गुरुवार, 22 अक्तूबर 2020

“भारत का भारत से परिचय कराने की जरुरत”

    साक्षात्कारकर्ता: सौरभ कुमार, विश्व संवाद केंद्र, मध्य प्रदेश

         

                                                                  

जब हम आपके पत्रकारिता के सफर को देखते हैं, तो उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर बस्ती से आपके मन में पत्रकारिता की रुचि जागी। आप पत्रकारिता की पढ़ाई करने के लिए मध्य प्रदेश आए। आपने माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में ही अपनी पत्रकारिता की पढ़ाई की। उसके बाद आपने मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ को अपनी कर्मभूमि बनाया। और जिस संस्थान से आप पढ़े, उसी संस्थान के सर्वोच्च पद पर पहुंचे। तो उत्तर प्रदेश के एक छोटे से शहर से आईआईएमसी तक का आपका सफर कैसा रहा? इस सफर के बारे में हमें विस्तार से बताइये।

मुझे ऐसा लगता है कि हर युवा को और हर विद्यार्थी को सपने देखने चाहिए। अपने सपनों को पूरा करने के लिए दौड़ लगानी चाहिए और अपेक्षित परिश्रम भी करना चाहिए। अगर आप सपने देखते हैं और उन सपनों को पूरा करने का आपके अंदर जज्बा है, तो सपने पूरे भी होते हैं। मैं ये नहीं कह रहा हूं कि मैंने कुलपति बनने का या आईआईएमसी के महानिदेशक बनने का सपना देखा था, मैंने एक अच्छा पत्रकार बनने का और किसी दैनिक समाचार पत्र का संपादक बनने का सपना देखा था। और ये ईश्वर की कृपा है कि बहुत कम उम्र में मेरा वो सपना पूरा हो गया। मैं बहुत कम आयु में संपादक बना। स्वदेश, हरिभूमि, दैनिक भास्कर जैसे महत्वपूर्ण समाचार पत्रों का मैं संपादक रहा। इसके अलावा छत्तीसगढ़ के पहले सैटेलाइट चैनल जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ का इनपुट एडिटर और एंकर रहा। तो मेरा मानना है कि कई बार प्रकृति आपका साथ देती है, लेकिन सपने तो आपको ही देखने हैं और परिश्रम भी आपको ही करना है। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति के लिए मेरा संदेश है कि सपने देखें और उन्हें पूरा करने के लिए अपेक्षित परिश्रम करें। और आप भरोसा करें कि इसमें ईश्वर आपका साथ निश्चित रूप से देगा।

पत्रकारिता के क्षेत्र में जितने भी बच्चे आते हैं, वे अपने सपने लेकर आते हैं। सबके अपने ख्वाब होते हैं। लेकिन खासतौर पर कोरोना काल में एक डर बच्चों के मन में बैठा है, कि उन्हें पत्रकारिता की पढ़ाई करने के बाद नौकरी मिलेगी या नहीं। ये डर किस हद तक सही है और जो पत्रकारिता की शिक्षा है वो इस कोरोना के बाद किस तरह बदलेगी? पत्रकारिता में रोजगार किस तरह बदलेगा? और पत्रकारिता के अध्ययन को ज्यादा रोजगारमूलक बनाने के लिए हमें क्या परिवर्तन करने चाहिए?

समय- समय पर अनेक परिस्थितियां ऐसी आती हैं, जिसमें मानवता और मनुष्य, दोनों की परीक्षा होती है। मनुष्य का काम है साहस के साथ उसका मुकाबला करना। यह भी परीक्षा की घड़ी है। मेरा मानना है कि यह मनुष्य के विवेक, उसके साहस और उसकीजिजीविषा की परीक्षा है। कोरोना कोई स्थायी संकट नहीं है। दुनिया में तमामा ऐसे संकट आए और उसके बाद लगा कि सब कुछ खत्म हो जाएगा, पर ऐसा कुछ भी नहीं होता। अंत में विजय मनुष्यता की ही होती है। यानी जीतता मनुष्य ही है। यह सामयिक संकट है, तात्कालिक संकट है, आज आया है तो कल टल जाएगा। और कितने भी संकट हों, कितनी भी विपदाएं हों, अंत में मनुष्य ही जीतता है। इसलिए हमें इस बात का भरोसा रखना होगा कि हम इन संकटों से मुकाबला करने की अपनी हिम्मत छोड़ें। अगर हम हिम्मत बनाकर रखेंगे, तो निश्चित रूप से हमें सफलता मिलेगी।

कोराना हमें तकनीक के दौर में दो कदम आगे लेकर गया है। ऐसे में आपका क्या मानना है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में कौनसे नए रोजगार सृजित होने की संभावना है?

