शनिवार, 15 अप्रैल 2017

कश्मीर में सरकार आपकी पर ‘राज’ किसका?

-संजय द्विवेदी

  कश्मीर में सुरक्षा बलों की दुर्दशा और अपमान के जो चित्र वायरल हो रहे हैं, उससे हर हिंदुस्तानी का मन व्यथित है। एक जमाने में कश्मीर को लेकर हुंकारे भरने वाले समूह भी खामोश हैं। ऐसे में यह सवाल पूछने का मन हो रहा है कि कश्मीर में सरकार तो आपकी है पर राज किसका है ? कश्मीर एक ऐसी अंतहीन आग में जल रहा है जो हमारे प्रथम प्रधानमंत्री की नादानियों की वजह से एक नासूर बन चुका है। तब से लेकर आजतक सारा देश कश्मीर को कभी बेबसी और कभी लाचारी से देख रहा है।
  नीतियों में स्पष्टता न होने के कारण हम वहां एक सरकार बनाकर खुश हो लेते हैं, जबकि वहां पर राजलंबे अरसे से कुछ अराजक ताकतें ही कर रही हैं। कश्मीर घाटी के कुछ इलाकों में देशद्रोही जमातों की मिजाजपुर्सी में हमारी सरकारें लेह-लद्दाख, जम्मू की उपेक्षा तक करती आ रही हैं। सच्चाई तो यह है कि घाटी के चंद उपद्रवी तत्वों को भारत के साथ बने रहने की हम लंबी कीमत दे रहे हैं। जबकि देशभक्ति की भावना से भरा समाज यहां प्रताड़ित हो रहा है।
     देशद्रोही मानसिकता के लोगों को पालपोसकर हमने वहां राष्ट्रीय मन के समाज के निरंतर आहत किया है। जबकि जिनके हाथ कश्मीरी पंडितों के खून से रंगें हैं, उन्हें पालकर हम क्या हासिल कर हैं? अब जबकि घाटी लगभग हिंदू विहीन है तब वे किससे और क्यों लड़ रहे हैं ? हिंदुओं के वीरान पड़े घर, मंदिर और देवालय हमें बता रहे हैं कि इस जमीन कैसा खूरेंजी खेल गया है। आज उन्हीं दहशतगर्दों की हरकतें इतनी कि वे हमारे सुरक्षा बलों पर भी पत्थर बरसाने से लेकर लात मारने की कार्रवाई कर रहे हैं। शायद ही कोई देश हो जो ऐसे समय में अपने सुरक्षाबलों को संयम की सलाह दे। संयम और नियम आम जनता के लिए होते हैं या पेशेवर आतंकियों के लिए? यह हमें सोचना होगा। भारत का मान बचाने वाली सेना या केंद्रीय बलों के नौजवान अगर अपनी ही घरती पर अपमानित हो रहे हैं तो हम रहम क्यों कर रहे हैं? संयम की सलाह सेना और सुरक्षा बलों को ही क्यों दी जा रही है? भाड़े के टट्टू पाकिस्तान परस्ती पर अपनी ही सेना पर पत्थर बरसा रहे हैं, आतंकियों को भाग निकलने के लिए अवसर दे रहे हैं। कश्मीर पर खर्च हो रहे देश के करोड़ों रूपयों का मतलब क्या है? अगर वे खुद अपनी जिंदगी जहन्नुम बनाए रखना चाहते हैं तो सरकार क्या कर सकती है? लेकिन इतना तय है कि देश की सरकार को कश्मीर के लिए कोई निर्णायक कदम उठाना होगा। इसका पहला समाधान तो यही है कश्मीर में निरंतर हस्तक्षेप कर रहे पाकिस्तान को पूंछ को सीधा करने के लिए बलूचिस्तान, सिंध और पाकअधिकृत कश्मीर हो रहे मानवाधिकार के दमन को  लेकर दबाव बनाया जाए। बलूचिस्तान को स्वतंत्र राष्ट्र का दर्जा और मान्यता देने की पहल हो सकती है और अपेक्षित साहस दिखाते हुए बलूस्चितानी निर्वासित नेताओं को भारत में शरण देने की पहल भी की जा सकती है। संस्कृत में एक वाक्य है शठे शाठ्यं समाचरेत्। यानि दुष्ट के साथ दुष्टता का ही व्यवहार करना चाहिए। हम पाकिस्तानी के प्रति कितने भी सदाशयी हो जाएं ,वह अपनी हरकतों से बाज नहीं आ सकता। कुलभूषण जाधव का प्रसंग इसका साफ उदाहरण है। बावजूद इसके हम फिल्में दिखाने, क्रिकेट खेलने, सांस्कृतिक आदान-प्रदान जैसे मूर्खताओं से जेहादी आतंकवाद का सामना करने का सपना देख रहे हैं।
  आज जबकि कश्मीर घाटी में किराए के टट्टूओं ने पूरी कश्मीर के वातावरण को बिगाड़ रखा तब हमें सोचना होगा कि आखिर हमारी रणनीति में ऐसी क्या खामी है कि हम अपने ही घर में पिट रहे है। भारत को इस समय अपेक्षित आक्रामकता दिखानी ही होगी। खेल का मैदान बदलना होगा। हमारी जमीन पर रोज हो रही लीला बंद होनी चाहिए। अब जमीन और जंग का मैदान दोनों बदलने का समय है। हम हिंदुस्तानी मन लेकर पाकिस्तानी पापों का प्रतिरोध नहीं कर सकते। इसलिए ये घटनाएं सबक भी हैं और संकेत भी। इसके साथ ही वहां आतंक का प्रसार कर रहे तत्वों और गिलानी समर्थक समूहों की आर्थिक शक्ति को भी तबाह करने का समय है। क्योंकि ये तत्व पूरी घाटी के चेहरे बने हुए हैं। इनकी शक्ति को तोड़ने और इनके अर्थतंत्र को तबाह करने की जरूरत है। घाटी में लगातार बंद और हड़तालों से आगे अब इनके लोग स्कूलों पर हमले कर रहे हैं। स्कूलों को तबाह कर रहे हैं। यह बात बताती है कि इनके इरादे क्या हैं। हमें सोचना होगा कि कश्मीरी युवाओं को शिक्षा और रोजगार के मार्ग से भटका कर उन्हें किस स्वर्ग के सपने दिखाए जा रहे हैं? आखिर पाकिस्तान कश्मीर को पाकर कौन सा स्वर्ग वहां रचेगा, जबकि उसके कब्जे वाला कश्मीर किस तरह मुफलिसी और तबाही का शिकार है। जाहिर तौर पर पाकिस्तान की कोशिश कश्मीर को अशांत रखकर भारत की प्रगति और उसकी एकता को तोड़ने की है। अब यह मामला बहुत आगे बढ़ चुका है। सात दशकों की पीड़ा को समाप्त करने का समय अब आ गया है। केंद्र की सरकार को बहुत सधे हुए कदमों से आगे बढ़ना होगा ताकि कश्मीर का संकट हल हो सके। उसके शेष भागों लेह, लद्दाख और जम्मू का विकास हो सके। अकेली घाटी के कुछ इलाकों की अशांति के नाते समूचे जम्मू-कश्मीर राज्य की प्रगति को रोका नहीं जा सकता। धारा-370 को हटाने सहित अनेक प्रश्न जुड़े हैं, जिनसे हमें जूझना होगा।

   घाटी के गुमराह नौजवानों को भी यह समझाने की जरूरत है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा। पाकिस्तान और आईएस के झंडे दिखा रही ताकतों को जानना होगा कि भारत के संयम को उसकी कमजोरी न समझा जाए। इतनी लंबी जंग लड़कर पाकिस्तान को हासिल क्या हुआ है, उसे भी सोचना चाहिए। दुनिया बदल रही है। लड़ाई बदल रही है। कश्मीर घाटी में लोकतंत्र की विरोधी शक्तियां भी पराभूत होगीं, इसमें दो राय नहीं। राजनीति के कारण नहीं, देश की जनता के कारण। केंद्र में कोई भी सरकार रही हो सबने कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग मानकर, उसे अपना माना है। इसलिए देश को तोड़ने का यह दुःस्वप्न कभी फलीभूत नहीं होगा। कश्मीर घाटी के उपद्रवी और सीमा पार बैठे उनके दोस्त, इस सच को जितनी जल्दी समझ जाएं बेहतर होगा।

