शुक्रवार, 14 मई 2021

गौसंवर्धन व संरक्षण से निकलेंगी समृद्धि की राहें

                                                                     -प्रो.संजय द्विवेदी

    हमारी परंपरा और देशज ज्ञान ने हमें गौ-सेवा को लेकर बहुत कुछ बताया है। यही कारण है कि गाय आज भी भारतीय लोकजीवन का सबसे आदरणीय प्राणी है। अथर्ववेद में कहा गया है..''धेनु: सदनम् रचीयाम्'' यानी ‘‘गाय संपत्तियों का भंडार है। हम गाय को केंद्र में रखकर देखें, तो गांव की तस्वीर कुछ ऐसी बनती है कि गाय से जुड़ा है हमारा किसान, किसान से जुड़ी है खेती और खेती से जुड़ी है देश की ग्रामीण अर्थव्यवस्था। और भारत इसी ग्रामीण अर्थरचना की नींव पर खड़ा है, जिसकी प्रथम कड़ी गाय है। समग्रता में गाय हमारे आर्थिक जीवन की ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक एवं सामाजिक जीवन की भी आधारशिला है।

      कौटिल्य के अर्थशास्त्र को देखें, तो आप पाएंगे कि उस समय में गायों की समृद्धि और स्वास्थ्य के लिये एक विशेष विभाग चलाया जाता था। भगवान श्रीकृष्ण के समय भी गायों की अधिक संख्या, सामाजिक प्रतिष्ठा एवं ऐश्वर्य का प्रतीक मानी जाती थी। नंद, उपनंद, नंदराज, वृषभानु, वृषभानुवर आदि उपाधियां गोसंपत्ति के आधार पर ही दी जाती थीं। गर्ग संहिता के गोलोक खंड में ये लिखा गया है कि जिस गोपाल के पास पांच लाख गाय हों, उसे उपनंद और जिसके पास 9 लाख गायें हो उसे नंद कहते हैं। यानीगायद्वापर युग से ही हमारे अर्थतंत्र का मुख्य आधार रही है। महाभारत में देखें तो युधिष्ठिर ने यक्ष के प्रश्न ‘‘अमृत किम् ?’’ यानी 'अमृत क्या है?' के उत्तर में कहा था कि ‘‘गवाऽमृतम्’’ यानी 'गाय का दूध' महात्मा गांधी ने भी कहा था कि ‘‘देश की सुख-समृद्धि गाय के साथ ही जुड़ी हुई है।’’

     आपको जानकर हैरानी होगी कि जो पशु सूर्य की किरण को सर्वाधिक आत्मा में ग्रहण करता है, वह हैगायऔर यह दूध के माध्यम से हमें भरपूर सौर ऊर्जा देती है और यदि इस दूध को हम पीते हैं तो उससे हमारी बुद्धि तेज होगी और हमारी अर्थव्यवस्था पर इसका धनात्मक प्रभाव जरूर पड़ेगा। क्या आपने कभी सोचा कि आज पश्चिम के देश क्यों उन्नति कर रहे हैं? आप विदेशों में चले जाइये, आपको कहीं भैंस नहीं मिलेगी, सब जगह आपको गाय मिलेगी। पिछले दो दशक से पश्चिमी देशों में एक श्वेत क्रांति चल रही है। उस क्रांति का उद्देश्य है, अधिक से अधिक गाय पालो, गाय के दूध और दूध से बने पदार्थों का सेवन करो। आज एक अमेरिकन व्यक्ति प्रतिदिन एक से दो लीटर गाय का दूध पीता है और मक्खन खाता है, जबकि भारतीय व्यक्ति को औसतन मात्र 200 ग्राम दूध भी मुश्किल से प्राप्त होता है।

    एक रोचक किस्सा है कि जब पहली बार कोलंबस 1492 में अमेरिका गया, तब वहां एक भी गाय नहीं थी। सिर्फ जंगली भैसों का पालन होता था। लोग उसे दुहते नहीं थे, लेकिन मांस और चमड़े के लिये उसकी हत्या करते थे। कोलंबस जब दूसरी बार अमेरिका गया, तब अपने साथ 40 गायों को लेकर गया, जिससे दूध की जरुरत पूरी हो सके। सन् 1640 में ये 40 गायें बढ़कर 30,000 हो गयीं। 1840 तक ये गायें बढ़कर ड़ेढ करोड़ और सन् 1900 में 4 करोड़ हो गईं। 1930 में इनकी संख्या 6 करोड़ 40 लाख थी तथा मात्र पांच वर्ष पश्चात सन् 1935 में इनकी संख्या बढ़कर 7 करोड़ 18 लाख हो गई। आपको जानकर हैरानी होगी कि सन 1985 में अमेरिका में 94 प्रतिशत लोगों के पास गायें थीं और हर किसान के पास दस से पंद्रह गायें होती थीं। इसी कारण आज अमेरिका में दूध की नदियां इस तरह बह रही हैं, जैसे कभी भारत में बहती थीं।

    विश्वविख्यात पशु विशेषज्ञ डॉ.राइट ने 1935 में कहा था कि ‘‘गोवंश से होने वाली वार्षिक आय 11 अरब रुपये से अधिक है।’’ यह गणना 1935 के वस्तुओं के भावों के अनुसार लगाई गयी थी। आज सन् 1935 की उपेक्षा वस्तुओं के भाव कई गुना अधिक बढ़ गये हैं। इसलिए मेरा मानना है कि गोवंश से होने वाली आय लगभग 100 अरब रुपये से अधिक है। आप देखिए कि भारत में पूरे वर्ष में केवल साढ़े तीन माह ही वर्षा होती है और वह भी अनिश्चितता लिए हुए होती है। इस अनिश्चितता में किसान किसका सहारा ले? इसलिए प्रत्येक किसान को गोपालन को पूरक व्यवसाय बनाना चाहिए, ताकि जब कभी प्रकृति माता उस पर क्रोधित होगी, तब उसे गौमाता मदद करेगी। शायद इसीलिए महर्षि दयानंद सरस्वती ने कहा था कि गाय है तो हम हैं,गाय नहीं तो हम नहीं। गाय मरी तो बचेगा कौन? और गाय बची तो मरेगा कौन?

      हमारे आज के राजनीतिक वातावरण में गाय दोराहे पर खड़ी है। जहां कुछ लोग उसे संरक्षण के योग्य मानते हैं, तो कुछ भक्षण की वस्तु मानते हैं। देहरादून में नवधान्य संस्था के कार्यालय में लटके एक पोस्टर में गौपशुओं को चित्रित करते हुए लिखा गया था कि अगर भारत के सभी गौपशुओं को एक कतार में खड़ा कर दिया जाए, तो ये कतार चांद तक पहुंच जाएगी। गौपशुओं की 20 करोड़ से भी अधिक संख्या के साथ भारत दुनिया में प्रथम स्थान पर है और विश्व की गौपशुओं की कुल आबादी का 33.39 प्रतिशत उसके पास है। 22.64% के साथ ब्राज़ील और 10.03% के साथ चीन दुनिया के गौपशुओं की आबादी की दृष्टि से क्रमशः दूसरे और तीसरे स्थान पर है।  यह जानकर हर भारतीय को गर्व की अनुभूति होनी चाहिये कि हम दुनिया में दूध के सबसे बड़े उत्पादक हैं। वर्ष 2017 में भारत का कुल दूध उत्पादन लगभग 155 मिलियन टन था, जो 2022 में बढ़कर 210 मिलियन टन होने की संभावना है। यह भारत की गायों की आबादी के कारण ही है कि हम पिछले 10 वर्षों से दुग्ध उत्पादन में 4% की वार्षिक वृद्धि कर रहे हैं। राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड को अगले कुछ वर्षों के दौरान 7.8% की वार्षिक वृद्धि की उम्मीद है।

    तटस्थ मूल्यांकन करें तो पता चलता है कि श्वेत क्रांति, हरित क्रांति से अधिक टिकाऊ रही है। भारत में प्रति व्यक्ति दूध उत्पादन भी 1991 के मात्र 178 ग्राम से बढ़कर 2015 में 337 ग्राम हो गया था और कुछ वर्षों में यह बढ़कर 500 ग्राम हो जाएगा। इस प्रकार, भारत की खाद्य सुरक्षा में पशुधन का, विशेष रूप से गौवंश का, बहुत बड़ा योगदान है, जो हमें गर्व से भर देता है। भारत में गाय की कोई 30 नस्लें अच्छी तरह से वर्णित हैं। प्रत्येक नस्ल में कई विशिष्ट गुण हैं, जैसे दूध देने की क्षमता एवं खेती कार्यों की क्षमता। कुछ भारतीय नस्लें, जैसे साहीवाल, गिर, लाल सिंधी, थारपारकर और राठी दुधारू नस्लों में से हैं। कंकरेज, लाल कंधारी, मालवी, निमाड़ी, नगोरी, आदि बैलों की जानी मानी नस्लें हैं। हरियाणा राज्य की हरियाणा बैलनस्ल दुनिया में सबसे मजबूत कद-काठी वाली नस्लों में से एक मानी जाती है। केरल में पाई जाने वाली वेंचुर नस्ल दुनिया की सबसे छोटी मवेशी नस्ल है। इसे एक मेज पर खड़ा करके दुहा जा सकता है, और वेंचुर गाय बहुत अच्छे और मूल्यवान बैल पैदा करती है।

    भारत के कुछ क्षेत्रों में, विशेषकर हिमालय के पहाड़ों और अन्य पर्वत श्रृंखलाओं में, मवेशियों के बिना कृषि अकल्पनीय है। पूरी दुनिया में लगभग सभी पर्वतीय समुदाय पशुधन पर निर्भर हैं। पशु शक्ति पर आधारित खेती में पेट्रोल और डीजल जैसे जीवाश्म ईंधनों की भी आवश्यकता नहीं होती, जैसा कि ट्रेक्टर और अन्य मशीनों पर निर्भर खेती में होती है। इस प्रकार, पशुधन-आधारित खेती कार्बन उत्सर्जन को नियंत्रित करती है।