अगर आप देखें तो परिवर्तन बहुत पहले ही शुरू हो चुका था। 1991 के बाद मीडिया का ध्यान धीरे- धीरे डिजिटल की तरफ बढ़ने लगा। आज एक मीडिया कन्वर्जेंस का समय हमें दिख रहा है। यानी एक साथ आपको अनेक माध्यमों पर सक्रिय होना पड़ता है। और अगर हम 1991 के बाद के 30 सालों की इस यात्रा को देखें, तो इन 30 वर्षों की यात्रा में डिजिटल की तरफ मीडिया का झुकाव ज्यादा बढ़ा है। यानी आपको एक साथ कई प्लेटफॉर्म पर सक्रिय होना पड़ता है।

अगर आप प्रिंट मीडिया हाउस हैं, तो आपको प्रिंट के साथ साथ टीवी, रेडियो और डिजिटल पर भी रहना पड़ेगा और इसके अलावा ऑन ग्राउंड इवेंट्स भी करने पड़ेंगे। यानी एक साथ आप पांच विधाओं को साधते हैं। ऑन ग्राउंड इवेंट्स आज इसलिए महत्वपूर्ण हो गए हैं, क्योंकि आपको समाज के संपर्क में रहना है। आपको एक कहावत याद होगी, ''जो दिखता है, वो बिकता है'' यानी आज आपको लगातार अपनी मौजूदगी बनाए रखनी है।

अगर अखबार सिर्फ सोचे की मैं 24 घंटे में सिर्फ एक बार आउंगा और मेरी मौजूदगी बनी रहेगी, तो नहीं बनी रह सकती। उसे टीवी, रेडियो या डिजिटल में शिफ्ट होना पड़ेगा, ताकि 24 घंटे उसकी मौजूदगी बनी रहे। वो समय अब चला गया कि सिर्फ एक विधा से आपका काम चल जाएगा। आज आपको इन सभी माध्यमों पर एक साथ सक्रिय होना पड़ेगा और यही मीडिया की इस समय ताकत है। मैं यह बात पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि आज जो मीडिया कन्वर्जेंस के मंत्र को समझ गया, वही आगे सफल होगा। और जो मीडिया घराने पुराने ढर्रे पर चल रहे हैं, उनका समय धीरे धीरे खत्म होता जा रहा है।

समाज में आज एक ऐसा वर्ग है, जो बार बार पत्रकारिता पर टिप्पणी कर रहा है। इन लोगों का कहना है कि पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है। इस टिप्पणी से आप कितने सहमत हैं?

हर प्रोफेशन में थोड़े से भटकाव होते हैं और थोड़ी सी अच्छाइयां भी होती हैं। किसी प्रोफेशन के बारे में आप ये नहीं कह सकते कि इस पेशे के लोग शत- प्रतिशत अपने काम को पूरी ईमानदारी से कर रहे हैं। आप बताइये कि समाज का ऐसा कौन सा वर्ग है, जो शत- प्रतिशत ईमानदार है। ऐसे पेशे में काम करने वाले, लोग जो विधि की शपथ लेकर प्रोफेशन को शुरू करते हैं, वो भी अपने काम को पूरी ईमानदारी से नहीं करते। ऐसी स्थिति में आप देखिए कि पत्रकार तो कोई भी शपथ नहीं लेता, फिर भी अपने धर्म को निभाता है। इसलिए ये कहना गलत है कि पत्रकार एवं पत्रकारिता अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है।

मेरा ये मानना है कोई भी चीज पूरी खराब नहीं होती और पूरी अच्छी नहीं होती। हर पेशे में बहुत अच्छे लोग भी हैं और बहुत बुरे लोग भी हैं। तो पत्रकार सिर्फ अच्छे ही अच्छे कैसे हो सकते हैं। जैसा हमारा समाज होता है, वैसे ही हमारे समाज के सभी वर्गों के लोग होते हैं। उसी तरह का मीडिया भी है। तो हमें अपने समाज के शुद्धिकरण का प्रयास करना चाहिए। मीडिया बहुत छोटी चीज है और समाज बहुत बड़ी चीज है। मीडिया समाज का एक छोटा सा हिस्सा है। मीडिया ताकतवर हो सकता है, लेकिन समाज से ताकतवर नहीं हो सकता। राजनीति ताकतवर हो सकती है, लेकिन समाज से ताकतवर कभी नहीं हो सकती। यानी सबसे बड़ा समाज है। समाज को अगर हम स्वस्थ करेंगे, समाज की शक्ति को जगाने का प्रयास करेंगे, समाज की सामूहिकता के लिए काम करेंगे, तो अपने आप समाज में एक स्वस्थ वातावरण का निर्माण होगा। ऐसे समाज में अच्छे डॉक्टर होंगे, अच्छे शिक्षक होंगे और अच्छे पत्रकार भी होंगे। यही तो 'रामराज्य' की कल्पना है।

