समझे बिना इस तरह की मनमानी के मायने क्या हैं। मीडिया की बढ़ी ताकत ने उसे एक जिम्मेदारी भी दी है। सही भाषा के इस्तेमाल से नई पीढ़ी को भाषा के संस्कार मिलेंगें। बाजार में हर भाषा के अखबार मौजूद हैं, मुझे अंग्रेजी पढ़नी है तो मैं अंग्रेजी के अखबार ले लूंगा, वह अखबार नहीं लूंगा जिसमें दस हिंदी के और चार पन्ने अंग्रेजी के भी लगे हैं। इसी तरह मैं अखबार के साथ एक रिश्ता बना पाता हूं क्योंकि वह मेरी भाषा का अखबार है। अगर उसमें भाषा के साथ खिलवाड़ हो रहा है तो क्या जरूरी है मैं आपके इस खिलवाड़ का हिस्सा बनूं। यह दर्द हर संवेदनशील हिंदी प्रेमी का है। हिंदी किसी जातीय अस्मिता की भाषा भले न हो यह इस महादेश को संबोधित करनेवाली सबसे समर्थ भाषा है। इस सच्चाई को जानकर ही देश का मीडिया, बाजार और उसके उपादान अपने लक्ष्य पा सकते हैं। क्योंकि हिंदी की ताकत को कमतर आंककर आप ऐसे सच से मुंह चुरा रहे हैं जो सबको पता है। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी लोकका हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविरायकहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोकको नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की बोनाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। आज के मुख्यधारा के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोककी उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है।
बढ़ती ताकत के बावजूद उपेक्षाः
भारतीय भाषाओं के प्रकाशन आज अपनी प्रसार संख्या और लोकप्रियता के मामले में अंग्रेजी पर भारी है, बावजूद इसके उसका सम्मान बहाल नहीं हो रहा है। इंडियन रीडरशिप सर्वे की रिपोर्ट देंखें तो सन् 2011 के आंकडों में देश के दस सर्वाधिक पढ़े जाने वाले अखबारों में अंग्रेजी का एक मात्र अखबार है वह भी छठें स्थान पर। जिसमें पहले तीन स्थान हिंदी अखबारों के लिए सुरक्षित हैं। यानि कुल पहले 10 अखबारों में 9 अखबार भारतीय भाषाओं के हैं। आईआरएस जो एक विश्वसनीय पाठक सर्वेक्षण है के मुताबिक अखबारों की पठनीयता का क्रम इस प्रकार है-
1.दैनिक जागरण (हिंदी)
2. दैनिक भास्कर (हिंदी)
3.हिंदुस्तान (हिंदी)
4. मलयालम मनोरमा( मलयालम)
5.अमर उजाला (हिंदी)
6.द टाइम्स आफ इंडिया (अंग्रेजी)
7.लोकमत (मराठी)
8.डेली थांती (तमिल)
9.राजस्थान पत्रिका (हिंदी)
10. मातृभूमि (मलयालम)
  देश की सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं में भी पहले 10 स्थान पर अंग्रेजी के मात्र दो प्रकाशन शामिल हैं। इंडियन रीडरशिप सर्वे के 2011 के आंकड़े देखें तो देश में सर्वाधिक प्रसार संख्या वाली पत्रिका वनिता (मलयालम) है। दूसरा स्थान हिंदी के प्रकाशन प्रतियोगिता दर्पण को प्राप्त है। देश में सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली पत्रिकाओं का क्रम इस प्रकार हैः
  1. वनिता (मलयालम)-पाक्षिक
  2. प्रतियोगिता दर्पण (हिंदी)-मासिक
  3. सरस सलिल( हिंदी)-पाक्षिक
  4. सामान्य ज्ञान दर्पण (हिंदी)-मासिक
  5. इंडिया टुडे (अंग्रेजी)-साप्ताहिक
  6. मेरी सहेली (हिंदी)-मासिक
  7. मलयालया मनोरमा (मलयालम)-साप्ताहिक
  8. क्रिकेट सम्राट (हिंदी)-मासिक
  9. जनरल नालेज टुडे (अंग्रेजी)-मासिक
  10. कर्मक्षेत्र (बंगला)-साप्ताहिक       ( स्रोतः आईआरएस-2011 क्यू फोर)
भाषा के अपमान का सिलसिलाः
  इस संकट के बरक्स हम भाषा के अपमान का सिलसिला अपनी शिक्षा में भी देख सकते हैं। हालात यह हैं कि मातृभाषाओं में शिक्षा देने के सारे जतन आज विफल हो चुके हैं। जो पीढ़ी आ रही है उसके पास हिंग्लिस ही है। वह किसी भाषा के साथ अच्छा व्यवहार करना नहीं जानती है। शिक्षा खासकर प्राथमिक शिक्षा में भाषाओं की उपेक्षा ने सारा कुछ गड़बड़ किया है। इसके चलते हम एक ऐसी पीढ़ी तैयार कर चुके हैं जिनमें भारतीय भाषाओं और हिंदी के लिए आदर नहीं है। इसलिए पापुलर का पाठ गाता मीडिया भी ऐसी मिश्रित भाषा के पीछे भागता है। साहित्य के साथ पत्रकारिता की बढ़ी दूरी और भाषा के साथ अलगाव ने मीडिया को एक नई तरह की भाषा और पदावली दी है। जिसमें वह संवाद तो कर रहा है किंतु उसे आत्मीय संवाद में नहीं बदल पा रहा है। जिस भाषा के मीडिया का साहित्य से एक खास रिश्ता रहा हो, उसकी पत्रकारिता ने ही हिंदी को तमाम शब्द दिए हों और भाषा के विकास में एक खास भूमिका निभायी हो, उसकी बेबसी चिंता में डालती है। भाषा, साहित्य और मीडिया के इस खास रिश्ते की बहाली जरूरी है। क्योंकि मीडिया का असर उसकी व्यापकता को देखते हुए साहित्य की तुलना में बहुत बड़ा है। किंतु साहित्य और भाषा के आधार अपने मीडिया की रचना खड़ी करना जरूरी है,क्योंकि इनके बीच में अंतरसंवाद से मीडिया का ही लाभ है। वह समाज को वे तमाम अनुभव भी दे पाएगा जो मीडिया की तुरंतवादी शैली में संभव नहीं हो पाते। पापुलर को साधते हुए मीडिया को उसे भी साधना होगा जो जरूरी है। मीडिया का एक बड़ा काम रूचियों का परिष्कार भी है। वह तभी संभव है जब वह साहित्य और भाषा से प्रेरणाएं ग्रहण करता रहे। भाषा की सहजता से आगे उसे भाषा के लोकव्यापीकरण और उसके प्रति सम्मान का भाव भी जगाना है तभी वह सही मायने में भारत का मीडियाबन पाएगा।

शुक्रवार, 18 मई 2012

मोहब्बत की हदें और सरहदें


बाजार, राजनीति और सत्ता के निशाने पर है भारतीय स्त्री की शुचिता
                    -संजय द्विवेदी

