गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

विश्व बाजार का सांस्कृतिक एजेंट न बने सिनेमा

-संजय द्विवेदी

  जब हर कोई बाजार का माल बनने पर आमादा है तो हिंदी सिनेमा से नैतिक अपेक्षाएं पालना शायद ठीक नहीं है। अपने खुलेपन के खोखलेपन से जूझता हिंदी सिनेमा दरअसल विश्व बाजार के बहुत बड़े साम्राज्यवादी दबावों से जूझ रहा है। जाहिर है कि यह वक्त नैतिक आख्यानों, संस्कृति और परंपरा की दुहाई देने का नहीं है। हिंदी सिनेमा अब आदर्शों के तनाव नहीं पालना चाहिता । वह अब सिर्फ विश्व बाजार का सांस्कृतिक एजेंट है। उसके ऊपर अब सिर्फ बाजार के नियम लागू होते हैं।मांग और आपूर्ति के इस सिद्धांत पर वह खरा उतरने को बेताब है।
कला सिनेमा को निगलने के बादः
 यह अकारण नहीं है कि कला सिनेमा की एक पूरी की पूरी धारा को यह बाजार निगल गया। कला या समानांतर सिनेमा से जुड़ा जागरुक तबका भी अब इसी बाजार की ताल से ताल मिलाकर मालबनाने में लगा है। ऐसे में सिनेमा के सामाजिक उत्तरदायित्व और उसके सरोकारों पर बातचीत बहुत जरूरी हो जाती है। ऐसे में समाज को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले इस माध्यम का विचलन और उसके संदेशों को लेकर लंबी बहसें चलती रही हैं, लेकिन अब इसका दौर भी थम गया है। शायद इस सबने यह मान लिया है कि इस माध्यम से जन अपेक्षाएं पालना ही अनैतिक है। सिनेमा बनाने वाले भी यह कहकर हर प्रश्न का अंत कर देते हैं कि हम वहीं दिखते हैं जो समाज में घट रहा है।लेकिन यह बयान सत्य के कितना करीब है, सब जानते हैं। सच कहें तो आज का सिनेमा समाज में चल रही हलचलों का वास्तविक आईना कभी प्रस्तुत नहीं करता । वह उसे या तो अंतिरंजित करता है या चीजों को अतिसरलीकृत करके पेश करता है। 47 के पहले या 60 के दशक में दर्शक अपने नैतिक मूल्यों के लिए हीरो को लड़ते और बुरी ताकतों पर विजय प्राप्त करते हुए देखते थे। प्रेम और नैतिक आदर्श के लिए लड़ने वाला हीरो समाज में स्वीकारा जाता था। नेहरू युग के बाद लोगों की टूटती आस्था, आजादी के सपनों से छल की भावना बलवती हुई तो मुख्यधारा का सिनेमा अभिताभ बच्चन के रुप में एक में एक ऐसी व्यक्तिगत सत्ताके स्थापना का गवाह बना जो अपने बल और दुस्साहस सेल लोगों की लड़ाई लड़ता है।
कहां खो गया नायकः
    आज का सिनेमा जहां पहुंचा है, वहां नायक-खलनायक और जोकर का अंतर ही समाप्त हो गया है। इसके बीच में चले कला फिल्मों के आंदोलन को उनका सचऔर उनकीवस्तुनिष्ठ प्रस्तुतिही खा गई । यहां यह तथ्य उभरकर सामने आया कि बाजार में झूठ ही बिक सकता है, सच नहीं। इस एक सत्य की स्थापना ने हिंदी सिनेमा के मूल्य ही बदल दिए। दस्तक, अंकुर, मंथन, मोहन जोशी हाजिर हो, चक्र, अर्धसत्य, पार, आधारशिला, दामुल, अंकुश, धारावी जैसी फिल्में देने वाली धारा ही कहीं लुप्त हो गई। एक सामाजिक माध्यम के रूप में सिनेमा के इस्तेमाल की जिनमें समझ थी वे भी मुख्यधारा के साथ बहने लगे। यहां यह बात भी काबिले गौर है कि कला फिल्मों ने अपने सीमित दौर में भी अपनी सीमाओं के बावजूद व्यावसायिक सिनेमा की झूठी और मक्कार दुनिया की पोल खोल दी। यह सही बात है कि आज सिनेमा का माध्यम अपनी तकनीकगत श्रेष्ठताओं, प्रयोगों के चलते एक बेहद खर्चीला माध्यम बन गया है। ऐसे में सेक्स, हिंसा उनके अतिरिक्त हथियार बन गए हैं। पुराने जमाने में भी वी. शांताराम से लेकर गुरुदत्त, ख्वाजा अहमद अब्बास ने व्यावसायिक सिनेमा में सार्थक हस्तक्षेप किया, लेकिन आज का सिने-उद्योग सिर्फ मुनाफाखोरी तक ही सीमित नहीं है, उसके इरादे खतरनाक हैं। काले धन की माया, काले लोग इस बाजार को नियंत्रित कर रहे हैं। आज के मुख्यधारा का सिनेमा समाज के लिएनहीं बाजार के लिएहै। देशभक्ति, प्रेम, सामाजिक सरोकार सब कुछ यदि बेचने के काम आए तो ठीक वरना दरकिनार कर दिये जाते हैं। नकली इच्छाएं जगाने, मायालोक में घूमते इस सिनेमा का अपने आसपास के परिवेश से कोई लेना-देना नहीं है। इसीलिए आज उसके पास कोई नायकनहीं बचा है। पहले एकांत में नाचते नायक-नायिका इसलिए अब भीड़ में नाचते हैं । शोर का संगीत और शब्दों का अकाल इस सिनेमा की दयनीयता का बखान करते हैं । सच कहें तो भारतीय जीवन का अनिवार्य हिस्सा बने होने के बावजूद सिनेमा पर जनता का कोई बौद्धिक अंकुश नहीं रह गया है । परिणाम यह हुआ है कि हिंदी सिनेमा पागल हाथी की तरह व्यवहार कर रहा है।
मनोविकारी फिल्मों का समयः
   हिंदी सिनेमा तो वैसे ही हॉलीवुड की जूठन उठाने और खाने के लिए मशहूर है। इसीलिए प्रेम के कोमल और मोहक अंदाज की फिल्मों के साथ मनोविकारी प्रेम की फिल्में भी बालीवुड में खूब बनीं । एक दौर में शाहरूख खान ऐसी मनोविकारी प्रेम की फिल्मों के महानायक बन गए । सही अर्थों में मनोविकारों से ग्रस्त प्रेमी को पहली बार बालीवुड में शाहरूख खान ने ग्लैमराइज्डकिया । फिल्मबाजीगरसे प्रेम में हिंसा व उन्माद के जिस दौर की शुरूआत हुई, ‘डरऔरअंजाममें उसे और विस्तार मिला । फिल्म बाजीगरमें शिल्पा शेट्टी के प्रेम में दीवाना शाहरूख खान छत से धकेल कर उसकी हत्या कर देता है। डरमें जूही की दीवानगी में वह इस कदर पागल है कि वह जूही के पति सन्नी देओल की जान से पीछे पड़ जाता है। अंजाममें शाहरूख, शादीशुदा माधुरी दीक्षित की चाहत में उसके पति की हत्या कर डालता है। इस शाहरूख लहरकी सवारी नाना पाटेकर भी अग्निसाक्षीमें करते नजर आते हैं। इस फिल्म में नाना पाटेकर स्लीपिंग विद द एनमीके नायक सरीखा पति साबित होते हैं। पूरी फिल्म एक ऐसे सनकी इंसान की कथा है, जो यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसकी पत्नी किसी और से बात भी करे । दीवानगी की इस हिंसक हद से आतंकित उसकी पत्नी कहती है वह मुझे इतना प्यार करता है कि मुझको छूकर गुजरने वाली हवा से भी नफरत करने लगा है। नाना इस फिल्म में मुहब्बत के तानाशाह के रूप में नजर आते हैं। इसके बावजूद ये फिल्में सफल रहीं। बदलते जीवन मूल्यों की बानगी पेश करती ये फिल्म एक नए विषय से साक्षात्कार कराती हैं। प्रेम की उदात्त भावनाओं के प्रति आस्था दिखाने वाला समाज एक हिंसक एवं क्रूर प्रेमी को सिर क्यों चढ़ाने लगा है, यह सवाल वस्तुतः एक बड़े समाज शास्त्रीय अध्ययन का विषय थोड़े अलग जरूर है, लेकिन वह भी प्रेम के विकृत रूप का ही परिचय कराती है।
प्रेम के चित्रण का इतिहासः
 आप हिंदी सिनेमा के 100 सालों का मूल्यांकन करें तो वह मूलतः प्रेम के चित्रण का इतिहास है। मानव सभ्यता के विकास के साथ-साथ दरअसल यौन सम्बन्धों की उन्मुक्ति एवं वर्जनाओं का भी रूप बदलता रहा है। सिनेमा की संपूर्ण यात्रा में प्रेम संबंधों की व्याख्या का दौर सबसे महत्वपूर्ण है। हिंदुस्तानी लोक चेतना में प्रेम के इस तत्व की जगह वैसे भी बहुत बड़ी है। दूसरे यौन संबंधों पर खुली बहस की कम गुंजाइश के कारण हम इसके अक्स एवं विकल्प परदे पर तलाशते रहे । दमित इच्छाओं एवं यौन कुंठाओं के इसी संदर्भ की समझ ने हिंदी सिनेमा व्यवसायियों को एक बेहतर मसाला दिया। गीत संगीत एवं प्रेम की इस चेतना का व्यवसाय फिल्म उद्योग की प्राथमिकता बन गई। इस सबके बावजूद हिंसा से लबरेज यह प्रेम, भारतीय दर्शकों के लिए बहुत अजनबी न था। हिंसाचार की शुरुआत और अंत अपने प्रेम को पाने या अनाचार से मुक्ति के लिए होती थी। पर प्रेम के आयातित संस्करण में अब अपनी मुहब्बत का ही गला घोंटने की तैयारियों पर जोर है। हिंसा प्रेमका यह दौर वास्तव में भारतीय सिने जगत की रेखांकित की जाने लायक परिघटना है, जो कहीं से भी प्रेम के परंपरागत चरित्र से मेंल नहीं खाती । हिंसा भारतीय सिनेमा की जानी पहचानी चीज है, पर नायक आम तौर पर खलनायक के अनाचार से मुक्ति के लिए हिंसा का सहारा लेता दिखता था। उसकी प्रमिका का ही उसके द्वारा उत्पीड़न, यह नया दौर है। जाहिर है समाज में ऐसी घटनाएं घट रही थीं और उनकी छाया रूपहले पर्दे पर भी दिखी। इस प्रकार की घटनाओं ने पर्दे पर भी हिंसक प्रेमकी थ्यौरीको जगह दी।
पलायनवादी नायकः
  शाहरूख खान की फिल्में इसी थ्यौरीका संदर्भ मानी जा सकती हैं। वह चुनौती को स्वीकारता नहीं, भागता है। मध्य वर्ग के नौजवान की चेतना एवं उसकी कुंठाओं का शाहरूख सच्चा प्रतिनिधि नजर आता है। वह प्यार करता है, किंतु स्वीकार का साहस उसमें नहीं हैं । उसे श्रम, रचनाशीलता एवं इंतजार नहीं है। सो वह पागलों सी हरकतें करता है, जिसमें प्रेमिका का उत्पीड़न भी शामिल है। इस प्रसंग पर मीडिया विशेषज्ञ सुधीश पचौरी की राय गौरतलब है। वे लिखते है- वह हमेशा लड़ता भिड़ता नजर आता है। किसी लड़की से छेड़छाड़ से लेकर मारपीट तकहिंसकऔर देहके रिश्ते बनाना ही उसका लक्ष्य है। उसके गीतों में भी सौंदर्य व कमनीयता के प्रतीक तलाशे नहीं मिलते। वह इंस्टेटिज्म’ (तुरंतवाद) का शिकार है। उसे जो भी कुछ चाहिए तुरंत चाहिए। इंस्टेट। अपने प्रेम को न पा सकने की स्थिति में उसे समाप्त कर देने की आकांक्षा उसके इसी पागलपन से उपजी है। आप इसे पूरे चित्र को पढ़ने की कोशिश करें तो यह भारतीय काव्य के धीरोदात्त नायक की विदाई का दौर है। इसमें लडके और लड़की के बीच कहीं प्यार या सामाजिक संबंध नहीं।पचौरी आगे लिखते शुद्ध रुप में फिजिकलरिश्ते पल रहे हैं। इसे हम फिल्मों के डांस सिक्वेंससे देख समझ सकते हैं नौजवान का 2 कैरेट खरा फिजिकल रूप ।यहां नायक और नायिका सिर्फ शरीरहैं। एक ऐसा शरीर, जिसमें मन, आत्मा, भावना, सुख व दुख सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। वह सिर्फ शरीरबनकर रह गया है। उसे खोज भी प्रेम के प्रतीक नहीं मिलते। इसीलिए गीतों में भी वह प्रेम की प्रतीक नहीं खोज पाता। एक गीत में नायक कहता है खंभे जैसी खड़ी है,/ लड़की है या छड़ी है। जाहिर है कोमल अनूभूतियों को व्यक्त करने वाले शब्दों व प्रतीकों के भी लाले हैं।
समाज में घट रही घटनाएं प्रेम के प्रति हिंसाचार इस संवेदनहीनता पर मुहर भी लगाती हैं। सिर्फ शरीरही बचा है, जिसमें से मन, आत्मा, भावना, सुखदुख, हर्ष-विषाद आदि सारे भाव तिरोहित हो चुके हैं। अपने अहंकार पर चोट आज के युवा को आहत करती है। वह घर, परिवार, समाज की बनी बनाई लीक को एक झटके में तोड़ डालने पर आमादा है। साहिर लुधियानवी की कुछ पंक्तियां इस संदर्भ को समझने में सहायक हो सकती हैं तुम अगर मुझको न चाहो तो / कोई बात नहीं,/ तुम किसी और को चाहोगी/तो मुश्किल होगी। साहिर की ये पंक्तियां इस घातक चाहत का बयान करती हैं। जहां प्रेम की प्राप्ति न होने पर उसे नष्ट कर डालने का संदेश फिल्मों में दिखता है। उपभोक्तावाद के ताजा दौर में भोगवादी संस्कृति के थपेड़ों में हमारा दार्शनिक आधार चरमरा गया है। इसी के चलते फिल्मों ने ऐसे नकारात्मक मूल्यों को सिर चढ़ाया है। पैसे की सनक और नवधनाढ्यों के उभार के बीच ये फिल्मी कथाएं वस्तुतः हमारे समाज के सच की गवाही हैं। समाचार पत्रों में आए दिन प्रेमी द्वारा प्रेमिका की हत्या, पत्नी की हत्या या पति की हत्या जैसे समाचार छपते हैं। दुर्भाग्य से सिनेमा और दूरदर्शन इस नकारात्मक प्रवृत्ति को एक आधार प्रदान करते हैं। फिल्मों की कथाएं देखकर छोटे कस्बे गांवों के नौजवान उससे गलत प्रेरणा ग्रहण करते हैं। कई बार वे पर्दे पर दिखाई घटना को जीवन में दोहराने की कोशिश करते हैं। निश्चित रूप से ताजा बाजारवादी अवधारणाओं में हमारा सिनेमा पाश्चात्य प्रभावों से तेजी से ग्रस्त हो रहा है। पश्चिमी जीवन की ज्यों की त्यों स्वीकार्यता हमारे समाज में संकट का सबब बनेगी। प्रेम के एक क्रूर चेहरे को भारतीय मन पर आरोपित करने की कोशिशें तेज हैं। दुर्भाग्य है कि यह सारा कुछ प्रेम के नाम पर हो रहा है।
सिनेमा पर गैरहाजिर विमर्शः
   किसी भी समाज में बौद्धिक और सांस्कृतिक अंकुश रखने का काम लेखक और विचारक ही करते हैं, कोई सरकार नहीं। फिल्मों पर हिंदी पत्रकारिता और टी. वी. चेनलों पर भी चल रही चर्चाएं एवं उन पर आधारित कार्यक्रम भी सतही और बचकाने होते हैं । हिंदी सिनेमा ने सही अर्थों में भारतीय समाज एवं उसके संघर्षों, उसकी चेतना को अपनी ही जमीन से बदखल कर दिया है। उसकी ताकत लगातार बढ़ी है, वह हमारा लोकाक्षर और दैन्दिन का व्यवहार तय करने लगा है। इतनी सशक्त माध्यम पर समूचे हिंदी क्षेत्र में ठोस विचार की शुरुआत के बजाए गाशिप बाजीचल रही है।

