शनिवार, 11 जनवरी 2020

युवा शक्ति के प्रेरक और आदर्शः स्वामी विवेकानंद


-प्रो. संजय द्विवेदी
 
  स्वामी विवेकानंद भारतीय आध्यात्मिकता और भारतीय जीवन दर्शन को विश्वपटल पर स्थापित करने वाले नायक हैं। भारत की संस्कृति, भारतीय जीवन मूल्यों और उसके दर्शन को उन्होंने विश्व बंधुत्व और मानवता को स्थापित करने वाले विचार के रूप में प्रचारित किया। अपने निरंतर प्रवासों, लेखन और मानवता को सुख देने वाले प्रकल्पों के माध्यम से उन्होंने यह स्थापित किया कि भारतीयता और वेदांत का विचार क्यों श्रेष्ठ है। कोलकाता महानगर के एक संभ्रांत परिवार में 12 जनवरी,1863 को जन्मे नरेंद्रनाथ दत्त या नरेन का विवेकानंद हो जाना साधारण घटना नहीं है। बताते हैं कि बाल्यावस्था से ही नरेन एक चंचल प्रकृति के विनोदप्रिय बालक थे। सन्यासी जीवन के प्रति उनका सहज आकर्षण था। बचपन में वे अपने मित्रों से कहा करते थे- मैं तो अवश्य ही सन्यासी बनूंगा। एक हस्तरेखा विशारद ने ऐसी भविष्य वाणी की है। स्वामी रामकृष्ण परंमहंस ने उनकी जिंदगी को पूरा का पूरा बदल डाला। नवंबर,1881 के आसपास हुई गुरु-शिष्य की इस मुलाकात ने एक ऐसे व्यक्तित्व को संभव किया, जिसे रास्तों की तलाश थी।
छोटी जिंदगी का बड़ा पाठ-
    स्वामी विवेकानंद ज्यादा बड़े संन्यासी थे या उससे बड़े संचारक (कम्युनिकेटर) या फिर उससे बड़े प्रबंधक ? यह सवाल हैरत में जरूर डालेगा पर उत्तर हैरत में डालनेवाला नहीं है क्योंकि वे एक नहीं,तीनों ही क्षेत्रों में शिखर पर हैं। वे एक अच्छे कम्युनिकेटर हैंप्रबंधक हैं और संन्यासी तो वे हैं ही। भगवा कपड़ों में लिपटा एक संन्यासी अगर युवाओं का रोल माडल बन जाए तो यह साधारण घटना नहीं हैकिंतु विवेकानंद के माध्यम से भारत और विश्व ने यह होते हुए देखा। उनके विचार अगर आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं तो समय के पार देखने की उनकी क्षमता को महसूस कीजिए। एक बहुत छोटी सी जिंदगी पाकर भी उन्होंने जो कर दिखाया वह इस धरती पर तो चमत्कार सरीखा ही था।
   स्वामी विवेकानंद की बहुत छोटी जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है। वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं वे परंपरागत धार्मिक नेताओं से उन्हें अलग खड़ा कर देती हैं। वे समाज से भागे हुए सन्यासी नहीं हैं। वे समाज में रच बस कर उसके सामने खड़े प्रश्नों से मुठभेड़ का साहस दिखाते हैं। वे विश्वमंच पर सही मायने में भारतउसके अध्यात्मपुरूषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं। वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं पर उनकी आत्मा,वाणी और कृति स्वतंत्र है। वे सोते हुए देश और उसके नौजवानों को झकझोर कर जगाते हैं और नवजागरण का सूत्रपात करते हैं। धर्म को वे जीवन से पलायन का रास्ता बनाने के बजाए राष्ट्रप्रेमराष्ट्र के लोगों से प्रेम और पूरी मानवता से प्रेम में बदल देते हैं।शायद इसीलिए वे कह पाए-“ व्यावहारिक देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।
अप्रतिम संवाद कला और नेतृत्व क्षमता-
