गुरुवार, 18 मई 2017

बौद्धिक तेज से दमकता था उनका व्यक्तित्व

-संजय द्विवेदी

  केंद्रीय पर्यावरण मंत्री श्री अनिल माधव दवे,देश के उन चुनिंदा राजनेताओं में थे, जिनमें एक बौद्धिक गुरूत्वाकर्षण मौजूद था। उन्हें देखने, सुनने और सुनते रहने का मन होता था। पानी, पर्यावरण,नदी और राष्ट्र के भविष्य से जुड़े सवालों पर उनमे गहरी अंर्तदृष्टि मौजूद थी। उनके साथ नदी महोत्सवों ,विश्व हिंदी सम्मेलन-भोपाल, अंतरराष्ट्रीय विचार महाकुंभ-उज्जैन सहित कई आयोजनों में काम करने का मौका मिला। उनकी विलक्षणता के आसपास होना कठिन था। वे एक ऐसे कठिन समय में हमें छोड़कर चले गए, जब देश को उनकी जरूरत सबसे ज्यादा थी। आज जब राजनीति में बौने कद के लोगों की बन आई तब वे एक आदमकद राजनेता-सामाजिक कार्यकर्ता के नाते हमारे बीच उन सवालों पर अलख जगा रहे थे, जो राजनीति के लिए वोट बैंक नहीं बनाते। वे ही ऐसे थे जो जिंदगी के, प्रकृति के सवालों को मुख्यधारा की राजनीति का हिस्सा बना सकते थे।
     भोपाल में जिन दिनों हम पढ़ाई करने आए तो वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक थे, विचार को लेकर स्पष्टता, दृढ़ता और गहराई के बावजूद उनमें जड़ता नहीं थी। वे उदारमना, बौद्धिक संवाद में रूचि रखने वाले, नए ढंग से सोचने वाले और जीवन को बहुत व्यवस्थित ढंग से जीने वाले व्यक्ति थे। उनके आसपास एक ऐसा आभामंडल स्वतः बन जाता था कि उनसे सीखने की ललक होती थी। नए विषयों को पढ़ना, सीखना और उन्हें अपने विचार परिवार (संघ परिवार) के विमर्श का हिस्सा बनाना, उन्हें महत्वपूर्ण बनाता था। वे परंपरा के पथ पर भी आधुनिक ढंग से सोचते थे। उन्होंने अपना संपूर्ण जीवन अविवाहित रहकर समाज को समर्पित कर दिया। वे सच्चे अर्थों में भारत की ऋषि परंपरा के उत्तराधिकारी थे। संघ की शाखा लगाने से लेकर हवाई जहाज उड़ाने तक वे हर काम में सिद्धहस्त थे। 6 जुलाई,1956 को मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले के बड़नगर में जन्में श्री दवे की मां का नाम पुष्पादेवी और पिता का नाम माधव दवे था।
गहरा सौंदर्यबोध और सादगीः
  उनकी सादगी में भी एक सौंदर्यबोध परिलक्षित होता था। बांद्राभान (होशंगाबाद) में जब वे अंतरराष्ट्रीय नदी महोत्सव का आयोजन करते थे, तो कई बार अपने विद्यार्थियों के साथ वहां जाना होता था। इतने भव्य कार्यक्रम की एक-एक चीज पर उनकी नजर होती थी। यही विलक्षता तब दिखाई दी, जब वे भोपाल में हुए विश्व हिंदी सम्मेलन में इसे स्थापित करते दिखे। आयोजनों की भव्यता के साथ सादगी और एक अलग वातावरण रचना उनसे सीखा जा सकता था। सही मायने में उनके आसपास की सादगी में भी एक गहरा सौंदर्यबोध छिपा होता था। वे एक साथ कितनी चीजों को साधते हैं, यह उनके पास होकर ही जाना जा सकता था। हम भाग्यशाली थे कि हमें उनके साथ एक नहीं अनेक आयोजनों में उनकी संगठनपुरूष की छवि, सौंदर्यबोध,भाषणकला,प्रेरित करनी वाली जिजीविषा के दर्शन हुए। विचार के प्रति अविचल आस्था, गहरी वैचारिकता, सांस्कृतिक बोध के साथ वे विविध अनुभवों को करके देखने वालों में थे। शौकिया पर्यटन ने उनके व्यक्तित्व को गढ़ा था। वे मुद्दों पर जिस अधिकार से अपनी बात रखते थे, वह बताती थी कि वे किस तरह विषय के साथ गहरे जुड़े हुए हैं। उनका कृतित्व और जीवन पर्यावरण, नदी संरक्षण, स्वदेशी के युगानुकूल प्रयोगों को समर्पित था। वे स्वदेशी और पर्यावरण की बात कहते नहीं, करके दिखाते थे। उनके मेगा इवेंट्स में तांबे के लोटे ,मिट्टी के घड़े, कुल्हड़ से लेकर भोजन के लिए पत्तलें इस्तेमाल होती थीं। आयोजनों में आवास के लिए उनके द्वारा बनाई गयी कुटिया में देश के दिग्गज भी आकर रहते थे। हर आयोजन में नवाचार करके उन्होंने सबको सिखाया कि कैसे परंपरा के साथ आधुनिकता को साधा जा सकता है। राजनीति में होकर भी वे इतने मोर्चों पर सक्रिय थे कि ताज्जुब होता था।
कुशल संगठक और रणनीतिकारः
    वे एक कुशल संगठनकर्ता होने के साथ चुनाव रणनीति में नई प्रविधियों के साथ उतरने के जानकार थे। भाजपा में जो कुछ कुशल चुनाव संचालक हैं, रणनीतिकार हैं, वे उनमें एक थे। किसी राजनेता की छवि को किस तरह जनता के बीच स्थापित करते हुए अनूकूल परिणाम लाना, यह मध्यप्रदेश के कई चुनावों में वे करते रहे। दिग्विजय सिंह के दस वर्ष के शासनकाल के बाद उमाश्री भारती के नेतृत्व में लड़े गए विधानसभा चुनाव और उसमें अनिल माधव दवे की भूमिका को याद करें तो उनकी कुशलता एक मानक की तरह सामने आएगी। वे ही ऐसे थे जो मध्यप्रदेश में उमाश्री भारती से लेकर शिवराज सिंह चौहान सबको साध सकते थे। सबको साथ लेकर चलना और साधारण कार्यकर्ता से भी, बड़े से बड़े काम करवा लेने की उनकी क्षमता मध्य प्रदेश ने बार-बार देखी और परखी थी।


बौद्धिकता-लेखन और संवाद से बनाई जगहः

     उनके लेखन में गहरी प्रामाणिकता, शोध और प्रस्तुति का सौंदर्य दिखता है। लिखने को कुछ भी लिखना उनके स्वभाव में नहीं था। वे शिवाजी एंड सुराज, क्रिएशन टू क्रिमेशन, रैफ्टिंग थ्रू ए सिविलाइजेशन, ए ट्रैवलॉग, शताब्‍दी के पांच काले पन्‍ने, संभल के रहना अपने घर में छुपे हुए गद्दारों से, महानायक चंद्रशेखर आजाद, रोटी और कमल की कहानी, समग्र ग्राम विकास, अमरकंटक से अमरकंटक तक, बेयांड कोपेनहेगन, यस आई कैन, सो कैन वी जैसी पुस्तकों के माध्यम से अपनी बौद्धिक क्षमताओं से लोगों को परिचित कराते हैं। अनछुए और उपेक्षित विषयों पर गहन चिंतन कर वे उसे लोकविमर्श का हिस्सा बना देते थे। आज मध्यप्रदेश में नदी संरक्षण को लेकर जो चिंता सरकार के स्तर पर दिखती है , उसके बीज कहीं न कहीं दवे जी ने ही डाले हैं, इसे कहने में संकोच नहीं करना चाहिए। वे नदी, पर्यावरण, जलवायु परिर्वतन,ग्राम विकास जैसे सवालों पर सोचने वाले राजनेता थे। नर्मदा समग्र संगठन के माध्यम से उनके काम हम सबके सामने हैं। नर्मदा समग्र का जो कार्यालय उन्होंने बनाया उसका नाम भी उन्होंने नदी का घर रखा। वे अपने पूरे जीवन में हमें नदियों से, प्रकृति से, पहाड़ों से संवाद का तरीका सिखाते रहे। प्रकृति से संवाद दरअसल उनका एक प्रिय विषय था। दुनिया भर में होने वाली पर्यावरण से संबंधित संगोष्ठियों और सम्मेलनों मे वे भारत (इंडिया नहीं) के एक अनिवार्य प्रतिनिधि थे। उनकी वाणी में भारत का आत्मविश्वास और सांस्कृतिक चेतना का निरंतर प्रवाह दिखता था। एक ऐसे समय में जब बाजारवाद  हमारे सिर चढ़कर नाच रहा है, प्रकृत्ति और पर्यावरण के समक्ष रोज संकट बढ़ता जा रहा है, हमारी नदियां और जलश्रोत- मानव रचित संकटों से बदहाल हैं, अनिल दवे की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

