भटकाव भरे आंदोलन ऐसे भ्रम फैलाकर जनता की सहानुभूति चाहते हैं
-संजय द्विवेदी
यह कहना कितना आसान है कि माओवादी भी अब भ्रष्टाचार के दानव से लड़ना चाहते हैं। लेकिन यह एक सच है और अपने ताजा बयान में माओवादियों ने सरकार से कहा है कि वह शांति वार्ता (नक्सलियों के साथ) का प्रस्ताव देने से पहले भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों के खिलाफ सरेआम कार्रवाई करे। साथ ही विदेशी मुल्कों के बैंकों में जमा सारा काला धन स्वेदश वापस लाए। कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की केंद्रीय समिति के प्रवक्ता अभय ने मीडिया को जारी विज्ञप्ति में कहा है कि सरकार ने प्राकृतिक संसाधनों के दोहन के लिए औद्योगिक व व्यवसायिक घरानों के साथ लाखों-करोड़ों के समझौते किए हैं। इन्हें रद किया जाए। भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया को तत्काल रोका जाए। साथ ही सरकार भ्रष्टाचारियों को सरेआम सजा देने की व्यवस्था करे।
लोकप्रियतावादी राजनीति के फलितार्थः
जाहिर तौर पर यह एक ऐसा बयान है जिसे बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं हैं। किंतु यह बताता है कि संचार माध्यम देश में कितने प्रभावी हो उठे हैं कि वे जंगलों में रक्तक्रांति के माध्यम से देश की राजसत्ता पर कब्जे का स्वप्न देख रहे माओवादियों को भी देश में चल रही भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम पर प्रतिक्रिया करने के लिए मजबूर कर देते हैं। सही मायने में इस बयान को एक लोकप्रियतावादी राजनीति का ही विस्तार माना जाना चाहिए। माओवादियों का पूरा अभियान आज एक भटकाव भरे रास्ते पर है ऐसे में उनसे किसी गंभीर संवाद की अपेक्षा नहीं की जानी चाहिए। उनके कदम पूरी तरह लोकप्रियतावादी राजनीति से मेल खाते हैं और उनका अर्थतंत्र भी भ्रष्टाचार के चलते ही फलफूल रहा है। भ्रष्टाचार को जड़ से मिटाने की बात करने वाले माओवादियों से यह पूछा जाना चाहिए कि नक्सल प्रभावित राज्यों में चल रहे विकास कार्यों को रोककर और करोडों की लेवी वसूलकर वे किस मुंह से भ्रष्टाचार के विरूद्ध बात कह रहे हैं। सही मायने में इस तरह के बयान सिर्फ सुर्खियां बटोरने का ही उपक्रम हैं। माओवादियों के इन भ्रामक बयानों पर गंभीर होने के बजाए यह सोचना जरूरी है कि क्या माओवादी हमारे संविधान और गणतंत्र में कोई अपने लिए कोई स्पेस देखते हैं ? क्या वे मानते हैं कि वर्तमान व्यवस्था उनके विचारों के अनुसार न्यायपूर्ण है? सही मायने में माओवाद एक गणतंत्र विरोधी विचार है। उनकी सांसें जनतंत्र में घुट रही हैं। वे माओ का राज, यानी एक बर्बर अधिनायक तंत्र के अभिलाषी हैं। देश में लोकतंत्र के रहते वे अपने विचारों और सपनों का राज नहीं ला सकते। शायद इसीलिए मतदान करते हुए लोगों को वे धमकाते हैं कि यदि उनकी उंगलियों पर मतदान की स्याही पाई गयी तो वे उंगलियां काट लेगें। यानि एक आम आदमी को गणतंत्र में मिले सबसे बड़े अधिकार- मताधिकार पर भी उनकी आस्था नहीं हैं। एक गणतंत्र में वे भ्रष्टाचारियों के लिए सरेआम फांसी लटकाने की सजा चाहते हैं। यह एक बर्बर अधिनायक तंत्र में ही संभव है। हमारे यहां कानून के काम करने का तरीका है। अपराध को साबित करने की एक कानूनी प्रक्रिया है जिसके चलते आरोपी को स्वयं को दोषमुक्त साबित करने के अवसर हैं।
शोषकों के सहायक हैं माओवादीः
