मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अब सिर्फ गेंदा फूल भर नहीं है रायपुर


राज्योत्सव के प्रसंग पर विशेष

-संजय द्विवेदी

अभिषेक बच्चन की पिछले दिनों आई फिल्म दिल्ली-6 के गाने-सास गारी देवे, देवर जी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल.... में रायपुर का भी जिक्र आता है। इस गाने के बोल छत्तीसगढ़ी भाषा में हैं, जिसे पहली बार रायपुर की ही प्रसिद्ध जोशी बहनों ने गाया है। हालांकि अब जोशी बहनों को दुख है कि इस गीत के लिए फिल्मकार ने छत्तीसगढ़ को क्रेडिट नहीं दिया है। वे दर्द से कहती हैं हमें रूपया नहीं चाहिए बस इतना तो हो कि हमारे शहर या राज्य छत्तीसगढ़ का उल्लेख हो जाए। जोशी बहनें ठीक ही कह रहीं हैं, लेकिन रायपुर अब किसी सिनेमा के गाने में नाम आने से कहीं अधिक बड़ा है। यह भारतीय गणराज्य के तीन सबसे नए राज्यों में एक की राजधानी भी बन चुका है। जाहिर है, उसकी अपनी साख कायम हो चुकी है। राजधानी ने उसे मंत्रालय का शक्ति केंद्र दिया है, जहां छत्तीसगढ़ के दो करोड़, दस लाख लोगों के भाग्य का फैसला करने वाली सरकार बैठती है। अब इस शहर को नई राजधानी का भी इंतजार है, जिससे यह शहर अचानक बढ़ आयी भीड़ का इलाज पा सके। कोई शहर जब राजधानी बनता है तो वह किस तरह खुद को रूपांतरित करता है यह देखना बहुत रोचक है।

राजधानी बनता एक शहरः रायपुर शहर का छत्तीसगढ़ प्रदेश की राजधानी बन जाना एक ऐसी घटना है जिसने एक बड़े गांव को महानगर बनने का रास्ता दे दिया है। तेलीबांधा से आगे महासमुंद रोड की ओर बढ़िए तो आपको माल नज़र आएगा जहां से रायपुर पहली बार मॉल संस्कृति से परिचित होता दिखता है। आईनाक्स में सिनेमा देखने का एक सुख है जो रायपुर के सिनेमाघरों से अलग है। अब इसी रोड पर एक और मॉल बन गया है तो पंडरी में भी एक और मॉल की धूम है। एडलैब्स का सिनेमाघर भी समता कालोनी में आ गया है। लालगंगा शापिंग मॉल से लेकर बिग बाजार, सालासर ही नहीं हर तरह के ब्रांड के शोरूम यहां की फिजां में रंग भर रहे हैं। लगभग हर बैंक ने अपनी शाखाएं राजधानी बनने के बाद यहां खोली हैं जिनमें तमाम ऐसे भी बैंक हैं जो सामान्य शहरों में नजर नहीं आते। रायपुर वैसे भी एक व्यापारिक शहर रहा है। पड़ोसी राज्यों मप्र, उड़ीसा, महाराष्ट्र से लगे जिले, इसके व्यापारिक वृत को विस्तार देते नज़र आते हैं। भिलाई के पास होने के नाते रायपुर ने औद्योगिक क्षेत्र में नई उड़ान ली है। बिलासपुर से आते समय आप देख सकते हैं किस तरह सड़क के दोनों किनारों पर धुंआ उगलती चिमनियां दिखती हैं। ये तमाम स्पंज आयरन और अन्यान्य उद्योगों के चलते आसमान तो काला हो ही रही है, किसानों की भी शिकायत है कि यह प्रदूषण अब उनकी धान की फसल को काला कर रहा है। रायपुर शहर वैसे भी धूल की समस्या से ग्रस्त है और तीन साल पहले उसे सर्वाधिक प्रदूषित शहर का दर्जा भी मिल चुका है।


राजपथ पर चलने के सुखः जीई रोड का मुख्यमार्ग अब राजपथ में बदल गया है जिसे सरकार ने गौरव पथ का नाम दिया है। चौड़ी होती सड़कें, सड़कों के किनारे आदिवासी शिल्प और संस्कृति से जुड़ते दिखने की सरकारी कोशिशें साफ नजर आती हैं। कलेक्ट्रेट से रेलवे स्टेशन जाने वाली सड़क भी अब काफी चौड़ी सी लगती है। इसी सड़क पर वह बहुचर्चित जेल भी है जहां मानवाधिकार कार्यकर्ता डा विनायक सेन लंबे समय तक कैद रहे । उन पर कथित तौर पर नक्सलियों से रिश्ते रखने का आरोप है। यहां कलेक्टर रहे आरपी मंडल ने जब शहर का कायाकल्प करना शुरू किया तो पहले कलेक्ट्रेट की बुढ़िया बिल्डिंग को चमकाया और उससे लगे पार्क को भी। यह ऐसा कि बाहर से तो कलेक्ट्रेट का परिसर और प्रांगण मंत्रालय से बेहतर नजर आता है। तोड़फोड़ और विस्तार का क्रम लगातार जारी है। मोतीबाग जहां प्रेस क्लब है के आसपास की दुकानें अब नजर नहीं आतीं। सब कुछ तोड़ू दस्ते की भेंट चढ़ चुका है। शहर के मुख्य चौराहे अब भी भीड़ की भांय-भांय से आक्रांत हैं। ट्रैफिक की व्यवस्था आम हिदुस्तानी शहरों की तरह ही बेहाल है। ऐसे में एक शहर में कई शहरों के सांस लेने जैसा ही प्रतीत होता है।

जिन गलियों में धड़कता है रायपुरः रायपुर दरअसल रिक्शों का भी शहर है, यहां उड़ीसा से काम की तलाश आए ज्यादतर लोग इसी पर अपनी जिंदगी बसर करते हैं। अब रिक्शा तो नहीं लेकिन अन्य छोटे-मोटे कामकाज की तलाश में बिहार, उत्तरप्रदेश के लोग भी रायपुर में पांव पसारने लगे हैं, जिन्हें गली मोहल्लों में सब्जी-भाजी बेचते पहचाना जा सकता है। कहने को तो यहां दो साल से लम्बी काया वाली सिटी बस भी चलने लगी है किंतु उसे चलते हुए कहना ठीक नहीं, अपितु रेंगती है। रायपुर की सड़कों पर प्रायः काम के सुबह-शाम स्पीड आठ किलोमीटर प्रति घंटा भी हो जाती है। रामसागरपारा, सदर बाजार, पुरानी बस्ती, ब्राम्हणपारा, मौदहापारा जैसी बस्तियां दरअसल पुराने रायपुर की घड़कनों की असल गवाह हैं। इनकी गलियों में ही असल रायपुर धड़कता है। रायपुर को महसूस करने के लिए दरअसल आपको इन्हीं तंग गलियों से गुजरना होगा। राज्य के पारंपरिक व्यंजन, तीज-त्योहार भी इन्हीं गलियों में दिखते हैं। अब राजभाषा का दर्जा पा चुकी छत्तीसगढ़ी की महक और खनक भी रायपुर के पुराने मुहल्लों में सुनाई देती है। छ्त्तीसगढ़ी भाषा का पहला अखबार निकालने वाले जागेश्वर प्रसाद राहत महसूस कर सकते हैं। उनका अखबार बंद भले हो गया पर भाषा पर सरकारी मोहर लग चुकी है। जागेश्वर की अपनी एक पार्टी भी जिसका नाम है छत्तीसगढ विकास पार्टी है।