रामायण का एक दोहा है 'दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज काहू नहीं व्यापा' यानी 'रामराज्य' में दैहिक, दैविक और भौतिक ताप किसी को नहीं व्यापते। इसका ये मतलब नहीं है कि रामराज्य में वैद्य नहीं थे। पर वैद्य ईमानदारी से अपना काम करते थे। शिक्षक ईमानदारी से अपना कार्य करते थे। तो हमें भी ये प्रयास करना होगा कि कि हम अच्छा समाज बनाएं। अगर हम अच्छा समाज बनाएंगे, तो अच्छा मीडिया बनेगा। याद रखिए कि मीडिया अच्छा हो जाएगा और समाज बुरा रहेगा, ऐसा नहीं हो सकता। राजनीति बुरी रहेगी और समाज अच्छा रहेगा, ऐसा भी नहीं हो सकता। इसलिए मेरा मानना हैकि समाज अच्छा होगा, तो समाज जीवन के सभी क्षेत्र अच्छे होंगे।

आज जो पत्रकारिता के संस्थान है, उनका ध्यान इस विषय पर है कि अपनी शिक्षा को कैसे ज्यादा से ज्यादा रोजगारमूलक बनाएं। लेकिन इस शिक्षा में हम मूल्यों को किस तरह शामिल कर सकते हैं? हम कैसे छात्रों को इस तरीके से तैयार कर सकते हैं, कि वे मुश्किल से मुश्किल परिस्तिथि में भी अपने मूल्यों से नहीं डिगें?

एक शब्द है, जिसे बहुत लांछित किया गया है, जबकि मेरा मानना है कि वो शब्द बहुत अच्छा है। वो शब्द है 'प्रोफेशनलिज्म' प्रोफशनलिज्म बहुत अच्छी चीज है। अगर हम सब प्रोफशनल हो जाएं, प्रोफशनलिज्म के नियमों को मानने लगें, तो ये कितनी अच्छी चीज है। दरअसल मीडिया में प्रोफशनलिज्म आया ही नहीं है। मीडिया में थोड़ा सा बाजारूपन गया, थोड़ी सी व्यावसायिकता बढ़ गई, लेकिन प्रोफेशनलिज्म नहीं आया। प्रोफेशनलिज्म का आशय ये है कि अपने काम को पूरी ईमानदारी और प्रामाणिकता के साथ करना और उस काम का उचित मूल्य मिलना।

   मैं ये अपेक्षा करता हूं कि पत्रकारिता के अंदर प्रोफेशनलिज्म विकसित होगा और जैसे जैसे प्रोफेशनलिज्म विकसित होगा, वैसे वैसे अन्य व्यवसायों की तरह पत्रकारिता का सम्मान भी बढ़ेगा, इसमें भत्ते भी अच्छे होंगे और नियमन होगा। जो कार्य मैनेजमेंट के लोग कर पा रहे हैं, जो कार्य अन्य क्षेत्रों के लोग कर पा रहे हैं, वो हम क्यों नहीं कर पा रहे हैं। इसका कारण है कि मीडिया एक असंगठित क्षेत्र है। आने वालों की भीड़ है, लेकिन कौन रहा है, इसका कोई चैक पाइंट नहीं है। इसलिए मीडिया शिक्षकों को भी एक प्रोफेशनल की तरह सोचना होगा। मीडिया में वही लोग आएं, जो इस काम के प्रति प्रतिबद्ध हैं। कम से कम इस प्रोफेशन की मर्यादा रख सकते हों। और इन लोगों को अपेक्षित शिक्षा और प्रशिक्षण प्राप्त हो। हमें आज ऐसे लोगों की आवश्यकता है जो संचार के असर और उसके प्रभाव को जानते हों। इस परिप्रेक्ष्य में कुछ नियमन पत्रकार संगठनों को भी करना होगा, वरना स्थितियां बदतर होती जाएंगी।

जब पत्रकारिता में मूल्यों की बात आती है, तो एक बड़ा वर्ग है जो ये कहता है कि नारद मुनि पहले पत्रकार थे और हमें उनके मूल्यों को ग्रहण करना चाहिए। मगर इसके साथ समाज का एक वर्ग ऐसा भी है, जो जब भी किसी प्रोफेशन का भारतीय दर्शन या भारतीय मूल्यों से जोड़ा जाता है, तो उसका विरोध करता है। जबकि पंडित युगुल किशोर शुक्ल ने जब भारत के पहले हिंदी समाचार पत्र 'उदन्त मार्तण्ड' की शुरुआत की थी, तो उन्होंने इसके लिए लिए नारद जयंती का दिन चुना था। तो पत्रकारिता के मूल्यों को भारतीय दर्शन से जोड़ने के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?