माओवादियों ने जनता को मुक्ति और न्याय दिलाने के नाम पर इन क्षेत्रों में प्रवेश किया किंतु आज हालात यह हैं कि ये माओवादी ही शोषकों के सबसे बड़े मददगार हैं। इन इलाकों के वनोपज ठेकेदारों, सार्वजनिक कार्यों को करने वाले ठेकेदारों, राजनेताओं और उद्योगों से लेवी में करोड़ों रूपए वसूलकर ये एक समानांतर सत्ता स्थापित कर चुके हैं। भ्रष्ट राज्य तंत्र को ऐसा माओवाद बहुत भाता है। क्योंकि इससे दोनों के लक्ष्य सध रहे हैं। दोनों भ्रष्टाचार की गंगा में गोते लगा रहे हैं और हमारे निरीह आदिवासी और पुलिसकर्मी मारे जा रहे हैं। राज्यों की पुलिस के आला अफसररान अपने वातानुकूलित केबिनों में बंद हैं और उन्होंने सामान्य पुलिसकर्मियों और सीआरपीएफ जवानों को मरने के लिए मैदान में छोड़ रखा है। आखिर जब राज्य की कोई नीति ही नहीं है तो हम क्यों अपने जवानों को यूं मरने के लिए मैदानों में भेज रहे हैं। आज समय आ गया है कि केंद्र और राज्य सरकारों के यह तय करना होगा कि वे माओवाद का समूल नाश चाहते हैं या उसे सामाजिक-आर्थिक समस्या बताकर इन इलाकों में खर्च होने वाले विकास और सुरक्षा के बड़े बजट को लूट-लूटकर खाना चाहते हैं। एक बात पर और सोचने की जरूरत है कि देश के तमाम इलाके शोषण और भुखमरी के शिकार हैं किंतु माओवादी उन्हीं इलाकों में सक्रिय हैं, जहां वनोपज और खनिज है तथा शासकीय व कारपोरेट कंपनियां काम कर रही हैं। ऐसे में क्या लेवी का करोड़ों का खेल ही इनकी मूल प्रेरणा नहीं है।
अनसुनी की कानू सान्याल की बातः
आदिवासियों के वास्तविक शोषक, लेवी देकर आज माओवादियों की गोद में बैठ गए हैं। इसलिए तेंदुपत्ता का व्यापारी, नेता, अफसर, ठेकेदार सब माओवादियों के वर्गशत्रु कहां रहे। जंगल में मंगल हो गया है। ये इलाके लूट के इलाके हैं। इस बात का भी अध्ययन करना जरूरी है कि माओवादियों के आने के बाद आदिवासी कितना खुशहाल या बदहाल हुआ है। आज माओवादी आंदोलन एक अंधे मोड़ पर है जहां पर वह डकैती, हत्या, फिरौती और आतंक के एक मिलेजुले मार्ग पर खून-खराबे में रोमांटिक आंनद लेने वाले बुध्दिवादियों का लीलालोक बन चुका है, ऐसे में नक्सली नेता स्व. कानू सान्याल की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। कानू साफ कहते थे कि “किसी व्यक्ति को खत्म करने से व्यवस्था नहीं बदलती। उनकी राय में भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उसमें एक तरह का रुमानीपन है। उनका कहना है कि रुमानीपन के कारण ही नौजवान इसमें आ रहे हैं लेकिन कुछ दिन में वे जंगल से बाहर आ जाते हैं।”
गहरे द्वंद का शिकार है आंदोलनः
नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं। नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है। कानू की बात आज के हो-हल्ले में अनसुनी भले कर दी गयी पर कानू दा कहीं न कहीं नक्सलियों के रास्ते से दुखी थे। वे भटके हुए आंदोलन का आखिरी प्रतीक थे किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही। भाकपा(माले) के माध्यम से वे एक विकल्प देने की कोशिश कर रहे थे। कानू साफ कहते थे चारू मजूमदार से शुरू से उनकी असहमतियां सिर्फ निरर्थक हिंसा को लेकर ही थीं।
भोथरी बयानबाजी और भ्रम फैलाने की कवायदः
माओवादी आज की तारीख में सही मायने में भारतीय राजसत्ता के बातचीत के आमंत्रण को ठुकराना चाहते हैं। उसके लिए वे बहाने गढ़ते हैं। आज वे अपने हिंसाचार के माध्यम से कहीं न कहीं राज्य पर भारी दिख रहे हैं। इसलिए इस वक्त वे संवाद की हर कोशिश को घता बताएंगें। पिछले दिनों रायपुर में राष्ट्रपति ने भी माओवादियों से हथियार रखकर बातचीत करने की अपील की, किंतु माओवादी इस पर रजामंद नहीं हैं। इसलिए ऐसे बयानों के माध्यम से वे भ्रम फैलाने के प्रयास कर रहे हैं। आज अगर राज्य उन पर भारी पड़े तो वे बातचीत के लिए तैयार हो जाएंगें। एक छापामार लड़ाई में उनके यही तरीके हम पर भारी पड़ रहे हैं। आंध्र प्रदेश में यह प्रयोग कई बार देखा गया। जब उन पर पुलिस भारी पड़ी तो वे वार्ता की मेज पर आए या युद्ध विराम कर दिया। इस बीच फिर तैयारियां पुख्ता कीं और फिर हिंसा फैलाने में जुट गए। कुल मिलाकर माओवादियों का ताजा बयान एक भ्रम सृजन और अखबारी सुर्खियां बटोरने से ज्यादा कुछ नहीं है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें