बुधवार, 22 सितंबर 2010

खबर की कोई विचारधारा नहीं होतीः प्रभात झा


संजय द्विवेदी की पुस्तक का लोकार्पण समारोह
भोपाल। पत्रकारिता सदैव मिशन है, यह कभी प्रोफेशन नही बन सकती। रोटी कभी राष्ट्र से बड़ी नहीं हो सकती। मीडिया के हर दौर में लोकतंत्र की पहरेदारी का कार्य अनवरत जारी रहा है। उक्त आशय के वक्तव्य वरिष्ठ पत्रकार एवं सांसद प्रभात झा ने व्यक्त किए। वे संजय द्विवेदी की पुस्तक ‘मीडिया: नया दौर नई चुनौतियां’ के लोकार्पण के अवसर पर मुख्यअतिथि की आसंदी से बोल रहे थे। समारोह में श्री झा ने कहा कि खबर की कभी मौत नहीं हो सकती। खबर की कोई विचारधारा नहीं होती। न्यूज में व्यूज नहीं होना चाहिए। इन्फॉरमेशन केवल सोर्स है, न्यूज नहीं। इन्फॉरमेशन का कन्फरमेशन ही न्यूज है। पत्रकारिता में अपग्रेड होने के लिए अपडेट होना आवश्यक है। संवेदनात्मक विषय पर सनसनी फैलाना गलत है। शब्द आराधना है, ब्रह्म है, ओम् है, उपासना है। जो शब्दों से मजाक करते हैं, उनकी पत्रकारिता बहुत कम समय तक रहती है।
श्री झा ने कहा कि पत्रकारिता में अवसर है, चुनौती है, खतरे भी हैं। गलाकाट प्रतिस्पर्धा के कारण मिथक तोड़ना सिद्धांतो के खिलाफ है। जीवटता व जीवन-मूल्य को पत्रकारिता में धारण करना पड़ेगा। यह किसी पुस्तक में नहीं मिलेगा। विज्ञापन कभी खबर नहीं बन सकता और खबर कभी विज्ञापन नहीं हो सकती। पत्रकार को यह समझना चाहिए कि कहाँ फायर करना है और कहाँ मिसफायर करना है। उन्होंने कहा कि नए दौर में सबसे बड़ी बात पारदर्शिता है। आज के दौर में आप कुछ भी करिए, मीडिया उसे जान ही लेगा। मीडिया का जितना महत्व बढ़ता जा रहा है, उसकी जिम्मेदारी उतनी ही बढ़ती जा रही है। ऐसी स्थिति में मालिक को पत्रकार मत बनने दीजिए। लोकाधिकार का दुरुपयोग करने से मीडिया अविश्वसनीय हो जाएगा।
कार्यक्रम के विशिष्ट अतिथि और इंडिया टीवी के कार्यकारी संपादक रविकांत मित्तल ने कहा कि पुस्तक के लेखक संजय द्विवेदी के लेख शोधपरक होते हैं। यह किताब मीडिया की वर्तमान स्थिति पर गंभीर प्रकाश डालती है। संजय एक ऐसे लेखक हैं जिनके लेखन में उत्तेजना नहीं, संयम है। वे एक जिम्मेदार मीडिया विश्वेषक हैं। कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि के कुलपति प्रो. बी.के.कुठियाला ने कहा कि पत्रकारिता का ध्येय सत्यम शिवम सुंदरम् होना चाहिए। कल्याणकारी सत्य ही प्रकाशित और प्रसारित होना चाहिए। उन्होंने श्री द्विवेदी के लेखन की मौलिकता की प्रशंसा की। समारोह का उद्घाटन अतिथियों ने माँ सरस्वती और माखनलाल जी के चित्र के सामने दीप-प्रज्वलन कर किया। इस अवसर पर अतिथियों का सम्मान भी शाल-श्रीफल देकर किया गया। कार्यक्रम में छात्र-छात्राओं ने देशभक्ति गीत गाकर वातावरण को सरस बना दिया। संचालन एनी अंकिता और गौरव मिश्रा ने किया तथा आभार प्रदर्शन हेमंत पाणिग्रही ने किया। समारोह में सर्वश्री दीपक तिवारी, शिव अनुराग पटैरया, बृजेश राजपूत, नरेंद्र जैन, रमेश शर्मा, डॉ मंजुला शर्मा, भारत शास्त्री, मनोज शर्मा, विजय मनोहर तिवारी, जी. के. छिब्बर, डॉ हितेश वाजपेय़ी, रामभुवन सिंह कुशवाह, विजय बोंद्रिया, अरुण तिवारी सौरभ मालवीय, ओमप्रकाश गौड़, हितेश शुक्ल, दीपक शर्मा, डा. श्रीकांत सिहं, डा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. अविनाश वाजपेयी, पुष्पेंद्रपाल सिंह, रजिस्ट्रार सुधीर त्रिवेदी, हर्ष सुहालका, सरमन नगेले, विनय त्रिपाठी, दीपेंद्र सिहं बधेल, राजेश पाठक, मीता उज्जैन, डा. मोनिका वर्मा, डा. रंजन सिंह, डा. राखी तिवारी, साधना सिंह, नीलिमा भार्गव, आकृति श्रीवास्तव सहित बड़ी संख्या में विद्वान पत्रकार, साहित्यकार, सामाजिक कार्यकर्ताओं सहित बडी संख्या में पत्रकारिता के विद्यार्थी उपस्थित थे।

शुक्रवार, 17 सितंबर 2010

संजय द्विवेदी की मीडिया केंद्रित पुस्तक का लोकार्पण 22 को


भोपाल। पत्रकार एवं मीडिया विश्वेषक संजय द्विवेदी की पुस्तक “मीडियाः नया दौर, नई चुनौतियां” का लोकार्पण समारोह 22 सितंबर, 2010 को अपराह्न 3.30 बजे भोपाल स्थित माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के सभागृह में आयोजित किया गया है।
कार्यक्रम के मुख्यअतिथि वरिष्ठ पत्रकार एवं सांसद प्रभात झा होंगें तथा कार्यक्रम की अध्यक्षता पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला करेंगें। आयोजन में इंडिया टीवी के कार्यकारी संपादक रविकांत मित्तल, विशिष्ट अतिथि होंगें। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी की यह किताब यश पब्लिकेशन दिल्ली ने प्रकाशित की है, जिसमें आज के मीडिया पर खास विमर्श है।
पुस्तक परिचयः
पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

मीडिया विमर्श के हिंदी पर केंद्रित अंक का विमोचन


‘विश्वभाषा बनेगी हिंदी’ पर हुआ विमर्श
रायपुर,14 सितंबर। मीडिया विमर्श के हिंदी पर केंद्रित अंक का विमोचन छत्तीसगढ़ के कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने किया। बीज भवन में आयोजित कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ के पूर्व नेता प्रतिपक्ष एवं सांसद नंदकुमार साय, राज्यसभा के सदस्य श्रीगोपाल व्यास, छत्तीसगढ़ ग्रंथ अकादमी के संचालक एवं दैनिक भास्कर के पूर्व संपादक रमेश नैयर, छत्तीसगढ़ राज्य कृषक कल्याण परिषद के उपाध्यक्ष डा. विशाल चंद्राकर विशेष रुप से मौजूद थे।
आयोजन में ‘विश्वभाषा बनेगी हिंदी’ पर विषय पर वक्ताओं ने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए।
अपने संबोधन में कृषि मंत्री चंद्रशेखर साहू ने कहा कि हिंदी विश्वभाषा के रूप में प्रतिष्ठित हो रही है, किंतु हमें अपने प्रयासों में तेजी लाने की जरूरत है। हमें गुलामी की मानसिकता छोड़कर तेजी से कदम बढ़ाने होंगें। उन्होंने मीडिया विमर्श के प्रयासों की सराहना करते हुए कहा कि वह पत्रकारों बंधुओं का एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मंच बन गयी है। जिसके अंकों ने विविध संदर्भों पर सार्थक बहस का सूत्रपात किया है। सांसद नंदकुमार साय ने हिंदी की वैज्ञानिकता का जिक्र करते हुए कहा कि उसके विश्वभाषा बनने में शक नहीं है। राजकाज की भाषा में हिंदी का दखल बढ़ना चाहिए। चीन, जापान को हमें उदाहरण के रूप में लेना चाहिए जिन्होंने स्वभाषा में ही प्रगति की। सांसद श्रीगोपाल व्यास ने कहा कि हिंदी के लिए मैं ताजिंदगी काम करता रहूंगा, एक सांसद के नाते मैं इस दिशा में निरंतर सक्रिय हूं। वरिष्ठ पत्रकार रमेश नैयर ने कहा कि हिंदी भारतीय संस्कृति एवं हमारे सरोकारों की भाषा है। वैश्विक भाषाई सर्वेक्षण में हिंदी दूसरे क्रम पर है, सो वह विश्वभाषा तो बन चुकी है। हमें इसे लेकर किसी हीनताबोध का शिकार नहीं होना चाहिए।
स्वागत भाषण कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष डा. शाहिद अली ने किया। कार्यक्रम का संचालन पत्रिका के संपादक मंडल के सदस्य प्रभात मिश्र ने एवं आभार प्रदर्शन डा. दिनेश शर्मा ने किया। इस अवसर पर गुरू घासीदास विश्वविद्यालय, बिलासपुर में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की रीडर डा. गोपा बागची, हेमंत पाणिग्राही, नवीन ओझा, सुभाष शर्मा, हरिभाई बाहेती, बीज निगम के प्रबंध संचालक एएन मिश्रा, डा. विनीता पाण्डेय, प्रशांत नीरज ठाकर, अनुराग जैन, एस. चावला मौजूद रहे।
इस अंक में क्या है खासः मीडिया विमर्श के सितंबर,2010 के इस अंक में सर्वश्री असगर वजाहत, रमेश नैयर, अष्टभुजा शुक्ल प्रकाश दुबे, बसंत कुमार तिवारी प्रो. कमल दीक्षित, प्रभु जोशी, डा. सुभद्रा राठौर,अरूंधती राय, कनक तिवारी, संजय द्विवेदी, साजिद रशीद आदि महत्वपूर्ण लेखकों के लेख प्रकाशित किए गए हैं। पत्रिका प्राप्ति का संपर्क है- संपादकः मीडिया विमर्श, 328, रोहित नगर, फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल- 39 (मप्र)