सोमवार, 15 मई 2017

केजरीवालः हर रोज नया बवाल

-संजय द्विवेदी

    अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी में इन दिनों जो कुछ चल रहा है, उससे राजनीतिज्ञों के प्रति अविश्वास और गहरा हुआ है। वे उम्मीदों को तोड़ने वाले राजनेता बनकर रह गए हैं। साफ-सुथरी राजनीति देने का वादा करके बनी आम आदमी पार्टी को सत्ता देने में दिल्ली की जनता ने जितनी तेजी दिखाई, उससे अधिक तेजी केजरीवाल और उनके दोस्तों ने जनता की उम्मीदें तोड़ने में दिखाई है।
  भारतीय राजनीति में अन्ना हजारे के चेलों ने जिस तेजी से भरोसा खोया, उस तेजी से तो जयप्रकाश नारायण और महात्मा गांधी के चेले भी नहीं गिरे। दिल्ली की सत्ता में आकर अपनी अहंकारजन्य प्रस्तुति और देहभाषा से पूरी आप मंडली ने अपनी आभा खो दी है। खीजे हुए, नाराज और हमेशा गुस्सा में रहने वाली यह पूरी टीम रचनात्मकता से खाली है। एक महान आंदोलन का सर्वनाश करने का श्रेय इन्हें दिया जा सकता है किंतु भरोसे को तोड़ने का पाप भी इन सबके नाम जरूर दर्ज किया जाएगा। जिस भारतीय संसदीय राजनीति के दुर्गुणों को कोसते हुए ये उसका विकल्प देने का बातें कर रहे थे, उन सारे दुर्गुणों से जिस तरह स्वयं ग्रस्त हुए वह देखने की बात है। राजनीति के बने-बनाए मानकों को छोड़कर नई राह बनाने कि हिम्मत तो इस समूह से गायब दिखती है। उसके अपनों ने जितनी जल्दी पार्टी से विदाई लेनी शुरू की तो लगा कि पार्टी अब बचेगी नहीं, किंतु सत्ता का मोह और प्रलोभन लोगों को जोड़े रखता है। सत्ता जितनी बची है,पार्टी भी उतनी ही बच तो जाए तो बड़ी बात है।
   योगेंद्र यादव, प्रशांत भूषण और प्रो. आनंद कुमार जैसे चेहरों से प्रारंभ हुई रुसवाई की कहानियां रोज बन रही हैं। कपिल मिश्र इस पूरी जंग में सबसे नया किंतु सबसे प्रभावी नाम हैं। उन्होंने जिस तरह केजरीवाल पर व्यक्तिगत हमला किया, वह बताता है कि पार्टी में कुछ भी बेहतर नहीं चल रहा है। एक नई पार्टी जिसने एक नई राजनीति और नई संभावनाओं का अहसास कराया था, उसने बहुत कम समय में खासा निराश किया है। आम आदमी पार्टी का संकट यह है कि वह अपने परिवार में पैदा हो रहे संकटों के लिए भी भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रही है। जबकि भाजपा एक प्रतिद्वंदी दल है और उससे किसी राहत की उम्मीद आप को क्यों करनी चाहिए। मुंह खोलते ही आप के नेता प्रधानमंत्री को कोसना शुरू कर देते हैं। भारत जैसे देश में जहां संघीय संरचना है वहां यह बहुत संभव है कि राज्य व केंद्र में अलग-अलग सरकारें हों। उनकी विचारधाराएं अलग-अलग हों। किंतु ये सरकारें समन्वय से काम करती हैं, एक दूसरे के खिलाफ सिर्फ तलवारें ही नहीं भांजतीं। ऐसा लगता है जैसे दिल्ली में पहली बार कोई सरकार बनी हो। सरकार बनाकर और अभूतपूर्व बहुमत लाकर निश्चित ही अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम ने एक ऐतिहासिक काम किया था। किंतु सरकार भी ठीक से चलाकर भी दिखाते तो उससे वे इतिहासपुरूष बन सकते थे। एक राज्य को संभालने की क्षमता प्रदर्शित किए बिना वे प्रधानमंत्री बनने का स्वप्न देखते हैं। जबकि जिस नरेंद्र मोदी को सुबह-शाम वे कोसते हैं वे भी गुजरात में तीन बार लगातार बेहतर सरकार चलाने के ट्रैक रिकार्ड के चलते दिल्ली पहुंचे हैं। ऐसे में सिर्फ आलोचना के लिए आलोचना का काम आम आदमी पार्टी को नित नए विवादों में फंसा रहा है। अब तक वे अन्य दलों के सारे नेताओं को चोर और बेईमान कहने की सुविधा से लैस थे, किंतु अब उनके अपने ही उनकी नीयत पर शक कर रहे हैं। जिन पत्थरों से आम आदमी पार्टी ने दूसरे दलों के नेताओं को घायल किया था, वही पत्थर अब उनकी ओर हैं।
     नितिन गडकरी जैसे अनेक नेताओं के खिलाफ आरोप और बाद में माफी मांग लेना का चलन बताता है कि आम आदमी पार्टी को मीडिया का इस्तेमाल आता है। लेकिन यह भी मानना होगा कि समाज बहुत बड़ा और मीडिया उसका बहुत छोटा हिस्सा है। जनमत को साधने के लिए एक बार झूठ काम आ सकता है किंतु बार-बार सफलताओं के लिए आपको विश्वसनीयता कायम करनी पड़ती है। आज की तारीख में आम आदमी पार्टी विश्वसनीयता के सबसे निचले तल पर है। अरविंद केजरीवाल कभी उम्मीदों का चेहरा था। हिंदुस्तान की आकाक्षांओं के प्रतीक थे, भ्रष्टाचार के विरूध्द एक प्रखर हस्तक्षेप थे, आज वे निराश करते नजर आते हैं। यह निराशा भी बहुत गहरी है और उजास कहीं नजर नहीं आती। अपने आंदोलनकारी तेवरों से वे जनता के दिलों में बहुत जल्दी जगह बना सके। शायद इसका कारण यह था कि वे दिल्ली में आंदोलन कर रहे थे और ऐसे समय में कर रहे थे , जब सोशल मीडिया और टीवी मीडिया की विपुल उपस्थिति के चलते व्यक्ति रातोंरात स्थापित हो सकता है। उनके दिखाए सपनों और वादों के आधार अनेक युवा अपना कैरियर छोड़कर उनके साथ वालंटियर के रूप में मैदान में उतरे। उन सबके साझा प्रयासों ने दिल्ली में उन्हें सत्ता दिलाई। किंतु अपने अहंकार, संवादहीनता और नौकरशाही अकड़ से उन्होंने अपने परिवार को बहुत जल्दी बिखेर दिया। उनके प्रारंभिक अनेक साथी आज अनेक दलों में जा चुके हैं। आंदोलन के मूल नायक अन्ना हजारे उनसे मिलना पसंद नहीं करते। ये उदाहरण बताते हैं कि आंदोलन खड़ा करना और उसे परिणाम तक ले जाना दो अलग-अलग बातें हैं। एक संगठन को खड़ा करना और अपने कार्यकर्ताओं में समन्वय बनाए रखना सरल नहीं होता।

    आम आदमी पार्टी जो एक वैकल्पिक राजनीति का माडल बन सकती थी, आज निराश करती नजर आ रही है। यह निराशा उसके चाहने वालों में तो है ही, देश के बौद्धिक वर्गों में भी है। लोकतंत्र इन्हीं विविधताओं और सक्रिय हस्तक्षेपों से सार्थक व जीवंत होता है। आम आदमी पार्टी में वह उर्जा थी कि वह अपनी व्यापक प्रश्नाकुलता से देश की सत्ता के सामने असुविधाजनक सवाल उठा सके। उनकी युवा टीम प्रभावित करती है। उनकी काम करने की शैली, सोशल मीडिया से लेकर परंपरागत माध्यमों के इस्तेमाल में उनकी सिद्धता, भ्रष्टाचार के विरूध्द रहने का आश्वासन लोगों में आप के प्रति मोह जगाता था। वह सपना बहुत कम समय में धराशाही होता दिख रहा है। सिर्फ एक आदमी की महत्वाकांक्षा, उसके अंहकार, टीम को लेकर न चल सकने की समस्या ने आम आदमी पार्टी को चौराहे पर ला खड़ा किया है। दल का अनुशासन तार-तार है। पहले दूसरे दलों और नेताओं की हर बात को मीडिया के माध्यम से सामने लाने वाले आम आदमी पार्टी के नेता अब अपनी सामान्य दलगत समस्याओं को भी टीवी पर तय करने लगे हैं। ऐसे में दल के कार्यकर्ताओं में गलत संदेश जा रहा है। ऐसे में वे कहते रहे हैं कि यह भाजपा करवा रही है। जबकि अपने दल में अनुशासन और संवाद कायम करना आम आदमी पार्टी के नेताओं का काम है। यह काम भाजपा का नहीं है। आम आदमी पार्टी में मची घमासान राजनीतिक दलों के लिए सबक भी है कि सिर्फ  चुनावी सफलताओं से मुगालते में आ जाना ठीक नहीं है। अंततः आपको लोगों से संवाद बनाए रखना होता है। दल हो या परिवार समन्वय, संवाद और सहकार से ही चलते हैं, अहंकार-संवादहीनता और दुर्व्यवहार से नहीं। आज की राजनीति के शासकों को चाहिए कि राजा की तरह नहीं, समन्वयवादी राजनेता की आचरण करें। अरविंद केजरीवाल के पास अभी भी आयु और समय दोनों है, पर सवाल यह है कि वे क्या चीजों के लिए खुद को जिम्मेदार मानते हैं या नहीं। या केजरीवाल को यही लगता है कि उनकी सरकार, संगठन में सब जगह उन्हें नरेंद्र मोदी के लोगों ने घेर रखा है। राजनीति सच को स्वीकारने और सुधार करने  से आगे ही बढ़ती है, पर क्या वे इसके लिए तैयार हैं?

सोमवार, 1 मई 2017

कश्मीरः ये आग कब बुझेगी ?