   अपने जीवन,लेखनव्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैंपूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमताकुशल प्रबंधन के गुर,परंपरा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परंपरा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहींबल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामी जी का लेखन और संवादकला उन्हें अपने समय में ही नहींसमय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है।
    आज के समय में जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने हैं तब हमें पता चलता है कि स्वामी जी ने कैसे अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं को साधने का काम किया। यह वह समय था जब मीडिया का इतना कोलाहल न था फिर भी छोटी आयु पाकर भी वे न सिर्फ भारत वरन दुनिया में भी जाने गए। अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया और उनकी स्वीकृति पाई। क्या कम्युनिकेशन की ताकत और प्रबंधन को समझे बिना उस दौर में यह संभव था। स्वामी जी के व्यक्तित्व और उनकी पूरी देहभाषा को समझने पर उनमें प्रगतिशीलता के गुण नजर आते हैं। उनका अध्यात्म उन्हें कमजोर नहीं बनाताबल्कि शक्ति देता है कि वे अपने समय के प्रश्नों पर बात कर सकें। उनका एक ही वाक्य –“उठो!जागो ! और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। उनकी संचार और संवादकला के प्रभाव को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। यह वाक्य हर निराश व्यक्ति के लिए एक प्रभावकारी स्लोगन बन गया। इसे पढ़कर जाने कितने सोएनिराशहताश युवाओं में जीवन के प्रति एक उत्साह पैदा हो जाता है। जोश और उर्जा का संचार होने लगता है। स्वामी जी ने अपने जीवन से भी हमें सिखाया। उनकी व्यवस्थित प्रस्तुतिसाफा बांधने की शैली जिसमें कुछ बाल बाहर झांकते हैं बताती है कि उनमें एक सौंदर्यबोध भी है।
      वे स्वयं को भी एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय प्रसंगों की भी ऐसी सरस व्याख्या करते हैं कि उनकी संचारकला स्वतः स्थापित हो जाती है। अपने कर्मजीवनलेखनभाषण और संपूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना यह उन्हें पता है। 1893 में शिकागो में आयोजित धर्म सम्मेलन में उनकी उपस्थति सही मायने में भारत के आत्मविश्वास और युवा चेतना की मौजूदगी थी। जिसने समूचे विश्व के समक्ष भारत के मानवतावादी पक्ष को रखा। श्री अरविंद ने अमरीका में स्वामी विवेकानंद के प्रवास की सफलता से प्रभावित होकर कहा-विवेकानंद का विदेश गमन, उनके गुरु की यह उक्ति कि इस वीर पुरुष का जन्म ही इस संसार को अपने दोनों हाथों को बीच लेकर बदल देने के लिए हुआ है। इस बात का प्रथम दृश्य प्रमाण था कि भारत जाग उठा है, केवल जीवित रहने के लिए नहीं बल्कि विश्वविजयी होने के लिए।
सामाजिक न्याय के प्रखर प्रवक्ता-
    अमरीका के विश्व धर्म सम्मेलन में वे अपने संबोधन से ही लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। भारत राष्ट्र और उसके लोगों से उनका प्रेम उनके इस वाक्य से प्रकट होता है-“ आपको सिखाया गया है अतिथि देवो भवपितृ देवो भवमातृदेवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं दरिद्र देवो भवअज्ञानी देवो भवमूर्ख देवो भव। यह बात बताती है कि कैसे वे अपनी संचार कला से लोगों के बीच गरीबअसहाय और कमजोर लोगों के प्रति संवेदना का प्रसार करते नजर आते हैं। समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा का भाव विवेकानंद जी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तोमनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्यदरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा है।