      फ्रांस के राष्ट्रपति भवन में अपनी प्रेमिका के साथ नए राष्ट्रपति फ्रांरवा ओलांद के रहने  की खबर वहां के समाज में बहुत अप्रत्याशित नहीं है। फ्रांस के लोगों को इस बात की बहुत परवाह नहीं है कि नैतिकता को वे इस तरह से देखें। उनके लिए शायद वफादारी बहुत बड़ा सवाल न हो। वहां के पूर्व राष्ट्रपति सरकोजी भी इस मामले में ज्यादा ईमानदार दिखते हैं कि वे अपने प्रेम को स्वीकार करते हैं अपनी प्रेमिका कार्ला ब्रूनी के साथ शादी कर लेते हैं। जबकि बहुत से समाज या उनकी राजनीति इतनी उदार नहीं है कि इन घटनाओं को आसानी से पचा जाए।
समाज में जारी पाखंड पर्वः
अमरीका जैसे समाज में भी नैतिकता के उच्च मापदंडों की नेताओं से अपेक्षा की जाती है। नेताओं की बीबियां किसी भी राजनैतिक अभियान का एक प्रमुख चेहरा होती हैं। शायद इससे यह संदेश जाता हो कि एक हंसते-खेलते परिवार का मुखिया शायद देश ठीक से चला सके। दुनिया के अनेक समाज इस तरह के पाखंड के साथ ही जीते हैं। समाज जैसा भी जीवन जी रहा हो, वह अपने नायकों से उच्च नैतिक मापदंडों की अपेक्षा करता है। सार्वजनिक जीवन में भ्रष्टाचार और व्यभिचार ऐसे ही पाखंडों से पैदा होते हैं। नारायणदत्त तिवारी के साथ पितृत्व के सवाल पर लड़ रहे रोहित शेखर या भोपाल की शेहला मसूद- जाहिदा और ध्रुवनारायण कथा हो या फिर अभिषेक मनु सिंघवी की कहानी। सब हमारे सार्वजनिक जीवन के द्वंद को उजागर करते हैं। नेता भी तो समाज का ही हिस्सा है। जब पूरा समाज पाखंड पर्व में डूबा हो तो सच्चा प्यार इस बाजार में दुर्लभ ही है। हालांकि हिंदुस्तानी समाज, राज कर रहे नेतृत्व को अपने से अलग मानकर चलता है। उसने कभी अपनी नैतिकताएं राज करने वालों लोंगों पर नहीं थोपीं और मानकर चला कि उन्हें भोग करने, ज्यादा सुख से जीने और थोड़ा अलग करने का हक है। राजाओं की भोग-विलास की कथाएं, नवाबों के हरम, रईसों के शौक पर पलते कोठों से लेकर रखैलों का सारा खेल इस समाज ने देखा है और खामोश रहा है।
नेताओं की रूमानियतः
  आज जबकि समाज जीवन में बहुत खुलापन आ गया है तो इस तरह की चर्चाएं बहुत जल्दी आम हो जाती हैं किंतु पूर्व में भी ऐसे किस्से लगातार कहे और सुने गए। प्रेम की कथाएं हिंदुस्तानियों के बहुविवाहों के चलते दबी पड़ी रहीं और अब वे लगातार दूसरी तरह से कही जा रही हैं। हमारे नेतृत्व में बैठे नेताओं की रूमानियत चर्चा में रही है। किंतु रूमानियत, मोहब्बत और प्रेम की ये कथाएं अलग-अलग तरीके से विश्लेषित किए जाने की मांग करती हैं। एक कहानी में प्यार सच्चा हो सकता है। किंतु ज्यादातर कहानियों में पुरूष एक शिकारी सरीखा नजर आता है, उसके लिए महिलाएं एक ट्राफी सरीखी हैं। सत्ता, अधिकार और पैसा , ज्यादा औरतों का उपयोग करने की मानसिकता को बढ़ाता हैं। अभिषेक मनु सिंधवी और बिल क्लिंटन जैसी कथाओं से इसे समझा जा सकता है, इसमें स्त्री का प्यार सहज नहीं है। वह उपयोग हो रही है, सेक्स में साथ है किंतु उसमें प्यार नहीं है। इसमें कुछ पाने की आकांक्षा छिपी हुयी है। पुरूष दाता की भूमिका में है, वह स्त्री को सड़क से उठाकर शिखर पर बिठा सकता है। यह स्त्री का एक अलग तरह का संधर्ष है, जिसके माध्यम से वह जल्दी व ज्यादा पाना चाहती है। उप्र के मंत्री रहे अमरमणि त्रिपाठी- कवियत्री मधुमिता शुक्ला की कहानी, पत्रकार शिवानी भटनागर जैसी तमाम कहानियां हमें बताती हैं स्त्री किस तरह शिकार हो रही है, या शिकार की जा रही है। स्त्री और पुरूष के बीच बन रहे ये रिश्ते भले सहमति से बन रहे हैं किंतु दोनों पक्षों में गैरबराबरी बहुत प्रकट है। इन कहानियां में प्यार नहीं है, पर रिश्तों की हदें तोड़कर जान लेती कहानियां जरूर हैं। स्त्री यहां भी एक शिकार है। शिकारी पुरूष हो या उसकी पत्नी या प्रेमिका, किंतु जान तो औरत की जा रही है। सत्ता और अधिकार से जुड़े पुरूषों के ये हरम निरंतर विस्तार पा रहे हैं। सत्ता का नशा और औरतें जमाने से साथ-साथ चली हैं। जर-जोरू और जमीन जैसे मुहावरे हमें यही बताते हैं। निश्चित ही अपने घरों में पोर्न देखते लोगों पर आप आपत्ति नहीं कर सकते पर जब यही सत्ता के मदांध लोग विधानसभा में पोर्न फिल्में देख रहे हों तो इसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। जनता की जेब से जाने वाले धन से चल रही विधायिका में आप ऐसा कैसे कर सकते हैं, जो समय आपने संसद या विधानसभा में जनता के सवालों पर संवाद पर के लिए दिया है, वहां ऐसी हरकतें हमारी राजनीति के प्रति दया जगाती हैं।
निजी जीवन में झांकते कैमरेः
   निश्चत ही निजी जीवन में झांकना और फेसबुकिया चरित्रहनन संवाद से सहमति नहीं जताई जा सकती। निजता के सम्मान के सवाल अपनी जगह महत्वपूर्ण हैं किंतु हमें यह तो स्वीकारना ही होगा कि बाजार, राजनीति और सत्ता मदमस्त होकर स्त्री की शुचिता का अपहरण करने में लगी है। दुखद है कि सत्ता और राजनीति की इस आकांक्षा को औरतों ने भी पहचान लिया है और वे इसका इस्तेमाल करने में, जल्दी और ज्यादा पाने की कोशिश में कई बार सफल हो जाती हैं तो कई बार अपनी जान तक गवां बैठती हैं। सत्ता पूरब की हो पश्चिम की वह अपने चरित्र में ही भ्रष्ट और व्यभिचारी होती है। आशिकमिजाज ताकतवर नेता और अधिकारी कथित प्रेम में पगलाई स्त्रियों के साथ जो कर रहे हैं वह बात चिंता में डालती है।
बाजार के केंद्र में स्त्रीः
 भारतीय संदर्भ में हम देखें तो पूरी व्यवस्था और बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। स्त्री आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षित आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है। ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्री को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बच्चियों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्री सही मायने में इस दौर में ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शक्ति का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्री पर मुग्ध बाजार उसकी शक्ति तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पब्लिसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। ऐसे कठिन समय में हमें स्त्रियों को बाजार, राजनीति, सत्ता के प्रलोभनों को समझना होगा। सत्ता और बाजार के हरम सजे पड़े हैं, उससे बचना और अपनी इयत्ता को बचाए रखना ही भारतीय स्त्री को मुक्त करेगा और सम्मानित भी।