    सिनेमा पर लगभग गैरहाजिर विमर्श को चर्चा के केंद्र में लाना और उस पर बौद्धिक-सामाजिक अंकुश लगाना समय की जरूरत है। 1939 में हिंदी के यशस्वी कथाकार-उपन्यासकार प्रेमचंद ने लिखा था मगर खेद है कि इसे कोरा व्यवसाय बनाकर हमने उसे कला के उच्च आसन से खींचकर ताड़ी की दूकान तक पहुंचा दिया है यह बात प्रेमचंद के दौर की है, जब देश के लोग आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे और आज तो हिंदी सिनेमा विकृतियों का सुपर बाजारबन गया है। ऐसे ही चित्रों पर हमारी नई पीढ़ी और बचपन झूम-झूम कर जवान हो रहा है। क्या हम समाज के इतने प्रभावकारी माध्यम को, यूं ही बेलगाम छोड़ दें ?

सोमवार, 21 अक्तूबर 2013

संजय द्विवेदी को प्रवक्ता सम्मान

कांस्टीट्यूशन क्लब, दिल्ली में देश की महत्वपूर्ण वेबसाइट प्रवक्ता डाट काम http://www.pravakta.com/ के पांच साल पूरे होने पर आयोजित समारोह में मुझे सम्मानित करते हुए देश के जाने-माने पत्रकार एवं संपादक श्री राहुल देव। साथ में हैं श्री जगदीश उपासने (पूर्व संपादकः इंडिया टुडे)। इस सम्मान में आप सबकी भी हिस्सेदारी है जो मुझे बहुत प्यार करते हैं और कुछ बेहतर लिखने की प्रेरणा देते हैं। 


मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

उदार लोकतांत्रिक विचारों का मंच है प्रवक्ता

प्रवक्ता डाट काम के पांच साल पूरे होने पर विशेष लेखः संजय द्विवेदी

  प्रवक्ता डाट काम की सफलता को देखना और अनुभूत करना मेरे जैसे साधारण लेखक के लिए सुख देने वाला है। एक खास विचारधारा से जुड़े लोग इसे चलाते हैं जो अब मेरे मित्र भी हैं। किंतु प्रवक्ता ने संवाद की धारा को एकतरफा नहीं बहने दिया। प्रवक्ता के संचालकगण अपनी सोच और विचारधारा के प्रति खासी प्रतिबद्धता रखते हैं। उनके लेखन, आचरण और संवाद में उनकी इस वैचारिक निष्ठा का हर क्षण प्रमाण मिलता है। संजीव सिन्हा को जानने वाले इस अनुभव करते ही होंगें। किंतु प्रवक्ता एक विमर्श का मंच बना, एक उदार लोकतांत्रिक विचारों का संग्रह आपको यहां दिखता है।
    मुझे याद है कि मैंने एक बार राहुल गांधी की यात्राओं और उस बहाने उनकी देश को जानने की तड़प की चर्चा करते हुए शाहजादे की तारीफ में काफी कुछ लिख दिया। मुझे लगा शायद यह प्रवक्ता में न लग सके, पर यह मेरा नियमित मंच है इसलिए मेल किया और वह लेख बिना संपादित हुए जस का तस प्रकाशित हुआ।http://www.pravakta.com/prince-landed-on-the-road यह  मेरे लिए चौंकाने वाली ही बात थी। किंतु भरोसा कीजिए कि प्रवक्ता में प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी जैसै वामपंथी, गिरीश पंकज जैसे गांधीवादी चिंतक भी लिखते हैं। सही मायने में यह लेखकों का एक ऐसा मंच है जिसने बाड़ नहीं लगाई, खूंटा नहीं गाड़ा और विचारों को उदार और स्वस्थ मन से जगह दी। इस विचारहीन समय में विचारों के लिए ऐसी उदारता मुख्यधारा के मीडिया में कहां है? कारपोरेट मीडिया में बाजारू विचारों और नारों के लिए खासी जगहें हैं, किंतु गंभीर राजनीतिक-सामाजिक विमर्शों के लिए उनके पास स्थान कहां है? नए मीडिया के प्रवक्ता जैसे अवतार हमें आश्वस्त करते हैं और आम लेखक को मंच भी देते हैं।
प्रवक्ता ने दी पहचानः
  मैं लगभग चौदह साल सक्रिय पत्रकार रहा, पांच सालों से अध्यापन में हूं। किंतु राष्ट्रीय स्तर पर मुझे न्यू मीडिया ने ही पहचान दिलाई। प्रवक्ता डाट काम, भड़ास फार मीडिया डाट काम, हिंदी डाट इन, सृजनगाथा, विस्फोट के माध्यम से मेरा लेखन छत्तीसगढ़ और मप्र की सीमाओं को पार देश के तमाम पाठकों तक पहुंचा। प्रवक्ता का इसमें विशेष योगदान है। मेरे लगभग 140 से अधिक लेख छापकर प्रवक्ता ने मुझे जो सम्मान दिया है, उसे मैं भूल नहीं सकता। मुझे लगता है काश न्यू मीडिया हमारी पूर्व की पीढी को भी मिला होता तो हिंदी के पास न जाने कितने नायक होते। मैं आज भी सोचता हूं हजारों- लाखों पत्रकार आंचलिक पत्रकारिता में अपना चिमटा गाड़े बैठे रहे और उनको देश सुन और पढ़ नहीं सका। किंतु आज हमारे जैसे नाकाबिल और अल्पज्ञानियों को भी देश में एक पहचान मिली क्योंकि न्यू मीडिया हमारे समय में उपस्थित है। न्यू मीडिया के इस जादू ने कितने लेखक और पत्रकार गढ़े यह कहना कठिन है, किंतु न्यू मीडिया के ना होने के दौर में कितनी प्रतिभाओं के परिचय से हिंदुस्तान वंचित रह गया वह सोचने की बात है। क्योंकि उस दौर में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पत्रकारिता की सीमाएं बहुत स्पष्ट थीं। दिल्ली गए बिना, वहां संपादक बने बिना, मोक्ष कहां मिलता था? आप कल्पना करें राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी ने इंदौर से दिल्ली की दौड़ न लगाई होती और धर्मवीर भारती और सर्वेश्वर इलाहाबाद में चिमटा गाड़े रहते तो देश उन्हें क्या इस तरह जानता? किंतु आज देश के किसी भी कोने में बैठा युवा दिल्ली के कान में अपनी आवाज पहुंचा देता है तो इस न्यूमीडिया को सलाम करने को जी चाहता है। हमारे आशीष अंशू की उमर क्या है-पूरे देश उसे जानता है, पंकज झा रायपुर से किसी पर भी तोप मुकाबिल करते हैं और अखबार निकाले बिना। अनिल सौमित्र का वार्षिक आयोजन चौपाल देश भर में चर्चा का केंद्र बन जाता है। गया (दिल्ली) गए बिना फेसबुक ही आपको मोक्ष दिला देता है। जो रचेगा वही बचेगा का नारा अब सच हो रहा है।
सब कुछ छप जाने का समयः