   गुणों की खान होने के बावजूद गाय को लेकर इतना विवाद है तो इसकी वजह है गाय की धार्मिक पहचान।  इसी का नतीजा है कि पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में तो दुधारू गाय का कत्ल पूरी तरह प्रतिबंधित है, लेकिन भारत में ऐसे कदम उठाने पर धर्मनिरपेक्षता खतरे में पड़ जाती है। वक्त की मांग है कि हम गाय को धार्मिक नजरिए के बजाए उसके औषधीय महत्व को देखें। देसी गायों के दूध में -2 नामक औषधीय तत्व पाया जाता है, जो मोटापा, आर्थराइटिस, टाइप-1 डाइबिटीज मानसिक तनाव को रोकता है। इसी को देखते हुए विदेशों में भारतीय नस्ल की गायों का संरक्षण किया जा रहा है।

  आस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड में तो -2 कार्पोरेशन नामक संस्था बनाकर भारतीय नस्ल की गायों के दूध को ऊंची कीमत पर बेचा जाता है। दूसरी ओर हॉलस्टीन जर्सी जैसी विदेशी नस्ल की गायों में यह प्रोटीन नहीं पाया जाता है। गाय के अर्थशास्त्र को नष्ट करने में देसी नस्लों के साथ विदेशी नस्लों की क्रॉस ब्रीडिंग की अहम भूमिका रही है। 'आपरेशन फ्लड' के दौरान यूरोपीय नस्ल की गायों को आयात कर उनके साथ देसी नस्लों की क्रॉस ब्रीडिंग का नतीजा ये हुआ कि जहां भारत में देसी नस्लें खत्म होती जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर भारतीय मूल की 'गिर गाय' ब्राजील में दूध उत्पादन का रिकार्ड बना रही है।

    वर्षों पहले ब्राजील ने मांस उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए भारत से 3000 गिर गायों का आयात किया था, लेकिन जब उसने इनके दूध के औषधीय महत्व को देखा तो वह दूध उत्पादन के लिए इन्हें बढ़ावा देने लगा। इसी तरह आस्ट्रेलिया में भारतीय नस्ल के 'ब्राह्मी बैलों' का डंका बज रहा है। क्या इसे दुर्भाग्य नहीं कहेंगे कि भारतीय नस्ल की गायों का उन्नत दूध विदेशी पी रहे हैं और हम विदेशी नस्लों का जहरीला दूध।

    गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने के मुद्दे पर तथाकथित धर्मनिरपेक्षतावादियों ने बहुत विलाप किया है। उन्हें तथ्यों और आंकड़ों पर विश्वास नहीं, सत्य से कोई सरोकार है, और ही उन्हें राष्ट्रीय भावनाओं से कोई मोह है। जलवायु परिवर्तन जैसी समस्या की गंभीरता से भी उन्हें कोई मतलब नहीं। उनके कुतर्क केवल राजनीतिक रंग में रंगे होते हैं। आप देखिए कि मांस उद्योग सबसे क्रूर जलवायु खलनायकों में से एक है, जो वायुमंडल में बहुत बड़े कार्बन पदचिन्ह छोड़ रहा है। औद्योगिक युग की शुरुआत के बाद से जब दुनिया ने जीवाश्म ईंधन को जलाना शुरू किया, हमने दुनिया को 0.8 डिग्री सेल्सियस तक गर्म कर दिया है। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि अतीत और पूर्वानुमानित कार्बन उत्सर्जन के कारण दुनिया 1.5 डिग्री सेल्सियस गर्म हो जाएगी। दिसंबर 2016 की पेरिस जलवायु वार्ता में विश्वव्यापी तापक्रम बढ़ोत्तरी का लक्ष्य 2 डिग्री सेल्सियस तय किया गया। 2 डिग्री सेल्सियस का आंकड़ा देखने में छोटा लगता है, लेकिन इसका जीवन और जीवित ग्रह पर अभूतपूर्व नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। खानपान की आदतें यूं तो एक व्यक्तिगत मामला है, जिस पर प्रश्न उठाना अटपटा-सा लगता है, लेकिन हमारी जलवायु पर सबसे बड़ी और सबसे विस्फोटक मार मांसाहार की प्रवृत्ति से पड़ रही है। मांस आहार, विशेष रूप से गोमांस से बना आहार, पर्यावरण पर सबसे बुरा प्रभाव डालता है। एक रिपोर्ट से पता चलता है कि विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थों के कारण सबसे बड़ा कार्बन पदचिन्ह गोमांस के कारण होता है, जो बीन्स, मटर और सोयाबीन यानी शाकाहारी आहार की तुलना में लगभग 60 गुना बड़ा है।

   अगर हम इतिहास के कुछ पुराने पन्ने पलटते हैं, तो पता चलता है कि बाबरनामे में दर्ज एक पत्र में बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को नसीहत देते हुए कहा था कि तुम्हें गौहत्या से दूर रहना चाहिए। ऐसा करने से तुम हिन्दुस्तान की जनता में प्रिय रहोगे। इस देश के लोग तुम्हारे आभारी रहेंगे और तुम्हारे साथ उनका रिश्ता भी मजबूत हो जाएगा। आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र ने भी 28 जुलाई 1857 को बकरीद के मौके पर गाय की कुर्बानी करने का फ़रमान जारी किया था। साथ ही यह भी चेतावनी दी थी कि जो भी गौ-हत्या करने या कराने का दोषी पाया जाएगा उसे मौत की सज़ा दी जाएगी। उस समय गौ-हत्या के खिलाफ अलख जगाने का काम करने वाले उर्दू पत्रकार मोहम्मद बाकर को बगावती तेवरों के लिए मौत की सजा सुनाई गयी थी।

   मानव प्रजाति द्वारा मांस भक्षण धरती और धरती के जीवन के लिए एक अभिशाप है, ऐसा दुनिया के अधिकांश वैज्ञानिक मानते हैं और हाल ही में अमेरिका की नव-नियुक्त उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी कहा है कि मांस धरती को नष्ट कर रहा है। गौ संरक्षण पूर्णरूपेण राष्ट्रहित में है, और यह पर्यावरणीय, पारिस्थितिक एवं सामाजिक और आर्थिक न्याय के अनुरूप है। गाय को भारत के विकास का एक महत्वपूर्ण स्रोत माना जाना चाहिए। गौ-शक्ति से संपन्न भारत वास्तव में एक खुशहाल और संपोषित भारत होगा।



बुधवार, 12 मई 2021

भारतीयता का मूल हैं हमारे परिवार

                                                        विश्व परिवार दिवस(15 मई) पर विशेष

जहां मिलती है सुरक्षा, संरक्षण और आत्मविश्वास

-प्रो.संजय द्विवेदी


 
    भारत में ऐसा क्या है जो उसे खास बनाता है? वह कौन सी बात है जिसने सदियों से उसे दुनिया की नजरों में आदर का पात्र बनाया और मूल्यों को सहेजकर रखने के लिए उसे सराहा। निश्चय ही हमारी परिवार व्यवस्था वह मूल तत्व है, जिसने भारत को भारत बनाया। हमारे सारे नायक परिवार की इसी शक्ति को पहचानते हैं। रिश्तों में हमारे प्राण बसते हैं, उनसे ही हम पूर्ण होते हैं। आज कोरोना की महामारी ने जब हमारे सामने गहरे संकट खड़े किए हैं तो हमें सामाजिक और मनोवैज्ञानिक संबल हमारे परिवार ही दे रहे हैं। व्यक्ति कितना भी बड़ा हो जाए उसका गांव, घर, गली, मोहल्ला, रिश्ते-नाते और दोस्त उसकी स्मृतियां का स्थायी संसार बनाते हैं। कहा जाता है जिस समाज स्मृति जितनी सघन होती है, जितनी लंबी होती है, वह उतना ही श्रेष्ठ समाज होता है।

    परिवार नाम की संस्था दुनिया के हर समाज में मौजूद हैं। किंतु परिवार जब मूल्यों की स्थापना, बीजारोपण का केंद्र बनता है, तो वह संस्कारशाला हो जाता है। खास हो जाता है। अपने मूल्यों, परंपराओं को निभाकर समूचे समाज को साझेदार मानकर ही भारतीय परिवारों ने अपनी विरासत बनाई है। पारिवारिक मूल्यों को आदर देकर ही श्री राम इस देश के सबसे लाड़ले पुत्र बन जाते हैं। उन्हें यह आदर शायद इसलिए मिल पाया, क्योंकि उन्होंने हर रिश्ते को मान दिया, धैर्य से संबंध निभाए। वे रावण की तरह प्रकांड विद्वान और विविध कलाओं के ज्ञाता होने का दावा नहीं करते, किंतु मूल्याधारित जीवन के नाते वे सबके पूज्य बन जाते हैं, एक परंपरा बनाते हैं। अगर हम अपनी परिवार परंपरा को निभा पाते तो आज के भारत में वृद्धाश्रम न बन रहे होते। पहले बच्चे अनाथ होते थे आज के दौर में माता-पिता भी अनाथ होने लगे हैं। यह बिखरती भारतीयता है, बिखरता मूल्यबोध है। जिसने हमारी आंखों से प्रेम, संवेदना, रिश्तों की महक कम कर भौतिकतावादी मूल्यों को आगे किया है।

न बढ़ाएं फासले, रहिए कनेक्टः

    आज के भारत की चुनौतियां बहुत अलग हैं। अब भारत के संयुक्त परिवार आर्थिक, सामाजिक कारणों से एकल परिवारों में बदल रहे हैं। एकल परिवार अपने आप में कई संकट लेकर आते हैं। जैसा कि हम देख रहे हैं कि इन दिनों कई दंपती कोरोना से ग्रस्त हैं, तो उनके बच्चे एकांत भोगने के साथ गहरी असुरक्षा के शिकार हैं। इनमें माता या पिता, या दोनों की मृत्यु होने पर अलग तरह के सामाजिक संकट खड़े हो रहे हैं। संयुक्त परिवार हमें इस तरह के संकटों से सुरक्षा देता था और ऐसे संकटों को आसानी से झेल जाता था। बावजूद इसके समय के चक्र को पीछे नहीं घुमाया जा सकता। ऐसे में यह जरूरी है कि हम अपने परिजनों से निरंतर संपर्क में रहें। उनसे आभासी माध्यमों, फोन आदि से संवाद करते रहें, क्योंकि सही मायने में परिवार ही हमारा सुरक्षा कवच है।

