बुधवार, 28 दिसंबर 2011

जनाकांक्षाओं से जुड़े मीडियाः राज्यपाल

संतुलन साधने में दम तोड़ देता है सचः अरूण शौरी

भोपाल,27 दिसंबर। मध्यप्रदेश के राज्यपाल महामहिम रामनरेश यादव कहना है कि मीडिया की तरफ लोग बड़ी आशा भरी निगाहों से देखते हैं इसलिए जनांकांक्षाओं के साथ जुड़ना पत्रकारों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा प्रशासन अकादमी में आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के उदघाटन सत्र में मुख्यअतिथि की आसंदी से संबोधित कर रहे थे। संगोष्ठी का विषय है मीडिया में विविधता एवं अनेकता समाज का प्रतिबिंब। उन्होंने कहा कि मीडिया को एक सर्वसमावेशी समाज का प्रतिबिंब प्रस्तुत करना चाहिए, ताकि वह समाज का वास्तविक आईना बन सके। इससे मीडिया के प्रति समाज का भरोसा भी बढ़ेगा। उनका कहना था कि मीडिया को असली भारत की समस्याओं, चुनौतियों. सपनों और शक्तियों को रेखांकित करना होगा क्योंकि इससे ही समाज को संबंल मिलेगा। मीडिया को समाज की विविधता को देखते हुए समाज के विविध क्षेत्रों की जरूरतों, भावनाओं, इच्छाओं को जगह देनी चाहिए। उन्होंने कहा कि भारतीय पत्रकारिता का अतीत बहुत गौरवशाली रहा है, हमारी आजादी की लड़ाई के तमाम नायक पत्रकारिता से जुड़े थे। उन्होंने पत्रकारिता की शक्ति को पहचानकर ही उसे समाज सुधार और देशसेवा का माध्यम बनाया।

राज्यपाल ने कहा कि भारत जैसे विशाल देश का मीडिया सामाजिक दायित्वबोध से लैस होकर ही समस्याओं का निदान ढूंढ सकता है। जनमत निर्माण का माध्यम होने के नाते मीडिया की जिम्मेदारी बहुत बड़ी है, क्योंकि वह रूचियों का विस्तार और परिष्कार दोनों कर सकता है। वह समाज में व्याप्त तनावों से निजात दिलाते हुए सहज संवाद की स्थितियां बहाल कर सकता है। इसके लिए मीडिया की ताकत का सही इस्तेमाल जरूरी है। उन्होंने कहा कि विविधता में एकता ही भारत का सौन्दर्य और इसकी पहचान है। हमें यह सोचने का समय आ गया है कि हमारा मीडिया कैसा है और इसे कैसा होना चाहिए। उन्होंने उम्मीद जतायी कि इस संगोष्ठी के माध्यम से हम कुछ बेहतर निष्कर्षों पर पहुंचेगें जिससे भारत की मीडिया और मीडिया शिक्षा दोनों में इसके प्रयोग किए जा सकें। उन्होंने कहा कि माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय शोध और अनुंसंधान के क्षेत्र में निरंतर नई उंचाइयां हासिल कर रहा है इसे और आगे बढ़ाने की जरूरत है।

कार्यक्रम के मुख्यवक्ता वरिष्ठ पत्रकार एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अरूण शौरी ने कहा कि मीडिया को मुद्दों को उठाते समय संतुलन साधने के बजाए सच का पक्ष लेना चाहिए। उसे जनता को सही राय बताने की हिम्मत दिखानी चाहिए। क्योंकि उसका काम जनमत बनाने का भी है। मीडिया तमाम महत्वपूर्ण सवालों को नजरंदाज करता है या फिर अपनी राय नहीं बताता। संतुलन साधने की कोशिश में सच दम तोड़ देता है। यही कारण है कि अखबार पांच मिनट में पढ़ लिए जाते हैं और टीवी चर्चाएं बेमानी साबित हो रही हैं। प्रिंट मीडिया की एक बड़ी जिम्मेदारी है किंतु वह भी उससे भटक रहा है। हमें पत्रकार होने के नाते सोसायटी के ट्रस्टी की भूमिका निभानी चाहिए कितु हम ऐसा कहां कर पा रहे हैं। पत्रकारिता, मनोरंजन का व्यवसाय नहीं एक जिम्मेदारी भरा काम है। हमें लोगों को शिक्षित करना और देश के लिए काम करना है। इसलिए हमें अपनी प्राथमिकताएं तय करनी होंगीं। हमारे सामने यह शोध का विषय है कि फिल्म स्टार्स मीडिया में कितना स्थान ले रहे हैं और डिफेंस बजट पर हमारे समाचार पत्रों में कितनी जगह मिलती है। चीन के आक्रामक रवैये पर हमारे मीडिया का स्वर क्या है। संतुलन साधने की पत्रकारिता से हम लक्ष्य से भटक रहे हैं। हम अपनी साफ राय देश वासियों को नहीं बताना चाहते, इससे भ्रम का वातावरण फैलता है। हमारी जिम्मेदारी है हम तथ्य और सत्य सामने लाएं। उन्होंने कहा कि हालात यह हैं कि हमारा पूरा मीडिया एक चुनाव से दूसरे चुनाव तक ही चीजों को देख पाता है। हमें भविष्य की ओर देखना होगा।

श्री शौरी ने कहा कि अध्ययन के साथ-साथ मीडिया एक्टीविज्म भी दिखाए। हमें लगातार काम करने की जरूरत है। सरकारी दस्तावेजों का अध्ययन और उनका आकलन जरूरी है। साथ ही खबरों का फालोअप करने से पत्रकारिता का चेहरा बदल सकता है। उनका कहना था कि हालात इसलिए बिगड़ रहे हैं क्योंकि पत्रकार तथ्यों का परीक्षण नहीं करते। टीआरपी और प्रसार के गणित के पीछे भागते हैं। इससे पत्रकारिता का प्रामणिकता और विश्वसनीयता प्रभावित हो रही है। इसका परिणाम यह हो रहा है नेता अब मीडिया से डरता नहीं और पाठक उसपर भरोसा नहीं करता। मुद्दों से मुंह फेरने वाली पत्रकारिता कभी जनता के मन में स्थान नहीं बना सकती। भारतीय लोकतंत्र को ताकत तभी मिलेगी जब समाज की विविधता को मीडिया में स्थान मिलेगा। कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि शिमला विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. एडीएन वाजपेयी ने कहा कि सत्य तो एक ही है भले ही मीडिया में उसके अलग-अलग प्रतिबिंब बनते हों। सच के जब हम निकट होते हैं तो तो विविधता में भी एकता के दर्शन होने लगते हैं। इसके लिए आध्यात्मिक संचार से जुड़ने की जरूरत है क्योंकि इससे हम पूरी प्रकृति से एक रिश्ता बना पाते हैं।

पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने अपने संबोधन में कहा कि विविधता विघटन नहीं है, एकात्मता एकता नहीं है। मीडिया के कथ्य में विविधता झलकनी चाहिए। समाचारों के चयन, प्रस्तुति और संप्रेषण में यह विविधता प्रकट हो तभी वह सरोकारों से जुड़ेगा। इससे वैकल्पिक पत्रकारिता की राह भी बनेगी। उन्होंने कहा कि इस संगोष्ठी का उद्देश्य ऐसे रास्तों की तलाश है जो हमारे मीडिया को ज्यादा जवाबदेह और सरोकारी बना सकें। आभार प्रदर्शन विवि के पूर्व महानिदेशक राधेश्याम शर्मा ने एवं संचालन डा. रामजी त्रिपाठी ने किया। कार्यक्रम में स्मरिका का विमोचन भी राज्यपाल महोदय ने किया जिसमें संगोष्ठी के सार-संक्षेप शामिल हैं। राज्यपाल महोदय ने विश्वविद्यालय के कुलसचिव डा. चंदर सोनाने की पुस्तक पर्वतों का अंतः संगीत (हिमांशु जोशी की रचना यात्रा) का विमोचन भी किया। संगोष्ठी के दूसरे सत्र में संचार एवं पत्रकारिता के भारतीय सिद्धांत पर चर्चा हुयी। इस सत्र की अध्यक्षता वरिष्ठ पत्रकार एवं प्रोफेसर डा. नंदकिशोर त्रिखा ने की। सत्र में हुयी चर्चा में काशी विद्यापीठ के प्रोफेसर राममोहन पाठक, अंतरराष्ट्रीय जनसंपर्क संघ के अध्यक्ष रिचर्ड लिनिंग (लंदन), काठमांडू विश्वविद्यालय के डा. निर्मल मणि अधिकारी ने अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन डा. पी.शशिकला ने किया।

शनिवार, 24 दिसंबर 2011

तिब्बत के प्रधानमंत्री करेंगें अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का समापन

27,28 दिसंबर को भोपाल में अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में जुटेंगें जनसंचार क्षेत्र के दिग्गज

भोपाल,25 दिसंबर,2011। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा मीडिया में विविधता एवं अनेकताः समाज का प्रतिबिंब विषय पर आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी के समापन समारोह के मुख्यवक्ता तिब्बत के प्रधानमंत्री लाबसेंग सेंग्ये होंगें। यह आयोजन 27 एवं 28 दिसंबर, 2011 को शाहपुरा स्थित प्रशासन अकादमी के सभागार में सम्पन्न होगा। 28 दिसंबर को अपराह्न 2 बजे आयोजित समापन समारोह के मुख्यअतिथि मध्य प्रदेश के वित्तमंत्री राधव जी होंगें। इस सत्र में खासतौर पर परमार्थ निकेतन, ऋषिकेश के स्वामी चिदानंद सरस्वती महाराज का व्याख्यान होगा। देश में पहली बार इस महत्वपूर्ण विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हो रहा है। इस संगोष्ठी में देश और दुनिया के जाने माने दार्शनिक, समाजशास्त्री, मीडिया विशेषज्ञ, पत्रकार, मीडिया प्राध्यापक एवं मीडिया शोधार्थी हिस्सा ले रहे हैं। आयोजन की तैयारियां लगभग अंतिम चरण में हैं।

विश्वविद्यालय के कुलसचिव डा. चंदर सोनाने ने बताया कि संगोष्ठी का शुभारंभ सत्र 27 दिसंबर को पूर्वान्ह 11 बजे प्रारंभ होगा, जिसमें प्रख्यात पत्रकार एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अरूण शौरी मुख्यवक्ता होंगें। इस सत्र के मुख्यअतिथि मध्यप्रदेश के राज्यपाल महामहिम रामनरेश यादव तथा अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगें। विशिष्ट अतिथि इंटरनेशनल पब्लिक रिलेशन एसोशिएसन, ब्रिटेन के अध्यक्ष रिचर्ड लिनिंग एवं हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति डा. ए.डी.एन. वाजपेयी होंगें।

27 दिसंबर दोपहर दो बजे विशेष सत्र में काठमांडू विश्वविद्यालय के प्रो. निर्मलमणि अधिकारी, प्रख्यात समाजवैज्ञानिक डा. बी.आर.पाटिल, प्रो. राममोहन पाठक, वरिष्ठ पत्रकार प्रो. एनके त्रिखा संचार एवं पत्रकारिता की भारतीय परिकल्पनाएं विषय पर

