गुरुवार, 1 मार्च 2012

केजरीवाल की कड़वाहट

-संजय द्विवेदी

जिस देश में राजनीति छल-छद्म और धोखों पर ही आमादा हो, वहां संवादों का कड़वाहटों में बदल जाना बहुत स्वाभाविक है। स्वस्थ संवाद के हालात ऐसे में कैसे बन सकते हैं। अन्ना टीम के साथ जो हुआ वह सही मायने में धोखे की एक ऐसी पटकथा है, जिसकी बानगी खोजे न मिलेगी। लोकपाल बिल पर जैसा रवैया हमारी समूची राजनीति ने दिखाया क्या वह कहीं से आदर जगाता है ? एक छले गए समूह से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं कि वह सरकारी तंत्र और सांसदों पर बलिहारी हो जाए? केजरीवाल जो सवाल उठा रहे हैं उसमें नया और अनोखा क्या है? उनकी तल्खी पर मत जाइए, शब्दों पर मत जाइए। बस जो कहा गया है, उसके भाव को समझिए। इतनी तीखी प्रतिक्रिया कब और कैसे कोई व्यक्त करता है, उस मनोभूमि को समझने पर सारा कुछ साफ हो जाएगा।

अन्ना टीम का इस वक्त हाल- हारे हुए सिपाहियों जैसा है। वे राजनीति के छल-बल और दिल्ली की राजनीति के दबावों को झेल नहीं पाए और सुनियोजित निजी हमलों ने इस टीम की विश्सनीयता पर भी सवाल खड़े कर दिए। अन्ना टीम पर कभी निछावर हो रहा मीडिया भी उसकी लानत-मलामत में लग गया। जिस अन्ना टीम को कभी देश का मीडिया सिर पर उठाए घूम रहा था। मुंबई में कम जुटी भीड़ के बाद आंदोलन के खत्म होने की दुहाईयां दी जाने लगीं। आखिर यह सब कैसे हुआ ? आज वही अन्ना टीम जब मतदाता जागरण के काम में लगी है, तो उसकी बातों पर कोई ध्यान नहीं दे रहा है। उनके द्वारा उठाए जा रहे सवाल मीडिया से गायब हैं। अब देखिए केजरीवाल ने एक कड़वी बात क्या कह दी मीडिया पर उन पर फिदा हो गया। एक वनवास सरीखी उपस्थिति से केजरीवाल फिर चर्चा में आ गए- यह उनके बयान का ही असर है। किंतु आप देखें तो केजरीवाल ने जो कहा- वह आज देश की ज्यादातर जनता की भावना है। आज संसद और विधानसभाएं हमें महत्वहीन दिखने लगे हैं, तो इसके कारणों की तह में हमें जाना होगा। आखिर हमारे सांसद और जनप्रतिनिधि ऐसा क्या कर रहे हैं कि जनता की आस्था उनसे और इस बहाने लोकतंत्र से उठती जा रही है।

अन्ना हजारे और उनके समर्थक हमारे समय के एक महत्वपूर्ण सवाल भ्रष्टाचार के प्रश्न को संबोधित कर रहे थे, उनके उठाए सवालों में कितना वजन है, वह उनको मिले व्यापक समर्थन से ही जाहिर है। लेकिन राजनीति ने इस सवाल से टकराने और उसके वाजिब हल तलाशने के बजाए अपनी चालों-कुचालों और षडयंत्रों से सारे आंदोलन की हवा निकालने की कोशिश की। यह एक ऐसा पाप था जिसे सारे देश ने देखा। अन्ना हजारे से लेकर आंदोलन से जुड़े हर आदमी पर कीचड़ फेंकने की कोशिशें हुयीं। आप देखें तो यह षडयंत्र इतने स्तर पर और इतने धिनौने तरीके से हो रहे थे कि राजनीति की प्रकट अनैतिकता इसमें झलक रही थी। ऐसी राजनीति से प्रभावित हुए अन्ना पक्ष से भाषा के संयम की उम्मीद करना तो बेमानी ही है। क्योंकि शब्दों के संयम का पाठ केजरीवाल से पहले हमारी राजनीति को पढ़ने की जरूरत है। आज की राजनीति में नामवर रहे तमाम नेताओं ने कब और कितनी गलीज भाषा का इस्तेमाल किया है, यह कहने की जरूरत नहीं है। गांधी को शैतान की औलाद, भारत मां को डायन और जाने क्या-क्या असभ्य शब्दावलियां हमारे माननीय सांसदों और नेताओं के मुंह से ही निकली हैं। वे आज केजरीवाल पर बिलबिला रहे हैं , किंतु इस कड़वाहट के पीछे राजनीति का कलुषित अतीत उनको नजर नहीं आता।