सोमवार, 7 मई 2012

नक्सलवाद के खिलाफ हमारी मिमियाहटें


 
कोई भ्रष्ट तंत्र माओवाद से कैसे जीतेगा जंग ?
-संजय द्विवेदी
   
उड़ीसा और छत्तीसगढ़ की सरकारें दो कलेक्टरों और एक विधायक के अपहरण से सदमे से फिर उबर आई हैं। लेकिन यह सवाल मौजूं है कि आखिर कब तक?  उड़ीसा के मलकानगिरी के कलेक्टर से लेकर छत्तीसगढ़ के सुकमा कलेक्टर के अपहरण तक हमने देखा कि सरकारें इन सवालों पर कितनी बदहवास और किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती हैं। यह दर्द शुक्रवार को दिल्ली में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह के बयान में भी दिखा जिसमें उन्होंने कहा कि अपहरण पर राष्ट्रीय नीति बने और सीएम का  भी अपहरण हो तो भी आरोपी छोड़े न जाएं।
हम तय करें अपना पक्षः
    अब सवाल यह उठता है कि भारतीय राज्य का नक्सलवाद जैसी समस्या के प्रति रवैया क्या है? क्या राज्य इसे एक सामाजिक-आर्थिक समस्या मानता है या माओवाद को एक ऐसी संगठित आतंकी चुनौती के रूप में देखता है, जिसका लक्ष्य 2050 तक भारत की राजसत्ता पर बंदूकों के बल पर कब्जा करना है। नक्सली अपने इरादों में बहुत साफ हैं। वे कुछ भी छिपाते नहीं और हमारे तंत्र की खामियों का फायदा उठाकर अपना क्षेत्र विस्तार कर रहे हैं, हजारों करोड़ की लेवी वसूल रहे हैं और अपने तरीके से एक कथित जनक्रांति को अंजाम दे रहे हैं। हर साल हमारी सरकारें नक्सल आपरेशन के नाम पर हजारों करोड़ खर्च कर रही हैं, किंतु अंजाम सिफर है। हमारे हिस्से बेगुनाह आदिवासियों और सुरक्षाकर्मियों की लाशें ही आ रही हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या भारतीय राज्य नक्सलवाद से लड़ना चाहता है? क्या वह इस समस्या के मूल में बैठे आदिवासी समाज की समस्याओं के प्रति गंभीर है? क्या स्वयं आदिवासी समाज के बडे पदों पर बैठे नेता, अधिकारी और जनप्रतिनिधि इस समस्या का समाधान चाहते हैं? क्या इस पूरे विमर्श में आदिवासी या आदिवासी नेतृत्व कहीं शामिल है? इन सवालों से टकराएं और इनके ठोस व वाजिब हलों की तलाश करें तो पता चलता है कि सरकार से लेकर प्रभुवर्गों में इन मुद्दों को लेकर न तो कोई समझ है ना ही अपेक्षित गंभीरता।
बस्तर में गिरती लाशें-
   सरकारें चुनाव जीत रही हैं और माओवाद प्रभावित इलाकों से भी प्रतिनिधि जीतकर आ रहे है। सरकार चल रही है और बजट खर्च हो रहा है। उप्र, बिहार और ऐसे तमाम इलाकों के गरीब परिवारों के बच्चे जो जंगल की बारीकियां नहीं जानते, सीआरपीएफ के सिपाही बनकर यहां अपनी मौत खुद मांग रहे हैं। जबकि राज्य को पता ही नहीं कि उसे लड़ना है या नहीं लड़ना है। अगर नहीं लड़ना है तो ये लाशें क्यों बस्तर में लगातार गिर रही हैं?  आदिवासी समाज के सवालों और उनकी मांगों के लिए काम करने वाले जनसंगठन इस दृश्य से बाहर क्यों हैं? क्या वे वहां व्याप्त समस्याओं का समाधान चाहते हैं?  ये चीजें भी चिंता में डालती हैं कि नक्सल इलाकों में सारा कुछ बहुत बेहतर चल रहा है। नेता, ठेकेदार, अफसर, व्यापारी सब वहां सुखी हैं। उनका नक्सलियों से कोई प्रतिरोध नहीं है। लेवी के खेल ने सारा कुछ बहुत सरल बना दिया है। ये इलाके लूट के इलाकों में बदल गए हैं, जहां दृश्य जंगल में मंगल जैसा है। एक भारत के बीच, एक अलग भारत, हम मानें या न मानें बन गया है। दो राज कायम हो चुके हैं। एक राज हमारे असफल गणतंत्र का है, दूसरा नरभक्षी नक्सलवाद का। उनके हाथ जिले के सबसे कद्दावर अफसर कलेक्टर तक पहुंच चुके हैं। पैसे दिए बिना आप वहां न नौकरी कर सकते हैं न ही ठेकेदारी और न ही व्यापार। यह जनयुद्ध की कड़वी सच्चाईयां है, जिसे सरकारें भी जानती हैं।
पशुपति से तिरूपति तक लाल गलियाराः
पशुपति से तिरूपति तक लाल गलियारा बनाने की साजिशें और भारत की राजसत्ता पर कब्जे का नक्सली स्वप्न बहुत प्रकट है। उनकी हिंसा में जनक्रांति और लोकतंत्र में संशोधन की बातें सिर्फ गुमराह करने वाली हैं, जो उनके पालतू बुद्धिजीवी करते रहते हैं। हमें यह भी समझना होगा कि लोकतंत्र की विफलता ने ही नक्सलवाद की विकृति को बढ़ावा दिया है। असमानताओं की बढ़ती खांईं, भ्रष्ट प्रशासनिक और पुलिस तंत्र ने इन हालात को और बदतर किया है। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि लोकतंत्र को कुछ लोगों और तबकों ने अपना बंधक बना लिया है और सामान्य लोगों को उनके हक देने में हमारा परंपरागत संकोच कायम है। हमें इस बात पर सोचना होगा कि आखिर आजादी के इन छः दशकों में हमारा जनतंत्र आम आदमी के लिए स्पेस क्यों नहीं बना पाया। हमें यह भी पता है कि कोई भी भ्रष्ट तंत्र नक्सलवाद जैसी बीमारियों का मुकाबला नहीं कर सकता क्योंकि वह नक्सल प्रभावित इलाकों में आ रहे विकास के पैसे से लेकर, सुरक्षा के पैसे को भी सिर्फ हजम कर सकता है। देखा यह भी  जाना चाहिए कि आदिवासी इलाकों में जा रहा पैसा आखिर किसके पेट में जा रहा है?
   क्या इन इलाकों में केंद्र और राज्य की सरकारों की योजनाओं का ईमानदारी से क्रियान्वयन हो रहा है? नमक के लिए आदिवासियों के शोषण का किस्सा छत्तीसगढ़ में मशहूर रहा है। पिछले कई सालों से छत्तीसगढ़ में नमक पहले पचीस पैसे किलो फिर गरीबों के लिए उसे मुफ्त कर दिया गया। चावल एक रूपए किलो में उपलब्ध है। छत्तीसगढ़ सरकार ने अपने पीडीएस सिस्टम को फुलप्रूफ किया है। उनकी सार्वजनिक वितरण प्रणाली की विरोधी भी तारीफ कर रहे हैं। किंतु आज तक मेरे संज्ञान में यह बात नहीं है कि राशन का वितरण न होने पर नक्सलियों ने किसी राशन दुकानदार को सजा दी हो। तेंदुपत्ता का सही दाम न देने पर किसी तेंदुपत्ता ठेकेदार या व्यापारी से जंग लड़ी हो। लेवी दीजिए और तेंदुपत्ता तोड़िए। कुल मिलाकर अगर जंगल में आप नक्सलियों के साथ हैं तो आपको कोई परवाह नहीं करनी चाहिए। समानांतर सरकार आखिर क्या होती है? नक्सलियों को जो समर्थन मिला है वह कोई जनता का स्वाभाविक समर्थन है यह मानना भी भारी भूल है। राबिनहुड शैली में आप लोगों को फौरी न्याय दिलाकर लोकप्रिय हो सकते हैं। हर हिंसक अभियान और डकैत भी अपने को सही साबित करने के लिए बेहद लोकप्रिय तर्क रखते हैं। किंतु इससे उनका हिंसाचार जायज नहीं हो जाता है। बंदूकों के भय से नक्सली अगर कुछ लोगों को साथ ले पा रहे हैं और उनके शांतिमय जीवन में जहर धोल पा रहे हैं तो यह सुविधा लोकतंत्र की विफलता ने ही उन्हें उपलब्ध कराई है। राज्य की हिंसा की निरंतर और निर्मम आलोचना होनी चाहिए किंतु नक्सलियों ने जिस तरह एक शांतिप्रिय समाज का सैनिकीकरण किया है, उस खामोशी ओढ़ लेना न्याय संगत नहीं है। पश्चिम बंगाल में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में 200 यात्रियों को विस्फोट से उड़ा देनी वाली खूनी विचारधारा सत्ता में आकर क्या करेगी बहुत प्रकट है। ऐसी तमाम सामूहिक कत्लेआम और बर्बरता की कहानियां नक्सलियों के नाम दर्ज हैं, किंतु हमें पुलिस की हिंसा पर हाय-हाय का अभ्यास है जैसे यह पुलिस अमरीका की पुलिस हो।
नक्सलवाद को खारिज करने का समयः
  आज समय आ गया है जब नक्सलवादियों में मुक्तिदाताओं की तलाश के बजाए इसे पूरी तरह खारिज किया जाना चाहिए। समस्या है तो नक्सली हैं यह कहना ठीक नहीं। समस्याएं नहीं होगीं तो भी नक्सली होंगें। इनका घोषित लक्ष्य इस देश की बरबादी और लोकतंत्र का खात्मा है। वे अपने सपनों के लिए काम कर रहे हैं। उनका उद्देश्य हमारे लोकतंत्र में जनतांत्रिक संशोधन या संवेदनशीलता का प्रसार नहीं है बल्कि वे कुछ और ही चाहते हैं। इस इरादे को समझने की जरूरत है। हमें यह भी समझना होगा कि आखिर कश्मीर, बस्तर और लिट्टे के अतिवादियों के तार आपस में क्यों जुड़े हैं। कुछ विदेशी ताकतें इनके लिए इतनी उदार क्यों हैं। एक समर्थ और समस्याविहीन भारत किसके लिए समस्या है?  नक्सलवाद या इस तरह के तमाम अतिवादियों से लड़ते हुए हम अपनी कितनी सारी पूंजी हर साल पानी में डाल रहे हैं। किंतु ये समस्याएं हल नहीं हो रही हैं। मानवाधिकार संगठनों से लेकर बुद्धिजीवियों का एक तबका इस हिंसा में जनमुक्ति की संभावनाएं तलाश रहा है। क्या यह सारा कुछ अकारण है?  क्या इनकी कोशिश भारतीय लोकतंत्र के प्रति जनता के विश्वास को समाप्त करने की नहीं है? एक बार जनतंत्र से भरोसा उठ जाए तो देश को तोड़ने का काम बहुत आसान हो जाएगा। अफसोस हमारा राजनीतिक तंत्र भी इन चीजों को नहीं समझ रहा है। वह नक्सलियों, आतंकवादियों और अतिवादियों से लड़ने के बजाए बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को निपटाने में लगा है।
कठोर संकल्पों का समयः
 यह एक ऐसा समय है जब हमें कुछ कठोर संकल्प लेने होंगें। परमाणु करार को पास कराने और अब एफडीआई के लिए जान लड़ाने वाले प्रधानमंत्री जाहिर तौर पर यह नहीं कर सकते। किंतु अफसोस यही है कि हम एक गंभीर संकट के सामने हैं और हमारे केंद्र में श्रीमती इंदिरा गांधी जैसी प्रधानमंत्री और राज्य में स्व.बेअंत सिंह जैसे मुख्यमंत्री नहीं है जिनके संकल्पों और शहादत से पंजाब आतंकवाद की काली छाया से मुक्त हो सका। पंजाब की याद करें तो उसके हालात कितने खराब थे, पाकिस्तान की प्रेरणा और मदद से इस इलाके में खून बह रहा था किंतु आज पंजाब में शांति है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने भी अपने तरीके से फौरी तौर पर नक्सलवाद पर अंकुश लगाने का काम किया है। किंतु हम अगले किसी उच्चअधिकारी के अपहरण की प्रतीक्षा में बैठे नहीं रह सकते। इसलिए जरूरी है कि नक्सल प्रभावित राज्य और केंद्र दोनों इस समस्या के परिणामकेंद्रित हल के लिए आगे आएं। हल वार्ता से हो या किसी अन्य तरीके से हमें बस्तर और इस जैसी तमाम जमीनों पर शांति के फूल फिर से खिलाने होंगें, बारूदों की गंध कम करनी होगी। लेकिन इसके लिए मिमियाती हुई सरकारों को कुछ कठोर फैसले लेने होंगें, भ्रष्ट तंत्र पर लगाम कसनी होगी, ईमानदार और संकल्प से दमकते अफसरों को इन इलाकों में तैनात करना होगा और उनको काम करने की छूट देनी होगी। समाज को साथ लेते हुए, दमन को न्यूनतम करते हुए उनका विश्वास हासिल करते हुए आगे बढ़ना होगा। शायद इससे भटका हुआ रास्ता,किसी मंजिल पर पहुंच जाए।
(लेखक नक्सल मामलों के जानकार हैं)

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

सोशल मीडिया के खतरों का भी रखें ख्यालः अग्रवाल




विश्वविद्यालय में व्याख्यान,पूर्व छात्र मिलन तथा सांस्कृतिक संध्या का आयोजन

भोपाल, 7 अप्रैल। संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष प्रो. देवप्रकाश अग्रवाल का कहना है कि सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभावों के मद्देनजर इसके सही इस्तेमाल की जरूरत है ताकि यह बेहद प्रभावकारी माध्यम गलत तत्वों के हाथ में पड़कर सामाजिक अशांति का कारण न बन जाए।

वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में आयोजित माखनलाल चतुर्वेदी स्मृति व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। रवींद्र भवन में आयोजित व्याख्यान का विषय था सोशल मीडिया और लोकतंत्र। उन्होंने कहा कि किसी भी माध्यम की मर्यादाएं जरूरी हैं ताकि वह आतंकियों, समाजतोड़कों के हाथ में न पड़ सके। उनका कहना था कि सोशल मीडिया शिक्षा, परिवार, समाज, सरकार सारे सरोकारों को प्रभावित कर रहा है। उसकी यह ताकत लोकतंत्र को मजबूत तो कर रही है पर हमें इसके खतरों का भी ख्याल रखना होगा।

उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया ने आम आदमी को आवाज दी है और परंपरागत माध्यमों से अलग उसने एक नए तरीके से दुतरफा और चौतरफा संवाद को संभव बनाया है। इसने हमारी भाषा और जीवन सबमें एक जगह बनानी शुरू कर दी है। सोशल मीडिया में कोई रोक- टोक न होना और किसी स्तर पर इसका संपादन न होना इसे खतरे की ओर ढकेलता है। आज भी हिंदुस्तान जैसे देश में यह सामूहिक आवाजों का माध्यम नहीं है, क्योंकि बहुत कम लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं, भले इसकी गूंज बहुत ज्यादा हो। श्री अग्रवाल ने कहा कि युवाओं के सवाल, उनके मुद्दे और भाषा अलग है और यही वर्ग इस माध्यम पर ज्यादा सक्रिय है।

लोकतंत्र देता है फैसलों की ताकतः इसके पूर्व भारतीय प्रबंध संस्थान, इंदौर के निदेशक प्रो. एन.रविचंद्रन ने कहा कि लोकतंत्र हमें फैसले लेने की ताकत देता है। यह आम आदमी को आवाज देता है, ऐसे में सोशल मीडिया का आना इस ताकत को और बढ़ा देता है। मीडिया के चलते ही आज कारगिल युद्ध के बाद सेना के प्रति एक सम्मान का भाव जगा तथा लोग सेना की नौकरी को एक आदर से देखने लगे हैं। इसी तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ मीडिया के जागरण का ही परिणाम है कि अन्ना हजारे की तुलना गांधी से की जाने लगी। कामनवेल्थ खेलों से लेकर टूजी घोटाले के सवाल आम आदमी के मुद्दे बने यह मीडिया के चलते ही संभव हुआ। सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता का सवाल आज लोगों तक पहुंचा तो इसके पीछे सोशल मीडिया की एक बड़ी ताकत है। उनका कहना था कि एक जीवंत लोकतंत्र के लिए एक सक्रिय मीडिया जरूरी है।

राय बनाने में अहम रोलः कार्यक्रम के मुख्यअतिथि प्रदेश के पुलिस महानिदेशक नंदन दुबे ने कहा कि मीडिया का लोगों की राय बनाने में एक अहम रोल है। लोकतंत्र शासन चलाने का सबसे बेहतर तरीका है। मीडिया आज बहुत सारी चीजों को बनाने बिगाड़ने में एक बड़ी भूमिका अदा कर रहा है। ऐसे में अगर मीडिया ईमानदार और प्रतिबद्ध हो तो वह लोकतंत्र को मजबूत करने में एक बड़ी भूमिका निभा सकता है।

विचारों का लोकतंत्रः कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि सोशल मीडिया ने वास्तव में वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को साकार कर दिया है। इससे पार्टनरशिप बन रही है, संवाद बन रहा है और फिर संबंध बन रहे हैं। परंपरागत मीडिया में जहां संवाद नियंत्रित था और कुछ ही लोग यह तय कर रहे थे कि क्या पढ़ना है और किन सवालों पर बात होनी है, वहीं सोशल मीडिया ने आम आदमी को ताकत दी है। इसने जाति, भाषा, भूगोल और सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर एक वैश्विक संवाद की परंपरा की शुरूआत की है। लोकतंत्र चुनावों तक सीमित नहीं है ,यहां विचारों का भी लोकतंत्र होना चाहिए। सोशल मीडिया ने इसे संभव कर दिखाया है। इससे पूरी मानवता एक सूत्र में जुड़ती हुयी दिखने लगी है।

सत्र का संचालन प्रो. आशीष जोशी और आभार प्रदर्शन प्रो. रामदेव भारद्वाज ने किया। कार्यक्रम में पत्रकार रमेश शर्मा, रामभुवन सिंह कुशवाह, कैलाश चंद्र पंत, सुरेश शर्मा, दीपक शर्मा, इंडिया टुडे के पूर्व कार्यकारी संपादक जगदीश उपासने, डा. रामजी त्रिपाठी, प्रो.बीएस निगम, संदीप भट्ट, डा. अरूण भगत, रजनी नागपाल, सूर्यप्रकाश, प्रो. सीपी अग्रवाल, रजिस्ट्रार चंदर सोनाने सहित अनेक लोग उपस्थित रहे।

पूर्व छात्रों सम्मेलन में विविध मुद्दों पर चर्चाः कार्यक्रम के दूसरे सत्र में आयोजित पूर्व छात्र मिलन में मीडिया, जनसंचार और आईटी से जुड़े पूर्व छात्रों ने अपने अनुभव सुनाए और कई सुझाव भी दिए। इस सत्र में वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी, अजयप्रकाश उपाध्याय, सिद्धार्थ मुखर्जी, जाली जैन, अजीत सिंह, चंदन गोयल, धर्मेंद्र सिंह भदौरिया, अभय प्रधान, सत्यप्रकाश, प्रियंका दुबे, आलोक मिश्र, गणेश मालवीय, राजकमल, मनीष सिंह, श्रीकांत त्रिवेदी ने भी अपने विचार व्यक्त किए।

सायं के सत्र में विद्याथियों ने सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दीं तथा प्रतिभा के वार्षिक आयोजन में विजेता छात्र-छात्राओं को पुरस्कृत भी किया गया।

संवेदना के बिना पत्रकारिता संभव नहीं- उपाध्याय




भोपाल, 16 अप्रैल। वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय का कहना है कि संवेदनशीलता के बिना पत्रकारिता संभव नहीं है। एक पत्रकार की दृष्टि संपन्नता और संवेदनशीलता ही उसको प्रामणिकता प्रदान करती है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग द्वारा आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे।

श्री उपाध्याय ने कहा कि नए पत्रकारों को घटनाओं को देखने और बरतने का तरीका बदलना होगा। आज जब दुनिया में पत्रकारिता के अंत की बातें हो रही हैं तो हमें अपनी मीडिया को ज्यादा सरोकारी और जवाबदेह बनाना होगा। संवेदना, वैल्यू एडीशन और नजरिया ही किसी भी पत्रकारीय लेखन की सफलता है। उन्होंने दुख जताते हुए कहा कि मीडिया को आज लोग सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा मानने लगे हैं, यह धारणा बदलने की जरूरत है। टेलीविजन में नकारात्मक संवेदनाएं बेचने पर जोर है, जिससे इस माध्यम को लोग गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। उनका कहना था कि पत्रकारिता 20-20 का मैच नहीं है, यह दरअसल टेस्ट मैच है, जिसमें आपको लंबा खेलना होता है। धैर्य, समर्पण और सतत लगे रहने से ही एक पत्रकार अपना मुकाम हासिल करता है। आज इस दौर में जब शब्द महत्व खो रहे हैं तो हमें शब्दों की बादशाहत बनाए रखने के लिए प्रयास करने होंगें। कार्यक्रम के प्रारंभ में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी और डा. मोनिका वर्मा ने श्री उपाध्याय का स्वागत किया। संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया।

शुक्रवार, 16 मार्च 2012

मेरी नई किताब 'कुछ भी उल्खेनीय नहीं' की भूमिका


भूमिका

कुछ कहना था इसलिए....

अपने समय, परिवेश, देश और भोगे जा रहे समय पर कोई तटस्थ कैसे रह सकता है ? बहुत से दुख जो खुद नहीं भोगे गए, उन्हें किसी और ने भोगा होगा, संकट जो मुझ पर नहीं आए किसी और पर आए होंगें। मौतें, विभीषिकाएं, गरीबी, बेरोजगारी जैसे दुखों से मेरा नहीं पर तमाम लोगों का सामना होता है। अब सवाल यह उठता है कि दूसरों के दर्द अपने कब लगने लगते हैं ? दूसरों के लिए आवाज देने में सुख क्यों आने लगता है ? मेरे लिखे हुए में, पूरी विनम्रता के साथ यही परदुखकातरता मौजूद है।

मेरे पास अपने निजी दुख नहीं हैं, संघर्ष की कथाएं भी नहीं हैं, थका देने वाली मेहनत के बाद मिलने वाली रोटी जैसी जिंदगी भी नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं बहुत चैन से हूं। मैं भी दुखी हूं कि क्योंकि मेरे आसपास बहुत से लोग दुखी हैं। मेरे लेखन की मनोभूमि यही है। मुझे यह बात चौंकाती है कि उपभोग की सीमा तय क्यों नहीं है? हमारे समय के एक बड़े राजनेता स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कभी कहा था कि गरीबी के साथ अमीरी की भी रेखा तय होनी चाहिए। वे यह कहते हुए कितने गंभीर थे, मुझे नहीं पता, किंतु मुझे लगता है कि हमारे समय के सबसे बड़े संकट पर जाने-अनजाने वे एक बड़ी बात कह गए थे।