वह नर वेश में नारायण है। संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामी जी बताते हैं। सही मायने में विवेकानंद जी एक ऐसे युगपुरूष के रूप में सामने आते हैं जिनकी बातें आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो गयी दिखती हैं। धर्म के सच्चे स्वरूप को स्थापित कर उन्होंने जड़ता को तोड़ने और नए भारत के निर्माण पर जोर दिया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास भरकर उन्हें हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिया जिसमें सबका स्वीकार है और सभी विचारों का आदर करने का भाव है। इसलिए वे कहते थे भारत का उदय अमराईयों से होगा। अमराइयां का मायने था छोटी झोपड़ियां। वे कहते हैं- जनसाधारण को शिक्षा दो। उनको जगाओ-तभी राष्ट्र का निर्माण होगा।सारा दोष इसी में है कि सच्चा राष्ट्र जो झोपड़ियों में रहता है अपना मनुष्यत्व भूल चुका है, अपना व्यक्तित्व खो चुका है। उनके मस्तिष्क में उच्च विचारों को पहुंचाओ, शेष सब वे स्वयं कर लेंगे।
       स्वामी विवेकानंद भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के सबसे प्रखर प्रवक्ता हैं। वे दिखावटी संवेदना के खिलाफ थे और इसलिए स्वामी जी को जीवन में उतारना एक कठिन संकल्प है। आज जबकि कुपोषण,पर्यावरण के सवालों पर बात हो रही है। स्वामी जी इन मुद्दों पर बहुत सधी भाषा में अपनी बात कर चुके हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य को एक नियामत मानते हैं। इसीलिए वे कह पाए कि गीता पढ़ने से अच्छा हैफुटबाल खेलो। एक स्वस्थ शरीर के बिना भारत सबल न होगा यह उनकी मान्यता थी। वे समूची विश्व मानवता को संदेश देते हैं- जो ईश्वर तुम्हारे भीतर है ,वही ईश्वर सभी के भीतर विराजमान है। यदि तुमने यह नहीं जाना है तो तुमने कुछ भी नहीं जाना है। भेद भला कैसे संभव है? सब एक ही हैं। प्रत्येक व्यक्ति परमात्मा का मंदिर है। यदि तुम देख सको तो अच्छा है। यदि नहीं, तो तुम्हारे जीवन में आध्यात्मिकता आई ही नहीं है।
सोते हुए भारत को जगाने वाला सन्यासी-
     मात्र 39 साल की आयु में 4 जुलाई,1902 वे दुनिया से विदा हो गए, किंतु वे कितने मोर्चों पर कितनी बातें कह और कर गए हैं कि वे हमें आश्चर्य में डालती हैं। एक साधारण इंसान कैसे अपने आपको विवेकानंद के रूप में बदलता है। इसमें एक प्रेरणा भी है और प्रोत्साहन भी। आज की युवा शक्ति उनसे प्रेरणा ले सकती है। स्वामी विवेकानंद ने सही मायने में भारतीय समाज को एक आत्मविश्वास दियाशक्ति दी और उसके महत्व का उसे पुर्नस्मरण कराया। सोते हुए भारत को उन्होंने झकझोरकर जगाया और अपने समूचे जीवन से सिखाया कि किस तरह भारतीयता को पूरे विश्वमंच पर स्थापित किया जा सकता है। वे अपने देश भारत और उसकी आध्यात्मिक शक्ति को पहचानते थे, इसीलिए उन्होंने सितंबर,1894 को मद्रास के हिंदुओं को लिखे पत्र में कहा-क्या भारत मर जाएगा? तब तो संपूर्ण