बुधवार, 15 सितंबर 2010

समझौतों के खिलाफ थी सर्वेश्वर की पत्रकारिता

जयंती (15 सितंबर,1927 एवं पुण्यतिथि 23सितंबर,1983) पर विशेषः
-संजय द्विवेदी
अपने तीखे तेवरों से सम्पूर्ण भारतीय पत्रकारिता जगत को चमत्कृत करने वाले सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की उपलब्धियां बड़े महत्व की हैं । सर्वेश्वर जी मूलतः कवि एवं साहित्यकार थे, फिर भी वे जब पत्रकारिता में आए तो उन्होंने यह दिखाया कि वे साथी पत्रकारों से किसी मामले में कमतर नहीं हैं । दिनमान के प्रारंभ होने पर उसके संस्थापक संपादक श्री सच्चिदानंद हीरानंद वात्सायन अज्ञेय ने कवि सर्वेश्वर में छिपे पत्रकार को पहचाना तथा उन्हें दिनमान की टीम में शामिल किया । दिनमान पहुंच कर सर्वेश्वर ने तत्कालीन सवालों पर जिस आक्रामक शैली में हल्ला बोला तथा उनके वाजिब एवं ठोस उत्तर तलाशने की चेष्टा की, वह महत्वपूर्ण है । खबरें और उनकी तलाश कभी सर्वेश्वर जी की प्राथमिकता के सवाल नहीं रहे, उन्होंने पूरी जिंदगी खबरों के पीछे छिपे अर्थों की तलाश में लगाई। उन्होंने समकालीन पत्रकारिता के समक्ष उपस्थित चुनौतियों को समझा और सामाजिक चेतना जगाने में अपना अनुकरणीय योगदान दिया।
उन्होंने बचपन एवं युवावस्था का काफी समय गांव में बड़ी विपन्नता एवं अभावों के बीच गुजारा था। वे एक छोटे से कस्बे (बस्ती-उप्र) से आए थे। जीवन में संघर्ष की स्थितियों ने उनको एक विद्रोही एवं संवेदनशील इन्सान बना दिया था। वे गरीबों, वंचितों, दलितों पर अत्याचार देख नहीं पाते थे । ऐसे प्रसंगों पर उनका मन करुणा से भर उठता था । जिसकी तीव्र प्रतिक्रिया उनके पत्रकारिता लेखन एवं कविताओं में दिखती है । उन्होंने आम आदमी की जिंदगी को, हमारे आपके परिवेश के संकट को आत्मीय, सहज एवं विश्वसनीय शिल्प में ढालकर व्यक्त किया है । उनका कहा हुआ हमारी चेतना में समा जाता है । पाठक को लगता है इस सबमें उसकी बहुत बड़ी हिस्सेदारी है । इन अर्थों में सर्वेश्वर परिवेश को जीने वाले पत्रकार थे । वे न तो चौंकाते हैं, न विज्ञापनी वृत्ति को अपनाते हैं और न संवेदना और शिल्प के बीच कोई दरार छोड़ते हैं।
श्री सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की पत्रकारिता की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि वह अपने परिवेश पर चौकस निगाहें रखते हैं । उन्होंने राष्ट्रीय सीमाओं से मिली अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को भी देखा है । वे गांधी, नेहरु, इंदिरा गांधी, लोहिया, विनोबा के देश को भी देखते हैं तो दुनिया में घट रही घटनाओं पर भी नजर रखते हैं । उन्होंने लोकतंत्र का अर्थ समझा है तो संसद की दृश्यावली को भी समझा है । वे महंगाई के भूत-पिशाच को भी भोगते रहे हैं और व्यवस्था की भ्रष्टता का भी अनुभव करते हैं । उनकी नजर भूखे आदमी से लेकर सत्ता के भूखे भेड़ियों तक है । इसी के चलते उनकी पत्रकारिता का एक-एक शब्द परिवेश का बयान है । सर्वेश्वर जी इसी के चलते अपने युगीन संदर्भों, समस्याओं और देश के बदलते मानचित्र को भूल नहीं पाते । उन्होंने युद्ध, राजनीति, समाज, लोकतंत्र, व्यवस्था गरीबी, कला-संस्कृति हर सवाल पर अपनी कलम चलाई है । युद्ध हो या राजनीति, लोकतंत्र हो या व्यवस्थाकर्ताओं का ढोंग, गरीबी हटाने का नारा हो या कम्बोडिया पर हुए अत्याचार का सवाल या अखबारों की स्वायत्तता का प्रश्न, सर्वेश्वर सर्वत्र सजग हैं । उनकी दृष्टि से कुछ भी बच नहीं पाता । फलतः वे घुटन और बेचैनी महसूस करते हुए, आवेश में आकर कड़ी से कड़ी बात करने में संकोच नहीं करते । उनकी पत्रकारिता संवेदना के भावों तथा विचारों के ताप से बल पाती है। वस्तुतः सर्वेश्वर की पत्रकारिता में एक साहसिक जागरुकता सर्वत्र दिखती है।सर्वेश्वर जी के लिए पत्रकारिता एक उत्तदायित्वपूर्ण कर्म है । वे एक तटस्थ चिंतक, स्थितियों के सजग विश्लेषक एवं व्याख्याकार हैं । सर्वेश्वर न तो सत्ता की अर्चना के अभ्यासी हैं और न पत्रकारिता में ऐसा होते देखना चाहते हैं । समसामयिक परिवेश कि विसंगतियों और राजनीति के भीतर फैली मिथ्या-चारिता को भी वे पहचानते हैं।वे हमारी सामाजिक एवं व्यवस्थागत कमियों को भी समझते है।
सर्वेश्वर जी के पत्रकार की संवेदना एवं सम्प्रेषण पर विचार करने से पूर्व यह जानना होगा कि कलाकारों की संवेदना, आम आदमी से कुछ अधिक सक्रिय, अधिक ग्रहणशील और अधिक विस्तृत होती हैं । सर्वेश्वर की संवेदना के धरातलों में समसामयिक संदर्भ, सांस्कृतिक मूल्य, मनोवैज्ञानिक संदर्भ और राजनीति तक के अनुभव अनुभूति में ढलकर संवेदना का रूप धारण करते रहे हैं । अनेक संघर्षों की चोट खाकर सर्वेश्वर का पत्रकार अपनी संवेदना को बहुआयामी और बहुस्तरीय बनाता रहा है। इसके चलते सर्वेश्वर की संवेदना स्वतः पाठकीय संवेदना का हिस्सा बन गई है। वस्तुतः सर्वेश्वर जी की पत्रकारिता समझौतों के खिलाफ है ।
लोकमंगल की भावना से की पत्रकारिताः
वे सदैव लोकमंगल की भावना से अनुप्राणित रहे हैं । उनकी पत्रकारिता में आम आदमी की पीड़ा को स्वर मिला है । इसके चलते उन्होंने सामाजिक जटिलताओं एवं विसंगतियों पर तीखे सवाल किए हैं । आजादी के बाद के वर्षों में साम्राज्यवादी शक्तियों और उपनिवेशवादी चरित्रों ने अमानवीयता, पशुता, मिथ्या, दंभ और असंस्कृतिकरण को बढ़ावा दिया है। प्रजातंत्र को तानाशाही का पर्याय बना दिया है, मनमानी करने का माध्यम बना दिया है । फलतः गरीबी, भूख, बेकारी और भ्रष्टाचार बढ़ा है । ये स्थितियां सर्वेश्वर को बराबर उद्वेलित करती हैं और उन्होंने इन प्रश्नों पर तीखे सवाल खड़े किए हैं । उनका पत्रकार ऐसी स्थितियों के खिलाफ एक जेहाद छेड़ता नजर आता है । व्यक्ति की त्रासदी, समाज का खोखला रूप और आम आदमी का दर्द – सब उनकी पत्रकारिता में जगह पाते हैं । यह पीड़ा सर्वेश्वर की पत्रकारिता में बखूबी महसूसी जा सकती है। वे अपने स्तंभ चरचे और चरखे में कभी दर्द से, कभी आक्रोश से तो कभी विश्लेषण से इस पीड़ा को व्यक्त करते हैं । पत्रकार सर्वेश्वर इन मोर्चों पर एक क्रांतिकारी की तरह जूझते हैं। उनकी पत्रकारिता में वैचारिकता की धार भी है । उनकी वैचारिकता का मूल मंत्र यह है कि वे अराजकता, विश्रृंखलता, विकृति, अस्तित्वहीनता और सड़ांध को कम करके स्वस्थ जीवन दृष्टि के आकांक्षी हैं । वे स्वतंत्र चिंतन के हिमायती, निजता एवं अस्मिता के कायल, जिजीविषा के साथ दायित्वबोध के समर्थक, पूंजीवादी, अवसरवादी और सत्तावादी नीतियों के कटु आलोचक रहे तथा पराश्रित मनोवृत्तियों के विरोधी हैं । सीधे अर्थ में सर्वेश्वर की पत्रकारिता समाजवादी चिंतन से प्रेरणा पाती है । वे एक मूल्यान्वेषी पत्रकार दृष्टि के विकास के आकांक्षी हैं जिसमें मनुष्य, मनुष्य और जीवन रहे हैं।सर्वेश्वर जी की पत्रकारिता अपने समय, समाज और परिवेश को कभी उपेक्षित करके नहीं चलती ।सर्वेश्वर की पत्रकारिता में स्वातंत्र्योत्तर भारत के कई रंग हैं, वे चुनौतियां हैं जो हमारे सामने रही हैं, वे विचारणाएं रहीं हैं जो हमने पाई हैं, वे समस्याएं हैं जो हमारे लिए प्रश्न रही हैं। साथ ही वह वैज्ञानिक बोध है जिसने बाहरी सुविधाओं का जाल फैलाकर आदमी को अंदर से निकम्मा बना दिया है । भूख, बेकारी, निरंतर बढ़ती हुई दुनिया, आदमी, उसके संकट और आंतरिक तथा बाह्य संघर्ष, उसकी इच्छाएं, शंकाएं, पीड़ा और उससे जन्मी निरीह स्थितियां, शासन तंत्र, राजनीतिक प्रपंच, सत्ताधीशों की मनमानी, स्वार्थपरता, अवसरवादिता, शोषकीय वृत्ति, अधिनायकवादी आदतों, मिथ्या आश्वासन, विकृत मनोवृत्तियां, सांस्कृतिक मूल्यों का विघटन, ईमान बेचकर जिंदा रहने की कोशिश जैसी अनगिनत विसंगतियां सर्वेश्वर की लेखकीय संवेदना का हिस्सा बनी हैं । परिवेश के प्रति यह जाकरुकता पत्रकार सर्वेश्वर की सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि है । कहने का तात्पर्य सर्वेश्वर की पत्रकारिता में समसामयिक परिवेश का गहरा साक्षात्कार मिलता है।
बालपत्रिका पराग के संपादकः
सर्वेश्वर बाद के दिनों में अपने समय की सुप्रसिद्ध बाल पत्रिका पराग के सम्पादक बने । उन्होंने पराग को एक बेहतर बाल पत्रिका बनाने की कोशिश की । इन अर्थों में उनकी पत्रकारिता में बाल पत्रकारिता का यह समय एक महत्वपूर्ण उपलब्धि के रूप रेखांकित किया जाना चाहिए । बाल साहित्य के सृजन को प्रोत्साहन देने वालों में सर्वेश्वर का स्थान महत्वपूर्ण था । उन्होंने इस भ्रम को तोड़ने का प्रयास किया कि बड़ा लेखक बच्चों के लिए नहीं लिखता तथा उच्च बौद्धिक स्तर के कारण बच्चों से संवाद स्थापित नहीं कर सकता । सर्वेश्वर ने यह कर दिखाया । पराग का अपना एक इतिहास रहा है । आनंद प्रकाश जैन ने इसमें कई प्रयोग किए । फिर कन्हैया लाल नन्दन इसके संपादक रहे । नंदन जी के दिनमान का संपादक बनने के बाद सर्वेश्वर ने पराग की बागडोर संभाली । सर्वेश्वर के संपादन काल पराग की गुणवत्ता एवं प्रसार में वृद्धि हुई । उन्होंने तमाम नामवर साहित्यकारों पराग से जोड़ा और उनसे बच्चों के लिए लिखवाया । उन्होंने ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निबाही । सर्वेश्वर मानते थे कि जिस देश के पास समृद्ध बाल साहित्य नहीं है, उसका भविष्य उज्ज्वल नहीं रह सकता । सर्वेश्वर की यह अग्रगामी सोच उन्हें एक बाल पत्रिका के सम्पादक के नाते प्रतिष्ठित और सम्मानित करती है।
जनभाषा को बनाया अनुभव की भाषाः
इसके अलावा सर्वेश्वर ने भाषा के सवाल पर महत्वपूर्ण उपलब्धियां अर्जित की । उन्होंने भाषा के रचनात्मक इस्तेमाल पर जोर दिया, किंतु उसमें दुरुहता पैदा न होने दी । सर्वेश्वर की पत्रकारिता में सम्प्रेषण शक्ति गजब की है । उन्हें कथ्य और शिल्प के धरातल पर सम्प्रेषणीयता का बराबर ध्यान रखा है । उनकी भाषा में जीवन और अनुभव का खुलापन तथा आम आदमी के सम्पृक्ति का गहरा भाव है । वे एक अच्छे साहित्यकार थे इसलिए उनकी लेखनी ने पत्रकारिता की भाषा को समर्थ एवं सम्पन्न बनाया । सर्वेश्वर का सबसे बड़ा प्रदेय यह था कि उन्होंने जनभाषा को अनुभव की भाषा बनाया, पारम्परिक आभिजात्य को तोड़कर नया, सीधा सरल और आत्मीय लिखने, जीवन की छोटी से छोटी चीजों को समझने की कोशिश की।सर्वेश्वर में एक तीखा व्यंग्यबोध भी उपस्थित था । अपने स्तंभ चरचे और चरखे में उन्होंने तत्कालीन संदर्भों पर तीखी व्यंग्यात्मक टिप्पणियां लिखीं । सर्वेश्वर के व्यंग्य की विशेषता यह है कि वह मात्र गुस्सा न होकर शिष्ट, शालीन और रचनात्मक है । वह आक्रामक तो है पर उसकी शैली महीन है । सर्वेश्वर ने प्रायः व्यंग्य के सपाट रूप को कम ही इस्तेमाल किया है । उनकी वाणी का कौशल उनको ऐसा करने से रोकता है । प्रभावी व्यंग्य वह होता है जो आलंबन को खबरदार करते हुए सही स्थिति का अहसास करा सके । ड्राइडन ने एक स्थान पर लिखा है कि “किसी व्यक्ति के निर्ममता से टुकड़े-टुकड़े कर देने में तथा एक व्यक्ति के सर को सफाई से धड़ से अलग करके लटका देने में बहुत अंतर है । एक सफल व्यंग्यकार अप्रस्तुत एवं प्रच्छन्न विधान की शैली में अपने भावों को व्यक्त कर देता है । वह अपने क्रोध की अभिव्यक्ति अलंकारिक एवं सांकेतिक भाषा में करता है ताकि पाठक अपना स्वतंत्र निष्कर्ष निकाल सके । व्यंग्यकार अपने व्यक्तित्व को व्यंग्य से अलग कर लेता है । ताकि व्यंग्य कल्पना के सहारे अपने स्वतंत्र रूप में कला और साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश कर सके । कुल मिला कर सर्वेश्वर की पत्रकारिता हिंदी पत्रकारिता का एक स्वर्णिम अध्याय है जो पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ती है ।
साहित्य में बनाई एक बड़ी जगहः
सर्वेश्वर ने अपनी लेखनी से जहाँ पत्रकारिता को लालित्य का पुट दिया वहीं उन्होंने उनकी वैचारिक तपन को कम नहीं होने दिया । शुद्ध भाषा के आग्रही होने के बावजूद उन्होंने भाषा की सहजता को बनाए रखने का प्रयास किया । भाषा के स्तर पर उनका योगदान बहुत मौलिक था । वे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया(रेडियो) की पत्रकारिता से प्रिंट मीडिया की पत्रकारिता में आए थे पर यहाँ भी उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई । हालांकि वे सदैव पत्रिका संपादन (दिनमान एवं पराग)से जुड़े रहे, इसलिए उन्हें कभी दैनिक समाचार पत्र में कार्य करने का अनुभव नहीं मिला । हो सकता है कि यदि उन्हें किसी दैनिक समाचार पत्र में कार्य करने का अवसर मिलता तो वे उस पत्र पर अपनी छाप छोड़ पाते । पत्रिका संपादन के एक निष्णात व्यक्तित्व होने के नाते वे एक दैनिक समाचार पत्र के कैसे इस्तेमाल के पक्ष में थे, वे एक सम्पूर्ण दैनिक निकालते तो उसका स्वरूप क्या होता, यह सवाल उनके संदर्भ में महत्पूर्ण हैं । इसके बावजूद दिनमान के प्रारंभकर्ताओं में वे रहे और उन्होंने एक बेहतर समाचार पत्रिका हिंदी पत्रकारिता को दी जिसका अपना एक अलग इतिहास एवं योगदान है ।सर्वेश्वर की रुचियां व्यापक थीं, वे राजनीति, कला, संस्कृति, नाटक, साहित्य हर प्रकार के आयोजनों पर नजर रखते थे । उनकी कोशिश होती थी कि कोई भी पक्ष जो आदमी की बेहतरी में उसके साथ हो जाए, छूट न जाए । उनकी यह कोशिश उनकी पत्रकारिता को एक अलग एवं अहम दर्जा दिलाती है । साहित्य के प्रति अपने अतिशय अनुराग के चलते वे पत्रकारिता जगत के होलटाइमर कभी न हो पाए । अगर ऐसा हो पाता तो शायद हिंदी पत्रकारिता जगत को क साथ ज्यादा गति एवं ऊर्जा मिल पाती,पर हाँ, इससे हिंदी जगत को एक बड़ा साहित्यकार न मिल पाता।

सर्वेश्वरदयाल सक्सेना होने के मायने


जयंती (15 सितंबर,1927 एवं पुण्यतिथि 23सितंबर,1983) पर विशेषः
-संजय द्विवेदी
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का समूचा व्यक्तित्व एक आम आदमी की कथा है । एक साधारण परिवार में जन्म लेकर अपनी संघर्षशीलता से असाधारण बन जाने की कथा इसी सर्वेश्वर परिघटना में छिपी है। वे आम आदमी से लगते थे पर उनके मन में बड़ा बनने का सपना बचपन से पल रहा था । वे हमेशा संघर्षों की भूमि पर चलते रहे, पर न झुके न टूटे न समझौते किए । उत्तर प्रदेश के एक अत्यंत पिछड़े जिले बस्ती में जन्मे सर्वेश्वर की पारिवारिक परिस्थितियां बहुत बेहतर न थीं । विपन्नता एवं अभावों से भरी जिंदगी उन्हें विरासत में मिली थी । ग्रामीण-कस्बाई परिवेश तथा निम्न मध्यवर्ग की आर्थिक विसंगतियों के बीच सर्वेश्वर का व्यक्तित्व पका एवं निखरा था। गरीबी एवं संघर्षशील जीवन की उके व्यक्तित्व पर गहरी छाया पड़ी, फलतः उनके मन में गहन मानवीय पीड़ाबोध तथा आम आदमी से लगाव था । वे अपने आसपास के परिवेशगत अनुभहों से गहरे जुड़े थे । अपनी माटी, अपनी जमीन एवं उसकी सोंधी गंध बराबर उनके मन में रची-बसी रही । वे एक छोटे कस्बे से बड़े महानगर में आए थे और इस बात को कभी भुला न पाए ।

दिल्ली में रहने के बावजूद बचपन की अनुभूतियां उनके साथ बनी रहीं । अपनी कविता, पत्रकारिता में उन्होंने अपनी जड़ों को लगातार दोहराया। परिवार में सर्वेश्वर के पिता गांधीवादी विचारों से प्रभावित थे । उनकी माँ प्राध्यापिका थीं । इसके चलते उनमें अच्छे संस्कार एवं लोगों के प्रति संवेदना के बीज उगे । बचपन से ही वे विद्रोही प्रवृत्ति के थे । व्यवस्था एवं यथास्थितिवाद के खिलाफ वे हमेशा खड़े रहे । बस्ती के किसानों, आम लोगों के दर्दों से सदैव जुड़े रहे । उनकी विपन्नता उनके कष्ट एवं संत्रास लगातार सर्वेश्वर की मानसभूमि में एक संवेदना जगाते रहे।
पारिवारिक जिम्मेदारियों, माँ-पिता की मृत्यु ने सर्वेश्वर को युवावस्था में ही झकझोर कर रख दिया पर बस्ती के खैर इण्टर कॉलेज में साठ रुपए की प्राध्यापकी उनके हौसलों को कम न कर पाई । वे जीवनानुभवों को समेटकर इलाहाबाद चले आए । बस्ती में बिताया समय उनके साथ ताजिंदगी बना रहा । उसने उनके रचना संसार में न सिर्फ गहराई पैदा की वरन उनके मानवीय पीड़ा बोध को महत्वपूर्ण बनाया । कस्बाई-ग्रामीण परिवेश में पकी उनकी सोच को संकीर्ण मानना उचित न होगा, पर यह सच है कि वे अपने ग्रामीण परिवेश से ऐसे जुड़े थे कि वे उससे कभी खुद को अलग न कर पाए ।
बिसरा न पाए माटी की महकः
गांव का यह संस्कार ही उन्हें ज्यादा सदाशय एवं मानवीय बनाता है । बस्ती के अलावा उनकी पढ़ाई बनारस में भी हुई, वे क्वींस कॉलेज बनारस को भी अपने व्यक्तित्व के निर्माण में महत्वपूर्ण मानते रहे । जीवन एवं नौकरी के लिए संघर्ष सर्वेश्वर में ऐसा जज्बा कायम कर सका, जो उन्हें एक मजबूत इंसान बना गया । जो मूल्यों एवं सिद्धांतों की खातिर कुछ भी निछावर कर सकता था। खैर कॉलेज, बस्ती की साठ रुपए की नौकरी छोड़ कर युवा सर्वेश्वर, प्रयाग आ पहुंचे । यहाँ उन्हें एजी आफिस में नौकरी मिल गई । प्रयाग में सर्वेश्वर के व्यक्तित्व को एक नई ऊर्जा एवं परिवेश मिला । प्रयाग नगर के साहित्यिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक वातावरण का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा । समाजवादी लोहियावादी चिंतन की गंभीर छाया उनके व्यक्तित्व पर पड़ी । तमाम युवाओं की तरह डॉ. लोहिया के क्रांतिकारी व्यक्तित्व एवं चिंतन ने उन्हें बहुत प्रभावित किया । प्रयाग की दो संस्थाओं परिमल एवं प्रतीक ने सर्वेश्वर के व्यक्तित्व निर्माण में अहम भूमिका निभाई । सर्वेश्वर के मित्र केशवचंद वर्मा के मुताबिक, “सर्वेश्वर परिमल से जुड़े तो उसमें एकदम सरस हो गए । सर्वेश्वर परिमल के संयोजक बना दिए गए । उनके भीतर का सोया हुआ जल जाग उठा और उनके भीतर से एक अजस्र धारा का प्रवाह जागृत हुआ । वह परिमल का यौवन काल था । अनेक प्रतिभाओं ने परिमल में अपना रचना मंच प्राप्त किया और हिंदी की अनेक श्रेष्ठ रचनाओं का जन्म परिमल की उन्हीं गोष्ठियों का परिणाम था । सर्वेश्वर कई सालों तक परिमल को चलाते रहे । उन गोष्ठियों की जो रिपोर्ट परिमल तैयार करते थे, उनका स्वाद बड़ा ही अनोखा होता था । सभी इसे सुनने को आतुर रहते । साधारण और साधारण को कलम का यह जादूगर कैसे साहित्यिक गरिमा देकर समसायिक और शाश्वत के दोनों छोरों से बांध देता था – उसकी साधना सर्वेश्वर ने तभी से शुरू कर दी थी । इस कला उपयोग उन्होंने दिनमान में चरचे और चरखे स्तंभ में तथा गहरे और सूक्ष्म स्तर पर अपनी कविताओं में किया है ।” श्री वर्मा के अनुसार, “इलाहाबाद में मित्रों के बीच रहने के मोह में सर्वेश्वर एकाउंटेंट जनरल के दफ्तर में एक छोटी सी नौकरी के माध्यम स रहने लगे । वहां के बाबूगीरी के वातावरण से सर्वेश्वर हमेशा मानसिक रूप से क्षुब्ध रहे । अंततः उनके भीतर के रचनाकार ने जोखिम उठाया और वे लगी-लगाई सरकारी नौकरी छोड़कर दिल्ली चले गए। ”
प्रयाग में वे रघुवीर सहाय, विजयदेव नारायण शाही, हरिवंश राय बच्चन, अज्ञेय, केशवचन्द्र वर्मा के संपर्क में आए । विजयदेव नारायण शाही से तो उनकी खासी छनती रही । प्रयाग के बाद वे रेडियो की नौकरी में दिल्ली, लखनऊ, भोपाल, इंदौर में भी रहे । लखनऊ में उनकी दोस्ती कवि कुंवर नारायण से रही । कुंवर नारायण लिखते हैं – “सर्वेश्वर जब लखनऊ में होते, तो लगभग रोज ही उनसे मिलना हो जाता था । उनकी बेटियां शुभा एवं विभा उन दिनों छोटी थीं । पत्नी अक्सर बीमार रहा करती थीं । इस सबके बीच सर्वेश्वर अपनी साहित्यिक गतिविधियों के लिए समय निकाल लेते थे । उन दिनों लखनऊ साहित्यकार सम्पन्न लखनऊ था । इन लोगों की अनेक साहित्यिक बैठकें हुआ करती थीं, जिनमें सर्वेश्वर न रहें, यह असंभव था।”
लखनऊ में निवास के दौरान ही सर्वेश्वर के दो कविता संग्रह – बांस का पुल और एक सूनी नाव प्रकाशित हुईं । श्री कुंवर नारायण उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को रेखांकित करते हुए कहते हैं कि “शीघ्र ही निरीहता की हद तक भावुक हो जाने वाले सर्वेश्वर और उद्दण्डता की हद तक उत्तेजित हो जाने वाले सर्वेश्वर के अनेक तेवर याद आते हैं। वह सर्वेश्वर नहीं जो प्यार और घृणा, आदर और अनादर, दोनों को ही पराकाष्ठा तक न पहुंचा दे । इसके बावजूद वे अंदर से बहुत सरल स्वभाव वाले व्यक्ति थे । जो जिस समय महसूस करते उसे उसी समय प्रकट कर देते । बिल्कुल बच्चों की तरह खुश होते और उन्हीं की तरह रुष्ट । जब वे उग्र होते तो संयम की सीमा लांघ जाते । जब आत्मीय होते और उन्हीं की तरह तो इतने भावुक कि उनकी कोमलता अभिभूत कर देती ।” श्री कुंवर नारायण मानते हैं कि “ऐसा मुझे हमेशा लगा कि अतिरिक्त सजग होते हुए भी निजी मामलों में वे व्यवहारकुशल नहीं थे । अपने लेखन की आलोचना वे बिल्कुल नहीं सह पाते थे । एक बार मैंने हंसी-हंसी में कुछ कह दिया तो वे आपे से बाहर हो गए । फिर काफी दिनों तक हमारे संबंध असहज रहे ।”