   आमतौर सोशल मीडिया के आने के बाद हम और अनसोशल हो गए हैं। संवाद के बजाए कुछ ट्वीट करके ही बधाई दे देते हैं। होना यह चाहिए कि हम फोन उठाएं और कानोंकान बात करें। उससे जो खुशी और स्पंदन होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। परिजन और मित्र इससे बहुत प्रसन्न अनुभव करेगें और सारा दिन आपको भी सकारात्मकता का अनुभव होगा। संपर्क बनाए रखना और एक-दूसरे के काम आना हमें अतिरिक्त उर्जा से भर देता है। संचार के आधुनिक साधनों ने संपर्क, संवाद बहुत आसान कर दिया है। हम पूरे परिवार की आनलाईन मीटिंग कर सकते हैं, जिसमें दुनिया के किसी भी हिस्से से परिजन हिस्सा ले सकते हैं। दिल में चाह हो तो राहें निकल ही आती हैं। प्राथमिकताए तय करें तो व्यस्तता के बहाने भी कम होते नजर आते हैं।


जरूरी है एकजुटता और सकारात्मकताः

    सबसे जरूरी है कि हम सकारात्मक रहें और एकजुट रहें। एक-दूसरे के बारे में भ्रम पैदा न होने दें। गलतफहमियां पैदा होने से पहले उनका आमने-सामने बैठकर या फोन पर ही निदान कर लें। क्योंकि दूरियां धीरे-धीरे बढ़ती हैं और एक दिन सब खत्म हो जाता है। खून के रिश्तों का इस तरह बिखरना खतरनाक है क्योंकि रिश्ते टूटने के बाद जुड़ते जरूर हैं, लेकिन उनमें गांठ पड़ जाती है। सामान्य दिनों में तो सारा कुछ ठीक लगता है। आप जीवन की दौड़ में आगे बढ़ते जाते हैं, आर्थिक समृद्धि हासिल करते जाते हैं। लेकिन अपने पीछे छूटते जाते हैं। किसी दिन आप अस्पताल में होते हैं, तो आसपास देखते हैं कि कोई अपना आपकी चिंता करने वाला नहीं है। यह छोटा सा उदाहरण बताता है कि हम कितने कमजोर और अकेले हैं। देखा जाए तो यह एकांत हमने खुद रचा है और इसके जिम्मेदार हम ही हैं। संयुक्त परिवारों की परिपाटी लौटाई नहीं जा सकती, किंतु रिश्ते बचाए और बनाए रखने से हमें पीछे नहीं हटना चाहिए। इसके साथ ही सकारात्मक सोच बहुत जरूरी है। जरा-जरा सी बातों पर धीरज खोना ठीक नहीं है। हमें क्षमा करना  और भूल जाना आना ही चाहिए। तुरंत प्रतिक्रिया कई बार घातक होती है। इसलिए आवश्यक है कि हम धीरज रखें। देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ऐसे ही पारिवारिक मूल्यों की जागृति के कुटुंब प्रबोधन के कार्यक्रम चलाता है। पूर्व आईएएस अधिकारी विवेक अत्रे भी लोगों को पारिवारिक मूल्यों से जुड़े रहने प्रेरित कर रहे हैं। वे साफ कहते हैं भारत में परिवार ही समाज को संभालता है।

जुड़ने के खोजिए बहानेः

  हमें संवाद और एकजुटता के अवसर बनाते रहने चाहिए। बात से बात निकलती है और रिश्तों में जमी बर्फ पिधल जाती है। परिवार के मायने सिर्फ परिवार ही नहीं हैं, रिश्तेदार ही नहीं हैं। वे सब हैं जो हमारी जिंदगी में शामिल हैं। उसमें हमें सुबह अखबार पहुंचाने वाले हाकर से लेकर, दूध लाकर हमें देने वाले, हमारे कपड़े प्रेस करने वाले, हमारे घरों और सोसायटी की सुरक्षा, सफाई करने वाले और हमारी जिंदगी में मदद देने वाला हर व्यक्ति शामिल है। अपने सुख-दुख में इस महापरिवार को शामिल करना जरूरी है। इससे हमारा भावनात्मक आधार मजूबूत होता है और हम कभी भी अपने आपको अकेला महसूस नहीं करते। कोरोना के संकट ने हमें सोचने के लिए आधार दिया है, एक मौका दिया है। हम सबने खुद के जीवन और परिवार में न सही, किंतु पूरे समाज में मृत्यु को निकट से देखा है। आदमी की लाचारगी और बेबसी के ऐसे दिन शायद भी कभी देखे गए हों। इससे सबक लेकर हमें न सिर्फ सकारात्मकता के साथ जीना सीखना है बल्कि लोगों की मदद के लिए हाथ बढ़ाना है। बड़ों का आदर और अपने से छोटों का सम्मान करते हुए सबको भावनात्मक रिश्तों की डोर में बांधना है।  एक दूसरे को प्रोत्साहित करना, घर के कामों में हाथ बांटना, गुस्सा कम करना जरूरी आदतें हैं, जो डालनी होंगीं। एक बेहतर दुनिया रिश्तों में ताजगी, गर्माहट,दिनायतदारी और भावनात्मक संस्पर्श से ही बनती है। क्या हम और आप इसके लिए तैयार हैं?

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं।)

रचना, सृजन और संघर्ष से बनी थी पटैरया की शख्सियत

                                                                   -प्रो. संजय द्विवेदी

   वे ही थे जो खिलखिलाकर मुक्त हंसी हंस सकते थे, खुद पर भी, दूसरों पर भी। भोपाल में उनका होना एक भरोसे और आश्वासन का होना था। ठेठ बुंदेलखंडी अंदाज उनसे कभी बिसराया नहीं गया। वे अपनी हनक, आवाज की ठसक, भरपूर दोस्ताने अंदाज और प्रेम को बांटकर राजपुत्रों के शहर भोपाल में भी एक नई दुनिया बना चुके थे, जो उनके चाहने वालों से भरी थी। 12 मई,2021 की सुबह जब वरिष्ठ पत्रकार श्री शिवअनुराग पटैरया ने अपनी कर्मभूमि रहे इंदौर शहर में आखिरी सांसें लीं तो भोपाल बहुत रीता-रीता हो गया। मेरे जैसे लोग जो छात्र जीवन से उनके संरक्षण और अभिभावकत्व में ही इस शहर और यहां की पत्रकारिता को थोड़ा-बहुत जान पाए, उन सबके लिए उनका न होना एक ऐसा शून्य रच रहा है, जिसे भर पाना कठिन है। 1958 में मप्र के छतरपुर जिले में जन्में श्री पटैरया की समूची जीवन यात्रा रचना, सृजन और संघर्ष का उदाहरण है।

   भोपाल की पत्रकारिता अनेक दिग्गज नामों से भरी पड़ी है। लेकिन शिवअनुराग पटैरया ही ऐसे थे जिनके पास कोई भी मुक्त होकर जा सकता। वे किसी को उसके पद और उपयोगिता के आधार पर नहीं आंकते थे। तमाम नौजवानों को उन्होंने जैसा स्नेह,संरक्षण और अपनापन दिया, वह महानगरों में दुर्लभ ही है। वे धुन के धनी थे। छतरपुर जैसी छोटी जगह से आकर जिस आत्मविश्वास से उन्होंने इंदौर, भोपाल और मुंबई में झंडे गाड़े वह साधारण नहीं था। एक आंचलिक पत्रकार से संपादक का शिखर पाना सबके बूते की बात नहीं होती। किंतु वे बने और बाद में उन्होंने खुद को एक लेखक और शोधकर्ता के रूप में भी साबित किया।

लेखन से बनाई खास जगहः

  उनमें कुछ नया करने की बेचैनियां मैंने हमेशा महसूस की। वे नक्सलवाद पर किताब लिखने के बाद, अचानक युद्ध संवाददाता के प्रशिक्षण के लिए चले जाते हैं। फिर युद्ध की रिपोर्टिंग पर किताब लिखने लगते हैं। उससे मुक्त होकर वे  मध्यप्रदेश संदर्भ जैसी भारी भरकम और परिश्रम से भरी किताब के लिए संदर्भ जुटाने लगते हैं। अलग राज्य बना तो छत्तीसगढ़ का भी संदर्भ ग्रंथ रचते हैं। वे अचानक पानी के मुद्दे पर काम करना प्रारंभ करते हैं और मप्र की जल निधियां, मप्र की गौरवशाली जल परंपरा जैसी दो पुस्तकें लिखते हैं। सही मायने में उनकी यही रचनाशीलता और सतत सक्रियता उनकी शक्ति थी। वे लिखकर ही मुक्त हो सकते थे। अपनी पत्रकारीय व्यस्तताओं के बाद भी वे 25 से अधिक किताबें हमें सौंपकर जा चुके हैं। जिनमें ज्यादातर संदर्भ ग्रंथ की तरह हैं। इसके अलावा उन्होंने प्रख्यात पत्रकार राजेंद्र माथुर पर मोनोग्राफ भी लिखा। उन्हें राजेंद्र माथुर सम्मान,मेदिनी पुरस्कार,डा.शंकरदयाल शर्मा अवार्ड जैसे सम्मानों से अलंकृत किया गया था। श्री पटैरया न सिर्फ पत्रकारिता और लेखन के क्षेत्र में बल्कि मध्यप्रदेश के सार्वजनिक जीवन में भी सार्थक हस्तक्षेप रखते थे। उनके मार्गदर्शन में पत्रकारों की एक लंबी पूरी पीढ़ी तैयार हुई। पत्रकारिता शिक्षण-प्रशिक्षण में उनकी गहरी रूचि थी। इसलिए वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय में अकादमिक कार्यों में सहयोग हेतु हमेशा तत्पर रहते। सप्रे संग्रहालय की गतिविधियों में भी उनकी सक्रियता दिखती थी।