किसी भी समाज की एक चेतना होती है, जिससे स्वयं को जोड़े रखता है। आप हमारे आजादी के आंदोलन के नायकों को देखिए, वो कहां से अपने आप को जोड़ते हैं। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू को हम बहुत ही प्रोग्रेसिव व्यक्ति मानते हैं, लेकिन उनकी सबसे प्रिय नदी गंगा थी। आप महात्मा गांधी को देखिए, दीनदयाल उपाध्याय को देखिए, राम मनोहर लोहिया को देखिए, ये सभी लोग अपनी संस्कृति से जुड़े हुए थे।। लोहिया जी ने तो चित्रकूट में रामायण मेले की शुरुआत करवाई थी। उन्होंने राम और कृष्ण पर किताबें लिखी थीं। इसलिए मेरा मानना है कि अगर हम अपने इतिहास बोध से या अपने सांस्कृतिक बोध से कट जाते हैं, तो हमारे पास क्या बचेगा। हमें इसका आहृवान करना पड़ेगा कि आखिर हमारा इतिहास क्या है, हमारी परंपरा क्या है। मैथिलीशरण गुप्त ने भी लिखा है, हम कौन थे, क्या हो गये हैं, और क्या होंगें अभी, आओ विचारें आज मिल कर, यह समस्याएं सभी

    हिन्दुस्तान का जो सबसे बड़ा संकट है, वो हीनता का है। हम भूल गए हैं कि हम क्या थे। इसलिए हमारी ये कोशिश होनी चाहिए कि भारत का भारत से परिचय करवाएं। मेरा मानना है कि भारत को चीन बनने की आवश्यकता नहीं है। अमेरिका या ब्रिटेन जैसे देश हमारे आदर्श नहीं हैं। हम तो अपनी सॉफ्ट स्किल्स के आधार पर इस दुनिया को सुखमय बनाने के लिए जाने जाते हैं। हम ऐसा भी नहीं मानते कि हम सर्वश्रेष्ठ देश हैं। हम ये भी नहीं कहते कि सबसे महान संस्कृति हमारी है। बल्कि हम तो ये मानते हैं कि हम भी अच्छे हैं और आप भी अच्छे हो सकते हैं। हमारा अतिवादी रवैया नहीं है। हम अपने कौशल के आधार पर, अपने ज्ञान के आधार पर, अपनी विचारधारा के आधार पर आगे बढ़ना चाहते हैं।

  लेकिन अगर हमें अपनी संस्कृति, अपनी परंपरा, भारत के मूल्य और मानबिंदुओं से नफरत है, तो हमें ये विचार करना होगा कि हमारी शिक्षा में कहीं कहीं कोई समस्या अवश्य है। आज हम अपने ही प्रतीकों से नफरत करते हैं, हमें अपने ही लोगों से नफरत है, हम अपने ही लोगों को घृणा की दृष्टि से देखते हैं। हमें अपनी ये सोच बदलने की जरुरत है। मेरा मानना है कि हमारी इस सोच का कारण हमारी शिक्षा पद्धति में जो पश्चिमी प्रभाव है, वह है। या फिर बहुत लंबे समय तक जो हम गुलाम रहे हैं, उस गुलामी के असर ने हमारे मन में हीनता के भाव को बहुत ज्यादा भर दिया है। लेकिन अब उस हीनता से हमें धीरे- धीरे मुक्ति भी मिल रही है। आप देखिए कि महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, राम मनोहर लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय जैसे लोग इस बात को बहुत पहले ही समझ गए थे। इसलिए हमें भी इस हीनता से बाहर आना होगा और भारत को भारत से परिचित कराना होगा। भारत जिस दिन भारत से परिचित हो जाएगा, उस दिन इसके सारे संकट समाप्त हो जाएंगे।

आज ऐसा कहा जाता है कि परंपरागत मीडिया की लड़ाई सोशल मीडिया के साथ है। लेकिन सोशल मीडिया में संवाद का स्तर काफी गिरता जा रहा है। और ये संवाद का स्तर सिर्फ उन लोगों की वजह से नहीं गिर रहा है, जो आम उपयोगकर्ता हैं, बल्कि इसका हिस्सा मीडिया और समाज के जाने-माने लोग भी हैं। तो क्या संवाद की शुचिता को बनाए रखने के लिए सोशल मीडिया पर रेगुलेशन किया जाना चाहिए? या फिर कोई और रास्ता है, जो ज्यादा बेहतर तरीके से इस स्थिति को संभाल सकता है?