विश्व से आध्यात्मिकता लुप्त हो जाएगी, सभी नैतिकता पूर्णतः समाप्त हो जाएगी, आर्दशवाद समाप्त हो जाएगा तथा उसके स्थान पर काम और विलासिता रुपी पुरुष और स्त्री राज्य करेंगे। जिसमें धन पुरोहित होगा, छल,बल और प्रतियोगिता पूजा-विधि होगी तथा मानव आत्मा बलि होगी। ऐसा कभी नहीं हो सकता । एक बेहतर कम्युनिकेटरएक प्रबंधन गुरूएक आध्यात्मिक गुरूवेदांतों का भाष्य करने वाला सन्यासीधार्मिकता और आधुनिकता को साधने वाला साधकअंतिम व्यक्ति की पीड़ा और उसके संघर्षों में उसके साथ खड़ा सेवकदेशप्रेमीकुशल संगठनकर्तालेखक एवं संपादकएक आदर्श शिष्य जैसी न कितनी छवियां स्वामी विवेकानंद से जुड़ी हैं। किंतु हर छवि में वे अव्वल नजर आते हैं।
राष्ट्रीय युवा दिवस क्यों-
   भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री राजीव गांधी ने 1984 में स्वामी विवेकानंद की जयंती 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस मनाने की घोषणा की। इसके बाद 1985 से यह दिन युवा दिवस के रुप में निरंतर मनाया जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा वर्ष 1985 को अंतर्राष्ट्रीय युवा वर्ष घोषित किया गया था,इसी बात को मद्देनजर रखते हुए भारत सरकार ने घोषणा की थी कि सन 1985 से हर वर्ष 12 जनवरी यानी स्वामी विवेकानंद के जन्मदिवस को देश भर में राष्ट्रीय युवा दिन के रूप में मनाया जाए। इस संदर्भ में भारत सरकार का विचार था कि स्वामी जी का दर्शन, उनका जीवन तथा कार्य एवं उनके आदर्श भारतीय युवकों के लिए प्रेरणास्रोत साबित हो सकते हैं। इस दिन देश भर के विद्यालयों एवं महाविद्यालयों में तरह-तरह के कार्यक्रम होते हैं, रैलियां निकाली जाती हैं, योगासन की स्पर्धा आयोजित की जाती है, व्याख्यान होते हैं और विवेकानन्द साहित्य की प्रदर्शनी लगती है। भारत सरकार के संगठन नेहरू युवा केंद्र के द्वारा देश भर में स्वामी विवेकानंद जयंती पर अनेक आयोजन किए जाते हैं।
     स्वामी विवेकानंद को याद किया जाना सही मायनों में भारत की युवा तेजस्विता, भारतबोध और भारत के बहाने विश्व को सुखी बनाने के विचार को प्रेरित करना है। उनकी याद एक ऐसे नायक की याद है जिसने विश्व मानवता के सुख के सूत्र खोजे। जिसने स्वीकार्यता को, आत्मीयता को, विश्व बंधुत्व को वास्तविक धर्म से जोड़ा। जिसने सेवा के संस्कार को धर्म के मुख्य विचार के रूप में स्थापित किया। जिसने किताबों में पड़े कठिन अधात्म को जनता के सरोकारों से जोड़ा। प्रख्यात लेखक रोमां रोलां इसलिए कहते हैं-उनके शब्द महान् संगीत हैं, बेथोवन-शैली के टुकड़े हैं, हैडेल के समवेत गान के छन्द-प्रवाह की भांति उद्दीपक लय हैं। शरीर में विद्युत स्पर्श के –से आघात की सिहरन का अनुभव किए बिना मैं उनके इन वचनों का स्पर्श नहीं कर सकता जो तीस वर्ष की दूरी पर पुस्तकों के पृष्ठों में बिखरे पड़े हैं। और जब वे नायक के मुख से ज्वलंत शब्दों में निकले होगें तब तो न जाने कैसे आघात एवं आवेग पैदा हुए होंगे।

सन्यासी का संचार शास्त्र


स्वामी विवेकानंद जयंती(12 जनवरी पर विशेष)
-प्रो. संजय द्विवेदी