-संजय द्विवेदी

 कश्मीर में जो कुछ हो रहा है उसे देखकर नहीं लगता कि आग जल्दी बुझेगी। राजनीतिक नेतृत्व की नाकामियों के बीच, सेना के भरोसे बैठे देश से आखिर आप क्या उम्मीद पाल सकते हैं? भारत के साथ रहने की कीमत कश्मीर घाटी के नेताओं को चाहिए और मिल भी रही है, पर क्या वे पत्थर उठाए हाथों पर नैतिक नियंत्रण रखते हैं यह एक बड़ा सवाल है। भारतीय सुरक्षाबलों के बंदूक थामे हाथ सहमे से खड़े हैं और पत्थरबाज ज्यादा ताकतवर दिखने लगे हैं।
   यह वक्त ही है कि कश्मीर को ठीक कर देने और इतिहास की गलतियों के लिए कांग्रेस को दोषी ठहराने वाले आज सत्ता में हैं। प्रदेश और देश में भाजपा की सरकार है, पर हालात बेकाबू हैं। समय का चक्र घूम चुका है। जहां हुए बलिदान मुखर्जी वह कश्मीर हमारा है का नारा लगाती भाजपा देश की केंद्रीय सत्ता में काबिज हो चुकी है। प्रदेश में भी वह लगभग बराबर की पार्टनर है। लेकिन कांग्रेस कहां हैइतिहास की इस करवट में कांग्रेस की प्रतिक्रियाएं भी नदारद हैं। फारूख अब्दुल्ला को ये पत्थरबाज देशभक्त दिख रहे हैं। आखिर इस देश की राजनीति इतनी बेबस और लाचार क्यों है। क्यों हम साफ्ट स्टेट का तमगा लगाए अपने सीने को छलनी होने दे रहे हैं। कश्मीर में भारत के विलय को ना मानने वाली ताकतें, भारतीय संविधान और देश की अस्मिता को निरंतर चुनौती दे रही हैं और हम इन घटनाओं को सामान्य घटनाएं मानकर चुप हैं। जम्मू, लद्दाख, लेह के लोगों की राष्ट्रनिष्ठा पर, घाटी के चंद पाकिस्तानपरस्तों की आवाज ऊंची और भारी है। भारतीय मीडिया भी उन्हीं की सुन रहा है, जिनके हाथों में पत्थर है। उसे लेह-लद्दाख और जम्मू के दर्द की खबर नहीं है। अपनी जिंदगी को जोखिम में डालकर देश के लिए पग-पग पर खड़े जवान ही पत्थरबाजों का निशाना हैं। ये पत्थरबाज तब कहां गायब हो जाते हैं, जब आपदाएं आती हैं, बाढ़ आती है। भारतीय सेना की उदारता और उसके धीरज को चुनौती देते ये युवा गुमराह हैं या एक बड़ी साजिश के उत्पाद, कहना कठिन है। दरअसल हम कश्मीर में सिर्फ आजादी के दीवानों से मुकाबिल नहीं हैं बल्कि हमारी जंग उस वैश्विक इस्लामी आतंकवाद से भी जिसकी शिकार आज पूरी दुनिया है। हमें कहते हुए दर्द होता है पर यह स्वीकारना पड़ेगा कि कश्मीर के इस्लामीकरण के चलते यह संकट गहरा हुआ है। यह जंग सिर्फ कश्मीर के युवाओं की बेरोजगारी, उनकी शिक्षा को लेकर नहीं है-यह लड़ाई उस भारतीय राज्य और उसकी हिंदू आबादी से भी है। अगर ऐसा नहीं होता कि कश्मीरी पंडित निशाने पर नहीं होते। उन्हें घाटी छोड़ने के लिए विवश करना किस कश्मीरियत की जंग थी? क्या वे किसी कश्मीरी मुसलमान से कश्मीरी थे? लेकिन उनकी पूजा-पद्धति अलग थी? वे कश्मीर को एक इस्लामी राज्य बनने के लिए बड़ी बाधा थे। इसलिए इलाके का पिछड़ापन, बेरोजगारी, शिक्षा जैसे सवालों से अलग भी एक बहस है जो निष्कर्ष पर पहुंचनी चाहिए। क्या संख्या में कम होने पर किसी अलग समाज को किसी खास इलाके में रहने का हक नहीं होना चाहिए? दुनिया भर के लोकतांत्रिक देशों में मानवाधिकारों और बराबरी के हक की बात करने वाले इस्लाम मतावलंबियों को यह सोचना होगा कि उनके इस्लामी राज में किसी अन्य विचार के लिए कितनी जगह है? कश्मीर इस बात का उदाहरण है कि कैसे अन्य मतावलंबियों को वहां से साजिशन बाहर किया गया। यह देश की धर्मनिरपेक्षता, उसके सामाजिक ताने-बाने को तार-तार करने की साजिश है। कश्मीर का भारत के साथ होना दरअसल द्विराष्ट्रवाद की थ्यौरी को गलत साबित करता है। अगर हिंदुस्तान के मुसलमान पहले भारतीय हैं, तो उन्हें हर कीमत पर इस जंग में भारतीय पक्ष में दिखना होगा। हिंदुस्तानी मुसलमान इस बात को जानते हैं कि एक नयी और बेहतर दुनिया के सपने के साथ बना पाकिस्तान आज कहां खड़ा है। वहां के नागरिकों की जिंदगी किस तरह हिंदुस्तानियों से अलग है। जाहिर तौर पर हमें पाकिस्तान की विफलता से सीखना है। हमें एक ऐसा हिंदुस्तान बनाना है, जहां उसका संविधान सर्वोच्च और बाकी पहचानें उसके बाद होगीं। एक पांथिक राज्य में होना दरअसल मनुष्यता के तल से बहुत नीचे गिर जाना है।
   कश्मीर को एक पांथिक राज में बदलने में लगी ताकतों का संघर्ष दरअसल मानवता से भी है। यह जंग मानवता और पंथ-राज्य के बीच है। भारत के साथ होना दरअसल एक वैश्विक मानवीय परंपरा के साथ होना है। उस विचार के साथ होना है जो मनुष्य-मनुष्य में भेद नहीं करती, भले उसकी पूजा-पद्धति कुछ भी हो। कश्मीर का दर्द दरअसल मानवता का भी दर्द है, लाखों विस्थापितों का दर्द है, जलावतन कश्मीरी पंडितों का दर्द है। कश्मीर की घरती पर रोज गिरता खून आचार्य अभिनव गुप्त और शैव आचार्यों की माटी को रोज प्रश्नों से घेरता है। सूफी विद्वानों की यह माटी आज अपने दर्द से बेजार है। दुनिया को रास्ता दिखाने वाले विद्वानों की धरती पर मचा कत्लेआम दरअसल एक सवाल की तरह सामने है। आजादी के सत्तर साल बाद भी हम एक नादान पड़ोसी की हरकतों के चलते अपने नौजवानों को रोज खो रहे हैं। दर्द बड़ा और पुराना हो चुका है। इस दर्द की दवा भी वक्त करेगा। किंतु राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना यह कब तक हो पाएगा, कहना कठिन है।

शनिवार, 15 अप्रैल 2017

कश्मीर में सरकार आपकी पर ‘राज’ किसका?