देखिए हम एक लोकतांत्रिक देश में रहते हैं और लोकतंत्र में रहते हुए सेंसरशिप जैसी बातों का समर्थन करना मैं ठीक नहीं समझता। लेकिन इस संबंध में दो शब्द मेरे ध्यान में आते हैं। एक शब्द है 'जर्नलिस्ट' और दूसरा शब्द है 'एक्टिविस्ट' अभी समस्या ये हो रही है कि जर्नलिस्ट के भेष में एक्टिविस्ट मीडिया में प्रवेश कर गए हैं। एक्टिविस्ट होना बुरा है, ऐसा मैं नहीं मानता। लेकिन मेरा कहना है कि अगर आप एक्टिविस्ट हैं, तो उसी भूमिका में रहिये, जर्नलिस्ट की भूमिका में मत आइये। जर्नलिस्ट बनकर आप जो भारत विरोधी विचारों या अपने निजी विचारों का समर्थन करते हैं, वो एक जर्नलिस्ट का काम नहीं है। जर्नलिस्ट और एक्टिविस्ट, दो अलग- अलग भूमिकाएं हैं। आप तय करें कि आप क्या हैं। तो अगर आप एजेंडा वाली पत्रकारिता करते हैं या अपना एजेंडा लेकर पत्रकारिता में आते हैं, तो मुझे लगता है कि आप पत्रकारिता का नुकसान करते हैं और मीडिया की विश्वसनीयता का क्षरण करते हैं। और तथ्यों को तोड़ने- मरोड़ने के आप अपराधी हैं। इसलिए आपको ऐसा करने से बचना चाहिए। 



(4 जुलाई 2020 को विश्व संवाद केंद्र, मध्य प्रदेश के यूट्यूब चैनल पर प्रकाशित)

मंगलवार, 20 अक्तूबर 2020

भारतीय भाषाओं को बचाने का समय : प्रो. द्विवेदी



नई दिल्ली, 20 अक्टूबर । ''पूरे विश्व में लगभग 6000 भाषाओं के होने का अनुमान है। भाषाशास्त्रियों की भविष्यवाणी है कि 21वीं सदी के अंत तक इनमें से केवल 200 भाषाएं जीवित बचेंगी और खत्म हो जाने वाली भाषाओं में भारत की सैकड़ों भाषाएं होंगी।'' यह विचार भारतीय जन संचार संस्थान (आईआईएमसी) के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने मंगलवार को हिंदी पखवाड़े के दौरान आयोजित की गई प्रतियोगिताओं के पुरस्कार वितरण समारोह में व्यक्त किए। कार्यक्रम में संस्थान के अपर महानिदेशक श्री सतीश नम्बूदिरीपाद, प्रोफेसर आनंद प्रधान एवं भारतीय सूचना सेवा की पाठ्यक्रम निदेशक श्रीमती नवनीत कौर भी मौजूद थीं।


समारोह में प्रो. द्विवेदी ने सभी विजेताओं को प्रमाण पत्र देकर सम्मानित किया। कोविड-19 महामारी के संबंध में सरकार की ओर से जारी दिशानिर्देशों का अनुपालन करते हुए इस कार्यक्रम में केवल पुरस्कार विजेताओं को ही आमंत्रित किया गया।

इस अवसर पर प्रो. द्विवेदी ने कहा कि अगर आप भाषा विज्ञान के नजरिए से देखें, तो हिंदी एक पूर्ण भाषा है। हिंदी की देवनागरी लिपि पूर्णत: वैज्ञानिक है। हिंदी भाषा में जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है, जिसके कारण संवाद और उसके लेखन मे त्रुटियां न के बराबर होती हैं। उन्होंने कहा कि भाषा मनुष्य की श्रेष्ठतम संपदा है। सारी मानवीय सभ्यताएं भाषा के माध्यम से ही विकसित हुई हैं।

प्रो. द्विवेदी ने कहा कि वर्ष 2040 तक भारत विश्व की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति बन चुका होगा। आप सोचिए कि उस भारत के अधिकतर नागरिक अपने जीवन के सारे प्रमुख काम किस भाषा में कर रहे होंगे? वर्तमान में जिस तरह अंग्रेजी का चलन तेजी से बढ़ रहा है, क्या उसके बीच हिंदी या अन्य भारतीय भाषाओं को स्थान मिलेगा?

प्रो. द्विवेदी ने कहा कि आईआईएमसी ने इस वर्ष हिंदी पखवाड़े का आयोजन भारतीय भाषाओं के बीच संवाद बढ़ाने की भावना के साथ किया था। इस वर्ष हमारा ये प्रयास था कि हिंदी पखवाड़ा संवाद और विमर्श का प्रबल माध्यम सिद्ध हो।

हर वर्ष की तरह इस बार भी हिंदी पखवाड़े के तहत भारतीय जन संचार संस्थान में हिंदी पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं की प्रदर्शनी, निबंध प्रतियोगिता, हिन्दी टिप्पणी एवं प्रारूप लेखन प्रतियोगिता, हिन्दी काव्य पाठ प्रतियोगिता, हिन्दी टंकण प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था। पखवाड़े के दौरान भारतीय सूचना सेवा प्रशिक्षुओं के लिए एक कार्यशाला का आयोजन भी किया गया, ताकि उन्हें रोजमर्रा के सरकारी कामकाज को हिंदी में करने के लिए प्रेरित और प्रशिक्षित किया जा सके।