सोमवार, 27 मार्च 2017

वैचारिक आत्मदैन्य से बाहर आती भाजपा

-संजय द्विवेदी

  उत्तर प्रदेश अरसे बाद एक ऐसे मुख्यमंत्री से रूबरू है, जिसे राजनीति के मैदान में बहुत गंभीरता से नहीं लिया जा रहा था। उनके बारे में यह ख्यात था कि वे एक खास वर्ग की राजनीति करते हैं और भारतीय जनता पार्टी भी उनकी राजनीतिक शैली से पूरी तरह सहमत नहीं है। लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भारी विजय के बाद भाजपा ने जिस तरह का भरोसा जताते हुए राज्य का ताज योगी आदित्यनाथ को पहनाया है, उससे पता चलता है कि अपनी राजनीति के प्रति भाजपा का आत्मदैन्य कम हो रहा है।
   भाजपा का आज तक का ट्रैक हिंदुत्व का वैचारिक और राजनीतिक इस्तेमाल कर सत्ता में आने का रहा है। देश की राजनीति में चल रहे विमर्श में भाजपा बड़ी चतुराई से इस कार्ड का इस्तेमाल तो करती थी, किंतु उसके नेतृत्व में इसे लेकर एक हिचक बनी रहती थी। वो हिचक अटल जी से लेकर आडवानी तक हर दौर में दिखी है। भाजपा का हर नेता सत्ता पाने के बाद यह साबित करने में लगा रहता है वह अन्य दलों के नेताओं के कम सेकुलर नहीं है।
  उत्तर प्रदेश की आदित्यनाथ परिघटना दरअसल भाजपा की वैचारिक हीनग्रंथि से मुक्ति को स्थापित करती नजर आती है। नरेंद्र मोदी के राज्यारोहण के बाद योगी आदित्यनाथ का उदय भारतीय राजनीति में एक अलग किस्म की राजनीति की स्वीकृति का प्रतीक है। एक धर्मप्राण देश में धार्मिक प्रतीकों, भगवा रंग, सन्यासियों के प्रति जैसी विरक्ति मुख्यधारा की राजनीति में दिखती थी, वह अन्यत्र दुर्लभ है। भाजपा जैसे दल भी इस सेकुलर विकार से कम ग्रस्त न थे। धर्म और धर्माचार्यों का इस्तेमाल, धार्मिक आस्था का दोहन और सत्ता पाते ही सभी धार्मिक प्रतीकों से मुक्ति लेकर सारी राजनीति सिर्फ तुष्टीकरण में लग जाती थी। प्रधानमंत्रियों समेत जाने कितने सत्ताधीशों के ताज जामा मस्जिद में झुके होगें, लेकिन हिंदुत्व के प्रति उनकी हिचक निरंतर थी।  
  यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं की एक समय में दीनदयाल जी उदार थे, तो अटलजी और बलराज मधोक अपनी वक्रता के चलते उग्र नेता माने जाते थे। अटलजी का दौर आया तो लालकृष्ण आडवाणी उग्र कहे जाने लगे, फिर एक समय ऐसा भी आया जब आडवानी उदार हो गए और नरेंद्र मोदी उग्र मान जाने लगे। आज की व्याख्याएं सुनें- नरेंद्र मोदी उदार हो गए हैं और योगी आदित्यनाथ उग्र  माने जाने लगे हैं। यह मीडिया, बौद्धिकों की अपनी रोज बनाई जाती व्याख्याएं हैं। लेकिन सच यह है कि अटल, मधोक, आडवानी, मोदी या आदित्यनाथ कोई अलग-अलग लोग नहीं है। एक विचार के प्रति समर्पित राष्ट्रनायकों की सूची है यह। इसमें कोई कम जा ज्यादा उदार या कठोर नहीं है। किंतु भारतीय राजनीति का विमर्श  ऐसा है जिसमें वास्तविकता से अधिक ड्रामे पर भरोसा है। भारतीय राजनेता की मजबूरी है कि वह टोपी पहने, रोजा भले न रखे किंतु इफ्तार की दावतें दे। आप ध्यान दें सरकारी स्तर पर यह प्रहसन लंबे समय से जारी है। भाजपा भी इसी राजनीतिक क्षेत्र में काम करती है। उसमें भी इस तरह के रोग हैं। वह भी राष्ट्रनीति के साथ थोड़े तुष्टिकरण को गलत नहीं मानती। जबकि उसका अपना नारा रहा है सबको न्याय, तुष्टिकरण किसी का नहीं। उसका एक नारा यह भी रहा है-राम, रोटी और इंसाफ।
  लंबे समय के बाद भाजपा में अपनी वैचारिक लाइन को लेकर गर्व का बोध दिख रहा है। असरे बाद वे भारतीय राजनीति के सेकुलर संक्रमण से मुक्त होकर अपनी वैचारिक भूमि पर गरिमा के साथ खड़े दिख रहे हैं। समझौतों और आत्मसमर्पण की मुद्राओं के बजाए उनमें अपनी वैचारिक भूमि के प्रति हीनताग्रंथि के भाव कम हुए हैं। अब वे अन्य दलों की नकल के बजाए एक वैचारिक लाइन लेते हुए दिख रहे हैं। दिखावटी सेकुलरिज्म के बजाए वास्तविक राष्ट्रीयता के उनमें दर्शन हो रहे हैं। मोदी जब एक सौ पचीस करोड़ हिंदुस्तानियों की बात करते हैं तो बात अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक से ऊपर चली जाती है। यहां देश सम्मानित होता है, एक नई राजनीति का प्रारंभ दिखता है। एक भगवाधारी सन्यासी जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठता है तो वह एक नया संदेश देता है। वह संदेश त्याग का है, परिवारवाद के विरोध का है, तुष्टिकरण के विरोध का है, सबको न्याय का है।
   आजादी के बाद के सत्तर सालों में देश की राजनीति का विमर्श भारतीयता और उसकी जड़ों की तरफ लौटने के बजाए घोर पश्चिमी और वामपंथी रह गया था। जबकि बेहतर होता कि आजादी के बाद हम अपनी ज्ञान परंपरा की और लौटते और अपनी जड़ों को मजबूत बनाते। किंतु सत्ता,शिक्षा, समाज और राजनीति में हमने पश्चिमी तो, कहीं वामपंथी विचारों के आधार पर चीजें खड़ी कीं। इसके कारण हमारा अपने समाज से ही रिश्ता कटता चला गया। सत्ता और जनता की दूरी और बढ़ गयी। सत्ता दाता बन बैठी और जनता याचक।  सेवक मालिक बन गए। ऐसे में लोकतंत्र एक छद्म लोकतंत्र बन गया। यह लोकतंत्र की विफलता ही है कि हम सत्तर साल के बाद सड़कें बना रहे हैं। यह लोकतंत्र की विफलता ही है कि हमारे अपने नौजवानों ने भारतीय राज्य के खिलाफ बंदूकें उठा रखी हैं। लोकतंत्र की विफलता की ये कहानियां सर्वत्र बिखरी पड़ी हैं। राजनीतिक तंत्र के प्रति उठा भरोसा भी साधारण नहीं है।

   बावजूद इसके 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणाम एक उम्मीद का अवतरण भी हैं। वे आशाओं, उम्मीदों से उपजे परिणाम हैं। नरेंद्र मोदी, आदित्यनाथ इन्हीं उम्मीदों  के चेहरे हैं। दोनों अंग्रेजी नहीं बोलते। दोनों जन-मन-गण के प्रतिनिधि है। यह भारतीय राजनीति का बदलता हुआ चेहरा है। क्या सच में भारत खुद को पहचान रहा है ? वह जातियों, पंथों, क्षेत्रों की पहचान से अलग एक बड़ी पहचान से जुड़ रहा है- वह पहचान है भारतीय होना, राष्ट्रीय होना। एक समय में राजनीति हमें नाउम्मीद करती हुयी नजर आती थी। बदले समय में वह उम्मीद जगा रही है। कुछ चेहरे ऐसे हैं जो भरोसा जगाते हैं। एक आकांक्षावान भारत बनता हुआ दिखता है। यह आकांक्षाएं राजनीति दलों के एजेंडे से जुड़ पाएं तो देश जल्दी और बेहतर बनेगा। राजनीतिक विमर्श और जनविमर्श को साथ लाने की कवायद हमें करनी ही होगी। जल्दी बहुत जल्दी। यह जितना और जितना जल्दी होगा भारत अपने भाग्य पर इठलाता दिखेगा।

शनिवार, 11 मार्च 2017

भारतीय राजनीति का ‘मोदी समय’