-संजय द्विवेदी

  कश्मीर में सुरक्षा बलों की दुर्दशा और अपमान के जो चित्र वायरल हो रहे हैं, उससे हर हिंदुस्तानी का मन व्यथित है। एक जमाने में कश्मीर को लेकर हुंकारे भरने वाले समूह भी खामोश हैं। ऐसे में यह सवाल पूछने का मन हो रहा है कि कश्मीर में सरकार तो आपकी है पर राज किसका है ? कश्मीर एक ऐसी अंतहीन आग में जल रहा है जो हमारे प्रथम प्रधानमंत्री की नादानियों की वजह से एक नासूर बन चुका है। तब से लेकर आजतक सारा देश कश्मीर को कभी बेबसी और कभी लाचारी से देख रहा है।
  नीतियों में स्पष्टता न होने के कारण हम वहां एक सरकार बनाकर खुश हो लेते हैं, जबकि वहां पर राजलंबे अरसे से कुछ अराजक ताकतें ही कर रही हैं। कश्मीर घाटी के कुछ इलाकों में देशद्रोही जमातों की मिजाजपुर्सी में हमारी सरकारें लेह-लद्दाख, जम्मू की उपेक्षा तक करती आ रही हैं। सच्चाई तो यह है कि घाटी के चंद उपद्रवी तत्वों को भारत के साथ बने रहने की हम लंबी कीमत दे रहे हैं। जबकि देशभक्ति की भावना से भरा समाज यहां प्रताड़ित हो रहा है।
     देशद्रोही मानसिकता के लोगों को पालपोसकर हमने वहां राष्ट्रीय मन के समाज के निरंतर आहत किया है। जबकि जिनके हाथ कश्मीरी पंडितों के खून से रंगें हैं, उन्हें पालकर हम क्या हासिल कर हैं? अब जबकि घाटी लगभग हिंदू विहीन है तब वे किससे और क्यों लड़ रहे हैं ? हिंदुओं के वीरान पड़े घर, मंदिर और देवालय हमें बता रहे हैं कि इस जमीन कैसा खूरेंजी खेल गया है। आज उन्हीं दहशतगर्दों की हरकतें इतनी कि वे हमारे सुरक्षा बलों पर भी पत्थर बरसाने से लेकर लात मारने की कार्रवाई कर रहे हैं। शायद ही कोई देश हो जो ऐसे समय में अपने सुरक्षाबलों को संयम की सलाह दे। संयम और नियम आम जनता के लिए होते हैं या पेशेवर आतंकियों के लिए? यह हमें सोचना होगा। भारत का मान बचाने वाली सेना या केंद्रीय बलों के नौजवान अगर अपनी ही घरती पर अपमानित हो रहे हैं तो हम रहम क्यों कर रहे हैं? संयम की सलाह सेना और सुरक्षा बलों को ही क्यों दी जा रही है? भाड़े के टट्टू पाकिस्तान परस्ती पर अपनी ही सेना पर पत्थर बरसा रहे हैं, आतंकियों को भाग निकलने के लिए अवसर दे रहे हैं। कश्मीर पर खर्च हो रहे देश के करोड़ों रूपयों का मतलब क्या है? अगर वे खुद अपनी जिंदगी जहन्नुम बनाए रखना चाहते हैं तो सरकार क्या कर सकती है? लेकिन इतना तय है कि देश की सरकार को कश्मीर के लिए कोई निर्णायक कदम उठाना होगा। इसका पहला समाधान तो यही है कश्मीर में निरंतर हस्तक्षेप कर रहे पाकिस्तान को पूंछ को सीधा करने के लिए बलूचिस्तान, सिंध और पाकअधिकृत कश्मीर हो रहे मानवाधिकार के दमन को  लेकर दबाव बनाया जाए। बलूचिस्तान को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा और मान्यता देने की पहल हो सकती है और अपेक्षित साहस दिखाते हुए बलूस्चितानी निर्वासित नेताओं को भारत में शरण देने की पहल भी की जा सकती है। संस्कृत में एक वाक्य है शठे शाठ्यं समाचरेत्। यानि दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए। हम पाकिस्तानी के प्रति कितने भी सदाशयी हो जाएं ,वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आ सकता। कुलभूषण जाधव का प्रसंग इसका साफ उदाहरण है। बावजूद इसके हम फिल्में दिखाने, क्रिकेट खेलने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसे मूर्खताओं से जेहादी आतंकवाद का सामना करने का सपना देख रहे हैं।
  आज जबकि कश्मीर घाटी में किराए के टट्टूओं ने पूरी कश्मीर के वातावरण को बिगाड़ रखा तब हमें सोचना होगा कि आखिर हमारी रणनीति में ऐसी क्या खामी है कि हम अपने ही घर में पिट रहे है। भारत को इस समय अपेक्षित आक्रामकता दिखानी ही होगी। खेल का मैदान बदलना होगा। हमारी जमीन पर रोज हो रही लीला बंद होनी चाहिए। अब जमीन और जंग का मैदान दोनों बदलने का समय है। हम हिंदुस्तानी मन लेकर पाकिस्तानी पापों का प्रतिरोध नहीं कर सकते। इसलिए ये घटनाएं सबक भी हैं और संकेत भी। इसके साथ ही वहां आतंक का प्रसार कर रहे तत्वों और गिलानी समर्थक समूहों की आर्थिक शक्ति को भी तबाह करने का समय है। क्योंकि ये तत्व पूरी घाटी के चेहरे बने हुए हैं। इनकी शक्ति को तोड़ने और इनके अर्थतंत्र को तबाह करने की जरूरत है। घाटी में लगातार बंद और हड़तालों से आगे अब इनके लोग स्कूलों पर हमले कर रहे हैं। स्कूलों को तबाह कर रहे हैं। यह बात बताती है कि इनके इरादे क्या हैं। हमें सोचना होगा कि कश्मीरी युवाओं को शिक्षा और रोजगार के मार्ग से भटका कर उन्हें किस स्वर्ग के सपने दिखाए जा रहे हैं? आखिर पाकिस्तान कश्मीर को पाकर कौन सा स्वर्ग वहां रचेगा, जबकि उसके कब्जे वाला कश्मीर किस तरह मुफलिसी और तबाही का शिकार है। जाहिर तौर पर पाकिस्तान की कोशिश कश्मीर को अशांत रखकर भारत की प्रगति और उसकी एकता को तोड़ने की है। अब यह मामला बहुत आगे बढ़ चुका है। सात दशकों की पीड़ा को समाप्त करने का समय अब आ गया है। केंद्र की सरकार को बहुत सधे हुए कदमों से आगे बढ़ना होगा ताकि कश्मीर का संकट हल हो सके। उसके शेष भागों लेह, लद्दाख और जम्मू का विकास हो सके। अकेली घाटी के कुछ इलाकों की अशांति के नाते समूचे जम्मू-कश्मीर राज्य की प्रगति को रोका नहीं जा सकता। धारा-370 को हटाने सहित अनेक प्रश्न जुड़े हैं, जिनसे हमें जूझना होगा।

   घाटी के गुमराह नौजवानों को भी यह समझाने की जरूरत है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। पाकिस्तान और आईएस के झंडे दिखा रही ताकतों को जानना होगा कि भारत के संयम को उसकी कमजोरी न समझा जाए। इतनी लंबी जंग लड़कर पाकिस्तान को हासिल क्या हुआ है, उसे भी सोचना चाहिए। दुनिया बदल रही है। लड़ाई बदल रही है। कश्मीर घाटी में लोकतंत्र की विरोधी शक्तियां भी पराभूत होगीं, इसमें दो राय नहीं। राजनीति के कारण नहीं, देश की जनता के कारण। केंद्र में कोई भी सरकार रही हो सबने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानकर, उसे अपना माना है। इसलिए देश को तोड़ने का यह दुःस्वप्न कभी फलीभूत नहीं होगा। कश्मीर घाटी के उपद्रवी और सीमा पार बैठे उनके दोस्त, इस सच को जितनी जल्दी समझ जाएं बेहतर होगा।

सोमवार, 27 मार्च 2017

वैचारिक आत्मदैन्य से बाहर आती भाजपा

-संजय द्विवेदी

  उत्तर प्रदेश अरसे बाद एक ऐसे मुख्यमंत्री से रूबरू है, जिसे राजनीति के मैदान में बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था। उनके बारे में यह ख्यात था कि वे एक खास वर्ग की राजनीति करते हैं और भारतीय जनता पार्टी भी उनकी राजनीतिक शैली से पूरी तरह सहमत नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भारी विजय के बाद भाजपा ने जिस तरह का भरोसा जताते हुए राज्य का ताज योगी आदित्यनाथ को पहनाया है, उससे पता चलता है कि अपनी राजनीति के प्रति भाजपा का आत्मदैन्य कम हो रहा है।
   भाजपा का आज तक का ट्रैक हिंदुत्व का वैचारिक और राजनीतिक इस्तेमाल कर सत्ता में आने का रहा है। देश की राजनीति में चल रहे विमर्श में भाजपा बड़ी चतुराई से इस कार्ड का इस्तेमाल तो करती थी, किंतु उसके नेतृत्व में इसे लेकर एक हिचक बनी रहती थी। वो हिचक अटल जी से लेकर आडवानी तक हर दौर में दिखी है। भाजपा का हर नेता सत्ता पाने के बाद यह साबित करने में लगा रहता है वह अन्य दलों के नेताओं के कम सेकुलर नहीं है।
  उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ परिघटना दरअसल भाजपा की वैचारिक हीनग्रंथि से मुक्ति को स्थापित करती नजर आती है। नरेंद्र मोदी के राज्यारोहण के बाद योगी आदित्यनाथ का उदय भारतीय राजनीति में एक अलग किस्म की राजनीति की स्वीकृति का प्रतीक है। एक धर्मप्राण देश में धार्मिक प्रतीकों, भगवा रंग, सन्यासियों के प्रति जैसी विरक्ति मुख्यधारा की राजनीति में दिखती थी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। भाजपा जैसे दल भी इस सेकुलर विकार से कम ग्रस्त न थे। धर्म और धर्माचार्यों का इस्तेमाल, धार्मिक आस्था का दोहन और सत्ता पाते ही सभी धार्मिक प्रतीकों से मुक्ति लेकर सारी राजनीति सिर्फ तुष्टीकरण में लग जाती थी। प्रधानमंत्रियों समेत जाने कितने सत्ताधीशों के ताज जामा मस्जिद में झुके होगें, लेकिन हिंदुत्व के प्रति उनकी हिचक निरंतर थी।  
  यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं की एक समय में दीनदयाल जी उदार थे, तो अटलजी और बलराज मधोक अपनी वक्रता के चलते उग्र नेता माने जाते थे। अटलजी का दौर आया तो लालकृष्ण आडवाणी उग्र कहे जाने लगे, फिर एक समय ऐसा भी आया जब आडवानी उदार हो गए और नरेंद्र मोदी उग्र मान जाने लगे। आज की व्याख्याएं सुनें- नरेंद्र मोदी उदार हो गए हैं और योगी आदित्यनाथ उग्र  माने जाने लगे हैं। यह मीडिया, बौद्धिकों की अपनी रोज बनाई जाती व्याख्याएं हैं। लेकिन सच यह है कि अटल, मधोक, आडवानी, मोदी या आदित्यनाथ कोई अलग-अलग लोग नहीं है। एक विचार के प्रति समर्पित राष्ट्रनायकों की सूची है यह। इसमें कोई कम जा ज्यादा उदार या कठोर नहीं है। किंतु भारतीय राजनीति का विमर्श  ऐसा है जिसमें वास्तविकता से अधिक ड्रामे पर भरोसा है। भारतीय राजनेता की मजबूरी है कि वह टोपी पहने, रोजा भले न रखे किंतु इफ्तार की दावतें दे। आप ध्यान दें सरकारी स्तर पर यह प्रहसन लंबे समय से जारी है। भाजपा भी इसी राजनीतिक क्षेत्र में काम करती है। उसमें भी इस तरह के रोग हैं। वह भी राष्ट्रनीति के साथ थोड़े तुष्टिकरण को गलत नहीं मानती। जबकि उसका अपना नारा रहा है सबको न्याय, तुष्टिकरण किसी का नहीं। उसका एक नारा यह भी रहा है-राम, रोटी और इंसाफ।
  लंबे समय के बाद भाजपा में अपनी वैचारिक लाइन को लेकर गर्व का बोध दिख रहा है। असरे बाद वे भारतीय राजनीति के सेकुलर संक्रमण से मुक्त होकर अपनी वैचारिक भूमि पर गरिमा के साथ खड़े दिख रहे हैं। समझौतों और आत्मसमर्पण की मुद्राओं के बजाए उनमें अपनी वैचारिक भूमि के प्रति हीनताग्रंथि के भाव कम हुए हैं। अब वे अन्य दलों की नकल के बजाए एक वैचारिक लाइन लेते हुए दिख रहे हैं। दिखावटी सेकुलरिज्म के बजाए वास्तविक राष्ट्रीयता के उनमें दर्शन हो रहे हैं। मोदी जब एक सौ पचीस करोड़ हिंदुस्तानियों की बात करते हैं तो बात अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक से ऊपर चली जाती है। यहां देश सम्मानित होता है, एक नई राजनीति का प्रारंभ दिखता है। एक भगवाधारी सन्यासी जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठता है तो वह एक नया संदेश देता है। वह संदेश त्याग का है, परिवारवाद के विरोध का है, तुष्टिकरण के विरोध का है, सबको न्याय का है।
   आजादी के बाद के सत्तर सालों में देश की राजनीति का विमर्श भारतीयता और उसकी जड़ों की तरफ लौटने के बजाए घोर पश्चिमी और वामपंथी रह गया था। जबकि बेहतर होता कि आजादी के बाद हम अपनी ज्ञान परंपरा की और लौटते और अपनी जड़ों को मजबूत बनाते। किंतु सत्ता,शिक्षा, समाज और राजनीति में हमने पश्चिमी तो, कहीं वामपंथी विचारों के आधार पर चीजें खड़ी कीं। इसके कारण हमारा अपने समाज से ही रिश्ता कटता चला गया। सत्ता और जनता की दूरी और बढ़ गयी। सत्ता दाता बन बैठी और जनता याचक।  सेवक मालिक बन गए। ऐसे में लोकतंत्र एक छद्म लोकतंत्र बन गया। यह लोकतंत्र की विफलता ही है कि हम सत्तर साल के बाद सड़कें बना रहे हैं। यह लोकतंत्र की विफलता ही है कि हमारे अपने नौजवानों ने भारतीय राज्य के खिलाफ बंदूकें उठा रखी हैं। लोकतंत्र की विफलता की ये कहानियां सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं। राजनीतिक तंत्र के प्रति उठा भरोसा भी साधारण नहीं है।