कितना भी लिखो सारा कुछ छपने का यह समय है। कचरा भी, अब कचरा नहीं रहा, वरना पहले तो अपने लेखों की हस्तलिखित पांडुलिपियों को देखते हुए ही लोग बुढ़ा जाते थे। आज वे ब्लाग पर अपने लिखे चमकीले अक्षरों को कम्प्यूटर स्क्रीन पर देखकर मुग्ध होते हैं। एकाध लाइक, कमेंट पाकर निहाल होते रहते हैं। भाई जिंदगी को जीने के लिए और क्या चाहिए। न्यू मीडिया ने चाहे-अनचाहे हमें मुगालते ही नहीं दिए हैं, हमारी दुनिया भी बहुत बड़ी कर दी है।आज हर लेखक अंतर्राष्ट्रीय हो सकने की संभावना से भरा है। ऐसे तमाम लेखकों को संजीव सिन्हा, भारतभूषण और उनकी टीम ने एक मंच दिया है। आकाश दिया है। मैं अपने को भी उन्हीं लेखकों की सूची में रखता हूं जो न्यू मीडिया के चलते अखिलभारतीय हैं। क्योंकि दिल्ली शहर से मेरी सक्रिय पत्रकारिता की जिंदगी में कुल तीन-चार मुलाकातें हुयी हैं एक (सन् 2000 में) सुधीर अग्रवाल से उनके सैनिक फार्म हाउस के मकान में भास्कर की नौकरी मांगते वक्त, दो (सन् 2002) भारतीय विद्या भवन के दीक्षांत समारोह के समय डा. नामवर सिंह के सुखद सानिध्य में बैठकर व्याख्यान देते हुए और तीन पिछले दिनों गुरूदेव स्व. डा.सुरेश अवस्थी की बेटी श्रुति की शादी के वक्त। चौथी बार प्रवक्ता के आयोजन में शामिल होने 18 अक्टूबर ,2013 को दिल्ली आ रहा हूं। मैंने दोस्तों के बीच में अपना यह जुमला दुहराना भी अब बंद कर दिया है कि संजय द्विवेदी और बाल ठाकरे दिल्ली नहीं जाते। आदरणीय ठाकरे जी अब रहे नहीं, अब अकेला ही मैं इस संकल्प को कितना ढो सकूंगा? वैसे भी प्रवक्ता के 18 अक्टूबर के आयोजन में मेरा आना साधारण नहीं है,यह एक आभार भी है उस मंच का जिसने मुझे मेरे कद,पद और लेखन से ज्यादा जगह दी, प्यार दिया । इस प्यार की डोर ही दिल्ली से डरने वाले, दिल्ली जाने में संकोच से भरे एक इंसान को दिल्ली ला रही है- आमीन!

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

अंतिम व्यक्ति को न भूलना ही महानताः दिग्विजय सिंह

     



     वरिष्ठ पत्रकार और राजनेता बी.आर.यादव पर एकाग्र पुस्तक ‘कर्मपथ का लोकार्पण
बिलासपुर। 7 सितंबर। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अखिलभारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव दिग्विजय सिंह का कहना है कि पद पर रहते हुए अंतिम व्यक्ति को न भूलना ही राजनीतिज्ञ की महानता होती है। वे यहां मप्र शासन में मंत्री रहे वरिष्ठ पत्रकार श्री बी.आर.यादव के लोक अभिनंदन और उन पर एकाग्र पुस्तक 'कर्मपथ'  का विमोचन समारोह को संबोधित कर रहे थे। पुस्तक का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया है।
   मीडिया विमर्श पत्रिका द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्यअतिथि की आसंदी से संबोधित करते हुए श्री दिग्विजय सिंह ने कहा कि श्री बीआर यादव से उनका संबंध 1977 से है पर उन्होंने भूल से भी किसी की कभी बुराई नहीं की। यादव एक नेता होने से ज्यादा समाजवादी हैं। पद पर रहते हुए भी उन्हें राज्य के अंतिम व्यक्ति की चिंता रहती थी। उनकी राजनीतिक सूझबूझ के सिर्फ वे ही नहीं, दूसरे नेता भी कायल रहे हैं। यही वजह कि मैं अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में हमेशा उनसे सलाह करके ही कोई कदम उठाता था।
  कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा कि श्री बी.आर. यादव का समूचा जीवन सादा जीवन और उच्च विचार का उदाहरण है। अपने कार्यकाल में वे एक अच्छे राजनीतिज्ञ रहे जो पक्ष-विपक्ष दोनों से तालमेल बिठाकर चलते थे। इसलिए वे सभी के चहेते हैं। उनका कोई विरोधी नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में जो उचाईयां पहले थीं आज नहीं रह गयी हैं। किंतु श्री यादव जैसे नेताओं का अनुसरण करके आगे वह दौर वापस लाया जा सकता है।
  केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री डा. चरणदास महंत ने कहा कि बीआर यादव उन नेताओं में हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य के गठन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया के नारे को भी उन्होंने जीवंत बनाया।
अजातशत्रु हैं बी.आर.यादवः  
   छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल ने कहा कि यादवजी राजनीति के अजातशत्रु हैं। वे ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनका न तो कोई पहले शत्रु था न आज है। राजनीति में उनका नाम ऐसे नेताओं में शामिल है, जिसकी प्रशंसा सभी करते हैं। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रवींद्र चौबे, विधायक धर्मजीत सिंह, समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर, पत्रकार पं.श्यामलाल चतुर्वेदी, गोविंदलाल वोरा, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर, मप्र लोकसेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष विनयशंकर दुबे ने भी आयोजन को संबोधित किया। इस अवसर पर नगर की अनेक संस्थाओं ने श्री बीआर यादव को शाल-श्रीफल देकर सम्मान किया।
संजय द्विवेदी का सम्मानः
 इस अवसर पर मुख्यअतिथि दिग्विजय सिंह ने कर्मपथ के संपादक संजय द्विवेदी को शाल-श्रीफल और प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया। उन्होंने कहा पुस्तक का संपादन कर संजय द्विवेदी ने एक ऐतिहासिक काम किया है। क्योंकि इससे राजनीतिक इतिहास का एक संदर्भ बनेगा जिससे आने वाली पीढियां इस दौर के नायक बीआर यादव को जान-समझ सकेंगीं।