आत्मीय पिता, पति और दोस्तः

  पटैरया जी सबसे खास बात यह थी वे बहुत सार्वजनिक व्यक्ति होने के साथ-साथ बेहद पारिवारिक व्यक्ति  भी थे। वे बहुत मीठा बोलते थे, परिवार में भी सब ऐसा ही करते थे। उनकी पत्रकारिता में, टीवी डिबेट में उनका खरा-खरा बोलना निजी जिंदगी में नहीं दिखता। उनका कोई विरोधी नहीं था। वे सबके प्रति आत्मीय भाव रखते और मधुरता से मिलते। घर में पहुंचने पर उनका आतिथ्य आपको द्रविद कर देता। मैंने अपनी आंखों से देखा है, वे अपने बेटी और बेटे को कितना समय देते और कितना स्नेह करते। भाभी के प्रति सम्मान और प्रेम देखते ही बनता। अपनी खूब व्यस्तताएं भी उन्हें परिवार की जरूरतों से अलग नहीं कर पातीं। अपने घर के बुजुर्गों, भाई और उसका परिवार। सारा कुछ उनकी जिंदगी था। दोस्तों के साथ भी उनका यही व्यवहार था। वे आपकी जरूरत पर आपके साथ होते। रिश्तों को जीना और उन्हें निभाना वे रोज अपने आचरण से सिखाते थे।

    मैं पत्रकारिता की पढ़ाई के बाद लगभग चौदह साल रायपुर, बिलासपुर और मुंबई में पत्रकारिता करता रहा। 2009 में भोपाल लौटा तो भी उनका वही व्यवहार, प्रेम और सहजता कायम थी। इस बीच वे कई अखबारों के संपादक रह चुके थे। भोपाल के सार्वजनिक जीवन में उनकी एक बड़ी जगह थी। किंतु उनका दोस्ताना व्यवहार और दिल जीत लेने की कोशिशें कम नहीं होतीं थीं। 2009 से लगातार मेरे जन्मदिन पर वे बुके और मिठाई लेकर आते जरूर। एक बार वे घर आ गए और मैं हबीबगंज स्टेशन पर लोकगायक पद्मश्री से अलंकृत श्री भारती बंधु को लेने स्टेशन गया था।दूसरा व्यक्ति होता तो चीजें घर छोड़कर जाता, किंतु वे ऐसा कैसे कर सकते थे। वे हबीबगंज स्टेशन पर बुके के साथ खड़े थे। साथ गए हमारे विद्यार्थियों को भी बहुत आश्चर्य हुआ कि पटैरया जी रिश्तों को कैसे निभाते थे। मैं भोपाल में शहर के आखिरी छोर सलैया में रहता हूं। एक बार वे हमारे घर एक पूजा में आ रहे थे। रात को रास्ता खोजते भटक गए, फिर भी देर रात आए। हमें खुशी हुई। मेरी पत्नी भूमिका और बिटिया को अपना आशीर्वाद दिया और कहा भूमिका जी इस शहर ने संजय को संजयजी होते हुए देखा है। इसकी मुझे बहुत खुशी है। वे आत्मीयता से सराबोर थे। रास्ता भटकने की थकान गायब थी। कहा महाराज अब कुछ खिला भी दो, जंगल में तो बस ही गए हो।

सत्ता से आलोचनात्मक विमर्श का रिश्ताः

 मैंने देखा राजपुत्रों से पटैरया जी की बहुत बनती है। कांग्रेस- भाजपा दोनों दलों के शीर्ष नेताओं से उनका याराना था। उनके पास खबरें बहुत होती थीं। एक तरह से वे मध्यप्रदेश की राजनीति का बेहद समृध्द संदर्भ थे। उनकी जिंदगी और पत्रकारिता इन्हीं जीवंत रिश्तों से बनी और बुनी गई थी। किंतु रिश्तों को उन्होंने कभी बाजार में इस्तेमाल नहीं किया। इन दिनों टीवी डिबेट्स का वे जरूरी चेहरा बन गया थे, किंतु उनकी आवाज सच बोलते हुए न तो कभी कांपती थी, न ही उस वक्त वे किसी तरह का दोस्ताना निभाते थे। सच को, उसके सही संदर्भों के साथ व्यक्त करना उनकी शक्ति थी। इसे वे जानते थे। लेखन में भी उनका यह संतुलन कायम था। अपनी पत्रकारिता में राजेंद्र माथुर, अच्युतानंद मिश्र के प्रभाव को वे गहरे महसूस करते थे। उनकी समूची पत्रकारिता इसी सत्यान्वेषण से बनी थी। दिल्ली से लौटकर जब भोपाल जाऊंगा, मेरी सुबहें और शामें पटैरया जी के बिना कैसी बेरौनक होंगीं, सोचकर दिल कांप जाता है। मेरे अभिभावक और आत्मीय बड़े भाई को मेरी भावभीनी श्रद्धांजलि।

सोमवार, 10 मई 2021

नए समय में मीडिया शिक्षा की चुनौतियां

 

डिजीटल ट्रांसफार्मेशन के लिए तैयार हों नए पत्रकार

- प्रो. संजय द्विवेदी


     एक समय था जब माना जाता है कि पत्रकार पैदा होते हैं और पत्रकारिता पढ़ा कर सिखाई नहीं जा सकती। अब वक्त बदल गया है। जनसंचार का क्षेत्र आज शिक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। वर्ष 2020 को लोग चाहे कोरोना महामारी की वजह से याद करेंगे, लेकिन एक मीडिया शिक्षक होने के नाते मेरे लिए ये बेहद महत्वपूर्ण है कि पिछले वर्ष भारत में मीडिया शिक्षा के 100 वर्ष पूरे हुए थे। वर्ष 1920 में थियोसोफिकल सोसायटी के तत्वावधान में मद्रास राष्ट्रीय विश्वविद्यालय में डॉक्टर एनी बेसेंट ने पत्रकारिता का पहला पाठ्यक्रम शुरू किया था। लगभग एक दशक बाद वर्ष 1938 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पत्रकारिता के पाठ्यक्रम को एक सर्टिफिकेट कोर्स के रूप में शुरू किया गया। इस क्रम में पंजाब विश्वविद्यालय, जो उस वक्त के लाहौर में हुआ करता था, पहला विश्वविद्यालय था, जिसने अपने यहां पत्रकारिता विभाग की स्थापना की। भारत में पत्रकारिता शिक्षा के संस्थापक  कहे जाने वाले प्रोफेसर पीपी सिंह ने वर्ष 1941 में इस विभाग की स्थापना की थी। अगर हम स्वतंत्र भारत की बात करें, तो सबसे पहले मद्रास विश्वविद्यालय ने वर्ष 1947 में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग की स्थापना की। 

   इसके पश्चात कलकत्ता विश्वविद्यालय, मैसूर के महाराजा कॉलेज, उस्मानिया यूनिवर्सिटी एवं नागपुर यूनिवर्सिटी ने मीडिया शिक्षा से जुड़े कई कोर्स शुरू किए। 17 अगस्त, 1965 को सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने भारतीय जन संचार संस्थान की स्थापना की, जो आज मीडिया शिक्षा के क्षेत्र में पूरे एशिया में सबसे अग्रणी संस्थान है।  आज भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, रायपुर में कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय एवं जयपुर में हरिदेव जोशी पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय पूर्ण रूप से मीडिया शिक्षण एवं प्रशिक्षण का कार्य कर रहे हैं। भारत में मीडिया शिक्षा का इतिहास 100 वर्ष जरूर पूर्ण कर चुका है, परंतु यह अभी तक इस उलझन से मुक्त नहीं हो पाया है कि यह तकनीकी है या वैचारिक। तकनीकी एवं वैचारिकी का द्वंद्व मीडिया शिक्षा की उपेक्षा के लिए जहां उत्तरदायी है, वहां सरकारी उपेक्षा और मीडिया संस्थानों का सक्रिय सहयोग न होना भी मीडिया शिक्षा के इतिहास की तस्वीर को धुंधली प्रस्तुत करने को विवश करता है।

    भारत में जब भी मीडिया शिक्षा की बात होती है, तो प्रोफेसर के. . ईपन का नाम हमेशा याद किया जाता है। प्रोफेसर ईपन भारत में पत्रकारिता शिक्षा के तंत्र में व्यावहारिक प्रशिक्षण के पक्षधर थे। प्रोफेसर ईपन का मानना था कि मीडिया के शिक्षकों के पास पत्रकारिता की औपचारिक शिक्षा के साथ साथ मीडिया में काम करने का प्रत्यक्ष अनुभव भी होना चाहिए, तभी वे प्रभावी ढंग से बच्चों को पढ़ा पाएंगे। आज देश के अधिकांश पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षण संस्थान, मीडिया शिक्षक के तौर पर ऐसे लोगों को प्राथमिकता दे रहे हैं, जिन्हें अकादमिक के साथ साथ पत्रकारिता का भी अनुभव हो। ताकि ये शिक्षक ऐसा शैक्षणिक माहौल तैयार कर सकें, ऐसा शैक्षिक पाठ्यक्रम तैयार कर सकें, जिसका उपयोग विद्यार्थी आगे चलकर अपने कार्यक्षेत्र में भी कर पाएं।  पत्रकारिता के प्रशिक्षण के समर्थन में जो तर्क दिए जाते हैं, उनमें से एक दमदार तर्क यह है कि यदि डॉक्टरी करने के लिए कम से कम एम.बी.बी.एस. होना जरूरी है, वकालत की डिग्री लेने के बाद ही वकील बना जा सकता है तो पत्रकारिता जैसे महत्वपूर्ण पेशे को किसी के लिए भी खुला कैसे छोड़ा जा सकता है?