दिल्ली में आकर भी सर्वेश्वर माटी की महक को बिसरा न पाए । वे बराबह महानगर में अपना गांव तलाशते रहे । सर्वेश्वर की मृत्यु के पश्चात दिल्ली में हुई साहित्यकारों की शोकसभा में बोलते हुए प्रख्यात कवि तथा सर्वेश्वर के मित्र स्व. श्रीकांत वर्मा ने कहा था “दिल्ली को उन्होंने कभी स्वीकार न किया और अपनी जड़ों को इनकार नहीं किया ।” इस सबके बावजूद दिल्ली के महानगरीय जटिल एवं संश्लिष्ट परिवेश का सर्वेश्वर के व्यक्तित्व पर खासा असर पड़ा । दिल्ली ने उनके अनुभव जगत को व्यापक बनाया एवं गांवों-कस्बों तक दिल्ली एवं महानगरों की सोच एवं समझ का अंतर समझाया । दिल्ली उनके सरोकारों, चिंताओं एवं शख्सियत को ज्यादा विराट बनाया । दिल्ली के साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं कला क्षेत्र के वे ऐसे जरूरी नाम बन गए कि उनकी जरूरत वहाँ पूरी शिद्दत से महसूसी जाती थी । उनके निधन पर नाट्य समीक्षम नेमिचन्द्र जैन का कहना था कि “उनकी मौजूदगी के बिना दिल्ली के साहित्य कला, रंगमंच के परिदृश्य की कल्पना करना कठिन है । पिछले कुछ वर्षों से सर्वेश्वर इस परिदृश्य का ही नहीं, हममें से बहुतों के आंतरिक परिदृश्य का भी जरूरी हिस्सा, खास पहचान बन गए थे । संगीत, साहित्य, चित्रकला, नाटक के शायद कोई कार्यक्रम हों जहाँ वे मौजूद न रहते हों और अपनी मौजूदगी से उसे भरा-पूरा न करते हों ।” नेमिचंद्र जी कहते हैं, “सर्वेश्वर का यह कलाओं के रसिक और पारखी का रूप मेरे लिए कुछ नया ही था, क्योंकि मैं उन्हें देर तक सिर्फ एक कवि, फिर पत्रकार के रूप में पढ़ता-जानता रहा ।”
कारण जो भी हो सर्वेश्वर उन गिने-चुने पत्रकारों में थे जिन्हें विभिन्न कलाओं से न सिर्फ लगाव था वरन उनके भीतरी रिश्तों, उनकी आपसी निर्भरता का भी उन्हें गहरा अहसास था । इस लगाव और अहसास की छाप उनके व्यक्तित्व और साहित्य दोनों पर दिखाई पड़ने लगी थी, जो उनकी रचना यात्रा में एक नए और उत्तेजक मोड़ की संभावना को रेखांकित करती थी । यह इसलिए और भी कि उनकी कला रसिकता में कोई दिखावा या अहंकार नहीं था, बल्कि शायद इसने उन्हें अधिक सौम्य, उदार एवं ग्रहणशील बनाया ।
लेखन में दिखता है जनपक्ष और लोकमंगलः
इसके कारण वे हर विचार का उदारता एवं उत्साह से स्वागत कर पाते थे, भले वे उससे सहमत न हों । दिनमान में सर्वेश्वर के सहयोगी रहे पत्रकार महेश्वर गंगवार बताते हैं, “सर्वेश्वर जी जब हल्के-फुलके मूड में होते तो अक्सर हमारे बीच आकर बैठकर गपशप मारते, तुकबंदियां करते और चाय पीते । तीखी से तीखी बात भी इतने सहज भाव से कह जाते कि सामने वाला यह भी नहीं समझ पाता कि वह हंसे या रोए । अगर गुस्से में होते तो सारा लिहाज भूल कर जो मन में आता, कह देते । कुछ गांठ बांधकर नहीं रखते । गुस्सा शांत होते ही सहज हो जाते ।” श्री गंगवार याद करते हैं – “मुझे याद है एक दिन मुहावरे के प्रयोग को लेकर मैंने उनका विरोध किया और उन्होंने डांटते कहा – ‘अब भाषा मुझे तुमसे सीखनी पड़ेगी ?’ वह अपन जगह सही थे – शब्द को नया अर्थ देते उन्हें देर नहीं लगती थी । फिर मैं भला उन्हें क्या भाषा सिखाता । लेकिन उस दिन उनका व्यवहार सचमुच भीतर तक बेध गया, क्योंकि मैं सही था । चुपचाप अपनी सीट पर बैठ गया । एक घण्टे बाद वे मेरी और बोले, ‘तुम्हीं सही हो । अब चाय तो मंगाओ।’ दिनमान के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार कन्हैयालाल नन्दन का मानना है कि “सर्वेश्वर जी ऐसे साहित्यकारों में थे जिनकी न तो उपस्थिति की उपेक्षा की जा सकती थी, और न उनके लिखे शब्दों की । सर्वेश्वर इस बात को लेकर बराबर चिंतित रहा करते थे कि लोग इतने ठंडे क्यों पड़ते जा रहे हैं कि लगता है कि जैसे लिखने का कोई अर्थ भी नहीं रहा जा रहा।” सर्वेश्वर के व्यक्तित्व के निर्माण में इन संदर्भों का गहरा प्रभाव पड़ा । आरंभिक समय गांव में तथा विपन्नता व तंगी से परेशान हाल रहने के कारण उनके मन में ग्रामीण व कस्बाई परिवेश से गहरा लगाव दिखता है । शोषित, पीड़ित, दलित एवं वंचित वर्गों की पक्षधरता एवं लगाव उनके सम्पूर्ण लेखन का मूल भाव है । साहित्य एवं पत्रकारिता दोनों क्षेत्रों में बराबर की दखल ने उनके व्यक्तित्व को इस कदर प्रभावित किया कि उनके साहित्य में पत्रकारिता का दबाव और पत्रकारिता में साहित्य का प्रभाव स्प्ष्ट दिखता है । साहित्य जो स्थायी मूल्यों की ओर उन्मुख होता है, पर पत्रकारिता के प्रभाव के चलते सर्वेश्वर के साहित्य में तात्कालिकता ज्यादा है । पैराफ्रेजिंग, सपाट बयानी एवं समस्याओं के समाधान हेतु साहित्य को हथियार बनाने की रोशिश सर्वेश्वर में स्पष्ट दिखती है । जो निश्चय ही सर्वेश्वर के साहित्य पर पत्रकारीय प्रभाव का प्रमाण है । इसके विपरीत पत्रकारिता में गंभीर दृष्टि के चलते वह तात्कालिकता सु ऊपर उठकर गहन मानवीय दृष्टिकोण की पक्षधरता ग्रहण करती है । इन अर्थों में सर्वेश्वर पत्रकारिता की भाषा को कुछ जटिल बनाते नजर आते हैं । सर्वेश्वर का समूचा व्यक्तित्व इसी द्वन्द की यात्रा है । वे नए शब्द रचने एवं उन्हें नए अर्थ देने में प्रवीण थे । कुल मिलाकर सर्वेश्वर पत्रकारिता की जमीन पर खड़े हों या साहित्य की, वे अपन रचनाकर्म एवं प्रदेय में हमेशा विशिष्ट रहेंगे । उनका काव्य व्यक्तित्व सहज, निश्छल एवं खिलखिलाकर हंस सकने वाला है तो एक आम आदमी की तरह उनके गुस्साने, नाराज हो जाने, बिदकने, निंदा या आलोचना न सुनने जैसे भाव हैं, जो बताते हैं कि सर्वेश्वर एक आम आदमी की तरह जिए । उन्होंने खास होते हुए भी खास दिखने की कोशिश नहीं की ।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

सोमवार, 13 सितंबर 2010

विलाप मत कीजिए, संकल्प लीजिए !


हिंदी दिवस पर विशेषः
- संजय द्विवेदी
राष्ट्रभाषा के रूप में खुद को साबित करने के लिए आज वस्तुतः हिंदी को किसी सरकारी मुहर की जरूरत नहीं है। उसके सहज और स्वाभाविक प्रसार ने उसे देश की राष्ट्रभाषा बना दिया है। वह अब सिर्फ संपर्क भाषा नहीं है, इन सबसे बढ़कर वह आज बाजार की भाषा है, लेकिन हर 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर होने वाले आयोजनों की भाषा पर गौर करें तो यूँ लगेगा जैसे हिंदी रसातल को जा रही है। यह शोक और विलाप का वातावरण दरअसल उन लोगों ने पैदा किया है, जो हिंदी की खाते तो हैं, पर उसकी शक्ति को नहीं पहचानते। इसीलिए राष्ट्रभाषा के उत्थान और विकास के लिए संकल्प लेने का दिन ‘सामूहिक विलाप’ का पर्व बन गया है। कर्म और जीवन में मीलों की दूरी रखने वाला यह विलापवादी वर्ग हिंदी की दयनीयता के ढोल तो खूब पीटता है, लेकिन अल्प समय में हुई हिंदी की प्रगति के शिखर उसे नहीं दिखते।

अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को लेकर हिंदी भक्तों की चिंताएं कभी-कभी अतिरंजित रूप लेती दिखती हैं। वे एक ऐसी भाषा से हिंदी की तुलना कर अपना दुख बढ़ा लेते हैं, जो वस्तुतः विश्व की संपर्क भाषा बन चुकी है और ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें लंबा और गंभीर कार्य हो चुकाहै। अंग्रेजी दरअसल एक प्रौढ़ हो चुकी भाषा है, जिसके पास आरंभ से ही राजसत्ताओं का संरक्षण ही नहीं रहा वरन ज्ञान-चिंतन, आविष्कारों तथा नई खोजों का मूल काम भी उसी भाषा में होता रहा। हिंदी एक किशोर भाषा है, जिसके पास उसका कोई ऐसा अतीत नहीं है, जो सत्ताओं के संरक्षण में फला-फूला हो । आज भी ज्ञान-अनुसंधान के काम प्रायः हिंदी में नहीं हो रहे हैं। उच्च शिक्षा का लगभग अध्ययन और अध्यापन अंग्रेजी में हो रहा है। दरअसल हिंदी की शक्ति यहां नहीं है, अंग्रेजी से उसकी तुलना इसलिए भी नहीं की जानी चाहिए क्योकि हिंदी एक ऐसे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है, जो विश्व मानचित्र पर अपने विस्तारवादी, उपनिवेशवादी चरित्र के लिए नहीं बल्कि सहिष्णुता के लिए जाना जाने वाला क्षेत्र है। फिर भी आज हिंदी, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आवादी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, क्या आप इस तथ्य पर गर्व नहीं कर सकते ? दरअसल अंग्रेजी के खिलाफ वातावरण बनाकर हमने अपने बहुत बड़े हिंदी क्षेत्र को ‘अज्ञानी’ बना दिया तो दक्षिण के कुछ क्षेत्र में हिन्दी विरोधी रूझानों को भी बल दिया । सच कहें तो नकारात्मक अभियान या भाषा को शक्ति नहीं दे सकते । एक भाषा के रूप में अंग्रेजी को सीखने तथा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को समादर देने, मातृभाषा के नाते मराठी, बंगला या पंजाबी का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। किंतु किसी भाषा को समाज में यदि प्रतिष्ठा पानी है तो वह नकारात्मक प्रयासों से नहीं पाई जा सकती । अंग्रेजी के विस्तारवाद को हमने साम्राज्यवादी ताकतों का षडयंत्र माना और प्रचारित किया। फलतः भावनात्मक रूप से सोचने-समझने वाला वर्ग अंग्रेजी से कटा और आज यह बात समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए गलत नजीर बन गई। यद्यपि अंग्रेजी मुठ्ठीभर सत्ताधीशों, नौकरशाहों और प्रभुवर्ग की भाषा है। वह उनकी शक्ति बन गई है। तो शक्ति को छीनने का एकमेव हथियार है उस भाषा पर अधिकार । यदि देश के तमाम गांवों, कस्बों, शहरों के लोग निज भाषा के आग्रहों आज मुठ्ठी भर लोगों के ‘अकड़ और शासन’ की भाषा न होती। इस सिलसिले में भावनात्मक नारेबाजियों से परे हटकर ‘विश्व परिदृश्य’ में हो रही घटनाओं-बदलावों का संदर्भ देखकर ही कार्यक्रम बनाने चाहिए । यह बुनियादी बात हिंदी क्षेत्र के लोग नहीं समझ सके। आज यह सवाल महत्वपूर्ण है कि अंग्रेजी सीखकर हम साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी कुछ क्रों से जुझ सकेंगे या उससे अनभिज्ञ रहकर। अपनी भाषा का अभिमान इसमें कहीं आड़े नहीं आता। भारतेंदु की यह बात-‘निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल’ आज के संदर्भ में भी अपनी प्रासंगिकता रखती है। आप इसी भाषा प्रेम के रुझानों को समझने के लिए दक्षिण भारत के राज्यों पर नजर डालें तो चित्र ज्यादा समझ में आएगा । मैं नहीं समझता कि किसी मलयाली भाषी, तमिल भाषी का अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम किसी बिहार, उ. प्र. या म. प्र. के हिंदी भाषी से कम है लेकिन दक्षिण के राज्यों ने अपनी भाषा के प्रति अनुराग को बनाए रखते हुए अंग्रेजी का भा ज्ञानार्जन किया, हिंदी भी सीखी। यदि वे निज भाषाका आग्रह लेकर बैठ जाते तो शायद वे आज सफलताओं के शिखर न छू रहे होते। आग्रहों से परे स्वस्थ चिंतन ही किसी समाज और उसकी भाषा को दुनिया में प्रतिष्ठा दिला सकता है। भाषा को अपनी शक्ति बनाने के बजाए उसे हमने अपनी कमजोरी बना डाला। बदलती दुनिया के मद्देनजर ‘विश्व ग्राम’ की परिकल्पना अब साकार हो उठी है। सो अंग्रेजी विश्व की संपर्क भाषा के रूप में और हिंदी भारत में संपर्क भाषा के स्थान पर प्रतिष्ठित हो चुकी है, यह चित्र बदला नहीं जा सकता ।