   बावजूद इसके 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम एक उम्मीद का अवतरण भी हैं। वे आशाओं, उम्मीदों से उपजे परिणाम हैं। नरेंद्र मोदी, आदित्यनाथ इन्हीं उम्मीदों  के चेहरे हैं। दोनों अंग्रेजी नहीं बोलते। दोनों जन-मन-गण के प्रतिनिधि है। यह भारतीय राजनीति का बदलता हुआ चेहरा है। क्या सच में भारत खुद को पहचान रहा है ? वह जातियों, पंथों, क्षेत्रों की पहचान से अलग एक बड़ी पहचान से जुड़ रहा है- वह पहचान है भारतीय होना, राष्ट्रीय होना। एक समय में राजनीति हमें नाउम्मीद करती हुयी नजर आती थी। बदले समय में वह उम्मीद जगा रही है। कुछ चेहरे ऐसे हैं जो भरोसा जगाते हैं। एक आकांक्षावान भारत बनता हुआ दिखता है। यह आकांक्षाएं राजनीति दलों के एजेंडे से जुड़ पाएं तो देश जल्दी और बेहतर बनेगा। राजनीतिक विमर्श और जनविमर्श को साथ लाने की कवायद हमें करनी ही होगी। जल्दी बहुत जल्दी। यह जितना और जितना जल्दी होगा भारत अपने भाग्य पर इठलाता दिखेगा।

शनिवार, 11 मार्च 2017

भारतीय राजनीति का ‘मोदी समय’

चुनावों का संदेशः अपनी रणनीति पर विचार करे विपक्ष
-संजय द्विवेदी


    सही मायनों में यह भारतीय राजनीति का मोदी समय है। नरेंद्र मोदी हमारे समय की ऐसी परिघटना बन गए हैं, जिनसे निपटने के हथियार हाल-फिलहाल विपक्ष के पास नहीं हैं। अपनी सारी कलाबाजियों के बावजूद उत्तर प्रदेश में यादव परिवार और बसपा को समेट कर जो ऐतिहासिक जीत भाजपा ने दर्ज की है, वह अटल-आडवानी-कल्याण युग पर भारी है।
  उत्तर प्रदेश के राजनीतिक तौर पर बेहद जागरूक मतदाता सही मायनों में वहां फैली अराजकता, विकास विरोधी व जातिवादी राजनीति से त्रस्त हैं, इसलिए वे पिछले तीन विधानसभा चुनावों से किसी भी दल को संपूर्ण शक्ति देते हैं और इस बार यह मौका भाजपा को मिला है। इसके पहले बसपा और सपा क्रमशः वहां पूर्ण बहुमत की सरकारें बना चुके हैं। यह बात बताती है कि उत्तर प्रदेश के लोगों में कैसी बेचैनी है और वे किस तरह अपने राज्य को बदलते हुए देखना चाहते हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में यह जनमत मोदी के पक्ष में आ चुका है, वह अभी भी अडिग है, और उनके साथ है। सही मायने में अब परीक्षा भाजपा की है कि वह इस जनमत पर खरे उतरने के लिए हर जतन करे।
भाजपा का स्वर्णयुगः
    राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए यह समय वास्तव में स्वर्णयुग है, जबकि पूर्वांचल के असम में सरकार बनाकर उसने एक कीर्तिमान रच दिया। हरियाणा भी इसकी एक मिसाल है, जहां पहली बार भाजपा की अकेले दम पर सरकार बनी है। मणिपुर जैसे राज्य में उसके विधायक चुने गए हैं। ऐसे कठिन राज्यों में जीत रही भाजपा सही मायनों में अपने भौगोलिक विस्तार के रोज नए क्षितिज छू रही है। भाजपा और संघ परिवार को ये अवसर यूं ही नहीं मिले हैं। इसके लिए अपने वैचारिक अधिष्ठान पर खड़े होकर उन्होंने लंबी तैयारी की है। उत्तर प्रदेश के चुनाव इस अर्थ में खास हैं, क्योंकि भाजपा ने यह चुनाव विकास और सुशासन के नाम पर लड़ा। सांप्रदायिकता के आरोप लगाने वालों के पास बस यही तर्क था कि भाजपा ने किसी मुस्लिम को मैदान में नहीं उतारा। जाहिर तौर पर लोग इस तरह की राजनीति से तंग आ चुके हैं।
जातिवादी राजनीति के बुरे दिनः
   जातिवादी-सांप्रदायिक राजनीति के दिन अब लद चुके हैं। उत्तराखंड से लेकर पंजाब तक का यही संदेश है। पंजाब की अकाली सरकार भी लंबे समय से सरकारविहीनता और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी थी। ऐसे में भाजपा के साथ के बाद भी वे हारे और यह अच्छे संकेत हैं। इसी तरह उत्तराखंड से हरीश रावत सरकार की विदाई भी ऐसे ही संकेत देती है। खुद हरीश रावत का मुख्यमंत्री होते हुए, दोनों सीटों से हारना जनता के गुस्से का ही प्रकटीकरण है। परिर्वतन की यह राजनीति सार्थक बदलाव की वाहक भी बने, इस पर सर्तक नजर रखनी होगी।
   नरेंद्र मोदी दरअसल इस विजय के असली नायक और योद्धा हैं, उन्होंने मैदान पर उतर एक सेनापति की भांति न सिर्फ नेतृत्व दिया बल्कि अपने बिखरे परिवार को एकजुटकर मैदान में झोंक दिया। यह साधारण था कि उन पर तमाम आरोप लगे कि वे प्रधानमंत्री पद की मर्यादा को लांघ रहे हैं, पर उन्होंने अपेक्षित परिणाम लाकर अपने विरोधियों को लंबे समय के लिए खामोश कर दिया है। अब विपक्ष को उनके विरोध के नए हथियार और नए नारे खोजने होंगे। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम न सिर्फ चौंकाने वाले हैं बल्कि इसका अहसास भाजपा के स्थानीय नेताओं को भी नहीं था। वे आपसी जंग में इतने मशगूल थे कि उन्हें जनता के बीच चल रही हलचलों का अहसास ही नहीं था।
बसपा करे अपनी राजनीतिक शैली पर  पुनर्विचारः
उत्तर प्रदेश के इस परिणाम के दो असर और हैं, जिन्हें रेखांकित किया जाना चाहिए। 2014 के चुनाव में एक भी लोकसभा सीट न जीत सकी बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता को अपनी राजनीतिक शैली पर पुनर्विचार करना होगा। वरना वह इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाएगी। मायावती ने जिस तरह अपने दल में अपनी तानाशाही चलाई और नए नेतृत्व को उभरने से रोका इस कारण उसके पास नेतृत्व का खासा अभाव है। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने जहां जमीनी संपर्क और अपनी अलग शैली से नए वोटरों को लुभाने का काम किया और नए नेतृत्व को पार्टी में एक बड़ी लड़ाई लड़कर भी सामने ला दिया है, वह करिश्मा भी मायावती नहीं कर सकीं । अखिलेश के साथ अभी एक लंबी आयु है और वे अपने पिता की छाया से बाहर आ चुके हैं। मायावती के पास यह अवसर भी सीमित हैं। ऐसे में बसपा को गंभीरतापूर्वक अपनी भावी राजनीति पर विचार करना होगा।
      उत्तर प्रदेश का मुख्य विपक्षी दल बन चुकी समाजवादी पार्टी के लिए यह चुनाव एक चेतावनी भी हैं और सबक भी। उन्हें इसके संदेश पढ़कर सावधानी से अपने संगठन को बनाना और संवारना होगा। एक सार्थक प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वहन करते हुए भाजपा सरकार पर दबाव बनाए रखना होगा। अखिलेश यादव को यह मानना होगा कि उनकी अच्छी छवि, युवा चेहरे के बाद भी सपा के अराजक शासन, गुंडागर्दी से लोग तंग थे, जिसका परिणाम उनके दल को मिला है। ऐसे में अपनी पार्टी की शैली बदलने और कार्यकर्ताओं को अनुशासित करने के लिए उन्हें लंबे जतन करने होगें।
  सपनों को सच करने की जिम्मेदारीः