इस देश के पास दुखों का एक पहाड़ सा है। इन दुख के टापुओं के बीच सारी चमकीली प्रगति पासंग सी दिखने लगती है। मोबाइल, माल, मीडिया और मनी ने हमें कितना बनाया है, इसका आंकलन लोग करेंगें किंतु जीवन की सहजता का इन सबने मिलकर अपहरण कर लिया है, इसमें दो राय नहीं है। एक नई तरह की सामाजिक संरचना के बीच अलग-अलग बनते हुए हिंदुस्तान, अलग-अलग सांस लेते हिंदुस्तान, अलग- अलग शिक्षा पाते हिंदुस्तान और अलग-अलग तरह से बरते जाते हिंदुस्तान, एक क्षोभ जगाते हैं। राजनीति को कोसने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, क्योंकि समाज की परिवर्तनकामी ताकतें और बुद्धिजीवी खुद मौकापरस्ती के इतिहास रच रहे हैं। आंदोलन, समर्पण कर रहे हैं और अराजनैतिक ताकतों का राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ रहा है। राजनीति जनता के लिए जवाबदेह नहीं, कारपोरेट- ठेकेदारों और हर तरह कानून तोड़ने वालों की बंधक बन रही है। कई बार लगता है कि हर समय, इतना ही कठिन रहा होगा। यह हिंदुस्तान की जिजीविषा है कि वह शासक वर्गों की इतनी उपेक्षाओं के बावजूद, गुलामियों के लंबे दौर-दौरे के बावजूद धड़कता रहा। इसी हिंदुस्तान की रूकती हुई सांसों, उसकी गुलाम होती भाषा, उसकी बदलती रूचियां और अपने परिवेश को हिकारत से देखने की दृष्टि, मुझे चिंता में डालती है।

आज का समय बीती हुई तमाम सदियों के सबसे कठिन समयों में से एक है। जहाँ मनुष्य की सनातन परंपराएँ, उसके मूल्य और उसका अपना जीवन ऐसे संघर्षों के बीच घिरा है, जहाँ से निकल पाने की कोई राह आसान नहीं दिखती। भारत जैसे बेहद परंपरावादी, सांस्कृतिक वैभव से भरे-पूरे और जीवंत समाज के सामने भी आज का यह समय बहुत कठिन चुनौतियों के साथ खड़ा है। आज के समय में शत्रु और मित्र पकड़ में नहीं आते। बहुत चमकती हुई चीज़ें सिर्फ धोखा साबित होती हैं। बाजार और उसके उपादानों ने मनुष्य के शाश्वत विवेक का अपहरण कर लिया है। जीवन कभी जो बहुत सहज हुआ करता था, आज के समय में अगर बहुत जटिल नज़र आ रहा है, तो इसके पीछे आज के युग का बदला हुआ दर्शन है।

भारतीय परंपराएं आज के समय में बेहद सकुचाई हुई सी नज़र आती हैं। हमारी उज्ज्वल परंपरा, जीवन मूल्य, विविध विषयों पर लिखा गया बेहद श्रेष्ठ साहित्य, आदर्श, सब कुछ होने के बावजूद हम अपने आपको कहीं न कहीं कमजोर पाते हैं। यह समय हमारी आत्मविश्वासहीनता का भी समय है। इस समय ने हमें प्रगति के अनेक अवसर दिए हैं, अनेक ग्रहों को नापतीं मनुष्य की आकांक्षाएं, चाँद पर घर बसाने की उम्मीदें, विशाल होते भवन, कारों के नए माडल -ये सारी चीज़ें मिलकर भी हमें कोई ताकत नहीं दे पातीं।

विकास के पथ पर दौड़ती नई पीढ़ी मानो जड़ों से उखड़ती जा रही है। इक्कीसवीं सदी में घुस आई यह पीढ़ी जल्दी और ज़्यादा पाना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी मूल्य को शीर्षासन कराना पड़े, तो कोई हिचक नहीं । यह समय इसीलिए मूल्यहीनता के सबसे बेहतर समय के लिए जाना जाएगा। यह समय सपनों के टूटने और बिखरने का भी समय है। यह समय उन सपनों के गढऩे का समय है, जो सपने पूरे तो होते हैं, लेकिन उसके पीछे तमाम लोगों के सपने दफ़्न हो जाते हैं। ये समय सेज का समय है, निवेश का समय है, लोगों को उनके गाँवों, जंगलों, घरों और पहाड़ों से भगाने का समय है। ये भागे हुए लोग शहर आकर नौकर बन जाते हैं। इनकी अपनी दुनिया जहाँ ये मालिक की तरह रहते थे, आज के समय को रास नहीं आती। ये समय उजड़ते लोगों का समय है। गाँव के गाँव लुप्त हो जाने का समय है। ये समय ऐसा समय है, जिसने बांधों के बनते समय हजारों गाँवों को डूब में जाते हुए देखा है। यह समय हरसूद को रचने का समय है । खाली होते गाँव,ठूँठ होते पेड़, उदास होती चिड़िया, पालीथिन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत, बिकती हुई नदी, धुँआ उगलती चिमनियाँ, काला होता धान ये कुछ ऐसे प्रतीक हैं, जो हमें इसी समय ने दिए हैं। यह समय इसीलिए बहुत बर्बर है। बहुत निर्मम और कई अर्थों में बहुत असभ्य भी।

यह समय आँसुओं के सूख जाने का समय है । यह समय पड़ोसी से रूठ जाने का समय है। यह समय परमाणु बम बनाने का समय है। यह समय हिरोशिमा और नागासाकी रचने का समय है। यह समय गांधी को भूल जाने का समय है। यह समय राम को भूल जाने का समय है। यह समय रामसेतु को तोड़ने का समय है। उन प्रतीकों से मुँह मोड़ लेने का समय है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं। यह जड़ों से उखड़े लोगों का समय है और हमारे सरोकारों को भोथरा बना देने का समय है। यह समय प्रेमपत्र लिखने का नहीं, चैटिंग करने का समय है। इस समय ने हमें प्रेम के पाठ नहीं, वेलेंटाइन के मंत्र दिए हैं। यह समय मेगा मॉल्स में अपनी गाढ़ी कमाई को फूँक देने का समय है। यह समय पी-कर परमहंस होने का समय है।

इस समय ने हमें ऐसे युवा के दर्शन कराए हैं, जो बदहवास है। वह एक ऐसी दौड़ में है, जिसकी कोई मंज़िल नहीं है। उसकी प्रेरणा और आदर्श बदल गए हैं। नए ज़माने के धनपतियों और धनकुबेरों ने यह जगह ले ली है। शिकागो के विवेकानंद, दक्षिण अफ्रीका के महात्मा गांधी अब उनकी प्रेरणा नहीं रहे। उनकी जगह बिल गेट्स, लक्ष्मीनिवास मित्तल और अनिल अंबानी ने ले ली है। समय ने अपने नायकों को कभी इतना बेबस नहीं देखा। नायक प्रेरणा भरते थे और ज़माना उनके पीछे चलता था। आज का समय नायकविहीनता का समय है। डिस्को थेक, पब, साइबर कैफ़े में मौजूद नौजवानी के लक्ष्य पकड़ में नहीं आते । उनकी दिशा भी पहचानी नहीं जाती । यह रास्ता आज के समय से और बदतर समय की तरफ जाता है। बेहतर करने की आकांक्षाएं इस चमकीली दुनिया में दम तोड़ देती हैं। हर चमकती चीज़ सोना नहीं होती लेकिन दौड़ इस चमकीली चीज़ तक पहुँचने की है।

आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को सरोका, संस्कार और समय, किसी की समझ नहीं दी है। यह शिक्षा मूल्यहीनता को बढ़ाने वाली साबित हुई है। अपनी चीज़ों को कमतर कर देखना और बाहर सुखों की तलाश करना इस समय को और विकृत करता है। परिवार और उसके दायित्व से टूटता सरोकार भी आज के ही समय का मूल्य है। सामूहिक परिवारों की ध्वस्त होती अवधारणा, फ्लैट्स में सिकुड़ते परिवार, प्यार को तरसते बच्चे, अनाथ माता-पिता, नौकरों, बाइयों और ड्राइवरों के सहारे जवान होती नई पीढ़ी । यह समय बिखरते परिवारों का भी समय है। इस समय ने अपनी नई पीढ़ी को अकेला होते और बुजुर्गों को अकेला करते भी देखा। यह ऐसा जादूगर समय है, जो सबको अकेला करता है। यह समय साइबर फ्रेंड बनाने का समय है। यह समय व्यक्ति को समाज से तोड़ने, सरोकारों से अलग करने और विश्व मानव बनाने का समय है।

यह समय भाषाओं और बोलियों की मृत्यु का समय है। दुनिया को एक रंग में रंग देने का समय है। यह समय अपनी भाषा को अँग्रेज़ी में बोलने का समय है। यह समय पिताओं से मुक्ति का समय है। यह समय माताओं से मुक्ति का समय है। इस समय ने हजारों हजार शब्द, हजारों हजार बोलियाँ निगल जाने की ठानी है। यह समय भाषाओं को एक भाषा में मिला देने का समय है। यह समय चमकीले विज्ञापनों का समय है। इस समय ने हमारे साहित्य को, हमारी कविताओं को, हमारे धार्मिक ग्रंथों को पुस्तकालयों में अकेला छोड़ दिया है, जहाँ ये किताबें अपने पाठकों के इंतजार में समय को कोस रही हैं। इस समय ने साहित्य की चर्चा को, रंगमंच के नाद को, संगीत की सरसता को, धर्म की सहिष्णुता को निगल लेने की ठानी है।