    दरअसल भारत में मीडिया शिक्षा मोटे तौर पर छह स्तरों पर होती है। सरकारी विश्वविद्यालयों या कॉलेजों में, दूसरे, विश्वविद्यालयों से संबंद्ध संस्थानों में, तीसरे, भारत सरकार के स्वायत्तता प्राप्त संस्थानों में, चौथे, पूरी तरह से प्राइवेट संस्थान, पांचवे डीम्ड विश्वविद्यालय और छठे, किसी निजी चैनल या समाचार पत्र के खोले गए अपने मीडिया संस्थान। इस पूरी प्रक्रिया में हमारे सामने जो एक सबसे बड़ी समस्या है, वो है किताबें। हमारे देश में मीडिया के विद्यार्थी विदेशी पुस्तकों पर ज्यादा निर्भर हैं। लेकिन अगर हम देखें तो भारत और अमेरिका के मीडिया उद्योगों की संरचना और कामकाज के तरीके में बहुत अंतर है। इसलिए मीडिया के शिक्षकों की ये जिम्मेदारी है, कि वे भारत की परिस्थितियों के हिसाब से किताबें लिखें।

    मीडिया शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाने के लिए आज मीडिया एजुकेशन काउंसिल की आवश्यकता है। इसकी मदद से न सिर्फ पत्रकारिता एवं जनसंचार शिक्षा के पाठ्यक्रम में सुधार होगा, बल्कि मीडिया इंडस्ट्री की जरुरतों के अनुसार पत्रकार भी तैयार किये जा सकेंगे। आज मीडिया शिक्षण में एक स्पर्धा चल रही है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को ये तय करना होगा कि उनका लक्ष्य स्पर्धा में शामिल होने का है, या फिर पत्रकारिता शिक्षण का बेहतर माहौल बनाने का है। आज के समय में पत्रकारिता बहुत बदल गई है, इसलिए पत्रकारिता शिक्षा में भी बदलाव आवश्यक है। आज लोग जैसे डॉक्टर से अपेक्षा करते हैं, वैसे पत्रकार से भी सही खबरों की अपेक्षा करते हैं। अब हमें मीडिया शिक्षण में ऐसे पाठ्यक्रम तैयार करने होंगे, जिनमें विषयवस्तु के साथ साथ नई तकनीक का भी समावेश हो।

    न्यू मीडिया आज न्यू नॉर्मल है। हम सब जानते हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के कारण लाखों नौकरियां गई हैं। इसलिए हमें मीडिया शिक्षा के अलग अलग पहलुओं पर ध्यान देना होगा और बाजार के हिसाब से प्रोफेशनल तैयार करने होंगे। नई शिक्षा नीति में क्षेत्रीय भाषाओं पर ध्यान देने की बात कही गई है। जनसंचार शिक्षा के क्षेत्र में भी हमें इस पर ध्यान देना होगा। मीडिया शिक्षण संस्थानों के लिए आज एक बड़ी आवश्यकता है क्षेत्रीय भाषाओं में पाठ्यक्रम तैयार करना। भाषा वो ही जीवित रहती है, जिससे आप जीविकोपार्जन कर पाएं और भारत में एक सोची समझी साजिश के तहत अंग्रेजी को जीविकोपार्जन की भाषा बनाया जा रहा है। ये उस वक्त में हो रहा है, जब पत्रकारिता अंग्रेजी बोलने वाले बड़े शहरों से हिंदी तथा अन्य भारतीय भाषाओं के शहरों और गांवों की ओर मुड़ रही है। आज अंग्रेजी के समाचार चैनल भी हिंदी में डिबेट करते हैं। सीबीएससी बोर्ड को देखिए जहां पाठ्यक्रम में मीडिया को एक विषय के रूप में पढ़ाया जा रहा है। क्या हम अन्य राज्यों के पाठ्यक्रमों में भी इस तरह की व्यवस्था कर सकते हैं, जिससे मीडिया शिक्षण को एक नई दिशा मिल सके।

    एक वक्त था जब पत्रकारिता का मतलब प्रिंट मीडिया होता था। अस्सी के दशक में रिलीज हुई अमेरिकी फिल्म Ghostbusters (घोस्टबस्टर्स) में सेक्रेटरी जब वैज्ञानिक से पूछती है किक्या वे पढ़ना पसंद करते हैं? तो वैज्ञानिक कहता हैप्रिंट इज डेड। इस पात्र का यह कहना उस समय हास्य का विषय था, परंतु वर्तमान परिदृश्य में प्रिंट मीडिया के भविष्य पर जिस तरह के सवाल खड़े किये जा रहे हैं, उसे देखकर ये लगता है कि ये सवाल आज की स्थिति पर बिल्कुल सटीक बैठता है। आज दुनिया के तमाम प्रगतिशील देशों से हमें ये सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रिंट मीडिया पर संकट के बादल हैं। ये भी कहा जा रहा है कि बहुत जल्द अखबार खत्म हो जाएंगे। वर्ष 2008 में अमेरिकी लेखक जेफ गोमेज ने प्रिंट इज डेड पुस्तक लिखकर प्रिंट मीडिया के खत्म होने की अवधारणा को जन्म दिया था। उस वक्त इस किताब का रिव्यू करते हुए एंटोनी चिथम ने लिखा था कि, यह किताब उन सब लोगों के लिएवेकअप कॉलकी तरह है, जो प्रिंट मीडिया में हैं, किंतु उन्हें यह पता ही नहीं कि इंटरनेट के द्वारा डिजिटल दुनिया किस तरह की बन रही है। वहीं एक अन्य लेखक रोस डावसन ने तो समाचारपत्रों के विलुप्त होने का, समय के अनुसार एक चार्ट ही बना डाला। इस चार्ट में जो बात मुख्य रूप से कही गई थी, उसके अनुसार वर्ष 2040 तक विश्व से अखबारों के प्रिंट संस्करण खत्म हो जाएंगे।         मीडिया शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों में इस तरह के बदलाव करने चाहिए, कि वे न्यू मीडिया के लिए छात्रों को तैयार कर सकें। आज तकनीक किसी भी पाठ्यक्रम का महत्वपूर्ण हिस्सा है। मीडिया में दो तरह के प्रारूप होते हैं। एक है पारंपरिक मीडिया जैसे अखबार और पत्रिकाएं और और दूसरा है डिजिटल मीडिया। अगर हम वर्तमान संदर्भ में बात करें तो सबसे अच्छी बात ये है कि आज ये दोनों प्रारूप मिलकर चलते हैं। आज पारंपरिक मीडिया स्वयं को डिजिटल मीडिया में परिवर्तित कर रहा है। जरूरी है कि मीडिया शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को 'डिजिटल ट्रांसफॉर्म' के लिए पहले से तैयार करें। देश में प्रादेशिक भाषा यानी भारतीय भाषाओं के बाजार का महत्व भी लगातार बढ़ रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार अंग्रेजी भाषा के उपभोक्ताओं का डिजिटल की तरफ मुड़ना लगभग पूरा हो चुका है। ऐसा माना जा रहा है कि वर्ष 2030 तक भारतीय भाषाओं के बाजार में उपयोगकर्ताओं की संख्या 500 मिलियन तक पहुंच जाएगी और लोग इंटरनेट का इस्तेमाल स्थानीय भाषा में करेंगे। जनसंचार की शिक्षा देने वाले संस्थान अपने आपको इन चुनौतियों के मद्देनजर तैयार करें, यह एक बड़ी जिम्मेदारी है।



प्रो. संजय द्विवेदी, संप्रति भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी),नई दिल्ली के महानिदेशक हैं।
 

 

 

गुरुवार, 6 मई 2021

नहीं रहे वरिष्ठ पत्रकार भगवतीधर वाजपेयी

 



आईआईएमसी के महानिदेशक ने जताया दुख कहा- राष्ट्रीय भावधारा को समर्पित था उनका जीवन

नई दिल्ली,6 मई। वयोवृद्ध पत्रकार और राष्ट्रीय भावधारा के लेखक श्री भगवतीधर वाजपेयी (96 वर्ष) का जबलपुर में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया। उनके निधन पर भारतीय जनसंचार संस्थान(आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने गहरा दुख व्यक्त किया है। उन्होंने कहा कि युगधर्म (नागपुर-जबलपुर) के संपादक के रूप में उनकी पत्रकारिता ने राष्ट्रीय चेतना का विस्तार किया। वे सिर्फ एक पत्रकार ही नहीं, मूल्यआधारित पत्रकारिता और भारतीयता के प्रतीक पुरुष थे। उनका समूचा जीवन इस देश की महान संस्कृति के प्रचार-प्रसार में समर्पित रहा।

    प्रो. द्विवेदी ने कहा कि 1957 में नागपुर में युगधर्म के संपादक के रूप में कार्यभार ग्रहण करने के बाद उन्होंने 1990 तक सक्रिय पत्रकारिता करते हुए युवा पत्रकारों की एक पूरी पौध तैयार की। उनकी समूची पत्रकारिता में मूल्यनिष्ठा, भारतीयता, संस्कृति के प्रति अनुराग और देशवासियों को सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाने की भावना दिखती है। 1952 में स्वदेश के माध्यम से अपनी पत्रकारिता का प्रारंभ करने वाले श्री वाजपेयी का निधन एक ऐसा शून्य रच रहा है, जिसे भर पाना कठिन है। 2006 में उन्हें मध्यप्रदेश शासन द्वारा माणिकचन्द्र वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। प्रो.द्विवेदी ने कहा कि उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी एक विचार के लिए लगा दी और संघर्षपूर्ण जीवन जीते हुए भी घुटने नहीं टेके। आपातकाल में न सिर्फ उनके अखबार पर ताला डाल दिया गया, वरन उन्हें जेल भी भेजा गया। इसके बाद भी न तो झुके, न ही डिगे।

 

 