अपने विचार रखेंगें। सत्र के मुख्यअतिथि इंटरनेशनल पब्लिक रिलेशन एसोसिएशन, ब्रिटेन के अध्यक्ष रिचर्ड लिनिंग होंगें।

संगोष्ठी के दूसरे दिन 28 दिसंबर को आयोजित विशेष सत्र में प्रातः 9.30 बजे साहित्यकार नरेंद्र कोहली एक खास व्याख्यान देंगें। जिसका विषय है एकात्म मानवदर्शन के संदर्भ में पत्रकारिता के कार्यों व भूमिका का पुर्नवलोकन इस विशेष सत्र की अध्यक्षता शिक्षा एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा करेंगें तथा मुख्यअतिथि कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सच्चिदानंद जोशी होंगे।

संगोष्ठी के डायरेक्टर प्रो. देवेश किशोर के अनुसार इस अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में लगभग 100 से अधिक शोधपत्र तथा 200 से अधिक शोध संक्षेप आ चुके हैं। इस अवसर पर एक स्मरिका का प्रकाशन भी किया जा रहा है जिसमें प्राप्त शोध संक्षेपों का प्रकाशन किया जाएगा। साथ ही प्राप्त शोध पत्रों को विश्वविद्यालय के एक अन्य प्रकाशन में पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा।

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में साहित्यकार नरेंद्र कोहली का विशेष व्याख्यान

काठमांडू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर करेंगें मीडिया के लिए नारद के भक्ति सूत्र पर खास प्रस्तुति

भोपाल,22 दिसंबर,2011। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा मीडिया में विविधता एवं अनेकताः समाज का प्रतिबिंब विषय पर आयोजित दो दिवसीय अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी में साहित्यकार नरेंद्र कोहली एक खास व्याख्यान देंगें। जिसका विषय है एकात्म मानवदर्शन के संदर्भ में पत्रकारिता के कार्यों व भूमिका का पुर्नवलोकनयह आयोजन 27 एवं 28 दिसंबर, 2011 को शाहपुरा स्थित प्रशासन अकादमी के सभागार में होगा। देश में पहली बार इस महत्वपूर्ण विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हो रहा है। इस संगोष्ठी में देश और दुनिया के जाने माने दार्शनिक, समाजशास्त्री, मीडिया विशेषज्ञ, पत्रकार, मीडिया प्राध्यापक एवं मीडिया शोधार्थी हिस्सा ले रहे हैं।

इस खास आयोजन के शुभारंभ सत्र में प्रख्यात पत्रकार अरूण शौरी का व्याख्यान भी होगा, जिसमें वे विषय से जुड़े मुद्दों शोधार्थियों एवं सहभागियों को संबोधित करेंगें। इस सत्र के मुख्यअतिथि राज्य के राज्यपाल महामहिम रामनरेश यादव होंगें। आयोजन के पहले दिन दोपहर दो बजे पहला सत्र प्रारंभ होगा जिसमें काठमांडू विश्वविद्यालय के प्रो. निर्मलमणि अधिकारी, नारद के भक्ति सूत्र पर आधारित पत्रकारिता के माडल की प्रस्तुति करेगें। इसी सत्र में इंटरनेशनल पब्लिक रिलेशन एसोशिएसन, ब्रिटेन के अध्यक्ष रिचर्ड लिनिंग अपना प्रजेंटेशन देंगें।

यह जानकारी देते हुए कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने बताया भारतीय समाज की विविधताओं और अनेकताओं को हमारा मीडिया कितना अभिव्यक्त कर पा रहा है, यह सेमिनार की चर्चा का केंद्रीय विषय है। इस दो दिवसीय संगोष्ठी में समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों पर मीडिया की वास्तविक प्रस्तुति पर चर्चा होगी। अगर मीडिया में इनका वास्तविक प्रतिबिंब नहीं है तो उसे ठीक करने के उपायों पर भी सुझाव दिए जाएंगें। उन्होंने बताया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुनिया के सभी देशों में विविधताओं और अनेकताओं को लेकर बहस चल रही है, दुनिया के सारे देश इससे उत्पन्न चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। भारत के सामने इससे जुड़ी हुयी चुनौतियां तुलनात्मक रूप से अधिक हैं। अनेक भाषाओं, पंथों, जातियों, संस्कृतियों का देश होने के बावजूद भारत ने राष्ट्रीय एकता और सहजीवन की अनोखी मिसाल पेश की है। ऐसे में भारत आज दुनिया के तमाम देशों के लिए शोध का विषय है। किंतु इस पूरी विविधता का हमारा मीडिया कैसा अक्स या प्रतिबिंब प्रस्तुत कर रहा है, यह एक विचार का मुद्दा है। प्रो. कुठियाला ने कहा कि मीडिया पूरे समाज में परस्पर संवाद बनाने की क्षमता रखता है और विभिन्न सामाजिक विषयों को भी प्रस्तुत करने का दायित्व लिए है, ऐसे में उसकी जिम्मेदारियां किसी भी क्षेत्र से ज्यादा और प्रभावी हो जाती हैं।

संगोष्ठी के डायरेक्टर प्रो. देवेश किशोर ने बताया कि इस अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में लगभग 100 से अधिक शोधपत्र तथा 200 से अधिक शोध संक्षेप आ चुके हैं। इस अवसर पर एक स्मरिका का प्रकाशन भी किया जा रहा है जिसमें प्राप्त शोध संक्षेपों का प्रकाशन किया जाएगा। साथ ही प्राप्त शोध पत्रों को विश्वविद्यालय के अन्य प्रकाशन में पुस्तकाकार प्रकाशित किया जाएगा। संगोष्ठी में केन्या, इंडोनेशिया, आस्ट्रेलिया, ओमान, सूडान, ब्रिटेन, नेपाल, अमेरिका, श्रीलंका, मालदीव आदि देशों से इस अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार में जनसंचार विशेषज्ञ हिस्सा ले रहे हैं।

मंगलवार, 20 दिसंबर 2011

International Conference on “Diversity and Plurality in Media: Reflections of Society” at MCU, Bhopal

Bhopal, 20 December, 2011. Makhanlal Chaturvedi National University of Journalism and Communication is organizing an international conference on “Diversity and Plurality in Media: Reflections of Society” on 27 and 28 December, 2011. The two day conference will be held in the seminar hall of the Administrative Academy at Shahpura. An international conference on this important topic is being held for the first time in the country. The specialty of India lies in its philosophy of Unity in Diversity. That is why media professionals from the different corners of India and the world have shown deep interest on this topic. Renowned philosophers, sociologists, media experts, journalists, media teachers and media researchers from across the world will be participating in this conference.

The co-ordinator of the conference, Prof. Amitabh Bhatnagar informed that the programme will be inaugurated by the Governor, His excellency Ram Naresh Yadav, on the 27th December 2011. The inaugural session would be addressed by Shri. Arun Shourie, acclaimed journalist and former central cabinet minister. Talking about this, the Vice- Chancellor, Prof. Brij Kishore Kuthiala informed that the central subject of this conference is about, the way our media is expressing diversity and plurality in the Indian society. In this two day conference, discussion would revolve around the way media is presenting the realistic reflections of the various aspects of social life and also suggestions would be given if it is not so. He told that debates are going on the diversity and plurality on international level as every country is facing the challenges related to this issue. India is facing comparatively more challenges than other countries. Despite multiple languages, communities, castes, and cultures, India has set a rare example of national unity and co existence, due to which it has become a matter of research for all other countries. But how our media is expressing the reflection of this diversity is an issue of concern. Prof. Kuthiala opines that the media has the potential to build up better communication in the society and is responsible for presenting social issues. And this is why, its accountability becomes greater than any other section of the society.

The Registrar of the university told that more than 100 research papers and 200 research abstracts have already been received. These research papers would be published by the publication of the university. Media and Mass communication experts from Kenya, Indonesia, Australia, Oman, Sudan, Britain, Nepal, America, Sri Lanka and the Maldives would participate in this conference. Mr.Richard Linning, President, International Public Relations Association, UK would give a special lecture in this conference. Mrs. Jacqline, business partner of Mr. Linning would also be present here.

माखनलाल विश्वविद्यालय में मीडिया में विभिन्नताएं विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी

भोपाल,20 दिसंबर,2011। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा मीडिया में विविधता एवं अनेकताः समाज का प्रतिबिंब विषय पर एक अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन 27 एवं 28 दिसंबर,2011 को किया गया है। यह दो दिवसीय आयोजन भोपाल के शाहपुरा स्थित प्रशासन अकादमी के सभागार में होगा। कार्यक्रम का उद्घाटन 27 दिसंबर को प्रदेश के राज्यपाल महामहिम रामनरेश यादव करेंगें। इस सत्र के मुख्यवक्ता प्रख्यात पत्रकार एवं पूर्व केंद्रीय मंत्री अरूण शौरी होंगें। देश में पहली बार इस महत्वपूर्ण विषय पर अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन हो रहा है। भारत की विशेषता ही है अनेकता में एकता। इस दृष्टि से देश एवं विदेश के मीडियाकर्मियों ने इस विषय में गहरी रूचि दिखाई है। इस संगोष्ठी में देश और दुनिया के जाने माने दार्शनिक, समाजशास्त्री, मीडिया विशेषज्ञ, पत्रकार, मीडिया प्राध्यापक एवं मीडिया शोधार्थी हिस्सा ले रहे हैं।

यह जानकारी देते हुए कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने बताया भारतीय समाज की विविधताओं और अनेकताओं को हमारा मीडिया कितना अभिव्यक्त कर पा रहा है, यह सेमिनार की चर्चा का केंद्रीय विषय है। इस दो दिवसीय संगोष्ठी में समाज जीवन के अनेक क्षेत्रों पर मीडिया की वास्तविक प्रस्तुति पर चर्चा होगी। अगर मीडिया में इनका वास्तविक प्रतिबिंब नहीं है तो उसे ठीक करने के उपायों पर भी सुझाव दिए जाएंगें। उन्होंने बताया कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर दुनिया के सभी देशों में विविधताओं और अनेकताओं को लेकर बहस चल रही है, दुनिया के सारे देश इससे उत्पन्न चुनौतियों का सामना कर रहे हैं। भारत के सामने इससे जुड़ी हुयी चुनौतियां तुलनात्मक रूप से अधिक हैं। अनेक भाषाओं, पंथों, जातियों, संस्कृतियों का देश होने के बावजूद भारत ने राष्ट्रीय एकता और सहजीवन की अनोखी मिसाल पेश की है। ऐसे में भारत आज दुनिया के तमाम देशों के लिए शोध का विषय है। किंतु इस पूरी विविधता का हमारा मीडिया कैसा अक्स या प्रतिबिंब प्रस्तुत कर रहा है, यह एक विचार का मुद्दा है। प्रो. कुठियाला ने कहा कि मीडिया पूरे समाज में परस्पर संवाद बनाने की क्षमता रखता है और विभिन्न सामाजिक विषयों को भी प्रस्तुत करने का दायित्व लिए है, ऐसे में उसकी जिम्मेदारियां किसी भी क्षेत्र से ज्यादा और प्रभावी हो जाती हैं।