हिंदी की ताकत दरअसल किसी भाषा से प्रतिद्वंद्विता से नहीं वरन उसकी उपयोगिता से ही तय होगी। आज हिंदी सिर्फ ‘वोट माँगने की भाषा’ है, फिल्मों की भाषा है। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां में अभी आधारभूत कार्य होना शेष है। उसने खुद को एक लोकभाषा और जनभाषा के रूप में सिद्ध कर दिया है। किंतु ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें काम होना बाकी है, इसके बावजूद हिंदी का अतीत खासा चमकदार रहा है।नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन में स्वामी दयानंद से लेकर विवेकानंद तक लोगों को जगाने के अभियान की भाषा हिंदी ही बनी। गांधी ने भाषा की इस शक्ति को पहचाना और करोड़ों लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया तो उसका माध्यम हिंदी ही बनी थी। दयानंद ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’ जैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिंदी में रचकर हिंदी को एक प्रतिष्ठा दी। जानकारी के लिए ये दोनों महानायक हिंदी भाषा नहीं थे । तिलक, गोखले, पटेल सबके मुख से निकलने वाली हिंदी ही देश में उठे जनज्वार का कारण बनी । यह वही दौर है जब आजादी की अलख जगाने के लिए ढेरों अखबार निकले । उनमें ज्यादातर की भाषा हिंदी थी। यह हिंदी के खड़े होने और संभलने का दौर था । यह वही दौर जब भारतेन्दु हरिचन्द्र ने ‘भारत दुर्दशा’ लिखकर हिंदी मानस झकझोरा था।उधर पत्रकारिता के क्षेत्र में ‘आज’ के संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी एक इतिहास रच रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता का यह समय ही हमारी हिंदी पत्रकारिता की प्रेरणा और प्रस्थान बिंदु है।
आजादी के बाद भी वह परंपरा रुकी या ठहरी नहीं है। हिंदी को विद्यालयों विश्वविद्यालयों, कार्यालयों। संसद तथा अकादमियों में प्रतिष्ठा मिली है। तमाम पुरस्कार योजनाएं, संबर्धन के, प्रेरणा के सरकारी प्रयास शुरू हुए हैं। लेकिन इन सबके चलते हिंदी को बहुत लाभ हुआ है, सोचना बेमानी है। हिंदी की प्रगति के कुछ वाहक और मानक तलाशे जाएं तो इसे सबसे बड़ा विस्तार जहां आजादी के आंदोलन ने, साहित्य ने, पत्रकारिता ने दिलाया, वहीं हिंदी सिनेमा ने इसकी पहुँच बहुत बढ़ा दी। सिनेमा के चलते यह दूर-दराज तक जा पहुंची। दिलीप कुमार, राजकूमार, राजकपूर, देवानंद के ‘स्टारडम’ के बाद अभिताभ की दीवनगी इसका कारण बनी। हिंदी न जानने वाले लोग हिंदी सिनेमा के पर्दे से हिंदी के अभ्यासी बने। यह एक अलग प्रकार की हिंदी थी। फिर ट्रेनें, उन पर जाने वाली सवारियां, नौकरी की तलाश में हिंदी प्रदेशों क्षेत्रों में जाते लोग, गए तो अपनी भाषा, संस्कृति,परिवेश सब ले गए । तो कलकत्ता में ‘कलकतिया हिंदी’ विकसित हुई, मुंबई में ‘बम्बईयी हिंदी’ विकसित हुई। हिंदी ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से तादात्म्य बैठाया, क्योंकि हिंदी के वाहक प्रायः वे लोग थे जो गरीब थे, वे अंग्रेजी बोल नहीं सकते थे। मालिक दूसरी भाषा का था, उन्हें इनसे काम लेना था। इसमें हिंदी के नए-नए रूप बने। हिंदी के लोकव्यापीकरण की यह यात्रा वैश्विक परिप्रक्ष्य में भी घट रही थी। पूर्वीं उ. प्र. के आजमगढ़, गोरखपुर से लेकर वाराणसी आदि तमाम जिलों से ‘गिरमिटिया मजदूरों’ के रूप में विदेश के मारीशस, त्रिनिदाद, वियतनाम, गुयाना, फिजी आदि द्वीपों में गई आबादी आज भी अपनी जडो़ से जुड़ी है और हिंदी बोलती है। सर शिवसागर रामगुलाम से लेकर नवीन रामगुलाम, वासुदेव पांडेय आदि तमाम लोग अपने देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी बने। बाद में शिवसागर रामगुलाम गोरखपुर भी आए। यह हिंदी यानी भाषा की ही ताकत थी जो एक देश में हिंदी बोलने वाले हमारे भारतीय बंधु हैं। इन अर्थों में हिंदी आज तक ‘विश्वभाषा’ बन चुकी है। दुनिया के तमाम देशों में हिंदी के अध्ययन-अध्यापन का काम हो रहा है।देश में साहित्य-सृजन की दृष्टि से, प्रकाश-उद्योग की दृष्टि से हिन्दी एक समर्थ भाषा बनी है । भाषा और ज्ञान के तमाम अनुशासनों पर हिन्दी में काम शुरु हुआ है । रक्षा, अनुवांशिकी, चिकित्सा, जीवविज्ञान, भौतिकी क्षेत्रों पर हिन्दी में भारी संख्या में किताबें आ रही हैं । उनकी गुणवक्ता पर विचार हो सकता है किंतु हर प्रकार के ज्ञान और सूचना को अभिव्यक्ति देने में अपनी सामर्थ्य का अहसास हिन्दी करा चुकी है । इलेक्ट्रानिक मीडिया के बड़े-बड़े ‘अंग्रेजी दां चैनल’ भी हिन्दी में कार्यक्रम बनाने पर मजबूर हैं । ताजा उपभोक्तावाद की हवा के बावजूद हिन्दी की ताकत ज्यादा बढ़ी है । हिन्दी में विज्ञापन, विपणन उपभोक्ता वर्ग से हिन्दी की यह स्थिति ‘विलाप’ की नहीं ‘तैयारी’ की प्रेरणा बननी चाहिए । हिन्दी को 21वीं सदी की भाषा बनना है । आने वाले समय की चुनौतियों के मद्देनजर उसे ज्ञान, सूचनाओं और अनुसंधान की भाषा के रुप में स्वयं को साबित करना है । हिन्दी सत्ता-प्रतिष्ठानों के सहारे कभी नहीं फैली, उसकी विस्तार शक्ति स्वयं इस भाषा में ही निहित है । अंग्रेजी से उसकी तुलना करके कुढ़ना और दुखी होना बेमानी है । अंग्रेजी सालों से शासकवर्गों तथा ‘प्रभुवर्गों’ की भाषा रही है । उसे एक दिन में उसके सिंहासन से नहीं हटाया जा सकता । हिन्दी का इस क्षेत्र में हस्तक्षेप सर्वथा नया है, इसलिए उसे एक लंबी और सुदीर्घ तैयारी के साथ विश्वभाषा के सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने की प्रतीक्षा करनी चाहीए, इसीलिए हिन्दी दिवस को विलाप, चिंताओं का दिन बनाने के बतजाए हमें संकल्प का दिन बनाना होगा। यही संकल्प सही अर्थों में हिंदी को उसकी जगह दिलाएगा ।

सोमवार, 6 सितंबर 2010

सत्ता से आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता बनाएं लेखकःसंजय


पत्रकार रमण किरण के काव्य संग्रह का विमोचन समारोह

बिलासपुर(छत्तीसगढ़)। कवि, पत्रकार ,पेंटर और प्रेस फोटोग्राफर व्ही.व्ही. रमण किरण के कविता संग्रह “मर्म का अन्वेषणः 37 कविताएं ”का विमोचन समारोह बिलासपुर के होटल सेंट्रल पाइंट में सम्पन्न हुआ। आयोजन के मुख्यअतिथि गजलकार एवं टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव (दिल्ली) थे और अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने की। इस अवसर पर रविवार डाटकाम के संपादक आलोक प्रकाश पुतुल, प्रख्यात कथाकार शशांक, साहित्यकार रामकुमार तिवारी भी विशेष रूप से मौजूद थे।कार्यक्रम में आलोक श्रीवास्तव ने अपनी गजलें सुनाकर श्रोताओं की काफी प्रशंसा पायी।
कार्यक्रम के अध्यक्ष की आसंदी से बोलते हुए वरिष्ठ पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी ने कहा कि लेखकों को अपने लेखन के माध्यम से सत्ता के साथ आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ता बनाना चाहिए। इससे ही वह अपने धर्म का निवर्हन कर सकेंगें। उन्होंने कहा कि विचारधाराओं की आड़ लेकर हमें हिंसा और आतंकी गतिविधियों के महिमामंडन या समर्थन से बचना चाहिए। क्योंकि भारत का लोकतंत्र बहुत मुश्किल से अर्जित हुआ है और इसे वास्तविक जनतंत्र में बदलने के लिए हमें लंबी लड़ाई लड़नी है। उन्होंने कहा कि पूरे देश में इस समय जिस तरह के कठिन सवाल खड़े हैं उनका उत्तर हमारी राजनीति के पास नहीं है क्योंकि वह स्वयं इन समस्याओं के गहराने के लिए जिम्मेदार है। साहित्यकारों और पत्रकारों को अपने धर्म का निवर्हन करते हुए समाज का मार्गदर्शन करना चाहिए। श्री द्विवेदी ने कहा कि इस कठिन समय मौजूद सवालों के ठोस और वाजिब हल लेखकों को ही तलाशने होंगें। इस मौके पर रमण किरण को शुभकामनाएं देते हुए संजय द्विवेदी ने कहा कि प्रेस फोटोग्राफर, पेंटर और कवि के रूप में उनका हस्तक्षेप स्वागत योग्य है।
कार्यक्रम के प्रारंभ में रमण किरण ने संजय द्विवेदी और आलोक श्रीवास्तव को अपनी पेंटिंग भेंट की। आभार प्रदर्शन रोटरी क्लब, बिलासपुर के अध्यक्ष रणबीर सिंह मरहास ने किया एवं संचालन सुप्रिया भारतीयन ने किया। कार्यक्रम में छत्तीसगढ़ राजभाषा आयोग के अध्यक्ष पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, सतीश जायसवाल, कपूर वासनिक, डा. पालेश्वर शर्मा, डा.विनयकुमार पाठक, डा. गंगाधर पुष्कर, डा. सत्यभामा अवस्थी, प्रियनाथ तिवारी, पूर्व विधायक चंद्रप्रकाश वाजपेयी, कृष्णकुमार यादव राजू, डा. अजय पाठक, विश्वेष ठाकरे, प्रतीक वासनिक, यशवंत गोहिल, बृजेश सिंह, सुनील शर्मा सहित नगर के अनेक पत्रकार, साहित्यकार और बुद्धिजीवी मौजूद रहे।

संजय द्विवेदी को अपनी पेंटिग भेंट करते हुए रमण किरण


बिलासपुर(छत्तीसगढ़)5 सितंबर।
कवि,साहित्यकार,पेंटर और फोटोग्राफर व्ही.व्ही. रमण किरण के कविता संग्रह मर्म का अन्वेशणः 37 कविताएं का विमोचन समारोह बिलासपुर के होटल सेंट्रल पाइंट में सम्पन्न हुआ। आयोजन के मुख्यअतिथि गजलकार एवं टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव थे और अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने की। इस अवसर पर रमन किरण ने अपनी बनाई पेंटिंग भी मुख्यअतिथि एवं कार्यक्रम के अध्यक्ष को भेंट की।

रमन किरण के कविता संग्रह का विमोचन


बिलासपुर(छत्तीसगढ़)5 सितंबर
कवि,साहित्यकार,पेंटर और फोटोग्राफर व्ही.व्ही. रमण किरण के कविता संग्रह मर्म का अन्वेशणः 37 कविताएं का विमोचन समारोह बिलासपुर के होटल सेंट्रल पाइंट में सम्पन्न हुआ। आयोजन के मुख्यअतिथि गजलकार एवं टीवी पत्रकार आलोक श्रीवास्तव थे और अध्यक्षता माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने की। इस अवसर पर रविवार डाटकाम के संपादक आलोक प्रकाश पुतुल, कथाकार शशांक, साहित्यकार रामकुमार तिवारी भी विशेष रूप से मौजूद थे।
कार्यक्रम में आलोक श्रीवास्तव ने अपनी गजलें सुनाकर श्रोताओं की काफी प्रशंसा पायी।

संजय द्विवेदी की नई किताबः मीडिया नया दौर-नई चुनौतियां


भारतीय मीडिया की सच्ची पड़ताल
पुस्तक का नामः मीडियाः नया दौर नई चुनौतियां
लेखकः संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स, 1 / 10753 सुभाष पार्क, गली नंबर-3, नवीन शाहदरा, नीयर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110031, मूल्यः 150 रुपये मात्र

नए दौर में मीडिया दो भागों में बंटा हुआ है, एक प्रिंट मीडिया और दूसरा इलेक्ट्रानिक मीडिया। भाषा और तेवर भी दोनों के अलग–अलग हैं। खबरों के प्रसार की दृष्टि से इलेक्ट्रानिक मीडिया तेज और तात्कालिक बहस छेड़ने में काफी आगे निकल आया है। प्रभाव की दृष्टि से प्रिंट मीडिया आज भी जनमानस पर अपनी गहरी पैठ रखता है। फिर वे कौन से कारण हैं कि आज मीडिया की कार्यशैली और उसके व्यवहार को लेकर सबसे ज्यादा आलोचना का सामना मीडिया को ही करना पड़ रहा है। चौथे खंभे पर लगातार प्रहार हो रहे हैं। समाज का आईना कहे जाने वाले मीडिया को अब अपने ही आईने में शक्ल को पहचानना कठिन हो रहा है। पत्रकारिता के सरोकार समाज से नहीं बल्कि बाजार से अधिक निकट के हो गये हैं। नए दौर का मीडिया सत्ता की राजनीति और पैसे की खनक में अपनी विरासत के वैभव और त्याग का परिष्कार कर चुका है। यानी मीडिया का नया दौर तकनीक के विकास से जितना सक्षम और संसाधन संपन्न हो चुका है उससे कहीं ज्यादा उसका मूल्यबोध और नैतिक बल प्रायः पराभव की तरफ बढ़ चला है।
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी की नई पुस्तक ‘मीडिया- नया दौर नई चुनौतियां’ इन सुलगते सवालों के बीच बहस खड़ी करने का नया हौसला है। संजय द्विवेदी अपनी लेखनी के जरिए ज्वलंत मुद्दों पर गंभीर विमर्श लगातार करते रहते हैं। लेखक और पत्रकार होने के नाते उनका चिन्तन अपने आसपास के वातावरण के प्रति काफी चौकन्ना रहता है, इसलिए जब वे कुछ लिखते हैं तो उनकी संवेदनाएं बरबस ही मुखर होकर सामने आती हैं। राजनीति उनका प्रिय विषय है लेकिन मीडिया उनका कर्मक्षेत्र है। संजय महाभारत के संजय की तरह नहीं हैं जो सिर्फ घटनाओं को दिखाने का काम करते हैं, लेखक संजय अपने देखे गये सच को उसकी जड़ में जाकर पड़ताल करते हैं और सम्यक चेतना के साथ उन विमर्शों को खड़ा करने का काम करते हैं जिसकी चिंता पूरे समाज और राष्ट्र को करना चाहिए।
यह महज वेदना नहीं है बल्कि गहरी चिंता का विषय भी है कि आजादी के पहले जिस पत्रकारिता का जन्म हुआ था इतने वर्षों बाद उसका चेहरा-मोहरा आखिर इतना क्यों बदल गया है कि मीडिया की अस्मिता ही खतरे में नजर आने लगी है। पत्रकार संजय लंबे समय से मीडिया पर उठ रहे सवालों का जवाब तलाशने की जद्दोजहद करते हैं। कुछ सवाल खुद भी खड़े करते हैं और उस पर बहस के लिये मंच भी प्रदान करते हैं। बाजारवादी मीडिया और मीडिया के आखिरी सिपाही स्व.प्रभाष जोशी के बीच की जंग तक के सफर को संजय काफी नजदीक से देखते हैं और सीपियों की तरह इकट्ठा करके लेखमालाओं के साथ प्रस्तुत करते हैं। संजय के परिश्रमी लेखन पर प्रख्यात कवि श्री अष्टभुजा शुक्ल कहते हैं – “संजय के लेखन में भारतीय साहित्य, संस्कृति और इसका प्रगतिशील इतिहास बार-बार झलक मारता है बल्कि इन्हीं की कच्ची मिट्टी से लेखों के ये शिल्प तैयार हुए हैं। अतः उनका लेखन तात्कालिक सतही टिप्पणियां न होकर, दीर्घजीवी और एक निर्भीक, संवेदनशील तथा जिन्दादिल पत्रकार के गवाह हैं। ऐसे ही शिल्प और हस्तक्षेप किसी भी समाज की संजीवनी है।”
यह सच है कि संजय के लेखों में साहित्य, संस्कृति और प्रगतिशील इतिहास का अदभुत संयोग नजर आता है। इससे भी अधिक यह है कि वे बेलाग और त्वरित टिप्पणी करने में आगे रहते हैं। वैचारिक पृष्ठभूमि में विस्तार से प्रकाश डालना संजय की लेखनी का खास गुण हैं, जिससे ज्यादातर लोग सहमत हो सकते हैं। पं.माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर कमल दीक्षित ने पुस्तक की भूमिका में लिखा है कि “ श्री द्विवेदी प्रोफेशनल और अकादमिक अध्येता – दोनों ही हैं। वे पहले समाचार-पत्रों में संपादक तक की भूमिका का निर्वाह कर चुके हैं। न्यूज चैनल में रहते हुए उन्होंने इलेक्ट्रानिक मीडिया को देखा समझा है। अब वे अध्यापक हैं। ऐसा व्यक्ति जब कोई विमर्श अपने विषय से जुड़कर करता है तो वह अपने अनुभव तथा दृष्टि से संपन्न होता है, इस मायने में संजय द्विवेदी को पढ़ना अपने समय में उतरना है। ये अपने समय को ज्यादा सच्चाई से बताते हैं।” संजय के लेखन के बारे में दो विद्वानों की टिप्पणियां इतना समझने में पर्याप्त है कि उनकी पुस्तक का फलसफा क्या हो सकता है। अतः इस पुस्तक में संजय ने मीडिया की जिस गहराई में उतरकर मोती चुनने का साहस किया है वह प्रशंसनीय है। पुस्तक में कुल सत्ताइस लेखों को क्रमबद्ध किया गया हैं जिनमें उनका आत्मकथ्य भी शामिल है।
पहले क्रम में लेखक ने नई प्रौद्योगिकी, साहित्य और मीडिया के अंर्तसंबंधों को रेखांकित किया है। आतंकवाद, भारतीय लोकतंत्र और रिपोर्टिंग, कालिख पोत ली हमने अपने मुंह पर, मीडिया की हिन्दी, पानीदार समाज की जरुरत, खुद को तलाशता जनमाध्यम जैसे लेखों के माध्यम से लेखक ने नए सिरे से तफ्तीश करते हुए समस्याओं को अलग अन्दाज में रखने की कोशिश की है। बाजारवादी मीडिया के खतरों से आगाह करते हैं मीडिया को धंधेबाजों से बचाइए, दूसरी ओर मीडिया के बिगड़ते स्वरुप पर तीखा प्रहार करने से नहीं चूकते हैं। इन लेखों में एक्सक्लुजिव और ब्रेकिंग के बीच की खबरों के बीच कराहते मीडिया की तड़फ दिखाने का प्रयास भी संजय करते हैं। इलेक्ट्रानिक मीडिया के प्रिंस की पहचान कराते हैं और मीडिया के नारी संवेदनाओं को लेकर गहरी चिंता भी करते हैं। मीडिया में देहराग, किस पर हम कुर्बान, बेगानी शादी में मीडिया दीवाना जैसे लेखों में वे मीडिया की बेचारगी और बेशर्मी पर अपना आक्रोश भी जाहिर करते हैं।
श्री संजय की पुस्तक में मीडिया शिक्षा को लेकर भी कई सवाल हैं। मीडिया के शिक्षण और प्रशिक्षण को लेकर देश भर कई संस्थानों ने अपने केन्द्र खोले है। कई संस्थान तो ऐसे हैं जहां मीडिया शिक्षण के नाम पर छद्म और छलावा का खेल चल रहा है। मीडिया में आने वाली नई पीढ़ी के पास तकनीकी ज्ञान तो है लेकिन उसके उद्देश्यों को लेकर सोच का अभाव है। अखबारों की बैचेनी के बीच उसके घटते प्रभाव को लेकर भी पुस्तक में गहरा विमर्श देखने को मिलता है। विज्ञापन की तर्ज पर जो बिकेगा, वही टिकेगा जैसा कटाक्ष भी लेखक संजय ने किया है। वहीं थोड़ी सी आशा भी मीडिया से रखते हैं कि जब तंत्र में भरोसा न रहे वहां हम मीडिया से ही उम्मीदें पाल सकते हैं।
संजय हिंदी की पत्रकारिता पर भी अपना ध्यान और ध्येय केन्द्रित करते हैं। उनका मानना है कि अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिन्दी में प्रकाशन यह साबित करता है कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का नया युग प्रारंभ हो रहा है। हिंदी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रशासनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति की संभावनाएं साफ नजर आ रही हैं। हालांकि वे हिन्दी बाजार में मीडिया वार की बात भी करते हैं। फिलवक्त उन्होंने अपनी पुस्तक में पत्रकारिता की संस्कारभूमि छत्तीसगढ़ के प्रभाव को काफी महत्वपूर्ण करार दिया है। अपने आत्मकथ्य ‘मुसाफिर हूं यारों’ के माध्यम से वे उन पलों को नहीं भूल पाते हैं जहां उनकी पत्रकारिता परवान चढ़ी है। वे अपने दोस्तों, प्रेरक महापुरुषों और मार्गदर्शक पत्रकारों की सराहना करने से नहीं चूकते हैं जिनके संग-संग छत्तीसगढ़ में उन्होंने अपनी कलम और अकादमिक गुणों को निखारने का काम किया है।
संजय द्विवेदी के आत्मकथ्य को पढना काफी सुकून देता है कि आज भी ऐसे युवा हैं जिनके दमखम पर मीडिया की नई चुनौतियां का सामना हम आसानी से कर सकते हैं। जरुरत है ज़ज्बे और ईमानदार हौसलों की और ये हौसला हम संजय द्विवेदी जैसे पत्रकार, अध्यापक और युवा मित्र में देख सकते हैं। संजय की यह पुस्तक विद्यार्थियों, शोधार्थियों और मीडिया से जुड़े प्रत्येक वर्ग के लिये महत्वपूर्ण दस्तावेज है। ज्ञान, सूचना और घटनाओं का समसामयिक अध्ययन पुस्तक में दिग्दर्शी होता है। भाषा की दृष्टि से पुस्तक पठनीयता के सभी गुण लिए हुए है। मुद्रण अत्यन्त सुंदर और आकर्षक है। कवर पृष्ठ देखकर ही पुस्तक पढ़ने की जिज्ञासा बढ़ जाती है।
समीक्षकः डा. शाहिद अली, अध्यक्षः जनसंचार विभाग, कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, कोटा स्टेडियम, रायपुर (छत्तीसगढ़)

