नारद जयंती (19 मई) पर विशेष
- प्रो.बृज किशोर कुठियाला
सभी पुराणों में महर्षि नारद एक अनिवार्य भूमिका में प्रस्तुत हैं। उन्हें देवर्षि की संज्ञा दी गई, परन्तु उनका कार्य देवताओं तक ही सीमित नहीं था। वे दानवों और मनुष्यों के भी मित्र, मार्गदर्शक, सलाहकार और आचार्य के रूप में उपस्थित हैं। परमात्मा के विषय में संपूर्ण ज्ञान प्रदान करने वाले दार्शनिक को नारद कहा गया है। महाभारत में भीष्म ने युधिष्ठिर से कहा कि नारद आदर्श व्यक्तित्व हैं। श्री कृष्ण ने उग्रसेन से कहा कि नारद की विशेषताएं अनुकरणीय हैं।
पुराणों में नारद को भागवत संवाददाता के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह भी सर्वमान्य है कि नारद की ही प्रेरणा से वाल्मीकि ने रामायण जैसे महाकाव्य और व्यास ने भागवत गीता जैसे संपूर्ण भक्ति काव्य की रचना की थी। ऐसे नारद को कुछ मूढ़ लोग कलह प्रिय के रूप में भी प्रस्तुत करते हैं, परन्तु नारद जब-जब कलह कराने की भूमिका में आते हैं तो उन परिस्थितयों का गहरा अध्ययन करने से सिद्ध होता है कि नारद ने विवाद और संघर्ष को भी लोकमंगल के लिए प्रयोग किया है। नारद कई रूपों में श्रेष्ठ व्यक्तित्व प्रदर्शित करते हैं। संगीत में अपनी अपूर्णता ध्यान में आते ही उन्होंने कठोर तपस्या और अभ्यास से एक उच्च कोटि के संगीतज्ञ बनने को भी सिद्ध किया। उन्होंने संगीत गन्धर्वों से सीखा और ‘नारद संहिता’ ग्रंथ की रचना की। घोर तप करके विष्णु से संगीत का वरदान प्राप्त किया। वे तत्व ज्ञानी महर्षि थे। नारद के भक्ति सूत्रों में उनके परमात्मा व भक्त के संबंधों की व्याख्या से वे एक दार्शनिक के रूप में सामने आते हैं। परन्तु नारद अन्य ऋषियों, मुनियों से इस प्रकार से भिन्न हैं कि उनका कोई अपना आश्रम नहीं है। वे निरंतर प्रवास पर रहते हैं। परन्तु यह प्रवास व्यक्तिगत नहीं है। इस प्रवास में भी वे समकालीन महत्वपूर्ण देवताओं, मानवों व असुरों से संपर्क करते हैं और उनके प्रश्न, उनके वक्तव्य व उनके कटाक्ष सभी को दिशा देते हैं। उनके हर परामर्श में और प्रत्येक वक्तव्य में कहीं-न-कहीं लोकहित झलकता है। उन्होंने दैत्य अंधक को भगवान शिव द्वारा मिले वरदान को अपने ऊपर इस्तेमाल करने की सलाह दी। रावण को बाली की पूंछ में उलझने पर विवश किया और कंस को सुझाया की देवकी के बच्चों को मार डाले। वह कृष्ण के दूत बनकर इन्द्र के पास गए और उन्हें कृष्ण को पारिजात से वंचित रखने का अहंकार त्यागने की सलाह दी। यह और इस तरह के अनेक परामर्श नारद के विरोधाभासी व्यक्तित्व को उजागर करते दिखते हैं। परन्तु समझने की बात यह है कि कहीं भी नारद का कोई निजी स्वार्थ नहीं दिखता है। वे सदैव सामूहिक कल्याण की नेक भावना रखते हैं। उन्होंने आसुरी शक्तियों को भी अपने विवेक का लाभ पहुंचाया। जब हिरण्य तपस्या करने के लिए मंदाक पर्वत पर चले गए तो देवताओं ने दानवों की पत्नियों व महिलाओं का दमन प्रारंभ कर दिया, परन्तु दूरदर्शी नारद ने हिरण्य की पत्नी की सुरक्षा की जिससे प्रहृलाद का जन्म हो सका। परन्तु उसी प्रहृलाद को अपनी आध्यात्मिक चेतना से प्रभावित करके हिरण्य कशिपु के अंत का साधन बनाया।