उप्र के परिपक्व फैसले से जगी बदलाव की उम्मीद
-संजय द्विवेदी
उत्तर प्रदेश के लोग कुछ भले न कर पा रहे हों, पिछले दो विधानसभा चुनावों में वे एक स्थिर सरकार जरूर दे रहे हैं। एक राज्य की जनता अपनी नाकारा और अविश्सनीय राजनीति के लिए इससे ज्यादा क्या कर सकती है?अरसे से तो त्रिशंकु और मिली-जुली सरकारों का दंश भोग रहे प्रदेश में पिछले दो चुनावों से जनता ने पूर्ण बहुमत की सरकारें देकर यह बता दिया है कि राजनीति व मीडिया कितने भी भ्रम में हों, जनता के पास ठोस फैसले हैं और उम्मीदें भी।
उत्तर प्रदेश के लोग राजनीतिक दलों और राजनीतिक तंत्र से खासे निराश हैं। ये फैसले उनके लिए कोई उजास जगाने वाले फैसले नहीं हैं बल्कि निराशा में ही लिए गए फैसले हैं। बावजूद इसके वे ठुकराए गए लोगों को फिर-फिर मौका देते हैं कि आओ और कुछ कर सको तो करो, पर यह मत कहना कि आपने त्रिशंकु विधानसभा दे दी क्या करें। सही मायने में 2007 और 2012 दोनों बहुत परिपक्व फैसले हैं जिसमें पहले बसपा और अब सपा को पूर्ण बहुमत की सरकारें देकर राज्य की जनता ने उन पर बड़ी जिम्मेदारियां डाली हैं। ये विकल्पहीनता के भी सबक हैं क्योंकि देश का उद्धार करने का नारा देने वाली भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों कोई उत्तर प्रदेश में कोई वैकल्पिक राजनीतिक चेतना या दर्शन प्रस्तुत नहीं करतीं। उपर से यह आशंका अलग कि चुनाव के बाद त्रिशंकु विधानसभा आने पर सपा के साथ कांग्रेस और बसपा के साथ भाजपा चली जाएगी। जनता ने इस तरह की मिक्स पालिटिक्स को नकारा और अकेले दम पर सरकार चलाने की ताकत पार्टियों को दी।
यह फैसला साधारण नहीं है कि जिस मुलायम सिंह को 2007 में जनता ने नकारा, उनके ही दल को 2012 में फिर ताज दे दिया। कांग्रेस और भाजपा की उप्र में हुयी दुर्गति बताती है, उप्र के लोग उनके वादों पर भरोसा नहीं करते। वे नहीं मानते कि दोनों राष्ट्रीय राजनीतिक दल अपने दम पर कोई विकल्प राज्य में प्रस्तुत कर रहे हैं। शायद इसीलिए दोनों को राज्य की जनता ने कोई महत्व नहीं दिया। त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में अपना बाजार भाव बढ़ाने के उत्सुक पीस पार्टी जैसे दल भी अब पूर्ण बहुमत की स्थिति में कोई भाव नहीं खा सकते। ऐसे में एक स्वस्थ राजनीतिक परिवेश सरकार गठन के पूर्व ही उपलब्ध है जो उत्तराखंड के नसीब में नहीं आ सका। ऐसे में यह महती जिम्मेदारी अब समाजवादी पार्टी की है कि वह अपने पुराने चेहरे, चाल, चरित्र तीनों में बदलाव लाए। मुलायम के बजाए अखिलेख सिंह यादव एक नया उम्मीदों भरा चेहरा हैं और अमर सिहं से लेकर डीपी यादव से बनी दूरियां सपा के लिए एक शुभ संकेत साबित हुयी हैं। इसे साधारण न मानिए कि सपा का डीपी यादव को इनकार और भाजपा का बाबू सिंह कुशवाहा का स्वीकार एक साधारण घटना है, इस घटना के प्रतीकात्मक महत्व ने ही यह बता दिया कि सपा बदलना चाहती है किंतु भाजपा अभी भी राजनीतिक के परंपरागत विकृत मानकों पर ही खड़ी है। वहीं कांग्रेस