शनिवार, 4 सितंबर 2010

सोनियाःअब सहानुभूति नहीं, बड़ी उम्मीदें


उनका कांग्रेस अध्यक्ष बनना चौंकाने वाली खबर नहीं
-संजय द्विवेदी

देश की 125 साल पुरानी पार्टी ने एक बार फिर श्रीमती सोनिया गांधी को अपना अध्यक्ष चुन लिया है। जाहिर तौर पर यह कोई चौंकाने वाली सूचना नहीं है। पार्टी के 125 सालों के इतिहास में 32 वर्ष इस दल पर नेहरू परिवार के वारिसों का कब्जा रहा है, श्रीमती गांधी की उपलब्धि यही है कि वे इन वारिसों के बीच में सर्वाधिक समय तक अध्यक्ष रहने वाली बन चुकी हैं। पिछले 12 सालों में सोनिया गांधी ने कांग्रेस को पिछले दो चुनावों में सत्ता के केंद्र में पहुंचाया और दल को एकजुट किया। इस सफलता के चलते आज वे देश की सबसे प्रभावी नेता बन गयी हैं। कांग्रेस जहां पर सत्ता और संगठन एकमेक थे, वे वहां पर संगठन की पुर्नवापसी की प्रतीक बन गयी हैं। इसके साथ ही उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही है कि उन्होंने अपने पुत्र राहुल गांधी को जिस खूबसूरती के साथ राजनीतिक क्षेत्र में लांच किया, वह एक मिसाल है। सत्ता में होते हुए सत्ता के प्रति आशक्ति न दिखाकर सोनिया और राहुल गांधी ने कांग्रेस कार्यकर्ताओं ही नहीं देश की जनता के मन में एक बड़ी जगह बना ली है।
अब जबकि वे चौथी बार कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी जा चुकी हैं तो उनके लिए यह कोई उपलब्धि भले न हो पर उनकी चुनौतियां बहुत बढ़ गयी हैं। क्योंकि इसी दौर में उन्हें मनमोहन सिंह के विकल्प के रूप में अपने सुपुत्र को स्थापित करना है और अगला लोकसभा चुनाव भी जीतना है। किंतु देखें तो यह समय कांग्रेस के पक्ष में नहीं दिखता। उनके नेतृत्ववाली कांग्रेस सरकार आज आरोपों के कठघरे में है। पार्टी की सबसे प्रभावी नेता होने के नाते सोनिया को इन सवालों के ठोस और वाजिब हल तलाशने ही होंगें, क्योंकि वोट मांगने के मोर्चे पर मनमोहन सिंह जैसे मनोनीत प्रधानमंत्री नहीं, नेहरू परिवार के वारिस ही होते हैं। क्या कारण है कि गरीबों की लगातार बात करने के बावजूद उनकी सरकार का चेहरा गरीब विरोधी बन गया है ? राहुल गांधी ने अपनी राजनीति से जरूर गरीब और दलित समर्थक होने की छवियां प्रस्तुत कीं किंतु उनकी सरकार का चेहरा तो गरीब विरोधी ही बना रहा। परमाणु बिल जैसे सवालों पर तो उनके प्रधानमंत्री अतिउत्साह में नजर आए किंतु गरीबों को अनाज बांटने के सवाल पर सुप्रीम कोर्ट की दोबारा फटकार के बाद उनकी सरकार को होश आया। ऐसे में सवाल यह उठता है कि सोनिया और राहुल गांधी द्वारा लगातार गरीबों की बात करने के मायने क्या हैं, जब उनकी सरकार का हर कदम आम आदमी की जिंदगी को नरक बनाने वाला है। महंगाई के सवाल पर कांग्रेस संगठन ने सरकार पर दबाव बनाने का कोई प्रयास नहीं किया। भोपाल गैस त्रासदी के सवाल पर भी लंबे समय तक सोनिया और राहुल खामोश रहे। भला हो कि इस देश में सुप्रीम कोर्ट भी है। क्या इसके ये मायने निकाले जाएं कि गांधी परिवार के वारिस मनमोहन सिंह को एक विफल प्रधानमंत्री साबित कर अपने लिए राजमार्ग सुगम बना रहे हैं। या गरीबों के प्रति उनकी ममता सिर्फ वाचिक ही है।सोनिया गांधी को अपने इस कार्यकाल में इन सवालों से जूझना पड़ेगा। देश के सामने मौजूद जो महत्व के सवाल हैं, उस पर नेहरू परिवार के दोनों वारिसों के क्या विचार हैं, यह देश जानना चाहता है। नक्सलवाद के सवाल पर कांग्रेस के मंत्री और नेता ही आपस में टकराते रहते हैं, सोनिया जी को साफ करना पड़ेगा कि वे इस सवाल पर कहां खड़ी हैं और कांग्रेस में इसे लेकर इतना भ्रम क्यों है ? आतंकवाद को लेकर नरम रवैये पर भी उनको जवाब देना पड़ेगा। आखिर आतंकवाद को लेकर हमारी सरकार इतनी दिशाहीन क्यों है? उसके पास इस सवाल से जूझने का रोड मैप क्या है ?भोपाल गैस त्रासदी जिसमें पंद्रह हजार लोगों की मौतों के बाद, आज 25 साल के बाद, एक भी आरोपी जेल में नहीं है, पर उनकी दृष्टि क्या है? देश के सामने मौजूद ऐसे तमाम सवाल हैं जिनके उत्तर उन्हें देने होंगें, क्योंकि अब वे एक समर्थ नेता हैं और उनसे देश अब सहानुभूति नहीं वरन बड़ी उम्मीदें रखने लगा है। कांग्रेस नेतृत्व ने भले ही एक अराजनैतिक प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का चयन किया है उसे जनता की भावनाएं भी समझनी होंगी। यदि वर्तमान शासन एवं प्रधानमंत्री को अलोकप्रिय कर, कांग्रेस के युवराज को कमान संभालने और उनके जादुई नेतृत्व की आभा से सारे संकट हल करने की योजना बन रही हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता। किंतु ऐसा थकाहारा, दिशाहारा नेतृत्व आखिर हमारे सामने मौजूद चुनौतियों और संकटों से कैसे जूझेगा।
श्रीमती सोनिया गांधी के सामने अपने संगठन को बिहार, उत्तरप्रदेश, मप्र, गुजरात और छत्तीसगढ़ में भी स्थापित करने की चुनौती है जहां उसे अपना पुराना वैभव हासिल करने में बहुत पसीना बहाना होगा। कांग्रेस अध्यक्ष को यह पता है कि उनसे देश की उम्मीदें बहुत हैं और वे देश के सामने उपस्थित कठिन सवालों का सामना करें। सबसे बड़ा सवाल महंगाई है और दूसरा राष्ट्रीय सुरक्षा का। इन दोनों सवालों पर सरकार में बदहवाशी दिखती है। उसके पास कोई दिशा नहीं दिखती। भ्रष्टाचार के सवाल पर भी सरकार का रिकार्ड बहुत बेहतर नहीं है। ऐसे में उन्हें अपने दल को व्यापक लोकस्वीकृति दिलाने के लिए भगीरथ प्रयास करने होंगें। एक राष्ट्रीय दल के तौर पर कांग्रेस की ताकत कम हो रही है, उसके लिए भी उन्हें सोचना होगा। यह सही बात है कि कांग्रेस ने जिस तेजी से अपनी जगह छोड़ी उसकी प्रतिद्वंदी भाजपा उसे भर नहीं पाई, किंतु क्षेत्रीय दलों की चुनौती उसके लिए चिंता का एक बड़ा कारण है। राष्ट्रीय राजनीतिक दलों का संकुचन देश की राजनीति के अखिलभारतीय चरित्र के लिए चिंता का एक बड़ा विषय है। इसके चलते स्थानीय स्वार्थ और क्षेत्रीय भावनाओं का विकास हो रहा। ऐसे में राष्ट्रीय दलों की मजबूती इस देश में अखिलभारतीय चरित्र के विकास के लिए अपरिहार्य है। सो कांग्रेस की अध्यक्ष के नाते जनता की तमाम समस्याओं के निदान के लिए लोग उन्हें आशा भरी निगाहों से देख रहे हैं। कांग्रेस की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में लोगों को खासा निराश किया है, क्या श्रीमती गांधी इतिहास की घड़ी में अपनी सरकार से जनधर्म निभाने और जनता की भावनाओं के साथ चलने के लिए कहेंगीं। पार्टी अध्यक्ष और राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की अध्यक्ष होने के नाते उन्हें कुछ अधिक कड़े तेवर अपनाने होंगें, इससे ही उनकी सरकार से कुछ अनूकूल परिणाम पाए जा सकते हैं।

शनिवार, 28 अगस्त 2010

मैदान में उतरा ‘गांधी’ !


देश के सामने उपस्थित कठिन सवालों के उत्तर भी तलाशें राहुल
-संजय द्विवेदी


पिछले कई महीनों से संसद के अंदर और बाहर कांग्रेस की सरकार की छवि मलिन होती रही, देश की जनता महंगाई की मार से तड़पती रही। भोपाल गैस त्रासदी के सवाल हों या महंगाई से देश में आंदोलन और बंद, किसी को पता है तब राहुल गांधी कहां थे? मनमोहन सिंह इन्हीं दिनों में एक लाचार प्रधानमंत्री के रूप में निरूपित किए जा रहे थे किंतु युवराज उनकी मदद के लिए नहीं आए। महंगाई की मार से तड़पती जनता के लिए भी वे नहीं आए। आखिर क्यों? और अब जब वे आए हैं तो जादू की छड़ी से समस्याएं हल हो रही हैं। वेदान्ता के प्लांट की मंजूरी रद्द होने का श्रेय लेकर वे उड़ीसा में रैली करके लौटे हैं। उप्र में किसान आंदोलन में भी वे भीगते हुए पहुंचे और भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव का आश्वासन वे प्रधानमंत्री से ले आए हैं। जाहिर है राहुल गांधी हैं तो चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है। यूं लगता है कि देश के गरीबों को एक ऐसा नेता मिल चुका है जिसके पास उनकी समस्याओं का त्वरित समाधान है।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वैसे भी अपने पूरे कार्यकाल में एक दिन भी यह प्रकट नहीं होने दिया कि वे जनता के लिए भी कुछ सोचते हैं। वे सिर्फ एक कार्यकारी भूमिका में ही नजर आते हैं जो युवराज के राज संभालने तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री है। इसके कारण समझना बहुत कठिन नहीं है। आखिरकार राहुल गांधी ही कांग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व हैं और इस पर बहस की गुंजाइश भी नहीं है। कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह भी अपनी राय दे चुके हैं कि राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनना चाहिए। यह अकेली दिग्विजय सिंह की नहीं कांग्रेस की सामूहिक सोच है। मनमोहन सिंह इस मायने में गांधी परिवार की अपेक्षा पर, हद से अधिक खरे उतरे हैं। उन्होंने अपनी योग्यताओं, ईमानदारी और विद्वता के बावजूद अपने पूरे कार्यकाल में कभी अपनी छवि बनाने का कोई जतन नहीं किया। महंगाई और भोपाल गैस त्रासदी पर सरकारी रवैये ने मनमोहन सिंह की जनविरोधी छवि को जिस तरह स्थापित कर दिया है वह राहुल के लिए एक बड़ी राहत है। मनमोहन सिंह जहां भारत में विदेशी निवेश और उदारीकरण के सबसे बड़े झंडाबरदार हैं वहीं राहुल गांधी की छवि ऐसी बनाई जा रही है जैसे उदारीकरण की इस आंधी में वे आदिवासियों और किसानों के सबसे बड़े खैरख्वाह हैं। कांग्रेस में ऐसे विचारधारात्मक द्वंद नयी बात नहीं हैं किंतु यह मामला नीतिगत कम, रणनीतिगत ज्यादा है। आखिर क्या कारण है कि जिस मनमोहन सिंह की अमीर-कारपोरेट-बाजार और अमरीका समर्थक नीतियां जगजाहिर हैं वे ही आलाकमान के पसंदीदा प्रधानमंत्री हैं। और इसके उलट उन्हीं नीतियों और कार्यक्रमों के खिलाफ काम कर राहुल गांधी अपनी छवि चमका रहे हैं। क्या कारण है जब परमाणु करार और परमाणु संयंत्र कंपनियों को राहत देने की बात होती है तो मनमोहन सिंह अपनी जनविरोधी छवि बनने के बावजूद ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे उन्हें फ्री-हैंड दे दिया गया है। ऐसे विवादित विमर्शों से राहुल जी दूर ही रहते हैं। किंतु जब आदिवासियों और किसानों को राहत देने की बात आती है तो सरकार कोई भी धोषणा तब करती है जब राहुल जी प्रधानमंत्री के पास जाकर अपनी मांग प्रस्तुत करते हैं। क्या कांग्रेस की सरकार में गरीबों और आदिवासियों के लिए सिर्फ राहुल जी सोचते हैं ? क्या पूरी सरकार आदिवासियों और दलितों की विरोधी है कि जब तक उसे राहुल जी याद नहीं दिलाते उसे अपने कर्तव्य की याद भी नहीं आती ? ऐसे में यह कहना बहुत मौजूं है कि राहुल गांधी ने अपनी सुविधा के प्रश्न चुने हैं और वे उसी पर बात करते हैं। असुविधा के सारे सवाल सरकार के हिस्से हैं और उसका अपयश भी सरकार के हिस्से। राहुल बढ़ती महंगाई, पेट्रोल-डीजल की कीमतों पर कोई बात नहीं करते, वे भोपाल त्रासदी पर कुछ नहीं कहते, वे काश्मीर के सवाल पर खामोश रहते हैं, वे मणिपुर पर खामोश रहे, वे परमाणु करार पर खामोश रहे,वे अपनी सरकार के मंत्रियों के भ्रष्टाचार और राष्ट्रमंडल खेलों में मचे धमाल पर चुप रहते हैं, वे आतंकवाद और नक्सलवाद के सवालों पर अपनी सरकार के नेताओं के द्वंद पर भी खामोशी रखते हैं, यानि यह उनकी सुविधा है कि देश के किस प्रश्न पर अपनी राय रखें। जाहिर तौर पर इस चुनिंदा रवैये से वे अपनी भुवनमोहिनी छवि के निर्माण में सफल भी हुए हैं।
वे सही मायने में एक सच्चे उत्तराधिकारी हैं क्योंकि उन्होंने सत्ता में रहते हुए भी सत्ता के प्रति आसक्ति न दिखाकर यह साबित कर दिया है उनमें श्रम, रचनाशीलता और इंतजार तीनों हैं।सत्ता पाकर अधीर होनेवाली पीढ़ी से अलग वे कांग्रेस में संगठन की पुर्नवापसी का प्रतीक बन गए हैं।वे अपने परिवार की अहमियत को समझते हैं, शायद इसीलिए उन्होंने कहा- ‘मैं राजनीतिक परिवार से न होता तो यहां नहीं होता। आपके पास पैसा नहीं है, परिवार या दोस्त राजनीति में नहीं हैं तो आप राजनीति में नहीं आ सकते, मैं इसे बदलना चाहता हूं।’आखिरी पायदान के आदमी की चिंता करते हुए वे अपने दल का जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। नरेगा जैसी योजनाओं पर उनकी सर्तक दृष्ठि और दलितों के यहां ठहरने और भोजन करने के उनके कार्यक्रम इसी रणनीति का हिस्सा हैं। सही मायनों में वे कांग्रेस के वापस आ रहे आत्मविश्वास का भी प्रतीक हैं। अपने गृहराज्य उप्र को उन्होंने अपनी प्रयोगशाला बनाया है। जहां लगभग मृतप्राय हो चुकी कांग्रेस को उन्होंने पिछले चुनावों में अकेले दम पर खड़ा किया और आए परिणामों ने साबित किया कि राहुल सही थे। उनके फैसले ने कांग्रेस को उप्र में आत्मविश्वास तो दिया ही साथ ही देश की राजनीति में राहुल के हस्तक्षेप को भी साबित किया। इस सबके बावजूद वे अगर देश के सामने मौजूद कठिन सवालों से बचकर चल रहे हैं तो भी देर सबेर तो इन मुद्दों से उन्हें मुठभेड़ करनी ही होगी। कांग्रेस की सरकार और उसके प्रधानमंत्री आज कई कारणों से अलोकप्रिय हो रहे हैं। कांग्रेस जैसी पार्टी में राहुल गांधी यह कहकर नहीं बच सकते कि ये तो मनमोहन सिंह के कार्यकाल का मामला है। क्योंकि देश के लोग मनमोहन सिंह के नाम पर नहीं गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों के नाम पर वोट डालते हैं। ऐसे में सरकार के कामकाज का असर कांग्रेस पर नहीं पड़ेगा, सोचना बेमानी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि राहुल गांधी के प्रबंधकों ने उन्हें जो राह बताई है वह बहुत ही आकर्षक है और उससे राहुल की भद्र छवि में इजाफा ही हुआ है। किंतु यह बदलाव अगर सिर्फ रणनीतिगत हैं तो नाकाफी हैं और यदि ये बदलाव कांग्रेस की नीतियों और उसके चरित्र में बदलाव का कारण बनते हैं तो उसका स्वागत किया जाना चाहिए। हालांकि राहुल गांधी को पता है कि भावनात्मक नारों से एक- दो चुनाव जीते जा सकते हैं किंतु सत्ता का स्थायित्व सही कदमों से ही संभव है। सत्ता में रहकर भी सत्ता से निरपेक्ष रहना साधारण नहीं होता, राहुल इसे कर पा रहे हैं तो यह भी साधारण नहीं हैं। लोकतंत्र का पाठ यही है कि सबसे आखिरी आदमी की चिंता होनी ही नहीं, दिखनी भी चाहिए। राहुल ने इस मंत्र को पढ़ लिया है। वे परिवार के तमाम नायकों की तरह चमत्कारी नहीं है। उन्हें पता है वे कि नेहरू, इंदिरा या राजीव नहीं है। सो उन्होंने चमत्कारों के बजाए काम पर अपना फोकस किया है। शायद इसीलिए राहुल कहते हैं-“ मेरे पास चालीस साल की उम्र में प्रधानमंत्री बनने लायक अनुभव नहीं है, मेरे पिता की बात अलग थी। ” राहुल की यह विनम्रता आज सबको आकर्षित कर रही है पर जब अगर वे देश के प्रधानमंत्री बन पाते हैं तो उनके पास सवालों और मुद्दों को चुनने का अवकाश नहीं होगा। उन्हें हर असुविधाजनक प्रश्न से टकराकर उन मुद्दों के ठोस और वाजिब हल तलाशने होंगें। आज मनमोहन सिंह जिन कारणों से आलोचना के केंद्र में हैं वही कारण कल उनकी भी परेशानी का भी सबब बनेंगें। इसमें कोई दो राय नहीं है कि उनके प्रति देश की जनता में एक भरोसा पैदा हुआ है और वे अपने ‘गांधी’ होने का ब्लैंक चेक एक बार तो कैश करा ही सकते हैं।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