 इस समूचे परिदृश्य में उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत ने उसके लिए चुनौतियां बहुत बढ़ा दी हैं। अब केंद्र और राज्य में सरकार होने के कारण उन्हें उत्तर प्रदेश में कुछ सार्थक काम करके दिखाना होगा। प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में जिस तरह अपनी प्रतिष्ठा लगाई है, उसके नाते उनकी जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी है। उत्तर प्रदेश की जनता ने अरसे बाद भाजपा को राज्य की सत्ता सौंपी है। भाजपा को इस भरोसे को बचाए और बनाए रखना होगा। यह वोट सही मायने में विकास, सुशासन और गरीबों के हितवर्धन के लिए है। उत्तर प्रदेश ने सबको मौका दिया है, उसे सबने निराश किया है। पिछले तीन बार से बसपा, सपा से होता हुआ यह अवसर खुद भाजपा के पास आया है। यह मौका उत्तर प्रदेश की जनता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आश्वासन पर दिया है। ऐसे में भाजपा और उसके नए शासकों का कर्त्तव्य है कि वे उत्तर प्रदेश के विकास के हर पल का उपयोग करें। अरसे बाद उत्तर प्रदेश फिर ड्राइविंग सीट पर है। ऐसे में उसकी किस्मत कितनी बदलती है, इसे देखना रोचक होगा।

आतंकवाद के विरूद्ध एकजुटता का समय

-संजय द्विवेदी

  देश की आतंरिक सुरक्षा को जिस तरह आतंकवादी संगठनों से लगातार चुनौती मिल रही है, उसमें हमारी एकजुटता, भाईचारा और समझदारी ही हमें बचा सकती है। आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग हटकर अब हमें सोचना होगा कि आखिर हम अपने लोगों को कैसे बचाएं। अब यह कहने का समय नहीं है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, बल्कि हमें राष्ट्रधर्म निभाना होगा। हमारी मातृभूमि हमारे लिए सर्वस्व है और उसके लिए सबकुछ निछावर करने का भाव ही हमें जगाना है।
  देश प्रथम एक नारे की तरह नहीं, बल्कि संकल्प की तरह हमारे जीवन में उतरना चाहिए। हमें देखना होगा कि हम अपने नौजवानों में क्या राष्ट्रीय चेतना का संचार कर रहे हैं या हमने उन्हें दुनिया में बह रही जहरीली हवाओं के सामने झोंक दिया है। इंटरनेट और साइबर मीडिया पर भटकती यह पीढ़ी कहीं देश के दुश्मनों के हाथ में तो नहीं खेल रही है, यह देखना होगा। आईएस जैसे खतरनाक संगठन और तमाम विचारधाराओं द्वारा पोषित देशतोड़क गतिविधियों में शामिल युवा कैसा भारत बनाएगें, यह भी सोचना होगा। आज हमें खतरे के संकेत दिखने लगे हैं। विश्वविद्यालयों में युवाओं की देशविरोधी नारेबाजी के लिए उकसाया जा रहा है तो एक प्रोफेसर को हमने माओवादी संगठनों की मदद करने के आरोप में कोर्ट से सजा मिलते देखा। आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं।
   आज जबकि समूची दुनिया में हिंदुस्तानी गहरे संकट में हैं, तो हमें अपने देश को बचाना ही होगा। जिन्हें जन्नत का सपना दिख रहा है, उन्हें बताना होगा कि ट्रंप द्वारा खदेड़े गए हिंदुस्तानियों को अंततः इसी जमीन पर जगह मिलेगी। इतिहास हमें कई तरह से सिखाता है पर हम सीखते नहीं हैं। आप देखें 1947 में अपना वतन छोड़कर एक सुंदर सपना लेकर जो लोग पाकिस्तान गए थे, वे आज भी वहां मुजाहिर हैं। कराची की गलियां आज भी उनके रक्त से लाल हैं। इसी तरह दुनिया के तमाम देशों में हिंदुस्तानी रहते हैं और वहां के राष्ट्रजीवन में उनका श्रेष्टतम योगदान है। किंतु उनके हर संकट के समय उनकी अंतिम शरणस्थली हिंदुस्तान ही है। यह साधारण सी बात अगर हम समझ जाएं तो हमारे नौजवान किसी आईएस, आईएसआई या माओवादियों के भटकाव भले अभियानों के झांसे में नहीं आएंगे। हम यह भी स्वीकारते हैं कि राजसत्ता के खिलाफ उठने वाली हर आवाज देशद्रोही नहीं है, भारत में लोकतंत्र का होना इसका प्रमाण है। लोकतंत्र की जीवंतता इसी में है कि वहां संवाद और विमर्श निरंतर हों। लेकिन आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न होना, या ऐसे अभियानों को वैचारिक या नैतिक समर्थन देना स्वीकार कैसे किया जा सकता है। राज्य के आतंक के विरूद्ध भी आतंक फैलाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर अनेक ऐसे फोरम हैं जहां जाकर लोगों ने अपने हक हासिल किए हैं। जनांदोलनों से सरकार को झुकाया है, किंतु हथियार उठाना और अपनी बौद्धिकता और तार्कितता से आतंक को महिमामंडित करना ठीक नहीं है।
     देश के बौद्धिक वर्गों की एक बड़ी जिम्मेदारी देश के लोगों के प्रति है। सिर्फ असंतोष को बढ़ाना या समाज में फैली विद्रूपता को ही लक्ष्य कर उसका प्रचार जिम्मेदारी नहीं है। दायित्व है लोगों को न्याय दिलाना, उनकी जिंदगी में फैले अँधेरे को कम करना। बंदूकें पकड़ा कर हम उनकी जिंदगी को और नरक ही बनाते हैं। देश में बस्तर से लेकर कश्मीर और वहां से लेकर पूर्वांचल के कई राज्यों में अनेक हिंसक आंदोलन सक्रिय हैं। पर हम विचार करें कि क्या इससे वास्तव में न्याय हासिल हुआ है। हममें से कई पंथ के आधार पर राज्य व्यवस्था के सपने देखते हैं। पर क्या हमें पता है कि पंथों के आधार पर चलने वाले राज्य सबसे पहले स्वतंत्रता और मनुष्यता का ही गला घोंटते हैं। आज अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप मुस्लिमों के निशाने पर हैं, पर क्या दुनिया के मुस्लिम राष्ट्रों ने अपना चेहरा देखा है? वहां मानवाधिकारों की स्थिति क्या है? इसी तरह वामविचारी मित्रों को लोकतंत्र की कुछ ज्यादा ही चिंता हो आई है। किंतु उनकी अपनी विचारधारा के आधार पर बने और चले देशों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन ही नहीं हुआ, बल्कि विचारधारा के नाम पर खून की होली खेली गई। ऐसे में सबसे ज्यादा चिंता हमें अपने देश और उसके लोकतंत्र को बचाने की होनी चाहिए। समृद्धि और स्वतंत्रता लोकतंत्र में ही साथ-साथ फल-फूल सकते हैं। इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। कोई भी पंथ आधारित राज्य या वामपंथी विचारों के आधार पर खड़ा देश लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा नहीं कर सकता, यह कटु सत्य नहीं है। यह बात तब और साबित होती है जब हमें पता चलता है अरब, ईरान और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम राष्ट्रों में बसने वालों में किस तरह अमरीकी वीजा पाने की ललक है। क्या समृद्धि और धन के लिए नहीं। अगर ऐसा है तो अरब में क्या कमी है? सच तो यह है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन को जीने की आजादी ही लोकतंत्र का मूल्य है, शायद इसलिए अमरीकी वीजा धनी-मानी मुस्लिम देशों के लोगों का सपना है। वो एक ऐसी दुनिया के सपने देखते हैं जहां वे अपनी जिंदगी को बेहतर तरीके से जी सकें। घुट-घुटकर पहरों में जीना कितनी भी समृद्धि के साथ किसे स्वीकार है? एक मनुष्य होने के नाते आरोपित बंधन हमें रास नहीं आते।

   दुनिया के तमाम देशों के बीच भारत एक उम्मीद का चेहरा है। जब दुनिया में खून के दरिया बह रहे हैं तो गौतम बुद्ध, महावीर, नानक की घरती रास्ता दिखाती है। उपनिषद् हमें बताते हैं कि अंतर्यात्रा पर निकलें। मन की यात्रा पर जाएं। खुद का परिष्कार करें। एक बेहतर दुनिया के लिए सुंदर सपनें देखें और उन्हें सच करने के लिए जिंदगी लगा दें। हमने विविधता के साथ जीने और रहने की शक्ति सालों की साधना से अर्जित की है। इसलिए दुनिया के तमाम विचार, पंथ और विविधताएं यहां की जमीन पर आईं और इसकी खुशबू को बढ़ाती रहीं। हजारों फूल खिलने दो, का विचार हमारा ही है। हमने कभी नहीं कहा कि हम ही अंतिम सत्य हैं। जबकि दुनिया में बह रहे खून के पीछे खुद को सबसे बेहतर समझने की समझ है। अब लंबे समय के बाद फिर आतंकवाद का दानव सिर उठाता दिख रहा है। हमारे नौजवान फिर एक जहरीली हवा के प्रभाव में आ रहे हैं। ऐसे कठिन समय में हमें फिर से अपनी राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय मनीषा का पुनर्पाठ करना होगा। देश के हर कोने से राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाली शक्तियों को एक सूत्र में जोड़ना होगा। यह काम सरकार के भरोसे नहीं होगा। लोगों के भरोसे होगा। राजनीति का पंथ अलग है, वे तोड़कर ही अपने लक्ष्य संधान करते हैं। हमें जोड़ने के सूत्र खोजने होंगे। राष्ट्रीय सवालों पर देश एक दिखे, इतनी सी कोशिश भी हमें सुरक्षित रख सकती है। हर खतरे से और हर हमले से।