इन सभी गुणों के अतिरिक्त नारद की जिन विशेषताओं की ओर कम ध्यान गया है वह है उनकी ‘संचार’ योग्यता व क्षमता। नारद ने ‘वाणी’ का प्रयोग इस प्रकार किया। जिससे घटनाओं का सृजन हुआ। नारद द्वारा प्रेरित हर घटना का परिणाम लोकहित में निकला। इसलिए वर्तमान संदर्भ में यदि नारद को आज तक के विश्व का सर्वश्रेष्ठ ‘लोक संचारक’ कहा जाये तो कुछ भी अतिश्योक्ति नहीं होगी। नारद के हर वाक्य, हर वार्ता और हर घटनाक्रम का विश्लेषण करने से यह बार-बार सिद्ध होता है कि वे एक अति निपुण व प्रभावी ‘संचारक’ थे। दूसरा उनका संवाद शत-प्रतिशत लोकहित में रहता था। वे अपना हित तो कभी नहीं देखते थे, उन्होंने समूहों पर जातियों आदि का भी अहित नहीं साधा। उनके संवाद में हमेशा लोक कल्याण की भावना रहती थी। तीसरे, नारद द्वारा रचित भक्ति सूत्र में 84 सूत्र हैं। प्रत्यक्ष रूप से ऐसा लगता है कि इन सूत्रों में भक्ति मार्ग का दर्शन दिया गया है और भक्त ईश्वर को कैसे प्राप्त करे ? यह साधन बताए गए हैं। परन्तु इन्हीं सूत्रों का यदि सूक्ष्म अध्ययन करें तो केवल पत्रकारिता ही नहीं पूरे मीडिया के लिए शाश्वत सिद्धांतों का प्रतिपालन दृष्टिगत होता है। नारद भक्ति सूत्र का 15वां सूत्र इस प्रकार से हैः
तल्लक्षणानि वच्यन्ते नानामतभेदात ।।
अर्थात मतों में विभिन्नता व अनेकता है, यही पत्रकारिता का मूल सिद्धांत है। इसी सूत्र की व्याख्या नारद ने भक्ति सूत्र 16 से 19 तक लिखी है और बताया है कि व्यास, गर्ग, शांडिल्य आदि ऋषिमुनियों ने भक्ति के विषय में विभिन्न मत प्रकट किए हैं। अंत में नारद ने अपना मत भी प्रकट किया है, परन्तु उसी के साथ यह भी कह दिया कि किसी भी मत को मानने से पहले स्वयं उसकी अनुभूति करना आवश्यक है और तभी विवेकानुसार निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए। वर्तमान में भी एक ही विषय पर अनेक दृष्टियां होती हैं, परन्तु पत्रकार या मीडिया कर्मी को सभी दृष्टियों का अध्ययन करके निष्पक्ष दृष्टि लोकहित में प्रस्तुत करनी चाहिए। यह ‘आदर्श पत्रकारिता’ का मूल सिद्धांत हो सकता है। आज की पत्रकारिता में मीडिया को सर्वशक्तिमान और सर्वगुण सम्पन्न संवाद के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। सबको मालूम है कि यह भ्रम है। मीडिया पूरे सामाजिक संवाद की व्यवस्थाओं का केवल एक अंश हो सकता है और मीडिया की अपनी सीमाएं भी है। भक्ति सूत्र 20 में नारद ने कहा है कि:
अस्त्येवमेवम् ।।
अर्थात यही है, परन्तु इसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता है। यह पत्रकारिता की सीमा का द्योतक है। इसी प्रकार सूत्र 26 में कहा गया कि:
फलरूपत्वात् ।।
अर्थात पत्रकारिता संचार का प्रारंभ नहीं है यह तो सामाजिक संवाद का परिणाम है। यदि पत्रकारिता को इस दृष्टि से देखा जाए तो पत्रकार का दायित्व कहीं अधिक हो जाता है। सूत्र 43, पत्रकारिता के लिए मार्गदर्शक हो सकता है: दुःसंङ्गः सर्वथैव त्याज्यः