एक अराजनैतिक प्रधानमंत्री


अपनी योग्यताओं के बावजूद बहुत औसत राजनेता साबित हुए मनमोहन
-संजय द्विवेदी

मनमोहन सिंह की सफलताएं देखकर लगता है कि आखिर वे इतने बड़े कैसे हो पाए, तो फिलहाल दो ही कारण समझ में आते हैं एक उनका भाग्य और दूसरा श्रीमती सोनिया गांधी। किंतु इन दोनों कारणों से ही कुर्सी पाने के बावजूद भी वे इस अवसर को एक सौभाग्य में बदल सकते थे- इसका कारण यह है कि उनके पास ईमानदारी और विद्वता की एक ऐसी विरासत थी जिसका संयोग आज की राजनीति में दुर्लभ है। अब जबकि वे एक लंबा कार्यकाल पाने वाले देश के तीसरे प्रधानमंत्री बन चुके हैं तो भी उनके पास उपलब्धियों का खाता खाली है। पिछले चुनावों में उनकी जिस शुचिता, ईमानदारी और भद्रता पर मुग्ध देश ने भाजपा दिग्गज लालकृष्ण आडवानी के एक तर्क नहीं सुने और मनमोहन सिंह की वापसी पर मुहर लगाई, आज देश अपने प्रधानमंत्री से खासा निराश दिखता है। अपने व्यक्तिगत गुणों के कारण अगर वे चाहते तो लालबहादुर शास्त्री की तरह एक बड़ी रेखा खींच सकते थे, जबकि शास्त्री जी को समय बहुत कम मिला था। किंतु मनमोहन सिंह पूरे साढ़े छः बाद भी एक बहुत औसत राजनेता के रूप में ही सामने आते हैं।
परमाणु करार बिल को पास कराने के समय और पिछले लोकसभा चुनावों में जिस तेवर का उन्होंने परिचय दिया था उससे लगता था कि मनमोहन सिंह बदल रहे हैं। पर अब यह लगने लगा है कि वे कांग्रेस के युवराज की ताजपोशी तक एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री ही हैं, जो राज नहीं कर रहा अपना समय काट रहा है। ऐसा इसलिए क्योंकि मनमोहन सिंह की अपार योग्यताओं के बावजूद उनकी क्षमताएं किसी मोर्चे पर प्रकट होती नहीं दिखतीं। वे दुनिया को मंदी से उबरने के मंत्र बता रहे हैं। अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा कह रहे हैं कि डा. मनमोहन सिंह जब बोलते हैं दुनिया उनकी बातों को ध्यान से सुनती है। तो क्या कारण है कि यह भारतीय प्रधानमंत्री अपने देश के सवालों पर खामोश है? क्या कारण है कि हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के पास देश में फैली महंगाई का कोई हल, कोई समाधान नहीं है ? आखिर क्या कारण है कि कश्मीर के संकट को विकराल होते जाने देने के लगभग दो महीने बाद वे नींद से जागते हैं और स्वायत्तता का झुनझुना लेकर सामने आते हैं? क्या कारण है कि नक्सलवाद के सवाल पर सरकार के बीच ही इतने किंतु-परंतु हैं जिसका लाभ हिंसक आंदोलन से जुड़ी ताकतें उठाकर अपना क्षेत्र विस्तार कर रही हैं? कांग्रेस के कुछ दिग्गज और एक केंद्रीय मंत्री नक्सल आंदोलन के प्रति सहानुभूति के बोल कह देते हैं पर हमारे प्रधानमंत्री कुछ नहीं कहते। जयराम रमेश और प्रफुल्ल पटेल की भिडंत से उन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता। द्रुमुक के मंत्रियों के कदाचार उन्हें नहीं दिखते। क्या कारण है पूर्वांचल का एक राज्य मणिपुर महीने पर तक नाकेबंदी झेलता है पर हमारी दिल्ली की सरकार को फर्क नहीं पड़ता। क्या कारण है कि कश्मीर में सिखों को यह धमकी जा रही है कि वे इस्लाम स्वीकारें अथवा घाटी छोड़ें पर हमारी सरकार के पास इस मामले में सिर्फ आश्वासन हैं। परमाणु जवाबदेही कानून के मामले में लगता है कि राजनीतिक विमर्श के बजाए सरकार सौदेबाजी कर रही है। नहीं तो क्या कारण है कि कुछ समय पहले जब केंद्र सरकार इस विधेयक को लाई थी तो उसका कड़ा विरोध हुआ था। अब कांग्रेस-भाजपा दोनों इस विषय पर एक हो गए हैं। सबसे गंभीर एतराज संयंत्र के लिए मशीनों और कलपुर्जों की सप्लाई करने वाली विदेशी कंपनियों को जवाबदेही से मुक्त करने पर है।ऐसी ही कुछ राहत भोपाल गैस त्रासदी की आरोपी कंपनी को दी गयी है। ऐसा लगता है कि हमारी सरकारों के फैसले संसद में नहीं वाशिंगटन से होते हैं। ऐसी सरकार किस मुंह से एक लोककल्याणकारी सरकार होने का दावा करती है। एक तरफ तो यह सरकार गांधी से अपना रिश्ता जोड़ते नहीं थकती वहीं गांधी जयंती के मौके पर खादी पर मिलने वाली 20 प्रतिशत सब्सिडी वापस ले लेती है। उसे खादी ग्रामोद्योग को दी जा रही सब्सिडी भारी लगती है, किंतु विदेशी कंपनियों के लिए सरकार सब तरह की छूट देने के लिए आतुर है। लगता ही नहीं कि देश में हम भारत के लोगों की सरकार चल रही है।
प्रधानमंत्री अगले माह 78 साल के हो रहे हैं, क्या ये माना जाए कि उन पर आयु हावी हो रही है या वे अब अपने आपको इस तंत्र में मिसफिट पा रहे हैं और मानने लगे हैं कि राहुल गांधी का प्रधानमंत्री के रूप में अवतार ही देश के सारे संकट हल करेगा। देश की जनता ने उन्हें लगातार ‘कमजोर प्रधानमंत्री’ कहे जाने के बजाए उन पर भरोसा जताते हुए, न सिर्फ जिताया वरन वरन पिछले दो दशकों में यह कांग्रेस का बेहतरीन प्रदर्शन था। प्रधानमंत्री अपनी पहली पारी में तमाम वामपंथी दलों और नासमझ दोस्तों से घिरे थे, इस बार वह संकट भी नहीं है। आखिर फिर क्यों उन्हें फैसले लेने में दिक्कतें आ रही हैं। वे आखिर क्यों अपने आपको एक अनिर्णय से घिरे रहने वाले नेता के रूप में खुद को स्थापित कर रहे हैं। अपनी व्यक्तिगत ईमानदारी के बावजूद उनकी सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी है। जिन राष्ट्रमंडल खेलों में प्रकट भ्रष्टाचार हुआ उनको वे अपने भाषण में देश का गौरव बता आए। भोपाल गैस त्रासदी से लेकर जातिगण जनगणना हर सवाल पर सरकार का नेतृत्व कहीं नेतृत्वकारी भूमिका में नजर नहीं आया। यह जानते हुए भी कि यह उनके राजनीतिक एवं सार्वजनिक जीवन का अंतिम और सबसे महत्वपूर्ण पारी है, डा. मनमोहन सिंह ऐसा क्यों कर रहे हैं, यह एक आश्चर्य की बात है। यूं लगने लगा है जैसे वास्तव में उनका नौकरशाह अतीत उनपर हावी हो और अनिर्णय को ही निर्णय मानने की कुशल अफसरशाही के मंत्र को ही उन्होंने अपना आर्दश बना रखा है। यह भी संभव है कि हमारे प्रधानमंत्री क्योंकि जनता के बीच से नहीं आते और उनके सामने जनसमर्थन जुटाने की वैसी चुनौती नहीं है जो आम तौर पर नेताओं के पास होती है, तो वे जनता के प्रश्नों को बहुत महत्व का न मानते हों। क्योंकि संयोग से कांग्रेस के पास जनसमर्थन जुटाने की जिम्मेदारी वर्तमान प्रधानमंत्री की नहीं है , गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों पर है। पिछले कार्यकाल में परमाणु करार को पास कराने के प्रधानमंत्री की जो ताकत, बेताबी और उत्साह नजर आया था तो ऐसा लगा था कि डा. मनमोहन सिंह ने अपने पद की ताकत को पहचान लिया है। किंतु वह सारा कुछ करार पास होने के बाद हवा हो गया। शायद अमरीका से किए वायदे चुकाने का जोश उनमें ज्यादा था किंतु जनता से किए वायदे हमारे नेताओं को याद कहां रहते हैं। शायद यही कारण है कि आज की राजनीति में जनता का एजेंडा हाशिए पर है। मनमोहन सिंह की सरकार इसलिए अपने दूसरे कार्यकाल के पहले साल में ही निराश करती नजर आ रही है। कांग्रेस नेतृत्व ने भले ही एक अराजनैतिक प्रधानमंत्री का चयन किया है उसे जनता की भावनाएं भी समझनी होंगी। यदि वर्तमान शासन एवं प्रधानमंत्री को अलोकप्रिय कर, कांग्रेस के युवराज को कमान संभालने और उनके जादुई नेतृत्व की आभा से सारे संकट हल करने की योजना बन रही हो तो कुछ नहीं कहा जा सकता। किंतु ऐसा थकाहारा, दिशाहारा नेतृत्व आखिर हमारे सामने मौजूद चुनौतियों और संकटों से कैसे जूझेगा। देश को फिलहाल प्रतीक्षा ऐसे नेतृत्व की है जो उसके सामने मौजूद प्रश्नों के ठोस और वाजिब हल तलाश सके। गंभीर मसलों पर हमारा मौन देश की जनता में निराशा और अवसाद भर रहा है। क्या श्रीमती सोनिया गांधी भी इसे महसूस कर रही हैं ?

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कश्मीरः कब पिघलेगी बर्फ


-संजय द्विवेदी
इन्तहा हो गई है, कश्मीर एक ऐसी आग में झुलस रहा है, जो कभी मंद नहीं पड़ती । आजादी के छः दशक बीत जाने के बाद भी लगता है कि सूइयां रेकार्ड पर ठहर सी गयी हैं। समस्या के समाधान के लिए सारी ‘पैथियां’ आजमायी जा चुकी हैं और अब वर्तमान प्रधानमंत्री ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ से इस लाइलाज बीमारी का हल करने में लगे हैं। ‘जाहिर है मामला ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के सवालों जैसा आसान नहीं है, कश्मीर में आपकी सारी ‘लाइफ लाइन्स’ मर चुकी हैं और अब कोई ऐसा सहारा नहीं दिखता जो इसके समाधान की कोई सीधी विधि बता सके।
यह बात बुरी लगे पर मानिए कि पूरी कश्मीर घाटी में आज भारत की अपनी आवाज कहने और उठाने वाले लोग न्यूनतम हो गए हैं । आप सेना के भरोसे कितना कर सकते हैं, या जितना कर सकते हैं-कमोबेश घाटी उतनी ही देर तक आपके पास है। यहां वहां से पलायन करती हिंदू पंडितों की आबादी के बाद शेष बचे मुस्लिम समुदाय की नीयत पर कोई टिप्पणी किए बिना इतना जरूर जोड़ना है कश्मीर में गहरा आए खतरे के पीछ सिर्फ उपेक्षा व शोषण नहीं है। ‘धर्म’ के जुनून एवं नशे में वहां के युवाओं को भटकाव के रास्ते पर डालने की योजनाबद्ध रणनीति ने भी हालात बदतर किए हैं, पाकिस्तान का पड़ोसी होना इस मामले में बदतरी का कारण बना । ये सब स्थितियां चाहे वे भौगोलिक, आर्थिक व सामाजिक हों, मिलकर कश्मीर का चेहरा बदरंग करती हैं। लेकिन सिर्फ विकास व उपेक्षा को कश्मीर से उठती अलगावादी आवाजों का कारण मानना समस्या को अतिसरलीकृत करके देखना है। बंदूक से समस्याएं नहीं सुलझ सकतीं, विकास नहीं आ सकता, लेकिन ‘इस्लाम का राज’ आ सकता है-समस्या के मूल में अंशतः सही, यह भावना जरूर है। अगर यह बात न होती तो पाकिस्तान के शासकों व दुनिया के जघन्यतम अपराधी लादेन की कश्मीरियों से क्या हमदर्दी थी ? भारत के खिलाफ कश्मीर की युवाशक्ति के हाथ में हथियार देने वाले निश्चय ही एक ‘धार्मिक बंधुत्व भाव व अपनापा’ जोड़कर एक कश्मीरी युवक को अपना बना लेते हैं। वहीं हम जो अनादिकाल से एक सांस्कृतिक परंपरा व भावनात्मक आदान-प्रदान से जुड़े हैं, अचानक कश्मीरियों को उनका शत्रु दिखने लगते हैं। लड़ाई यदि सिर्फ कश्मीर की, उसके विकास की, वहां के नौजवानों को काम दिलाने की थी तो वहां के कश्मीरी पंडित व सिखों का कत्लेआम कर उन्हें कश्मीर छोड़ने पर विवश क्यों किया गया ? जाहिर है मामला धर्मांधता से प्रेरित था। उपेक्षा के सवाल नारेबाजी के लिए थे, निशाना कुछ और था। इसलिए यह कहने में हिचक नहीं बरतनी चाहिए कि सेना के अलावा आज घाटी में ‘भारत माँ की जय’ बोलने वाले शेष नहीं रह गए हैं। जिन लोगों की भावनाएं भारत के साथ जुड़ी हैं, वे भी कुछ मजबूरन-कुछ मसलहतन जुबां पर ताले लगाकर खामोश हैं। मंत्री भयभीत हैं, अफसरान दहशत जदा हैं, आतंक का राज जारी है।इन हालात में प्रधानमंत्री कश्मीर में ‘अमन का राज’ लाना चाहते हैं । लेकिन क्या इस ‘शांति प्रवचन’ से पाकिस्तान और लश्कर के गुंडे कश्मीर में आतंक का प्रसार बंद देंगे। आंखों पर पट्टी बांधकर जुनूनी लड़ाई लड़ने वाले अपने हथियार फेंक देंगे। जाहिर है ये बातें इतनी आसान नहीं दिखतीं । जब तक सीमा पार से आतंकवाद का पोषण नहीं रुकेगा, कश्मीर की समस्या का समाधान सोचना भी बेमानी है। कश्मीर की भौगोलिक स्थितियां ऐसी हैं कि घुसपैठ को रोकना वैसे भी संभव नहीं है। अन्य राष्ट्रों से लगी लंबी सीमा, पहाड़ और दर्रे वहां घुसपैठ की स्थितियों को सुगम बनाते हैं। पाक व तालिबान की प्रेरणा व धन से चल रहे कैंपों से प्रशिक्षित उग्रवादी वहां के आंतकवाद की असली ताकत हैं। सरकार को इन हालात के मद्देनजर ‘आतंकवादी संगठनों’ की कृपा पाने के बजाए उनके प्रेरणास्त्रोतों पर ही चोट करनी होगी, क्योंकि जब तक विदेशी सहयोग जारी रहेगा, यह समस्या समाप्त नहीं हो सकती । हुर्रियत या अन्य कश्मीरी संगठनों से वार्ता कर भी ये हालात सुधर नहीं सकते, क्योंकि हुर्रियत अकेली न कश्मीरियों की प्रतिनिधि है, न ही उसकी आवाज पर उग्रवादी हथियार डालने वाले हैं। जाहिर है समस्या को कई स्तरों पर कार्य कर सुलझाने की जरूरत है। सबसे बड़ी चुनौती सीमा पर घुसपैठ की है और हमारे युवाओं के उनके जाल में फंसने की है-यह प्रक्रिया रोकने के लिए पहल होनी चाहिए। आबादी का संतुलन बनाना दूसरी बड़ी चुनौती है। कुछ मार्ग निकालकर घाटी के क्षेत्रों में भूतपूर्व सैनिकों को बसाया जाना चाहिए तथा कश्मीर पंडितों की घर वापसी का माहौल बनाना चाहिए। कश्मीर युवकों में पाक के दुष्प्रचार का जवाब देने के लिए गैरसरकारी संगठनों को सक्रिय करना चाहिए। उसकी सही तालीम के लिए वहां के युवाओं को देश के विभिन्न क्षेत्रों में अध्ययन के लिए भेजना चाहिए ताकि ये युवा शेष भारत से अपना भावनात्मक रिश्ता महसूस कर सकें। ये पढ़कर अपने क्षेत्रों में लौटें तो इनका ‘देश के प्रति राग’ वहां फैले धर्मान्धता के जहर को कुछ कम कर सके। निश्चय ही कश्मीर की समस्या को जादू की छड़ी से हल नहीं किए जा सकता। कम से कम 10 साल की ‘पूर्व और पूर्ण योजना’ बनाकर कश्मीर में सरकार को गंभीरता से लगना होगा। इससे कम पर और वहां जमीनी समर्थन हासिल किए बिना, ‘जेहाद’ के नारे से निपटना असंभव है। हिंसक आतंकवादी संगठन अपना जहर वहां फैलाते रहेंगे-आपकी शांति की अपीलें एके-47 से ठुकरायी जाती रहेंगी। समस्या के तात्कालिक समाधान के लिए कश्मीर का 3 हिस्सों में विभाजन भी हो सकता है। कश्मीर लद्दाख और जम्मू 3 हिस्सों में विभाजन के बाद सारा फोकस ‘कश्मीर’ घाटी के करके वहां उन्हीं विकल्पों पर गौर करना होगा, जो हमें स्थाई शांति का प्लेटफार्म उपलब्ध करा सकें वरना शांति का सपना, सिर्फ सपना रह जाएगा। जमीन की लड़ाई लड़कर हमें अपनी मजबूती दिखानी होगी होगी तो कश्मीरियों का हृदय जीतकर एक भावनात्मक युद्ध भी लड़ना । भटके युवाओं को हम भारत-पाकिस्तान का अंतर समझा सके तो यह बात इस समस्या की जड़ को सुलझा सकती है। सच्चे मन से किए गए प्रयास ही इस इलाके में जमी बर्फ को पिघला सकते हैं। यही बात कश्मीर की ‘डल झील’ और उसमें चलते ‘शिकारों’ पर फिर हंसी-खुसी और जिंदगी को लौटा सकती है। हवा से बारुद की गंध को कम कर सकती है और फिजां में खुशबू घोल सकती है।