चुनावों का संदेशः अपनी रणनीति पर विचार करे विपक्ष
-संजय द्विवेदी


    सही मायनों में यह भारतीय राजनीति का मोदी समय है। नरेंद्र मोदी हमारे समय की ऐसी परिघटना बन गए हैं, जिनसे निपटने के हथियार हाल-फिलहाल विपक्ष के पास नहीं हैं। अपनी सारी कलाबाजियों के बावजूद उत्तर प्रदेश में यादव परिवार और बसपा को समेट कर जो ऐतिहासिक जीत भाजपा ने दर्ज की है, वह अटल-आडवानी-कल्याण युग पर भारी है।
  उत्तर प्रदेश के राजनीतिक तौर पर बेहद जागरूक मतदाता सही मायनों में वहां फैली अराजकता, विकास विरोधी व जातिवादी राजनीति से त्रस्त हैं, इसलिए वे पिछले तीन विधानसभा चुनावों से किसी भी दल को संपूर्ण शक्ति देते हैं और इस बार यह मौका भाजपा को मिला है। इसके पहले बसपा और सपा क्रमशः वहां पूर्ण बहुमत की सरकारें बना चुके हैं। यह बात बताती है कि उत्तर प्रदेश के लोगों में कैसी बेचैनी है और वे किस तरह अपने राज्य को बदलते हुए देखना चाहते हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में यह जनमत मोदी के पक्ष में आ चुका है, वह अभी भी अडिग है, और उनके साथ है। सही मायने में अब परीक्षा भाजपा की है कि वह इस जनमत पर खरे उतरने के लिए हर जतन करे।
भाजपा का स्वर्णयुगः
    राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए यह समय वास्तव में स्वर्णयुग है, जबकि पूर्वांचल के असम में सरकार बनाकर उसने एक कीर्तिमान रच दिया। हरियाणा भी इसकी एक मिसाल है, जहां पहली बार भाजपा की अकेले दम पर सरकार बनी है। मणिपुर जैसे राज्य में उसके विधायक चुने गए हैं। ऐसे कठिन राज्यों में जीत रही भाजपा सही मायनों में अपने भौगोलिक विस्तार के रोज नए क्षितिज छू रही है। भाजपा और संघ परिवार को ये अवसर यूं ही नहीं मिले हैं। इसके लिए अपने वैचारिक अधिष्ठान पर खड़े होकर उन्होंने लंबी तैयारी की है। उत्तर प्रदेश के चुनाव इस अर्थ में खास हैं, क्योंकि भाजपा ने यह चुनाव विकास और सुशासन के नाम पर लड़ा। सांप्रदायिकता के आरोप लगाने वालों के पास बस यही तर्क था कि भाजपा ने किसी मुस्लिम को मैदान में नहीं उतारा। जाहिर तौर पर लोग इस तरह की राजनीति से तंग आ चुके हैं।
जातिवादी राजनीति के बुरे दिनः
   जातिवादी-सांप्रदायिक राजनीति के दिन अब लद चुके हैं। उत्तराखंड से लेकर पंजाब तक का यही संदेश है। पंजाब की अकाली सरकार भी लंबे समय से सरकारविहीनता और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी थी। ऐसे में भाजपा के साथ के बाद भी वे हारे और यह अच्छे संकेत हैं। इसी तरह उत्तराखंड से हरीश रावत सरकार की विदाई भी ऐसे ही संकेत देती है। खुद हरीश रावत का मुख्यमंत्री होते हुए, दोनों सीटों से हारना जनता के गुस्से का ही प्रकटीकरण है। परिर्वतन की यह राजनीति सार्थक बदलाव की वाहक भी बने, इस पर सर्तक नजर रखनी होगी।
   नरेंद्र मोदी दरअसल इस विजय के असली नायक और योद्धा हैं, उन्होंने मैदान पर उतर एक सेनापति की भांति न सिर्फ नेतृत्व दिया बल्कि अपने बिखरे परिवार को एकजुटकर मैदान में झोंक दिया। यह साधारण था कि उन पर तमाम आरोप लगे कि वे प्रधानमंत्री पद की मर्यादा को लांघ रहे हैं, पर उन्होंने अपेक्षित परिणाम लाकर अपने विरोधियों को लंबे समय के लिए खामोश कर दिया है। अब विपक्ष को उनके विरोध के नए हथियार और नए नारे खोजने होंगे। उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम न सिर्फ चौंकाने वाले हैं बल्कि इसका अहसास भाजपा के स्थानीय नेताओं को भी नहीं था। वे आपसी जंग में इतने मशगूल थे कि उन्हें जनता के बीच चल रही हलचलों का अहसास ही नहीं था।
बसपा करे अपनी राजनीतिक शैली पर  पुनर्विचारः
उत्तर प्रदेश के इस परिणाम के दो असर और हैं, जिन्हें रेखांकित किया जाना चाहिए। 2014 के चुनाव में एक भी लोकसभा सीट न जीत सकी बहुजन समाज पार्टी और उसकी नेता को अपनी राजनीतिक शैली पर पुनर्विचार करना होगा। वरना वह इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह जाएगी। मायावती ने जिस तरह अपने दल में अपनी तानाशाही चलाई और नए नेतृत्व को उभरने से रोका इस कारण उसके पास नेतृत्व का खासा अभाव है। समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने जहां जमीनी संपर्क और अपनी अलग शैली से नए वोटरों को लुभाने का काम किया और नए नेतृत्व को पार्टी में एक बड़ी लड़ाई लड़कर भी सामने ला दिया है, वह करिश्मा भी मायावती नहीं कर सकीं । अखिलेश के साथ अभी एक लंबी आयु है और वे अपने पिता की छाया से बाहर आ चुके हैं। मायावती के पास यह अवसर भी सीमित हैं। ऐसे में बसपा को गंभीरतापूर्वक अपनी भावी राजनीति पर विचार करना होगा।
      उत्तर प्रदेश का मुख्य विपक्षी दल बन चुकी समाजवादी पार्टी के लिए यह चुनाव एक चेतावनी भी हैं और सबक भी। उन्हें इसके संदेश पढ़कर सावधानी से अपने संगठन को बनाना और संवारना होगा। एक सार्थक प्रतिपक्ष की भूमिका का निर्वहन करते हुए भाजपा सरकार पर दबाव बनाए रखना होगा। अखिलेश यादव को यह मानना होगा कि उनकी अच्छी छवि, युवा चेहरे के बाद भी सपा के अराजक शासन, गुंडागर्दी से लोग तंग थे, जिसका परिणाम उनके दल को मिला है। ऐसे में अपनी पार्टी की शैली बदलने और कार्यकर्ताओं को अनुशासित करने के लिए उन्हें लंबे जतन करने होगें।
  सपनों को सच करने की जिम्मेदारीः

 इस समूचे परिदृश्य में उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत ने उसके लिए चुनौतियां बहुत बढ़ा दी हैं। अब केंद्र और राज्य में सरकार होने के कारण उन्हें उत्तर प्रदेश में कुछ सार्थक काम करके दिखाना होगा। प्रधानमंत्री ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में जिस तरह अपनी प्रतिष्ठा लगाई है, उसके नाते उनकी जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी है। उत्तर प्रदेश की जनता ने अरसे बाद भाजपा को राज्य की सत्ता सौंपी है। भाजपा को इस भरोसे को बचाए और बनाए रखना होगा। यह वोट सही मायने में विकास, सुशासन और गरीबों के हितवर्धन के लिए है। उत्तर प्रदेश ने सबको मौका दिया है, उसे सबने निराश किया है। पिछले तीन बार से बसपा, सपा से होता हुआ यह अवसर खुद भाजपा के पास आया है। यह मौका उत्तर प्रदेश की जनता ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आश्वासन पर दिया है। ऐसे में भाजपा और उसके नए शासकों का कर्त्तव्य है कि वे उत्तर प्रदेश के विकास के हर पल का उपयोग करें। अरसे बाद उत्तर प्रदेश फिर ड्राइविंग सीट पर है। ऐसे में उसकी किस्मत कितनी बदलती है, इसे देखना रोचक होगा।

आतंकवाद के विरूद्ध एकजुटता का समय

-संजय द्विवेदी

  देश की आतंरिक सुरक्षा को जिस तरह आतंकवादी संगठनों से लगातार चुनौती मिल रही है, उसमें हमारी एकजुटता, भाईचारा और समझदारी ही हमें बचा सकती है। आरोपों-प्रत्यारोपों से अलग हटकर अब हमें सोचना होगा कि आखिर हम अपने लोगों को कैसे बचाएं। अब यह कहने का समय नहीं है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, बल्कि हमें राष्ट्रधर्म निभाना होगा। हमारी मातृभूमि हमारे लिए सर्वस्व है और उसके लिए सबकुछ निछावर करने का भाव ही हमें जगाना है।
  देश प्रथम एक नारे की तरह नहीं, बल्कि संकल्प की तरह हमारे जीवन में उतरना चाहिए। हमें देखना होगा कि हम अपने नौजवानों में क्या राष्ट्रीय चेतना का संचार कर रहे हैं या हमने उन्हें दुनिया में बह रही जहरीली हवाओं के सामने झोंक दिया है। इंटरनेट और साइबर मीडिया पर भटकती यह पीढ़ी कहीं देश के दुश्मनों के हाथ में तो नहीं खेल रही है, यह देखना होगा। आईएस जैसे खतरनाक संगठन और तमाम विचारधाराओं द्वारा पोषित देशतोड़क गतिविधियों में शामिल युवा कैसा भारत बनाएगें, यह भी सोचना होगा। आज हमें खतरे के संकेत दिखने लगे हैं। विश्वविद्यालयों में युवाओं की देशविरोधी नारेबाजी के लिए उकसाया जा रहा है तो एक प्रोफेसर को हमने माओवादी संगठनों की मदद करने के आरोप में कोर्ट से सजा मिलते देखा। आखिर हम कैसा भारत बना रहे हैं।
   आज जबकि समूची दुनिया में हिंदुस्तानी गहरे संकट में हैं, तो हमें अपने देश को बचाना ही होगा। जिन्हें जन्नत का सपना दिख रहा है, उन्हें बताना होगा कि ट्रंप द्वारा खदेड़े गए हिंदुस्तानियों को अंततः इसी जमीन पर जगह मिलेगी। इतिहास हमें कई तरह से सिखाता है पर हम सीखते नहीं हैं। आप देखें 1947 में अपना वतन छोड़कर एक सुंदर सपना लेकर जो लोग पाकिस्तान गए थे, वे आज भी वहां मुजाहिर हैं। कराची की गलियां आज भी उनके रक्त से लाल हैं। इसी तरह दुनिया के तमाम देशों में हिंदुस्तानी रहते हैं और वहां के राष्ट्रजीवन में उनका श्रेष्टतम योगदान है। किंतु उनके हर संकट के समय उनकी अंतिम शरणस्थली हिंदुस्तान ही है। यह साधारण सी बात अगर हम समझ जाएं तो हमारे नौजवान किसी आईएस, आईएसआई या माओवादियों के भटकाव भले अभियानों के झांसे में नहीं आएंगे। हम यह भी स्वीकारते हैं कि राजसत्ता के खिलाफ उठने वाली हर आवाज देशद्रोही नहीं है, भारत में लोकतंत्र का होना इसका प्रमाण है। लोकतंत्र की जीवंतता इसी में है कि वहां संवाद और विमर्श निरंतर हों। लेकिन आतंकवादी गतिविधियों में संलग्न होना, या ऐसे अभियानों को वैचारिक या नैतिक समर्थन देना स्वीकार कैसे किया जा सकता है। राज्य के आतंक के विरूद्ध भी आतंक फैलाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। देश में सुप्रीम कोर्ट से लेकर अनेक ऐसे फोरम हैं जहां जाकर लोगों ने अपने हक हासिल किए हैं। जनांदोलनों से सरकार को झुकाया है, किंतु हथियार उठाना और अपनी बौद्धिकता और तार्कितता से आतंक को महिमामंडित करना ठीक नहीं है।
     देश के बौद्धिक वर्गों की एक बड़ी जिम्मेदारी देश के लोगों के प्रति है। सिर्फ असंतोष को बढ़ाना या समाज में फैली विद्रूपता को ही लक्ष्य कर उसका प्रचार जिम्मेदारी नहीं है। दायित्व है लोगों को न्याय दिलाना, उनकी जिंदगी में फैले अँधेरे को कम करना। बंदूकें पकड़ा कर हम उनकी जिंदगी को और नरक ही बनाते हैं। देश में बस्तर से लेकर कश्मीर और वहां से लेकर पूर्वांचल के कई राज्यों में अनेक हिंसक आंदोलन सक्रिय हैं। पर हम विचार करें कि क्या इससे वास्तव में न्याय हासिल हुआ है। हममें से कई पंथ के आधार पर राज्य व्यवस्था के सपने देखते हैं। पर क्या हमें पता है कि पंथों के आधार पर चलने वाले राज्य सबसे पहले स्वतंत्रता और मनुष्यता का ही गला घोंटते हैं। आज अमरीकी राष्ट्रपति ट्रंप मुस्लिमों के निशाने पर हैं, पर क्या दुनिया के मुस्लिम राष्ट्रों ने अपना चेहरा देखा है? वहां मानवाधिकारों की स्थिति क्या है? इसी तरह वामविचारी मित्रों को लोकतंत्र की कुछ ज्यादा ही चिंता हो आई है। किंतु उनकी अपनी विचारधारा के आधार पर बने और चले देशों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन ही नहीं हुआ, बल्कि विचारधारा के नाम पर खून की होली खेली गई। ऐसे में सबसे ज्यादा चिंता हमें अपने देश और उसके लोकतंत्र को बचाने की होनी चाहिए। समृद्धि और स्वतंत्रता लोकतंत्र में ही साथ-साथ फल-फूल सकते हैं। इसे स्वीकार कर लेना चाहिए। कोई भी पंथ आधारित राज्य या वामपंथी विचारों के आधार पर खड़ा देश लोकतंत्र के मूल्यों की रक्षा नहीं कर सकता, यह कटु सत्य नहीं है। यह बात तब और साबित होती है जब हमें पता चलता है अरब, ईरान और पाकिस्तान जैसे मुस्लिम राष्ट्रों में बसने वालों में किस तरह अमरीकी वीजा पाने की ललक है। क्या समृद्धि और धन के लिए नहीं। अगर ऐसा है तो अरब में क्या कमी है? सच तो यह है कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन को जीने की आजादी ही लोकतंत्र का मूल्य है, शायद इसलिए अमरीकी वीजा धनी-मानी मुस्लिम देशों के लोगों का सपना है। वो एक ऐसी दुनिया के सपने देखते हैं जहां वे अपनी जिंदगी को बेहतर तरीके से जी सकें। घुट-घुटकर पहरों में जीना कितनी भी समृद्धि के साथ किसे स्वीकार है? एक मनुष्य होने के नाते आरोपित बंधन हमें रास नहीं आते।

