बुधवार, 27 जुलाई 2011

विचार को समर्पित एक जीवनः लखीराम अग्रवाल

छत्तीसगढ़ जैसे इलाके में भाजपा की जड़ें जमाने वाले नायक की याद

-संजय द्विवेदी

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लखीराम अग्रवाल को याद करना सही मायने में राजनीति की उस परंपरा का स्मरण है जो आज के समय में दुर्लभ हो गयी है। वे सही मायने में हमारे समय के एक ऐसे नायक हैं जिसने अपने मन, वाणी और कर्म से जिस विचारधारा का साथ किया , उसे ताजिंदगी निभाया। यह प्रतिबद्धता भी आज के युग में साधारण नहीं है।

लखीराम अग्रवाल ने छत्तीसगढ़ के एक छोटे से नगर खरसिया से जो यात्रा शुरू की वह उन्हें मप्र भाजपा के अध्यक्ष जैसे महत्वपूर्ण पद तक ले गयी। वे राज्यसभा के दो बार सदस्य भी रहे। लेकिन ये बातें बहुत मायने नहीं रखतीं। मायने रखते हैं वे संदर्भ और उनकी जीवन शैली जो उन्होंने पार्टी का काम करते समय लोगों को सिखायी। मप्र और छत्तीसगढ़ की भारतीय जनता पार्टी के लिए उनका योगदान किसी से छिपा नहीं है। वे अंततः एक कार्यकर्ता थे और उनका दिल संगठन के लिए ही धड़कता था। भाजपा दिग्गज कुशाभाऊ ठाकरे से उनकी मुलाकात ने सही मायने में लखीराम अग्रवाल को पूरी तरह रूपांतरित कर दिया। वे संगठन को जीने लगे। खरसिया नगर पालिका के अध्यक्ष के रूप में प्रारंभ हुयी उनकी राजनीतिक यात्रा में अनेक ऐसे पड़ाव हैं जो प्रेरित करते हैं और प्रोत्साहित करते हैं। वे यह भी बताते हैं कि कैसे एक साधारण परिवार का व्यक्ति भी एक असाधारण शख्सियत बन सकता है। लखीराम अग्रवाल के हिस्से बड़ी राजनीतिक सफलताएं नहीं हैं, खरसिया से वे विधानसभा का चुनाव नहीं जीत सके। उनका इलाका कांग्रेस का एक ऐसा गढ़ है जहां आजतक भाजपा का कमल नहीं खिल सका। किंतु अपनी इस कमजोरी को उन्होंने अपनी शक्ति बना लिया। वे छत्तीसगढ़ में कमल खिलाने के प्रयासों में लग गए। आज पूरे राज्य में कार्यकर्ताओं का पूरा तंत्र उनकी प्रेरणा से ही काम कर रहा है। वे कार्यकर्ता निर्माण की प्रक्रिया को समझते थे। उनके निर्माण और उनके व्यवस्थापन की चिंता करते थे। संगठन की यह समझ ही उन्हें अपने समकालीनों के बीच उंचाई देती है।

असाधारण बनने का कथाः आप देखें तो लखीराम अग्रवाल के पास ऐसा कुछ नहीं था जिसके आधार पर वे महत्वपूर्ण बनने की यात्रा शुरू कर सकें। खरसिया एक ऐसा इलाका था, जहां भाजपा का कोई आधार नहीं है। एक छोटा नगर जहां की राजनीतिक अहमियत भी बहुत नहीं है। इसके साथ ही लखीराम जी किसी विषय के गंभीर जानकार या अध्येता भी नहीं थे। किंतु उनमें संगठन शास्त्र की गहरी समझ थी। अपने निरंतर प्रवास और श्रम से उन्होंने सारी बाधाओं को पार किया। जशपुर के कुमार साहब दिलीप सिंह जूदेव, कवर्धा के एक डाक्टर रमन सिंह से लेकर तपकरा के एक नौजवान आदिवासी नेता नंदकुमार साय से लेकर आज की पीढ़ी के राजेश मूणत जैसे लोगों को साथ लेने और खड़ा करने का माद्दा उनमें था। छत्तीसगढ़ के हर शहर और क्षेत्र में उन्होंने ऐसे लोगों को खड़ा किया जो आज पार्टी की कमान संभाले हुए हैं। उनके इस चयन में शायद कुछ लोगों के साथ अन्याय भी हुआ हो। किंतु संगठन की समझ रखने वाले जानते हैं कि जब आप पद पर होते हैं तो कुछ फैसले लेते हैं और वह फैसला किसी के पक्ष में और कुछ के खिलाफ भी होता है। वे पूरी जिंदगी शायद इसलिए कार्यकर्ताओं से घिरे रहे और सर्वाधिक आलोचनाओं के शिकार भी हुए। आप मानिए कि उन्होंने कभी इसकी परवाह नहीं की। आलोचनाओं से अविचल रहकर उन्होंने सिर्फ बेहतर परिणाम दिए। खरसिया के उस उपचुनाव को याद कीजिए जिसमें कुमार दिलीप सिंह जूदेव को मप्र के कद्दावर मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के खिलाफ मैदान में उतारा गया था। वह उपचुनाव हारकर भी भाजपा ने छत्तीसगढ़ क्षेत्र में जो आत्मविश्वास अर्जित किया, वह एक इतिहास है। इसके बाद भाजपा ने छत्तीसगढ़ में पीछे मुड़कर नहीं देखा।

आतंक के बीच सरकार के सपनेः छत्तीसगढ़ राज्य का गठन इस क्षेत्र के निवासियों का एक बड़ा सपना था। इसमें दिल्ली में भाजपा की सरकार बनना एक सुखद संयोग साबित हुआ। यह भी संयोग ही था कि दिल्ली में राज्यसभा के सदस्य के नाते ही नहीं, एक संगठनकर्ता के नाते लखीराम अग्रवाल अपनी एक साख पहचान बना चुके थे। उनके प्रभाव और क्षमताओं का पूरा दल लोहा मानने लगा था। राज्य गठन को लेकर उनकी पहल का भी एक खास असर था कि तत्कालीन गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी छत्तीसगढ़ राज्य के गठन के लिए सहमत हो गए। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ का अपना भूगोल प्राप्त हो गया। राज्य में कांग्रेस विधायकों की संख्या के आधार पर अजीत जोगी राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री बने। उनकी कार्यशैली से भाजपा का संगठन हिल गया। भाजपा के 12 विधायकों का दलबदल करवाकर जोगी ने भाजपा की कमर तोड़ दी। ऐसे में संगठन के मुखिया के नाते लखीराम अग्रवाल के संयम, धैर्य और रणनीति ने भाजपा को सत्ता में लाने के लिए आधार तैयार किया। सरकारी आतंक के बीच भाजपा की वापसी साधारण नहीं थी। किंतु लखीराम अग्रवाल, डा. रमन सिंह, दिलीप सिंह जूदेव, नंदकुमार साय, रमेश बैस, बलीराम कश्यप, बृजमोहन अग्रवाल, वीरेंद्र पाण्डेय, बनवारीलाल अग्रवाल,प्रेमप्रकाश पाण्डेय जैसे नेताओं की एकजुटता और सतत श्रम ने भाजपा को अपनी सरकार बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया।यह विजय साधारण विजय नहीं थी। ऐसे कठिन समय में संगठन में प्राण फूंकने और उसे नया आत्मविश्वास देने के लिए लखीराम अग्रवाल और तत्कालीन संगठन मंत्री सौदान सिंह के योगदान के बिसराया नहीं जा सकता। यह वही समय था जब लोग राज्य में भाजपा के समाप्त होने की घोषणाएं कर रहे थे और भाजपा का मर्सिया पढ़ रहे थे। किंतु समय ने करवट ली और भाजपा ने डा. रमन सिंह के नेतृत्व में अपनी सरकार बनायी।

याद करना है जरूरीः लखीराम अग्रवाल सही मायने में राज्य भाजपा के अभिभावक होने के साथ छत्तीसगढ़ में एक नैतिक उपस्थिति भी थे। उनके पास जाकर किसी भी स्तर का कार्यकर्ता अपनी बात कह सकता था। वे परिवार के एक ऐसे मुखिया थे जिनके पास सबकी सुनने का धैर्य और सबको सुनाने का साहस था। वे अपने कद और परिवार की मुखिया की हैसियत से किसी को भी कोई आदेश दे सकने की स्थिति में थे। उनकी बात प्रायः टाली नहीं जाती थी। वे एक ऐसा कंधा थे जिसपर आप अपनी पीड़ाएं उड़ेल सकते थे। असहमतियों के बावजूद वे सबके साथ संवाद करने के लिए दरवाजा खुला रखते थे। रायपुर से दिल्ली तक उन्होंने जो रिश्ते बनाए उनमें कृत्रिमता और बनावट नहीं थी। वे हमेशा अपने जीवन और कर्म से केवल और केवल पार्टी की सोचते रहे। जीवन के अंतिम दिनों में उन पर पुत्रमोह जैसे आरोप चस्पा करने के प्रयास हुए जो बेहद बचकानी सोच ही दिखते हैं। उनके पुत्र अमर अग्रवाल ने अपने गृहनगर खरसिया और रायगढ़ को छोड़कर छत्तीसगढ़ के एक अलग शहर बिलासपुर को अपना कार्यक्षेत्र बनाया,युवा मोर्चा के कार्यकर्ता के नाते काम प्रारंभ किया और वहां कांग्रेस की परंपरागत सीट पर चुनाव जीतकर अपनी जगह बनाई।आज वे छत्तीसगढ़ के सक्षम मंत्रियों में गिने जाते हैं। उनकी क्षमताओं पर किसी को संदेह नहीं है।ऐसे कठिन समय में जब राजनीति में मर्यादाविहीन आचरण के चिन्ह आम हैं। हर तरह का पतन राजनीतिक क्षेत्र में दिख रहा है। लखीराम अग्रवाल जैसे नायक की याद हमें प्रेरित करती है और बताती है कि कैसे व्यापार में रहकर भी शुचिता बनाए रखी जा सकती है। गृहस्थ होकर भी किस तरह से समाज के काम पूरा समय देकर किए जा सकते हैं। लखीराम का अपराध शायद सिर्फ यही था कि वे एक व्यापारी परिवार में पैदा हुए। क्या सिर्फ इस नाते समाज के लिए किए गए उनके योगदान को नजरंदाज कर दिया जाना चाहिए ? क्या आप इसे साहस नहीं मानेंगें कि एक व्यापारी किस तरह मप्र के सबसे कद्दावर मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह के खिलाप अपने क्षेत्र में व्यूह रचना तैयार करता है और जिसके परिणामों की चिंता नहीं करता? अजीत जोगी जैसे ताकतवर मुख्यमंत्री के सामने तनकर खड़ा होता है और अपने दल की सरकार की स्थापना के लिए पूरा जोर लगा देता है। आज जब परिवार जैसी पार्टी को, कंपनी की तरह चलाने की कोशिशें हो रही हैं क्या तब भी आपको लखीराम अग्रवाल की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक नहीं लगती?