विश्वविद्यालय के कुलसचिव डा. चंदर सोनाने ने बताया कि इस अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार में लगभग 100 से अधिक शोधपत्र तथा 200 से अधिक शोध संक्षेप आ चुके हैं। इन शोध पत्रों को विश्वविद्यालय के प्रकाशन में प्रकाशित किया जाएगा। केन्या, इंडोनेशिया, आस्ट्रेलिया, ओमान, सूडान, ब्रिटेन, नेपाल, अमेरिका, श्रीलंका, मालदीव आदि देशों से इस अंतर्राष्ट्रीय सेमीनार में जनसंचार विशेषज्ञ हिस्सा लेंगें ।

संगोष्ठी के समन्वयक प्रो. अमिताभ भटनागर ने जानकारी दी कि इंटरनेशनल पब्लिक रिलेशन एसोशिएसन, ब्रिटेन के अध्यक्ष रिचर्ड लिनिंग विशेष रूप से इस संगोष्ठी को संबोधित करेंगें। श्री लिंनिंग की बिजनेस पार्टनर श्रीमती जैक्लीन भी इस अवसर मौजूद रहेंगीं।

शनिवार, 3 दिसंबर 2011

भारतीय सेना का मनोबल तोड़ने की राजनीति


देश के लिए कुछ भी कर गुजरने के जज्बे का प्रतीक हैं हमारे फौजी

-संजय द्विवेदी

भारतीय सेना इन दिनों हमारी राजनीति के निशाने पर है। कश्मीर में अपने पांच हजार फौजियों की शहादत के बाद हमने जो शांति पाई है, वह वहां की राजनीति को चुभ रही है- इसलिए वहां के मुख्यमंत्री अब सेना को बैरकों को भेजने की बात कह रहे हैं। सवाल यह उठता है कि क्या हमें शांति से परहेज है या फिर कश्मीर को उन्हीं खूंरेंजी दिनों में वापस ले जाना चाहते हैं।

सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है? यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें। आप बताएं अगर आज सेना भी घाटी से वापस लौटती है तो उस पूरे इलाके में भारत मां की जय बोलने वाला कौन है? क्या इस इलाके को लश्कर के अतिवादियों को सौंप दिया जाए या उस अब्दुल्ला खानदान को जो भारत के साथ खड़े रहने की सालों से कीमत वसूल रहा है। या उस मुफ्ती परिवार को जो आतंकवदियों की रिहाई के लिए भारत सरकार के गृहमंत्री रहते हुए अपनी बेटी के अपहरण का भी नाटक रच सकते हैं। आखिर हम भारत के लोग इस तरह की कायर जमातों पर भरोसा कैसे कर सकते हैं ? जो सेना शत्रु को न पकड़ सकती है, न उस पर गोली चला सकती है। उसे किस चिदंबरम और मनमोहन सिंह के भरोसे आतंकवादियों के बीच शहादत के लिए छोड़ दिया जाए,यह आज का यक्ष प्रश्न है।

पिटो गोलियां खाओ पर चुप रहोः आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट, संकटग्रस्त इलाकों में सेना को खास शक्तियों के इस्तेमाल के लिए बनाया गया था। अब सरकार कह रही है पिटो, सीने पर गोलियां खाओ पर चुप रहो क्योंकि तुम्हारी चुप्पी आतंकी संगठन, पाकिस्तान, मानवाधिकार संगठनों, अब्दुल्ला और मुफ्ती परिवार, कुछ राजनीतिक दलों के वोटबैंक के काम आती है। कश्मीर की आज की राज्य सरकार का दबाव सबसे ज्यादा है कि इस एक्ट को हटाया जाए। थल सेनाअध्यक्ष वीके सिंह ने इस प्रस्ताव का स्पष्ट रूप से विरोध किया है क्योंकि यह छिछली राजनीति से प्रभावित है।

भारतीय सेना का स्मरण करते ही हमारे सामने जो चित्र उभरता है वह शौर्य, साहस और देश के लिए कुछ भी कर गुजरने के जज्बे का ही है। भारत की आजादी के इन सालों में हमारी सेना ने सीमा पर तो अपने समर्पण का इतिहास दर्ज किया ही है, देश के भीतर भी प्राकृतिक आपदाओं और तमाम संकटों से हमें उबारा है। देश की सेना के इस ऋण से हम मुक्त नहीं हो सकते। देश के आंतरिक-बाह्य हर तरह के संकटों का सामना करते हुए देश की सेना ने हमें जिस तरह से सुरक्षित किया है, उसकी मिसाल ढूंढे न मिलेगी।

आतंरिक सुरक्षा सबसे बड़ी चुनौतीः हमारा देश आज षडयंत्रकारी पड़ोसी देशों और अविश्वास के संकट से घिरा है। आंतरिक सुरक्षा के मामले में हमारा तंत्र निरंतर विफल हो रहा है, ऐसे कठिन समय में भारतीय सेना ही हमें भरोसा दिलाती है कि बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है। भारतीय सेना और उसके फौजियों को देखते ही जन-मन में एक आस्था व विश्वास का संचार होता है। हमें लगता है कि हमारी फौज के रहते हमारा कोई बाल-बांका नहीं कर सकता। दुनिया के अनेक मिशनों पर भारतीय फौज ने जिस तरह काम किया और इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया उसके उदाहरण बहुत हैं। चीन, पाकिस्तान से हुए युध्दों में सेना ने अप्रतिम साहस का परिचय दिया। चीन का युद्ध हारने के बाद भारतीय सेना ने लगातार सारे युद्ध जीते हैं और अपने को प्रखर व धारदार बनाया है। दुनिया में आज भारतीय सेना को एक सम्मानित निगाह से देखा जाता है। उसका अनुशासन, समर्पण और देश के लिए कुछ भी कर गुजरने का जज्बा आम नागरिक की भी प्रेरणा है।

उनके बल पर चैन की नींद सो रहे हैं हमः अनेक असुविधाओं और हमारे प्रशासनिक तंत्र की जड़ताओं के बावजूद हमारी फौज के लोग दुर्गम स्थलों पर हमारी रक्षा के लिए डटे हैं और शायद इसीलिए हम चैन की नींद सो पाते हैं। भारतीय सेना ने जब भी उसे अवसर मिला देश के लिए अपना बेहतर प्रदर्शन किया। जम्मू-कश्मीर के आतंकवाद से लड़ते हुए भारतीय सेना ने आज भी देश के मुकुट कहे जाने वाले इस इलाके को भारत मां के आंचल से जोड़कर रखा है। इसी तरह पूर्वोत्तर के राज्यों में निरंतर हिंसक अभियानों से निपटकर वहां शांति व्यवस्था स्थापित करने में सेना का योगदान भुलाया नहीं जा सकता। अनेक आलोचनाओं और काम करने के तरीकों पर व्यापक टिप्पणियों के बावजूद यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि भारतीय सेना अंततः इस देश के प्रति समर्पित भाव से काम करती है। जिस तरह की स्थितियों में हमारे सैनिक काम करते हैं, उनकी कल्पना भी कठिन है। बातें करना बहुत आसान है, आलोचना उससे भी सरल। किंतु जिस तरह जान हथेली पर रखकर फौजियों को काम करना होता है, उन स्थितियों का आकलन करें तो सेना की कुछ भूलें हमें बहुत ही कम लगेंगीं। हर पल एक सैनिक मौत की छाया के बीच जीता है। क्योंकि आतंकवादियों और हमलावरों के निशाने पर हमारे सैनिक ही होते हैं, क्योंकि उनके नापाक मंसूबों को पूरा न होने देने में सबसे बड़े बाधक फौजी ही होते हैं।

सेना की तरफ युवाओं का कम होता रूझानः यह सुनकर दुख होता है कि आज की युवा पीढ़ी का रूझान सेना की ओर निरंतर कम हो रहा है। लोग देश के मर-मिटने का जज्बा रखने वाली सेना में कम जा रहे हैं। बताया जा रहा है कि सेना में उच्च स्तर पर करीब 12 हजार अधिकारियों की कमी है। पहले जहां नौजवान अपनी इच्छा से इस काम को चुनते थे, क्योंकि यह काम एक अपेक्षित गरिमा और सम्मान से युक्त है। आज इस रूझान में कमी आ रही है। यह कितना दुखद है कि सेना को भी अब विज्ञापन के नए तौर-तरीके अपनाकर युवाओं को आकर्षित करने के लिए अभियान चलाना पड़ रहा है। पहली बार सेना ने 1997 में इस तरह का अभियान शुरू किया था, जिसमें युवाओं को आकर्षित करने के लिए संचार माध्यमों का सहारा लिया गया था। निश्चय ही सेना के काम को एक नौकरी की तरह देखना और उसकी सुख-सुविधाओं का प्रसार सोचने के लिए विवश करता है। सेना का काम दरअसल जज्बे और समर्पण का है। यह किसी भी नौकरी से अव्वल है क्योंकि इसमें आपका उद्देश्य बहुत प्रकट है। शेष समाज के किसी भी व्यवसाय से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। यह सही मायने में भारत माता की अर्चना का सबसे सीधा और प्रकट उपक्रम है। भारतीय सेना के सामने मौजूद यह संकट बताता है कि हम भोगवाद और ज्यादा उपभोक्तावादी समाज की तरफ बढ़ रहे हैं। जहां देशभक्ति की भावनाएं एक बाजार तो गढ़ती हैं, किंतु प्रत्यक्ष जाकर सेना में काम करने की भावनाएं नहीं बढ़तीं। देश के युवाओं को तिलक कर सीमा भेजने वाले माता-पिता, बहनों-पत्नियों के उदाहरण इस देश में आम हैं। किंतु इस धारा को रूकने नहीं देना है। कोई भी देश समर्पित युवाओं के कामों से ही सम्मानित होता है और विश्वमंच पर अपनी जगह बनाता है।

फौजियों के लिए जगाएं आदरः हमें सेना के लिए लोगों के दिल में आदर पैदा करना होगा। समाज में फौजियों के लिए, उनके माता-पिता, परिवारों के लिए एक सम्मान का भाव पैदा करना होगा। क्योंकि ऐसे परिवार जिनके बेटे-बेटियां फौज में हैं, वे सम्मान के पात्र हैं। क्योंकि समाज का काम है कि वह उनका ऋण न भूले। समाज में आज तरह-तरह के गलत काम करने वाले सम्मानित होते देखे जाते हैं किंतु किसी शहीद के माता-पिता को सरकारी तंत्र की यातनाओं व उपेक्षा का किस तरह शिकार होना पड़ता है, इसके उदाहरण भी तमाम हैं। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि न सिर्फ शहीदों के परिवारों वरन फौजियों के परिवारों के साथ एक सम्मानित रवैया हमारा शासन वर्ग अख्तियार करे। प्रशासनिक पदों पर बैठे लोग फौजियों के परिजनों और फौजियों के साथ अपेक्षित सम्मान के साथ पेश आएं। उनके कामों को लटकाने या उन्हें परेशान करने की सूचनाएं पूरे समाज के लिए एक गलत उदाहरण बनती हैं। देश की सेवा में प्रत्यक्ष लगे इन लोगों का निरादर दरअसल देशद्रोह की परिधि में आता है। सीमा पर खड़े एक सिपाही का अपमान क्या इस मातृभूमि का निरादर नहीं है ? एक शहीद के माता-पिता या उसकी पत्नी के साथ सही तरीके से पेश न आना देशद्गोह नहीं हैं? एक व्यक्ति जो देश के लिए अपना सर्वस्व निछावर कर देता है क्या उसके परिजनों के प्रति हमारे तंत्र का रवैया संवेदना से भरा है, यह एक बड़ा सवाल है।