गुरुवार, 9 मार्च 2017

संजय द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'मीडिया की ओर देखती स्त्री' का लोकार्पण




भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी द्वारा संपादित किताब 'मीडिया की ओर देखती स्त्री' का लोकार्पण 'मीडिया विमर्श' पत्रिका की ओर से गांधी भवन, भोपाल में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में निशा राय(भास्कर डाटकाम),आर जे अनादि( बिग एफ.एम),कौशल वर्मा(कोएनजिसिस,दिल्ली),अनुराधा आर्य(महिला बाल विकास अधिकारी बिलासपुर), शिखा शर्मा( इन्सार्ट्स),अन्नी अंकिता (दिल्ली प्रेस, दिल्ली),ऋचा चांदी( मीडिया प्राध्यापक),शीबा परवेज (फारच्यूना पीआर, मुंबई) ने किया। पुस्तक में कमल कुमार, विजय बहादुर सिंह, जया जादवानी,अष्टभुजा शुक्ल,उर्मिला शिरीष,मंगला अनुजा, अल्पना मिश्र, सच्चिदानंद जोशी,इरा झा,वर्तिका नंदा,रूपचंद गौतम, गोपा बागची, सुभद्रा राठौर,संजय कुमार, हिमांशु शेखर,जाहिद खान,रूमी नारायण, अमित त्यागी, स्मृति आदित्य, कीर्ति सिंह, मधु चौरसिया, लीना, संदीप भट्ट, सोमप्रभ सिंह, निशांत कौशिक, पंकज झा, सुशांत झा,माधवीश्री,अनिका अरोड़ा, फरीन इरशाद हसन, मधुमिता पाल, उमाशंकर मिश्र, महावीर सिंह, विनीत उत्पल, यशस्विनी पाण्डेय, आदित्य कुमार मिश्र के लेख शामिल हैं। इस पुस्तक में देश के जाने-माने साहित्यकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के 39 लेख शामिल हैं।
किताबः मीडिया की ओर देखती स्त्री
संपादकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस,1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्यः495 रूपए मात्र, पृष्ठः 184
पुस्तक अमेजान और फ्लिपकार्ड पर भी उपलब्ध है।

सोमवार, 6 मार्च 2017

एक साहसी जनप्रतिनिधि की ‘काशी हुंकार’

-संजय द्विवेदी

   एक प्रधानमंत्री का अपने चुनाव क्षेत्र में तीन दिन रूककर मतदाताओं से मिलना, चर्चा में है। जाहिर तौर पर ऐसा नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं। वे कर रहे हैं, आलोचनाओं के बाद भी कर रहे हैं। दिल्ली और बिहार के चुनाव परिणामों के बाद, कोई भी प्रधानमंत्री विधानसभा चुनावों में अपनी मौजूदगी को न सीमित करता, बल्कि इस बात से बचता कि ठीकरा उसके सिर न फोड़ा जा सके। किंतु नरेंद्र मोदी की शख्सियत अलग है, वे भले ही श्रेय लेना जानते हैं लेकिन पराजय के डर से मैदान छोड़ना भी उन्हें पसंद नहीं है। अपने चुनाव क्षेत्र में उनका तीन दिन रूकना और संपर्क करना, कई अर्थों में दुस्साहस ही कहा जाएगा। वे अपनी जान को जोखिम में डालकर यह क्यों कर रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है।
मोदी ही हैं सबसे बड़ी ताकतः
    यह बात तो साफ है कि उत्तर प्रदेश के मैदान में भाजपा की सबसे बड़ी शक्ति नरेंद्र मोदी हैं। यह भी मानिए कि उत्तर प्रदेश भाजपा जैसा पस्तहाल भाजपा संगठन शायद ही उत्तर भारत में दूसरा हो। बड़े-बड़े नेताओं की मौजूदगी के बाद भी, उत्तर प्रदेश भाजपा एक हारी हुयी टीम है। वो तो मोदी लहर और अमित शाह का चुनाव प्रबंधन था, जिसने उप्र में 2014 के लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित परिणाम दिए और राजग को 73 लोकसभा सीटें मिलीं।
   उप्र के विधानसभा चुनाव में आयातित नेताओं के भरोसे लड़ रही भाजपा के सामने मैदान जीतने की कठिन चुनौती है, जबकि उसके परंपरागत नेता कोपभवन में ही हैं। कई बार विधायक-सांसद और मंत्री रहे लोग अब भी मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है और टिकट खुद को या परिवार को न मिलने पर कोपभवन में हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की टीम या तो उप्र का मैदान भगवान भरोसे छोड़ दे या खुद मैदान में उतरकर परिणाम दे। नरेंद्र मोदी रिस्क लेना जानते हैं, इसलिए वे खुद मैदान में कूदे हैं। उन्हें पता है उत्तर प्रदेश के वर्तमान नेतृत्व में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो परिणाम ला सके। इसके साथ ही सबकी सीमित अपील भी एक समस्या है। महंत आदित्यनाथ गोरखपुर मंडल में अपनी खास तरह की राजनीति के लिए जाने जाते हैं, जिसमें अनेक बार संगठन के ऊपर दिखने व दिखाने की कवाय़द भी शामिल दिखती है। सुलतानपुर के सांसद वरूण गांधी को इतने नाराज हैं कि वे पूरे चुनाव में अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं गए। ऐसे ही अन्य दिग्गज डा. मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार हैं तो पर इनकी मास अपील नहीं है। कुल मिलाकर उप्र नेताओं से भरा एक ऐसा राज्य हैं, जहां कार्यकर्ता और वोटबैंक दोनों नदारद है।
करो या मरो जैसे हालातः
   ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी और उनकी नयी टीम के सामने उप्र का मैदान करो या मरो जैसा ही है। यह भी मानिए कि वे मनमोहन सिंह या अटलबिहारी वाजपेयी नहीं हैं। मनमोहन सिंह मैदान में क्या उतरते क्योंकि उन्हें जनता का नेता माना नहीं जाता। अटल जी के समय में कल्याण सिंह जैसे कद्दावर नेता प्रदेश में थे, जिन्हें न सिर्फ प्रदेश की हर विधानसभा सीट की गहरी समझ थी बल्कि वे जनाधार के मामले भी किसी राज्य स्तरीय नेता से कम नहीं थे। नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस प्रदेश की बीमारियों को जानते हैं और उसके अनुसार जैसे-तैसे उन्होंने भारी संख्या में अन्य दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल कर हर क्षेत्र में भाजपा को लड़ाई में ला दिया है। कुछ छोटी जाति आधारित पार्टियों से तालमेल कर यादव विहीन पिछड़ा वर्ग को संगठित करने के सचेतन प्रयास किए हैं। अनजाने से केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी और बसपा से स्वामी प्रसाद मौर्य की भाजपा में इंट्री कुछ कहती है। इसी तरह चुनाव अभियान में उमा भारती का होर्डिग्स में चेहरा होना, बताता है कि भाजपा को लोध वोटों की साधने की भी चिंता है।
    उप्र में नरेंद्र मोदी सक्रियता साफ बताती है वे उत्तर प्रदेश भाजपा संगठन और स्थानीय नेताओं की क्षमता पर भरोसा नहीं कर रहे। उन्हें पता है कि अकेले उत्तर प्रदेश के नेता यहां विजयश्री दिलाने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश का मैदान खुद अध्यक्ष अमित शाह और उनके खास संगठन मंत्री ओम माथुर ने संभाल रखा है। हालात यहां तक हैं कि उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक सक्रिय रहे संघ प्रचारकों और वहां रहे संगठनमंत्रियों को बहुत तरजीह नहीं दी गयी। मोदी-शाह अपने दम पर उप्र फतह कर क्या संदेश देना चाहते हैं, ये तो वे ही जानें, किंतु इतना तो तय है कि भाजपा का परंपरागत नेतृत्व और संगठन यहां हाशिए पर है। उत्तर प्रदेश के मैदान में बड़ी संख्या में दूसरे दलों से आए लोग भाजपा के टिकट पर मैदान में है। जाहिर तौर पर यह टीम भाजपा की नहीं मोदी-शाह की होगी। ऐसे में सारा कुछ ठीक रहा तो चुनाव बाद मोदी महात्मय के अलावा कोई चारा नहीं होगा किंतु अगर परिणाम विपरीत होते हैं तो नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोग मुखर होगें।
टीम लीडर और मैदानी कार्यकर्ता की छविः

   उत्तर प्रदेश का मैदान दरअसल नरेंद्र मोदी की ही अग्निपरीक्षा है। क्योंकि 80 सांसदों वाले इस राज्य से भाजपा की पकड़ अगर ढीली होती है तो आने वाले समय में भाजपा के खिलाफ वातावरण बनना प्रारंभ हो जाएगा। विपक्षी दल भी उत्तर प्रदेश को एक प्रयोगभूमि मान रहे हैं, क्योंकि इसी मैदान से सन 2019 के संसदीय चुनाव की भावभूमि बन जाएगी। शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश के मैदान में मोदी इसलिए दूसरों के भरोसे नहीं रहना चाहते। आप इसे उनका दुस्साहस भले कहें किंतु वे सुनिश्चित करना चाहते है उनके अपने चुनाव क्षेत्र में भाजपा असंतोष के बाद भी जीते ताकि वे अन्य सांसदों से उनके क्षेत्रों का हिसाब मांगने का नैतिक बल पा सकें। वाराणसी की सीटें हारकर मोदी और अमित शाह अन्य सांसदों का सामना कैसै करेगें, ऐसे तमाम प्रश्न मोदी टीम के सामने हैं। शायद इसीलिए मोदी ने परिणामों की परवाह न करते हुए अपेक्षित साहस का परिचय दिया है। खुद को एक सांसद, कार्यकर्ता और टीम लीडर की तरह मैदान में झोंक दिया है। परिणाम जो भी पर इससे उनकी लड़ाकू और मैदानी कार्यकर्ता की छवि तो पुख्ता हो ही रही है। 