क्या है पुस्तक मेः
    श्री बी.आर. यादव पर केंद्रित पुस्तक कर्मपथ में मप्र और छत्तीसगढ़ के अनेक प्रमुख राजनेताओं, पत्रकारों एवं साहित्यकारों के लेख हैं। इस किताब के बहाने 1970 के बाद और छत्तीसगढ़ गठन के पूर्व की राजनीति और सामाजिक स्थितियों का आकलन किया गया है। श्री बीआर यादव के बहाने यह किताब सही मायने में एक विशेष समय की पड़ताल भी है।  पुस्तक में सर्वश्री मोतीलाल वोरा,दिग्विजय सिंह,कमलनाथ, बाबूलाल गौर, डा. रमन सिंह, चरणदास महंत, बृजमोहन अग्रवाल, चंद्रशेखर साहू, सत्यनारायण शर्मा, अमर अग्रवाल, अजय सिंह राहुल, रधु ठाकुर, मूलचंद खंडेलवाल, पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, स्व. नंदकुमार पटेल, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर, रमेश वल्यानी, गिरीश पंकज,अरूण पटेल, उमेश त्रिवेदी, बसंत कुमार तिवारी, रमेश नैयर, धरमलाल कौशिक, धीरेंद्र कुमार सिंह, प्रो. कमल दीक्षित, स्वराज पुरी, सतीश जायसवाल, आनंद मिश्रा, बजंरग केडिया, राधेश्याम शुक्ला, परितोष चक्रवर्ती, डा. सुशील त्रिवेदी, हरीश केडिया, बबन प्रसाद मिश्र, डा. सुधीर सक्सेना, डा. सच्चिदानंद जोशी, आर.एल.एस.यादव, चंद्रप्रकाश वाजपेयी, बल्लू दुबे, प्रवीण शुक्ला, रूद्र अवस्थी, बेनीप्रसाद गुप्ता, डा. कालीचरण यादव, डा. रमेश अनुपम, विनयशंकर दुबे, उमाशंकर शुक्ल, मनोज कुमार, डा.श्रीकांत सिंह, डा.सोमनाथ यादव, बुधराम यादव आदि के लेख शामिल हैं।


पुस्तक का नामः कर्मपथ 
मूल्यः 300 रूपए (सजिल्द), 150 रूपए( पेपरबैक)
प्रकाशकः मीडिया विमर्श,428-रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-39