सेना की इज्जत करने का भाव आम आदमी में में है। किंतु तंत्र सबके साथ एक सरीखा व्यवहार करता है। इसके लिए सरकारी नियमावलियों और प्रोटोकाल में भी संशोधन की जरूरत है। जिसका लाभ निश्चय ही सैनिकों व उनके परिवारों को मिलेगा। यह बात भी ध्यान रखने की है कि सेना में लोग नौकरी के लिए नहीं जाते, वेतन के लिए नहीं जाते, एक जज्बे एवं देशभक्ति की भावना से साथ जाते हैं। यह धारा कहीं रूके और ठहरे नहीं इसके लिए हम सबको एक वातावरण बनाना होगा, तभी हमसब भारत के लोग और हमारी मातृभूमि सही अर्थों में सम्मानित, सुरक्षित और गौरवांवित महसूस करेगी।

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

घटनाओं के सुमंगल पक्ष को प्रचारित करे मीडियाः स्वामी निश्चलानंद

आध्यात्मिक संचार को दुनिया में स्थापित करना होगाः कुठियाला

भोपाल, 2 दिसंबर,2011। पुरी पीठाधीश्वर जगदगुरू शंकराचार्य स्वामी निश्चलानंद सरस्वती का कहना है कि दिशाहीन व्यापार तंत्र और दिशाहीन शासनतंत्र ने समाज जीवन के हर क्षेत्र को आक्रांत कर रखा है। इसका असर मीडिया पर भी देखा जा रहा है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में पत्रकारिता का धर्म विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे।

स्वामी जी ने कहा कि पत्रकारिता को ये दोनों तंत्र निगलने का प्रयास कर रहे हैं, इससे पत्रकारिता लोकमंगल के दायित्व को नहीं निभा पा रही है। इस गठबंधन से निकलने के लिए पत्रकारिता के प्राध्यापकों, मीडियाकर्मियों और मीडिया छात्रों को मिलकर काम करना होगा। उन्होंने कहा कि जिस देश में नारद मुनि और वेदव्यास जैसे पत्रकार एवं दिव्यदृष्टि संपन्न पुरोधा रहे हों, उस देश की पत्रकारिता में यह स्थितियां खतरनाक हैं। उनका कहना था कि पत्रकार ऐसी मेधा शक्ति उत्पन्न करें, जिससे भविष्य की घटनाओं का भी वे संकेत दे सकें। यह सारा कुछ प्रबल प्रारब्ध के बल से ही हासिल हो सकता है। छात्रों को समझाइस देते हुए स्वामी जी ने कहा कि पत्रकार को यदि समाज और अपना भविष्य उज्जवल बनाना है तो लोभ, भय, भावुकता और अविवेक को छोड़कर आगे आना होगा। इसके अलावा खबरों में सत्य, शिव और सुंदर की तलाश करनी होगी। ऐसी उजली पत्रकारिता ही देश का भविष्य गढ़ सकती है।

स्वामी जी ने कहना था कि मीडिया का आकार-प्रकार बहुत बढ़ गया है, उसका असर भी बढ़ रहा है। ऐसे में आज के मीडिया को ज्यादा जिम्मेदार और जवाबदेह होने की जरूरत है। किंतु खेद है कि ऐसा नहीं हो रहा है। आज के दौर में मीडिया की पहुंच लोगों की जिंदगी से लेकर निजी घटनाओं तक में हो गयी है। जिसके परिणाम बहुत घातक हो रहे हैं। इसलिए मीडिया को चाहिए कि वह अपनी लक्ष्मणरेखा भी तय करे। पाश्चात्य संस्कृति के प्रभावों ने हमारे जीवन और संस्कृति को आक्रांत कर रखा है। गुलामी के कालखंड की विकृतियों से हम अभी भी मुक्त नहीं हो सके हैं, इससे निजात पाने की जरूरत है, ताकि भारत का स्वाभिमान, सम्मान और स्वालंबन पूरी दुनिया में स्थापित हो सके। पत्रकारों का आह्वान करते हुए स्वामी जी ने कहा कि प्रत्येक घटना का सुमंगल पक्ष हो सकता है बस हमें उसे स्थापित करने की जरूरत है। उनका कहना था कि पश्चिम की पत्रकारिता हमारा आदर्श नहीं हो सकती। हमें अपने भारतीय विचारों पर खडी पत्रकारिता को स्वीकारना होगा क्योंकि वही हमें दुनिया में सम्मान दिला सकती है और समाज की स्वीकृति पा सकती है।

अपने संबोधन में कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने विश्वविद्यालय में पधारने पर महाराजश्री का स्वागत किया और कहा कि एक संस्कारवान पत्रकार पीढ़ी के निर्माण के लिए विश्वविद्यालय अनेक प्रयास कर रहा है। उन्होंने बताया कि विभिन्न पीठों के माध्यम से विश्वविद्यालय पत्रकारिता के वैकल्पिक दर्शन के निर्माण की भावभूमि तैयार कर रहा है। कुलपति ने कहा कि संचार के क्षेत्र में पूरी दुनिया के सामने आध्यात्मिक संचार के महत्व को स्थापित करते हुए उसे अध्ययन की विषयवस्तु भारत का दायित्व है। उन्होंने शंकराचार्य से आग्रह किया कि वे विश्वविद्यालय परिवार का निरंतर मार्गदर्शन करते रहें और समय-समय पर विद्यार्थियों व अध्यापकों से संवाद करें ताकि हमें सही दिशा मिल सके। कार्यक्रम के प्रारंभ में वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा, विवि के छात्र पराक्रम सिंह शेखावत, छात्रा सुरभि मालू ने अपने विचारों से जगदगुरू के प्रति अपनी भावनाएं व्यक्त कीं। पादुका पूजन एवं स्वस्ति वाचन से कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। आयोजन में नगर के अनेक गणमान्य नागरिक, विवि के शिक्षक एवं विद्यार्थी मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन राघवेंद्र सिंह ने किया।

गुरुवार, 1 दिसंबर 2011

कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी के नाम एक पत्र



भोपाल, 1 दिसंबर, 2011। युवा पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी ने खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश के सवाल पर कांग्रेस महासचिव श्री राहुल गांधी के नाम एक पत्र भेज कर इस अन्याय को रोकने की मांग की है। संजय ने अपने पत्र के महात्मा गांधी लिखित हिंद स्वराज्य की प्रति भी श्री गांधी को भेजी है। अपने पत्र में संजय द्विवेदी ने केंद्र की सरकार पर जनविरोधी आचरण के अनेक आरोप लगाते हुए राहुल गांधी से आग्रह किया है कि वे इस ऐतिहासिक समय में देश की कमान संभालें अन्यथा देश के हालात और बदतर ही होंगें। अपने पत्र में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की याद दिलाते हुए संजय द्विवेदी ने साफ लिखा है कि महंगाई के सवाल पर हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पास जादू की छड़ी नहीं हैं, किंतु अमरीका के पास ऐसी कौन सी जादू की छड़ी है कि जिसके चलते हमारी सरकार के मुखिया वही कहने और बोलने लगते हैं जो अमरीका चाहता है। क्या हमारी सरकार अमरीका की चाकरी में लगी है और उसके लिए अपने लोगों का कोई मतलब नहीं है? प्रस्तुत है इस पत्र का मूलपाठ-

प्रति,

श्री राहुल गांधी

महासचिव

अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी,

12, तुगलक लेन, नयी दिल्ली-110011

आदरणीय राहुल जी,

सादर नमस्कार,

आशा है आप स्वस्थ एवं सानंद होंगें। देश के खुदरा क्षेत्र में एफडीआई की मंजूरी देने के सवाल पर देश भर में जैसी प्रतिक्रियाएं आ रही हैं, उससे आप अवगत ही होंगे। आपकी सरकार के प्रधानमंत्री आदरणीय मनमोहन सिंह जी अपने पूरे सात साल के कार्यकाल में दूसरी बार इतनी वीरोचित मुद्रा में दिख रहे हैं। आप याद करें परमाणु करार के वक्त उनकी देहभाषा और भंगिमाओं को, कि वे सरकार गिराने की हद तक आमादा थे। उनकी यही मुद्रा इस समय दिख रही है। निश्चय ही अमरीका की भक्ति का वे कोई अवसर छोड़ना नहीं चाहते। किंतु सवाल यह है कि इन सात सालों में देश में कितने संकट आए, जनता की जान जाती रही, वह चाहे आतंकवाद की शक्ल में हो या नक्सलवाद की शक्ल में, बाढ़-सूखे में हो, किसानों की आत्महत्याएं या इंसीफ्लाइटिस जैसी बीमारियों से मरते लोगों पर, हमारे प्रधानमंत्री की इतनी मुखर संवेदना कभी व्यक्त नहीं होती।

अमरीकी जादू की छड़ीः

महंगाई के सवाल पर हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पास जादू की छड़ी नहीं हैं, किंतु अमरीका के पास ऐसी कौन सी जादू की छड़ी है कि जिसके चलते हमारी सरकार के मुखिया वही कहने और बोलने लगते हैं जो अमरीका चाहता है। क्या हमारी सरकार अमरीका की चाकरी में लगी है और उसके लिए अपने लोगों का कोई मतलब नहीं है? आखिर क्या कारण है कि जिस सवाल पर लगभग पूरा देश, देश के प्रमुख विपक्षी दल, आम लोग और कांग्रेस के सहयोगी दल भी सरकार के खिलाफ हैं, हम उस एफडीआई को स्वीकृति दिलाने के लिए कुछ भी करने पर आमादा हैं। एक दिसंबर, 2011 को भारत बंद रहा, संसद पिछले कई दिनों से ठप पड़ी है। क्या जनता के बीच पल रहे गुस्से का भी हमें अंदाजा नहीं है? क्या हम एक लोकतंत्र में रह रहे हैं ? आखिर हमारी क्या मजबूरी है कि हम अपने देशी धंधों और व्यापार को तबाह करने के लिए वालमार्ट को न्यौता दें?