मीडिया विमर्श के वार्षिकांक में एक बड़ी बहस क्या रोमन में लिखी जाए हिंदी ?


इस बार की आवरण कथा हैः हा! हा!! HINDI दुर्दशा देखि न जाई!!!
रायपुर।
मीडिया विमर्श का सितंबर, 2010 का अंक 15 अगस्त तक बाजार में आ जाएगा। इस अंक में एक बड़ी बहस है कि क्या रोमन में लिखी जाए हिंदी। सितंबर के महीने की 14 तारीख को पूरा देश हिंदी दिवस मनाता है। इस वार्षिक कर्मकांड को जाने दें तो भी हम अपने आसपास रोजाना हिंदी की दैनिक दुर्दशा का आलम देखते हैं। ऐसे में हिंदी की ताकत, वह आम जनता ही है जो इसमें जीती, बोलती और सांस लेती है। बाजार भी इस जनता के दिल को जीतना चाहता है इसलिए वह उसकी भाषा में बात करता है। यह हिंदी की ताकत ही है कि वह श्रीमती सोनिया गांधी से लेकर कैटरीना कैफ सबसे हिंदी बुलवा लेती है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या हिंदी सिर्फ वोट मांगने और मनोरंजन की भाषा रह गयी है। इन मिले-जुले दृश्यों से लगता है कि हिंदी कहीं से हार से रही है और अपनों से ही पराजित हो रही है।
इन हालात के बीच हिंदी के विख्यात लेखक एवं उपन्यासकार श्री असगर वजाहत ने हिंदी को देवनागरी के बजाए रोमन में लिखे जाने की वकालत कर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। श्री वजाहत ने देश के प्रमुख हिंदी दैनिक जनसत्ता में 16 और 17 मार्च,2010 को एक लेख लिखकर अपने तर्क दिए हैं कि रोमन में हिंदी को लिखे जाने से उसे क्या फायदे हो सकते हैं। जाहिर तौर पर हिंदी का देवनागरी लिपि के साथ सिर्फ भावनात्मक ही नहीं, कार्यकारी रिश्ता भी है। श्री वजाहत की राय पर मीडिया विमर्श ने अपने इस अंक में देश के कुछ प्रमुख पत्रकारों, संपादकों, बुद्धिजीवियों, प्राध्यापकों से यह जानने की कोशिश की कि आखिर असगर की बात मान लेने में हर्ज क्या है। हिंदी दिवस के प्रसंग को ध्यान में रखते हुए यह बहस एक महत्वपूर्ण प्रस्थान बिंदु है जिससे हम अपनी भाषा और लिपि को लेकर एक नए सिरे से विचार कर सकते हैं। इस बहस को ही हम इस अंक की आवरण कथा के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं। आवरण कथा की शुरूआत में श्री असगर वजाहत का लेख जनसत्ता से साभार लिया गया है, इसके साथ इस विमर्श में शामिल हैं- वरिष्ठ पत्रकार एवं छत्तीसगढ़ हिंदी ग्रंथ अकादमी के निदेशक रमेश नैयर, हिंदी के चर्चित कवि अष्टभुजा शुक्ल, दैनिक भास्कर-नागपुर के संपादक प्रकाश दुबे, देशबंधु के पूर्व संपादक बसंत कुमार तिवारी, नवभारत- इंदौर के पूर्व संपादक प्रो. कमल दीक्षित, प्रख्यात कवि-कथाकार प्रभु जोशी, हिंदी की प्राध्यापक डा. सुभद्रा राठौर
इसके अलावा नक्सलवाद को बौद्धिक समर्थन पर प्रख्यात लेखिका अरूंधती राय के अलावा कनक तिवारी, संजय द्विवेदी, साजिद रशीद के लेख प्रकाशित किए गए हैं।जिसमें लेखकों ने पक्ष विपक्ष में अपनी राय दी है। इसके अलावा अन्य कुछ लेख भी इस अंक का आकर्षण होंगें। पत्रिका के इस अंक की प्रति प्राप्त करने के लिए 25 रूपए का डाक टिकट भेज सकते हैं। साथ ही वार्षिक सदस्यता के रूप में 100 रूपए मनीआर्डर या बैंक ड्राफ्ट भेज कर सदस्यता ली जा सकती है। पत्रिका प्राप्ति के संपर्क है-
संपादकः मीडिया विमर्श, 328, रोहित नगर,
फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल- 39 (मप्र)

शुक्रवार, 6 अगस्त 2010

संजय द्विवेदी को प्रज्ञारत्न सम्मान


बिलासपुर। पत्रकार एवं माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी को प्रज्ञारत्न सम्मान से सम्मानित किया गया है। यह सम्मान पत्रकारिता के क्षेत्र में उनके योगदान के लिए पिछले दिनों बिलासपुर के राधवेंद्र राव सभा भवन में आयोजित समारोह में छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने प्रदान किया। कार्यक्रम का आयोजन छत्तीसगढ़ साहित्यकार परिषद, बिलासपुर ने किया था। इस मौके पर परिषद ने छत्तीसगढ़ के नवरत्न के तहत हास्य-व्यंग्य कवि सुरेंद्र दुबे, लेखक गिरीश पंकज, डा.दानेश्वर शर्मा, नवभारत के संपादक श्याम वेताल, कवि त्रिभुवन पाण्डेय, कथाकार डा. परदेशीराम वर्मा, नवभारत के मुख्य कार्यकारी अधिकारी आर.अजीत एवं डा. विजय सिन्हा को भी सम्मानित किया गया।
आयोजन को संबोधित करते हुए विधानसभा अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा कि हमारे समय की चुनौतियों का सामना करने के लिए साहित्यकारों और पत्रकारों को मार्गदर्शक की भूमिका निभानी होगी। इसके लिए एक वैचारिक क्रांति की जरूरत है। कार्यक्रम के मुख्यवक्ता के पत्रकार एवं मीडिया प्राध्यापक संजय द्विवेदी ने कहा कि संवेदना के बिना न तो साहित्य रचा जा सकता है न ही पत्रकारिता की जा सकती है। उन्होंने कहा कि छत्तीसगढ़ के सामने सबसे बड़ी चुनौती नक्सलवाद की है। यह एक वैचारिक संघर्ष भी है। क्योंकि हमारे जनतंत्र को यह हिंसक विचारधारा की चुनौती है। उन्होंने कहा माओवादी राज में पहला हमला कलम पर ही होता है और लेखक निर्वासन भुगतते हैं या मार दिए जाते हैं। इसलिए हमें अपने जनतंत्र को असली लोकतंत्र में बदलने के लिए सचेतन प्रयास करने होंगें ताकि जो लोग हिंसा के माध्यम से भारत की राजसत्ता पर 2050 तक कब्जे का स्वप्न देख रहे हैं वे सफल न हों। आरंभ में अतिथियों का स्वागत संस्था के अध्यक्ष डा. गिरधर शर्मा ने किया। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ राज्य के अनेक प्रमुख साहित्यकार एवं पत्रकार मौजूद रहे।