इतिहास को समेटे एक शहरः रायपुर के बूढ़ापारा में मप्र के प्रथम मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल का आवास आज भी एक इतिहास को समेटे हुए दिखता है। इस परिवार से निकले पंडित शुक्ल के बेटों पंडित श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल के उल्लेख के बिना रायपुर ही नहीं संयुक्त मध्यप्रदेश का इतिहास भी अधूरा रह जाएगा। अब इस परिवार की तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में अमितेश शुक्ल राजिम से विधायक के रूप में दुबारा चुने गए हैं। वे छत्तीसगढ़ की पहली सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। रायपुर की राजनीतिक चेतना को यहां के दिग्गज नेताओं ने लगातार प्रखर बनाया है। शुक्ल परिवार के अलावा संत पवन दीवान का एक चेहरा ऐसा है जिसने लगातार छत्तीसगढ़ और उसकी अस्मिता से जुड़े सवालों को उठाया है। हालांकि बार- बार पार्टियां बदलकर दीवान अपनी राजनैतिक आभा तो खो चुके हैं किंतु एक संत के नाते उनके सादगीपूर्ण जीवन से लोगों में आज भी उनके प्रति आस्था शेष है।

भाजपा का रायपुरः आज के रायपुर में भाजपा की एक खास जगह बन चुकी है जिसकी खास वजह रमेश बैस, बृजमोहन अग्रवाल जैसे नई पीढ़ी के नेताओं को माना जा सकता है, जिन्होंने अपने दल के लिए निरंतर काम करते हुए यहां के समाज जीवन में एक खास जगह बना ली है। रायपुर से सांसद रमेश बैस एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने विद्याचरण और श्यामाचरण शुक्ल दोनों को चुनाव मैदान में पराजित किया। रायपुर से दो बार सांसद रहे केयूर भूषण भी आज की राजनीति के एक उदाहरण हो सकते हैं जो आज भी अपनी आयु के सात दशक पूरे करने के बावजूद साइकिल से ही चलते हैं। रायपुर जैसे व्यापारिक शहर का दो बार सांसद रहे इस गांधीवादी नायक की सादगी प्रेरणा का विषय है। आज जबकि रायपुर राजधानी बन चुका है सो राजपुत्रों से इसका दैनिक वास्ता है बावजूद इसके कि चंद्रशेखर साहू, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू राजेश मूणत, राजकमल सिंहानिया जैसे नेता रायपुर ही नहीं पूरे प्रदेश में अपना प्रभाव रखते हैं। मूणत और साहू तो इस समय रमन मंत्रिमंडल के प्रभावी मंत्री भी हैं।

साहित्य में भी खास जगहः साहित्य के क्षेत्र में रायपुर आज भी खास लेखकों की मौजूदगी से गौरवांवित है। नौकर की कमीज जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास के लेखक विनोद कुमार शुक्ल इसी शहर के शैलेन्द्र नगर मुहल्ले में रहते हुए आज भी रचनाशील हैं। गजानन माधव मुक्तिबोध की यादों के साथ उनके बेटे इसी शहर में रहते हैं। परितोष चक्रवर्ती, जया जादवानी, गिरीश पंकज, जयप्रकाश मानस, आनंद हर्षुल, कनक तिवारी, पुष्पा तिवारी, डा चित्तरंजन कर जैसे तमाम लेखक आज भी यहां रचनाओं का सृजन कर हैं। जयप्रकाश मानस का अतिरिक्त उल्लेख यहां इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि उन्होंने एक नई विधा में सार्थक काम करके अपनी जगह बनाई है। वे सृजनगाथा डाट काम नाम से एक मासिक साहित्यिक वेबसाइट चला रहे हैं और राज्य में वेब पत्रकारिता की शुरुआत भी इसी से मानी जाती है। इसके अलावा उन्होंने राज्य के कई लेखकों की कृतियों को आनलाइन करने का भी महत्वपूर्ण काम किया। सुधीर शर्मा ने वैभव प्रकाशन नाम से राज्य के रचनाकारों की लगभग चार सौ किताबें प्रकाशित करने का काम किया है जिससे स्थानीय रचनाकार सामने आ रहे हैं। यहां ऐसे लेखक भी हैं जो क्षेत्रीय स्तर पर भी सक्रिय हैं और जो कल के साहित्य जगत में एक बड़ा हस्तक्षेप कर सकते हैं। रायपुर राजधानी होने के पहले ही इस समूचे छ्तीसगढ़ क्षेत्र का एक केंद्र रहा है सो यहां साहित्य, संस्कृति, पत्रकारिता और कला के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप होते रहे हैं। यह शहर राजनारायण मिश्र, विष्णु सिंन्हा, रमेश नैयर, बसंतकुमार तिवारी, गोविंदलाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र, ललित सुरजन, सुनील कुमार जैसे पत्रकारों की उपस्थिति से भी जनमुद्दों पर संवाद की गुंजाइश तलाश ही लेता है।


हाशिए पर संस्कृतिः बालीबुड की तर्ज पर छालीवुड का सिनेमा भी अपनी जगह बनाने की जुगत में है। हालांकि भोजपुरी फिल्मों जैसा इस सिनेमा का बाजार तो नहीं दिखता किंतु एकमात्र सफल फिल्म मोर छइयां-भुइयां ने एक उम्मीद तो जगाई ही थी। हां, एलबम का कारोबार जरूर चरम पर है, जिससे छत्तीसगढ़ की संस्कृति तो नहीं दिखती पर वे बालीवुड की भोंड़ी नकल जरूर साबित हो रहे हैं। सांस्कृतिक क्षेत्र में मुक्तिबोध नाट्य समारोह ने अपनी पहचान बनाई है। बावजूद इसके, रायपुर आज भी छ्त्तीसगढ़ की साझी सांस्कृतिक या सामाजिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। इसे इस रूप से देखा जा सकता है कि राज्योत्सव के अलावा कोई बड़ा सांस्कृतिक हस्तक्षेप पूरे साल भर सुनाई नहीं पड़ता, उसमें भी मेले का माहौल ज्यादा रहता है, जबकि रायगढ़ के चक्रधर समारोह ने अपनी एक राष्ट्रीय पहचान कायम कर ली है। रायगढ़ घराने की सांस्कृतिक भावभूमि और राजनांदगांव जिले में पड़ने वाले खैरागढ़ में संगीत विश्वविद्यालय की मौजूदगी के बावजूद राजधानी में उसके प्रभाव नहीं दिखते। राज्य के तमाम कलाकार जिनकी देश-दुनिया में एक बड़ी जगह है, राजपुत्रों के दिलों में जगह नहीं बना पाते। कई पद्मपुस्कार प्राप्त कलाकार आज भी समाज के ध्यानार्षण की प्रतीक्षा में हैं। छत्तीसगढ़ के मायने सिर्फ रायपुर नहीं, उसे बृहत्तर परिपेक्ष्य में देखना होगा, क्योंकि राज्य के तमाम शिल्पकार, कलाकार, संस्कृति कर्मी रायपुर में ही नहीं रहते। इस मामले में छत्तीसगढ़ की सरकार मप्र के अनुभवों से प्रेरणा ले सकती है और छ्त्तीसगढ़ में अपने कलाकारों के मान- सम्मान की नई परंपराएं गढ़ सकती है। रायपुर के ही शेखर सेन ने अपनी विवेकानंद और कबीर की नाटिकाओं के माध्यम से एक खास जगह बना ली है तो भारती बंधु कबीर गायन में एक नामवर हस्ती हैं। ऐसे में राष्ट्रीय फलक पर रायपुर का हस्तक्षेप धीरे-धीरे मुखर, प्रखर और प्रभावी हो रहा है।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