  स्वामी विवेकानंद ज्यादा बड़े संन्यासी थे या उससे बड़े संचारक (कम्युनिकेटर) या फिर उससे बड़े प्रबंधक ? ये सवाल हैरत में जरूर डालेगा पर उत्तर हैरत में डालनेवाला नहीं है क्योंकि वे एक नहीं,तीनों ही क्षेत्रों में शिखर पर हैं। वे एक अच्छे कम्युनिकेटर हैंप्रबंधक हैं और संन्यासी तो वे हैं ही। भगवा कपड़ों में लिपटा एक संन्यासी अगर युवाओं का रोल माडल बन जाए तो यह साधारण घटना नहीं हैकिंतु विवेकानंद के माध्यम से भारत और विश्व ने यह होते हुए देखा। कोलकाता में जन्मे विवेकानंद और उनके विचार अगर आज डेढ़ सौ साल बाद भी प्रासंगिक बने हुए हैं तो समय के पार देखने की उनकी क्षमता को महसूस कीजिए। एक बहुत छोटी सी जिंदगी पाकर भी उन्होंने जो कर दिखाया वह इस घरती पर तो चमत्कार सरीखा ही था।
   स्वामी विवेकानंद की बहुत छोटी जिंदगी का पाठ बहुत बड़ा है। वे अपने समय के सवालों पर जिस प्रखरता से टिप्पणियां करते हैं वे परंपरागत धार्मिक नेताओं से उन्हें अलग खड़ा कर देती हैं। वे समाज से भागे हुए सन्यासी नहीं हैं। वे समाज में रच बस कर उसके सामने खड़े प्रश्नों से मुठभेड़ का साहस दिखाते हैं। वे विश्वमंच पर सही मायने में भारतउसके अध्यात्मपुरूषार्थ और वसुधैव कुटुंबकम् की भावना को स्थापित करने वाले नायक हैं। वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं पर उनकी आत्मा,वाणी और कृति स्वतंत्र है। वे सोते हुए देश और उसके नौजवानों को झकझोर कर जगाते हैं और नवजागरण का सूत्रपात करते हैं। धर्म को वे जीवन से पलायन का रास्ता बनाने के बजाए राष्ट्रप्रेमराष्ट्र के लोगों से प्रेम और पूरी मानवता से प्रेम में बदल देते हैं।शायद इसीलिए वे कह पाए-“ व्यावहारिक देशभक्ति सिर्फ एक भावना या मातृभूमि के प्रति प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र नहीं है। देशभक्ति का अर्थ है अपने साथी देशवासियों की सेवा करने का जज्बा।
   अपने जीवन,लेखनव्याख्यानों में वे जिस प्रकार की परिपक्वता दिखाते हैंपूर्णता दिखाते हैं वह सीखने की चीज है। उनमें अप्रतिम नेतृत्व क्षमताकुशल प्रबंधन के गुर,परंपरा और आधुनिकता का तालमेल दिखता है। उनमें परंपरा का सौंदर्य है और बदलते समय का स्वीकार भी है। वे आधुनिकता से भागते नहींबल्कि उसका इस्तेमाल करते हुए नए समय में संवाद को ज्यादा प्रभावकारी बना पाते हैं। स्वामी जी का लेखन और संवादकला उन्हें अपने समय में ही नहींसमय के पार भी एक नायक का दर्जा दिला देती है। आज के समय में जब संचार और प्रबंधन की विधाएं एक अनुशासन के रूप में हमारे सामने हैं तब हमें पता चलता है कि स्वामी जी ने कैसे अपने पूरे जीवन में इन दोनों विधाओं को साधने का काम किया। यह वह समय था जब मीडिया का इतना कोलाहल न था फिर भी छोटी आयु पाकर भी वे न सिर्फ भारत वरन दुनिया में भी जाने गए। अपने विचारों को लोगों तक पहुंचाया और उनकी स्वीकृति पाई। क्या कम्युनिकेशन की ताकत और प्रबंधन को समझे बिना उस दौर में यह संभव था। स्वामी जी के व्यक्तित्व और उनकी पूरी देहभाषा को समझने पर उनमें प्रगतिशीलता के गुण नजर आते हैं। उनका अध्यात्म उन्हें कमजोर नहीं बनाताबल्कि शक्ति देता है कि वे अपने समय के प्रश्नों पर बात कर सकें। उनका एक ही वाक्य –“उठो!