यह समय शायद इसलिए भी अब तक देखे गए सभी समयों में सबसे कठिन है, क्योंकि शब्द किसी भी दौर में इतने बेचारे नहीं हुए नहीं थे। शब्द की हत्या इस समय का एक सबसे बड़ा सच है। यह समय शब्द को सत्ता की हिंसा से बचाने का भी समय है। यदि शब्द नहीं बचेंगे, तो मनुष्य की मुक्ति कैसे होगी ? उसका आर्तनाद, उसकी संवेदनाएं, उसका विलाप, उसका संघर्ष उसका दैन्य, उसके जीवन की विद्रूपदाएं, उसकी खुशियाँ, उसकी हँसी, उसका गान, उसका सौंदर्यबोध कौन व्यक्त करेगा। शायद इसीलिए हमें इस समय की चुनौती को स्वीकारना होगा। यह समय हमारी मनुष्यता को पराजित करने के लिए आया है।

हर दौर में हर समय से मनुष्यता जीतती आई है। हर समय ने अपने नायक तलाशे हैं और उन नायकों ने हमारी मानवता को मुक्ति दिलाई है। यह समय भी अपने नायक से पराजित होगा। यह समय भी मनुष्य की मुक्ति में अवरोधक नहीं बन सकता। हमारे आसपास खड़े बौने, आदमकद की तलाश को रोक नहीं सकते। वह आदमकद कौन होगा वह विचार भी हो सकता है और विचारों का अनुगामी कोई व्यक्ति भी। कोई भी समाज अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करता हुआ ही आगे बढ़ता है। सवालों से मुँह चुराने वाला समाज कभी भी मुक्तिकामी नहीं हो सकता। यह समय हमें चुनौती दे रहा है कि हम अपनी जड़ों पर खड़े होकर एक बार फिर भारत को विश्वगुरू बनाने का स्वप्न देखें। हमारे युवा एक बार फिर विवेकानंद के संकल्पों को साध लेने की हिम्मत जुटाएं। भारतीयता के पास आज भी आज के समय के सभी सवालों का जवाब हम इस कठिन सदी के, कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं, बशर्तें आत्मविश्वास से भरकर हमें उन बीते हुए समयों की तरफ देखना होगा जब भारतीयता ने पूरे विश्व को अपने दर्शन से एक नई चेतना दी थी। वह चेतना भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर एक नया समाज गढ़ने की चेतना है । वह भारतीय मनीषा के महान चिंतकों, संतों और साधकों के जीवन का निकष है। वह चेतना हर समय में मनुष्य को जीवंत रखने, हौसला न हारने, नए-नए अवसरों को प्राप्त करने, आधुनिकता के साथ परंपरा के तालमेल की एक ऐसी विधा है, जिसके आधार पर हम अपने देश का भविष्य गढ़ सकते हैं।

आज का विश्वग्राम, भारतीय परंपरा के वसुधैव कुटुंबकम् का विकल्प नहीं है। आज का विश्वग्राम पूरे विश्व को एक बाजार में बदलने की पूँजीवादी कवायद है, तो वसुधैव कुटुंबकम का मंत्र पूरे विश्व को एक परिवार मानने की भारतीय मनीषा की उपज है। दोनों के लक्ष्य और संधान अलग-अलग हैं। भारतीय मनीषा हमारे समय को सहज बनाकर हमारी जीवनशैली को सहज बनाते हुए मुक्ति के लिए प्रेरित करती है, जबकि पाश्चात्य की चेतना मनुष्य को देने की बजाय उलझाती ज़्यादा है। देह और भोग के सिद्धांतों पर चलकर मुक्ति की तलाश भी बेमानी है। भारतीय चेतना में मनुष्य अपने समय से संवाद करता हुआ आने वाले समय को बेहतर बनाने की चेष्टा करता है। वह पीढ़ियों का चिंतन करता है, आने वाले समय को बेहतर बनाने के लिए सचेतन प्रयास करता है। जबकि बाजार का चिंतन सिर्फ आज का विचार करता है। इसके चलते आने वाला समय बेहद कठिन और दुरूह नज़र आने लगता है। कोई भी समाज अपने समय के सरोकारों के साथ ही जीवंत होता है। भारतीय मनीषा इसी चेतना का नाम है, जो हमें अपने समाज से सरोकारी बनाते हुए हमारे समय को सहज बनाती है। क्या आप और हम इसके लिए तैयार हैं ? यह एक बड़ा सवाल है।

अपने तमाम लेखों को एक किताब की शक्ल पाते हुए देखना हर लेखक को सुख देता है। इन कच्चे-पक्के लेखों को आपको इस तरह सौंपते हुए मुझे संकोच तो है किंतु यह खुशी भी कि ये अधपके विचार अब मेरे बंधक नहीं रहे, इनमें आपकी हिस्सेदारी इसे परिपक्व बना देगी। मुझे उम्मीद है कि किताब आपका प्यार पाएगी।

- संजय द्विवेदी

बुधवार, 7 मार्च 2012

विकल्पहीनता से उपजा भरोसा


उप्र के परिपक्व फैसले से जगी बदलाव की उम्मीद

-संजय द्विवेदी

उत्तर प्रदेश के लोग कुछ भले न कर पा रहे हों, पिछले दो विधानसभा चुनावों में वे एक स्थिर सरकार जरूर दे रहे हैं। एक राज्य की जनता अपनी नाकारा और अविश्सनीय राजनीति के लिए इससे ज्यादा क्या कर सकती है?अरसे से तो त्रिशंकु और मिली-जुली सरकारों का दंश भोग रहे प्रदेश में पिछले दो चुनावों से जनता ने पूर्ण बहुमत की सरकारें देकर यह बता दिया है कि राजनीति व मीडिया कितने भी भ्रम में हों, जनता के पास ठोस फैसले हैं और उम्मीदें भी।

उत्तर प्रदेश के लोग राजनीतिक दलों और राजनीतिक तंत्र से खासे निराश हैं। ये फैसले उनके लिए कोई उजास जगाने वाले फैसले नहीं हैं बल्कि निराशा में ही लिए गए फैसले हैं। बावजूद इसके वे ठुकराए गए लोगों को फिर-फिर मौका देते हैं कि आओ और कुछ कर सको तो करो, पर यह मत कहना कि आपने त्रिशंकु विधानसभा दे दी क्या करें। सही मायने में 2007 और 2012 दोनों बहुत परिपक्व फैसले हैं जिसमें पहले बसपा और अब सपा को पूर्ण बहुमत की सरकारें देकर राज्य की जनता ने उन पर बड़ी जिम्मेदारियां डाली हैं। ये विकल्पहीनता के भी सबक हैं क्योंकि देश का उद्धार करने का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों कोई उत्तर प्रदेश में कोई वैकल्पिक राजनीतिक चेतना या दर्शन प्रस्तुत नहीं करतीं। उपर से यह आशंका अलग कि चुनाव के बाद त्रिशंकु विधानसभा आने पर सपा के साथ कांग्रेस और बसपा के साथ भाजपा चली जाएगी। जनता ने इस तरह की मिक्स पालिटिक्स को नकारा और अकेले दम पर सरकार चलाने की ताकत पार्टियों को दी।

यह फैसला साधारण नहीं है कि जिस मुलायम सिंह को 2007 में जनता ने नकारा, उनके ही दल को 2012 में फिर ताज दे दिया। कांग्रेस और भाजपा की उप्र में हुयी दुर्गति बताती है, उप्र के लोग उनके वादों पर भरोसा नहीं करते। वे नहीं मानते कि दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दल अपने दम पर कोई विकल्प राज्य में प्रस्तुत कर रहे हैं। शायद इसीलिए दोनों को राज्य की जनता ने कोई महत्व नहीं दिया। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में अपना बाजार भाव बढ़ाने के उत्सुक पीस पार्टी जैसे दल भी अब पूर्ण बहुमत की स्थिति में कोई भाव नहीं खा सकते। ऐसे में एक स्वस्थ राजनीतिक परिवेश सरकार गठन के पूर्व ही उपलब्ध है जो उत्तराखंड के नसीब में नहीं आ सका। ऐसे में यह महती जिम्मेदारी अब समाजवादी पार्टी की है कि वह अपने पुराने चेहरे, चाल, चरित्र तीनों में बदलाव लाए। मुलायम के बजाए अखिलेख सिंह यादव एक नया उम्मीदों भरा चेहरा हैं और अमर सिहं से लेकर डीपी यादव से बनी दूरियां सपा के लिए एक शुभ संकेत साबित हुयी हैं। इसे साधारण न मानिए कि सपा का डीपी यादव को इनकार और भाजपा का बाबू सिंह कुशवाहा का स्वीकार एक साधारण घटना है, इस घटना के प्रतीकात्मक महत्व ने ही यह बता दिया कि सपा बदलना चाहती है किंतु भाजपा अभी भी राजनीतिक के परंपरागत विकृत मानकों पर ही खड़ी है। वहीं कांग्रेस में राहुल गांधी भले उप्र के विकास की चिंता में बांहें चढ़ा रहा थे उनके सिपहसालार मुस्लिम वोटों के लिए बाटला हाउस और आरक्षण पर ही चहकते नजर आ रहे थे। यह सारी बातें बताती हैं कि राजनीति अब परंपरागत तरीकों से नहीं हो सकती। उसके लिए विश्वसनीय विकल्प सबसे बड़ी जरूरत है। अखिलेश सिंह यादव का निष्पाप चेहरा इसलिए उप्र जैसे दिग्गजों के अखाड़े में चल जाता है, जबकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष, युवा मोर्चा के अध्यक्ष, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी सभी खेत रह जाते हैं। नेता पुत्रों और माफियाओं की हार भी इस चुनाव का एक बड़ा सबक है। हमारी राजनीति को इससे सीखना होगा।