नकारात्मक पत्रकारिता को अनेक विद्वानों और श्रेष्ठजनों ने नकारा। जबकि पश्चिम दर्शन पर आधारित आज की पत्रकारिता केवल नकारात्मकता को ही अपना आधार मानती है और ‘कुत्ते को काटने’ को समाचार मानती है। पत्रकार की भूमिका को भी प्रहरी कुत्ते (वाच डाग) के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परन्तु नारद ने इस श्लोक में कहा कि हर हाल में बुराई त्याग करने योग्य है। उसका प्रतिपालन या प्रचार-प्रसार नहीं होना चाहिए। नकारात्मक पत्रकारिता की भूमिका समाज में विष की तरह है। सूत्र 46 में: कस्तरति कस्तरति मायाम् ? यः सड्ढांस्त्यजाति यो महानुभावं सेवते, निर्ममो भवति ।।
नारद ने कहा कि बुराई लहर के रूप में आती है परन्तु शीघ्र ही वह समुद्र का रूप ले लेती है। आज समाचार वाहिनियों में अपराध समाचार की यही कहानी बनती दिखती है। सूत्र 51 में नारद अभिव्यक्ति की अपूर्णता का वर्णन करते हैं: अनिर्ववनीयं प्रेमस्वरूपम् ।।
अर्थात वास्तविकता या संपूर्ण सत्य अवर्णनीय है इसलिए पत्रकारिता में अधूरापन तो रहेगा ही। पाठक, दर्शक व श्रोता को पत्रकारिता की इस कमी की यदि अनुभूति हो जाती है तो समाज में मीडिया की भूमिका यथार्थ को छूयेगी। इसी बात को सूत्र 52 में नारद ने अलग तरह से प्रस्तुत किया है:
मूकास्वादनवत् ।।
नारद का कहना है कि इस सृष्टि में अनेक अनुभव ऐसे हैं जिनकी अनुभूति तो है परन्तु अभिव्यक्ति नहीं है। व्याख्या करने वाले विद्वानों ने इसे ‘गूंगे का स्वाद’ लेने की स्थिति की तरह वर्णन किया है। नारद भक्ति के सूत्र 63 से मीडिया की विषय-वस्तु के बारे में मार्गदर्शन प्राप्त होता है: स्त्रीधननास्तिकवैरिचरित्रं न श्रवणीयम् ।।
नारद ने संवाद में कुछ विषयों को निषेध किया है। वह हैं (1) स्त्रियों व पुरुषों के शरीर व मोह का वर्णन (2) धन, धनियों व धनोपार्जन का वर्णन (3) नास्तिकता का वर्णन (4) शत्रु की चर्चा । आज तो ऐसा लगता है कि मीडिया के लिए विषय-वस्तु इन चारों के अतिरिक्त है ही नहीं। सूत्र 72 एकात्मकता को पोषित करने वाला अत्यंत सुंदर वाक्य है जिसमें नारद समाज में भेद उत्पन्न करने वाले कारकों को बताकर उनको निषेध करते हैं।
नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादिभेदः ।।
अर्थात जाति, विद्या, रूप, कुल, धन, कार्य आदि के कारण भेद नहीं होना चाहिए। पत्रकारिता किसके लिए हो व किन के विषय में हो यह आज एक महत्वपूर्ण विषय है। जिसका समाधान इस सूत्र में मिलता है। राजनेताओं, फिल्मी कलाकारों व अपराधियों का महिमा मंडन करती हुई पत्रकारिता समाज के वास्तविक विषयों से भटकती है। यही कारण है कि जेसिकालाल की हत्या तो न केवल पत्रकारिता की लगातार ब्रेकिंग न्यूज बनती है, उसके संपादकीय लेख और यहां तक की फिल्म भी बनती है, परन्तु एक आम किसान की आत्महत्या केवल एक-दो कालम की खबर में ही सिमट जाती है। जब आत्महत्या