जागो ! और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य प्राप्त नहीं हो जाता। उनकी संचार और संवादकला के प्रभाव को स्थापित करने के लिए पर्याप्त है। यह वाक्य हर निराश व्यक्ति के लिए एक प्रभावकारी स्लोगन बन गया। इसे पढ़कर जाने कितने सोएनिराशहताश युवाओं में जीवन के प्रति एक उत्साह पैदा हो जाता है। जोश और उर्जा का संचार होने लगता है। स्वामी जी ने अपने जीवन से भी हमें सिखाया। उनकी व्यवस्थित प्रस्तुतिसाफा बांधने की शैली जिसमें कुछ बाल बाहर झांकते हैं बताती है कि उनमें एक सौंदर्यबोध भी है। वे स्वयं को भी एक तेजस्वी युवा के रूप में प्रस्तुत करते हैं और उनके विचार भी उसी युवा चेतना का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे शास्त्रीय प्रसंगों की भी ऐसी सरस व्याख्या करते हैं कि उनकी संचारकला स्वतः स्थापित हो जाती है। अपने कर्मजीवनलेखनभाषण और संपूर्ण प्रस्तुति में उनका एक आदर्श प्रबंधक और कम्युनिकेटर का स्वरूप प्रकट होता है। किस बात को किस समय और कितने जोर से कहना यह उन्हें पता है। अमरीका के विश्व धर्म सम्मेलन में वे अपने संबोधन से ही लोगों को सम्मोहित कर लेते हैं। भारत राष्ट्र और उसके लोगों से उनका प्रेम उनके इस वाक्य से प्रकट होता है-“ आपको सिखाया गया है अतिथि देवो भवपितृ देवो भवमातृदेवो भव। पर मैं आपसे कहता हूं दरिद्र देवो भवअज्ञानी देवो भवमूर्ख देवो भव। यह बात बताती है कि कैसे वे अपनी संचार कला से लोगों के बीच गरीबअसहाय और कमजोर लोगों के प्रति संवेदना का प्रसार करते नजर आते हैं। समाज के कमजोर लोगों को भगवान समझकर उनकी सेवा का भाव विवेकानंद जी ने लोगों के बीच भरना चाहा। वे साफ कहते हैं- यदि तुम्हें भगवान की सेवा करनी हो तोमनुष्य की सेवा करो। भगवान ही रोगी मनुष्यदरिद्र पुरूष के रूप में हमारे सामने खड़ा है।वह नर वेश में नारायण है। संचार की यह शक्ति कैसे धर्म को एक व्यापक सामाजिक सरोकारों से जोड़ देती है यह स्वामी जी बताते हैं। सही मायने में विवेकानंद जी एक ऐसे युगपुरूष के रूप में सामने आते हैं जिनकी बातें आज के समय में ज्यादा प्रासंगिक हो गयी दिखती हैं। धर्म के सच्चे स्वरूप को स्थापित कर उन्होंने जड़ता को तोड़ने और नए भारत के निर्माण पर जोर दिया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास भरकर उन्हें हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान दिया जिसमें सबका स्वीकार है और सभी विचारों का आदर करने का भाव है। इसलिए वे कहते थे भारत का उदय अमराईयों से होगा। अमराइयां का मायने था छोटी झोपड़ियां। वे भारतीय संदर्भ में सामाजिक न्याय के सबसे प्रखर प्रवक्ता हैं। वे दिखावटी संवेदना के खिलाफ थे और इसलिए स्वामी जी को जीवन में उतारना एक कठिन संकल्प है। आज जबकि कुपोषण,पर्यावरण के सवालों पर बात हो रही है। स्वामी जी इन मुद्दों पर बहुत सधी भाषा में अपनी बात कर चुके हैं। वे बेहतर स्वास्थ्य को एक नियामत मानते हैं। इसीलिए वे कह पाए कि गीता पढ़ने से अच्छा हैफुटबाल खेलो। एक स्वस्थ शरीर के बिना भारत सबल न होगा यह उनकी मान्यता थी।