बुधवार, 5 मई 2021

कोरोना संकट से जूझने एकजुटता की जरूरत

                           दलगत राजनीति से ऊपर उठकर राष्ट्रीय संकट में समाज को दीजिए संबल

-प्रो. संजय द्विवेदी

   कोरोना संकट ने देश के दिल को जिस तरह से छलनी किया है, वे जख्म आसानी से नहीं भरेंगें। मन में कई बार भय, अवसाद, आसपास होती दुखद घटनाओं से, समाचारों से, नकारात्मक विचार आते हैं। अपनों को खो चुके लोगों को कोई आश्वासन काम नहीं आता। उनके दुखों की सिर्फ कल्पना की जा सकती है। ऐसे में चिंता होती है, लगता है सब खत्म हो जाएगा। कुछ नहीं हो सकता। डाक्टर और मनोवैज्ञानिक भी मानते हैं भय, नकारात्मक विचारों से इम्यूनिटी कमजोर होती है। यही सब कारण हैं कि अब पाजीटिव हीलिंग की बात प्रारंभ हुई है। जो हो रहा है दर्दनाक, भयानक है, किंतु हमारी मेडिकल सेवाओं के लोग, सुरक्षा के लोग, सेना, सफाई कर्मचारी, मीडिया के लोग, सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता इन्हीं संकटों में सब करते ही हैं। हमें भी फोन, सोशल मीडिया आदि माध्यमों से भय का विस्तार कम करना चाहिए। कठिन समय में सबको संभालने और संबल देने की जरूरत है। आपदाओं में सामाजिक सहकार बहुत जरूरी है। इसी से यह बुरा वक्त जाएगा।

   कोरोना के बहाने जहां एक ओर हिंदुस्तान के कुछ लोगों की लुटेरी मानसिकता सामने आई है, जो आपदा को अवसर मानकर जीवन उपयोगी चीजों से लेकर, दवाओं, आक्सीजन और हर चीज की कालाबाजारी में लग गए हैं। तो दूसरी ओर ऐसे भी उदाहरण हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, सेवा भारती, सिख समाज, मुस्लिम समाज के अलावा अनेक सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक संगठनों ने खुद को सेवा के काम में झोंक दिया है। विश्वविद्यालयों के छात्रों, मेडिकल छात्रों की पहलकदमियों के अनेक समाचार सामने हैं। मुंबई के एक नौजवान अपनी दो महंगी कारें बेच देते हैं तो नागपुर के एक वयोवृध्द नागरिक एक नौजवान के लिए अपना अस्पताल बेड छोड़ देते हैं और तीन दिन बाद उनकी मृत्यु हो जाती है। इन्हीं कर्मवीरों में सोनू सूद जैसे अभिनेता हैं जो लगातार लोगों की मदद में लगे हैं। लोग अपने निजी कमाई से सिलेंडर बांट रहे हैं, खाना और दवाईयां पहुंचा रहे हैं। सेवा कर रहे हैं। यही असली भारत है। इसे पहचानने की जरूरत है। सही मायने में कोरोना संकट ने भारतीयों के दर्द सहने और उससे उबरने की शक्ति का भी परिचय कराया है। यह संकट जितना गहरा है, उससे जूझने का माद्दा उतना ही बढ़ता जा रहा है।

    अकेले स्वास्थ्य सेवाओं और पुलिस के त्याग की कल्पना कीजिए तो कितनी कहानियां मिलेंगी। दिनों और घंटों की परवाह किया बिना अहर्निश सेवा और कर्तव्य करते हुए कोविड पाजीटिव होकर अनेक की मृत्यु। ये घटनाएं बताती हैं कि लूटपाट गिरोह के अलावा ऐसे हिंदुस्तानी भी हैं जो सेवा करते हुए प्राण भी दे रहे हैं। अब सिर्फ सीमा पर बलिदान नहीं हो रहे हैं। पुलिस, चिकित्सा सेवाओं, सफाई सेवाओं, मीडिया के लोग भी अपने प्राणों की आहुति दे रहे हैं। राजनीति की तरफ देखने की हमारी दृष्टि थोड़ी अनुदार है, किंतु यह काम ऐसा है कि आप लोगों से दूर नहीं रह सकते। उप्र में अभी तीन विधायकों की मृत्यु हुई। उसके पूर्व कोरोना दौर में दो मंत्रियों की मृत्यु हुई, जिसमें प्रख्यात क्रिकेटर चेतन चौहान जी का नाम भी शामिल था। अनेक मुख्यमंत्री कोरोना पाजिटिव हुए। अनेक केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक इस संकट से जूझ रहे हैं। मानव संसाधन मंत्री श्री रमेश पोखरियाल निशंक और सूचना प्रसारण मंत्री श्री प्रकाश जावडेकर अभी भी कोरोना से संघर्ष कर रहे हैं। कुल मिलाकर यह एक ऐसी जंग है, जो सबको साथ मिलकर लड़नी है। सही मायने में यह महामारी है। यह अमीर-गरीब, बड़े-छोटे में भेद नहीं करती। इसे जागरूकता, संयम, सावधानी, धैर्य और सामाजिक सहयोग से ही हराया जा सकता है।

    ऐसे कठिन समय में आरोप-प्रत्यारोप,सरकारों के कोसने के अलावा हमें कुछ नागरिक धर्म भी निभाने होंगें। मदद का हाथ बढ़ाना होगा। इस असामान्य परिस्थिति के शिकार लोगों के साथ खड़े होना होगा। न्यूनतम अनुशासन का पालन करना होगा। सही मायने में यह युद्ध जैसी स्थिति है, अंतर यह है कि यह युद्ध सिर्फ सेना के भरोसे नहीं जीता जाएगा। हम सबको मिलकर यह मोर्चा जीतना है। केंद्र और राज्य की सरकारें अपने संसाधनों के साथ मैदान में हैं। हम उनकी कार्यशैली पर सवाल उठा सकते हैं। किंतु हमें यह भी देखना होगा कि छोटे शहरों को छोड़ दें, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं हैं। हमारे दो सबसे बड़े शहर दिल्ली और मुंबई भी इस आपदा में घुटने टेक चुके हैं। जबकि हम चाहकर भी दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों जितनी सुविधाएं भोपाल, नागपुर, रांची, लखनऊ,हैदराबाद, चेन्नई, गुवाहाटी, चंड़ीगड़ और पटना में  नहीं जुटा सकते। हम समस्या पर गर्जन-तर्जन तो बहुत करते हैं, किंतु उसके मूल कारणों पर ध्यान नहीं देते। हमारे संकटों का मूल कारण है हमारी विशाल जनसंख्या, गरीबी, अशिक्षा और देश का आकार। कुछ विद्वान इजराइल और इंग्लैंड माडल अपनाने की सलाह दे रहे हैं। 

   इजराइल की 90 लाख की आबादी, इंग्लैंड 5 करोड़,60 लाख की आबादी में वैक्सीनेशन कर वे अपनी पीठ ठोंक सकते हैं किंतु हिंदुस्तान में 13 करोड़ वैक्सीनेशन के बाद भी हम अपने को कोसते हैं। जबकि वैक्सीनिशेन को लेकर समाज में भी प्रारंभ में उत्साह नहीं था। तो कुछ राजनीतिक दलों के नेता जो खुद तो वैक्सीन ले चुके थे, लेकिन जनता को भ्रम में डाल रहे थे। 139 करोड़ के देश में कुछ भी आसान नहीं है। किंतु जनसंख्या के सवाल पर बात करना इस देश में खतरनाक है,जबकि वह इस देश का सबसे बड़ा संकट है। हम कितनी भी व्यवस्थाएं  खड़ी कर  लें। वह इस देश में नाकाफी ही होंगीं। सरकार कोरोना संकट में 80 करोड़ लोगों के मुफ्त राशन दे रही है। जो किसी भी लोककल्याणकारी राज्य का कर्तव्य है।  लेकिन 80 करोड़ की संख्या क्या आपको डराती नहीं? मुफ्तखोरी, बेईमानी और नीचे तक फैले भ्रष्टाचार ने हमारे राष्ट्रीय चरित्र को नष्ट कर दिया है। आदर्श बचे नहीं हैं। ऐसे में जल्दी और ज्यादा पाने, सरकारी धन को निजी धन में बदलने की होड़ ने सारा कुछ बिखरा दिया है। देश के किसी भी संकट पर न तो देश के राजनीतिक दल, ना ही बुद्धिजीवी एक मत हैं। एक व्यक्ति से लड़ते हुए वे कब देश और उसकी आवश्यक्ताओं के विरूद्ध हो जाते हैं कि कहा नहीं जा सकता।

   कोरोना महामारी ने एक बार हमें अवसर दिया है कि हम अपने वास्ताविक संकटों को पहचानें और उसके स्थाई हल खोजें। राष्ट्रीय सवालों पर एकजुट हों। दलीय राजनीति से परे राष्ट्रीय राजनीति को प्रश्रय दें। कोरोना के विरूद्ध जंग प्रारंभ हो गयी है। समूचा समाज एकजुट होकर इस संकट से जूझ रहा। समाज के दानवीरता और दिनायतदारी की कहानियां लोकचर्चा में हैं। ये बात बताती है भारत तमाम समस्याओं के बाद भी अपने संकटों से दो-दो हाथ करना जानता है। किंतु सवाल यह है कि उसके मूल संकटों पर बात कौन करेगा?