छत्तीसगढ़ राज्य के स्थापना दिवस (1 नवंबर) पर विशेषः नक्सली आतंकवाद सबसे बड़ी चुनौती


-संजय द्विवेदी

छत्तीसगढ़ राज्य यानि वह उपेक्षित भूगोल जो पिछले 11 सालों से अपने सपनों में रंग भरने की कोशिशें कर रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना के लिए हुए संघर्षों की मूल भावना को समझें तो साफ नजर आएगा कि राज्य इसलिए चाहिए था कि क्योंकि शोषण से मुक्ति चाहिए थी, विकास चाहिए था और राज्य की बड़ी आदिवासी आबादी को राजनैतिक तौर पर सक्षम होते हुए देखना था। विकास आज बड़ा विवादित शब्द बन गया है। विकास के मानक हमें अनेक स्थानों पर बेमानी दिखने लगे हैं कि क्योंकि वे मनुष्य की शर्त पर विकास का सपना साकार करते हैं।

छत्तीसगढ़ इस मामले में नए राज्यों की तुलना में सौभाग्यशाली है कि यहां राजनीतिक स्थिरता बनी रही और मुख्यमंत्री के रूप में दोनों राजनेताओं की दृष्टि विकास को लेकर बहुत साफ रही। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने जहां अपनी तमाम कमियों के बावजूद विकास को सवाल को दरकिनार नहीं किया, वहीं डा. रमन सिंह ने सपनों में रंग भरने का काम तेजी से किया। अब जबकि राज्य की स्थापना के ग्यारह साल पूरे हो चुके हैं तब यह ठहरकर सोचने का वक्त है कि आखिर हम कहां खड़े हैं और हमसे अपेक्षाएं क्या हैं।

सबसे बड़ी चुनौती नक्सलवादः

छत्तीसगढ़ राज्य की आज सबसे बड़ी चुनौती क्या है। शायद इसका सामूहिक उत्तर हो नक्सलवाद। इन 11 सालों में समस्या भयंकर से भयावह हो गयी है और स्थिति खराब से अराजक। युद्ध लड़ने की अपनी साफ प्रतिबद्धता के बावजूद इस मोर्चे पर राज्य की सरकार कुछ कर नहीं पाई। नक्सली आतंकवाद के शिकार पुलिसवाले भी हो रहे हैं और आम आदिवासी भी। इन सालों में नक्सली अपना क्षेत्र विस्तार करते रहे और हम जुबानी जमा खर्च से आगे बढ़ नहीं पाए। हिंसा हमारी स्थायी पहचान बन गयी और कथित मानवाधिकार संगठन उल्टे हमारे लोगों की निरंतर हत्याओं के बावजूद हमारे राज्य को ही हिंसक बताने में लगे रहे। छत्तीसगढ़ में जो हो रहा है वह दरअसल एक ऐसा पाप है जिसके लिए हमें पीढ़ियां माफ नहीं करेंगीं। दुनिया की सबसे खूबसूरत कौम, आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप जो अतिवादी वामपंथी कर रहे हैं, उसके लिए इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा। राज्य से भी कुछ गलतियां हो रही हैं किंतु जब कोई जंग हमारे गणतंत्र के खिलाफ हो तो समाज की एकजुटता जरूरी हो जाती है। डा.रमन सिंह से लेकर कल तक नक्सलियों के प्रति उदार रही ममता बनर्जी की बातचीत की अपीलें ठुकराकर भी एक हिंसक लड़ाई जनतंत्र और व्यवस्था के खिलाफ लड़ी जा रही है। दुर्भाग्य यह कि इस रक्तक्रांति को भी महिमामंडित करने वाले हमारे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है। इस जंग में पिस रहे आदिवासी किसी की चिंता का विषय नहीं हैं। इसलिए इस आतंक से लड़ना सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। अब प्रतीकात्मक कदमों से आगे बढ़ने की जरूरत है और बस्तर के जंगलों से बारूद की गंध हटाने का समय आ गया है।

विकास के सवालों पर तेजी से काम करने की जरूरतः

छत्तीसगढ़ की दूसरी सबसे बड़ी चिंता शिक्षा के स्तर की है। हम देखें तो तमाम बड़े संस्थानों के आगमन के बावजूद हमारे सरकारी स्कूलों का हाल क्या है। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ का स्थान राष्ट्रीय मानकों पर खरे उतरने से ही तय होगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरूस्त कर राज्य ने जहां चौतरफा वाहवाही पायी है, वहीं तमाम विकास के सवाल हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं। शिशु मृत्यु दर में आज भी छत्तीसगढ़ 62 प्रतिशत पर बना हुआ है जो पहले स्थान पर चल रहे मप्र से मात्र 8 प्रतिशत कम है। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों का आंकड़ा आज भी 30 प्रतिशत को पार कर चुका है तो यह चिंता की बात है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार और विकसित राज्यों के मानकों को छूना जरूरी है। किंतु छत्तीसगढ़ में, इन 11 सालों की यात्रा में तेज प्रगति करते हुए दिखने के बावजूद अभी काफी कुछ होना शेष है। छत्तीसगढ़ की विकास दर काफी ठीक है किंतु विकास दर या प्रति व्यक्ति के आंकड़े जिन आधारों पर तैयार होते हैं उससे आम आदमी की स्थिति का सही आकलन व्यक्त नहीं होता। गरीबी- बेरोजगारी से निपटना आज सबसे बड़ी चुनौती है। जाहिर तौर पर इससे निपटने का रास्ता यही है कि हम शिक्षा का स्तर उठाएं और प्रशिक्षण के आधार पर श्रेष्ठ मानव संसाधन का निर्माण करें।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समर्थ बनाएं-