     मात्र 39 साल की आयु में वे हमसे विदा हो गए किंतु वे कितने मोर्चों पर कितनी बातें कह और कर गए हैं कि वे हमें आश्चर्य में डालती हैं। एक साधारण इंसान कैसे अपने आपको विवेकानंद के रूप में बदलता है। इसमें एक प्रेरणा भी है और प्रोत्साहन भी। आज की युवा शक्ति उनसे प्रेरणा ले सकती है। स्वामी विवेकानंद ने सही मायने में भारतीय समाज को एक आत्मविश्वास दियाशक्ति दी और उसके महत्व का उसे पुर्नस्मरण कराया। सोते हुए भारत को उन्होंने झकझोरकर जगाया और अपने समूचे जीवन से सिखाया कि किस तरह भारतीयता को पूरे विश्वमंच पर स्थापित किया जा सकता है। एक बेहतर कम्युनिकेटरएक प्रबंधन गुरूएक आध्यात्मिक गुरूवेदांतों का भाष्य करने वाला सन्यासीधार्मिकता और आधुनिकता को साधने वाला साधकअंतिम व्यक्ति की पीड़ा और उसके संघर्षों में उसके साथ खड़ा सेवकदेशप्रेमीकुशल संगठनकर्तालेखक एवं संपादकएक आदर्श शिष्य जैसी न कितनी छवियां स्वामी विवेकानंद से जुड़ी हैं। किंतु हर छवि में वे अव्वल नजर आते हैं। उनकी जयंती मनाते हुए देश में विवेकानंद के विचारों के साथ-साथ जीवन में भी उनकी उपस्थिति बने तो यही भारत मां के माथे पर सौभाग्य का टीका साबित होगी।

शुक्रवार, 3 जनवरी 2020

बदलेंगे,बचेंगे और बढ़ेंगे भारत के अखबार


-प्रो. संजय द्विवेदी

   डिजीटल मीडिया की बढ़ती ताकत, मोबाइल क्रांति और सोशल मीडिया की उपलब्धता ने पढ़ने की दुनिया को काफी प्रभावित किया है। पढ़े जाने वाले अखबार, अब पलटे भी कम जा रहे हैं। केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने एक बार रायपुर में मीडिया विमर्श पत्रिका के आयोजन में कहा था कि पहले एक अखबार पढ़ने में मुझे 40 मिनट लगते थे अब उतनी देर में दर्जन भर अखबार पलट लेता हूं। वे ठीक कह रहे हैं, किंतु पढ़ने का समय घटने के लिए अखबार अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। अखबारों को देखें तो वे पुराने अखबारों से बहुत सुदर्शन हुए हैं। आज वे बेहतर प्रस्तुति के साथ, अच्छे कागज पर, उन्नत टेक्नालाजी की मशीनों पर छप रहे हैं। वे मोटे भी हुए हैं। उनकी प्रस्तुति टीवी से होड़ करती दिखती है। उनके शीर्षक बोलने लगे हैं, कई बार टीवी की भाषा ही उनकी भाषा है। उनका कलेवर बहुत आकर्षक हो चुका है। बावजूद इसके पठनीयता के संकट को देखते हुए यह जरूरी है कि अखबार नए तरीके से प्रस्तुत हों और ज्यादा लाइव प्रस्तुति के साथ आगे आएं। तमाम समाचार पत्र ऐसे प्रयोग कर भी रहे हैं। अखबारों को चाहिए कि वे तटस्थता से हटकर एकात्मता की ओर बढ़ें। पूरे अखबार में एक लय और एक स्वर या संगीत की तरह एक सुर हो। ताकि उस भावभूमि का पाठ सीधा उस अखबार से अपना भावनात्मक रिश्ता जोड़ सके।
विशिष्टता की ओर बढ़ें-
  एक समय में अखबार का सर्वग्राही होना उसकी सफलता की गारंटी होता था। वह सब कुछ साथ लेकर चलता था। किंतु अब समय है कि अखबार अपने आप में विशिष्टता पैदा करें कि आखिर वे किस पाठक वर्ग के साथ जाना चाहते हैं। इसका आशय यह भी है कि अखबार को अब अपना व्यक्तित्व विकसित करना होगा। उन्हें खास दिखना होगा। उसको किसे संबोधित करना है, इसका विचार करना होगा। उन्हें झुंड से अलग दिखना होगा। एक समर्पित संस्था की तरह काम करना होगा।