यह चुनाव भारी निराशा और विकल्पहीनता में भी उप्र के हिस्से एक नया संदेश लेकर आया है। यह एक नई राजनीति की शुरूआत भी हो सकती है। समाजवादी पार्टी के जिसके हिस्से इस बार सत्ता आयी है वह न तो डा. लोहिया- जयप्रकाश के आदर्शों वाली सपा है न ही वह मुलायम सिंह- अमर सिंह वाली समाजवादी पार्टी है। वह एक बदलती हुयी समाजवादी पार्टी है जिसके तार अब अभिषेक यादव के फैसलों से जुड़े हैं।

आप ध्यान दें, अखिलेश यादव के लिए यह चुनाव अगर इतना कुछ देकर जा रहा है तो इसके मूल में उनकी एक पराजय कथा भी है। अगर अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव, फिरोजाबाद में हुए लोकसभा उपचुनाव में जीत जातीं तो शायद अखिलेश को भी जमीनी हकीकतों का अहसास नहीं होता। किंतु उस चुनाव में राजबब्बर की जीत ने जहां कांग्रेस के अभिमान में वृद्धि की, वहीं अखिलेश को बता दिया कि मुलायम का बेटा होना ही उनका परिचय है, और इसके बाद पिता के नाम के साथ अब उन्हें भी कुछ करना होगा। यही वह क्षण है जिसने अखिलेश को बदला और उप्र का नया नायक बना दिया। सफलता के पीछे सभी भागते हैं किंतु अखिलेश की जमीनी तैयारियों और टिकट वितरण में उनके द्वारा उतारे गए नए चेहरों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लखनऊ के अभिषेक मिश्र से लेकर अयोध्या की सीट जीतने वाले तेजनारायण उर्फ पवन पाण्डेय ऐसे ही नौजवान थे जो पहली बार मैदान में उतरे और बड़ी सफलताएं पायीं। यहां तक की राहुल गांधी के गढ़ अमेठी में वहां के राजा संजय सिंह की पत्नी अमिता सिंह भी सपा के प्रत्याशी से चुनाव हार गयीं। ये सफलताएं साधारण नहीं हैं।

उप्र में अपनी 300 सभाओं के माध्यम से अखिलेश ने एक वातावरण बनाने का काम किया। यह एक बदलती हुयी सपा थी, जिसके खराब अतीत के बावजूद के पास जनता पास यही चारा था कि वह अखिलेश के वादों पर भरोसा करे। क्योंकि देश के बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा उधार के कप्तानों राहुल गांधी और उमा भारती के भरोसे मैदान में थे। फिर मुद्दों पर उलझन और नेताओं की फौज ने दोनों दलों का कबाड़ा कर दिया। भाजपा के वरूण गांधी से लेकर आदित्यनाथ की भूमिका जहां संदेह से परे नहीं है वहीं कांग्रेस के राज्य से जीते सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों की कोई खास भूमिका नजर नहीं आई। हां अपने उलजलूल बयानों से वे हर दिन सुर्खियां जरूर बटोरते रहे किंतु यह कवायद कांग्रेस के पक्ष में नहीं गयी। ऐसे में यह चुनाव घने अंधेरे में लड़ा गया चुनाव ही था, जिसमें जनता के पास सही मायने में कोई विश्लसनीय विकल्प नहीं था। लड़ाइयां भी साधारण नहीं थी, चार कोण, पांच कोण के मुकाबले फैसलों को कठिन बना रहे थे। यह सारी उलझने चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों और एक्जिट पोल में भी साफ दिखती रहीं। किंतु उत्तर प्रदेश के मतदाता ने विकल्पहीनता के बीच भी एक सशक्त विकल्प दिया है। अब समाजवादी पार्टी और उसके नए नेता अखिलेश यादव की यह जिम्मेदारी है कि वे इस दायित्व को स्वीकार करें और जनता से किए गए वायदों पर खरा उतरकर दिखाएं। उनकी विनयशीलता और शैली ने जनता में एक विश्वास पैदा किया है कि वह सपा की पुरानी सरकारों से अलग एक नई राजनीति को उत्तर प्रदेश में प्रारंभ करेंगे। पटरी से उतरे राज्य को एक नई दिशा देंगें।

पड़ोसी राज्य बिहार में विकास की राजनीति उनके लिए प्रेरक बन सकती है क्योंकि समाजवादी आंदोलन की गर्भनाल से निकली जनता दल यू अगर बिहार को नया चेहरा दे सकती है समाजवादी पार्टी उप्र में विकास की राजनीति की वाहक और अपराधीकरण की विरोधी क्यों नहीं बन सकती। राजनीति के आजमाए जा चुके शस्त्रों से अलग अखिलेश सिंह यादव एक नई राजनीति की आधारशिला रख सकते हैं। जिसमें डा.लोहिया की राजनीति के मंत्र हों और नए जमाने के हिसाब से कुछ नए विचार भी हों। किंतु हमें यह मानना होगा कि उनके पिता के राजनीतिक अनुभव जो भी हों किंतु समय बदल गया है। अब राजनीति पुराने मूल्यों पर तो होगी पर पुराने मानकों पर नहीं होगी। जहां जाति, गुंडागर्दी, धर्म. धन और क्षेत्र के सवाल बड़े हो जाते थे।

आज के उत्तर प्रदेश का नौजवान जिसने ज्यादा वोटिंग करते हुए सपा पर भरोसा जताया है, उसकी आशा को परिणाम में बदलने का समय अब आ गया है। सरकारें पांच-पांच सालों पर आएंगी-जाएंगी किंतु अखिलेश को इतिहास की इस घड़ी में मौका मिला है कि वे उत्तर प्रदेश को एक ऐसी दिशा दें, जहां गर्वनेंस और गर्वमेंट दोनों की वापसी होती हुयी दिखे। उत्तर प्रदेश लगभग दो दशकों से एक भागीरथ के इंतजार में है, अखिलेश अगर वह जगह ले पाते हैं तो यह विकल्पहीनता का फैसला भी एक उजले संकल्प में बदल जाएगा और उत्तर प्रदेश तो अपने सपनों में रंग भरने के लिए तैयार बैठा ही है बस उसे एक नायक का इंतजार है। अखिलेश यह जगह भर जाते हैं या अवसर गवां देते हैं,यह देखना दिलचस्प होगा।

मंगलवार, 6 मार्च 2012

एजेक्ट कैसे हो सकते हैं एक्जिट पोल

राजनीति संभावनाओं का खेल है इसलिए सर्वेक्षणों से बहुत उम्मीदें पालिए
-संजय द्विवेदी

चुनाव पूर्व और पश्चात सर्वेक्षणों का मजाक बनाने का सिलसिला जो हमारे राजनेताओं ने प्रारंभ किया है वे अब उप्र और अन्य राज्यों के परिणामों पर क्या कहेंगें। यहां तक कि मुख्य चुनाव आयुक्त भी इसे मनोरंजन चैलनों पर दिखाने की अपील कर बैठे थे। शोध और अनुसंधान के प्रति हमारी कम जानकारियों का यह परिचायक है। हम देखें तो एक्जिट पोल जो राह दिखा रहे थे, पंजाब छोड़कर लगभग वही दृश्य बना। राजनीति जैसे संभावनाओं के खेल पर भविष्यवाणियां तो वैसे ही फेल होती है किंतु सर्वेक्षण अगर वैज्ञानिक आधार पर किए जाएं तो वे सत्य के करीब पहुंच जाते हैं। हमें देखना होगा कि भारत जैसे देश में जहां विविधताएं बहुत हैं, सच के करीब पहुंचना कठिन होता है। किंतु अगर बड़े सेम्पल लिए जाएं, ज्यादा लोगों को, ज्यादा क्षेत्रों को और समाज की विविधता का ध्यान रखते हुए वैज्ञानिक तरीके से काम किया जाए तो निश्चय ही परिणाम अनूकूल आते हैं।

शोध एक विधा है और उसका मजाक इसलिए नहीं बनाया जाना चाहिए कि कई बार निष्कर्षों में गड़बड़ हो जाती है। यह आश्चर्यजनक है जो राजनीतिक वर्ग ज्योतिषियों, पूजा-पाठ और दैवी शक्तियों पर खूब भरोसा जताता है, वही सर्वेक्षणों का मजाक बनाता है। कई मामले में यह उनकी सुविधा का भी मामला है कि अगर सर्वेक्षण राजनेता की पार्टी के पक्ष में है तो उस पर पूरा भरोसा किंतु वह अलग कुछ कहता है तो उसे नकार दो। उत्तर प्रदेश के चुनावों के संदर्भ में लगभग सभी सर्वेक्षण समाजवादी पार्टी को सबसे बड़ी पार्टी बता रहे थे और परिणाम बताते हैं कि यही हुआ। इसलिए सर्वेक्षणों की वैज्ञानिकता को चुनौती देना उचित नहीं कहा जा सकता। किंतु यह भी अपेक्षा ठीक नहीं है कि वह एजेक्ट हों। वे एक आसार या संभावना का ही इशारा करते हैं। खासकर उप्र जैसै राज्य में जहां बहुकोणीय संघर्ष हो, कई सीटों पर पांच के आसपास उम्मीदवार मुकाबले में हों- निष्कर्षों तक पहुंचना कठिन हो जाता है। फिर भी ये सर्वेक्षण एक संकेत तो कर ही रहे हैं।