सिंचाई के साधनों का विकास करते हुए खेती को उन्नत करने की आवश्यकता है। कृषि के विकास से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ताकत मिलेगी। सरकार की अनेक योजनाओं जैसे सस्ता चावल और मनरेगा के चलते गांवों से पलायन कम हुआ है, यह एक शुभ संकेत है। इसके साथ-साथ औद्योगिक निवेश को तर्कसंगत बनाने की जरूरत है। ऐसे उद्यमियों को अनुमति दी जाए जिनके उद्योगों से ज्यादा लोगों को रोजगार मिल सके। इसमें स्थानीय नागरिकों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। गरीबी कम करना वास्तव में सबसे बड़ी चुनौती है। यह तभी कम होगी जब शिक्षा का स्तर बढ़ेगा, स्वावलंबन की भावना आएगी , लोग अनेक फसलें लेने की ओर बढ़ेंगें साथ नशाखोरी कम होगी। शराब ने जिस कदर आम लोगों को जकड़ रखा है उसके खिलाफ भी एक जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। शराब पीकर मेहनतकश लोग अपनी मेहनत की कमाई गंवा रहे हैं जिसका असर उनके परिवारों पर पड़ रहा है। नशे से मुक्त समाज ज्यादा स्वाभिमान से अपना जीवन यापन करता है। हमें इस ओर भी ध्यान देने की जरूरत है। गांव-गांव में खोली जा रही शराब दुकानें, आखिर हमारा चेहरा कैसा बना रही हैं इस पर भी सोचने की जरूरत है।

प्रदेश की अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार को तेज करते हुए को देश के साथ कदमताल करना होगा, तभी सपने सच होंगें और राज्य का वास्तविक सौंदर्य़ सामने आएगा। छत्तीसगढ़ वास्तव में एक लोकप्रदेश है उसकी अपनी पहचान इसी विस्तृत लोकजीवन और परंपराओं के चलते है। बाजार और औद्योगीकरण की आंधी में इस पहचान को भी बचाने की जरूरत है। बाजार की तेज हवाएं और पश्चिमीकरण के तूफान के बीच छत्तीसगढ़ आम आदमी के लिए रहने लायक बना रहे, इसके लिए इसके लोक का संरक्षण जरूरी है।

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

स्थापना दिवस (1 नवंबर) पर विशेषः 11 साल का छत्तीसगढ़



अपने सपनों में रंग भरता छत्तीसगढ़

-संजय द्विवेदी

छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र ग्यारह वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने रचनात्मक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह राजनीति, साहित्य,कला और संस्कृति के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारे की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से भारतीय और हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है, जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है। अपनी आदर्श परंपराओं और संस्कारों के लिए जाना जाने वाला छत्तीसगढ़ सही अर्थों में सद्भावना का टापू है। भारतीय परम्परा की उदात्तता इसकी थाती है और सामाजिक समरसता इसका मूलमंत्र। सदियों से अपनी इस परंपरा के निर्वहन में लगी यह धरती अपनी ममता के आंचल में सबको जगह देती आयी है। शायद यही कारण है कि राजनीति की ओर से यहां के समाज जीवन में पैदा किए जाने वाले तनाव और विवाद की स्थितियां अन्य प्रांतों की तरह कभी विकराल रूप नहीं ले पाती हैं।


समता के गहरे भावः समाज की शक्तियों में समता का भाव इतने गहरे पैठा हुआ है कि तोड़ने वाली ताकतों को सदैव निराशा ही हाथ लगी है।संतगुरू घासीदास से लेकर पं. सुन्दरलाल शर्मा तक के प्रयासों ने जो धारा बहाई है वह अविकल बह रही है और सामाजिक तौर पर हमारी शक्ति को, एकता को स्थापित ही करती है। इस सबके मूल में असली शक्ति है धर्म की, उसके प्रति हमारी आस्था की। राज्य की धर्मप्राण जनता के विश्वास ही उसे शक्ति देते हैं और अपने अभावों, दर्दों और जीवन संघर्षों को भूलकर भी यह जनता हमारी समता को बचाए और बनाए रखती है।प्राचीनकाल से ही छत्तीसगढ़ अनेक धार्मिक गतिविधियों और आंदोलनों का केन्द्र रहा है। इसने ही क्षेत्र की जनता में ऐसे भाव भरे जिससे उसके समतावादी विचारों को लगातार विस्तार मिला। खासकर कबीरपंथ और सतनाम के आंदोलन ने इस क्षेत्र को एक नई दिशा दी। इसके ही समानांतर सामाजिक तौर पर महात्मा गांधी और पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रभावों को हम भुला नहीं सकते।


अप्रतिम धार्मिक विरासतः छत्तीसगढ़ में मिले तमाम अभिलेख यह साबित करते हैं तो यहां शिव, विष्णु, दुर्गा, सूर्य आदि देवताओं की उपासना से संबंधित अनेक मंदिर हैं। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्मों के अस्तित्व के प्रमाण यहां के अभिलेखों से मिलते हैं। कलचुरिकालीन अभिलेख भी क्षेत्र की धार्मिक आस्था का ही प्रगटीकरण करते हैं। छत्तीसगढ़ में वैष्णव पंथ का अस्तित्व यहां के साहित्य, अभिलेख, सिक्के आदि से पता चलता है। विष्णु की मूर्ति बुढ़ीखार क्षेत्र में मिलती है जिसे दूसरी सदी ईसा पूर्व की प्रतिमा माना जाता है। शरभपुरीय शासकों के शासन में वैष्णव पंथ का यहां व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। ये शासक अपने को विष्णु का उपासक मानते थे। इस दौर के सिक्कों में गरूड़ का चित्र भी अंकित मिलता है। शरभपुरीय शासकों के बाद आए पांडुवंशियों ने भी वैष्णव पंथ के प्रति ही आस्था जतायी। इस तरह यह पंथ विस्तार लेता गया। बाद में बालार्जुन जैसे शैव पंथ के उपासक रहे हों या नल और नाम वंषीय या कलचुरि शासक, सबने क्षेत्र की उदार परंपराओं का मान रखा और धर्म के प्रति अपनी आस्था बनाए रखी। ये शासक अन्य धर्मों के प्रति भी उदार बने रहे। इसी तरह प्रचार-प्रसार में बहुत ध्यान दिया। कलचुरि नरेशों के साथ-साथ शैव गुरूओं का भी इसके प्रसार में बहुत योगदान रहा।शाक्तपंथ ने भी क्षेत्र में अपनी जगह बनायी। बस्तर से लेकर पाली क्षेत्र में इसका प्रभाव एवं प्रमाण मिलता है। देवियों की मूर्तियां इसी बात का प्रगटीकरण हैं। इसी प्रकार बौद्ध धर्म के आगमन ने इस क्षेत्र में बह रही उदारता, प्रेम और बंधुत्व की धारा को और प्रवाहमान किया। चीनी यात्री हवेनसांग के वर्णन से पता चलता है कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। आरंग, तुरतुरिया और मल्लार इसके प्रमुख केन्द्र थे। हालांकि कलचुरियों के शासन काल में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम होने लगी पर इसके समाज पर अपने सकारात्मक प्रभाव छोड़े। जैन धर्म अपनी मानवीय सोच और उदारता के लिए जाना जाने वाला धर्म है। यहां इससे जुड़े अनेक शिल्प मिलते हैं। रतनपुर, आरंग और मल्लार से इसके प्रमाण मिले हैं।