   दुनिया के तमाम देशों के बीच भारत एक उम्मीद का चेहरा है। जब दुनिया में खून के दरिया बह रहे हैं तो गौतम बुद्ध, महावीर, नानक की घरती रास्ता दिखाती है। उपनिषद् हमें बताते हैं कि अंतर्यात्रा पर निकलें। मन की यात्रा पर जाएं। खुद का परिष्कार करें। एक बेहतर दुनिया के लिए सुंदर सपनें देखें और उन्हें सच करने के लिए जिंदगी लगा दें। हमने विविधता के साथ जीने और रहने की शक्ति सालों की साधना से अर्जित की है। इसलिए दुनिया के तमाम विचार, पंथ और विविधताएं यहां की जमीन पर आईं और इसकी खुशबू को बढ़ाती रहीं। हजारों फूल खिलने दो, का विचार हमारा ही है। हमने कभी नहीं कहा कि हम ही अंतिम सत्य हैं। जबकि दुनिया में बह रहे खून के पीछे खुद को सबसे बेहतर समझने की समझ है। अब लंबे समय के बाद फिर आतंकवाद का दानव सिर उठाता दिख रहा है। हमारे नौजवान फिर एक जहरीली हवा के प्रभाव में आ रहे हैं। ऐसे कठिन समय में हमें फिर से अपनी राष्ट्रीय चेतना और राष्ट्रीय मनीषा का पुनर्पाठ करना होगा। देश के हर कोने से राष्ट्रीय चेतना को जगाने वाली शक्तियों को एक सूत्र में जोड़ना होगा। यह काम सरकार के भरोसे नहीं होगा। लोगों के भरोसे होगा। राजनीति का पंथ अलग है, वे तोड़कर ही अपने लक्ष्य संधान करते हैं। हमें जोड़ने के सूत्र खोजने होंगे। राष्ट्रीय सवालों पर देश एक दिखे, इतनी सी कोशिश भी हमें सुरक्षित रख सकती है। हर खतरे से और हर हमले से।

गुरुवार, 9 मार्च 2017

संजय द्विवेदी द्वारा संपादित पुस्तक 'मीडिया की ओर देखती स्त्री' का लोकार्पण




भोपाल। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी द्वारा संपादित किताब 'मीडिया की ओर देखती स्त्री' का लोकार्पण 'मीडिया विमर्श' पत्रिका की ओर से गांधी भवन, भोपाल में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में निशा राय(भास्कर डाटकाम),आर जे अनादि( बिग एफ.एम),कौशल वर्मा(कोएनजिसिस,दिल्ली),अनुराधा आर्य(महिला बाल विकास अधिकारी बिलासपुर), शिखा शर्मा( इन्सार्ट्स),अन्नी अंकिता (दिल्ली प्रेस, दिल्ली),ऋचा चांदी( मीडिया प्राध्यापक),शीबा परवेज (फारच्यूना पीआर, मुंबई) ने किया। पुस्तक में कमल कुमार, विजय बहादुर सिंह, जया जादवानी,अष्टभुजा शुक्ल,उर्मिला शिरीष,मंगला अनुजा, अल्पना मिश्र, सच्चिदानंद जोशी,इरा झा,वर्तिका नंदा,रूपचंद गौतम, गोपा बागची, सुभद्रा राठौर,संजय कुमार, हिमांशु शेखर,जाहिद खान,रूमी नारायण, अमित त्यागी, स्मृति आदित्य, कीर्ति सिंह, मधु चौरसिया, लीना, संदीप भट्ट, सोमप्रभ सिंह, निशांत कौशिक, पंकज झा, सुशांत झा,माधवीश्री,अनिका अरोड़ा, फरीन इरशाद हसन, मधुमिता पाल, उमाशंकर मिश्र, महावीर सिंह, विनीत उत्पल, यशस्विनी पाण्डेय, आदित्य कुमार मिश्र के लेख शामिल हैं। इस पुस्तक में देश के जाने-माने साहित्यकारों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के 39 लेख शामिल हैं।
किताबः मीडिया की ओर देखती स्त्री
संपादकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशंस,1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्यः495 रूपए मात्र, पृष्ठः 184
पुस्तक अमेजान और फ्लिपकार्ड पर भी उपलब्ध है।

सोमवार, 6 मार्च 2017

एक साहसी जनप्रतिनिधि की ‘काशी हुंकार’