वालमार्ट के कर्मचारी हैं या देश के नेताः

अगर इस विषय पर राष्ट्रीय सहमति नहीं बन पा रही है, तो पूरे देश की आकांक्षाओं को दरकिनार करते हुए हमारे प्रधानमंत्री और मंत्री गण वालमार्ट के कर्मचारियों की तरह बयान देते क्यों नजर आ रहे हैं? आप इस बात के लिए बधाई के पात्र हैं कि आप इन दिनों गांवों में जा रहे हैं और गरीबों के हालात को जानने का प्रयास कर रहे हैं। आपको जमीनी सच्चाईयां पता हैं कि किस तरह के हालात में लोग जी रहे हैं। अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी की रिपोर्ट से लेकर सरकार की तमाम रिपोर्ट्स हमें बताती हैं कि असली हिंदुस्तान किस हालात में जी रहा है। 20 रूपए की रोजी पर दिन गुजार रहा 70 प्रतिशत हिंदुस्तान कैसे और किस आधार पर देश में वालमार्ट सरीखी दानवाकार कंपनियों को हिंदुस्तान की जमीन पर पैर पसारने के लिए सहमत हो सकता है?

भूले क्यों गांधी कोः

आप उस पार्टी के नेता हैं जिसकी जड़ों में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के संस्कार, पं. जवाहरलाल नेहरू की प्रेरणा, आदरणीया इंदिरा गांधी जी का अप्रतिम शौर्य और आदरणीय राजीव गांधी जी संवेदनशीलता और निष्छलता है। क्या यह पार्टी जो हिंदुस्तान के लोगों को अंग्रेजी राज की गुलामी से मुक्त करवाती है,वह पुनः इस देश को एक नई गुलामी की ओर झोंकना चाहती है ? मेरा निवेदन है कि एक बार देशाटन के साथ-साथ आपको बापू (महात्मा गांधी) को थोड़ा ध्यान से पढ़ना चाहिए। बापू की किताब हिंद स्वराज्य की प्रति मैं आपके लिए भेज रहा हूं। इस किताब में किस तरह पश्चिम की शैतानी सभ्यता से लड़ने के बीज मंत्र दिए हुए हैं, उस पर आपका ध्यान जरूर जाएगा। मैं बापू के ही शब्दों को आपको याद दिलाना चाहता हूं, वे कहते हैं-कारखाने की खूबी यह है कि उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं रहता कि लोग हिंदुस्तान में या दुनिया में कहीं भूखे मर रहे हैं। उसका तो बस एक ही मकसद होता है, वह यह कि दाम उंचे बने रहें। इंसानियत का जरा भी ख्याल नहीं किया जाता। जिस देश में किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं और नौजवान बड़ी संख्या में बेरोजगार हों, वहां इस तरह की नीतियां अपनाकर हम आखिर कैसा देश बनाना चाहते हैं?क्या इसके चलते देश में हिंसाचार और अपराध की घटनाएं नहीं बढ़ेगीं, यह एक बड़ा सवाल है।

धोखे का लोकतंत्रः

महात्मा गांधी इसीलिए हमें याद दिलाते हैं कि अनाज और खेती की दूसरी चीजों का भाव किसान नहीं तय किया करता। इसके अलावा कुछ चीजें ऐसी हैं, जिन पर उसका कोई बस नहीं चलता है और फिर मानसून के सहारे रहने की वजह से साल में कई महीने वह खाली भी रहता है। लेकिन इस अर्से में पेट को तो रोटी चाहिए ही। राहुल जी क्या हमारी व्यवस्था किसानों के प्रति संवेदनशील है? हमारे कृषि मंत्री के बयानों को याद कीजिए और बताइए कि क्या हमने जनता के जख्मों पर नमक छिड़कने का एक अभियान सरीखा नहीं चला रखा है। एक लोकतंत्र में होने के हमारे मायने क्या हैं? इसीलिए राष्ट्रपिता हमें याद दिलाते हैं कि बड़े कारखानों में लोकराज्य नामुमकिन है। जो लोग चोटी पर होते हैं,वे गरीब मजदूरों पर उनके रहन-सहन के तरीकों पर जिनकी तादाद प्रति कारखाना चार-पांच हजार तो होती ही है एक दबाव डालते हैं और मनमानी करते हैं। ......राष्ट्रजीवन में ऐसे धंधों की एक बहुत बड़ी जगह होनी चाहिए, जिससे लोग लोकशाही की तरफ झुकें। बड़े कारखानों से राजनीतिक तानाशाही ही बढ़ेगी। नाम के लोक राज्यवाले देश तक जैसे अमरीका, रूस वगैरह लड़ाई के दबाव में सचमुच तानाशाह बन जाते हैं। जो कोई देश भी अपनी जरूरत का सामान केंद्रीय कारखानों से तैयार करेगा, वह आखिर में जरूर तानाशाह बन जाएगा। लोकराज्य वहां केवल दिखावे का रहेगा जिससे लोग धोखे में पड़े रहें।

क्या हमने स्वतंत्रता की लड़ाई लोकतंत्र के लिए लड़ी थीः

सवाल यह भी है क्या हमारी आजादी की लड़ाई देश में लोकतंत्र स्थापित करने के लिए थी? जाहिर तौर पर नहीं, हमारी लड़ाई तो सुराज, स्वराज्य और आजादी के लिए थी। आजादी वह भी मुकम्मल आजादी। क्या हम ऐसा बना पाए हैं? यहां आजादी चंद खास तबकों को मिली है। जो मनचाहे तरीके से कानूनों को बनाते और तोड़ते हैं। यही कारण है कि हमें लोकतंत्र तो हासिल हो गया किंतु सुराज नहीं मिल सका। इस सुराज के इंतजार में हमारी आजादी ने छः दशकों की यात्रा पूरी कर ली किंतु सुराज के सपने निरंतर हमसे दूर जा रहे हैं।

चमकीली दुनिया के पीछे छिपा अंधेराः

सवाल यह है कि गांधी-नेहरू-सरदार पटेल-मौलाना आजाद- इंदिरा जी जैसा देश बनाना चाहते थे,क्या हम उसे बना पा रहे है ? इस नई अर्थनीति ने हमारे सामने एक चमकीली दुनिया खड़ी की है,किंतु उसके पीछे छिपा अंधेरा हम नहीं देख पा रहे हैं। आपकी चिंता के केंद्र में अगर हिंदुस्तान की तमाम कलावतियां हैं तो आपकी पार्टी की सरकार का नेतृत्व मनमोहन सिंह जी जैसे लोग कैसे कर सकते हैं? जिनके सपनों में अमरीका बसता है। हिंदुस्तान को न जानने और जानकर भी अनजान बनने वाले नेताओं से देश घिरा हुआ है। यह चमकीली प्रगति कितने तरह के हिंदुस्तान बना रही है,आप देख रहे हैं।

संभालिए नेतृत्व राहुल जीः

आपकी संवेदना और कही जा रही बातों में अगर जरा भी सच्चाई भी है तो इस वक्त देश की कमान आपको तुरंत संभाल लेनी चाहिए। क्योंकि आप एक ऐतिहासिक दायित्व से भाग रहे हैं। मनमोहन सिंह न तो देश का, न ही कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व हैं। उनकी नियुक्ति के समय जो भी संकट रहे हों किंतु समय ने साबित किया कि यह कांग्रेस का एक आत्मघाती फैसला था। जनता के मन में चल रहे झंझावातों और हलचलों को आपको समझने की जरूरत है। देश के लोग व्यथित हैं और बड़ी आशा से आपकी तरफ देख रहे हैं। किंतु हम सब आश्चर्यचकित हैं कि क्या सरकार और पार्टी अलग-अलग दिशाओं में जा सकती है? कांग्रेस संगठन का मूल विचार अगर आम आदमी के साथ है तो मनमोहन सिंह की सरकार खास आदमियों की मिजाजपुर्सी में क्यों लगी है? महंगाई और भ्रष्टाचार के सवालों पर सरकार बगलें क्यों झांक रही है ? क्या कारण है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चल रहे अहिंसक प्रतिरोधों को भी कुचला जा रहा है ? क्या कारण है आपकी तमाम इच्छाओं के बावजूद भूमि अधिग्रहण का बिल इस सत्र में नहीं लाया जा सका ? क्या आपको नहीं लगता कि यह सारा कुछ कांग्रेस नाम के संगठन को जनता की नजरों में गिरा रहा है। कांग्रेस पार्टी को अपने अतीत से सबक लेते हुए गांधी के मंत्र को समझना होगा। बापू ने कहा था कि जब भी आप कोई काम करें,यह जरूर देखें कि इसका आखिरी आदमी पर क्या असर होगा। सादर आपका

( संजय द्विवेदी)

40, शुभालय विहार, ई-8 एक्सटेंशन, बावड़ियाकलां, भोपाल (मध्यप्रदेश)

मंगलवार, 29 नवंबर 2011

ममता को सराहौं या सराहौं रमन सिंह को


नक्सलवाद के पीछे खतरनाक इरादों को कब समझेगा देश

-संजय द्विवेदी

नक्सलवाद के सवाल पर इस समय दो मुख्यमंत्री ज्यादा मुखर होकर अपनी बात कह रहे हैं एक हैं छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह और दूसरी प.बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी। अंतर सिर्फ यह है कि रमन सिंह का स्टैंड नक्सलवाद को लेकर पहले दिन से साफ था, ममता बनर्जी अचानक नक्सलियों के प्रति अनुदार हो गयी हैं। सवाल यह है कि क्या हमारे सत्ता में रहने और विपक्ष में रहने के समय आचरण अलग-अलग होने चाहिए। आप याद करें ममता बनर्जी ने नक्सलियों के पक्ष में विपक्ष में रहते हुए जैसे सुर अलापे थे क्या वे जायज थे?

मुक्तिदाता कैसे बने खलनायकः आज जब इस इलाके में आतंक का पर्याय रहा किशन जी उर्फ कोटेश्वर राव मारा जा चुका है तो ममता मुस्करा सकती हैं। झाड़ग्राम में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस में सैकड़ों की जान लेने वाला यह खतरनाक नक्सली अगर मारा गया है तो एक भारतीय होने के नाते हमें अफसोस नहीं करना चाहिए।सवाल सिर्फ यह है कि कल तक ममता की नजर में मुक्तिदूत रहे ये लोग अचानक खलनायक कैसे बन गए। दरअसल यही हमारी राजनीति का असली चेहरा है। हम राजनीतिक लाभ के लिए खून बहा रहे गिरोहों के प्रति भी सहानुभूति जताते हैं और साथ हो लेते हैं। केंद्र के गृहमंत्री पी. चिदंबरम के खिलाफ ममता की टिप्पणियों को याद कीजिए। पर अफसोस इस देश की याददाश्त खतरनाक हद तक कमजोर है। यह स्मृतिदोष ही हमारी राजनीति की प्राणवायु है। हमारी जनता का औदार्य, भूल जाओ और माफ करो का भाव हमारे सभी संकटों का कारण है। कल तक तो नक्सली मुक्तिदूत थे, वही आज ममता के सबसे बड़े शत्रु हैं । कारण यह है कि उनकी जगह बदल चुकी है। वे प्रतिपक्ष की नेत्री नहीं, एक राज्य की मुख्यमंत्री जिन पर राज्य की कानून- व्यवस्था बनाए रखने की शपथ है। वे एक सीमा से बाहर जाकर नक्सलियों को छूट नहीं दे सकतीं। दरअसल यही राज्य और नक्सलवाद का द्वंद है। ये दोस्ती कभी वैचारिक नहीं थी, इसलिए दरक गयी।