शांति और सद्भाव की धाराओं का प्रवक्ताः छत्तीसगढ़ क्षेत्र में व्याप्त सहिष्णुता की धारा को आगे बढ़ाने में दो आंदोलनों का बड़ा हाथ है। तमाम पंथों और धर्मों की उपस्थिति के बावजूद यहां आपसी तनाव और वैमनस्य की धारा कभी बहुत मुखर रूप में सामने नहीं आयी। कबीर पंथ और सतनाम के आंदोलन ने सामाजिक बदलाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बदलाव की इस प्रक्रिया में वंचितों को आवाज मिली और वे अपनी अस्मिता के साथ खड़े होकर सामाजिक विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। कबीर पंथ और सतनाम का आंदोलन मूलतः सामाजिक समता को समर्पित था और गैरबराबरी के खिलाफ था। यह सही अर्थों में एक लघुक्रांति थी जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। हिंदू समाज के अंदर व्याप्त बुराइयों के साथ-साथ आत्मसुधार की भी बात संतवर गुरू घासीदास ने की। उनकी शिक्षाओं ने समाज में दमित वर्गों में स्वाभिमान का मंत्र फूंका और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। छत्तीसगढ़ में सतनाम के प्रणेता बाबा गुरूघासीदास थे। 1756 को गिरोद नामक गांव में जन्मे बाबा ने जो क्रांति की, उसके लिए यह क्षेत्र और मानवता सदैव आभारी रहेगी। मूर्तिपूजा, जातिभेद, मांसाहार, शराब व मादक चीजों से दूर रहने का संकल्प दिलवाकर सतनाम ने एक सामाजिक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। भारत जैसे धर्मप्राण देश की आस्थाओं का यह क्षेत्र सही अर्थों में एक जीवंत सद्भाव का भी प्रतीक है। रतनपुर, दंतेश्वरी, चंद्रपुर, बमलेश्वरी में विराजी देवियां हों या राजीवलोचन और शिवरीनाराण या चम्पारण में बह रही धार्मिकता सब में एक ऐसे विराट से जोड़ते हैं जो हमें आजीवन प्रेरणा देते हैं। धार्मिक आस्था के प्रति इतने जीवंत विश्वास का ही कारण है कि क्षेत्र के लोग हिंसा और अपराध से दूर रहते अपने जीवन संघर्ष में लगे रहते हैं। यह क्षेत्र अपने कलागत संस्कारों के लिए भी प्रसिद्ध है। जाहिर है धर्म के प्रति अनुराग का प्रभाव यहां की कला पर भी दिखता है। शिल्प कला, मूर्ति कला, स्थापत्य हर नजर से राज्य के पास एक महत्वपूर्ण विरासत मौजूद है। भोरमदेव, सिरपुर, खरौद, ताला, राजिम, रतनपुर, मल्लार ये स्था कलाप्रियता और धार्मिकता दोनों के उदाहरण हैं।इस नजर से यह क्षेत्र अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राज्य गठन के बाद इसके सांस्कृतिक वैभव की पहचान तथा मूल्यांकन जरूरी है। सदियों से उपेक्षित पड़े इस क्षेत्र के नायकों और उनके प्रदेय को रेखांकित करने का समय अब आ गया है। इस क्षेत्र की ऐतिहासिकता और योगदान को पुराने कवियों ने भी रेखांकित किया है। आवश्यक है कि हम इस प्रदेय के लिए हमारी सांस्कृतिक विरासत को पूरी दुनिया के सामने बताएं। बाबू रेवाराम ने अपने ग्रंथ विक्रम विलासमें लिखा हैः


जिनमें दक्षिण कौशल देसा,
जहॅं हरि औतु केसरी वेसा,
तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन,
पुण्यभूमि सुर-मुनि-मन-भावन।


राजनीति की एक अलग धाराः छत्तीसगढ़ की इसी सामाजिक-धार्मिक परंपरा ने यहां की राजनीति में भी सहिष्णुता के भाव भरे हैं। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की तरह जातीयता की भावना आज भी यहां की राजनीति का केंद्रीय तत्व नहीं बन पायी है। मप्र के साथ रहते हुए भी एक भौगोलिक इकाई के नाते अपनी अलग पहचान रखनेवाला यह क्षेत्र पिछले दस सालों में विकास के कई सोपान पार कर चुका है। अपनी तमाम समस्याओं के बीच उसने नए रास्ते देखे हैं। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी के तीन साल हों या डा. रमन सिंह के कार्यकाल के ये बरस, हम देखते हैं, विकास के सवाल पर सर्वत्र एक ललक दिखती है। राजनीतिक जागरूकता भी बहुत तेजी से बढ़ी है। नवसृजित तीनों राज्यों झारखंड,उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में अगर तुलना करें तो छत्तीसगढ़ ने तेजी से अनेक चुनौतियों के बावजूद, विकास का रास्ता पकड़ा है। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी का कार्यकाल जहां एक नए राज्य के सामने उपस्थित चुनौतियों को समझने और उससे मुकाबले के लिए तैयारी का समय रहा, वहीं डा. रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में कई मानक स्थापित किए। लोगों को सीधे राहत देने वाले विकास कार्यक्रम हों या नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता, सबने उन्हें एक नई पहचान दी। अजीत जोगी के कार्यकाल में जिस तरह की राजनीतिक शैली का विकास हुआ, उससे तमाम लोग उनके खिलाफ हुए और भाजपा को मजबूती मिली। डा. रमन सिंह ने अपनी कार्यशैली से विपक्षी दलों को एक होने के अवसर नहीं दिया और इसके चलते आसानी के साथ वे दूसरा चुनाव भी जीतकर पुनः मुख्यमंत्री बन गए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के इस बदलते परिवेश को देखें तो पता चलता है कि संयुक्त मप्र में जो राजनेता काफी महत्व रखते थे, नए छत्तीसगढ़ में उनके लिए जगह सिकुड़ती गई। आज का छत्तीसगढ़ सर्वथा नए नेतृत्व के साथ आगे बढ़ रहा है। संयुक्त मप्र में कांग्रेस में स्व. श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा, अरविंद नेताम, शिव नेताम, गंगा पोटाई, बीआर यादव, सत्यनारायण शर्मा, चरणदास महंत, भूपेश बधेल, बंशीलाल धृतलहरे, नंदकुमार पटेल, पवन दीवान, केयूर भूषण जैसे चेहरे नजर आते थे, तो भाजपा में स्व.लखीराम अग्रवाल, नंदकुमार साय, मूलचंद खंडेलवाल, रमेश बैस, लीलाराम भोजवानी, अशोक शर्मा, शिवप्रताप सिंह, बलीराम कश्यप, बृजमोहन अग्रवाल, प्रेमप्रकाश पाण्डेय जैसे नेता अग्रणी दिखते थे। किंतु पार्टियों का यह परंपरागत नेतृत्व राज्य गठन के बाद अपनी पुरानी ताकत में नहीं दिखता।