औरत खड़ी बाजार में

- संजय द्विवेदी

हिंदुस्तानी औरत इस समय बाजार के निशाने पर है। एक वह बाजार है जो परंपरा से सजा हुआ है और दूसरा वह बाजार है जिसने औरतों के लिए एक नया बाजार पैदा किया है। औरत की देह इस समय मीडिया के चौबीसों घंटे चलने वाले माध्यमों का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। लेकिन परंपरा से चला आ रहा देह बाजार भी नए तरीके से अपने रास्ते बना रहा है। देह की बाधाएं हटा रहा है, गोपन को ओपन कर रहा है।

बहस हुई तेजः

समय-समय पर देहव्यापार को कानूनी अधिकार देने की बातें इस देश में भी उठती रहती हैं। हर मामले में दुनिया की नकल करने पर आमादा हमारे लोग वैसे ही बनने पर उतारू हैं। जाहिर तौर पर यह संकट बहुत बड़ा है। ऐसा अधिकार देकर हम देह के बाजार को न सिर्फ कानूनी बना रहे होंगें वरन मानवता के विरूद्ध एक अपराध भी कर रहे होगें। हम देखें तो सुप्रीम कोर्ट की पहल के बाद एक बार फिर वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता देने की बातचीत तेज हो गयी है। यह बहस हाल में ही सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस मामले में वकीलों के पैनल व विशेषज्ञों से राय उस राय के मांगने के बाद छिड़ी है जिसमें कोर्ट ने पूछा है कि क्या ऐसे लोगों को सम्मान से अपना पेशा चलाने का अधिकार दिया जा सकता है? उनके संरक्षण के लिए क्या शर्तें होनी चाहिए ? कुछ समय पहले कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी थी, तब उन्होंने कहा था कि मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं।

चौंकानेवाले आंकड़ेः

दुनिया भर की नजर इस समय औरत की देह को अनावृत करने में है। ये आंकड़े हमें चौंकाने वाले ही लगेगें कि 100 बिलियन डालर के आसपास का बाजार आज देह व्यापार उद्योग ने खड़ा कर रखा है। हमारे अपने देश में भी 1 करोड़ से ज्यादा लोग देहव्यापार से जुड़े हैं। जिनमें पांच लाख बच्चे भी शामिल हैं। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए प्लेबायया डेबोनियरतक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा।

बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्रीः

बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। जाहिर तौर पर स्थितियां हतप्रभ कर देने वाली हैं। इनमें मजबूरियों से उपजी कहानियां हैं तो मौज- मजे के लिए इस दुनिया में उतरे किस्से भी हैं। भारत जैसे देश में लड़कियों को किस तरह इस व्यापार में उतारा जा रहा है ये किस्से आम हैं। आदिवासी इलाकों से निरंतर गायब हो रही लड़कियां और उनके शोषण के अंतहीन किस्से इस व्यथा को बयान करते हैं। खतरा यह है कि शोषण रोकने के नाम पर देहव्यापार को कानूनी मान्यता देने के बाद सेक्स रैकेट को एक कारोबार का दर्जा मिल जाएगा। इससे दबे छुपे चलने वाला काम एक बड़े बाजार में बदल जाएगा। इसमें फिर कंपनियां भी उतरेंगी जो लड़कियों का शोषण ही करेगीं। लड़कियों के उत्पीड़न, अपहरण की घटनाएं बढ़ जाएंगी। समाज का पूरी तरह से नैतिक पतन हो जाएगा।

पैदा होंगें कई सामाजिक संकटः

सबसे बड़ा खतरा हमारी सामाजिक व्यवस्था को पैदा होगा जहां देहव्यापार भी एक प्रोफेशन के रूप में मान्य हो जाएगा। आज चल रहे गुपचुप सेक्स रैकेट कानूनी दर्जा पाकर अंधेरगर्दी पर उतर आएंगें। परिवार नाम की संस्था को भी इससे गहरी चोट पहुंचेगी। हमें देखना कि क्या हमारा समाज इस तरह के बदलावों को स्वीकार करने की स्थिति में है। यह भी बड़ा सवाल है कि क्या औरत की देह को उसकी इच्छा के विरूद्ध बाजार में उतारना और उसकी बोली लगाना उचित है? क्या औरतें एक मनुष्य न होकर एक वस्तु में बदल जाएगीं? जिनकी बोली लगेगी और वे नीलाम की जाएंगीं। स्त्री की देह का मामला सिर्फ श्रम को बेचने का मामला नहीं है। देह और मन से मिलकर होने वाली क्रिया को हम क्यों बाजार के हवाले कर देने पर आमादा हैं, यह एक बड़ा मुद्दा है। औरत की देह पर सिर्फ और सिर्फ उसका हक है। उसे यह तय करने का हक है कि वह उसका कैसा इस्तेमाल करना चाहती है। इस तरह के कानून औरत की निजता को एक सामूहिक प्रोडक्ट में बदलने का वातावरण बनाते हैं। अपने मन और इच्छा के विरूद्ध औरत के जीने की स्थितियां बनाते हैं। यह अपराध कम से कम भारत की जमीन पर नहीं होना चाहिए। जहां नारी को एक उंचा स्थान प्राप्त है। वह परिवार को चलाने वाली धुरी है।

स्त्री के सामर्थ्य का आदर कीजिएः

स्त्री आज के समय में वह घर और बाहर दोनों स्थानों अपेक्षित आदर प्राप्त कर रही है। वह समाज को नए नजरिये से देख रही है। उसका आकलन कर रही है और अपने लिए निरंतर नए क्षितिज खोल रही है।ऐसी सार्मथ्यशाली स्त्री को शिखर छूने के अवसर देने के बजाए हम उसे बाजार के जाल में फंसा रहे हैं। वह अपनी निजता और सौंदर्यबोध के साथ जीने की स्थितियां और आदर समाज जीवन में प्राप्त कर सके हमें इसका प्रयास करना चाहिए। हमारे समाज में स्त्रियों के प्रति धारणा निरंतर बदल रही है। वह नए-नए सोपानों का स्पर्श कर रही है। माता-पिता की सोच भी बदल रही है वे अपनी बच्चियों के बेहतर विकास के लिए तमाम जतन कर रहे हैं। स्त्री सही मायने में इस दौर में ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरी है। किंतु बाजार हर जगह शिकार तलाश ही लेता है। वह औरत की शक्ति का बाजारीकरण करना चाहता है। हमें देखना होगा कि भारतीय स्त्री पर मुग्ध बाजार उसकी शक्ति तो बने किंतु उसका शोषण न कर सके। आज में मीडियामय और विज्ञापनी बाजार में औरत के लिए हर कदम पर खतरे हैं। पल-पल पर उसके लिए बाजार सजे हैं। देह के भी, रूप के भी, प्रतिभा के भी, कलंक के भी। हद तो यह कि कलंक भी पब्लिसिटी के काम आ रहे हैं। क्योंकि यह समय कह रहा है कि दाग अच्छे हैं। बाजार इसी तरह से हमें रिझा रहा है और बोली लगा रहा है। हमें इस समय से बचते हुए इसके बेहतर प्रभावों को ग्रहण करना है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि वह ऐसे लोगों की मंशा को समझे जो औरत को बाजार की वस्तु बना देना चाहते है।

सोमवार, 4 जुलाई 2011

मीडिया विमर्श का उर्दू पत्रकारिता पर केंद्रित अंक प्रकाशित

भोपाल,2 जुलाई, 2011। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श का ताजा अंक (जून,2011) उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर केंद्रित है। इस अंक में देश के प्रख्यात उर्दू पत्रकारों एवं बुद्धिजीवियों के आलेख हैं। अंक के अतिथि संपादक जाने-माने उर्दू पत्रकार श्री तहसीन मुनव्वर हैं।

इस अंक में उर्दू के पांच बड़े पत्रकारों दैनिक एतमाद के सलाहकार संपादक नसीम आरफी, सियासत के संपादक जाहिद अली खान, रहनुमा-ए-दक्कन के संपादक सैय्यद विकारूद्दीन, वरिष्ठ पत्रकार अशफाक मिशहदी नदवी, यूएनआई उर्दू सर्विस के पूर्व संपादक शेख मंजूर अहमद और डेली नदीम के संपादक कमर अशफाक से विशेष साक्षात्कार प्रकाशित किए गए हैं। इसके अलावा ऐतिहासिक प्रसंगों पर डा. अख्तर आलम, डा. ए.अजीज अंकुर, इशरत सगीर और डा. जीए कादरी के लेख हैं, जिनमें उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम इतिहास पर रोशनी डाली गयी है।

उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर विमर्श खंड में सर्वश्री फिरोज अशरफ, असद रजा, शाहिद सिद्दीकी, मासूम मुरादाबादी, संजय द्विवेदी, फिरदौस खान, उर्वशी परमार के लेख हैं। इसके अलावा नजरिया खंड में उर्दू पत्रकारिता के वर्तमान परिदृश्य पर बेहद महत्वपूर्ण सामग्री का संयोजन किया गया है जिसमें आरिफ अजीज, राजेश रैना, शारिक नूर, डा. माजिद हुसैन, आरिफ खान मंसूरी के लेख हैं।

विचारार्थ खंड में समाजवादी विचारक रघु ठाकुर, उर्दू यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में प्राध्यापक एहतेशाम अहमद खान, पत्रकार ए. एन.शिबली, एजाजुर रहमान के लेख प्रस्तुत किए गए हैं। डा. निजामुद्दीन फारूखी ने उर्दू और रेडियो के रिश्ते पर एक बेबाकी से लिखा है। बिहार की उर्दू पत्रकारिता पर संजय कुमार और इलाहाबाद की उर्दू पत्रकारिता पर धनंजय चोपड़ा का लेख बहुत सारी जानकारियां समेटे हुए है। उर्दू पत्रकारिता में महिलाओं के योगदान पर डा. मरजिया आऱिफ ने बेहद शोधपरक लेख प्रस्तुत किया है। मीडिया विमर्श का यह अंक 25 रूपए में उपलब्ध है तथा पत्रिका की वार्षिक सदस्यता सौ रूपए है। पाठकगण निम्न पते पर अपना शुल्क भेजकर अपनी प्रति प्राप्त कर सकते हैं- संपादकः मीडिया विमर्श, 428- रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-462039 (मप्र)

शनिवार, 2 जुलाई 2011

अब माओवादी भी लड़ेंगें भ्रष्टाचार से!

भटकाव भरे आंदोलन ऐसे भ्रम फैलाकर जनता की सहानुभूति चाहते हैं

-संजय द्विवेदी

यह कहना कितना आसान है कि माओवादी भी अब भ्रष्टाचार के दानव से लड़ना चाहते हैं। लेकिन यह एक सच है और अपने ताजा बयान में माओवादियों ने सरकार से कहा है कि वह शांति वार्ता (नक्सलियों के साथ) का प्रस्ताव देने से पहले भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों के खिलाफ सरेआम कार्रवाई करे। साथ ही विदेशी मुल्कों के बैंकों में जमा सारा काला धन स्वेदश वापस लाए। कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की केंद्रीय समिति के प्रवक्ता अभय ने मीडिया को जारी विज्ञप्ति में कहा है कि सरकार ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए औद्योगिक व व्यवसायिक घरानों के साथ लाखों-करोड़ों के समझौते किए हैं। इन्हें रद किया जाए। भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को तत्काल रोका जाए। साथ ही सरकार भ्रष्टाचारियों को सरेआम सजा देने की व्यवस्था करे।