कार्यक्रम का संचालन भारतीय जन संचार संस्थान की छात्र संपर्क अधिकारी विष्णुप्रिया पांडेय ने किया। समारोह के अंत में संस्थान के राजभाषा विभाग की परामर्शदाता श्रीमती रीता कपूर ने सभी का धन्यवाद दिया।




रविवार, 18 अक्तूबर 2020

IIMC के DG प्रो.संजय द्विवेदी बोले- दो आधारों पर खड़ी है आज की पत्रकारिता

 

मेरे जीवन में किस्से बहुत नहीं हैं, संघर्ष तो बिल्कुल नहीं। मेरे पास यात्राएं हैं, कर्म हैं और उससे उपजी सफलताएं हैं। बहुत संघर्ष की कहानियां नहीं हैं, जिन्हें सुना सकूं।

 


   प्रो.संजय द्विवेदी देश के जाने-माने पत्रकारसंपादकलेखकसंस्कृतिकर्मी और मीडिया प्राध्यापक हैं। अनेक मीडिया संगठनों में महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां संभालने के बाद वे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालयभोपाल में 10 वर्ष मास कम्युनिकेशन विभाग के अध्यक्ष, विश्वविद्यालय के कुलपति और कुलसचिव भी रहे। राजनीतिकसामाजिक और मीडिया के मुद्दों पर निरंतर लेखन से उन्होंने खास पहचान बनाई है। अब तक 25 पुस्तकों का लेखन और संपादन करने वाले प्रो.  द्विवेदी को अनेक संगठनों ने मीडिया क्षेत्र में योगदान के लिए सम्मानित किया है। हाल ही में उन्हें देश के प्रतिष्ठित मीडिया प्रशिक्षण संस्थान- भारतीय जनसंचार संस्थान का महानिदेशक नियुक्त किया गया है। भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC) के 56वें स्थापना दिवस पर समाचार4मीडिया ने उनसे खास बातचीत की - 

आपने अब तक तमाम मीडिया संस्थानों और शैक्षणिक संस्थानों में अपनी सेवाएं दी हैंअपने अब तक के सफर के बारे में कुछ बताएं?

मैं खुद को आज भी मीडिया का विद्यार्थी ही मानता हूं।  पत्रकारिता में मेरा सफर 1994 में दैनिक भास्कर, भोपाल से प्रारंभ हुआ। उसके बाद स्वदेश-रायपुर, नवभारत- मुंबई, दैनिक भास्कर-बिलासपुर, दैनिक हरिभूमि-रायपुर, इंफो इंडिया डॉटकॉम-मुंबई, जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ जो छत्तीसगढ़ का पहला सैटेलाइट चैनल था के साथ रहा। पत्रकारिता में संपादक, स्थानीय संपादक, समाचार संपादक, इनपुट एडिटर, एंकर जैसी जिम्मेदारियां मिलीं, उनका निर्वाह किया। मीडिया शिक्षा में आया तो कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय, रायपुर में पत्रकारिता विभाग का संस्थापक विभागाध्यक्ष रहा। बाद में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में कुलपति, कुलसचिव जैसे पदों के साथ जनसंचार विभाग के अध्यक्ष के रूप में भी दस साल दायित्व रहा। बचपन के दिनों के में दोस्तों के मिलकरबालसुमन’ नाम की पत्रिका निकाली। यह लिखने-पढ़ने का शौक ही बाद में जीविका बन गया  तो सौभाग्य ही था।

 इस दौरान का कोई ऐसा खास वाक्या जो आपको अभी तक याद हो?

मेरे जीवन में किस्से बहुत नहीं हैं, संघर्ष तो बिल्कुल नहीं। मेरे पास यात्राएं हैं, कर्म हैं और उससे उपजी सफलताएं हैं। बहुत संघर्ष की कहानियां नहीं हैं, जिन्हें सुना सकूं। अपने काम को पूरी प्रामणिकता, ईमानदारी से करते रहे। अपने अधिकारी के प्रति ईमानदार रहे, यात्रा चलती रही। मौके मिलते गए। मुंबई, भोपाल, रायपुर, बिलासपुर और अब दिल्ली में काम करते हुए कभी चीजों के पीछे नहीं भागा। नकारात्मकता और नकारात्मक लोगों से दूरी से बनाकर रखी। साधारण तरीके से चलते चले गए। यह सहज जीवन ही मुझे पसंद है। सफलता से बड़ा मैंने हमेशा सहजता को माना। कुछ दौड़कर, छीनकर नहीं चाहिए। स्पर्धा और संघर्ष मेरे स्वभाव में नहीं है। मैं अपना आकलन इस तरह करता हूं कि मैं कोई विशेष प्रतिभा नहीं हूं। सकारात्मक हूं और सबको साथ लेकर चलना मेरा सबसे खास गुण है। मैं जो कुछ भी हूं अपने माता-पिता, मार्गदर्शकों, शिक्षकों और दोस्तों की बदौलत हूं।   

 'कोविड-19 के दौरान पढ़ाई-लिखाई की पुरानी व्यवस्था पर काफी फर्क पड़ा है। नए दौर में ऑनलाइन पढ़ाई पर ज्यादा जोर दिया जा रहा है। आईआईएमसी में इसके लिए किस तरह की तैयारी पर जोर है?