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं।)  

मंगलवार, 4 मई 2021

बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर और मूकनायक के 100 साल

                                                       - प्रो. संजय द्विवेदी

                             महानिदेशक, भारतीय जन संचार संस्थान

                                                                               

                                                         भारतरत्न बाबासाहब भीमराव आंबेडकर

अगर कोई इंसान, हिंदुस्तान के क़ुदरती तत्वों और मानव समाज को एक दर्शक के नज़रिए से फ़िल्म की तरह देखता है, तो ये मुल्क नाइंसाफ़ी की पनाहगाह के सिवा कुछ नहीं दिखेगा।1 बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने आज से 100 वर्ष पूर्व 31 जनवरी 1920 को अपने अख़बार 'मूकनायक' के पहले संस्करण के लिए जो लेख लिखा था, यह उसका पहला वाक्य है। अपनी पुस्तकपत्रकारिता के युग निर्माता : भीमराव आंबेडकरमें लेखक सूर्यनारायण रणसुभे ने इसलिए कहा भी है - कि जाने-अनजाने बाबा साहेब ने इसी दिन से दीन-दलित, शोषित और हजारों वर्षों से उपेक्षित मूक जनता के नायकत्व को स्वीकार किया था।2

     आज के मीडिया को कैसे देखा जाए? यदि इस सवाल का जवाब ढूंढना है, तो 'मूकनायक' के माध्यम से इसे समझना बेहद आसान है। इस संबंध में मूकनायक के प्रवेशांक के संपादकीय में आंबेडकर ने जो लिखा था, उस पर ध्यान देना बेहद आवश्यक है। आंबेडकर लिखते हैं कि 'मुंबई जैसे इलाक़े से निकलने वाले बहुत से समाचार पत्रों को देखकर तो यही लगता है कि उनके बहुत से पन्ने किसी जाति विशेष के हितों को देखने वाले हैं। उन्हें अन्य जाति के हितों की परवाह ही नहीं है। कभी-कभी वे दूसरी जातियों के लिए अहितकारक भी नज़र आते हैं। ऐसे समाचार पत्र वालों को हमारा यही इशारा है कि कोई भी जाति यदि अवनत होती है, तो उसका असर दूसरी जातियों पर भी होता है। समाज एक नाव की तरह है। जिस तरह से इंजन वाली नाव से यात्रा करने वाले यदि जानबूझकर दूसरों का नुक़सान करें, तो अपने इस विनाशक स्वभाव की वजह से उसे भी अंत में जल समाधि लेनी ही पड़ती है। इसी तरह से एक जाति का नुक़सान करने से अप्रत्यक्ष नुक़सान उस जाति का भी होता है जो दूसरे का नुक़सान करती है।3

बाबा साहेब ने जो लिखा, उसको आज के दौर के मीडिया के परिप्रेक्ष्य में देखें, तो स्थितियां क़रीब-क़रीब कुछ वैसी ही दिखाई देती हैं। आज का मीडिया हमें कुछ उस तरह ही काम करता दिखाई देता है, जिसको पहचानते हुए बाबा साहेब ने 'मूकनायक' की शुरुआत की थी। इस समाचार पत्र के नाम में ही आंबेडकर का व्यक्तित्व छिपा हुआ है। मेरा मानना है कि वे 'मूक' समाज को आवाज देकर ही उनके 'नायक' बने। बाबा साहेब ने कई मीडिया प्रकाशनों की शुरुआत की। उनका संपादन किया। सलाहकार के तौर पर काम किया और मालिक के तौर पर उनकी रखवाली की। मूकनायक के प्रकाशन के समय बाबा साहेब की आयु मात्र 29 वर्ष थी। और वे तीन वर्ष पूर्व ही यानी 1917 में अमेरिका से उच्च शिक्षा ग्रहण कर लौटे थे। अक्सर लोग ये प्रश्न करते हैं कि कि एक उच्च शिक्षित युवक ने अपना समाचार-पत्र मराठी भाषा में क्यों प्रकाशित किया? वह अंग्रेजी भाषा में भी समाचार-पत्र का प्रकाशन कर सकते थे। ऐसा करके वह सवर्ण समाज के बीच प्रसिद्धी पा सकते थे और अंग्रेज सरकार तक दलितों की स्थिति प्रभावी ढंग से रख सकते थे। लेकिन बाबा साहेब ने मूकनायकका प्रकाशन वर्षों के शोषण और हीनभावना की ग्रंथि से ग्रसित दलित समाज के आत्म-गौरव को जगाने के लिए किया गया था। जो समाज शिक्षा से दूर था, जिसके लिए अपनी मातृभाषा मराठी में लिखना और पढ़ना भी कठिन था, उनके बीच जाकरअंग्रेजी मूकनायकआखिर क्या जागृति लाता? इसलिए आंबेडकर ने मराठी भाषा में ही समाचार पत्रों का प्रकाशन किया।

अगर हम उनकी पहुंच की और उनके द्वारा चलाए गए सामाजिक आंदोलनों की बात करें, तो बाबा साहेब अपने समय में संभवत: सब से ज़्यादा दौरा करने वाले नेता थे। सबसे खास बात यह है कि उन्हें ये काम अकेले अपने बूते ही करने पड़ते थे। न तो उन के पास सामाजिक समर्थन था, न ही आंबेडकर को उस तरह का आर्थिक सहयोग मिलता था, जैसा कांग्रेस पार्टी को हासिल था। इसके विपरीत, आंबेडकर का आंदोलन ग़रीब जनता का आंदोलन था। उनके समर्थक वो लोग थे, जो समाज के हाशिए पर पड़े थे, जो तमाम अधिकारों से महरूम थे, जो ज़मीन के नाम पर या किसी ज़मींदार के बंधुआ थे। आंबेडकर का समर्थक, हिंदुस्तान का वो समुदाय था, जो आर्थिक रूप से सब से कमज़ोर था। इसका नतीजा ये हुआ कि आंबेडकर को सामाजिक आंदोलनों के बोझ को सिर से पांव तक केवल अपने कंधों पर उठाना पड़ा। उन्हें इस के लिए बाहर से कुछ ख़ास समर्थन हासिल नहीं हुआ। और ये बात उस दौर के मीडिया को बख़ूबी नज़र आती थी। आंबेडकर के कामों को घरेलू ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय मीडिया में भी जाना जाता था। हमें हिंदुस्तान के मीडिया में आंबेडकर की मौजूदगी और उनके संपादकीय कामों की जानकारी तो है, लेकिन ये बात ज़्यादातर लोगों को नहीं मालूम कि उन्हें विदेशी मीडिया में भी व्यापक रूप से कवरेज मिलती थी। बहुत से मशहूर अंतरराष्ट्रीय अख़बार, आंबेडकर के छुआछूत के ख़िलाफ़ अभियानों और महात्मा गांधी से उनके संघर्षों में काफ़ी दिलचस्पी रखते थे। लंदन का 'द टाइम्स', ऑस्ट्रेलिया का 'डेली मर्करी', और  'न्यूयॉर्क टाइम्स', 'न्यूयॉर्क एम्सटर्डम न्यूज़', 'बाल्टीमोर अफ्रो-अमरीकन', 'द नॉरफॉक जर्नल' जैसे अख़बार अपने यहां आंबेडकर के विचारों और अभियानों को प्रमुखता से प्रकाशित करते थे। भारतीय संविधान के निर्माण में आंबेडकर की भूमिका हो या फिर संसद की परिचर्चाओं में आंबेडकर के भाषण, या फिर नेहरू सरकार से आंबेडकर के इस्तीफ़े की ख़बर। इन सब पर दुनिया बारीक़ी से नज़र रखती थी। बाबा साहेब ने अपने सामाजिक आंदोलन को मीडिया के माध्यम से भी चलाया। उन्होंने मराठी भाषा मे अपने पहले समाचार पत्र 'मूकनायक' की शुरुआत क्षेत्रीयता के सम्मान के साथ की थी। मूकनायक के अभियान के दिग्दर्शन के लिए तुकाराम की सीखों को बुनियाद बनाया गया। इसी तरह, आंबेडकर के एक अन्य अख़बार बहिष्कृत भारतका मार्गदर्शन संत ज्ञानेश्वर के सबक़ किया करते थे। आंबेडकर ने इन पत्रिकाओं के माध्यम से भारत के अछूतों के अधिकारों की मांग उठाई। उन्होंने मूकनायक के पहले बारह संस्करणों का संपादन किया, जिसके बाद उन्होंने इसके संपादन की ज़िम्मेदारी पांडुरंग भाटकर को सौंप दी थी। बाद में डी डी घोलप इस पत्र के संपादक बने। हालांकि मूकनायक का प्रकाशन 1923 में बंद हो गया। इसकी खास वजह ये थी कि आंबेडकर, इस अख़बार का मार्गदर्शन करने के लिए उपलब्ध नहीं थे। वो उच्च शिक्षा के लिए विदेश चले गए थे। इसके अलावा अख़बार को न तो विज्ञापन मिल पा रहे थे और न ही उसके ग्राहकों की संख्या इतनी ज़्यादा थी कि उससे अख़बार के प्रकाशन का ख़र्च निकाला जा सके। शुरुआती वर्षों में राजिश्री शाहू महाराज ने इस पत्रिका को चलाने में सहयोग दिया था। आंबेडकर की पत्रकारिता का अध्ययन करने वाले गंगाधर पानतावणे कहते हैं कि, मूकनायक का उदय, भारत के अछूतों के स्वाधीनता आंदोलन के लिए वरदान साबित हुआ था। इसने अछूतों की दशा-दिशा बदलने वाला विचार जनता के बीच स्थापित किया।4

मूकनायक का प्रकाशन बंद होने के बाद, आंबेडकर एक बार फिर से पत्रकारिता के क्षेत्र में कूदे, जब उन्होंने 3 अप्रैल 1927 को 'बहिष्कृत भारत' के नाम से नई पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया। ये वही दौर था, जब आंबेडकर का महाद आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा था। बहिष्कृत भारत का प्रकाशन 15 नवंबर 1929 तक होता रहा। कुल मिला कर इसके 43 संस्करण प्रकाशित हुए। हालांकि, बहिष्कृत भारत का प्रकाशन भी आर्थिक दिक़्क़तों की वजह से बंद करना पड़ा। मूकनायक और बहिष्कृत भारत के हर संस्करण की क़ीमत महज़ डेढ़ आने हुआ करती थी, जबकि इस की सालाना क़ीमत डाक के ख़र्च को मिलाकर केवल 3 रुपए थी। इसी दौरान समता नाम के एक और पत्र का प्रकाशन आरंभ हुआ, जिससे बहिष्कृत भारत को नई ज़िंदगी मिली। उसे 24 नवंबर 1930 से 'जनता' के नए नाम से प्रकाशित किया जाने लगा। जनता, भारत में दलितों के सब से लंबे समय तक प्रकाशित होने वाले अखबारों में से है, जो 25 वर्ष तक छपता रहा था। जनता का नाम बाद में बदल कर, 'प्रबुद्ध भारत' कर दिया गया था। ये सन् 1956 से 1961 का वही दौर था, जब आंबेडकर के आंदोलन को नई धार मिली थी।