राजनीतिक सफलता के लिए हिंसा का सहाराः नक्सली राज्य को अस्थिर करना चाहते थे इसलिए उनकी वामपंथियों से ठनी और अब ममता से उनकी ठनी है। कल तक किशनजी के बयानों का बचाव करने वाली ममता बनर्जी पर आरोप लगता रहा है कि वे राज्य में माओवादियों की मदद कर रही हैं और अपने लिए वामपंथ विरोधी राजनीतिक जमीन तैयार कर रही हैं लेकिन आज जब कोटेश्वर राव को सुरक्षाबलों ने मुठभेड़ में मार गिराया है तो सबसे बड़ा सवाल ममता बनर्जी पर ही उठता है। आखिर क्या कारण है कि जिस किशनजी का सुरक्षा बल पूरे दशक पता नहीं कर पाये वही सुरक्षाबल चुपचाप आपरेशन करके किशनजी की कहानी उसी बंगाल में खत्म कर देते हैं, जहां ममता बनर्जी मुख्यमंत्री बनी बैठी हैं? कल तक इन्हीं माओवादियों को प्रदेश में लाल आतंक से निपटने का लड़ाका बतानेवाली ममता बनर्जी आज कोटेश्वर राव के मारे जाने पर बयान देने से भी बच रही हैं। यह कथा बताती थी सारा कुछ इतना सपाट नहीं है। कोटेश्लर राव ने जो किया उसका फल उन्हें मिल चुका है, किंतु ममता का चेहरा इसमें साफ नजर आता है- किस तरह हिंसक समूहों का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने राजनीतिक सफलताएं प्राप्त कीं और अब नक्सलियों के खिलाफ वे अपनी राज्यसत्ता का इस्तेमाल कर रही हैं। निश्चय ही अगर आज की ममता सही हैं, तो कल वे जरूर गलत रही होंगीं। ममता बनर्जी का बदलता रवैया निश्चय ही राज्य में नक्सलवाद के लिए एक बड़ी चुनौती है, किंतु यह उन नेताओं के लिए एक सबक भी है जो नक्सलवाद को पालने पोसने के लिए काम करते हैं और नक्सलियों के प्रति हमदर्दी रखते हैं।

छत्तीसगढ़ की ओर देखिएः यह स्वीकार करने में कोई हर्ज नहीं कि देश के मुख्यमंत्रियों में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिंह पहले ऐसे मुख्यमंत्री हैं जिन्होंने इस समस्या को इसके सही संदर्भ में पहचाना और केंद्रीय सत्ता को भी इसके खतरों के प्रति आगाह किया। नक्सल प्रभावित राज्यों के बीच समन्वित अभियान की बात भी उन्होंने शुरू की। इस दिशा परिणाम को दिखाने वाली सफलताएं बहुत कम हैं और यह दिखता है कि नक्सलियों ने निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार ही किया है। किंतु इतना तो मानना पड़ेगा कि नक्सलियों के दुष्प्रचार के खिलाफ एक मजबूत रखने की स्थिति आज बनी है। नक्सलवाद की समस्या को सामाजिक-आर्थिक समस्या कहकर इसके खतरों को कम आंकने की बात आज कम हुयी है। डा. रमन सिंह का दुर्भाग्य है कि पुलिसिंग के मोर्चे पर जिस तरह के अधिकारी होने चाहिए थे, उस संदर्भ में उनके प्रयास पानी में ही गए। छत्तीसगढ़ में लंबे समय तक पुलिस महानिदेशक रहे एक आला अफसर, गृहमंत्री से ही लड़ते रहे और राज्य में नक्सली अपना कार्य़ विस्तार करते रहे। कई बार ये स्थितियां देखकर शक होता था कि क्या वास्तव में राज्य नक्सलियों से लड़ना चाहता है ? क्या वास्तव में राज्य के आला अफसर समस्या के प्रति गंभीर हैं? किंतु हालात बदले नहीं और बिगड़ते चले गए। ममता बनर्जी की इस बात के लिए तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने सत्ता में आते ही अपना रंग बदला और नए तरीके से सत्ता संचालन कर रही हैं। वे इस बात को बहुत जल्दी समझ गयीं कि नक्सलियों का जो इस्तेमाल होना था हो चुका और अब उनसे कड़ाई से ही बात करनी पड़ेगी। सही मायने में देश का नक्सल आंदोलन जिस तरह के भ्रमों का शिकार है और उसने जिस तरह लेवी वसूली के माध्यम से अपनी एक समानांतर अर्थव्यवस्था बना ली है, देश के सामने एक बड़ी चुनौती है। संकट यह है कि हमारी राज्य सरकारें और केंद्र सरकार कोई रास्ता तलाशने के बजाए विभ्रमों का शिकार है। नक्सल इलाकों का तेजी से विकास करते हुए वहां शांति की संभावनाएं तलाशनी ही होंगीं। नक्सलियों से जुड़े बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का सृजन कर रहे हैं। वे खून बहाते लोगों में मुक्तिदाता और जनता के सवालों पर जूझने वाले सेनानी की छवि देख सकते हैं किंतु हमारी सरकार में आखिर किस तरह के भ्रम हैं? हम चाहते क्या हैं? क्या इस सवाल से जूझने की इच्छाशक्ति हमारे पास है?

देशतोड़कों की एकताः सवाल यह है कि नक्सलवाद के देशतोड़क अभियान को जिस तरह का वैचारिक, आर्थिक और हथियारों का समर्थन मिल रहा है, क्या उससे हम सीधी लडाई जीत पाएंगें। इस रक्त बहाने के पीछे जब एक सुनियोजित विचार और आईएसआई जैसे संगठनों की भी संलिप्पता देखी जा रही है, तब हमें यह मान लेना चाहिए कि खतरा बहुत बड़ा है। देश और उसका लोकतंत्र इन रक्तपिपासुओं के निशाने पर है। इसलिए इस लाल रंग में क्रांति का रंग मत खोजिए। इनमें भारतीय समाज के सबसे खूबसूरत लोगों (आदिवासियों) के विनाश का घातक लक्ष्य है। दोनों तरफ की बंदूकें इसी सबसे सुंदर आदमी के खिलाफ तनी हुयी हैं। यह खेल साधारण नहीं है। सत्ता,राजनीति, प्रशासन,ठेकेदार और व्यापारी तो लेवी देकर जंगल में मंगल कर रहे हैं किंतु जिन लोगों की जिंदगी हमने नरक बना रखी है, उनकी भी सुध हमें लेनी होगी। आदिवासी समाज की नैसर्गिक चेतना को समझते हुए हमें उनके लिए, उनकी मुक्ति के लिए नक्सलवाद का समन करना होगा। जंगल से बारूद की गंध, मांस के लोथड़ों को हटाकर एक बार फिर मांदर की थाप पर नाचते-गाते आदिवासी, अपना जीवन पा सकें, इसका प्रयास करना होगा। आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप कर रहे नक्सली दरअसल एक बेहद प्रकृतिजीवी और सुंदर समाज के जीवन में जहर घोल रहे हैं। जंगलों के राजा को वर्दी पहनाकर और बंदूके पकड़ाकर आखिर वे कौन सा समाज बनना चाहते हैं, यह समझ से परे है। भारत जैसे देश में इस कथित जनक्रांति के सपने पूरे नहीं हो सकते, यह उन्हें समझ लेना चाहिए। ममता बनर्जी ने इसे देर से ही सही समझ लिया है किंतु हमारी मुख्यधारा की राजनीति और देश के कुछ बुद्धिजीवी इस सत्य को कब समझेंगें, यह एक बड़ा सवाल है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

आखिर देश कहां जा रहा है ?


देश के खुदरा बाजार को विदेशी कंपनियों को सौंपना एक जनविरोधी कदम

- संजय द्विवेदी

या तो हमारी राजनीति बहुत ज्यादा समझदार हो गयी है या बहुत नासमझ हो गयी है। जिस दौर में अमरीकी पूंजीवाद औंधे मुंह गिरा हुआ है और वालमार्ट के खिलाफ दुनिया में आंदोलन की लहर है,यह हमारी सरकार ही हो सकती है ,जो रिटेल में एफडीआई के लिए मंजूरी देने के लिए इतनी आतुर नजर आए। राजनेताओं पर थप्पड़ और जूते बरस रहे हैं पर वे सब कुछ सहकर भी नासमझ बने हुए हैं। पैसे की प्रकट पिपासा क्या इतना अंधा और बहरा बना देती है कि जनता के बीच चल रही हलचलों का भी हमें भान न रह जाए। जनता के बीच पल रहे गुस्से और दुनिया में हो रहे आंदोलनों के कारणों को जानकर भी कैसे हमारी राजनीति उससे मुंह चुराते हुए अपनी मनमानी पर आमादा हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है.

महात्मा गांधी का रास्ता सालों पहले छोड़कर पूंजीवाद के अंधानुकरण में लगी सरकारें थप्पड़ खाते ही गांधी की याद करने लगती हैं। क्या इन्हें अब भी गांधी का नाम लेने का हक है? हमारे एक दिग्गज मंत्री दुख से कहते हैं पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?” आप देश को लूटकर खाते रहें और देश की जनता में किसी तरह की प्रतिक्रिया न हो, फिर एक लोकतंत्र में होने के मायने क्या हैं ? अहिंसक प्रतिरोधों से भी सरकारें ओबामा के लोकतंत्र की तरह ही निबट रही हैं। बाबा रामदेव का आंदोलन जिस तरह कुचला गया, वह इसकी वीभत्स मिसाल है। लोकतंत्र में असहमतियों को अगर इस तरह दबाया जा रहा है तो इसकी प्रतिक्रिया के लिए भी लोगों को तैयार रहना चाहिए।

रिटेल में एफडीआई की मंजूरी देकर केंद्र ने यह साबित कर दिया है कि वह पूरी तरह एक मनुष्यविरोधी तंत्र को स्थापित करने पर आमादा है। देश के 30 लाख करोड़ रूपए के रिटेल कारोबार पर विदेशी कंपनियों की नजर है। कुल मिलाकर यह भारतीय खुदरा बाजार और छोटे व्यापारियों को उजाड़ने और बर्बाद करने की साजिश से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मंदी की शिकार अर्थव्यवस्थाएं अब भारत के बाजार में लूट के लिए निगाहें गड़ाए हुए हैं। अफसोस यह कि देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए रोजगार सृजन के लिए यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। नौकरियों के लिए सिकुड़ते दरवाजों के बीच सरकार अब निजी उद्यमिता से जी रहे समाज के मुंह से भी निवाला छीन लेना चाहती है। कारपोरेट पर मेहरबान सरकार अगर सामान्य जनों के हाथ से भी काम छीनने पर आमादा है, तो भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगें, इसे सोचा जा सकता है।