-संजय द्विवेदी

   एक प्रधानमंत्री का अपने चुनाव क्षेत्र में तीन दिन रूककर मतदाताओं से मिलना, चर्चा में है। जाहिर तौर पर ऐसा नरेंद्र मोदी ही कर सकते हैं। वे कर रहे हैं, आलोचनाओं के बाद भी कर रहे हैं। दिल्ली और बिहार के चुनाव परिणामों के बाद, कोई भी प्रधानमंत्री विधानसभा चुनावों में अपनी मौजूदगी को न सीमित करता, बल्कि इस बात से बचता कि ठीकरा उसके सिर न फोड़ा जा सके। किंतु नरेंद्र मोदी की शख्सियत अलग है, वे भले ही श्रेय लेना जानते हैं लेकिन पराजय के डर से मैदान छोड़ना भी उन्हें पसंद नहीं है। अपने चुनाव क्षेत्र में उनका तीन दिन रूकना और संपर्क करना, कई अर्थों में दुस्साहस ही कहा जाएगा। वे अपनी जान को जोखिम में डालकर यह क्यों कर रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है।
मोदी ही हैं सबसे बड़ी ताकतः
    यह बात तो साफ है कि उत्तर प्रदेश के मैदान में भाजपा की सबसे बड़ी शक्ति नरेंद्र मोदी हैं। यह भी मानिए कि उत्तर प्रदेश भाजपा जैसा पस्तहाल भाजपा संगठन शायद ही उत्तर भारत में दूसरा हो। बड़े-बड़े नेताओं की मौजूदगी के बाद भी, उत्तर प्रदेश भाजपा एक हारी हुयी टीम है। वो तो मोदी लहर और अमित शाह का चुनाव प्रबंधन था, जिसने उप्र में 2014 के लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित परिणाम दिए और राजग को 73 लोकसभा सीटें मिलीं।
   उप्र के विधानसभा चुनाव में आयातित नेताओं के भरोसे लड़ रही भाजपा के सामने मैदान जीतने की कठिन चुनौती है, जबकि उसके परंपरागत नेता कोपभवन में ही हैं। कई बार विधायक-सांसद और मंत्री रहे लोग अब भी मैदान छोड़ने को तैयार नहीं है और टिकट खुद को या परिवार को न मिलने पर कोपभवन में हैं। ऐसे में नरेंद्र मोदी-अमित शाह की टीम या तो उप्र का मैदान भगवान भरोसे छोड़ दे या खुद मैदान में उतरकर परिणाम दे। नरेंद्र मोदी रिस्क लेना जानते हैं, इसलिए वे खुद मैदान में कूदे हैं। उन्हें पता है उत्तर प्रदेश के वर्तमान नेतृत्व में कोई ऐसा चेहरा नहीं है जो परिणाम ला सके। इसके साथ ही सबकी सीमित अपील भी एक समस्या है। महंत आदित्यनाथ गोरखपुर मंडल में अपनी खास तरह की राजनीति के लिए जाने जाते हैं, जिसमें अनेक बार संगठन के ऊपर दिखने व दिखाने की कवाय़द भी शामिल दिखती है। सुलतानपुर के सांसद वरूण गांधी को इतने नाराज हैं कि वे पूरे चुनाव में अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं गए। ऐसे ही अन्य दिग्गज डा. मुरली मनोहर जोशी, विनय कटियार हैं तो पर इनकी मास अपील नहीं है। कुल मिलाकर उप्र नेताओं से भरा एक ऐसा राज्य हैं, जहां कार्यकर्ता और वोटबैंक दोनों नदारद है।
करो या मरो जैसे हालातः
   ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी और उनकी नयी टीम के सामने उप्र का मैदान करो या मरो जैसा ही है। यह भी मानिए कि वे मनमोहन सिंह या अटलबिहारी वाजपेयी नहीं हैं। मनमोहन सिंह मैदान में क्या उतरते क्योंकि उन्हें जनता का नेता माना नहीं जाता। अटल जी के समय में कल्याण सिंह जैसे कद्दावर नेता प्रदेश में थे, जिन्हें न सिर्फ प्रदेश की हर विधानसभा सीट की गहरी समझ थी बल्कि वे जनाधार के मामले भी किसी राज्य स्तरीय नेता से कम नहीं थे। नरेंद्र मोदी और अमित शाह इस प्रदेश की बीमारियों को जानते हैं और उसके अनुसार जैसे-तैसे उन्होंने भारी संख्या में अन्य दलों के नेताओं को भाजपा में शामिल कर हर क्षेत्र में भाजपा को लड़ाई में ला दिया है। कुछ छोटी जाति आधारित पार्टियों से तालमेल कर यादव विहीन पिछड़ा वर्ग को संगठित करने के सचेतन प्रयास किए हैं। अनजाने से केशव प्रसाद मौर्य को प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी और बसपा से स्वामी प्रसाद मौर्य की भाजपा में इंट्री कुछ कहती है। इसी तरह चुनाव अभियान में उमा भारती का होर्डिग्स में चेहरा होना, बताता है कि भाजपा को लोध वोटों की साधने की भी चिंता है।
    उप्र में नरेंद्र मोदी सक्रियता साफ बताती है वे उत्तर प्रदेश भाजपा संगठन और स्थानीय नेताओं की क्षमता पर भरोसा नहीं कर रहे। उन्हें पता है कि अकेले उत्तर प्रदेश के नेता यहां विजयश्री दिलाने की स्थिति में नहीं हैं। इसलिए उत्तर प्रदेश का मैदान खुद अध्यक्ष अमित शाह और उनके खास संगठन मंत्री ओम माथुर ने संभाल रखा है। हालात यहां तक हैं कि उत्तर प्रदेश में लंबे समय तक सक्रिय रहे संघ प्रचारकों और वहां रहे संगठनमंत्रियों को बहुत तरजीह नहीं दी गयी। मोदी-शाह अपने दम पर उप्र फतह कर क्या संदेश देना चाहते हैं, ये तो वे ही जानें, किंतु इतना तो तय है कि भाजपा का परंपरागत नेतृत्व और संगठन यहां हाशिए पर है। उत्तर प्रदेश के मैदान में बड़ी संख्या में दूसरे दलों से आए लोग भाजपा के टिकट पर मैदान में है। जाहिर तौर पर यह टीम भाजपा की नहीं मोदी-शाह की होगी। ऐसे में सारा कुछ ठीक रहा तो चुनाव बाद मोदी महात्मय के अलावा कोई चारा नहीं होगा किंतु अगर परिणाम विपरीत होते हैं तो नरेंद्र मोदी के खिलाफ लोग मुखर होगें।
टीम लीडर और मैदानी कार्यकर्ता की छविः

   उत्तर प्रदेश का मैदान दरअसल नरेंद्र मोदी की ही अग्निपरीक्षा है। क्योंकि 80 सांसदों वाले इस राज्य से भाजपा की पकड़ अगर ढीली होती है तो आने वाले समय में भाजपा के खिलाफ वातावरण बनना प्रारंभ हो जाएगा। विपक्षी दल भी उत्तर प्रदेश को एक प्रयोगभूमि मान रहे हैं, क्योंकि इसी मैदान से सन 2019 के संसदीय चुनाव की भावभूमि बन जाएगी। शायद इसीलिए उत्तर प्रदेश के मैदान में मोदी इसलिए दूसरों के भरोसे नहीं रहना चाहते। आप इसे उनका दुस्साहस भले कहें किंतु वे सुनिश्चित करना चाहते है उनके अपने चुनाव क्षेत्र में भाजपा असंतोष के बाद भी जीते ताकि वे अन्य सांसदों से उनके क्षेत्रों का हिसाब मांगने का नैतिक बल पा सकें। वाराणसी की सीटें हारकर मोदी और अमित शाह अन्य सांसदों का सामना कैसै करेगें, ऐसे तमाम प्रश्न मोदी टीम के सामने हैं। शायद इसीलिए मोदी ने परिणामों की परवाह न करते हुए अपेक्षित साहस का परिचय दिया है। खुद को एक सांसद, कार्यकर्ता और टीम लीडर की तरह मैदान में झोंक दिया है। परिणाम जो भी पर इससे उनकी लड़ाकू और मैदानी कार्यकर्ता की छवि तो पुख्ता हो ही रही है। 

सोमवार, 27 फ़रवरी 2017

भारतीय नौजवानों में जहर घोलता आईएस

-संजय द्विवेदी


     समूची मानवता के लिए खतरा बन चुके खूंखार आतंकी संगठन इस्लामिक स्टेट के प्रति भारतीय युवाओं का आकर्षण निश्चित ही खतरनाक है। कश्मीर से लेकर केरल और अब गुजरात में दो संदिग्धों की गिरफ्तारी चिंतनीय है ही। आखिर आईएस के विचारों में ऐसा क्या है कि भारतीय मुस्लिम युवा अपनी मातृभूमि को छोड़कर, परिवार और परिजनों को छोड़कर एक ऐसी दुनिया में दाखिल होना चाहता है, जहां से लौटने का रास्ता बंद है। इंटरनेट के प्रसार और संचार माध्यमों की तीव्रता ने जो दुनिया रची है, उसमें यह संकट और गहरा हो रहा है। हमारे नौजवान अगर गुमराही के रास्ते पर चलकर अपनी जिंदगी को जहन्नुम बनाने पर आमादा हैं तो देश के बुद्धिजीवियों, राजनेताओं, अफसरों, धर्मगुरूओं को जरूर इस विषय पर सोचना चाहिए। सही मायने में यह वैश्विक आतंकवाद की वह नर्सरी है जिसमें मजहब के नाम पर बरगलाकर युवाओं को इसका शिकार बनाया जा रहा है।
 गुजरात की घटना हमारे लिए एक चेतावनी की तरह है जिसमें इन संदिग्धों के तार सीधे बाहर से जुड़े हुए हैं और एक संदिग्ध की पत्नी भी उसे ऐसे कामों के लिए प्रेरित करती नजर आती है। हमें देखना होगा कि आखिर हम कौन सी शिक्षा दे रहे हैं और कैसा समाज बना रहे हैं। एक आरोपी के पिता का यह कहना साधारण नहीं है कि मेरे लिए तो जहर पीने की नौबत है। जो नौजवान बहकावे में आकर ऐसे कदम उठाते हैं उनके माता-पिता और परिवार पर क्या गुजरती है, यह अनुभव किया जा सकता है। पंथिक भावनाओं में आकर एक बार उठा कदम पूरी जिंदगी की बरबादी का सबब बन जाता है। हमें ऐसे कठिन समय में अपने नौजवानों को बचाने के लिए कड़े और परिणाम केंद्रित कदम उठाने होगें।
जहरीली शिक्षा पर लगे रोकः यह कहना बहुत आसान है कि कोई मजहब आतंक नहीं सिखाता। किंतु मजहब के व्याख्याकार कौन लोग हैं, इस पर ध्यान देने की जरूरत है। मजहबी शिक्षा के नाम पर खुले मदरसों में क्या पढ़ाया जा रहा है इसे देखने की जरूरत है। वहां शिक्षा दे रहे लोग सिर्फ शिक्षा दे रहे हैं या शिक्षा के नाम पर कुछ और कर रहे हैं, इसे देखना जरूरी है। पूरी दुनिया में आतंक का कहर बरपा रहे संगठनों से हमारे देश के युवाओं का क्या रिश्ता हो सकता है? वे कौन से कारण हैं जिनके कारण हमारी नई पीढ़ी उन आतंकी संगठनों के प्रति आकर्षित हो रही है? एक पराई जमीन पर चल रही जंग में हमारे नौजवान आखिर क्यों कूदना चाहते हैं? क्यों हमारे नौजवान अपनी जमीन और अपने वतन को छोड़कर सीरिया की राह पकड़ रहे हैं? हम इसका विश्वेषण करें तो हमें कड़वी सच्चाईयां नजर आएगीं। भारत के सभी बड़े उलेमा और मुस्लिम धर्मगुरुओं ने आईएस की हरकतों को इस्लाम विरोधी बताकर खारिज किया है। आखिर क्या कारण है कि भारत के युवा मुस्लिम धर्मगुरूओं और उलेमा की राय न सुनकर आईएस के बहकावे में आ रहे हैं? यही नहीं कश्मीर में शुक्रवार को हो रहे प्रदर्शनों में आईएस का झंडा लहराने की प्रेरणा क्या है? ऐसे अनेक कठिन सवाल हैं,जिनके उत्तर हमें तलाशने होगें।
अपने बच्चों को बचाना पहली जिम्मेदारीः आतंकवाद की इस फैलती विषबेल से अपने बच्चों को बचाना हमारी पहली जिम्मेदारी है। हमारे बच्चे अपनी मातृभूमि से प्रेम करें, अपने भारतीय बंधु-बांधवों से प्रेम करें, हिंसा-अनाचार और आतंकी विचारों से दूर रहें, आज यही हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। हूरों के ख्वाब में वे आज की अपनी सुंदर जिंदगी को स्याह न करें, यह बात उन्हें समझाने  की जरूरत है। हमारे परिवार, विद्यालय और शिक्षक इस काम में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। पंथ की सीमाएं उन्हें बतानी होगीं। जीवन कितना अनमोल है, यह भी बताना होगा। धर्म की उन शिक्षाओं को सामने लाना होगा जिससे विश्व मानवता को सूकून मिले। भाईचारा बढ़े और खून खराबा रोका जा सके। आज हम आतंकवाद के लिए पश्चिमी देशों और अमरीका को दोष देते नहीं बैठे रह सकते। क्योंकि आतंकवाद के खिलाफ हमारी जंग भले ही भोथरी हो, अमरीका और पश्चिमी देश अपने तरीके से आतंकवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं और सफल भी हैं। खासकर अमरीका और ब्रिटेन में आतंकी हमलों के बाद उन्होंने जो भी शैली अपनाई हो,वहां हमले नहीं हुए। दूसरी बात भारतीय राजनीति में विभाजनकारी और देशतोड़क शक्तियों का प्रभुत्व है, यहां देशहित से ऊपर वोट की राजनीति है। ऐसे में देश की एकजुटता प्रकट नहीं होती। एकजुटता प्रकट न होने से देश का मनोबल टूटता है और एक राष्ट्र के रूप में हम नहीं दिखते।