में राहुल गांधी भले उप्र के विकास की चिंता में बांहें चढ़ा रहा थे उनके सिपहसालार मुस्लिम वोटों के लिए बाटला हाउस और आरक्षण पर ही चहकते नजर आ रहे थे। यह सारी बातें बताती हैं कि राजनीति अब परंपरागत तरीकों से नहीं हो सकती। उसके लिए विश्वसनीय विकल्प सबसे बड़ी जरूरत है। अखिलेश सिंह यादव का निष्पाप चेहरा इसलिए उप्र जैसे दिग्गजों के अखाड़े में चल जाता है, जबकि भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष, युवा मोर्चा के अध्यक्ष, पूर्व प्रदेश अध्यक्ष केशरीनाथ त्रिपाठी सभी खेत रह जाते हैं। नेता पुत्रों और माफियाओं की हार भी इस चुनाव का एक बड़ा सबक है। हमारी राजनीति को इससे सीखना होगा।
यह चुनाव भारी निराशा और विकल्पहीनता में भी उप्र के हिस्से एक नया संदेश लेकर आया है। यह एक नई राजनीति की शुरूआत भी हो सकती है। समाजवादी पार्टी के जिसके हिस्से इस बार सत्ता आयी है वह न तो डा. लोहिया- जयप्रकाश के आदर्शों वाली सपा है न ही वह मुलायम सिंह- अमर सिंह वाली समाजवादी पार्टी है। वह एक बदलती हुयी समाजवादी पार्टी है जिसके तार अब अभिषेक यादव के फैसलों से जुड़े हैं।
आप ध्यान दें, अखिलेश यादव के लिए यह चुनाव अगर इतना कुछ देकर जा रहा है तो इसके मूल में उनकी एक पराजय कथा भी है। अगर अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव, फिरोजाबाद में हुए लोकसभा उपचुनाव में जीत जातीं तो शायद अखिलेश को भी जमीनी हकीकतों का अहसास नहीं होता। किंतु उस चुनाव में राजबब्बर की जीत ने जहां कांग्रेस के अभिमान में वृद्धि की, वहीं अखिलेश को बता दिया कि मुलायम का बेटा होना ही उनका परिचय है, और इसके बाद पिता के नाम के साथ अब उन्हें भी कुछ करना होगा। यही वह क्षण है जिसने अखिलेश को बदला और उप्र का नया नायक बना दिया। सफलता के पीछे सभी भागते हैं किंतु अखिलेश की जमीनी तैयारियों और टिकट वितरण में उनके द्वारा उतारे गए नए चेहरों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। लखनऊ के अभिषेक मिश्र से लेकर अयोध्या की सीट जीतने वाले तेजनारायण उर्फ पवन पाण्डेय ऐसे ही नौजवान थे जो पहली बार मैदान में उतरे और बड़ी सफलताएं पायीं। यहां तक की राहुल गांधी के गढ़ अमेठी में वहां के राजा संजय सिंह की पत्नी अमिता सिंह भी सपा के प्रत्याशी से चुनाव हार गयीं। ये सफलताएं साधारण नहीं हैं।
उप्र में अपनी 300 सभाओं के माध्यम से अखिलेश ने एक वातावरण बनाने का काम किया। यह एक बदलती हुयी सपा थी, जिसके खराब अतीत के बावजूद के पास जनता पास यही चारा था कि वह अखिलेश के वादों पर भरोसा करे। क्योंकि देश के बड़े राजनीतिक दल कांग्रेस और भाजपा उधार के कप्तानों राहुल गांधी और उमा भारती के भरोसे मैदान में थे। फिर मुद्दों पर उलझन और नेताओं की फौज ने दोनों दलों का कबाड़ा कर दिया। भाजपा के वरूण गांधी से लेकर आदित्यनाथ की भूमिका जहां संदेह से परे नहीं है वहीं कांग्रेस के राज्य से जीते सांसदों और केंद्रीय मंत्रियों की कोई खास भूमिका नजर नहीं