खुदरा व्यापार से जी रहे लाखों लोग क्या इस सरकार और लोकतंत्र के लिए दुआ करेंगें ? लोगों की रोजी-रोटी छीनने के लिए एक लोकतंत्र इतना आतुर कैसे हो सकता है ? देश की सरकार क्या सच में अंधी-बहरी हो गयी है? सरकार परचून की दुकान पर भी पूंजीवाद को स्थापित करना चाहती है, तो इसके मायने बहुत साफ हैं कि यह जनता के वोटों से चुनी गयी सरकार भले है, किंतु विदेशी हितों के लिए काम करती है। क्या दिल्ली जाते ही हमारा दिल और दिमाग बदल जाता है, क्या दिल्ली हमें अमरीका का चाकर बना देती है कि हम जनता के एजेंडे को भुला बैठते हैं। कांग्रेस की छोड़िए दिल्ली में जब भाजपा की सरकार आयी तो उसने प्रिंट मीडिया में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए। क्या हमारी राजनीति में अब सिर्फ झंडों का फर्क रह गया है। हम चाहकर अपने लोकतंत्र की इस त्रासदी पर विवश खड़े हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना शायद इसीलिए लिखते है-

दिल्ली हमका चाकर कीन्ह,

दिल-दिमाग भूसा भर दीन्ह।

याद कीजिए वे दिन जब हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमरीका से परमाणु करार के लिए अपनी सरकार गिराने की हद तक आमादा थे। किंतु उनका वह पुरूषार्थ, जनता के महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर हवा हो जाता है। सही मायने में उसी समय मनमोहन सिंह पहली और अंतिम बार एक वीरोचित भाव में दिखे थे क्योंकि उनके लिए अमरीकी सरकार के हित, हमारी जनता के हित से बड़े हैं। यह गजब का लोकतंत्र है कि हमारे वोटों से बनी सरकारें विदेशी ताकतों के इशारों पर काम करती हैं।

राहुल गांधी की गरीब समर्थक छवियां क्या उनकी सरकार की ऐसी हरकतों से मेल खाती हैं। देश के खुदरा व्यापार को उजाड़ कर वे किस कलावती का दर्द कम करना चाहते हैं, यह समझ से परे है। देश के विपक्षी दल भी इन मामलों में वाचिक हमलों से आगे नहीं बढ़ते। सरकार जनविरोधी कामों के पहाड़ खड़े कर रही है और संसद चलाने के लिए हम मरे जा रहे हैं। जिस संसद में जनता के विरूद्ध ही साजिशें रची जा रही हों, लोगों के मुंह का निवाला छीनने की कुटिल चालें चली जा रही हों, वह चले या न चले इसके मायने क्या हैं ? संसद में बैठे लोगों को सोचना चाहिए कि क्या वे जनाकांक्षाओं का प्रकटीकरण कर रहे हैं ? क्या उनके द्वारा देश की आम जनता के भले की नीतियां बनाई जा रही हैं? गांधी को याद करती राजनीति को क्या गांधी का दिया वह मंत्र भी याद है कि जब आप कोई भी कदम उठाओ तो यह सोचो कि इसका देश के आखिरी आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? सही मायने में देश की राजनीति गांधी का रास्ता भूल गई है, किंतु जब जनप्रतिरोध हिंसक हो उठते हैं तो वह गांधी और अहिंसा का मंत्र जाप करने लगती है। देश की राजनीति के लिए यह सोचने का समय है कि कि देश की विशाल जनसंख्या की समस्याओं के लिए उनके पास समाधान क्या है? क्या वे देश को सिर्फ पांच साल का सवाल मानते हैं, या देश उनके लिए उससे भी बड़ा है? अपनी झोली भरने के लिए सरकार अगर लोगों के मुंह से निवाला छीनने वाली नीतियां बनाती है तो हमें डा. लोहिया की याद आती है, वे कहते थे- जिंदा कौमें पांच तक इंतजार नहीं करती। सरकार की नीतियां हमें किस ओर ले जा रही हैं, यह हमें सोचना होगा। अगर हम इस सवाल का उत्तर तलाश पाएं तो शायद प्रणव बाबू को यह न कहने पड़े कि पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?”

बुधवार, 23 नवंबर 2011

सीबीआई की तरह ‘अच्छा बच्चा’ नहीं है कैग

-संजय द्विवेदी
राजसत्ता का एक खास चरित्र होता है कि वह असहमतियों को बर्दाश्त नहीं कर सकती। हमने इस पैंसठ सालों में जैसा लोकतंत्र विकसित किया है, उसमें जनतंत्र के मूल्य ही तिरोहित हुए हैं। सरकार में आने वाला हर दल और उसके नेता हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को भोथरा बनाने के सारे यत्न करते हैं। आज कैग और विनोद राय अगर सत्तारूढ़ दल निशाने पर हैं तो इसीलिए क्योंकि वे सीबीआई की तरह ‘अच्छे बच्चे’ नहीं हैं।
न्यायपालिका भी सत्ता की आंखों में चुभ रही है और चोर दरवाजे से सरकार मीडिया के भी काम उमेठना चाहती है। कैग, सरकार और कांग्रेस के निशाने पर इसलिए है क्योंकि उसकी रिपोर्ट्स के चलते सरकार के ‘पाप’ सामने आ रहे हैं। सरकार को बराबर संकटों का सामना करना पड़ रहा है। यही कारण है कि सरकार और उससे जुड़े दिग्विजय सिंह,मनीष तिवारी जैसे नेता कैग की नीयत पर ही शक कर रहे हैं। उसकी रिपोटर्स को अविश्सनीय बता रहे हैं। किंतु सरकार से जुड़ी संवैधानिक संस्थाएं अगर सत्ता से जुड़े तंत्र की मिजाजपुर्सी में लग जाएंगी हैं तो आखिर जनतंत्र कैसे बचेगा। सीबीआई ने जिस तरह की भूमिका अख्तियार कर रखी है, उससे उसकी छवि पर ग्रहण लग चुके हैं। आज उसे उपहास के नाते कांग्रेस ब्यूरो आफ इन्वेस्टीगेशन कहा जाने लगा है। क्या कैग को भी सीबीआई की तरह की सरकार की मनचाही करनी चाहिए, यह एक बड़ा सवाल है। हमारे लोकतंत्र में जिस तरह के चेक और बैलेंस रखे गए वह हमारे शासन को ज्यादा पारदर्शी और जनहितकारी बनाने की दिशा में काम आते हैं। इसलिए किसी भी तंत्र को खुला नहीं छोड़ा जा सकता।
न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में शक्तियों के बंटवारे के साथ-साथ, संसद के भीतर भी लोकलेखा समिति और तमाम समितियों में विपक्ष को आदर इसी भावना से दिया गया है। विरोधी विचारों का आदर और उनके विचारों का शासन संचालन में उपयोग यह संविधान निर्माताओं की भावना रही है। सब मिलकर देश को आगे ले जाने का काम करें यही एक भाव रहा है। तमाम संवैधानिक संस्थाएं और आयोग इसी भावना से काम करते हैं। वे सरकार के समानांतर, प्रतिद्वंदी या विरोधी नहीं हैं किंतु वे लोकतंत्र को मजबूत करने वाले और सरकार को सचेत करने वाले संगठन हैं। कैग भी एक ऐसा ही संगठन है। जिसका काम सरकारी क्षेत्र में हो रहे कदाचार को रोकने के लिए काम करना है। सीबीआई से भी ऐसी ही भूमिका की अपेक्षा की जाती है, किंतु वह इस परीक्षा में फेल रही है-इसीलिए आज यह मांग उठने लगी है कि सीबीआई को लोकपाल के तहत लाया जाए। निश्चय ही हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं, आयोगों और विविध एजेंसियों को उनके चरित्र के अनुरूप काम नहीं करने देंगें तो लोकतंत्र कमजोर ही होगा। लोकतंत्र की बेहतरी इसी में है कि हम अपने संगठनों पर संदेह करने के बजाए उन्हें ज्यादा स्वायत्त और ताकतवर बनाएं। सरकार में होने का दंभ, पांच सालों का है किंतु विपक्ष की पार्टियां भी जब सत्ता में आती हैं तो वे भी मनमाना दुरूपयोग करती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश के सबसे बड़े दल और लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी ने ऐसी परंपराएं बना दी हैं, जिसमें संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग तो दिखता ही है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने भी अपने पद की मर्यादा भुलाकर आचरण किया है। खासकर कांग्रेस के राज्यपालों के तमाम उदाहरण हमें ऐसे मिलेगें, जहां वे पद की गरिमा को गंवाते नजर आए। कैग ने अपनी थोड़ी-बहुत विश्वसनीयता बनाई है, चुनाव आयोग ने एक भरोसा जगाया है, कुछ राज्यों में सूचना आयोग भी बेहतर काम कर रहे हैं, हमें इन्हें संबल देना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ न्यायपालिका की सक्रियता का स्वागत करना चाहिए। मीडिया की पहल को भी सराहना चाहिए न कि हमें इन संस्थाओं को शत्रु समझकर इनकी छवि खराब करने या इन्हें लांछित-नियंत्रित करने का प्रयास करने चाहिए।
सत्ता में बैठे लोगों को बराबर यह लगता है कि उन्हें जनादेश मिल चुका है और अब पांच सालों तक देश के भाग्यविधाता वे ही हैं। उनके राज करने के तरीके में सवाल उठाने का हक न हमारी संवैधानिक संस्थाओं को है, न मीडिया को, न ही अन्ना हजारे या रामदेव जैसे जनता के प्रतीकों को। जाहिर तौर पर जनतंत्र की यह विडंबना हम भुगत रहे हैं और इसके अतिरेक में ही हम देश में एक आपातकाल भी झेल चुके हैं। सत्ता को भोगने की यह सनक ही हमारे दिमागों पर इस तरह कायम है कि हमें उचित-अनुचित का विचार भी नहीं रहता।
आज की राजनीति सवालों के वाजिब समाधान नहीं खोजती वह विषय को और उलझाकर विषय का विस्तार कर देती है। जैसे आप देखें तो अन्ना हजारे और रामदेव की मंडली के द्वारा उठाए गए सवालों के हल तलाशने के बजाए सरकार और उनकी एजेंसियां इनसे जुड़े लोगों के ही चरित्र चित्रण में लग गयीं। अब टूजी स्पेट्रक्ट्रम का सवाल गहराया तो सरकार अपने लोगों को दागदार होता देखकर राजग के कार्यकाल के समय के स्पेक्ट्रम आबंटन पर एफआईआर करवा रही है। इससे पता चलता है सवालों के समाधान खोजने के बजाए इस पर जोर है कि आप भी दूध के धुले नहीं हो। कुल मिलाकर आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी रैली और संसद के सत्र में विपक्ष के हमलों को भोथरा करने की यह सोची समझी चाल है। कैग जैसे संगठन अगर इसका शिकार बन रहे हैं तो यह राजनीति का ऐसा चरित्र है जिसकी आलोचना होनी चाहिए।

बिरथ आडवाणी की बेबसी !