लोकप्रियतावादी राजनीति के फलितार्थः

जाहिर तौर पर यह एक ऐसा बयान है जिसे बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं हैं। किंतु यह बताता है कि संचार माध्यम देश में कितने प्रभावी हो उठे हैं कि वे जंगलों में रक्तक्रांति के माध्यम से देश की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे माओवादियों को भी देश में चल रही भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर प्रतिक्रिया करने के लिए मजबूर कर देते हैं। सही मायने में इस बयान को एक लोकप्रियतावादी राजनीति का ही विस्तार माना जाना चाहिए। माओवादियों का पूरा अभियान आज एक भटकाव भरे रास्ते पर है ऐसे में उनसे किसी गंभीर संवाद की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। उनके कदम पूरी तरह लोकप्रियतावादी राजनीति से मेल खाते हैं और उनका अर्थतंत्र भी भ्रष्टाचार के चलते ही फलफूल रहा है। भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने की बात करने वाले माओवादियों से यह पूछा जाना चाहिए कि नक्सल प्रभावित राज्यों में चल रहे विकास कार्यों को रोककर और करोडों की लेवी वसूलकर वे किस मुंह से भ्रष्टाचार के विरूद्ध बात कह रहे हैं। सही मायने में इस तरह के बयान सिर्फ सुर्खियां बटोरने का ही उपक्रम हैं। माओवादियों के इन भ्रामक बयानों पर गंभीर होने के बजाए यह सोचना जरूरी है कि क्या माओवादी हमारे संविधान और गणतंत्र में कोई अपने लिए कोई स्पेस देखते हैं ? क्या वे मानते हैं कि वर्तमान व्यवस्था उनके विचारों के अनुसार न्यायपूर्ण है? सही मायने में माओवाद एक गणतंत्र विरोधी विचार है। उनकी सांसें जनतंत्र में घुट रही हैं। वे माओ का राज, यानी एक बर्बर अधिनायक तंत्र के अभिलाषी हैं। देश में लोकतंत्र के रहते वे अपने विचारों और सपनों का राज नहीं ला सकते। शायद इसीलिए मतदान करते हुए लोगों को वे धमकाते हैं कि यदि उनकी उंगलियों पर मतदान की स्याही पाई गयी तो वे उंगलियां काट लेगें। यानि एक आम आदमी को गणतंत्र में मिले सबसे बड़े अधिकार- मताधिकार पर भी उनकी आस्था नहीं हैं। एक गणतंत्र में वे भ्रष्टाचारियों के लिए सरेआम फांसी लटकाने की सजा चाहते हैं। यह एक बर्बर अधिनायक तंत्र में ही संभव है। हमारे यहां कानून के काम करने का तरीका है। अपराध को साबित करने की एक कानूनी प्रक्रिया है जिसके चलते आरोपी को स्वयं को दोषमुक्त साबित करने के अवसर हैं।

शोषकों के सहायक हैं माओवादीः

माओवादियों ने जनता को मुक्ति और न्याय दिलाने के नाम पर इन क्षेत्रों में प्रवेश किया किंतु आज हालात यह हैं कि ये माओवादी ही शोषकों के सबसे बड़े मददगार हैं। इन इलाकों के वनोपज ठेकेदारों, सार्वजनिक कार्यों को करने वाले ठेकेदारों, राजनेताओं और उद्योगों से लेवी में करोड़ों रूपए वसूलकर ये एक समानांतर सत्ता स्थापित कर चुके हैं। भ्रष्ट राज्य तंत्र को ऐसा माओवाद बहुत भाता है। क्योंकि इससे दोनों के लक्ष्य सध रहे हैं। दोनों भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगा रहे हैं और हमारे निरीह आदिवासी और पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं। राज्यों की पुलिस के आला अफसररान अपने वातानुकूलित केबिनों में बंद हैं और उन्होंने सामान्य पुलिसकर्मियों और सीआरपीएफ जवानों को मरने के लिए मैदान में छोड़ रखा है। आखिर जब राज्य की कोई नीति ही नहीं है तो हम क्यों अपने जवानों को यूं मरने के लिए मैदानों में भेज रहे हैं। आज समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के यह तय करना होगा कि वे माओवाद का समूल नाश चाहते हैं या उसे सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर इन इलाकों में खर्च होने वाले विकास और सुरक्षा के बड़े बजट को लूट-लूटकर खाना चाहते हैं। एक बात पर और सोचने की जरूरत है कि देश के तमाम इलाके शोषण और भुखमरी के शिकार हैं किंतु माओवादी उन्हीं इलाकों में सक्रिय हैं, जहां वनोपज और खनिज है तथा शासकीय व कारपोरेट कंपनियां काम कर रही हैं। ऐसे में क्या लेवी का करोड़ों का खेल ही इनकी मूल प्रेरणा नहीं है।

अनसुनी की कानू सान्याल की बातः

आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज माओवादियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब माओवादियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। इस बात का भी अध्ययन करना जरूरी है कि माओवादियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आज माओवादी आंदोलन एक अंधे मोड़ पर है जहां पर वह डकैती, हत्या, फिरौती और आतंक के एक मिलेजुले मार्ग पर खून-खराबे में रोमांटिक आंनद लेने वाले बुध्दिवादियों का लीलालोक बन चुका है, ऐसे में नक्सली नेता स्व. कानू सान्याल की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। कानू साफ कहते थे कि किसी व्यक्ति को खत्म करने से व्यवस्था नहीं बदलती। उनकी राय में भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उसमें एक तरह का रुमानीपन है। उनका कहना है कि रुमानीपन के कारण ही नौजवान इसमें आ रहे हैं लेकिन कुछ दिन में वे जंगल से बाहर आ जाते हैं।

गहरे द्वंद का शिकार है आंदोलनः

नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं। नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है। कानू की बात आज के हो-हल्ले में अनसुनी भले कर दी गयी पर कानू दा कहीं न कहीं नक्सलियों के रास्ते से दुखी थे। वे भटके हुए आंदोलन का आखिरी प्रतीक थे किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही। भाकपा(माले) के माध्यम से वे एक विकल्प देने की कोशिश कर रहे थे। कानू साफ कहते थे चारू मजूमदार से शुरू से उनकी असहमतियां सिर्फ निरर्थक हिंसा को लेकर ही थीं।

भोथरी बयानबाजी और भ्रम फैलाने की कवायदः

माओवादी आज की तारीख में सही मायने में भारतीय राजसत्ता के बातचीत के आमंत्रण को ठुकराना चाहते हैं। उसके लिए वे बहाने गढ़ते हैं। आज वे अपने हिंसाचार के माध्यम से कहीं न कहीं राज्य पर भारी दिख रहे हैं। इसलिए इस वक्त वे संवाद की हर कोशिश को घता बताएंगें। पिछले दिनों रायपुर में राष्ट्रपति ने भी माओवादियों से हथियार रखकर बातचीत करने की अपील की, किंतु माओवादी इस पर रजामंद नहीं हैं। इसलिए ऐसे बयानों के माध्यम से वे भ्रम फैलाने के प्रयास कर रहे हैं। आज अगर राज्य उन पर भारी पड़े तो वे बातचीत के लिए तैयार हो जाएंगें। एक छापामार लड़ाई में उनके यही तरीके हम पर भारी पड़ रहे हैं। आंध्र प्रदेश में यह प्रयोग कई बार देखा गया। जब उन पर पुलिस भारी पड़ी तो वे वार्ता की मेज पर आए या युद्ध विराम कर दिया। इस बीच फिर तैयारियां पुख्ता कीं और फिर हिंसा फैलाने में जुट गए। कुल मिलाकर माओवादियों का ताजा बयान एक भ्रम सृजन और अखबारी सुर्खियां बटोरने से ज्यादा कुछ नहीं है।

शनिवार, 11 जून 2011

यहां लिखी जा रही है कायरता की पटकथा

-संजय द्विवेदी
भारतीय राज्य की निर्ममता और बहादुरी के किस्से हमें दिल्ली के रामलीला मैदान में देखने को मिले। यहां भारतीय राज्य अपने समूचे विद्रूप के साथ अहिंसक लोगों के दमन पर उतारू था। लेकिन देश का एक इलाका ऐसा भी है जहां इस बहादुर राज्य की कायरता की कथा लिखी जा रही है। यहां हमारे जवान रोज मारे जा रहे हैं और राज्य के हाथ बंधे हुए लगते हैं। बात बस्तर की हो रही हैं, जहां गुरूवार की रात(9 जून,2011) को नक्सलियों ने 10 पुलिसवालों को मौत के घाट उतार दिया। ठीक कुछ दिन पहले 23 मई,2011 को वे एक एडीशनल एसपी समेत 11 पुलिसकर्मियों को छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में मौत के घाट उतार देते हैं। गोली मारने के बाद शवों को क्षत-विक्षत कर देते हैं। बहुत वीभत्स नजारा है। माओवाद की ऐसी सौगातें छ्त्तीसगढ़ में आम हो गयी हैं। बाबा रामदेव के पीछे पड़े हमारे गृहमंत्री पी. चिंदबरम और केंद्रीय सरकार के बहादुर मंत्री क्या नक्सलवादियों की तरफ भी रूख करेंगें।
खूनी खेल का विस्तारः
भारतीय राज्य के द्वारा पैदा किए गए भ्रम का सबसे ज्यादा फायदा नक्सली उठा रहे हैं। उनका खूनी खेल नित नए क्षेत्रों में विस्तार कर रहा है। निरंतर अपना क्षेत्र विस्तार कर रहे नक्सल संगठन हमारे राज्य को निरंतर चुनौती देते हुए आगे बढ़ रहे हैं। उनका निशाना दिल्ली है। 2050 में भारतीय राजसत्ता पर कब्जे का उनका दुस्वप्न बहुत प्रकट हैं किंतु जाने क्यों हमारी सरकारें इस अघोषित युद्ध के समक्ष अत्यंत विनीत नजर आती हैं। एक बड़ी सोची- समझी साजिश के तहत नक्सलवाद को एक विचार के साथ जोड़ कर विचारधारा बताया जा रहा है। क्या आतंक का भी कोई ‘वाद’ हो सकता है? क्या रक्त बहाने की भी कोई विचारधारा हो सकती है? राक्षसी आतंक का दमन और उसका समूल नाश ही इसका उत्तर है। किंतु हमारी सरकारों में बैठे कुछ राजनेता, नौकरशाह, मीडिया कर्मी, बुद्धिजीवी और जनसंगठनों के लोग नक्सलवाद को लेकर समाज को भ्रमित करने में सफल हो रहे हैं। गोली का जवाब, गोली से देना गलत है-ऐसा कहना सरल है किंतु ऐसी स्थितियों में रहते हुए सहज जीवन जीना भी कठिन है। एक विचार ने जब आपके गणतंत्र के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है तो क्या आप उसे शांतिप्रवचन ही देते रहेंगे। आप उनसे संवाद की अपीलें करते रहेंगे और बातचीत के लिए तैयार हो जाएंगे। जबकि सामने वाला पक्ष इस भ्रम का फायदा उठाकर निरंतर नई शक्ति अर्जित कर रहा है।
यह आम आदमी की लडाई नहीं:
देश को तोड़ने और आम आदमी की लड़ाई लड़ने के नाम पर हमारे जनतंत्र को बदनाम करने में लगी ये ताकतें व्यवस्था से आम आदमी का भरोसा उठाना चाहती हैं। अफसोस, व्यवस्था के नियामक इस सत्य को नहीं समझ रहे हैं। वे तो बस शांति प्रवचन करते हुए लोकतंत्र की कायरता के प्रतीक बन गए हैं। अपने भूगोल और अपने नागरिकों की रक्षा का धर्म हमें लोकतंत्र ही सिखाता है। निरंतर मारे जा रहे आदिवासी समाज के लोग और हमारे पुलिस और सुरक्षा बलों के जवान आखिर हमारी पीड़ा का कारण क्यों नहीं हैं? जब भारतीय राज्य को अपनी कायरता की ही पटकथा लिखनी है तो क्या कारण है कि अपने अपने जवानों को जंगलों में घकेल रखा है? इन इलाकों से सुरक्षाबलों को वापस बुलाइए क्योंकि वे ही नक्सलियों के सबसे बड़े शत्रु हैं। नक्सलियों के निशाने पर आम आदमी ,पुलिस व सुरक्षाबलों के जवान हैं। शेष सरकारी अमले से उनका कोई संधर्ष नहीं दिखता। वे सबसे लेवी वसूलते हुए जंगल में मंगल कर रहे हैं। नक्सली अपना अर्थतंत्र मजबूत कर रहे हैं, हथियार खरीद रहे हैं, शहरों में जनसंगठन खड़े कर रहे हैं और एक न पूरा होने वाला स्वप्न देख रहे हैं। किंतु जिस राज्य पर उनके स्वप्न भंग की जिम्मेदारी है, वह क्या कर रहा है।
हिंसा के खिलाफ बने एक रायः
विचारधारा के आधार पर बंटे देश में यह कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि आतंकवाद और नक्सलवाद जैसे सवालों पर भी हम एक आम सहमति नहीं बना पा रहे हैं। प्लीज, अब इसे लोकतंत्र का सौंदर्य या विशेषता न कहिए। क्योंकि जहां हमारे लोग मारे जा रहे हों वहां भी हम असहमति के सौंदर्य पर मुग्ध हैं। तो यह चिंतन बेहद अमानवीय है। हिंसा का कोई भी रूप, वह वैचारिक रूप से कहीं से भी प्रेरणा पाता हो, आदर योग्य नहीं हो सकता। यह हिंसा के खिलाफ हमारी सामूहिक सोच बनाने का समय है। आतंकवाद के विविध रूपों से जूझता भारत और अपने-अपने आतंक को सैद्धांतिक जामा व वैचारिक कवच पहनाने में लगे बुद्धिजीवी इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं।
कौन सुनेगा आम आदिवासी की आवाजः
आदिवासी समाज को निकट से जानने वाले जानते है कि यह दुनिया का सबसे निर्दोष समाज है। ऐसे समाज की पीड़ा को देखकर भी न जाने कैसे हम चुप रह जाते हैं। पर यह तय मानिए कि इस बेहद अहिंसक, प्रकृतिपूजक समाज के खिलाफ चल रहा नक्सलवादी अभियान एक मानवताविरोधी अभियान भी है। हमें किसी भी रूप में इस सवाल पर किंतु-परंतु जैसे शब्दों के माध्यम से बाजीगरी दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। भारत की भूमि के वास्तविक पुत्र आदिवासी ही हैं, कोई विदेशी विचार उन्हें मिटाने में सफल नहीं हो सकता। उनके शांत जीवन में बंदूकों का खलल, बारूदों की गंध हटाने का यही सही समय है। केंद्र और राज्य सरकारों में समन्वय और स्पष्ट नीति के अभाव ने इस संकट को और गहरा किया है। राजनीति की अपनी चाल और प्रकृति होती है। किंतु बस्तर से आ रहे संदेश यह कह रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र यहां एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है जहां हमारे आदिवासी बंधु उसका सबसे बड़ा शिकार हैं। उन्हें बचाना दरअसल दुनिया के सबसे खूबसूरत लोगों को बचाना है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारी सरकारों और राजनीति की प्राथमिकता में आदिवासी कहीं आते हैं। क्योंकि आदिवासियों की अस्मिता के इस ज्वलंत प्रश्न पर आदिवासियों को छोड़कर सब लोग बात कर रहे हैं, इस कोलाहल में आदिवासियों के मौन को पढ़ने का साहस क्या हमारे पास है ?