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

भारतीय नौजवानों में जहर घोलता आईएस

-संजय द्विवेदी


     समूची मानवता के लिए खतरा बन चुके खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के प्रति भारतीय युवाओं का आकर्षण निश्चित ही खतरनाक है। कश्मीर से लेकर केरल और अब गुजरात में दो संदिग्धों की गिरफ्तारी चिंतनीय है ही। आखिर आईएस के विचारों में ऐसा क्या है कि भारतीय मुस्लिम युवा अपनी मातृभूमि को छोड़कर, परिवार और परिजनों को छोड़कर एक ऐसी दुनिया में दाखिल होना चाहता है, जहां से लौटने का रास्ता बंद है। इंटरनेट के प्रसार और संचार माध्यमों की तीव्रता ने जो दुनिया रची है, उसमें यह संकट और गहरा हो रहा है। हमारे नौजवान अगर गुमराही के रास्ते पर चलकर अपनी जिंदगी को जहन्नुम बनाने पर आमादा हैं तो देश के बुद्धिजीवियों, राजनेताओं, अफसरों, धर्मगुरूओं को जरूर इस विषय पर सोचना चाहिए। सही मायने में यह वैश्विक आतंकवाद की वह नर्सरी है जिसमें मजहब के नाम पर बरगलाकर युवाओं को इसका शिकार बनाया जा रहा है।
 गुजरात की घटना हमारे लिए एक चेतावनी की तरह है जिसमें इन संदिग्धों के तार सीधे बाहर से जुड़े हुए हैं और एक संदिग्ध की पत्नी भी उसे ऐसे कामों के लिए प्रेरित करती नजर आती है। हमें देखना होगा कि आखिर हम कौन सी शिक्षा दे रहे हैं और कैसा समाज बना रहे हैं। एक आरोपी के पिता का यह कहना साधारण नहीं है कि मेरे लिए तो जहर पीने की नौबत है। जो नौजवान बहकावे में आकर ऐसे कदम उठाते हैं उनके माता-पिता और परिवार पर क्या गुजरती है, यह अनुभव किया जा सकता है। पंथिक भावनाओं में आकर एक बार उठा कदम पूरी जिंदगी की बरबादी का सबब बन जाता है। हमें ऐसे कठिन समय में अपने नौजवानों को बचाने के लिए कड़े और परिणाम केंद्रित कदम उठाने होगें।
जहरीली शिक्षा पर लगे रोकः यह कहना बहुत आसान है कि कोई मजहब आतंक नहीं सिखाता। किंतु मजहब के व्याख्याकार कौन लोग हैं, इस पर ध्यान देने की जरूरत है। मजहबी शिक्षा के नाम पर खुले मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है इसे देखने की जरूरत है। वहां शिक्षा दे रहे लोग सिर्फ शिक्षा दे रहे हैं या शिक्षा के नाम पर कुछ और कर रहे हैं, इसे देखना जरूरी है। पूरी दुनिया में आतंक का कहर बरपा रहे संगठनों से हमारे देश के युवाओं का क्या रिश्ता हो सकता है? वे कौन से कारण हैं जिनके कारण हमारी नई पीढ़ी उन आतंकी संगठनों के प्रति आकर्षित हो रही है? एक पराई जमीन पर चल रही जंग में हमारे नौजवान आखिर क्यों कूदना चाहते हैं? क्यों हमारे नौजवान अपनी जमीन और अपने वतन को छोड़कर सीरिया की राह पकड़ रहे हैं? हम इसका विश्वेषण करें तो हमें कड़वी सच्चाईयां नजर आएगीं। भारत के सभी बड़े उलेमा और मुस्लिम धर्मगुरुओं ने आईएस की हरकतों को इस्लाम विरोधी बताकर खारिज किया है। आखिर क्या कारण है कि भारत के युवा मुस्लिम धर्मगुरूओं और उलेमा की राय न सुनकर आईएस के बहकावे में आ रहे हैं? यही नहीं कश्मीर में शुक्रवार को हो रहे प्रदर्शनों में आईएस का झंडा लहराने की प्रेरणा क्या है? ऐसे अनेक कठिन सवाल हैं,जिनके उत्तर हमें तलाशने होगें।
अपने बच्चों को बचाना पहली जिम्मेदारीः आतंकवाद की इस फैलती विषबेल से अपने बच्चों को बचाना हमारी पहली जिम्मेदारी है। हमारे बच्चे अपनी मातृभूमि से प्रेम करें, अपने भारतीय बंधु-बांधवों से प्रेम करें, हिंसा-अनाचार और आतंकी विचारों से दूर रहें, आज यही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हूरों के ख्वाब में वे आज की अपनी सुंदर जिंदगी को स्याह न करें, यह बात उन्हें समझाने  की जरूरत है। हमारे परिवार, विद्यालय और शिक्षक इस काम में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। पंथ की सीमाएं उन्हें बतानी होगीं। जीवन कितना अनमोल है, यह भी बताना होगा। धर्म की उन शिक्षाओं को सामने लाना होगा जिससे विश्व मानवता को सूकून मिले। भाईचारा बढ़े और खून खराबा रोका जा सके। आज हम आतंकवाद के लिए पश्चिमी देशों और अमरीका को दोष देते नहीं बैठे रह सकते। क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ हमारी जंग भले ही भोथरी हो, अमरीका और पश्चिमी देश अपने तरीके से आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं और सफल भी हैं। खासकर अमरीका और ब्रिटेन में आतंकी हमलों के बाद उन्होंने जो भी शैली अपनाई हो,वहां हमले नहीं हुए। दूसरी बात भारतीय राजनीति में विभाजनकारी और देशतोड़क शक्तियों का प्रभुत्व है, यहां देशहित से ऊपर वोट की राजनीति है। ऐसे में देश की एकजुटता प्रकट नहीं होती। एकजुटता प्रकट न होने से देश का मनोबल टूटता है और एक राष्ट्र के रूप में हम नहीं दिखते।

वसुधैव कुटुम्बकम् है विश्वशांति का मंत्रः भारत के अलावा दुनिया में पैदा हुए सभी पंथ विस्तारवादी हैं। धर्मान्तरण उनकी एक अनिवार्य बुराई है, जिससे तनाव खड़ा होता है। विवाद होते हैं। दुनिया के तमाम इलाकों में मची मारकाट इसी विस्तारवादी सोच का नतीजा है। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना और अपने विचार को शेष पर लादने की सोच ने सारे संकट रचे हैं। दूसरों को स्वीकारना अगर दुनिया को आता तो हमारी पृथ्वी इतनी अशांत न होती। इसके विपरीत भारत विविधता और बहुलता को साधने वाला देश है। भारतीय भूमि पर उपजे सभी पंथ विविधताओं को आदर देने वाले हैं और वसुधैव कुटुम्बकम् हमारा ध्येय मंत्र है। हमारी सोच में सभी पंथ प्रभु तक पहुंचने का मार्ग है, हम ही श्रेष्ठ हैं- हम ऐसा दावा नहीं करते। दुनिया के सब विचारों, सभी पंथों और नवाचारों का स्वागत करने का भाव भारतीय भूमि में ही निहित है। इसे भले ही भारत और सनातन धर्म की कमजोरी कहकर निरूपित किया जाए, किंतु शांति का मार्ग यही है। हमने सदियों से इसलिए विविध विचारों, पंथों, मतों को संवाद के अवसर दिए। फलने-फूलने के अवसर दिए, क्योंकि शास्त्रार्थ हमारी परंपरा का हिस्सा है। शास्त्रार्थ इस बात का प्रतीक है कि सत्य की खोज जारी है, ज्ञान की खोज जारी है। हमने सत्य को पा लिया ऐसा कहने वाली परंपराएं शास्त्रार्थ नहीं कर सकतीं, क्योंकि वे विचारों में ही जड़वादी हैं। उनमें नवाचार संभव नहीं है, संवाद संभव नहीं हैं। अपनी आत्ममुग्धता में वे अंधेरे रचती हैं और अपने लोगों के लिए अंधकार भरा जीवन। वहां उजास कहां है, उम्मीद कहां हैं?  दुनिया के तमाम हिस्सों में अगर हिंसा, आतंकवाद और खून के दरिया बह रहे हैं, तो उन्हें अपने विचारों पर एक बार पुर्नविचार करना ही चाहिए। आखिर सारे पंथ, मजहब और विचारधाराएं अगर एक बेहतर दुनिया के लिए ही बने हैं तो इतनी अशांति क्यों है भाई? भारत जैसा देश जो इस संकट में दुनिया को रास्ता दिखा सकता है, के नौजवान भी अगर भटकाव के शिकार होकर बंदूकें हाथ में लेकर मानवता की हत्या करते दिखेगें तो हमें मानना होगा कि भारतीयता कमजोर हो रही है। हमारा राष्ट्रवाद शिथिल पड़ रहा है। हमारा दार्शनिक आधार दरक रहा है। अन्यथा कोई कारण नहीं कि भारत जो विश्व मानवता के सामने एक वैकल्पिक दर्शन का वाहक है, उसके नौजवान किसी जहरीली हवा के शिकार होकर अपने ही देश के जीवन मूल्यों की बलि देते दिखें। इस संकटपूर्ण  समय में हमें अपने बच्चों को संभालना है। उन्हें भारत बोध कराना है। मानवता के मूल्यों की प्रसारक धरती से, फिर से शांति का संदेश देना है। पूरी दुनिया आपकी तरफ उम्मीदों से देख रही है। कृपया आतंक की आंधी में शामिल होकर अपनी माटी को कलंकित मत कीजिए।