नए राज्य के नए नेता के रूप में डा. रमन सिंह, अजीत जोगी, अमर अग्रवाल, धनेंद्र साहू, अजय चंद्राकर, केदार कश्यप, टीएस सिंहदेव, चंद्रशेखर साहू, धरमलाल कौशिक, राजेश मूणत, रामविचार नेताम, वाणी राव, सरोज पाण्डेय, महेश गागड़ा, रामप्रताप सिंह, डा.रेणु जोगी, हेमचंद्र यादव जैसे नामों का विकास नजर आता है। जाहिर तौर पर राज्य की राजनीति परंपरागत मानकों से हटकर नए आयाम कायम कर रही है। उसकी आकांक्षाओं को स्वर और शब्द देने के लिए अब नया नेतृत्व सामने आ रहा है। ऐसे में ये दस साल दरअसल आकांक्षाओं की पूर्ति के भी हैं और बदलते नेतृत्व के भी हैं। छत्तीसगढ़ एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में भाजपा नेतृत्व के सामने है जहां वह तीसरी बार सरकार आने की उम्मीद पाल बैठी है। जबकि राज्य का परंपरागत वोटिंग पैटर्न इसकी इजाजत नहीं देता। राज्य गठन के पहले इस इलाके की सीटें जीतकर ही कांग्रेस मप्र में सरकार बनाया करती थी। किंतु पिछले दो चुनावों में लोकसभा की 10-10 सीटें दो बार जीतकर और विधानसभा की 50-50 सीटें लगातार दो चुनावों में जीतकर भाजपा ने जो करिश्मा किया है, उसकी मिसाल न मिलेगी। कांग्रेस के लिए आज यह राज्य एक कठिन चुनौती बन चुका है।

देश के दूसरे हिस्सों से छत्तीसगढ़ को देखना एक अलग अनुभव है। बस्तर की निर्मल और निर्दोष आदिवासी संस्कृति, साथ ही नक्सल के नाम मची बारूदी गंध व मांस के लोथड़े, भिलाई का स्टील प्लांट, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्लरी, गरीबी, पलायन और अंतहीन शोषण के किस्से यह हमारी पहचान के कुछ दृश्य हैं, जिनसे छतीसगढ़ का एक कोलाज बनता है। छत्तीसगढ़ आज भी इस पहचान के साथ खड़ा है। वह अपने साथ शुभ को रखना चाहता है और अशुभ का निष्कासन चाहता है। विकास के सवालों पर तेजी से काम करने के बावजूद छत्तीसगढ़ आज भी तमाम मानको पर पीछे दिखता है। देश के प्रगतिशील राज्यों की तुलना में वह अभी बहुत पीछे है। नक्सलवाद की कठिन चुनौती के साथ विकास के तमाम मानकों पर उसे खरा उतरना है। सर्वांगीण विकास ही किसी भी राज्य का वास्तविक चित्र बनाता है। हमें उस दिशा में काफी काम करना है। पिछड़े राज्यों की तुलना कर खुश होने के बजाए हमें उन राज्यों से अपनी तुलना करनी होगी जो प्रगति और विकास के मानक बने हुए हैं। जाहिर तौर पर छत्तीसगढ़ को अभी एक लंबी यात्रा तय करनी है। बिना रूके बिना थके। यह ठीक है कि छत्तीसगढ़ महतारी की मुक्ति और उसकी पीड़ा के हरण के लिए तमाम भागीरथ सक्रिय हैं। ग्यारह साल पूरे करने जा रहे छत्तीसगढ़ को देश भी एक आशा के साथ देख रहा है।

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

अंधकार को क्यों धिक्कारें, अच्छा है एक दीप जला लें !


दीपावली के पावन पर्व पर सभी दोस्तों, शुभचिंतकों और प्यारे विद्यार्थियों को हार्दिक शुभकामनाएं।
-संजय द्विवेदी

शरद पवार को गुस्सा क्यों आता है


-संजय द्विवेदी

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार को अपने प्रधानमंत्री पर सार्वजनिक रूप से हमला बोलना चाहिए या नहीं यह एक बहस का विषय है। किंतु पवार ने जो कहा उसे आज देश भी स्वीकार रहा है। एक मुखिया के नाते मनमोहन सिंह की कमजोरियों पर अगर गठबंधन के नेता सवाल उठा रहे हैं तो कांग्रेस को अपने गिरेबान में जरूर झांकना चाहिए।

गठबंधन सरकारों के प्रयोग के दौर में कांग्रेस ने मजबूरी में गठबंधन तो किए हैं किंतु वह इन रिश्तों को लेकर बहुत सहज नहीं रही है। वह आज भी अपनी उसी टेक पर कायम है कि उसे अपने दम पर सरकार बनानी है, जबकि देश की राजनीतिक स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। देश पर लंबे समय तक राज करने का अहंकार और स्वर्णिम इतिहास कांग्रेस को बार-बार उन्हीं वीथिकाओं में ले जाता है, जहां से देश की राजनीति बहुत आगे निकल आई है। फिर मनमोहन सिंह कांग्रेस के स्वाभाविक नेता नहीं हैं। वे सोनिया गांधी के द्वारा मनोनीत प्रधानमंत्री हैं, ऐसे में निर्णायक सवालों पर भी उनकी बहुत नहीं चलती और वे तमाम मुद्दों पर 10-जनपथ के मुखापेक्षी हैं। सही मायने में वे सरकार को नेतृत्व नहीं दे रहे हैं, बस चला रहे हैं। उनकी नेतृत्वहीनता देश और गठबंधन दोनों पर भारी पड़ रही है। देश जिस तरह के सवालों से जूझ रहा है उनमें उनकी सादगी, सज्जनता और ईमानदारी तीनों भारी पड़ रहे हैं। उनकी ईमानदारी के हाल यह हैं कि देश भ्रष्टाचार के रिकार्ड बना रहा है और अर्थशास्त्री होने का खामियाजा यह कि महंगाई अपने चरम पर है। सही मायने में इस दौर में उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह पड़े हैं।

अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग ने गठबंधन का जो सफल प्रयोग किया, उसे अपनाना कांग्रेस की मजबूरी है। किंतु समय आने पर अपने सहयोगियों के साथ न खड़े होना भी उसकी फितरत है। इस अतिआत्मविश्वास का फल उसे बिहार जैसे राज्य में उठाना भी पड़ा जहां राहुल गांधी के व्यापक कैंपेन के बावजूद उसे बड़ी विफलता मिली। देखें तो शरद पवार, ममता बनर्जी सरीखे सहयोगी कभी कांग्रेस का हिस्सा ही रहे। किंतु कांग्रेस की अपने सहयोगियों की तरफ देखने की दृष्टि बहुत सकारात्मक नहीं है। लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, मायावती सभी तो दिल्ली की सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं, किंतु कांग्रेस का इनके साथ मैदानी रिश्ता देखिए तो हकीकत कुछ और ही नजर आएगी। कांग्रेस गठबंधन को एक राजनीतिक धर्म बनाने के बजाए व्यापार बना चुकी है। इसी का परिणाम है अमर सिंह जैसे सहयोगी उसी व्यापार का शिकार बनकर आज जेल में हैं। सपा सांसद रेवतीरमण सिंह का नंबर भी जल्दी आ सकता है। यह देखना रोचक है कि अपने सहयोगियों के प्रति कांग्रेस का रवैया बहुत अलग है। वहां रिश्तों में सहजता नहीं है।