का राजनीतिकरण होता है तो वह फिर से मुख्य पृष्ठ पर लौट आती है। आज की पत्रकारिता व मीडिया में बहसों का भी एक बड़ा दौर है। लगातार अर्थहीन व अंतहीन चर्चाएं मीडिया पर दिखती हैं। विवाद को अर्थहीन बताते हुए नारद ने सूत्र 75, 76 व 77 में परामर्श दिया है कि वाद-विवाद में समय व्यर्थ नहीं करना चाहिए। क्योंकि वाद-विवाद से मत परिवर्तन नहीं होता है। उन्होंने कहा: बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ।।
भक्तिशास्त्राणि मननीयानि, तदुदृबोधककर्माण्यपि च करणीयानि ।।
सुखदुःखेच्छालाभादित्यक्ते काले प्रतीक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपि व्यर्थ न नेयम्
सूत्र 78 में नारद ने कुछ गुणों का वर्णन किया है जो व्यक्तित्व में होने ही चाहिए। पत्रकारों में भी इन गुणों का समावेश अवश्य लगता है।
अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादिचारिन्न्याणि परिपालनीयानि ।।
यह गुण है अहिंसा, सत्य, शुद्धता, संवेदनशीलता व विश्वास।सूत्र 71 अत्यंत महत्वपूर्ण प्रतीत होता है इसमें नारद बताते हैं कि यह सब कुछ हो जाये (अर्थात नारद के परामर्श को पूर्ण रूप से मान लिया जाए) तो क्या होगा? नारद के अनुसार इस स्थिति में आनन्द ही आनन्द होगा। पितर आनन्दित होते हैं, देवता उल्लास में नृत्य करते हैं और पृथ्वी मानो स्वर्ग बन जाती है। आज के मीडिया की यह दृष्टि नहीं है, यह हम सब जानते हैं। पत्रकारिता से ही सारे मीडिया में सृजन की प्रक्रिया होती है परन्तु सृजन के लिए किस प्रकार की प्रवृत्तियां होनी चाहिए? आज तो सारा सृजन साहित्य, कला, चलचित्र निर्माण, विज्ञापन या पत्रकारिता सभी अर्थ उपार्जन की प्रवृत्ति से होता है। जिसमें असत्य, छल, कपट, दिखावा व बनावटीपन मुख्य हैं। नारद के भक्ति सूत्र 60 में सृजनात्मक प्रवृत्तियों की चर्चा है, सृजनात्मकता की प्रक्रिया का उल्लेख इस तरह है:
शान्तिरूपात्परमानन्दरूपाच्च ।।‘सत्’ अर्थात अनुभव ‘चित्’ अर्थात चेतना और ‘आनन्द’ अर्थात अनुभूति। अर्थात पत्रकारिता की प्रक्रिया भी ऐसी ही है। वह तथ्यों को समेटती है। उनका विश्लेषण करती है व उसके बाद उसकी अनुभूति करके दूसरों के लिए अभिव्यक्त होती है परन्तु इसका परिणाम दुख, दर्द, ईष्या, प्रतिद्वंद्धिता, द्वेष व असत्य को बांटना हो सकता है या फिर सुख, शांति, प्रेम, सहनशीलता व मैत्री का प्रसाद हो सकता है। कौन सा विकल्प चुनना है यह समाज को तय करना हैं। नारद के भक्ति सूत्रों का संक्षिप्त विश्लेषण पत्रकारिता की दृष्टि से यहां किया गया है। आवश्यकता है कि इन विषयों का गहन अध्ययन हो और एक वैकल्पिक पत्रकारिता के दर्शन की प्रस्तुति पूरी मानवता को दी जाए। क्योंकि वर्तमान मीडिया ऐसे समाज की रचना करने में सहायक नहीं है। पत्रकारिता की यह कल्पना बेशक श्रेष्ठ पुरुषों की रही हो परन्तु इसमें हर साधारण मानव की सुखमय और शांतिपूर्ण जीवन की आकांक्षा के दर्शन होते हैं।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति हैं)