गुरुवार, 9 जून 2011

कांग्रेस पार्टी को आखिर हुआ क्या है ?


संसदीय राजनीति और संस्थाओं की विश्वसनीयता बचाने की जरूरत

-संजय द्विवेदी

देश जिन हालात से गुजर रहा है उसमें सबसे बड़ा खतरा हमारी संसदीय राजनीति और राजनीतिक दलों को है। उनकी प्रामणिकता को है, विश्वसनीयता को है। लोकतंत्र जनविश्वास पर चलता है, किंतु जब संस्थानों से भरोसा उठ रहा हो और उसे बचाने की कोई सार्थक पहल न हो रही हो, तो क्या कहा जा सकता है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के आंदोलनों ने सही मायने में संसदीय राजनीति को पीछे छोड़ दिया है। आम आदमी त्रस्त है ,महंगाई व काला धन के सवाल चौतरफा गूंज रहे हैं। संसदीय व्यवस्था पर अगर सवाल उठ रहे हैं तो उनके उत्तर हमारे पास कहां हैं? राजनीति तो नारों, हुंकारों, बदले की कार्रवाईयों और शातिर चालें चलने में ही लगी हुयी है। कांग्रेस जैसी सत्ता की पार्टी भी इन दिनों जिस तरह की बदहवाशी से गुजर रही, उसे देखकर आश्चर्य होता है।

एक अराजनीतिक प्रधानमंत्री देश और अपने दल को कितना नुकसान पहुंचा सकता है, मनमोहन सिंह इसके उदाहरण हैं। उनकी समूची राजनीति में कहीं जनता और देश के लोग केंद्र में नहीं है। वे एक विश्वमानव हैं। या तो अमरीका की ओर देखते हैं या दस-जनपथ की तरफ। जनता के सवाल, सरोकार, दुखः-दर्द से उनका वास्ता नहीं दिखता। उन्हें किसी चीज से दुख या खुशी मिलती है, ऐसा उन्हें देखकर नहीं लगता। वे सही मायने में एक वीतरागी सरीखे दिखते हैं, जो अपने किस गुण से कुर्सी पर टिका है यह शायद सोनिया गांधी ही बता सकें। यूपीए-1 के बाद लगता था कि दूसरी पारी पाकर उनमें आत्मविश्वास आएगा किंतु वे अब हर संकट पर यही कहते हैं कि उनके पास जादू की छड़ी नहीं है। भ्रष्टाचार से लेकर महंगाई हर सवाल पर उनके पास एक लंबी खामोशी और निराशाजनक वक्तव्य हैं।

विपक्षी पार्टियां भी कौरव दल सरीखी ही हैं। उनकी भूमिका भी लोकतंत्र को मजबूत करने और सवालों को प्रखरता से उठाने की नहीं हैं। यही कारण है कि कभी वे अन्ना हजारे तो कभी बाबा रामदेव की पालकी उठाती हुयी नजर आती हैं। आज हालात यह हैं कि देश के सामने उपस्थित कठिन सवालों का जवाब सत्ता पक्ष के पास नहीं है। यूं लगता है कि जैसे हमारे नेता किसी तरह पांच साल काट लेने की जुगत में हों। इससे एक अराजकता की स्थिति दिखती है। आतंकवाद, आतंरिक सुरक्षा, माओवादी चुनौती, अर्थव्यवस्था पर आम आदमी पर पड़ता प्रभाव, पूर्वोत्तर के राज्यों समेत कश्मीर का संकट, भ्रष्टाचार का भस्मासुर, बांग्लादेशी घुसपैठ की चुनौती, नेपाल और चीन सीमा से लगे संकट, बेरोजगारी के कठिन सवाल हमारे सामने हैं। लेकिन इन सवालों से जूझने और कोई परिणामकेंद्रित कदम बढ़ाने की हिचक पूरे तंत्र में साफ दिखती है। विपक्ष भी कोई रचनात्मक भूमिका निभाने की इच्छाशक्ति से रिक्त है। ऐसे में देश के सामने अँधेरा घना होता जा रहा है। राहुल गांधी जैसी कांग्रेस की आम आदमी समर्थक छवियां भी बहुत प्रतीकात्मक हैं, यह लोगों के समझ में आने लगा है। यह विडंबना ही है कि एक ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में भ्रष्टाचार चरम पर है। अर्थशास्त्र के जानकार प्रधानमंत्री के राज में जनता महंगाई से त्राहि-त्राहि कर रही है। ऐसी निजी ईमानदारियों और विद्वता का यह देश क्या करे ? यूपीए-दो की सबसे बड़ी कमजोरी यह है कि इस सरकार में कुछ करने की इच्छाशक्ति ही बाकी नहीं है। युवराज के राजतिलक के इंतजार में मनमोहन और उनके मंत्री आधी-अधूरी इच्छाशक्ति से काम कर रहे हैं। दस जनपथ के सेवक निरंतर सरकार पर एक अज्ञात दबाव बनाए रखते हैं। सरकार पर हावी श्रीमती सोनिया गांधी की सलाहकार मंडली (एनएसी) की राय तो सरकार से भी बड़ी है। उसकी अनाप-शनाप इच्छाएं कठिन सलाहों में बदल रही हैं।

बाबा रामदेव के आंदोलन से निपटने का जो तरीका कांग्रेस ने अख्तियार किया वह बताता है कि कांग्रेस के प्रबंधकों में कुटिलता के साथ मूर्खता का अद्भुत संयोग है। एक समय में गुलाम नबी आजाद, कमलनाथ, अंबिका सोनी, मणिशंकर अय्यर जैसे नेता कांग्रेस की तरफ संवाद और बातचीत का काम देखते थे। अगर बाबा रामदेव से संवाद में कपिल सिब्बल, पवन बंसल और सुबोधकांत सहाय की जगह उपरोक्त चेहरे होते तो शायद परिणति वह न होती जो सामने आई। किंतु देखें तो सिब्बल, बसंल पर उनकी वकालत हावी है। सिब्बल की बाडी लैंग्वेज और कुटिलता उनकी हर प्रस्तुति में प्रकट होती है।सोनिया गांधी के अपने सलाहकार मंडल में अहमद पटेल हैं जो दस-जनपथ की हनक बनाए रखने से ज्यादा उपयोगी नहीं हैं। वहीं सरकार में सोनिया जी का प्रिय चेहरा माने जाने वाले एके एंटोनी-बाकी दुनिया के बहुत काम के नहीं हैं। सिब्बल, चिदंबरम, बंसल और सहाय जैसे नेताओं की अपने चुनाव क्षेत्र से बाहर बहुत पहुंच और प्रभाव नहीं है। मंत्री होकर भी वे एक इलाकाई नेता से ज्यादा प्रभावी नहीं हैं किंतु ये ही सारे अहम मोर्चों पर लगाए जाते हैं। ले -देकर बचते हैं दिग्विजय सिंह, जो राहुल गांधी की निकटता का लाभ लेकर जो कर रहे हैं, वह सबके सामने है। सवाल उठता है कि अभिषेक मनु सिंधवी, दिग्विजय सिंह और मनीष तिवारी के बयान क्या कांग्रेस का भला कर रहे हैं? एक विपक्षी पार्टी की वाचलता तो सही जा सकती है, किंतु सत्तापक्ष से लोग गरिमामय वक्तव्यों की उम्मीद करते हैं। यही कारण है कि लाठीचार्ज को जायज ठहराते मंत्री और उसे दुर्भाग्यपूर्ण बताते प्रधानमंत्री और प्रणव मुखर्जी जैसे दृश्य आम हैं। यह भी तब जब सुप्रीम कोर्ट इस घटना का संज्ञान लेकर नोटिस दे चुका है। आखिर यह चपलता और त्वरा क्यों ? इससे कांग्रेस के प्रति गुस्सा बढ़ता है। युवराज और श्रीमती सोनिया गांधी पर हमले बढ़ते हैं ? साथ ही कांग्रेस की संवेदनात्मक ग्रहणशीलता पर सवाल उठते हैं।

हर बात को आरएसएस का नाम लेकर जायज ठहराने की राजनीति कतई बेहतर नहीं कही जा सकती। आरएसएस का नाम लेकर अल्पसंख्यकों में भय पैदा करने की राजनीति अब पुरानी हो चुकी है। देश के नागरिक इस राजनीति के मायने भी समझते हैं। पर नए समय में नए हथियारों के बजाए कांग्रेस उन्हीं पुरानी टूटे तीरों और जंग खाए हथियारों से लड़ना चाहती है। यह समय मीडिया के उत्कर्ष का समय है। कैमरे आपकी हर हकरत को दर्ज करते हैं। ऐसे बेहद वाचाल समय में जब बाबा रामदेव की दिन में तीन प्रेस कांफ्रेंस भी देश में लाइव है, तो आप देश के लोगों को गुमराह नहीं कर सकते। रामलीला मैदान का सच कैमरों और टीवी चैनलों के माध्यम से जिस तरह पहुंचा और लोगों में आक्रोश का सृजन हुआ, वह साधारण नहीं है। ऐसे कठिन समय में भी कांग्रेस अगर सत्ता के पुराने दमनकारी रवैये के सहारे अपनी सत्ता को बचाए रखना चाहती है तो यह संभव नहीं लगता। उसे एक नए तरीके से आगे आकर संसदीय राजनीति की गरिमा की पुर्नस्थापना के लिए प्रयास करने चाहिए। सत्तारूढ़ दल होने के नाते कांग्रेस और प्रमुख विपक्ष होने के नाते भाजपा दोनों की यह जिम्मेदारी है कि वे इस दौर में आ रहे संदेशों को पढ़ें और देश में बन रहे हालात से सबक लें।

डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे-लोकराज लोकलाज से चलता है। लेकिन आज की राजनीति के लिए शायद यह बात अप्रासंगिक हो चुकी, क्योंकि यह सबक याद होता तो हमारी संसदीय राजनीति पर यूं सवाल नहीं उठ रहे होते। अपनी संसद और विधानसभाओं को हम व्यर्थ नहीं बना रहे होते। अब भी समय है कि हमारे राष्ट्रीय राजनीतिक दल अपनी चालाकियों और सत्ता की होड़ से परे एक स्वस्थ जनतंत्र और संस्थाओं की गरिमा की बहाली के लिए प्रतिबद्ध हो जाएं तो कोई कारण नहीं कि वे फिर से आम जनता का आदर पा सकेंगें।

बुधवार, 8 जून 2011

उमा भारती से कौन डरता है ?

क्या उनकी ऊर्जा का सार्थक इस्तेमाल कर पाएगी भाजपा
-संजय द्विवेदी

ना-ना करते आखिरकार उमा भारती की घर वापसी हो ही गयी। उमा भारती यानि भारतीय जनता पार्टी का वह चेहरा जिसने राममंदिर आंदोलन में एक आंच पैदा की और बाद के दिनों मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की 10 साल से चल रही सरकार को अपने तेवरों से न सिर्फ घेरा, वरन उनको सत्ता से बाहर कर भाजपा को ऐतिहासिक जीत दिलाई। बावजूद इसके उमा भारती अगर भाजपा की देहरी पर एक लंबे समय से प्रतीक्षारत थीं, तो इसके मायने बहुत गंभीर हैं।

यह सिर्फ इतना ही नहीं था कि उन्होंने भाजपा के लौहपुरूष लालकृष्ण आडवानी को जिस मुद्रा में चुनौती दी थी, वह बात माफी के काबिल नहीं थी। आडवानी तो उन्हें कब का माफ कर चुके थे, किंतु भाजपा की दूसरी पीढ़ी के प्रायः सभी नेता उमा भारती के साथ खुद को असहज पाते हैं। उनके अपने गृहराज्य मध्यप्रदेश में भी राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं। पहले शिवराज सिंह चौहान और नरेंद्र सिंह तोमर की जोड़ी और अब प्रभात झा के रूप में मध्यप्रदेश भाजपा को पूरी तरह से नया चेहरा मिल गया है। ऐसे में उमा भारती की पार्टी में वापसी के लिए सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि बने उत्तर प्रदेश से रास्ता बनाया गया है। राजनीति और दबाव की लीला देखिए, यह नेत्री अपनी पार्टी से इस्तीफा देकर लंबे समय से भाजपा के द्वार पर खड़ी हैं। लालकृष्ण आडवानी से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत का आशीर्वाद पाने के बाद भी उनकी घर वापसी सहज नहीं रही। यह उमा भारती का कौशल ही है कि वे बिना दल और पार्टी के अपनी प्रासंगिकता बनाए रखती हैं। वे गंगा अभियान से देश का ध्यान अपनी ओर खींचती हैं और बाबा रामदेव के आश्रम में भी हो आती हैं। यानि उनकी त्वरा और गति में, विपरीत हालात के बावजूद भी कोई कमी नहीं है। वे सही मायने में एक ऐसी नेत्री साबित हुयी हैं जो लौट-लौटकर अपने उसी प्रस्थान बिंदु की ओर आता है, जहां उसकी आत्मा है। वे भाजपा और संघ परिवार का प्रिय चेहरा हैं। कार्यकर्ताओं के बीच उनकी अपील है। शायद इसीलिए संघ के नेता चाहते थे कि भाजपा में उनकी वापसी हो। उत्तराखंड में अपने अनशन से जिस तरह उन्होंने देश का ध्यान खींचा। सोनिया गांधी ने भी उन्हें समर्थन देते हुए खत लिखा। यह उमा ही कर सकती हैं क्योंकि वे अकेले चलकर भी न घबराती हैं, न ऊबती हैं।

सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि बने उत्तरप्रदेश में पार्टी ने उनको मुख्य प्रचारक के रूप में उतारना तय किया है। उप्र का राजनीतिक मैदान इस समय बसपा, सपा और कांग्रेस के बीच बंटा हुआ है। भाजपा यहां चौथे नंबर की खिलाडी है। उमा भारती राममंदिर आंदोलन का प्रिय चेहरा रही हैं और जाति से लोध हैं, जो पिछड़ा वर्ग की एक जाति है। उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री रहे कल्याण सिंह लोध जाति से आते हैं। वे भाजपा का उप्र में सबसे बड़ा चेहरा थे। अन्यान्य कारणों से वे दो बार भाजपा छोड़ चुके हैं। तीसरी बार उनके पार्टी में आने की उम्मीद अगर हो भी, तो वे अपनी आभा खो चुके हैं। पिछले चुनाव में वे मुलायम सिंह की पार्टी के साथ नजर आए और इससे मुलायम सिंह की भी फजीहत भी अपने दल में हुयी और कल्याण सिंह ने भी अपनी विश्वसनीयता खो दी। उप्र में पिछड़े वोट बैंक को आकर्षित करने के लिए भाजपा तमाम कोशिशें कर चुकी है। राममंदिर आंदोलन से जुडे रहे विनय कटियार, जो जाति से कुर्मी हैं को भी राज्य भाजपा की कमान दी गयी, किंतु पार्टी को खास फायदा नहीं हुआ। विनय कटियार पहले अयोध्या से फिर लखीमपुर से भी हारे। कुल मिलाकर भाजपा के सामने विकल्प न्यूनतम हैं। उसके अनेक दिग्गज नेता राजनाथ सिंह, डा.मुरलीमनोहर जोशी, मुख्तार अब्बास नकवी, विनय कटियार, कलराज मिश्र, लालजी टंडन, ओमप्रकाश सिंह, केशरीनाथ त्रिपाठी, मेनका गांधी इसी इलाके से आते हैं पर मास अपील के लिए कोई लोकप्रिय चेहरा पार्टी के पास नहीं है। ले देकर युवाओं में सांसद वरूण गांधी और योगी आदित्यनाथ थोड़ी भीड़ जरूर खींचते हैं परंतु भाजपा के संगठन तंत्र के हिसाब से उन्हें चला पाना कठिन है। योगी संत हैं, तो उनकी अपनी राजनीति है। वहीं गांधीहोने के नाते वरूण गांधी को नियंत्रित कर, चला पाना भी भाजपा के बस का नहीं दिखता। ऐसे में उमा भारती भाजपा का एक ऐसा चेहरा हैं जिनके पास राजनीतिक अभियान चलाने का अनुभव और मप्र में एक सरकार को उखाड़ फेंकने का स्वर्णिम इतिहास भी है। वे भगवाधारी होने के नाते उप्र के ओबीसी ही नहीं एक बड़े हिंदू जनमानस के बीच परिचित चेहरा हैं। ऐसे में उन्हें आगे कर भाजपा उस लोध और पिछड़ा वर्ग के वोट बैंक को अपने साथ लाना चाहती है, जो उसका साथ छोड़ गए हैं। नए पार्टी अध्यक्ष नितिन गडकरी बार-बार कह रहे हैं, दिल्ली का रास्ता उप्र से होकर जाता है। किंतु पार्टी यहां एक विश्वसनीय विपक्ष भी नहीं बची है। सपा और बसपा से बचा- खुचा वोट बैंक कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को लाभ पहुंचाता है। ऐसे में भाजपा की कोशिश है कि उप्र में सरकार भले न बने किंतु एक सशक्त विपक्ष के रूप में पार्टी विधानसभा में जरूर उभरे। किंतु संकट यह है कि क्या उमा भारती को भाजपा के नेता इस बार भी नियंत्रित कर पाएंगें? उप्र का संकट यह है कि यहां नेता ज्यादा हैं और कार्यकर्ता हताश। उमा भारती कार्यकर्ताओं में उत्साह तो जगा सकती हैं किंतु भाजपा के राज्य से जुड़े नेताओं का वे क्या करेंगीं, जिसमें हर नेता अपने हिसाब से ही पार्टी को चलाना चाहता है। अब भले उमा भारती चुनाव अभियान के कैंपेनर और गंगा अभियान के संयोजक के नाते भाजपा को उप्र में उबारने के प्रयासों में जुटें किंतु उन्हें स्थानीय नेतृत्व का साथ तो आवश्यक है ही। उमा के पास मप्र जैसे बहुत व्यवस्थित प्रदेश संगठन के साथ काम करने का अनुभव है। ऐसे में उमा भारती का जो परंपरागत टेंपरामेंट है, वह उप्र जैसी संगठनात्मक अव्यवस्थाओं को कितना झेल पाएगा, यह भी एक बड़ा सवाल है।

यह बात कही और बताई जा रही है कि वे मध्यप्रदेश भाजपा की राजनीति में ज्यादा रूचि नहीं लेंगीं लेकिन यह भी एक बहुत हवाई बात है। वे मप्र की मुख्यमंत्री रहीं हैं, उनकी सारी राजनीति का केंद्र मध्य प्रदेश रहा है, ऐसे में वे अपने गृहराज्य से निरपेक्ष होकर काम कर पाएंगी, यह संभव नहीं दिखता। किंतु मप्र में भाजपा के समीकरण पूरी तरह बदल चुके हैं और उप्र का मैदान बहुत कठिन है। उमा इस समय मप्र और उप्र दोनों राज्यों में एक असहज उपस्थिति हैं। उन्हें अपनी स्वीकार्यता बनाने और स्थापित करने के लिए फिर से एक लंबी यात्रा तय करनी होगी। उप्र का मैदान उनके लिए एक कठिन कुरूक्षेत्र हैं, जहां से सार्थक परिणाम लाना एक दूर की कौड़ी है। किंतु अपनी मेहनत, वक्रता और आक्रामक अभियान के अपने पिछले रिकार्ड के चलते वे पस्तहाल उत्तर प्रदेश भाजपा के लिए एक बड़ी सौगात है। किंतु इसके लिए उमा भारती को अपेक्षित श्रम, रचनाशीलता का परिचय देते हुए धैर्य भी रखना होगा। अपने विवादित बयानों, पल-पल बदलते व्यवहार से उन्होंने खूब सुर्खियां बटोरी हैं, किंतु इस दौर में उन्होंने खुद का विश्लेषण जरूर किया होगा। वे अगर संभलकर अपनी दूसरी पारी की शुरूआत करती हैं तो कोई कारण नहीं कि उमा भारती फिर से भाजपा व संघ परिवार का सबसे प्रिय चेहरा बन सकती हैं।

मंगलवार, 7 जून 2011

कांग्रेस नहीं संभली तो चलता रहेगा ‘बाबा लाइव’