वसुधैव कुटुम्बकम् है विश्वशांति का मंत्रः भारत के अलावा दुनिया में पैदा हुए सभी पंथ विस्तारवादी हैं। धर्मान्तरण उनकी एक अनिवार्य बुराई है, जिससे तनाव खड़ा होता है। विवाद होते हैं। दुनिया के तमाम इलाकों में मची मारकाट इसी विस्तारवादी सोच का नतीजा है। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझना और अपने विचार को शेष पर लादने की सोच ने सारे संकट रचे हैं। दूसरों को स्वीकारना अगर दुनिया को आता तो हमारी पृथ्वी इतनी अशांत न होती। इसके विपरीत भारत विविधता और बहुलता को साधने वाला देश है। भारतीय भूमि पर उपजे सभी पंथ विविधताओं को आदर देने वाले हैं और वसुधैव कुटुम्बकम् हमारा ध्येय मंत्र है। हमारी सोच में सभी पंथ प्रभु तक पहुंचने का मार्ग है, हम ही श्रेष्ठ हैं- हम ऐसा दावा नहीं करते। दुनिया के सब विचारों, सभी पंथों और नवाचारों का स्वागत करने का भाव भारतीय भूमि में ही निहित है। इसे भले ही भारत और सनातन धर्म की कमजोरी कहकर निरूपित किया जाए, किंतु शांति का मार्ग यही है। हमने सदियों से इसलिए विविध विचारों, पंथों, मतों को संवाद के अवसर दिए। फलने-फूलने के अवसर दिए, क्योंकि शास्त्रार्थ हमारी परंपरा का हिस्सा है। शास्त्रार्थ इस बात का प्रतीक है कि सत्य की खोज जारी है, ज्ञान की खोज जारी है। हमने सत्य को पा लिया ऐसा कहने वाली परंपराएं शास्त्रार्थ नहीं कर सकतीं, क्योंकि वे विचारों में ही जड़वादी हैं। उनमें नवाचार संभव नहीं है, संवाद संभव नहीं हैं। अपनी आत्ममुग्धता में वे अंधेरे रचती हैं और अपने लोगों के लिए अंधकार भरा जीवन। वहां उजास कहां है, उम्मीद कहां हैं?  दुनिया के तमाम हिस्सों में अगर हिंसा, आतंकवाद और खून के दरिया बह रहे हैं, तो उन्हें अपने विचारों पर एक बार पुर्नविचार करना ही चाहिए। आखिर सारे पंथ, मजहब और विचारधाराएं अगर एक बेहतर दुनिया के लिए ही बने हैं तो इतनी अशांति क्यों है भाई? भारत जैसा देश जो इस संकट में दुनिया को रास्ता दिखा सकता है, के नौजवान भी अगर भटकाव के शिकार होकर बंदूकें हाथ में लेकर मानवता की हत्या करते दिखेगें तो हमें मानना होगा कि भारतीयता कमजोर हो रही है। हमारा राष्ट्रवाद शिथिल पड़ रहा है। हमारा दार्शनिक आधार दरक रहा है। अन्यथा कोई कारण नहीं कि भारत जो विश्व मानवता के सामने एक वैकल्पिक दर्शन का वाहक है, उसके नौजवान किसी जहरीली हवा के शिकार होकर अपने ही देश के जीवन मूल्यों की बलि देते दिखें। इस संकटपूर्ण  समय में हमें अपने बच्चों को संभालना है। उन्हें भारत बोध कराना है। मानवता के मूल्यों की प्रसारक धरती से, फिर से शांति का संदेश देना है। पूरी दुनिया आपकी तरफ उम्मीदों से देख रही है। कृपया आतंक की आंधी में शामिल होकर अपनी माटी को कलंकित मत कीजिए।

राजनीति के बिगड़े बोल


-संजय द्विवेदी


     भारतीय राजनीति में भाषा की ऐसी गिरावट शायद पहले कभी नहीं देखी गयी। ऊपर से नीचे तक सड़कछाप भाषा ने अपनी बड़ी जगह बना ली है। ये ऐसा समय है जब शब्द सहमे हुए हैं, क्योंकि उनके दुरूपयोग की घटनाएं लगातार जारी हैं।राजनीति जिसे देश चलाना है और देश को रास्ता दिखाना है,वह खुद गहरे भटकाव की शिकार है। लोग निरंतर अपने ही बड़बोलेपन से ही मैदान जीतने की जुगत में हैं और उन्हें लगता है कि यह टीवी समय उन्हें चुनावी राजनीति में स्थापित कर देगी। दिखने और बोलने की संयुक्त जुगलबंदी ने टीवी चैनलों को कच्चा माल उपलब्ध कराया हुआ है तो राजनीति में जल्दी स्थापित होने की त्वरा में लगे नए नौजवान भी भाषा की विद्रूपता का ही अभ्यास कर रहे हैं।
   यह गिरावट चौतरफा है। बड़े रास्ता दिखा रहे हैं, नए उनसे सीख रहे हैं। टीवी और सोशल मीडिया इस विद्रूप का प्रचारक और विस्तारक बना हुआ है। न पद का लिहाज, न आयु का, ना ही भाषा की मर्यादा-सब इसी हमाम में नंगे होने को आतुर हैं। राजनीति से व्यंग्य गायब है, हंसी गायब है, परिहास गायब है- उनकी जगह गालियों और कटु वचनों ने ले ली है। राजनीतिक विरोधी के साथ शत्रु की भाषा बोली और बरती जा रही है। यह संकटकाल बड़ा है और कठिन है।
   पहले एकाध आजम खां, मायावती और आदित्यनाथ थे। आज सब इन्हें हटाकर खुद को उनकी जगह स्थापित करना चाहते हैं। केंद्रीय राजनीति के सूरमा हों या स्थानीय मठाधीश कोई भाषा की शुचिता का पालन करता नहीं दिखता। जुमलों और कटु वचनों ने जैसी जगह मंचों पर बनाई, उसे देखकर हैरत होती है। बड़े पदों पर आसीन राजनेता भी चुनावी मोड में अपने पद की मर्यादा भूलकर जैसी टिप्पणियां कर रहे हैं, उसका मूल्यांकन समय करेगा। किंतु इतना तो यह है कि यह समय राजनीति भाषा की गिरावट का समय बन चुका है।
  आलोचना, विरोध, षडयंत्र का अंतर भी लोग भूल गए हैं। आलोचना अगर स्वस्थ तरीके से की जाए, अच्छी भाषा में की जाए तो भी प्रभाव छोड़ती है। अच्छी भाषा में भी कड़ी से कड़ी आलोचना की जा सकती है। किंतु इस टीवी समय में राजनेता की मजबूरी कुछ सेकेंड की बाइट में बड़ा प्रभाव छोड़ने की रहती है। ऐसे में वह कब अपनी राह से भटक जाता है उसे खुद भी पता नहीं लगता। भाषा की गिरावट यह दौर आने वाले समय में भी रूकने वाला नहीं है। टीवी से सोशल मीडिया, फिर मोबाइल टीवी तक यह गिरावट जारी ही रहने वाली है। हमारे समय का संकट यह है कि राजनीति में आर्दश हाशिए पर हैं। शुचिता और पवित्रता के सवाल राजनीति में बेमानी लगने लगे हैं। जिनकी वाणी पर देश मुग्ध रहा करता था ऐसा राजनेता न सिर्फ खामोश हैं बल्कि काल के प्रवाह में वे अप्रासंगिक भी लगने लगे हैं। संसद से लेकर विधानसभाओं तक में बहस का स्तर गिर रहा है। नेता सदनों से भाग रहे हैं और मीडिया पर सारी जंग लड़ने पर आमादा हैं। ऐसे कठिन समय में राजनेताओं, राजनीतिक दलों और राजनीतिक विश्लेषकों को नई राह तलाशनी होगी। उन्हें एक नया पथ बताना होगा जिसमें स्वस्थ संवाद की बहाली हो। मीडिया की व्यापक मौजूदगी, कैमरों की चकाचौंध और पल-पल की कवरेज के बावजूद हमारे चुनाव अभियानों से गंभीरता गायब है, मुद्दे गायब हैं और लोगों का दर्द गायब है। आरोप-प्रत्यारोप और दूसरे से बेहतर मैं, सारी बहस इसी पर टिकी है। यह गजब है ईमानदारी, भ्रष्टाचार, जातिवाद और परिवादवाद जैसे सवालों पर राजनीतिक दलों ने शीर्षासन कर दिया है। कोई दल आज प्रत्याशी चयन तक में शुचिता का संकल्प नहीं ले सकता। दलबदल तो थोक में जारी है। सरकार की आज दूसरे दलों में जाकर शामिल हो जाती है। ऐसे में पार्टी या विचारधारा के सवाल बहुत पीछे छूट गए हैं। काडर पीछे छूट गया है और जीत सकने वाले उम्मीदवारों का हर दल में स्वागत है। उनका अतीत राजनीतिक दलों के मूल्यांकन का विषय नहीं है। अब सिर्फ दलों के झंडे अलग हैं और मैदानी राजनीति में उनका आचरण कमोबेश एक सा ही है। ऐसे में ये उम्मीदवार जीतकर भी एक बड़ी पराजय सरीखे ही हैं। सारे सिद्धातों की बलि व्यवहारिक राजनीति के नाम पर चढ़ाई जा रही है। राजनीतिक दलों में गिरावट की स्पर्धा है। कौन ज्यादा गिर सकता है, इसकी होड़ है। शुचिता और पवित्रता के शब्द मैदानी राजनीति के लिए अछूत ही हैं। राजनीति के अपराधीकरण के खिलाफ बोलते हुए राजनेता अपने ही दल के अपराधियों को महिमामंडित करने से नहीं चूकते। यहां तक की आलोचना का केंद्र रहा व्यक्ति दल बदल करते ही नए दल के लिए पवित्र हो जाता है।
     डा. राममनोहर लोहिया शायद इसीलिए कहते थे लोकराज लोकलाज से चलता है। लेकिन हमने देखा उनके अनुयायियों ने लोकलाज की सारी सीमाएं तोड़ दीं। वहीं पं. दीनदयाल उपाध्याय भी हमें चेताते हैं कि अगर राजनीतिक दल गलत उम्मीदवारों को आपके बीच भेजते हैं तो राजनीतिक दलों की गलती ठीक करना जनता का काम है। वे पोलिटिकल डायरी नामक पुस्तक में लिखते हैं-कोई बुरा उम्मीदवार केवल इसलिए आपका मत पाने का दावा नहीं कर सकता कि वह किसी अच्छी पार्टी की ओर से खड़ा है। बुरा-बुरा ही है और दृष्ट वायु की कहावत की तरह वह कहीं भी और किसी का भी हित नहीं कर सकता। पार्टी के हाईकमान ने ऐसे व्यक्ति को टिकट देते समय पक्षपात किया होगा या नेकनियती बरतते हुए भी वह निर्णय में भूल कर गया होगा। अतः ऐसी गलती सुधारना उत्तरदायी मतदाता का कर्तव्य है।
    आज जबकि राजनीति के मैदान कीचड़ से सने हैं, तो भी हमें इसकी सफाई के लिए कुछ जतन तो करने ही होगें। चुनाव एक अवसर होते हैं जब राजनीतिक दलों और राजनीति के शुद्धिकरण की सोच रखने वालों को इसकी शुचिता पर सोचना ही चाहिए। यह पहल हमने आज नहीं की तो कल बहुत देर हो जाएगी।