शरद पवार के गढ़ बारामती इलाके की सीट पर राकांपा की हार साधारण नहीं है। एक तरफ जहां कांग्रेस की उदासीनता के चलते महाराष्ट्र में राकांपा हार का सामना करती है। वहीं केंद्रीय मंत्री के रूप में शरद पवार हो रहे हमलों पर कांग्रेस का रवैया देखिए। कांग्रेसी उन्हें ही महंगाई बढ़ने का जिम्मेदार ठहराने में लग जाते है। एक सरकार सामूहिक उत्तरदायित्व से चलती है। भ्रष्टाचार हुआ तो ए. राजा दोषी हैं और महंगाई बढ़े तो शरद पवार दोषी ,यह तथ्य हास्यास्पद लगते हैं। फिर खाद्य सुरक्षा बिल जैसै सवालों पर मतभेद बहुत जाहिर हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के द्वारा बनाया गयी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद मंत्रियों और कैबिनेट पर भारी है, उसके द्वारा बनाए गए कानून मंत्रियों पर थोपे जा रहे हैं। यह सारा कुछ भी सहयोगी दलों के मंत्री सहज भाव से नहीं कर रहे हैं, मंत्री पद का मोह और सरकार में बने रहने की कामना सब कुछ करवा रही है।

सीबीआई का दुरूपयोग और उसके दबावों में राजनीतिक नेताओं को दबाने का सारा खेल देश के सामने है। ऐसे में यह बहुत संभव है कि ये विवाद अभी और गहरे हों। सरकार की छवि पर संकट देखकर लोग सरकार से अलग होने या अलग राय रखने की बात करते हुए दिख सकते हैं। ममता बनर्जी सरकार में मंत्री रहते हुए अक्सर ऐसा करती दिखती थीं और अपना जनधर्मी रूख बनाए रखती थीं। सहयोगी दलों की यह मजबूरी है कि वे सत्ता में रहें किंतु हालात को देखते हुए अपनी असहमति भी जताते रहें, ताकि उन्हें हर पाप में शामिल न माना जाए। शरद पवार जैसै कद के नेता का ताजा रवैया बहुत साफ बताता है कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जब गठबंधन नकारात्मक चुनावी परिणाम देने लगा है, सहयोगी दल चुनावों में पस्त हो रहे हैं तो उनमें बेचैनी स्वाभाविक है। जिस बारामती में शरद पवार, कांग्रेस के बिना भी भारी पड़ते थे वहीं पर अगर वे कांग्रेस के साथ भी अपनी पार्टी को नहीं जिता पा रहे हैं, तो उनकी चिंता स्वाभाविक है। जाहिर तौर पर सबके निशाने पर चुनाव हैं और गठबंधन तो चुनाव जीतने व सरकार बनाने के लिए होते हैं। अब जबकि गठबंधन भी हार और निरंतर अपमान का सबब बन रहा है तो क्यों न बेसुरी बातें की जाएं। क्योंकि सरकार चलाना अकेली शरद पवार की गरज नहीं है, इसमें सबसे ज्यादा किसी का दांव पर है तो कांग्रेस का ही है। शरद पवार से वैसे भी आलाकमान के रिश्ते बहुत सहज नहीं रहे क्योंकि सोनिया गांधी के विदेशी मूल का सवाल उठाकर एनसीपी ने रिश्तों में एक गांठ ही डाली थी। बाद के दिनों में सत्ता साकेत की मजबूरियों ने रास्ते एक कर दिए। ऐसी स्थितियों में शायद कांग्रेस को एक बार फिर से गठबंधन धर्म को समझने की जरूरत है, किंतु अपनी ही परेशानियों से बेहाल कांग्रेस के इतना वक्त कहां है? श्रीमती सोनिया गांधी की खराब तबियत जहां कांग्रेस संगठन को चिंता में डालने वाली है वहीं कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की क्षमताएं अभी बहुज्ञात नहीं हैं।

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

मीडिया शिक्षा पर एक बेहतर किताब


भोपाल। भारत में मीडिया शिक्षा एक लंबी यात्रा पूरी कर चुकी है। इसका विस्तार निरंतर हो रहा है। इस विधा में हो रहे विस्तार और इसके सामने उपस्थित चुनौतियों पर प्रकाश डालती हुई एक किताब मीडिया शिक्षाःमुद्दे और अपेक्षाएं का प्रकाशन दिल्ली के यश पब्लिकेशन्स ने किया है।

पुस्तक के संपादक, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता और संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने बताया कि इस पुस्तक देश के जाने माने मीडिया शिक्षकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के लेख शामिल किए गए हैं। जिन्होंने मीडिया शिक्षा के विविध पक्षों पर अपनी बेबाक राय रखी है। उन्होंने कहा कि आज जबकि मीडिया शिक्षा एक विशिष्ठ अनुशासन के रूप में अपनी जगह बना रही है तब उसपर गंभीर विमर्श जरूरी है। आज जबकि सीबीएससी के पाठ्यक्रमों से लेकर मीडिया अध्ययन में पीएचडी तक के कोर्स देश के तमाम विश्वविद्यालय में उपलब्ध हैं, तब यह जरूरी है कि हम मीडिया शिक्षा के तमाम प्रकारों पर संवाद करें और उसकी सार्थकता के लिए रास्ते निकालें।

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता के पूर्व कुलपति और जनसत्ता के पूर्व संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र को समर्पित की गयी इस पुस्तक में स्व. माखनलाल चतुर्वेदी, अच्युतानंद मिश्र, प्रो. बी.के. कुठियाला, विश्वनाथ सचदेव, डा.संजीव भानावत, सच्चिदानंद जोशी, प्रो.कमल दीक्षित, डा.मनोज दयाल, डा.श्रीकांत सिंह, डा. मानसिंह परमार, डा.मनीषा शर्मा, डा.वर्तिका नंदा, डा. शिप्रा माथुर, बृजेश राजपूत, प्रो. ओमप्रकाश सिंह, सचिन भागवत, प्रो.ओमप्रकाश सिंह, धनंजय चोपड़ा, डा.सुशील त्रिवेदी, प्रकाश दुबे, डा. देवब्रत सिंह,संजय कुमार, मोनिका गहलोत, संदीप कुमार श्रीवास्तव, माधवी श्री, मिथिलेश कुमार, मीतेंद्र नागेश, जया शर्मा, आशीष कुमार अंशू,मधु चौरसिया, सुमीत द्विवेदी आदि के लेख शामिल हैं। 159 पृष्ठ की इस पुस्तक का मूल्य 295 रूपए है। प्रकाशक का पता हैः यश पब्लिकेशंस, 1/10753, गली नंबर-3, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, नियर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110032