ऑनलाइन कक्षाएं हमारी मजबूरी हैं। कोरोना  जैसे संकट से डील करने का न हमारे तंत्र का अभ्यास, न हमारा है। लोंगों की जिंदगी अहम है। खासकर हमारे विद्यार्थी किसी संकट का शिकार न हों यही चिंता है। पहला सेमेस्टर ऑनलाइन ही चलेगा। तैयारी पूरी है। हमारा प्रशासनिक तंत्र और अध्यापकगण इसके लिए तैयार हैं। विद्यार्थी तो वैसे भी नए माध्यमों और  प्रयोगों का स्वागत ही करते हैं। ई-माध्यमों के साथ हमारी पीढ़ी भले सहज न हो, किंतु हमारे विद्यार्थी बहुत सहज हैं। 

पिछले दिनों आईआईएमसी में फीस बढ़ोतरी का मुद्दा काफी गरमाया रहा हैहालांकि फिलहाल यह मामला शांत हैइस बारे में आपका क्या कहना है और इस तरह के मुद्दों से किस तरह निपटेंगे?

किसी भी मामले में अपना अभ्यास निपटने-निपटाने का नहीं है। सहज संवाद का है, बातचीत का है। बातचीत से चीजें हल नहीं होतीं, तो लोग अन्य मार्ग भी अपनाते हैं। एक शासकीय संगठन होने के नाते हमारी सीमाएं हैं, हम हर चीज को मान नहीं सकते। किंतु छात्र हित सर्वोपरि है।  संवाद से रास्ते निकालेंगे। अन्यथा अन्य फोरम भी जहां लोग जाते रहे हैं, जाएंगे, जाना भी चाहिए।

पत्रकारिता में व्यावहारिक रूप में काफी बदलाव आए हैं। कोरोना काल में पत्रकारों ने अपनी जान जोखिम में डालकर ड्यूटी को अंजाम दिया हैयह बिल्कुल नई तरह की आपदा है। पत्रकारों की नई पौध को इस तरह की किसी भी स्थिति के लिए किस तरह व्यावहारिक रूप से तैयार करेंगे?

मैंने आपसे पहले भी कहा इस तरह के संकटों से निपटने का अभ्यास हमारे पास नहीं है। हम सब सीख रहे हैं। बचाव के उपाय भी अब धीरे-धीरे आदत में आ चुके हैं। पत्रकारिता हमेशा जोखिम भरा काम था। खासकर जिनके पास मैदानी या रिपोर्टिंग  दायित्व हैं। जान जोखिम में डालकर पत्रकार अपने कामों को अंजाम देते रहे हैं। कोरोना संकट में भी पत्रकारों के सामने सिर्फ संक्रमण के खतरे ही नहीं थे, कम होते वेतन, जाती नौकरियों के भी संकट थे। सबसे जूझकर उन्हें निकलना  होता है। फिर भी वे काम कर रहे हैं, समाज को संबल देने का काम कर रहे हैं। हमें भी ऐसी पीढ़ी का निर्माण करना है, जो जरा से संकटों से घबराए नहीं, संबल और साहस बनाए रखे। एक संचारक के नाते हम सबकी कोशिश होनी चाहिए कि समाज में गलत खबरें न फैलें, नकारात्मकता न फैले, लोग निराशा और अवसाद के शिकार न हों। उन्हें उम्मीदें जगाने वाली खबरें और सूचनाएं देनी चाहिए। हमारे विद्यार्थी बहुत प्रतिभावान हैं। वे अपने सामने उपस्थित सवालों और उनके ठोस तथा वाजिब हल निकालने की क्षमताओं से भरे हैं। मैं उन्हें बहुत आशा और उम्मीदों से देखता हूं। 

इस प्रतिष्ठित मीडिया शिक्षण संस्थान से पढ़कर निकले तमाम विद्यार्थी विभिन्न संस्थानों में ऊंचे पदों पर काम कर रहे हैं। IIMC को और अधिक ऊंचाइयों पर ले जाने के लिए क्या आपने किसी तरह की खास स्ट्रैटेजी बनाई है?