मंगलवार, 14 फ़रवरी 2017

पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत हुए ‘अक्षरा’ के प्रधान संपादक कैलाश चंद्र पंत

विस्तृत रिपोर्टः

 पंतजी हिंदी के अप्रतिम योद्धाः राजेंद्र शर्मा







भोपाल। हिंदी और साहित्य के क्षेत्र में अक्षरा के प्रधान संपादक कैलाश चंद्र पंत का अवदान महत्वपूर्ण है। सभी विचारधाराओं के लोगों के बीच उनकी प्रतिष्ठा है। साहित्यिक पत्रकारिता में वे उन मूल्यों को लेकर चले हैं, जो आजादी के पूर्व की पत्रकारिता में थे। पंत जी अक्षरा के माध्यम से सिर्फ साहित्य की साधना ही नहीं कर रहे, बल्कि हिंदी के सम्मान की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह विचार हिंदी दैनिक स्वदेश के प्रधान संपादक राजेंद्र शर्मा ने व्यक्त किए। मीडिया विमर्श पत्रिका की ओर से गांधी भवन, भोपाल में आयोजित पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान समारोह में श्री शर्मा बतौर मुख्यअतिथि उपस्थित थे। 
      श्री शर्मा ने कहा कि सफल व्यक्ति वही होते हैं, जो समाज को दिशा देते हैं। पंतजी यही कर रहे हैं। हिंदी की प्रतिष्ठा का विषय जहाँ भी आया, पंत जी ने वहां अपनी भूमिका का निर्वहन किया है। अभी अपनी स्वर्ण जयंती वर्ष के अवसर पर स्वदेश समाचार पत्र ने संकल्प लिया है कि हिंदी समाचार पत्रों में अंग्रेजी भाषा के गैर जरूरी शब्दों के उपयोग को ख़त्म करने के लिए एक वातावरण बनाया जाये। जब हमने इसकी योजना के लिए बैठक बुलाई तो पंतजी का मार्गदर्शन हमें प्राप्त हुआ। उन्होंने कहा कि आज का मीडिया हिंदी को हिंग्लिश बनाकर उसकी आत्मा को ही खंड-खंड कर रहा है। हिंदी की दुर्दशा के पीछे एक प्रमुख कारण हमारे प्रारंभिक नेतृत्व की कमजोरी भी है। यदि मजबूती के साथ शुरुआत में ही संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा तय कर दिया होता, तब आज यह स्थिति नहीं होती। उस समय अंग्रेजी को हम पर थोप दिया गया, जो अब तक हमारे दिमाग पर सवार है। उन्होंने कहा कि नेतृत्व की कमजोरी 1947 में भी दिखी थी। हमारा नेतृत्व 1947 में थोड़ी दृढ़ता दिखा देता तो देश बंटता नहीं। जैसी स्थिति हमारे देश में बनी थी, वैसी गृहयुद्ध की स्थिति अमेरिका में भी बनी थी। लेकिन, अमेरिका के राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन ने कह दिया था कि गृहयुद्ध मंजूर है, लेकिन देश नहीं बंटने दूंगा। 
    श्री शर्मा ने कहा कि आज समाज में राष्ट्रवादी सोच की कमी दिखाई देती है, इसकी बड़ी वजह अंग्रेजी और अंग्रेजियत है। हमने अंग्रेजी के प्रभाव को समाप्त करने के लिए मिल-जुल कर प्रयास करना होगा। उन्होंने बताया कि हिंदी की प्रतिष्ठा के लिए पंतजी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। पंतजी ने साहित्य और हिंदी पर सरकारी आधिपत्य के खिलाफ लड़ाई लड़ी और उसमें सफलता प्राप्त की। उन्होंने अनेक प्रमुख साहित्यकारों को जोड़कर हिंदी के लिए आवाज उठाई है। 
हिंदी के प्रचार-प्रसार का दायित्व हम सबका : सम्मान समारोह की अध्यक्षता कर रहे हरिभूमि के समूह संपादक डॉ. हिमांशु द्विवेदी ने कहा कि साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित करके मीडिया विमर्श अनुकरणीय कार्य कर रही है। यह 9वां सम्मान समारोह है। उन्होंने अपनी बात प्रसिद्ध शायर वसीम बरेलवी की शायरी वसूलों पर जहां आंच आए तो टकराना जरूरी है, जो जिंदा तो फिर जिंदा नजर आना जरूरी है से शुरू करते हुए पत्रकारिता की चुनौतियों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता में कल भी चुनौतियां थीं, आज भी हैं और आगे भी रहेगीं। ऐसे में इस क्षेत्र में दो तरह के लोग शुरू से रहे हैं। एक वो जो किस्मत के भरोसे बैठकर इंतजार करते हैं कि किस्मत की लहरें जहां ले जाएंगी, वहां चले जाएंगें। दूसरे वे होते हैं जो लहरों के विरूद्ध दरिया को पार करते हैं, ऐसे ही दरिया पार करने वाले लोगों को दुनिया याद करती है। हिंदी को बचाने के संबंध में उन्होंने कहा कि हिंदी के प्रचार-प्रसार का दायित्व सिर्फ सरकार का नहीं है, बल्कि देश के सभी लोगों का कर्तव्य है। इस संबंध में उन्होंने कहा कि इस समय स्वदेश ने हिंदी से अंग्रेजी के शब्दों को बाहर करने के लिए जो आग्रह किया है, मेरा संस्थान उस आग्रह के साथ है। 
अंग्रेजियत से मुक्ति था उद्देश्य था : अक्षरा के प्रधान संपादक कैलाश चंद्र पंत ने अपने संबोधन में कहा कि अंग्रेजों से देश को आज़ाद कराना मात्र स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य नहीं था बल्कि, सम्पूर्ण अंग्रेजियत से मुक्ति स्वतंत्रता आंदोलन का उद्देश्य था। महात्मा गांधी ने यह समझ लिया था कि आज़ादी के बाद देश को एक सूत्र में जोड़कर रखने के लिए हिंदी भाषा के संस्थानों को मजबूत करना जरूरी है। इसीलिये महात्मा गांधी ने देश के अहिन्दी प्रान्तों में जाकर हिंदी का प्रचार-प्रसार किया। वे हिंदी को भारत की एकता का सबसे बड़ा माध्यम मानते थे। श्री पंत ने कहा कि हिंदी के प्रति अपना जीवन समर्पित करने वाले लोग उनकी प्रेरणा हैं। उन्होंने कहा कि मानसिक गुलामी के कारण हम स्वतंत्रता के 70 साल बाद भी अपनी भाषा के प्रति जागरूक नहीं हैं। साहित्यिक पत्रकारिता की भूमिका के सम्बंध में उन्होंने कहा कि जिस प्रकार मुख्यधारा की पत्रकारिता का दायित्व है कि जो भी घटित हुआ, उसे उसी प्रकार निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ समाज के सामने प्रस्तुत करें। उसी प्रकार साहित्यिक पत्रकारिता का दायित्व है कि साहित्य में जो भी धाराएं चल रही हैं, वे राष्ट्र और समाज के लिए कितनी लाभदायक और हानिकारक हैं, इस पर नज़र रखना। 
    उन्होंने कहा कि आज जो जन बोलता है, वो तंत्र नहीं समझ पाता है और जो तंत्र बोलता है, वह जन की भाषा नहीं है। इस कारण जन और तंत्र के बीच एक खाई बनती है। इस खाई को भरने के जरूरत है। उन्होंने कहा कि अंग्रेजी में बनने वाले कानूनों को गांव का आदमी कैसे समझ सकेगा। अंग्रेजी के कारण बड़ी गड़बड़ हुयी है। अंग्रेजी ने ही भारत में राष्ट्रवाद को विवादित बनाया है। राष्ट्रवाद के लिए अंग्रेजी का नेशन शब्द का उपयोग किया जाता है। नेशन एक प्रकार से राजनीतिक शब्द है, जबकि भारत में राष्ट्रवाद साहित्य, संस्कृति और सभ्यता से जुड़ा हुआ है। नेशन की उत्पत्ति नाज़ीवाद से हुयी है, जिसका भारत के राष्ट्रवाद से कोई लेना-देना नहीं है। 