रचना और संघर्ष का सफरनामाः राजेंद्र माथुर


जयंती ( 7 अगस्त) पर खासः -संजय द्विवेदी


राजेंद्र माथुर की पूरी जीवन यात्रा एक साधारण आम आदमी की कथा है। वे इतने साधारण हैं कि असाधारण लगने लगते हैं। उन्होंने जो कुछ पाया एकाएक नहीं पाया। संघर्ष से पाया, नियमित लेखन से पाया, अपनी रचनाशीलता से पाया। इसी संघर्ष की वृत्ति ने उन्हें असाधारण पत्रकार और संपादक बना दिया। राजेंद्र माथुर का पत्रकारीय व्यक्तित्व इस बात से तय होता है कि आखिर उनके लेखन में विचारों की गहराई कितनी है। अपने अखबार को उंचाईयों पर ले जाने का उसका संकल्प कितना गहरा है। हमारे समय के प्रश्नों के जबाव तलाशने और नए सवाल खड़े की कितनी प्रश्नाकुलता संबंधित व्यक्ति में है। राजेंद्र माथुर का संपादकीय और पत्रकारीय व्यक्तित्व इस बात की गवाही है वे असहज प्रश्नों से मुंह नहीं चुराते बल्कि उनसे दो-दो हाथ करते हैं। वे सवालों से जूझते हैं और उनके सही एवं प्रासंगिक उत्तर तलाशने की कोशिश करते हैं। वे सही मायने में पत्रकारिता में विचारों के एक ऐसे प्रतीक पुरूष बनकर सामने आते है जिसने अपने लेखन के माध्यम से एक बौद्धिक उत्तेजना का सृजन किया। हिंदी को एक ऐसी भाषा और विराट अनुभव संसार दिया जिसकी प्रतीक्षा में वह सालों से खड़ी थी। इस मायने में राजेंद्र माथुर की उपस्थिति अपने समय में एक कद्दावर पत्रकार-संपादक की मौजूदगी है। श्री सूर्यकांत बाली के मुताबिक- “ माथुर साहब जैसा बोलते थे वैसा ही लिखते थे। वे धाराप्रवाह, विचार-परिपूर्ण और रूपक-अलंकृत बोलते थे, तो धाराप्रवाह विचार-परिपूर्ण और रूपक-अलंकृत लिखते भी थे।”
श्री बाली लिखते हैं कि “वह एक ऐसा संपादक है जिसके मन-समुद्र में विचारों की लहरें एक के बाद एक लगातार, अनवरत उठती हैं, कोई लहर किसी दूसरी लहर को नष्टकर आगे बढ़ने के अहंकार का शिकार नहीं है। और पूनम की कोई ऐसी भली रात हर महीने आती है जब ये लहरें किसी विराट-सर्वोच्च को छू लेने को बेताब हो उठती हैं।” ऐसे में कहा जा सकता है कि राजेंद्र माथुर के पत्रकारीय एवं संपादकीय व्यक्तित्व में एक बौद्धिक आर्कषण दिखता है। उनके लेखन में भारत जिज्ञासा, भारत-जिज्ञासा, भारत-अनुराग और भारत-स्वप्न पूरी समग्रता में प्रकट होता है। वरिष्ठ पत्रकार अच्युतानंद मिश्र ने लिखा है कि –“ राजेंद्र माथुर हिंदी पत्रकारिता के उस संधिकाल में संपादक के रूप में सामने आए थे, जब हिंदी अखबार अपने पुरखों के पुण्य के संचित कोष को बढ़ा नहीं पा रहे थे। यह जमा पूंजी इतनी नहीं थी कि हिंदी की पत्र-पत्रिकाएं व्यावसायिकता की बढ़ती हुयी चुनौती को स्वीकार करते हुए इसे बाजार के दबाव से बचा सकें। राजेंद्र माथुर में बौद्धिकता और सच्चरित्रता का असाधारण संगम था, इसीलिए वे हिंदी पत्रकारिता में शिखर स्थान बना सके। वे असाधारण शैलीकार थे। अंग्रेजी साहित्य से प्रकाशित उनकी हिंदी लेखन शैली बिंब प्रधान थी। उनके मुहावरे अपने होते थे। उनमें अभिव्यंजना की अद्बुत शक्ति थी। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास में वे शैलीकार के रूप में याद किए जाएंगें। ”
राजेंद्र माथुर एक श्रेष्ठ संपादक थे। उनकी उपस्थित ही नई दुनिया और नवभारत टाइम्स को एक ऐसा समाचार पत्र बनाने में सफल हुयी जिस पर हिंदी पत्रकारिता को नाज है।नवभारत टाइम्स में श्री माथुर के सहयोगी रहे श्री विष्णु खरे ने लिखा है कि- “राजेंद्र माथुर महान संपादक होने का अभिनय करने की कोई जरूरत महसूस नहीं करते थे। दरअसल, लिबास से लेकर बोलचाल तक उनकी कोई शैली या लहजा नहीं था वे अपने मामूलीकरण में विश्वास करते थे वैशिष्ट्य में नहीं। उनकी संपादकी आदेशों या हुकमों से नहीं, एक गुणात्मक तथा नैतिक विकिरण से चलती थी। वे एक आणविक ताप या विद्युत संयत्र की तरह बेहद चुपचाप काम करते थे, जो अपने प्रभाव से लगभग उदासीन रहता है। लेकिन वे बेहद परिश्रमी संपादक थे और शायद एक या दो उपसंपादकों की मदद से एक दस पेज का अखबार रोज निकाल सकते थे। वे अजातशत्रु और धर्मराज युधिष्ठिर जैसे थे लेकिन जरूरत पड़ने पर वज्र की तरह कठोर भी हो सकते थे।” राजेंद्र माथुर का पत्रकारीय व्यक्तित्व बेहद प्रेरक था। आज की पत्रकारिता और मीडिया संस्थानों में घुस आई तमाम बुराईयों से उनका व्यक्तित्व बेहद अलग था। संपादक की जैसी शास्त्रीय परिभाषाएं बताई गयी हैं श्री माथुर उसमें फिट बैठते हैं। उनका व्यक्तित्व बौद्धिक उंचाइयां लिए हुए था। अपनी पत्रकारिता को कुछ पाने और लाभ लेने की सीढ़ी बनाना उन्हें नहीं आता था। उनके समकक्ष पत्रकारों की राय में वे जिस समय दिल्ली में नवभारत टाइम्स जैसे बड़े अखबार के संपादक थे तो वे सत्ता के लाभ उठा सकते थे। आज की पत्रकारिता में जिस तरह पत्रकार एवं संपादक सत्ता से लाभ लेकर मंत्री से लेकर राज्यसभा की सीटें ले रहे हैं, श्री माथुर भी ऐसे प्रलोभनों के पास जा सकते थे। किंतु उन्होंने तमाम चर्चाओं के बीच इससे खुद को बचाया। पत्रकार विष्णु खरे अपने लेख में इस बात की पुष्टि भी करते हैं। सही मायने में राजेंद्र माथुर एक ऐसे संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने अपने पत्रकारीय व्यक्तित्व को वह उंचाई दी जिसके लिए पीढ़ियां उन्हें याद कर रही हैं।
विष्णु खरे उनके इन्हीं व्यक्तित्व की खूबियों को रेखांकित करते हुए कहते हैं- “राजेंद्र माथुर का जीवन और उनके कार्य एक खुली पुस्तक की तरह थे। कानाफूसी, चुगलखोरी, षडयंत्र, झूठ-फरेब, मक्कारी, उनके स्वभाव में थे ही नहीं। वे किसी चीज को गोपनीय रखना ही नहीं चाहते थे और अक्सर कई ऐसी सूचनाएं निहायत मामूली ढंग से देते थे, जिनपर दूसरे लोग कारोबार कर लेते हैं। इसलिए उनसे बातें करना बेहद असुविधाजनक स्थितियां पैदा कर देता, क्योंकि वे कभी भी किसी के द्वारा कही गयी बात को जगजाहिर कर देते थे और वह व्यक्ति अपना मुंह छिपाता फिरता था। उनकी स्मरण शक्ति अद्वितीय थी और भारतीय तथा विश्व राजनीति में सतही और चालू दिलचस्पी न रखने के बावजूद राष्ट्रीय व विदेशी घटनाक्रम तथा इतिहास में उनकी पैठ आश्चर्यजनक थी। एक सच्चे पत्रकार की तरह उनमें जमाने भर के विषयों के बारे में जानकारी थी और वे घंटों अपने प्रबुद्ध श्रोताओं को मंत्रमुग्ध रख सकते थे। नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक बन जाने के बाद वे भविष्य में क्या बनेंगें इसको लेकर उनके मित्रों में दिलचस्प अटकलबाजियां होती थीं और बात राष्ट्रसंघ और मंत्रिमंडल तक पहुंचती थी। लेकिन अपने अंतिम दिनों में तक राजेंद्र माथुर एटीटर्स गिल्ड आफ इंडिया जैसी पेशेवर संस्था के काम में ही स्वयं को होमते रहे।” उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी हिंदी पत्रकारिता को लेकर उनकी चिंताएं हैं। वे हिंदी पत्रकारिता के एक ऐसे संपादक थे जो लगातार यह सोचता रहा कि हिंदी पत्रकारिता का विचार दारिद्रय कैसे दूर किया जाए। कैसे हिंदी में एक संपूर्ण अखबार निकले और उसे व्यापक लोकस्वीकृति भी मिल सके। नवभारत टाइम्स के कार्यकारी संपादक रहे स्व.सुरेंद्र प्रताप सिंह ने उनकी इन चिंताओं को निकटता से देखा था और वे लिखते हैं- “माथुर साहब का गहन इतिहासबोध, शुद्ध श्रध्दा और उससे उत्पन्न गरिमामय अतीत की मरीचिका पर आधारित हिंदी पत्रकारिता की कमजोर आधारभूमि के बारे में उन्हें बार-बार सचेत करता रहता था। वे भूतकाल के वायवी स्वर्णिम अतीत में जीने वाले नहीं थे। वे स्वप्नदर्शी थे और अपने सपनों की उदात्तता के साथ उन्होंने कभी किसी प्रकार का समझौता नहीं किया। हिंदी पत्रकारिता का वर्तमान परिदृश्य उन्हें बार-बार विचलित तो कर देता था लेकिन एक कुशल अभियात्री की तरह उन्होंने अपने जहाज की दिशा को क्षणिक प्रलोभनों के लिए किसी अन्य रास्ते पर डालने के बारे में क्षणिक विचार भी नहीं किया।”
उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की विशिष्टता यह भी है कि वे अंग्रेजी प्राध्यापक और विद्वान होने के बावजूद अपने लेखन की भाषा के नाते हिंदी को चुनते हैं। हिंदी उनकी सांसों में बसती है। हिंदी पत्रकारिता को नई जमीन तोड़ने के लिए प्रेरित करने और हिंदी लेखकों एवं पत्रकारों की एक पूरी पीढ़ी का निर्माण करने का काम श्री माथुर जीवन भर करते रहे। इंदौर से लेकर दिल्ली तक उनकी पूरी यात्रा में एक भारत प्रेम, भारत बोध और हिंदी प्रेम साफ नजर आता है। शायद इसी के चलते वे देश की पत्रकारिता को एक नई और सही दिशा देने में सफल रहे। श्री मधुसूदन आनंद लिखते हैं- “माथुर साहब ने अंग्रेजी में एमए किया था और अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ अंग्रेजी पत्रकारों को भी विस्मय में डालती थी। लेकिन उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को चुना तो शायद इसलिए कि वे अपनी बात अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाना चाहते थे। अगर यह कहा जाए कि हिंदी पत्रकारों की एक पीढ़ी माथुर साहब को पढ़कर पली और बढ़ी है तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। उनके असामयिक निधन के बाद नवभारत टाइम्स को देश के दूर-दूर के इलाकों से हजारों पत्र प्राप्त हुए थे। ये वे पाठक थे जो उनके उत्कट राष्ट्र-प्रेम, समाज के प्रति उनके सरोकारों, इतिहास की अतल गहराइयों से अनमोल तथ्य ढूंढ कर लाने के उनके सार्मथ्य और शालीन भाषा में राजनेताओं की खिंचाई करने के उनके साहस पर मुग्ध थे। शब्दों का कारोबार करने वाले हमारे जैसे अनपढ़ों और बौद्धिक संस्कारहीनों के साथ तो नियति ने सचमुच अन्याय किया है। उनके लेखन से हम जैसे लोगों को एक दृष्टि तो मिलती ही थी, ज्ञान का वह विपुल भंडार भी कभी बातचीत से तो कभी उनके लेखन से टुकड़ों-टुकड़ों में मिल जाता था, जो प्रायः अंग्रेजी में ही उपलब्ध है और जिसे पढ़कर पचा लेना प्रायः कठिन होता है।”
पत्रकारीय सहयोगियों और मित्रों की नजर से देखें तो राजेंद्र माथुर के पत्रकारीय व्यक्तित्व की कुछ खूबियां साफ नजर आती हैं। जैसे वे बेहद अध्ययनशील संपादक एवं पत्रकार हैं। उनका अध्ययन और विषयों के प्रति उनके ज्ञान की गहराई उन्हें अपने सहयोगियों के बीच अलग ही व्यक्तित्व दे देती है। दूसरे उनका लेखन भारतीयता और उसके मूल्यों को समर्पित है। तीसरा है उनके मन में किसी प्रकार की पदलाभ की कामना नहीं है। वे अपने काम के प्रति समर्पित हैं और किसी राजनीति का हिस्सा नहीं हैं। चौथा उनमें मानवीय गुण भरे हुए हैं जिसके चलते वे मानवीय कमजोरियों और पद के अहंकार के शिकार नहीं होते। इसके चलते एक बड़े अखबार के संपादक का पद, रूतबा और अहं उन्हें छू नहीं पाता। यह उनके व्यक्तित्व की एक बड़ी विशेषता है जिसे उनके सहयोगी रहे सूर्यकांत बाली कहते हैं- “हमारे प्रधान संपादक को को पांचवा कोई काम आता है, इसमें तो मुझे पूरा शक हैः बस सोचना, पढ़ना, बतियाना और लिखना, उनकी सारी दुनिया इन चार कामों में सिमट चुकी थी।” श्री माथुर के व्यक्तित्व पर यह एक मुकम्मल टिप्पणी है जो बताती है कि वे किस तरह के पत्रकार संपादक थे। उनका पत्रकारीय व्यक्तित्व इसीलिए एक अलग किस्म की आभा के साथ समाने आता है। जिसमें एक बौद्धिक तेज और आर्कषण निरंतर दिखता है। जाहिर तौर पर ऐसे उदाहरण आने वाली पत्रकार पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक हो सकते हैं कि किस तरह उन्होंने अपने को तैयार किया। असहज और वैश्विक सवालों पर इतनी कम आयु में लेखन शुरू कर अपनी देशव्यापी पहचान बनाई। शायद इसीलिए देश के दो महत्वपूर्ण अखबारों नई दुनिया और नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक पद तक वे पहुंच पाए। यह यात्रा एक ऐसा सफर है जिसमें श्री माथुर ने जो रचा और लिखा वह आज भी पत्रकारिता की पूंजी और धरोहर है। पत्रकारिता का लेखन सामयिक होता है उसकी तात्कालिक पहचान होती है। श्री माथुर के पत्रकारीय लेखन के बहाने हर हम लगभग चार दशक की राजनीति, उसकी समस्याओं और चिंताओं से रूबरू होते हैं। यह एक दैनिक इतिहास की तरह का लेखन है जिससे हम अपने विगत में झांक सकते हैं और गलतियों से सबक लेकर नए रास्ते तलाश सकते हैं। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे एक ऐसे लेखक संपादक के तौर पर सामने आते हैं जो पूर्णकालिक पत्रकार हैं। वे किसी साहित्य की परंपरा से आने वाले संपादक नहीं थे। सो उन्होंने हिंदी पत्रकारिता पर साहित्यकार संपादकों द्वारा दी गयी भाषा और उसके मुहावरों से अलग एक अलग पत्रकारीय भाषा का अनुभव हमें दिया। हिंदी को संवाद को,संचार की, सूचना की भाषा बनाने में उनका योगदान बहुत महत्वपूर्ण है। सही मायने में वे एक ऐसे संपादक और लेखक के रूप में सामने आते हैं जिसने बहुत से अनछुए विषयों को हिंदी के अनुभव के विषय बनाया जिनपर पहले अंग्रेजी के पत्रकारों का एकाधिकार माना जाता था। उन्होंने भावना से उपर विचार और बौद्धिकता को महत्व दिया। जिसके चलते हिंदी को एक नई भाषा, एक नया अनुभव और अभिव्यक्ति का एक नया संबल मिला। उनकी बौद्धिकता ने हिंदी पत्रकारिता को अंग्रेजी अखबारों के सामने सम्मान से खड़े होने लायक बनाया। इससे हिंदी पत्रकारिता एक आत्मविश्वास हासिल हुआ। उसे एक नई ऊर्जा मिली। आज हिंदी पत्रकारिता में जिस तरह बाजारवादी ताकतों का दबाव गहरा रहा है ऐसे समय में राजेंद्र माथुर के बहाने हिंदी पत्रकारिता की पड़ताल एक आवश्यक विमर्श बन गयी है। शायद उनकी स्मृति के बहाने हम कुछ रास्ते निकाल पाएं जो हमें इस कठिन समय में लड़ने और मूल्यों के साथ काम करने का हौसला दे सके।

गुरुवार, 5 अगस्त 2010

विचारों की पत्रकारिता के नायक थे राजेंद्र माथुर

जयंती (7 अगस्त) पर विशेषः
- संजय द्विवेदी

आजादी के बाद की हिंदी पत्रकारिता में उन जैसा नायक खोजे नहीं मिलता। राजेंद्र माथुर सही अर्थों में एक ऐसे लेखक, विचारक और संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने हिंदी पत्रकारिता को समकालीन विमर्श की एक सार्थक भाषा दी। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को वह ऊंचाई दी जिसका वह एक अरसे से इंतजार कर रही थी। राष्ट्रीय एवं वैश्विक संदर्भों में जिस तरह से उन्होंने हिंदी को एक सामर्थ्य का बोध कराया वह उल्लेखनीय है। 7 अगस्त, 1935 को मध्य प्रदेश के धार जिले की बदनावर तहसील में जन्मे राजेंद्र माथुर की प्राथमिक शिक्षा धार में ही हुई। इंदौर से उन्होंने अंग्रेजी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की। श्री माथुर को अंग्रेजी साहित्य और दर्शन में बहुत रूचि थी। पढ़ाई पूरी होने के पहले ही 1955 से उन्होंने इंदौर के अखबार नई दुनिया में लिखना शुरू कर दिया था। साठ के दशक में उनका स्तंभ 'पिछला सप्ताह' काफी लोकप्रिय हो गया था। 1970 तक वे इंदौर के एक कालेज में अंग्रेजी साहित्य का अध्यापन करते रहे और फिर पूरी तरह से पत्रकारिता के प्रति समर्पित हो गए। 1980 में वे द्वितीय प्रेस आयोग के सदस्य मनोनीत किए गए। 1981 में वे नई दुनिया का प्रधान संपादक बने। इसी तरह एक सफल पारी का निर्वहन करने के बाद अक्टूबर 1982 में वे दिल्ली से प्रकाशित नवभारत टाइम्स के संपादक बने। राजेंद्र माथुर की पूरी पत्रकारीय यात्रा में विचारों की जगह साफ दिखाई देती है।
साहित्य और पत्रकारिता की जिस तरह की जुगलबंदी आजादी के आंदोलन के दौरान ही कायम हो गयी थी। प्रायः वे ही पत्रकार एवं संपादक हिंदी की मुख्यधारा की पत्रकारिता का नेतृत्व कर रहे थे जो साहित्यकार भी थे। हिंदी पत्रकारिता के नायकों में इसीलिए साहित्यकार पत्रकारों की एक लंबी परंपरा देखने को मिलती है। इसके चलते तमाम संपादकों ने गति न होते हुए भी साहित्य लिखने की कोशिश की, जबकि यह कर्म एक विशेष कौशल की मांग करता है। राजेंद्र माथुर का ऐसे समय में राष्ट्रीय पत्रकारिता के फलक पर अवतरण एक ऐसे नायक की तरह हुआ जिसने साहित्य से इतर पत्रकारिता की भाषा को न सिर्फ संबल दिया वरन यह साबित भी किया कि पत्रकारिता एक अलग किस्म का कौशल है और यशस्वी संपादक होने के लिए साहित्य में गति होना अनिवार्य नहीं है। इस संदर्भ में राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी जहां विचार की पत्रकारिता के वाहक बने वहीं हिंदी को सूचना की ताकत का अहसास एसपी सिंह ने कराया। ये तीन नायक हमें न मिलते तो यह कहना कठिन है कि हिंदी पत्रकारिता का चेहरा- मोहरा आज कैसा होता। हिंदी पत्रकारिता यदि अंग्रेजी पत्रकारिता के अनुगमन से मुक्त होकर अपनी खास भाषा और शैली के साथ आत्मविश्वास पा सकी तो इसके लिए इन नायकों के कार्यों का मूल्यांकन जरूरी होगा। तो बात राजेंद्र माथुर की। माथुर साहब ने जिस तरह भारत के इतिहास, धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य, समाज और राजनीति में रुचि दिखायी, वह प्रेरणा का बिंदु है। उनका विश्लेषण जिस तरह की बौद्धिक उत्तेजना पैदा करता है, हिंदी के पाठक ऐसी सामग्री पहली बार अपनी भाषा में पा रहे थे। वे एक ऐसे पत्रकार थे जो लगातार अपने देश को जानने की कोशिश कर रहा था। उनकी देश के प्रति जिज्ञासा, भारत प्रेम उनके लेखन में सदैव महसूस होता है, वे अपने पाठकों को अपने साथ लेने की कोशिश करते हैं। हिंदी पत्रकारिता के वैचारिक दारिद्रय को लेकर वे बहुत सजग थे। राजेंद्र माथुर ने अंग्रेजी साहित्य में एमए किया था और अंग्रेजी भाषा पर उनकी पकड़ ने उनके सरोकार व्यापक किए। वे चाहते तो आसानी से किसी मुख्यधारा के अंग्रेजी अखबार में अपनी सेवाएं दे सकते थे। किंतु उन्होंने हिंदी को अपनाया। जाहिर तौर पर वे ज्यादातर लोगों से संवाद करना चाहते थे। अंग्रेजी साहित्य और विश्व की तमाम नई जानकारियों से वे लैस रहा करते थे। विदेशों में छप रही नई किताबों पर उनकी नजर रहती थी और वे उन्हें पढ़कर अपने पाठकों तक उसका आस्वाद पहुंचाते थे। प्रोफेसर ए. एल. बाशम की किताब- 'द वंडर दैट वाज इंडिया' पर उन्होंने 'क्या बतलाता है हमें बाशम का अदभुत भारत' नामक लेख लिखा। उन्होंने लिखा-“यह किताब उन लोंगों को जरूर पढ़नी चाहिए जो विद्वान बने बगैर भारत के बारे में एक दृष्टि विकसित करना चाहते हैं। ”
राजेंद्र माथुर हिंदी अखबारों की विचारहीनता को लेकर लगातार सोचते रहे। एक संपूर्ण अखबार के बारे में भी उन्होंने सोचने की शुरुआत की। आज जब हिंदी की पत्रकारिता एक उंचाई ले रही है और विविध सामग्री अखबारों में जगह पा रही, तब राजेंद्र माथुर की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। राजेंद्र माथुर की भारत की तरफ देखने की एक खास नजर थी। वे देश के महान नेताओं महात्मा गाँधी और पं. जवाहर लाल नेहरू से खासे प्रभावित थे। बावजूद इसके, उनका लेखन तमाम सीमाओं का अतिक्रमण करता है। तमाम तरह के विचार उनके लेखन को प्रभावित करते हैं। अपने एक लेख 'गहरी नींद के सपनों में बनता हुआ देश' में माथुर साहब भारत की अदभुत व्याख्या करते हैं। वे भारतीय राज्य-राष्ट्र की एक नई व्याख्या करते नजर आते हैं। वे आज के एक बेहद विवादित विषय पर लिखते हैं कि – “दरअसल जिसे हिंदू धर्म कहते हैं, वह इस लेख में वर्णित अर्थों में धर्म है ही नहीं। वह मिथक- संचय की भारतीय प्रक्रिया का नाम है। इस संचय–प्रक्रिया को त्यागकर कोई देश नहीं बन सका, तो हिंदुस्तान कैसे बनेगा, जिसकी निरंतरता तीन हजार साल से नहीं टूटी है। आशंका इस बात की है कि सिंहासन के झगड़ों के कारण और आसपास के दबावों के कारण कहीं यह संचय प्रक्रिया समाप्त न हो जाए और हिंदुत्व सचमुच एक धर्म न बन जाए। आज हिंदुत्व पर भारी दबाव है कि वह संकीर्ण, एकांगी और असहिष्णु बने।”
राजेंद्र माथुर संभावनाओं और खतरों को भांपकर चलनेवाले दूरदर्शी पत्रकार थे। उनकी पंक्तियां जाहिर तौर पर भविष्य को व्यक्त कर देती हैं, एक लेख में वे लिखते हैं- “राज्य के छोटे टुकड़े होने पर स्वराज्य का पारिभाषित अंतर समाप्त हो जाएगा, यह मानने का कोई कारण प्रतीत नहीं होता। यदि गाय मांस नहीं खाती तो छोटे-छोटे टुकड़े कर देने से उसकी खून की उल्टियां रूक नहीं जाएंगी। इसी लेख में वे लिखते हैं- चालीस साल से कभी अपने निजत्व से राज्य को क्षत-विक्षत करते कभी राज्य के खातिर अपने निजत्व लहूलुहान होते हुए देखते हुए हम चल रहे हैं। कोई संभावना नहीं है कि इस त्रास से निकट भविष्य से हमें मुक्ति मिलेगी। जब मिलेगी, तब तक हम बदल चुके होंगें और हमारा राज्य भी। ”
कुल मिलाकर राजेंद्र माथुर का लेखन और चिंतन हमें प्रेरित करता है और प्रभावित भी। राजेंद्र माथुर सही मायनों में एक ऐसे संपादक के रूप में सामने आते हैं जिसने समूची हिंदी पत्रकारिता को आंदोलित किया। वे अपने समय में एक लेखक और संपादक के रूप में ऐसी मिसाल कायम करते हैं जिसपर आज भी हिंदी पत्रकारिता को गर्व है। आज जबकि हिंदी पत्रकारिता पर कई तरह के संकट सवाल की तरह खड़े हैं, श्री माथुर की स्मृति एक संबल की तरह हमारे साथ है।