हमारे लोकतंत्र को अगर माफिया और धनपशुओं ने अपना बंधक बना लिया है तो उसके खिलाफ कड़े शब्दों में प्रतिवाद दर्ज कराया ही जाएगा। दुनिया के तमाम देशों में बदलाव के लिए संघर्ष चल रहे हैं। भारत आज भ्रष्टाचार की मर्मांतक पीडा झेल रहा है। विकास के नाम पर आम आदमी को उजाडने का एक सचेतन अभियान चल रहा है। ऐसे में जगह- जगह असंतोष हिंसक अभियानों में बदल रहे हैं। लोकतंत्र में प्रतिरोध की चेतना को कुचलकर हम एक तरह की हिंसा को ही आमंत्रित करते हैं। आंदोलनों को कुचलकर सरकारें जन-मन को तोड़ रही है। जनता के भरोसे को तोड़ रही हैं। इसीलिए लोकपाल बिल बनाने की उम्मीद में सरकार के साथ एक मेज पर बैठकर काम करने वाले केजरीवाल की भाषा में इतनी कड़वाहट और विद्रूप पैदा हो जाता है। लेकिन सत्ता से बाहर सड़क पर लड़ाई लड़ने वाले की आवाज में इतनी तल्खी के कारण तो हमारे पास हैं किंतु सत्ता के केंद्र में बैठी मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह, बेनी वर्मा, सलमान खुर्शीद जैसी राजनीति में इतना कसैलापन क्यों है। अगर सत्ता के प्रमुख पदों पर बैठे हमारे दिग्गज नेता सुर्खियां बटोरने के लिए हद से नीचे गिर सकते हैं तो केजरीवाल जैसे व्यक्ति को लांछित करने का कारण क्या है?

6 टिप्‍पणियां:

  1. Aapka lekh sochne ko majboor karne wala hai. Jaha tak anna ke mumbai andolan me bheed nahi jutne ka sawaal hai, to isme dosh na to anna ka hai aur na hi unke vyaktitva par keechad uchhalne wali sarkaar ka. Darasal, dilli ke ramlila maidan me jo aandolan hua, usme bheed jutne ka kaaran dilli me upasthit tamaam media samooh aur aandolan ki shuruaat ki prishthboomi hai. Ek baat aur ki wahan log anna ke aandolan ko samarthan dene ke naam par picnic manane ja rahe the. Main poochhta hun, yadi anna anshan par baithe hain aur unke prati aapke andar samarpan bhav hai, to kyun nahi unke saath-saath lakhon ki sankhya me bharat ka nagrik anshan karta hai. Sirf ek aadmi sarkaar par dabaav bana sakta hai, lekin yadi laakhon log ekjut ho jayen to sarkaar ko majboor kiya ja sakta hai. Hum bhartiyon ki mansikta hai ki koi aage badhe to unki khoob taareef karte hain, lekin jab khud kuchh karne ka waqt aata hai to peechhe hat jaate hain. Jahan tak kejriwal ke bayan ki baat hai to aapne thik hi likha hai ki usne jo kaha hai waise hi vichaar kamobesh saare deshvashiyon ke hain. Unhone bol diya aur hum chup baithe rahte hain. Aakhir ye sab kab tak chalega? Jab tak desh ka har nagrik anna hazare nahi ban jata, sarkaren isi tarah nagrikon ko chhalti rahegi aur unka koi kuchh bhi nahi bigaad paayega.

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  2. इस वक्त्व्य के बाद माननीय सासंदों का जो बयान आया, उसमें उनकी भी बौखलाहट दिखी, यह उनके लिए सुकून देने वाला रहा की अन्ना के आंदोलन ने अपनी ताकत खो दी, लेकिन वे आज भी डरे हैं कि फिर कोई अन्ना न बन जाये इसलिए उन्होने टीम अन्ना पर चौतरफा हमले जारी कर रखे हैं। हाल ही मैं उन्होने सी.बी.आई. को भारत के 12 एन.जी.ओ. के फन्डिंग की जाँच करने को कह दिया है, टीम अन्ना का एन.जी.ओ. उसमें शामिल है। वैसे कांग्रेस का मानना है की भारत में किसी को अगर कुछ कहने की आजादी है तो वो सिर्फ दिग्विजय सिंह है( प्रधानमंत्री जी को भी नहीं)

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  3. केजरीवाल जी अंततः अपने मताधिकार का प्रयोग कर पाए या नहीं?

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  4. there is vast differece between theory and practical.like this
    KATHANI AND KARANI ARE ALSO TWO DIFFERENT STATUS.IN ONE LINE THESE ARE THE EDGE OF A RIVER .

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  5. sir galti to kiya hai kejrival ne unhe is tarh se asansadiye bhasha me nahi bolna chahie tha...unhe bolna hi tha to is tarah se bolte (adarniye,mananiye sansad me balatkari purush baithe hain)

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  6. 1998 में राज्यसभा में कांग्रेस के नेता के तौर पर मनमोहन सिंह ने कहा था कि “इस देश की पूरी व्यवस्था सड़ चुकी है।” लेकिन केजरीवाल ने जो कहा वो बुरा लगना ही था। पंडित को पंडित कहो तो बुरा नहीं लगेगा। लेकिन चोर को चोर, एससी को एससी(जातिसूचक शब्द)कहो तो बुरा तो लगेगा ही। केजरीवाल का कथन सत्य तो है लेकिन अप्रिय है दागी सांसदों के लिए।

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