-संजय द्विवेदी

दिल्ली में जो कुछ घटा उसने सही मायने में बाबा रामदेव को जीवनदान दे दिया है। वरना बालकृष्ण का पत्र लीक करके चतुर वकील कपिल सिब्बल ने तो बाबा के सत्याग्रह की हवा ही निकाल दी थी। किंतु कहते हैं ज्यादा चालाकियां कभी-कभी भारी पड़ जाती हैं। अपनी देहभाषा और शैली से ही कपिल सिब्बल बहुत कुछ कहते नजर आते हैं। उनके सामने हरियाणा के एक गांव से आए बाबा रामदेव और बालकृष्ण की क्या बिसात। कांग्रेस जरा सा धीरज रखती तो बाबा का मजमा तो उजड़ ही चुका था। किंतु इसे विनाशकाले विपरीत बुद्धि ही कहा जाएगा कि बाबा के उजड़ते मजमे को कांग्रेस ने बाबा लाइव में बदल दिया। सरकार नहीं बाबा टीआरपी देते हैं, इसलिए टीवी चैनलों पर तमाम दबावों और मैनेजरों की कवायद के बाद भी पांच दिनों से बाबा लाइव जारी है। रविवार को बाबा ने एक दिन में तीन प्रेस कांफ्रेस की। हिंदुस्तान जैसे विशाल देश में ऐसे अवसर कितनों को मिलते हैं। इस अकेले आंदोलन में बाबा जितने घंटें हिंदुस्तानी टीवी न्यूज चैनलों पर छाए रहे, वह अपने आप में मिसाल है।

राजू, राखी और रामदेव वैसे भी टीवी चैनलों को बहुत भाते हैं, किंतु यह अवसर तो सरकार ने बाबा को परोसकर दिया। बाबा दिल्ली आए तो चार मंत्री अगवानी में। संवाद का हाईबोल्टेज ड्रामा। मुद्दे जो भी हों पर विजुवल तो गजब हैं। बाबा के भगवा वस्त्र और उनकी भंगिमाएं, संवाद शैली सारा कुछ फुल टीवी मामला है। सामने भी वाचाल और चतुर सुजान कपिल सिब्बल यानि सुपरहिट मुकाबला। रही सही कमी दिग्विजय सिंह के रचितबाबा गुणानुवाद ने पूरी कर दी। यानि टीवी के यहां पूरा मसाला था। बाइट और क्रास बाइट के ऐसे संयोग कहां बनते हैं। बाबा लाइव की यह कथा इसीलिए मीडिया को भाती है। बाबा के पास भी एक अच्छी संवाद शैली के साथ फुल ड्रामा मौजूद है। पुलिसिया बर्बरता के समय भी बाबा खबर देते हैं। वे मंच पर कूद आ जाते हैं और फिर जनता के बीच कूद जाते हैं। पुलिसिया लाठियों और आंसू गैस के गोलों के वहशी आयोजन भी बाबा को रोक नहीं पाते। वे महिलाओं के बीच छिपकर एक और ड्रामा खड़ा कर देते हैं। यह लीला गजब है। वे महिलाओं का वेश धारण कर लेते हैं। यहां भी एक लाइव लीला। कांग्रेसियों को बाबा से मीडिया का इस्तेमाल सीखना चाहिए। किंतु कांग्रेसजनों की हरकतें और बदजुबानी बाबा के लिए सहानुभूति ही बढ़ा रही है। दिग्विजय सिंह जैसे प्रचारक बाबा को मुफ्त में ही पब्लिसिटी दे रहे हैं। बाबा को पता है कि वे भारत सरकार से मुकाबला नहीं कर सकते किंतु कांग्रेस ने उन्हें अपने कर्मों से भाजपा के पाले में फेंक दिया। यह साधारण नहीं था कि अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की लखनऊ बैठक से लौटे भाजपा के शिखर नेतृत्व को सडकों पर उतरने के लिए मजबूर होना पड़ा। भाजपा का पूरा शिखर नेतृत्व बाबा के समर्थन में उतर आया। जबकि बाबा ने जैसी लीला रची थी और राजनीतिक दलों से दूरी बनाए रखी थी उसमें भाजपा को बाबा के मंच पर मौका नहीं था। अब बाबा को पूरी तरह से भाजपा ने हाईजैक कर लिया है। बाबा चाहकर भी भाजपा से अलग कैसे दिखें, वे कैसे कह सकते हैं कि आप मेरे समर्थन में न उतरें। कांग्रेस के पास अपनी कारगुजारियों का ले-देकर एक ही जवाब है कि बाबा के पीछे आरएसएस है। क्या किसी आंदोलन के पीछे आरएसएस है तो उसका इस तरह से दमन होगा? क्या हम एक लोकतंत्र में रह रहे हैं या राजतंत्र में? आरएसएस इतनी बुरी है तो उस पर प्रतिबंध लगाइए पर निर्दोंषो पर दमन मत कीजिए। अपने पाप को आरएसएस की आड़ लेकर जायज मत ठहराइए।

बाबा ने आखिरी समय तक अपने भक्तों से कहा कि संयम रखें। किंतु आप पंडाल में आंसू गैस छोड़ रहे हैं। जबकि आंसू गैस का इस्तेमाल खुले स्थान में ही होना चाहिए। बाबा की खोज में आपकी पुलिस पंडाल में आग लगा देती है। यह कहां की मानवता है? रात में एक बजे देश के तमाम इलाकों से आए लोगों को आप उस दिल्ली में छोड़ देते हैं जहां महिलाओं के साथ बलात्कार की खबरें अक्सर चैनलों पर दिखती हैं। बाबा के शिविर से निकाली गयीं महिलाएं, बच्चे और बुर्जुग आखिर अँधेरी रात में कहां जाते? उनमें तमाम ऐसे भी रहे होंगें जो पहली बार दिल्ली आए होंगें। क्या यह अपने देशवासियों के साथ किया जा रहा व्यवहार है? अमरीका को अपना माई-बाप समझने वालों को अमरीका से अपने नागरिकों का सम्मान करने की तमीज भी सीखनी चाहिए। यह युद्ध आप किसके खिलाफ लड़ रहे हैं? इसे जीतकर भी आपको हासिल क्या है? बाबा रामदेव एक ठग या व्यापारी जो भी हों, निर्दोष भारतीयों को आधी रात तबाह करने के पाप से कांग्रेस नेतृत्व मुक्त नहीं हो सकता। लोकतंत्र सालों के संघर्ष से अर्जित हुआ है। उसे तोड़ने में लगी ताकतों के साथ कांग्रेसियों की गलबहियां साफ दिखती है। दिल्ली में अली शाह गिलानी और अरूंधती राय जहर उगलकर चले जाते हैं, हमारा गृहमंत्रालय और यह बहादुर दिल्ली पुलिस उनके खिलाफ एक मुकदमा नहीं दर्ज कर पाती। अफजल गुरू की फाइल दिल्ली प्रदेश की इसी महान सरकार ने महीनों दबाकर रखी। नक्सलियों से लेकर देश को तोड़ने के प्रयासों में लगे हर हिंसक समूह से सरकार वार्ता के लिए आतुर है। किंतु सारी बहादुरी देश के उन नागरिकों पर ही दिखाई जाती है जो शांति से, संवाद से अपनी बात कहना चाहते हैं।

उप्र के भट्टा पारसौल में प्रकट होने वाले कांग्रेस के युवराज कहां है? उस दिन मायावती की पुलिसिया कार्रवाई पर वे भारतीय होने में शर्म महसूस कर रहे थे, दिल्ली में उनके कारिंदों ने जो किया है, उस पर गरीबों के नेता की प्रतिक्रिया क्यों नहीं आ रही है ? कांग्रेस का नारा है कांग्रेस का हाथ गरीबों के साथ, किंतु बढ़ती महंगाई, भ्रष्टाचार और पुलिस दमन के रिकार्ड देखें तो यह हाथ गरीबों के गले पर नजर आता है। जिस देश की राष्ट्रपति, यूपीए चेयरपर्सन, लोकसभा अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष जैसे पदों पर महिलाएं बैठी हों, उस राजधानी में महिलाओं पर जो अत्याचार हो रहा है उसे आप जायज कैसे ठहरा सकते हैं?

देश की इतनी दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर अफसोस जताने के बजाए कांग्रेस नेताओं ने जख्मों पर नमक छिड़कने का काम ही किया है। इस पूरे मामले में बाबा रामदेव का मजमा उजाड़कर कांग्रेस स्वयं को भले ही महावीर समझे किंतु यह दृश्य पूरे देश ने देखा है। कालेधन और लोकपाल की बहस अब देश के हर चौराहे और हर गांव में हो रही है। दिल्ली का सच अब लोगों तक पहुंच रहा है। सबसे खतरनाक है इस राय का कायम हो जाना कि कांग्रेस भ्रष्टाचारियों का साथ दे रही है और उसका विरोध कर रहे लोगों का उत्पीड़न। कांग्रेस अब बाबा और अन्ना हजारे की सिविल सोसाइटी पर हमले कर अपना ही नुकसान करेगी। क्योंकि सत्ता बाबा का सबसे बड़ा नुकसान जो कर सकती थी कर चुकी है। क्योंकि बाबा और अन्ना हजारे के पास आखिर खोने के लिए क्या है? एक गांव से आए व्यक्ति ने अपने योग ज्ञान के बल जो हासिल किया, हिंदुस्तान जैसे विशाल देश में जो जगह बनाई वह साधारण नहीं है। सत्ता अब बाबा का क्या छीन सकती है? बाबा ने इस बहाने अपनी साधारण क्षमताओं से जो पा लिया उसके लिए हमारे बड़े नेता भी तरसते हैं। बाबा के संस्थानों और उनके काम को लेकर आप जो भी दमनचक्र चलाएंगें वह बात अब सत्ता के खिलाफ ही जाएगी। इसलिए बेहतर होगा कि कांग्रेस इस समय को पहचाने और ऐसा कुछ न करे जिससे वह जनता की नजरों से और गिरे। कांग्रेस के रणनीतिकार अगर ऐसी ही भूलें करते रहे तो मीडिया पर बाबा लाइव जारी रहेगा और वह जनता की नजरों से बहुत गिर जाएगी। हालांकि नेताओं को इस बात की आश्वस्ति होती है कि जनता की स्मृति बहुत कम है, किंतु हमें यह नहीं भूलना चाहिए अगर जनता राय बना लेती है तो वह राय नहीं बदलती। इसलिए कांग्रेस को अब संभलकर चलने और भ्रष्टाचार के खिलाफ कड़े संदेश देने की जरूरत है।

सोमवार, 6 जून 2011

यह बेदिल दिल्ली का लोकतंत्र है देख लीजिए !