     आंबेडकर ने 65 वर्ष 7 महीने और 22 दिन की अपनी जिंदगी में करीब 36 वर्ष तक पत्रकारिता की।मूकनायकसे लेकरप्रबुद्ध भारततक की उनकी यात्रा, उनकी जीवन-यात्रा, चिंतन-यात्रा और संघर्ष-यात्रा का भी प्रतीक है। मेरा मानना है किमूकनायक’... ‘प्रबुद्ध भारतमें ही अपनी और पूरे भारतीय समाज की मुक्ति देखता है। आंबेडकर की पत्रकारिता का संघर्षमूकनायकके माध्यम से मूक लोगों की आवाज बनने से शुरू होकर, ‘प्रबुद्ध भारतके निर्माण के स्वप्न के साथ विराम लेता है।प्रबुद्ध भारतयानी एक नए भारत का निर्माण। इस संबंध में मैं प्रोफेसर सतीश प्रकाश का ज़िक्र जरूर करना चाहूंगा। पिछने दिनों एक कार्यक्रम में मुझे उन्हें सुनने का अवसर मिला, जहां उन्होंने एक बहुत महत्वपूर्ण जानकारी साझा की। ये जानकारी थीदलितशब्द की उत्पत्ति के बारे में। प्रोफेसर प्रकाश ने बताया किदलितशब्द की उत्पति हिंदी से नहीं हुई। असल में 'जे जे मोसले' वर्ष 1832 में मराठी भाषा में इसका प्रयोग करते थे और जो शब्द इस समाज की पहचान के लिए बनाए गए थे, उस से समाज खुद नफरत करता था। इसलिए अंग्रेजी साहित्य में दलितों का वर्णन करने के लिए इस शब्द की उत्पत्ति हुई। इसलिए इसके मायने भी अंग्रेजी जैसे हैं। दरअसल ये दलित नहीं, बल्किद लिटहै। लिट का अर्थ होता है झलना। यानि वे लोग जो अंधेरे से उजाले की ओर चले गए, वेद लिटकहलाए। इसलिए प्रोफेसर सतीश प्रकाश का मानना है किदलितएक ब्रांड है, जो हर कोई नहीं बन सकता। और इसे आगे बढ़ाने में बाबा साहेब का अहम योगदान है। आंबेडकर के विचारों का फलक बहुत बड़ा है। ये सही है कि उन्होंने वंचित और अछूत वर्ग के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी, लेकिन उनका मानवतावादी दष्टिकोण हर वर्ग को छूता है। यह केवल शब्दों का अंतर है। हम जनसरोकारों की पत्रकारिता की बात तो करते हैं, लेकिन जैसे ही उस पर आंबेडकरवादी विचारधारा का नाम जोड़ दिया जाता है, तो वह जाति विशेष की हो जाती है।5 मेरा मानना है कि बाबा साहेब को एक तंग गली के रूप में देखना ठीक वैसा ही है, जैसे गंगा को एक गली में ही बहते देखना।

प्रसिद्ध समाजशास्त्री गेल ओमवेट का मानना है कि आंबेडकर का बुनियादी संघर्ष, एक अलग स्वाधीनता का संघर्ष था। यह संघर्ष भारतीय समाज के सर्वाधिक संतप्त वर्ग की मुक्ति का संघर्ष था। उनका स्वाधीनता संग्राम, उपनिवेशवाद के विरुद्ध चलाए जा रहे स्वाधीनता संग्राम से बड़ा और गहरा था, क्योंकि उनकी नजर नवराष्ट्र के निर्माण पर थी6 आंबेडकर का मानना था कि पत्रकारिता का पहला कर्तव्य है, बिना किसी प्रयोजन के समाचार देना, बिना डरे उन लोगों की निंदा करना, जो गलत रास्ते पर जा रहें हों, फिर चाहे वे कितने ही शक्तिशाली क्यों न हों और पूरे समुदाय के हितों की रक्षा करने वाली नीति को प्रतिपादित करना।

   मूकनायकसे लेकरप्रबुद्ध भारततक बाबा साहब की पत्रकारिता की यात्रा एक संकल्प को सिद्ध करने का वैचारिक आग्रह है। अपनी पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने दलितों एवं सवर्णों के मध्य बनी भेद-भाव, ऊंच-नीच और सामाजिक विषमता की खाई को पाटने का काम किया। मुझे लगता है कि उनकी पत्रकारिता में संपूर्ण समाज के लिए प्रबोधन है, उसे केवल दलित पत्रकारिता का सीमित कर देना अन्यायपूर्ण होगा। आज से सौ साल पहले पत्रकारिता पर अंग्रेजी हुकूमत का दबाव था। दबाव से कई चीजें प्रभावित होती थीं। सत्ता के खिलाफ बगावत के सुर, शब्दों से भी फूटते थे। आजाद भारत में यह दबाव धीरे धीरे मार्केट ने ले लिया है। मार्केट का प्रभाव अप्रत्यक्ष ज्यादा है। यह कोई नई बात नहीं है कि आज जर्नलिज्म में मार्केट के दबाव के कारण कंटेट प्रभावित होने लगा है। ये चर्चा भी नई नहीं है कि इस मार्केट को नियंत्रित करने वाले कौन हैं, उनका मकसद क्या है। लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जहां पब्लिक है, वहीं मीडिया है और जहां मीडिया है, वही मार्केट है। उदारीकरण के दौर के बाद से ही मीडिया का संक्रमण काल चालू हुआ। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के दौर में कई प्रयोग हुए। उस वक्त ये कहा जाता था कि प्रिंट मीडिया का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। जैसे ही इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की साख पर बट्टा लगना शुरू हुआ, पब्लिक ने सुबह छपे हुए अखबार में प्रामाणिकता देखना शुरू किया। आज जनता होशियार हो चुकी है। उसे बहुत देर तक भ्रम में नहीं डाला जा सकता है। अब चंद मिनटों में सूचना लाखों करोड़ों लोगों के पास है। पत्रकारिता के इस पूरे फलक पर ही हमें आज अंबेडकरवादी पत्रकारिता के सरोकारों को समझना चाहिए।

      मीडिया के पराभव काल की मौजूदा परिस्थितियों में आंबेडकर का जीवन हमें युग परिवर्तन का बोध कराता है। पत्रकारिता में मूल्यविहीनता के सैलाब के बीच अगर बाबा साहेब को याद किया जाए, तो इस बात पर भरोसा करना बहुत कठिन हो जाता है कि पत्रकारिता जैसे क्षेत्र में कोई हाड़मांस का इंसान ध्येयनिष्ठा के साथ अपने पत्रकारीय जीवन की यात्रा को जीवंत दर्शन में भी तब्दील कर सकता है। इस संदर्भ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक दत्तोपन्त ठेंगड़ी ने अपनी पुस्तकडॉ. आंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रामें लिखा है, कि भारतीय समाचार-पत्र जगत की उज्ज्वल परंपरा है। परंतु आज चिंता की बात यह है कि संपूर्ण समाज का सर्वांगीण विचार करने वाला, सामाजिक उत्तरदायित्व को मानने वाला, समाचार पत्र को लोकशिक्षण का माध्यम मानकर तथा एक व्रत के रूप में उपयोग करने वाला आंबेडकर जैसा पत्रकार मिलना दुर्लभ हो रहा है।7 आंबेडकर की पत्रकारिता हमें ये सिखाती है कि जाति, वर्ण, धर्म, संप्रदाय, क्षेत्र, लिंग, वर्ग जैसी शोषणकारी प्रवृत्तियों के प्रति समाज को आगाह कर उसे इन सारे पूर्वाग्रहों और मनोग्रंथियों से मुक्त करने की कोशिश ईमानदारी से की जानी चाहिए और यही मीडिया का मूल मंत्र होना चाहिए। पत्रकारों की अपनी निजी राय हो सकती है, लेकिन ख़बर बनाते या दिखाते समय उन्हें अपनी राय से दूर रहना चाहिए, क्योंकि रिपोर्टिंग उनके एजेंडे का आईना नहीं है, बल्कि अपने पाठकों के साथ पेशेवर क़रार का हिस्सा है। हमारे देश का मीडिया बहुत समय पहले से ही अपनी इस पेशेवर भूमिका से हटकर कुछ और ही दिखाने या लिखने लगा है। 100 साल पहले बाबा साहेब ने एक अस्पृश्य समाज की आवाज़ को देश के सामने लाने के लिए 'मूकनायक' की शुरुआत की थी, और आज देश को फिर ऐसे ही 'नायक' की ज़रूरत है, जो जनता के मुद्दों को उठाये, जनता की आवाज़ को बुलंद करे, जिसे व्यवस्थावादी मीडिया ने 'मूक' कर दिया है।

संदर्भ:

1.   https://www.bbc.com/hindi/india-51301513

2.   रणसुभे सूर्यनारायण; पत्रकारिता के युग निर्माता : भीमराव आंबेडकर (2017), प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली

3.   https://www.satyahindi.com/media/ambedkar-mooknayak-100-years-against-india-media-propaganda-journalism-society-107210.html

4.   Paswan Sanjay and Paramanshi Jaideva; Encyclopaedia of Dalits in India: Social justice (2002),  Kalpaz Publications, New Delhi

5.   https://twocircles.net/2020feb02/434235.html

6.   Omvedt Gail; Ambedkar: Towards An Enlightened India (2004), Penguin Books, London

7.   ठेंगड़ी दत्तोपन्त; डॉ. आंबेडकर और सामाजिक क्रांति की यात्रा (2015), लोकहित प्रकाशन, नई दिल्ली