हमारे संस्थान की स्थापना की आज हम 56वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। 17 अगस्त,1965 को तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने इसका शुभारंभ किया था। मेरा सौभाग्य है कि एक खास  समय में मुझे इस महान संस्थान की सेवा करने का अवसर मिला है। मेरी कोशिश होगी इस महान संस्था की गौरवशाली परंपराओं में कुछ और सार्थक जोड़ सकूं। इसे भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का केंद्र बनाने, उन पर शोध अनुसंधान का काम हो, इसकी कोशिश होगी। अपने बहुत प्रतिभावान पूर्व विद्यार्थियों, पूर्व प्राध्यापकों, पूर्व महानिदेशकों से संवाद करते हुए, उनकी सलाह लेते हुए इसे जीवंत व ऊर्जावान परिसर बनाने की कोशिश होगी। जहां बिना छूआछूत के सभी विचारों और प्रतिभाओं का स्वागत होगा। एक समर्थ भारत बनाने में कम्युनिकेशन और कम्युनिकेटर्स बहुत खास भूमिका है, हम इस ओर जोर देंगे। 

नई शिक्षा नीति कितनी सहीकितनी गलत, इस बारे में क्या है आपका मानना?

नई शिक्षा बहुत सुविचारित और सुचिंतित तरीके से प्रकाश में आई है। इसको बनाने के पहले जो मंथन हुआ है, जिस तरह पूरे देश  के लोगों की राय ली गयी है, वह प्रक्रिया बहुत खास  है। इसमें भारतीयता, भारत बोध, नैतिक शिक्षा, पर्यावरण और भारतीय भाषाओं को सम्मान देने के विषय जिस तरह से संबोधित किए गए हैं, उसके कारण यह विशिष्ट बन गयी  है। उच्च शिक्षा को स्ट्रीम से मुक्त करना एक तरह का क्रांतिकारी फैसला है। 0 से  8 साल के बच्चों का विचार। जन्म से लेकर पीएचडी तक बच्चे की परवाह यह शिक्षा नीति करती है। मुझे लगता है कि नीति के तौर इसमें कोई समस्या  नहीं है। इसे जमीन पर उतारना एक कठिन काम है। इसलिए शिक्षाविदों, शिक्षा से जुड़े अधिकारियों और संचारकों की जिम्मेदारी बहुत बढ़ गयी है। इस शिक्षा नीति को हम उसके वास्तविक संकल्पों के साथ जमीन पर उतार पाए तो एक ऐसा भारत बनेगा जिसकी कल्पना हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के नायकों ने की थी। मुझे लगता है कि हमारे प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार की मंशाएं बहुत स्पष्ट हैं, अब समय हमारे द्वारा किए जाने वाले क्रियान्वयन और डिलेवरी का है। निश्चय ही इस कठिन दायित्वबोध ने हम सबमें ऊर्जा का संचार भी किया है। 

एक आखिरी सवालपत्रकारिता के क्षेत्र में आने वाले नए विद्यार्थियों के लिए क्या संदेश देना चाहेंगे?

आज की पत्रकारिता दो आधारों पर खड़ी है, एक भाषा, दूसरा तकनीकी ज्ञान। तकनीक दिन-प्रतिदिन और माध्यमों के अनुसार बदलती रहती है। तकनीक ज्यादातर अभ्यास का मामला भी है। हम करते और सीखते जाते हैं। भाषा एक कठिन स्वाध्याय से अर्जित की जाती है। किंतु हमें हर तरह से भाषा में ही व्यक्त होना है। इसलिए हमारे युवा पत्रकारों को भाषा के साथ रोजाना का रिश्ता बनाना होगा। एक अच्छी भाषा में सही तरीके कही गयी बात का कोई विकल्प नहीं है। दूसरा हमें सिर्फ सवाल खड़े करने वाला नहीं बनना है, इस देश के संकटों के ठोस  और वाजिब हल तलाशने वाला पत्रकार बनना है। मीडिया का उद्देश्य अंततः लोकमंगल ही है। यही साहित्य का भी उद्देश्य है, हमारी सारी प्रदर्शन कलाओं का भी यही ध्येय है। इसके साथ ही देश की समझ। देश के इतिहास, भूगोल, संस्कृति, परंपरा, आर्थिक-सामाजिक चिंताओंसंविधान की मूलभूत चिंताओं की गहरी समझ हमारी पत्रकारिता को प्रामणिक बनाती है। तभी हम समाज के दुखः-दर्द, उसकी चिंताओं को समझकर तथ्य और सत्य पर आधारित पत्रकारिता करने में समर्थ होते हैं। सामाजिक-आर्थिक न्याय से  युक्त, न्यायपूर्ण-समरस समाज हम सबका साझा स्वप्न है। पत्रकारिता अपने इस कठिन दायित्वबोध से अलग नहीं हो सकती।

-विकास जैन द्वारा 17 अगस्त,2020 को  प्रकाशित

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