एक अनथक यात्री के हौसलों को सलाम कीजिए
-संजय द्विवेदी


जिस आयु में लोग डाक्टरों की सलाहों और अस्पताल की निगरानी में ज्यादा वक्त काटना चाहते हैं, उस दौर में लालकृष्ण आडवानी ही हिंदुस्तान की सड़कों पर सातवीं बार देश को मथने-झकझोरने-ललकारने के लिए निकल सकते हैं। वे इस बार भी निकले और पूरे युवकोचित उत्साह के साथ निकले। परिवार और पार्टी की सलाहों, मीडिया की फुसफुसाहटों को छोड़िए, उस हौसले को सलाम कीजिए, जो इन विमर्शों को काफी पीछे छोड़ आया है।
प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच उनका नाम वैसे भी सर्वोच्च है, यह यात्रा एक राजनीतिक प्रसंग है, जिसे ऐसी बातों से हल्का न कीजिए। बस यह देखिए कि अन्ना हजारे, रामदेव और श्रीश्री रविशंकर के अराजनीतिक हस्तक्षेपों के बीच भ्रष्टाचार के खिलाफ के यह अकेली सबसे प्रखर राजनीतिक आवाज है। यह उस पार्टी के लिए भी एक पाठ है जो भावनात्मक सवालों के इर्द-गिर्द ही अपना जनाधार खोजती है। आडवानी की यह सातवीं यात्रा थी, जिसमें वे देश के सबसे ज्वलंत प्रश्न पर बात कर रहे थे। यह इसलिए भी क्योंकि इस सवाल पर उनकी खुद की पार्टी भी बहुत सहज नहीं है। उनकी इस यात्रा को प्रारंभ से झटके लगने शुरू हो गए, क्योंकि एक राजनीतिक वर्ग और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उनके इस प्रयास को 7- रेसकोर्स की तैयारी के रूप में देख रहा था। इससे यात्रा के प्रभाव को कम करने और आडवाणी के कद के नापने की कोशिशें हुयीं। जो निश्चय ही इस यात्रा के आभामंडल को कम करने वाले साबित हुए। आडवाणी जी अब जबकि 40 दिनों में 22 राज्यों की यात्रा कर लौट आए हैं तब सवाल यह उठता है कि आखिर इस यात्रा से इतनी घबराहटें क्यों थीं? क्या यात्रा के लिए जो समय, स्थान और विषय चुने गए वह ठीक नहीं थे? क्या अराजनीतिक क्षेत्र को भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी पहल सौंप देना और मुख्य विपक्षी दल के नाते भाजपा का कोई हस्तक्षेप न करना उचित होता ?
एक राजनीतिक दल के सर्वोच्च नेता होने के नाते आडवाणी ने जो किया, वह वास्तव में साहसिक और सुनियोजित यत्न था। किंतु अनेक तरीके से उनकी यात्रा से उपजे सवालों के बजाए, वही सवाल उठाए गए, जिसमें मीडिया रस ले सकता था, या भाजपा की अंतर्कलह को स्थापित की जा सकती थी। भाजपा में लालकृष्ण आडवानी का जो कद और प्रतिष्ठा है उसके मुकाबले वास्तव में कोई नेता नहीं हैं, क्योंकि आडवानी ही इस नई भाजपा के शिल्पकार हैं। उनके प्रयत्नों ने ही देश की एक सामान्य सी पार्टी को सर्वाधिक जनाधारवाली पार्टी में तब्दील कर दिया। भाजपा का भौगोलिक और वैचारिक विस्तार भी उनके ही प्रयत्नों की देन है। अटलबिहारी वाजपेयी के रूप में जहां भाजपा के पास एक ऐसा नेता मौजूद था, जिसने संसद के अंदर-बाहर पार्टी को व्यापकता और स्वीकृति दिलाई, वहीं आडवाणी ने इस जनाधार में काडर खोजने व खड़ा करने का काम किया। अटल जी की व्यापक लोकस्वीकृति और आडवाणी का संगठन कौशल मिलकर जहां भाजपा को शिखर तक ले जानेवाले साबित हुए वहीं केंद्र में उसकी सरकार बनने से वह सत्ता का दल भी बन सकी। भाजपा का केंद्रीय सत्ता में आना एक ऐसा सपना था जिसका इंतजार उसका काडर सालों से कर रहा था। 1984 के चुनाव में मात्र दो लोकसभा सदस्यों के साथ संसद में प्रवेश करनी वाली भाजपा अगर आज देश का मुख्य विपक्षी दल है तो इसकी कल्पना आप आडवाणी को माइनस करके नहीं कर सकते।
रामरथ यात्रा के माध्यम से पहली बार देश की जनता के बीच गए लालकृष्ण आडवाणी की, देश को झकझोरने की यह कोशिशें तब से जारी हैं। 1990 की राम रथ यात्रा का यह यात्री लगातार देश को मथ रहा है। उसके बाद जनादेश यात्रा, सुराज यात्रा, स्वर्णजयंती यात्रा, भारत उदय यात्रा, भारत सुरक्षा यात्रा, जनचेतना यात्रा की पहल बताती है कि आडवाणी अपने दल के विचार को जनता के बीच ले जाने के लिए किस तरह की वैचारिक छटपटाहट के शिकार हैं। वे जनप्रबोधन का कोई अवसर नहीं छोड़ते। राममंदिर के बहाने छद्मधर्मनिरपेक्षता पर उनके द्वारा किए जाने वाले वाचिक हमलों को याद कीजिए और यह भी सोचिए कि वे किस तरह देश को अपनी बात से सहमत करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाते हैं। वे जनता के साथ सीधे संवाद में अटलबिहारी वाजपेयी की तरह शब्दों के जादूगर भले न हों किंतु उनकी बात नीचे तक पहुंची और स्वीकारी गयी। क्योंकि वाणी और कर्म का साम्य उनमें बेतरह झलकता है। इसलिए जब वे कुछ कहते हैं, तो सामान्य प्रबोधन की शैली के बावजूद उनको ध्यान से सुना जाता है। वे लापरवाही से सुने जा सकने वाले नेता नहीं हैं। वे प्रबोधन के कलाकार हैं। वे विचार का पाठ पढ़ाते हैं और देश को अपने साथ लेना चाहते हैं। उनके पाठ इसलिए मन में उतरते हैं और जगह बनाते हैं।
अपनी वैचारिक दृढ़ता के नाते वे भाजपा के सबसे कद्दावर नेता ही नहीं, आरएसएस के भी लंबे समय तक चहेते बने रहे। क्योंकि वे स्वयं भाजपा का सबसे प्रामाणिक और वैचारिक पाठ थे। वे दल की विचारधारा और संगठन की मूल वृत्ति के प्रतिनिधि थे। अटलबिहारी वाजपेयी जहां अपनी व्यापक लोकछवि के चलते पार्टी का सबसे जनाधार वाला चेहरा बने वहीं, आडवानी विचार के प्रति निष्ठा के नाते दल का संगठनात्मक चेहरा बन गए, विचार पुरूष बन गए। पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जो कुछ उन्होंने लिखा और कहा, कल्पना कीजिए यह काम अटलबिहारी वाजपेयी ने किया होता तो क्या इसकी इस तरह चर्चा होती। शायद नहीं, क्योंकि उनकी छवि एक ऐसे भावुक-संवेदनशील नेता की थी जिसके लिए अपनी भावनाओं के उद्वेग को रोक पाना संभव नहीं होता था। किंतु आडवानी में संघ परिवार एक सावधान स्वयंसेवक, नपा-तुला बोलने वाला,पार्टी की वैचारिक लाईन को आगे बढ़ाने वाला, उस पर डटकर खड़ा होने वाले व्यक्ति की छवि देखता था। किंतु पाकिस्तान यात्रा ने कई भ्रम खड़े कर दिए। आडवानी का पारंपरिक आभामंडल दरक चुका था। वे आंखों के तारे नहीं रहे। यह क्यों हुआ, यह एक लंबी कहानी है। किंतु समय ने साबित किया कि किस तरह एक विचारपुरूष और संगठन पुरूष स्वयं अपने बनाए मानकों का ही शिकार हो जाता है। विचार के प्रति दृढ़ता और विचारधारा के प्रति आग्रह आडवानी ने ही अपने दल को सिखाया था, पाकिस्तान से लौटे तो यह फार्मूला उन पर ही आजमाया गया, उन्हें पद छोड़ना पड़ा। किंतु आडवानी की जिजीविषा और दल के लिए उनका समर्पण बार-बार उन्हें मुख्यधारा में ले आता है। वे पार्टी की तरफ से 2009 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए गए। पार्टी चुनाव हारी। चुनाव में हार-जीत बड़ी बात नहीं किंतु यह दूसरी हार(2004 और 2009) भाजपा पचा नहीं पायी। इसने पूरे दल के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया। दिल्ली के स्तर पर परिवर्तन हुए, एक नई युवा भाजपा बनाने की कोशिशें भी हुयीं। किंतु आडवाणी की लंबी छाया से पार्टी का मुक्त होना संभव कहां था। सो उनकी छाया से मुक्त होने के प्रयासों ने विग्रहों को और बल दिया। आडवाणी मुख्यधारा में रहे हैं, नेपथ्य में रहना उन्हें नहीं आता। बस संकट यह है कि अटलबिहारी वाजपेयी के पास लालकृष्ण आडवानी थे किंतु जब आडवानी मैदान में थे तो उनके पास और पीछे कोई नहीं था। यह आडवानी की बेबसी भी है और पार्टी की भी। इसी बेबसी ने भाजपा और उसके रथयात्री को सत्ता के रथ से विरथ किया। किंतु आडवानी इस राजनीतिक बियाबान में भी अपनी कहने और सुनाने के लिए निकल पड़ते हैं,पार्टी पीछे से आती है, परिवार भी पीछे से आता है। किंतु कल्पना कीजिए इस यात्रा में अगर आडवाणी सरीखा उत्साह पूरा दल और संघ परिवार दिखा पाता तो क्या यह अकेली यात्रा पूरी सरकार पर भारी नहीं पड़ती। अन्ना और रामदेव के आंदोलनों को परोक्ष मदद देने के आरोपों से घिरा परिवार अगर आडवाणी की इस यात्रा में प्रत्यक्ष आकर वातावरण बनाता तो जाहिर तौर पर मीडिया को इस यात्रा से उपजे सवालों को नजरंदाज करने का अवकाश नहीं मिलता। किंतु विग्रह की खबरों के बीच इस यात्रा में उठाए जा रहे बड़े सवाल हवा हो गए। आडवाणी रथ पर थे, जनता भी साथ थी किंतु उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों के बजाए मोदी-आडवानी की दूरियां सुर्खियां बनीं। एक बेहद महत्वाकांक्षी राजनीतिक अभियान की यह बेबसी वास्तव में त्रासद है, किंतु लालकृष्ण आडवानी की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए वे अपनी बात कहने-सुनाने के लिए इस गगनविहारी और फाइवस्टारी राजनीति के दौर में भी सड़क के रास्ते जनता के पास जाने का हौसला रखते हैं। किसी गांव में जाने पर राहुल गांधी पर बलिहारी हो जाने वाले मीडिया को इस अनथक यात्री को हौसलों पर कुछ रौशनी जरूर डालनी चाहिए। यह भी सवाल उठाना चाहिए कि क्या आने वाले समय में हमारे राजनेता ऐसी कठिन यात्राओं के लिए हिम्मत जुटा पाएंगें?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)