आई। हां अपने उलजलूल बयानों से वे हर दिन सुर्खियां जरूर बटोरते रहे किंतु यह कवायद कांग्रेस के पक्ष में नहीं गयी। ऐसे में यह चुनाव घने अंधेरे में लड़ा गया चुनाव ही था, जिसमें जनता के पास सही मायने में कोई विश्लसनीय विकल्प नहीं था। लड़ाइयां भी साधारण नहीं थी, चार कोण, पांच कोण के मुकाबले फैसलों को कठिन बना रहे थे। यह सारी उलझने चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों और एक्जिट पोल में भी साफ दिखती रहीं। किंतु उत्तर प्रदेश के मतदाता ने विकल्पहीनता के बीच भी एक सशक्त विकल्प दिया है। अब समाजवादी पार्टी और उसके नए नेता अखिलेश यादव की यह जिम्मेदारी है कि वे इस दायित्व को स्वीकार करें और जनता से किए गए वायदों पर खरा उतरकर दिखाएं। उनकी विनयशीलता और शैली ने जनता में एक विश्वास पैदा किया है कि वह सपा की पुरानी सरकारों से अलग एक नई राजनीति को उत्तर प्रदेश में प्रारंभ करेंगे। पटरी से उतरे राज्य को एक नई दिशा देंगें।
पड़ोसी राज्य बिहार में विकास की राजनीति उनके लिए प्रेरक बन सकती है क्योंकि समाजवादी आंदोलन की गर्भनाल से निकली जनता दल यू अगर बिहार को नया चेहरा दे सकती है समाजवादी पार्टी उप्र में विकास की राजनीति की वाहक और अपराधीकरण की विरोधी क्यों नहीं बन सकती। राजनीति के आजमाए जा चुके शस्त्रों से अलग अखिलेश सिंह यादव एक नई राजनीति की आधारशिला रख सकते हैं। जिसमें डा.लोहिया की राजनीति के मंत्र हों और नए जमाने के हिसाब से कुछ नए विचार भी हों। किंतु हमें यह मानना होगा कि उनके पिता के राजनीतिक अनुभव जो भी हों किंतु समय बदल गया है। अब राजनीति पुराने मूल्यों पर तो होगी पर पुराने मानकों पर नहीं होगी। जहां जाति, गुंडागर्दी, धर्म. धन और क्षेत्र के सवाल बड़े हो जाते थे।
आज के उत्तर प्रदेश का नौजवान जिसने ज्यादा वोटिंग करते हुए सपा पर भरोसा जताया है, उसकी आशा को परिणाम में बदलने का समय अब आ गया है। सरकारें पांच-पांच सालों पर आएंगी-जाएंगी किंतु अखिलेश को इतिहास की इस घड़ी में मौका मिला है कि वे उत्तर प्रदेश को एक ऐसी दिशा दें, जहां गर्वनेंस और गर्वमेंट दोनों की वापसी होती हुयी दिखे। उत्तर प्रदेश लगभग दो दशकों से एक भागीरथ के इंतजार में है, अखिलेश अगर वह जगह ले पाते हैं तो यह विकल्पहीनता का फैसला भी एक उजले संकल्प में बदल जाएगा और उत्तर प्रदेश तो अपने सपनों में रंग भरने के लिए तैयार बैठा ही है –बस उसे एक नायक का इंतजार है। अखिलेश यह जगह भर जाते हैं या अवसर गवां देते हैं,यह देखना दिलचस्प होगा।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान समय में वहां की सभ्यता, संस्कृति और मीडिया पर उत्तर देते सवाल ...बिलकुल संजय की तरह तीक्ष्ण. बढ़िया आलेख. बहुत सही विश्लेषण की स्थायित्व ही अब उत्तर प्रदेश की एक मात्र उपलब्धि है.उम्मीद है फायनल चुनाव में प्रदेश की जनता 'प्रधानमंत्री' बनाने के लिए वोट डालेगा न कि विधायक बनाने के लिए.
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