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

मीडिया विमर्श के नए अंक में एक बड़ी बहस ‘लोक’ ऊपर या ‘तंत्र’


भोपाल। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित लोकप्रिय पत्रिका मीडिया विमर्श का नया अंक (सितंबर, 2011) एक बड़ी बहस छेड़ने में कामयाब रहा है। इस अंक में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से उपजे हालात पर विमर्श किया गया है। इस अंक की आवरण कथा इन्हीं संदर्भों पर केंद्रित है। अन्ना ने किया दिल्ली दर्प दमन शीर्षक संपादकीय में पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने कहा है कि हमें अपने लोकतंत्र को वास्तविक जनतंत्र में बदलने की जरूरत है।

इसके साथ ही इस अंक में जनांदोलनों पर केंद्रित कई आलेख हैं, जिसमें प्रख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने यह सवाल खड़ा किया है कि आखिर जनांदोलनों में साहित्यकार और लेखक क्यों गायब दिखते हैं। इसके साथ ही डा. विजयबहादुर सिंह का एक लेख और एक कविता इन संदर्भों को सही तरीके से रेखांकित करती है। उदीयमान भारत की वैश्विक भूमिका पर केंद्रित माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का लेख एक नई दिशा देता है। धार्मिक चैनलों और मीडिया में धर्म की जरूरत पर डा. वर्तिका नंदा एक लंबा शोधपरक लेख चैनलों पर बाबा लाइव शीर्षक से प्रकाशित है। समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर ने मजीठिया वेज बोर्ड के बारे में एक विचारोत्तेजक लेख लिखकर पत्रकारों का शोषण रोकने की बात की है।

अंक में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अमरकांत एवं प्रख्यात पत्रकार रामशरण जोशी के साक्षात्कार भी हैं। इसके साथ ही गिरीश पंकज के नए व्यंग्य उपन्यास ऊं मीडियाय नमः के कुछ अंश भी प्रकाशित किए गए हैं। पत्रिका के अंक के अन्य प्रमुख लेखकों में नवीन जिंदल, संजय कुमार, प्रीति सिंह, लीना, डा. सुशील त्रिवेदी, मधुमिता पाल के नाम उल्लेखनीय हैं।

अगला अंक सोशल नेटवर्किंग पर केंद्रितः मीडिया विमर्श का आगामी अंक सोशल नेटवर्किग पर केंद्रित है। भारत जैसे देश में भी खासकर युवाओं के बीच संवाद का माध्यम सोशल नेटवर्किंग बन चुकी है। इससे जुड़े विविध संदर्भों पर इस अंक में विचार होगा। सोशल नेटवर्किंग के सामाजिक प्रभावों के साथ-साथ संवाद की इस नई शैली के उपयोग तथा खतरों की तरफ भी पत्रिका प्रकाश डालेगी। इस अंक में जाने-माने पत्रकार, साहित्यकार और बुद्धिजीवियों के लेख शामिल किए जा रहे हैं। इस अंक में आप भी अपना योगदान दे सकते हैं। अपने लेख, विश्वेषण या अनुभव 10 नवंबर,2011 तक मेल कर दें तो हमें सुविधा होगी। लेख के साथ अपना एक चित्र एवं संक्षिप्त परिचय जरूर मेल करें। हमारा मेल पता है- mediavimarsh@gmail.com

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

अस्मिताओं के सम्मान से ही एकात्मताः सहस्त्रबुद्धे





भोपाल, 7 अक्टूबर। विचारक एवं चिंतक विनय सहस्त्रबुद्धे का कहना है कि छोटी-छोटी अस्मिताओं का सम्मान करते हुए ही हम एक देश की एकात्मता को मजबूत कर सकते हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा आयोजित व्याख्यान मीडिया में विविधता एवं बहुलताः समाज का प्रतिबिंबन विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने कहा कि अस्मिता का सवाल अतार्किक नहीं है, इसे समझने और सम्मान देने की जरूरत है। बहुलता का मतलब ही है विविधता का सम्मान, स्वीकार्यता और आदर है।

उन्होंने कहा कि इसके लिए संवाद बहुत जरूरी है और मीडिया इस संवाद को बहाल करने और प्रखर बनाने में एक खास भूमिका निभा सकता है। ऐसा हो पाया तो मणिपुर का दर्द पूरे देश का दर्द बनेगा। पूर्वोत्तर के राज्य मीडिया से गायब नहीं दिखेंगें। बहुलता के लिए विधिवत संवाद के अवसरों की बहाली जरूरी है। ताकि लोग सम्मान और संवाद की अहमियत को समझकर एक वृहत्तर अस्मिता से खुद को जोड़ सकें। आध्यात्मिक लोकतंत्र इसमें एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। इससे समान चिंतन, समान भाव, समान स्वीकार्यता पैदा होती है। समाज के सब वर्गों को एकजुट होकर आगे जाने की बात मीडिया आसानी से कर सकता है। किंतु इसके लिए उसे ज्यादा मात्रा में बहुलता को अपनाना होगा। उपेक्षितों को आवाज देनी पड़ेगी। अगर ऐसा हो पाया तो विविधता एक त्यौहार बन जाएगी, वह जोड़ने का सूत्र बन सकती है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि दूसरों को सम्मान देते हुए ही समाज आगे बढ़ सकता है। मैं को विलीन करके ही समाज का रास्ता सुगम बनता है। मीडिया संगठनों की रचना ही बहुलता में बाधक है। साथ ही समाचार संकलन पर घटता खर्च मीडिया की बहुलता को नियंत्रत कर रहा है। विविध विचारों को मिलाने से ही विचार परिशुद्ध होते हैं। वरना एक खास किस्म की जड़ता विचारों के क्षेत्र को भी आक्रांत करती है।

कार्यक्रम के प्रारंभ में विषय प्रवर्तन करते हुए जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि समाज में मीडिया के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर यह जरूरी है कि समाज की बहुलताओं और विभिन्नताओं का अक्स मीडिया कवरेज में भी दिखे। इससे मीडिया ज्यादा सरोकारी, ज्यादा जवाबदेह, ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा संतुलित और ज्यादा प्रभावी बनेगा। इसकी अभिव्यक्ति में शामिल व्यापक भावनाएं इसे प्रभावी बना सकेंगी। उन्होंने कहा कि विभिन्नताओं में सकात्मकता की तलाश जरूरी है क्योंकि सकारात्मकता से ही विकास संभव है जबकि नकारात्मकता से विनाश या विवाद ही पैदा होते हैं। कार्यक्रम का संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया। इस मौके पर रेक्टर सीपी अग्रवाल, डा. श्रीकांत सिंह ने अतिथियों का पुष्पगुच्छ देकर स्वागत किया।

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

पचमढी की छवियां





पचमढ़ी की कुछ छवियां





भोपाल।मप्र के पचमढी की खूबसूरती देखते ही बनती है। वहां होना एक अद्भुत अनुभव है।