-संजय द्विवेदी
दिल्ली में बाबा रामदेव और उनके सहयोगियों के साथ जो कुछ हुआ, वही दरअसल हमारी राजसत्ताओं का असली चेहरा है। उन्हें सार्थक सवालों पर प्रतिरोध नहीं भाते। अहिंसा और सत्याग्रह को वे भुला चुके हैं। उनका आर्दश ओबामा का लोकतंत्र है जो हर विरोधी आवाज को सीमापार भी जाकर कुचल सकता है। दिल्ली की ये बेदिली आज की नहीं है। आजादी के बाद हम सबने ऐसे दृश्य अनेक बार देखे हैं। किंतु दिल्ली ऐसी ही है और उसके सुधरने की कोई राह फिलहाल नजर नहीं आती। कल्पना कीजिए जो सरकारें इतने कैमरों के सामने इतनी हिंसक, अमानवीय और बर्बर हो सकती हैं, वे बिना कैमरों वाले समय में कैसी रही होंगी। ऐसा लगता है कि आजादी, हमने अपने बर्बर राजनीतिक, प्रशासनिक तंत्र और प्रभु वर्गों के लिए पायी है। आप देखें कि बाबा रामदेव जब तक योग सिखाते और दवाईयां बेचते और संपत्तियां खड़ी करते रहे,उनसे किसी को परेशानी नहीं हुयी। बल्कि ऐसे बाबा और प्रवचनकार जो हमारे समय के सवालों से मुठभेड़ करने के बजाए योग,तप, दान, प्रवचन में जनता को उलझाए रखते हैं- सत्ताओं को बहुत भाते हैं। देश के ऐसे मायावी संतों, प्रवचनकारों से राजनेताओं और प्रभुवर्गों की गलबहियां हम रोज देखते हैं। आप देखें तो पिछले दस सालों में किसी दिग्विजय सिंह को बाबा रामदेव से कोई परेशानी नहीं हुयी और अब वही उन्हें ठग कह रहे हैं। वे ठग तब भी रहे होंगें जब चार मंत्री दिल्ली में उनकी आगवानी कर रहे थे। किंतु सत्ता आपसे तब तक सहज रहती है, जब तक आप उसके मानकों पर खरें हों और वह आपका इस्तेमाल कर सकती हो।

सत्ताओं को नहीं भाते कठिन सवालः

निश्चित ही बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं वे कठिन सवाल हैं। हमारी सत्ताओं और प्रभु वर्गों को ये सवाल नहीं भाते। दिल्ली के भद्रलोक में यह गंवार, अंग्रेजी न जानने वाला गेरूआ वस्त्र धारी कहां से आ गया? इसलिए दिल्ली पुलिस को बाबा का आगे से दिल्ली आना पसंद नहीं है। उनके समर्थकों को ऐसा सबक सिखाओ कि वे दिल्ली का रास्ता भूल जाएं। किंतु ध्यान रहे यह लोकतंत्र है। यहां जनता के पास पल-पल का हिसाब है। यह साधारण नहीं है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे को नजरंदाज कर पाना उस मीडिया के लिए भी मुश्किल नजर आया, जो लाफ्टर शो और वीआईपीज की हरकतें दिखाकर आनंदित होता रहता है। बाबा रामदेव के सवाल दरअसल देश के जनमानस में अरसे से गूंजते हुए सवाल हैं। ये सवाल असुविधाजनक भी हैं। क्योंकि वे भाषा का भी सवाल उठा रहे हैं। हिंदी और स्थानीय भाषाओं को महत्व देने की बात कर रहे हैं। जबकि हमारी सरकार का ताजा फैसला लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित की जाने वाली सिविल सर्विसेज की परीक्षा में अंग्रेजी का पर्चा अनिवार्य करने का है। यानि भारतीय भाषाओं के जानकारों के लिए आईएएस बनने का रास्ता बंद करने की तैयारी है। ऐसे कठिन समय में बाबा दिल्ली आते हैं। सरकार हिल जाती है क्योंकि सरकार के मन में कहीं न कहीं एक अज्ञात भय है। यह असुरक्षा ही कपिल सिब्बल से वह पत्र लीक करवाती है ताकि बाबा की विश्वसनीयता खंडित हो। उन पर अविश्वास हो। क्योंकि राजनेताओं को विश्वसनीयता के मामले में रामदेव और अन्ना हजारे मीलों पीछे छोड़ चुके हैं। आप याद करें इसी तरह की विश्वसनीयता खराब करने की कोशिश में सरकार से जुड़े कुछ लोग शांति भूषण के पीछे पड़ गए थे। संतोष हेगड़े पर सवाल खड़े किए गए, क्योंकि उन्हें अन्ना जैसे निर्दोष व्यक्ति में कुछ ढूंढने से भी नहीं मिला। लेकिन निशाने पर तो अन्ना और उनकी विश्वसनीयता ही थी। शायद इसीलिए अन्ना हजारे ने सत्याग्रह शुरू करने से पहले रामदेव को सचेत किया था कि सरकार बहुत धोखेबाज है उससे बचकर रहना। काश रामदेव इस सलाह में छिपी हुयी चेतावनी को ठीक से समझ पाते तो उनके सहयोगी बालकृष्ण होटल में मंत्रियों के कहने पर वह पत्र देकर नहीं आते। जिस पत्र के सहारे बाबा रामदेव की तपस्या भंग करने की कोशिश कपिल सिब्बल ने प्रेस कांफ्रेस में की।

बिगड़ रहा है कांग्रेस का चेहराः

बाबा रामदेव के सत्याग्रह आंदोलन को दिल्ली पुलिस ने जिस तरह कुचला उसकी कोई भी आर्दश लोकतंत्र इजाजत नहीं देता। लोकतंत्र में शांतिपूर्ण प्रदर्शन और घरना देने की सबको आजादी है। दिल्ली में जुटे सत्याग्रहियों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया था कि उन पर इस तरह आधी रात में लाठियां बरसाई जाती या आँसू गैस के गोले छोड़ जाते। किंतु सरकारों का अपना चिंतन होता है। वे अपने तरीके से काम करती हैं। यह कहने में कोई हिचक नहीं कि इस बर्बर कार्रवाई से केंद्र सरकार और कांग्रेस पार्टी प्रतिष्ठा गिरी है। एक तरफ सरकार के मंत्री लगातार बाबा रामदेव से चर्चा करते हैं और एक बिंदु पर सहमति भी बन जाती है। संभव था कि सारा कुछ आसानी से निपट जाता किंतु ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी कि सरकार को यह दमनात्मक रवैया अपनाना पड़ा। इससे बाबा रामदेव का कुछ नुकसान हुआ यह सोचना गलत है। कांग्रेस ने जरूर अपना जनविरोधी और भ्रष्टाचार समर्थक चेहरा बना लिया है। क्योंकि आम जनता बड़ी बातें और अंदरखाने की राजनीति नहीं समझती। उसे सिर्फ इतना पता है कि बाबा भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ रहे हैं और यह सरकार को पसंद नहीं है। इसलिए उसने ऐसी दमनात्मक कार्रवाई की। जाहिर तौर पर इस प्रकार का संदेश कहीं से भी कांग्रेस के लिए शुभ नहीं है। बाबा रामदेव जो सवाल उठा रहे हैं, उसको लेकर उन्होंने एक लंबी तैयारी की है। पूरे देश में सतत प्रवास करते हुए और अपने योग शिविरों के माध्यम से उन्होंने लगातार इस विषय को जनता के सामने रखा है। इसके चलते यह विषय जनमन के बीच चर्चित हो चुका है। भ्रष्टाचार का विषय आज एक केंद्रीय विषय बन चुका है। बाबा रामदेव और अन्ना हजारे जैसे दो नायकों ने इस सवाल को आज जन-जन का विषय बना दिया है। आम जनता स्वयं बढ़ती महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त है। राजनीतिक दलों और राजनेताओं से उसे घोर निराशा है। ऐसे कठिन समय में जनता को यह लगने लगा है कि हमारा जनतंत्र बेमानी हो चुका है। यह स्थिति खतरनाक है। क्योंकि यह जनतंत्र, हमारे आजादी के सिपाहियों ने बहुत संर्धष से अर्जित किया है। उसके प्रति अविश्वास पैदा होना या जनता के मन में निराशा की भावनाएं पैदा होना बहुत खतरनाक है।

अन्ना या रामदेव के पास खोने को क्या हैः

बाबा रामदेव या अन्ना हजारे जैसी आवाजों को दबाकर हम अपने लोकतंत्र का ही गला घोंट रहे हैं। आज जनतंत्र और उसके मूल्यों को बचाना बहुत जरूरी है। जनता के विश्वास और दरकते भरोसे को बचाना बहुत जरूरी है। भ्रष्टाचार के खिलाफ हमारे राजनीतिक दल अगर ईमानदार प्रयास कर रहे होते तो ऐसे आंदोलनों की आवश्यक्ता भी क्या थी? सरकार कुछ भी सोचे किंतु आज अन्ना हजारे और बाबा रामदेव जनता के सामने एक आशा की किरण बनकर उभरे हैं। इन नायकों की हार दरअसल देश के आम आदमी की हार होगी। केंद्र की सरकार को ईमानदार प्रयास करते हुए भ्रष्टाचार के खिलाफ काम करते हुए दिखना होगा। क्योंकि जनतंत्र में जनविश्वास से ही सरकारें बनती और बिगड़ती हैं। यह बात बहुत साफ है कि बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के पास खोने के लिए कुछ नहीं हैं, क्योंकि वे किसी भी रूप में सत्ता में नहीं हैं। जबकि कांग्रेस के पास एक सत्ता है और उसकी परीक्षा जनता की अदालत में होनी तय है, क्या ऐसे प्रसंगों से कांग्रेस जनता का भरोसा नहीं खो रही है, यह एक लाख टके का सवाल है। आज भले ही केंद्र की सरकार दिल्ली में रामलीला मैदान की सफाई करके खुद को महावीर साबित कर ले किंतु यह आंदोलन और उससे उठे सवाल खत्म नहीं होते। वे अब जनता के बीच हैं। देश में बहस चल पड़ी है और इससे उठने वाली आंच में सरकार को असहजता जरूर महसूस होगी। केंद्र की सरकार को यह समझना होगा कि चाहे-अनचाहे उसने अपना चेहरा ऐसा बना लिया है जैसे वह भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी संरक्षक हो। क्योंकि एक शांतिपूर्ण प्रतिरोध को भी अगर हमारी सत्ताएं नहीं सह पा रही हैं तो सवाल यह भी उठता क्या उन्हें हिंसा की ही भाषा समझ में आती है ? दिल्ली में अलीशाह गिलानी और अरूँधती राय जैसी देशतोड़क ताकतों के भारतविरोधी बयानों पर जिस दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के हाथ एक मामला दर्ज करने में कांपते हों, जो अफजल गुरू की फांसी की फाईलों को महीनों दबाकर रखती हो और आतंकियों व अतिवादियों से हर तरह के समझौतों को आतुर हो, यहां तक कि वह देशतोड़क नक्सलियों से भी संवाद को तैयार हो- वही सरकार एक अहिंसक समूह के प्रति कितना बर्बर व्यवहार करती है।

बाबा रामदेव इस मुकाम पर हारे नहीं हैं, उन्होंने इस आंदोलन के बहाने हमारी सत्ताओं के एक जनविरोधी और दमनकारी चेहरे को सामने रख दिया है। सत्ताएं ऐसी ही होती हैं और इसलिए समाज को एकजुट होकर एक सामाजिक दंडशक्ति के रूप में काम करना होगा। यह तय मानिए कि यह आखिरी संघर्ष है, इस बार अगर समाज हारता है तो हमें एक लंबी गुलामी के लिए तैयार हो जाना चाहिए। यह गुलामी सिर्फ आर्थिक नहीं होगी, भाषा की भी होगी, अभिव्यक्ति की होगी और सांस लेने की भी होगी। रामदेव के सामने भी रास्ता बहुत सहज नहीं है,क्योंकि वे अन्ना हजारे नहीं हैं। सरकार हर तरह से उनके अभियान और उनके संस्थानों को कुचलने की कोशिश करेगी। क्योंकि बदला लेना सत्ता का चरित्र होता है। इस खतरे के बावजूद अगर वे अपनी सच्चाई के साथ खड़े रहते हैं तो देश की जनता उनके साथ खड़ी रहेगी, इसमें संदेह नहीं है। बाबा रामदेव ने अपनी संवाद और संचार की शैली से लोगों को प्रभावित किया है। खासकर हिंदुस्तान के मध्यवर्ग में उनको लेकर दीवानगी है और अब इस दीवानगी को, योग से हठयोग की ओर ले जाकर उन्होंने एक नया रास्ता पकड़ा है। यह रास्ता कठिन भी है और उनकी असली परीक्षा दरअसल इसी मार्ग पर होनी हैं। देखना है कि बाबा इस कंटकाकीर्ण मार्ग पर अपने साथ कितने लोगों को चला पाते हैं ?

बुधवार, 25 मई 2011

नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है ?