शोध एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है, यह जनमन को समझने की एक विधि है और हमें इसे रूप में लेना चाहिए। ये अगर इतने ही बकवास हैं तो राजनीतिक पार्टियां भी अपने सर्वेक्षण क्यों करवाती हैं और उनके निष्कर्षों के आधार पर अपनी रणनीति बनाती हैं। जाहिर तौर पर ये सारी कवायद जनता के मानस को अभिव्यक्ति करती है, नीतियों के क्रियान्वयन में सहायक बनती हैं। समस्या तब खड़ी होती है जब सर्वेक्षण प्रायोजित किए जाते हैं। राजनीतिक दल और मीडिया की जुगलबंदियां किसी से छिपी नहीं हैं। दलों के आधार पर सर्वेक्षणों के परिणाम बदलकर प्रस्तुत किए जाते हैं जिससे एक- दो प्रतिशत वोट इधर से उधर किए जा सकें। यह लीला होती रही है और किसी से छिपी नहीं है। इसने सर्वेक्षणों और मीडिया दोनों की विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा दिए। अब लगातार हो रही आलोचनाओं से सर्वैक्षण करनी वाली एजेंसियां और मीडिया हाउस थोड़े सजग हो रहे हैं क्योंकि इससे अंततः उनकी प्रामणिकता और विश्वसनीयता पर ही सवालिया निशान खड़े होते हैं। इसलिए हमें मानना होगा कि अगर सर्वेक्षण ईमानदारी से, बिना किसी अतिरिक्त प्रभाव से ग्रस्त हुए कराए जाएं तो वे हमें सही संकेत देते हैं। क्योंकि यह विधा एक विज्ञान भी है। उसका इस्तेमाल करने वाले लोग उसका कितना सावधानीपूर्ण उपयोग करते हैं -यह एक बड़ा सवाल है।

राजनीतिक क्षेत्रों में सर्वेक्षणों को मजाक बनाने की प्रतियोगिता खासकर टीवी चैनलों पर चलती रहती है किंतु जब परिणाम किसी दल के पक्ष में होते हैं तो उस दल का नेता उस सुविधा पर सवाल नहीं खड़ा करता। टेलीविजन बहसों में कोई नहीं कहता कि आपने हमें ज्यादा सीटें दे दीं और हमारी पार्टी को इतनी उम्मीद नहीं है। राजनेता आखिरी दम तक अपने दल और अपने विचार को सर्वप्रमुख बताते हुए अपनी पैरवी करते रहते हैं। इसमें कुछ गलत भी नहीं है, यह उनका अधिकार भी है। किंतु सर्वेक्षणों की वैज्ञानिक प्रणाली का मजाक बनाना उचित नहीं कहा जा सकता। हमें यह भी उम्मीद नहीं पालनी चाहिए कि कोई भी राजनीतिक सर्वेक्षण सौ प्रतिशत सही हो सकता है। राजनीति को संभावनाओं का खेल यूं ही नहीं कहते। इसलिए भरोसा तो कीजिए पर शत प्रतिशत नहीं।

गुरुवार, 1 मार्च 2012

केजरीवाल की कड़वाहट

-संजय द्विवेदी

जिस देश में राजनीति छल-छद्म और धोखों पर ही आमादा हो, वहां संवादों का कड़वाहटों में बदल जाना बहुत स्वाभाविक है। स्वस्थ संवाद के हालात ऐसे में कैसे बन सकते हैं। अन्ना टीम के साथ जो हुआ वह सही मायने में धोखे की एक ऐसी पटकथा है, जिसकी बानगी खोजे न मिलेगी। लोकपाल बिल पर जैसा रवैया हमारी समूची राजनीति ने दिखाया क्या वह कहीं से आदर जगाता है ? एक छले गए समूह से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वह सरकारी तंत्र और सांसदों पर बलिहारी हो जाए? केजरीवाल जो सवाल उठा रहे हैं उसमें नया और अनोखा क्या है? उनकी तल्खी पर मत जाइए, शब्दों पर मत जाइए। बस जो कहा गया है, उसके भाव को समझिए। इतनी तीखी प्रतिक्रिया कब और कैसे कोई व्यक्त करता है, उस मनोभूमि को समझने पर सारा कुछ साफ हो जाएगा।

अन्ना टीम का इस वक्त हाल- हारे हुए सिपाहियों जैसा है। वे राजनीति के छल-बल और दिल्ली की राजनीति के दबावों को झेल नहीं पाए और सुनियोजित निजी हमलों ने इस टीम की विश्सनीयता पर भी सवाल खड़े कर दिए। अन्ना टीम पर कभी निछावर हो रहा मीडिया भी उसकी लानत-मलामत में लग गया। जिस अन्ना टीम को कभी देश का मीडिया सिर पर उठाए घूम रहा था। मुंबई में कम जुटी भीड़ के बाद आंदोलन के खत्म होने की दुहाईयां दी जाने लगीं। आखिर यह सब कैसे हुआ ? आज वही अन्ना टीम जब मतदाता जागरण के काम में लगी है, तो उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। उनके द्वारा उठाए जा रहे सवाल मीडिया से गायब हैं। अब देखिए केजरीवाल ने एक कड़वी बात क्या कह दी मीडिया पर उन पर फिदा हो गया। एक वनवास सरीखी उपस्थिति से केजरीवाल फिर चर्चा में आ गए- यह उनके बयान का ही असर है। किंतु आप देखें तो केजरीवाल ने जो कहा- वह आज देश की ज्यादातर जनता की भावना है। आज संसद और विधानसभाएं हमें महत्वहीन दिखने लगे हैं, तो इसके कारणों की तह में हमें जाना होगा। आखिर हमारे सांसद और जनप्रतिनिधि ऐसा क्या कर रहे हैं कि जनता की आस्था उनसे और इस बहाने लोकतंत्र से उठती जा रही है।

अन्ना हजारे और उनके समर्थक हमारे समय के एक महत्वपूर्ण सवाल भ्रष्टाचार के प्रश्न को संबोधित कर रहे थे, उनके उठाए सवालों में कितना वजन है, वह उनको मिले व्यापक समर्थन से ही जाहिर है। लेकिन राजनीति ने इस सवाल से टकराने और उसके वाजिब हल तलाशने के बजाए अपनी चालों-कुचालों और षडयंत्रों से सारे आंदोलन की हवा निकालने की कोशिश की। यह एक ऐसा पाप था जिसे सारे देश ने देखा। अन्ना हजारे से लेकर आंदोलन से जुड़े हर आदमी पर कीचड़ फेंकने की कोशिशें हुयीं। आप देखें तो यह षडयंत्र इतने स्तर पर और इतने धिनौने तरीके से हो रहे थे कि राजनीति की प्रकट अनैतिकता इसमें झलक रही थी। ऐसी राजनीति से प्रभावित हुए अन्ना पक्ष से भाषा के संयम की उम्मीद करना तो बेमानी ही है। क्योंकि शब्दों के संयम का पाठ केजरीवाल से पहले हमारी राजनीति को पढ़ने की जरूरत है। आज की राजनीति में नामवर रहे तमाम नेताओं ने कब और कितनी गलीज भाषा का इस्तेमाल किया है, यह कहने की जरूरत नहीं है। गांधी को शैतान की औलाद, भारत मां को डायन और जाने क्या-क्या असभ्य शब्दावलियां हमारे माननीय सांसदों और नेताओं के मुंह से ही निकली हैं। वे आज केजरीवाल पर बिलबिला रहे हैं , किंतु इस कड़वाहट के पीछे राजनीति का कलुषित अतीत उनको नजर नहीं आता।

हमारे लोकतंत्र को अगर माफिया और धनपशुओं ने अपना बंधक बना लिया है तो उसके खिलाफ कड़े शब्दों में प्रतिवाद दर्ज कराया ही जाएगा। दुनिया के तमाम देशों में बदलाव के लिए संघर्ष चल रहे हैं। भारत आज भ्रष्टाचार की मर्मांतक पीडा झेल रहा है। विकास के नाम पर आम आदमी को उजाडने का एक सचेतन अभियान चल रहा है। ऐसे में जगह- जगह असंतोष हिंसक अभियानों में बदल रहे हैं। लोकतंत्र में प्रतिरोध की चेतना को कुचलकर हम एक तरह की हिंसा को ही आमंत्रित करते हैं। आंदोलनों को कुचलकर सरकारें जन-मन को तोड़ रही है। जनता के भरोसे को तोड़ रही हैं। इसीलिए लोकपाल बिल बनाने की उम्मीद में सरकार के साथ एक मेज पर बैठकर काम करने वाले केजरीवाल की भाषा में इतनी कड़वाहट और विद्रूप पैदा हो जाता है। लेकिन सत्ता से बाहर सड़क पर लड़ाई लड़ने वाले की आवाज में इतनी तल्खी के कारण तो हमारे पास हैं किंतु सत्ता के केंद्र में बैठी मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, बेनी वर्मा, सलमान खुर्शीद जैसी राजनीति में इतना कसैलापन क्यों है। अगर सत्ता के प्रमुख पदों पर बैठे हमारे दिग्गज नेता सुर्खियां बटोरने के लिए हद से नीचे गिर सकते हैं तो केजरीवाल जैसे व्यक्ति को लांछित करने का कारण क्या है?