चरैवेति-चरैवेति मंत्र है पंतजी का : समारोह के विशिष्ट अतिथि एवं मध्यप्रदेश सरकार के पूर्व मुख्य सचिव कृपाशंकर शर्मा ने कहा कि वे पहली ही मुलाकात में मूल्यों के प्रति पंतजी की प्रतिबद्धता से बहुत प्रभावित हो गए थे। उन्होंने कहा कि ऋग्वेद के त्रेत्रेय ब्राह्मण के एक मंत्र चरैवेति-चरैवेति को अपना कर पंतजी अपने ध्येय पथ पर निरंतर चले जा रहे हैं। जिस समय हिंदी में प्रदूषण बढ़ता जा रहा है, उस समय में हिंदी के लिए पंतजी खड़े दिखाई देते हैं। हिंदी में अनावश्यक अंग्रेजी शब्दों के उपयोग से हिंदी की समृद्धि रुक गयी है। उन्होंने कहा कि पंतजी ने जितनी सेवा हिंदी की है, उतना ही महत्वपूर्ण योगदान राष्ट्रवाद को पुष्ट करने में है। आज भारतीय संस्कृति के सामने अनेक चुनौतियाँ हैं। अंग्रेजी मीडिया में जिस प्रकार की भावनाएं व्यक्त की जा रही हैं, वे किसी भी प्रकार राष्ट्रहित में नहीं है। भारतीय राष्ट्रवाद के संबंध में भ्रम और मिथ्या धारणा हमारी शिक्षा पद्धति की खामी के कारण है। शिक्षा में सुधार आवश्यक है। 
    मीडिया विमर्श के 'राष्ट्रवाद और मीडिया' विशेषांक का जिक्र करते हुए श्री शर्मा ने कहा कि राष्ट्रवाद पर मीडिया विमर्श के दो अंक देखकर अच्छा लगा कि मीडिया का एक वर्ग राष्ट्रवाद पर विचार कर रहा है। आज जरूरत है कि राष्ट्रवाद की भावना और मूल्यों को समझा और समझाया जाये। आज बहुत से प्रायोजित तत्व भारतीयता को चोट पहुँचाने की कोशिश में लगे हुए हैं। ऐसे राष्ट्र विरोधी तत्वों को असफल करने के लिए राष्ट्रहित में लिखना जरूरी है। 
हिंदी के योद्धा हैं दादा : पद्मश्री से अंलकृत विजयदत्त श्रीधर ने कैलाश चंद्र पंत की जीवनयात्रा और पत्रकारीय सफर का विवरण देते हुए बताया कि दादा केवल अक्षरा के संपादक नहीं हैं, बल्कि उन्होंने हिंदी के समाचार पत्रों में अंग्रेजी के शब्दों का जिस प्रकार घटिया प्रयोग बढ़ रहा है, वे उसके विरुद्ध अलख जगाने वाले योद्धा हैं। मऊ में जन्मे दादा ने अपनी पत्रकारिता का शुभारंभ 1972 में इंदौर समाचार से किया। दादा नवभारत, नवप्रभात और शिक्षा प्रदीप जैसे अन्य प्रतिष्ठित समाचार पत्रों में उन्होंने काम किया। पंतजी की लेखनी और संपादकीय कौशल के कारण भवानी प्रसाद के साप्ताहिक समाचार पत्र का जनधर्म का पाठक इंतजार किया करते थे। इस समाचार पत्र का प्रत्येक अंक एक विशेषांक होता था। वर्ष 2003 से साहित्यिक पत्रिका 'अक्षरा' की संपादकीय व्यवस्था पंतजी को सौंपी गई। पंतजी अक्षरा को साहित्य से थोड़ा-सा बाहर ले गए। उन्होंने अक्षरा में वैचारिक आलेखों की श्रृंखला की शुरुआत की, जिससे यह पत्रिका लोगों के बीच लोकप्रिय हो गई। पंतजी के लोकसंपर्क और लोगों को अपना बनाने के आत्मीय व्यवहार के संबंध में श्री श्रीधर ने बताया कि देश का ऐसा कोई कोना नहीं होगा, जहाँ पंतजी के अपने लोग नहीं होंगे। वे लोगों को अपने परिवार का हिस्सा बना लेते हैं। पंतजी ने हिंदी भवन को भी ऐसा सक्रिय मंच बना दिया, जहाँ निरंतर कुछ न कुछ होता रहता है। हिंदी भवन पंतजी की योजना से प्रत्येक आयु वर्ग के बौद्धिक संवर्धन के लिए गतिविधियों का संचालन करता है। उन्होंने कहा कि हर शहर में ऐसी विभूतियां होती हैं, जो शहर की पहचान बन जाती हैं। ऐसी ही विभूति कैलाश चंद्र पंत हैं। 81 साल के होने के बाद भी वे इतना गतिशील हैं कि सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में उनकी सक्रियता सबको प्रेरित करती है।
साहित्य का सरलीकरण अक्षरा की विशेषता : वरिष्ठ अभिनेता एवं रंगकर्मी राजीव वर्मा ने बताया कि उनके पिता को दहेज में किताबों से भरा हुआ एक बक्सा, हारमोनियम और कुछ बर्तन मिले थे। किताबें साहित्य और इतिहास की थीं। कुछ उपन्यास भी थे। उन्होंने कहा कि वह साहित्य के विद्यार्थी हैं। उपन्यास को कहानी की तरह पढ़ता था। लेकिन, जब अक्षरा की संपादक सुनीता खत्री से परिचय हुआ और उन्होंने अक्षरा मुझे भेजना शुरू किया। इसके बाद अक्षरा में प्रकाशित नाटक और कहानियों पढऩा शुरू किया, तब पहली बार लगा कि साहित्य समाज के आम लोगों के लिए भी होता है। इससे पहले मैं सोचता था कि साहित्य सिर्फ विद्वानों के लिए नहीं लिखा जाता है, लेकिन अक्षरा ने मेरा यह भ्रम तोड़ा। प्रतिष्ठित पत्रिका साहित्य को सरल ढंग से लोगों के बीच लेकर जाती है, यह उसकी विशेषता है। श्री वर्मा ने बताया कि अक्षरा में प्रकाशित कई कहानियों पर मैंने छोटे-छोटे नाटक भी लिखवाए।
    वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. परमात्मानाथ द्विवेदी ने सम्मान समारोह के प्रस्तावित भाषण में कहा कि मीडिया विमर्श की ओर से नौ वर्षों से प्रतिवर्ष पंडित बृजलाल द्विवेदी की स्मृति में हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के लिए समर्पित संपादक का सम्मान किया जाता है। इस वर्ष 'पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान-2017'साहित्य क्षेत्र की महत्त्वपूर्ण पत्रिका 'अक्षरा' के संपादक कैलाश चंद्र पंत को दिया गया। श्री पंत  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी एवं लेखक हैं। पिछले तीन दशक से वे साहित्य पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका'अक्षरा' का संपादन कर रहे हैं।
   इस अवसर पर सर्वश्री रामेश्वर मिश्र, प्रो. कुसुमलता केडिया, कवि शिवकुमार अर्चन, सुबोध श्रीवास्तव, महेंद्र गगन, रमाकांत श्रीवास्तव, उपन्यासकार इंदिरा दांगी, लाजपत आहूजा, पूर्व विधायक पीसी शर्मा, डा. श्रीकांत सिंह, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी.शशिकला, डा. अविनाश वाजपेयी, पत्रकार प्रिंस गाबा, प्रकाश साकल्ले, दिनकर सबनीस, महेश सक्सेना, शिवशंकर पटेरिया. अनुराधा आर्य, डा. रामदीन त्यागी सहित अनेक पत्रकार, साहित्यकार एवं रचनाकार उपस्थित रहे। कार्यक्रम का संचालन संस्कृतिकर्मी विनय उपाध्याय ने किया।
   इसके पूर्व के सत्र में विचारक एवं राजनेता हरेंद्र प्रताप(पटना) ने पंडित दीनदयाल उपाध्याय की पुण्यतिथि प्रसंग पर एकात्म मानवदर्शन की प्रासंगिकता पर व्याख्यान दिया। इस सत्र की अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला ने की। कार्यक्रम की प्रस्तावना मीडिया विमर्श के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने रखी और संचालन डॉ. सौरभ मालवीय ने किया। 
प्रस्तुतिः लोकेंद्र सिंह