दुनिया के सबसे निर्दोष लोगों को खत्म करने का पाप कर रहे हैं हम

-संजय द्विवेदी

उनका वहशीपन अपने चरम पर है, सोमवार की रात (23 मई,2011) को वे फिर वही करते हैं जो करते आए हैं। एक एडीशनल एसपी समेत 11 पुलिसकर्मियों को छत्तीसगढ़ के गरियाबंद में वे मौत के घाट उतार देते हैं। गोली मारने के बाद शवों को क्षत-विक्षत कर देते हैं। बहुत वीभत्स नजारा है। माओवाद की ऐसी सौगातें आए दिन छ्त्तीसगढ़, झारखंड और बिहार में आम हैं। मैं दो दिनों से इंतजार में हूं कि छत्तीसगढ़ के धरतीपुत्र और अब भगवा कपड़े पहनने वाले स्वामी अग्निवेश, लेखिका अरूंघती राय, गांधीवादी संदीप पाण्डेय, पूर्व आईएएस हर्षमंदर या ब्रम्हदेव शर्मा कुछ कहेंगें। पुलिस दमन की सामान्य सूचनाओं पर तुरंत बस्तर की दौड़ लगाने वाले इन गगनविहारी और फाइवस्टार समाजसेवियों में किसी को भी ऐसी घटनाएं प्रभावित नहीं करतीं। मौत भी अब इन इलाकों में खबर नहीं है। वह बस आ जाती है। मरता है एक आम आदिवासी अथवा एक पुलिस या सीआरपीएफ का जवान। नक्सलियों के शहरी नेटवर्क का काम देखने के आरोपी योजना आयोग में नामित किए जा रहे हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर नक्सलवाद से क्या हमारी राजनीति और राज्य लड़ना चाहता है। या वह तमाम किंतु-परंतु के बीच सिर्फ अपने लोगों की मौत से ही मुग्ध है।

दोहरा खेल खेलती सरकारें-

केंद्र सरकार के मुखिया हमारे प्रधानमंत्री और गृहमंत्री नक्सलवाद को इस देश के लिए सबसे बड़ा खतरा बता चुके हैं। उनके ही अधीन चलने वाला योजना आयोग अपनी एक समिति में नक्सल समर्थक होने के आरोपों से घिरे व्यक्ति को नामित कर देता है। जबकि उनपर राष्ट्रद्गोह के मामले में अभी फैसला आना बाकी है। यानि अदालतें और कानून सब बेमतलब हैं और राजनीति की सनक सबसे बड़ी है। केंद्र और राज्य सरकारें अगर इस खतरे के प्रति ईमानदार हैं तो इसके समाधान के लिए उनकी कोशिशें क्या हैं? लगातार नक्सली अपने कार्यक्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं और यह तब हो रहा है जब उनके उन्मूलन पर सरकार हर साल अपना बजट बढ़ाती जा रही है। यानि हमारी कोशिशें ईमानदार नहीं है। 2005 से 2010 के बीच 3,299 नागरिक और 1,379 सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं। साथ ही 1,226 नक्सली भी इन घटनाओं में मारे गए हैं- वे भी भारतीय नागरिक ही हैं। बावजूद इसके नक्सलवाद को लेकर भ्रम कायम हैं। सरकारों में बैठे नौकरशाह, राजनेता, कुछ बुद्धिजीवी लगातार भ्रम का निर्माण कर रहे हैं। टीवी चैनलों और वातानुकूलित सभागारों में बैठकर ये एक विदेशी और आक्रांता विचार को भारत की जनता की मुक्ति का माध्यम और लोकतंत्र का विकल्प बता रहे हैं।

आदिवासियों की मौतों का पाप-

किंतु हमारी सरकार क्या कर रही है? क्यों उसने एक पूरे इलाके को स्थाई युद्ध क्षेत्र में बदल दिया है। इसके खतरे बहुत बड़े हैं। एक तो यह कि हम दुनिया के सबसे सुंदर और सबसे निर्दोष इंसानों (आदिवासी) को लगातार खो रहे हैं। उनकी मौत सही मायने में प्रकृति के सबसे करीब रहने वाले लोगों की मौत है। निर्मल ह्रदय आदिवासियों का सैन्यीकरण किया जा रहा है। माओवादी उनके शांत जीवन में खलल डालकर उनके हाथ में बंदूकें पकड़ा रहे हैं। प्रकृतिपूजक समाज बंदूकों के खेल और लैंडमाइंस बिछाने में लगाया जा रहा है। आदिवासियों की परंपरा, उनका परिवेश, उनका परिधान, उनका धर्म और उनका खानपान सारा कुछ बदलकर उन्हें मिलिटेंट बनाने में लगे लोग आखिर विविधताओं का सम्मान करना कब सीखेंगें? आदिवासियों की लगातार मौतों के लिए जिम्मेदार माओवादी भी जिम्मेदार नहीं हैं? सरकार की कोई स्पष्ट नीति न होने के कारण एक पूरी प्रजाति को नष्ट करने और उन्हें उनकी जमीनों से उखाड़ने का यह सुनियोजित षडयंत्र साफ दिख रहा है। आदिवासी समाज प्रकृति के साथ रहने वाला और न्यूनतम आवश्यक्ताओं के साथ जीने वाला समाज है। उसे माओवादियों या हमारी सरकारों से कुछ नहीं चाहिए। किंतु ये दोनों तंत्र उनके जीवन में जहर घोल रहे हैं। आदिवासियों की आवश्यक्ताएं उनके अपने जंगल से पूरी हो जाती हैं। राज्य और बेईमान व्यापारियों के आगमन से उनके संकट प्रारंभ होते हैं और अब माओवादियों की मौजूदगी ने तो पूरे बस्तर को नरक में बदल दिया है। शोषण का यह दोहरा चक्र अब उनके सामने है। जहां एक तरफ राज्य की बंदूकें हैं तो दूसरी ओर हिंसक नक्सलियों की हैवानी करतूतें। ऐसे में आम आदिवासी का जीवन बद से बदतर हुआ है।

शोषकों के सहायक हैं माओवादीः

नक्सलियों ने जनता को मुक्ति और न्याय दिलाने के नाम पर इन क्षेत्रों में प्रवेश किया किंतु आज हालात यह हैं कि ये नक्सली ही शोषकों के सबसे बड़े मददगार हैं। इन इलाकों के वनोपज ठेकेदारों, सार्वजनिक कार्यों को करने वाले ठेकेदारों, राजनेताओं और उद्योगों से लेवी में करोड़ों रूपए वसूलकर ये एक समानांतर सत्ता स्थापित कर चुके हैं। भ्रष्ट राज्य तंत्र को ऐसा नक्सलवाद बहुत भाता है। क्योंकि इससे दोनों के लक्ष्य सध रहे हैं। दोनों भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगा रहे हैं और हमारे निरीह आदिवासी और पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं। राज्य पुलिस के आला अफसररान अपने वातानुकूलित केबिनों में बंद हैं और उन्होंने सामान्य पुलिसकर्मियों और सीआरपीएफ जवानों को मरने के लिए मैदान में छोड़ रखा है। आखिर जब राज्य की कोई नीति ही नहीं है तो हम क्यों अपने जवानों को यूं मरने के लिए मैदानों में भेज रहे हैं। आज समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के यह तय करना होगा कि वे नक्सलवाद का समूल नाश चाहते हैं या उसे सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर इन इलाकों में खर्च होने वाले विकास और सुरक्षा के बड़े बजट को लूट-लूटकर खाना चाहते हैं। क्योंकि अगर आप कोई लड़ाई लड़ रहे हैं तो उसका तरीका यह नहीं है। लड़ाई शुरू होती है और खत्म भी होती है किंतु हम यहां एक अंतहीन युद्ध लड़ रहे हैं। जो कब खत्म होगा नजर नहीं आता।

माओवादी 2050 में भारत की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं। विदेशी विचार और विदेशी मदद से इनकी पकड़ हमारे तंत्र पर बढ़ती जा रही है। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीजों का तमाशा बनाने की शक्ति इन्होंने अर्जित कर ली है। दुनिया भर के संगठनों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सहयोग इन्हें हासिल है। किंतु यह बात बहुत साफ है उनकी जंग हमारे लोकतंत्र के खिलाफ है। वे हमारे जनतंत्र को खत्म कर माओ का राज लाने का स्वप्न देख रहे हैं। वे अपने सपनों को पूरा कभी नहीं कर पाएंगें यह तय है किंतु भारत जैसे तेजी से बढ़ते देश की प्रगति और शांति को नष्ट कर हमारे विकास को प्रभावित करने की क्षमता उनमें जरूर है। हमें इस अंतर्राष्ट्रीय षडयंत्र को समझना होगा। यह साधारण नहीं है कि माओवादियों के तार मुस्लिम जेहादियों से जुड़े पाए गए तो कुछ विदेशी एवं स्वयंसेवी संगठन भी यहां वातावरण बिगाड़ने के प्रयासो में लगे हैं।

समय दर्ज करेगा हमारा अपराध-

किंतु सबसे बड़ा संकट हमारा खुद का है। क्या हम और हमारा राज्य नक्सलवाद से जूझने और मुक्ति पाने की इच्छा रखता है? क्या उसमें चीजों के समाधान खोजने का आत्मविश्वास शेष है? क्या उसे निरंतर कम होते आदिवासियों की मौतों और अपने जवानों की मौत का दुख है? क्या उसे पता है कि नक्सली करोड़ों की लेवी वसूलकर किस तरह हमारे विकास को प्रभावित कर रहे हैं? लगता है हमारे राज्य से आत्मविश्वास लापता है। अगर ऐसा नहीं है तो नक्सलवाद या आतंकवाद के खिलाफ हमारे शुतुरमुर्गी रवैयै का कारण क्या है ? हमारे हाथ किसने बांध रखे हैं? किसने हमसे यह कहा कि हमें अपने लोगों की रक्षा करने का अधिकार नहीं है। हर मामले में अगर हमारे राज्य का आदर्श अमरीका है, तो अपने लोगों को सुरक्षा देने के सवाल पर हमारा आदर्श अमरीका क्यों नहीं बनता? सवाल तमाम हैं उनके उत्तर हमें तलाशने हैं। किंतु सबसे बड़ा सवाल यही है कि नक्सलवाद से कौन लड़ना चाहता है और क्या हमारे भ्रष्ट तंत्र में इस संगठित माओवाद से लड़ने की शक्ति है ?

मंगलवार, 24 मई 2011

पत्रकार रामबहादुर राय पर केंद्रित होगा मीडिया विमर्श का अगला अंक


भोपाल। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श का आगामी अंक देश के चर्चित पत्रकार श्री रामबहादुर राय पर केंद्रित होगा। हमारे समय की पत्रकारिता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर श्री राय के योगदान, उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर केंद्रित यह अंक जुलाई माह में प्रकाशित होगा। एक छात्रनेता और जयप्रकाश आंदोलन के प्रमुख सेनानी के रूप में, बाद में एक पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में श्री राय की अनेक छवियां हैं। हमारे समय में जब मूल्यों और आदर्शों की पत्रकारिता का क्षरण हो रहा है, श्री राय जैसे लोग एक आस जगाते हैं कि सारा कुछ खत्म नहीं हुआ है। इस अंक हेतु लेख, विचार, विश्वलेषण, संस्मरण, फोटोग्राफ एवं आवश्यक पत्र 15 जुलाई,2011 तक भेजे जा सकते हैं। इससे इस अंक को महत्वपूर्ण बनाने में मदद मिलेगी। लेख भेजने के लिए पता है- संजय द्विवेदी, कार्यकारी संपादकः मीडिया विमर्श, 428-रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-462039 या अपनी सामग्री मेल भी कर सकते हैं-

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