अब वे सिर्फ खबर देकर मुक्त नहीं हो सकते, उन्हें अपने सरोकारों को स्थापित करने के लिए आगे आना होगा। सोशल मीडिया और डिजीटल मीडिया की हर हाथ में उपलब्धता के बाद खबर देने का काम अब अकेला अखबार नहीं करता। अखबार जब तक  छपकर आता है, तब तक खबरें वायरल हो चुकी होती हैं। टीवी, डिजीटल माध्यम और सोशल मीडिया खबरें ब्रेक कर चुके होते हैं। यानि अब अखबार का मुख्य उत्पाद खबर नहीं है। उसका सरोकार, उसकी विश्लेषण शक्ति, उसकी खबरों के पीछे छिपे अर्थों को बताने की क्षमता, व्याख्या की शैली यहां महत्वपूर्ण हैं। अखबार को स्थानीय जनों से एक रिश्ता बनाना पड़ेगा जिसके मूल में खबर नहीं स्थानीय सामाजिक सरोकार होंगे। सामाजिक सरोकारों से गहरी संलग्नता ही किसी अखबार की स्वीकार्यता में सहायक होगी। शायद इसीलिए अब अखबार इवेंट्स और अभियानों का सहारा लेकर लोगों के बीच अपनी पैठ बना रहे हैं। इससे ब्रांड वैल्यू के साथ स्थानीय सरोकार भी स्थापित होते हैं।
डेस्क नहीं सीधे मैदान से-
   अखबारों को अगर अपनी उपयोगिता बनाए रखनी है, तो उन्हें मैदानी रिर्पोटिंग पर ध्यान देना होगा। टीवी,डिजिटल सोशल मीडिया और हर जगह ज्ञान देने वाले की फौज है पर मैदान में उतरकर वास्तविक चीजें और खबरें करने वाले लोग कम हैं। एक ही ज्ञान इतने स्थानों से कापी होकर निरंतर प्रक्षेपित हो रहा है कि अब लोग नए विचारों की प्रतीक्षा में हैं। नई खबरों की प्रतीक्षा में हैं। ये खबरें डेस्क पर लिखी और रची हुई नहीं होंगी। इसमें माटी की महक और जमीन हो रहे संघर्षों की धमक होगी। इन खबरों में आम लोगों की जिंदगी होगी जो अपने पसीने की खुशबू से इस दुनिया बेहतर बनाने में लगे हैं। यहां सपने होंगे, उम्मीदें होंगी और असंभव के संभव बनाते भागीरथ होंगे। इसके लिए हमें बोलने के बजाए सुनने का अभ्यास करना होगा। इसे ही इंटरेक्टिव होना कहते हैं। यह मंच एकतरफा बात के बजाए संवाद का मंच होगा। अपने पाठकों और उनकी भावनाओं का विचार यहां प्रमुख होगा। उन पर चीजें थोपी नहीं जाएंगी, उन्हें बतायी जाएंगी, समझायी जाएंगी और उस पर उनकी राय का भी आदर किया जाएगा। लोकतांत्रिक विमर्शों के मंच बनकर ही अखबार अपनी साख बना और बचा पाएंगे। अखबार विचारों को थोपने के बजाए, विमर्श के मंच की तरह काम करेगें। सब पक्षों और सभी राय को जगह देते हुए एक सुंदर दुनिया के सपने को सच बनाते हुए दिखेंगे। समाचार और विचार पक्ष अलग-अलग हैं और उन्हें अलग ही रखा जाएगा। खबरों में विचारों की मिलावट से बचने के सचेतन प्रयास भी करने होंगे। विचार के पन्नों पर पूरी आजादी के साथ विमर्श हों, हर तरह की राय का वहां स्वागत हो। विचारों की विविधता भी हो और बहुलता भी हो। पत्रकार अपनी पोलिटिकल लाइन तो रखें तो लेकिन पार्टी लाइन से बचें यह भी ध्यान रखना होगा। क्योंकि अखबार की विश्वसनीयता और प्रामणिकता इससे ही स्थापित होती है।
समस्या नहीं समाधान बनें-
  हमारे समाज की एक प्रवृत्ति है कि हम समस्याओं की ओर बहुत आकर्षित होते हैं और समाधानों की ओर कम सोचते हैं। अखबारों ने भी अरसे से मान लिया है कि उनका काम सिर्फ संकटों की तरफ इंगित करना है,उंगली उठाना है।हमारा समाज भी ऐसा मानता है कि हमसे क्या मतलब ? जबकि यह हमारा ही समाज है, हमारा ही शहर है और हमारा ही देश है। इसके संकट, हमारे संकट हैं। इसके दर्दों का समाधान ढूंढना और अपने लोगों को न्याय दिलाना हमारी भी जिम्मेदारी है। एक संस्था के रूप में अखबार बहुत ताकतवर हैं। इसलिए उन्हें सामान्यजनों की आवाज बनकर उनके संकटों के समाधान के प्रकल्प के रूप में सामने आना चाहिए। वे सहयोग के लिए हाथ बढ़ाएं और एक ऐसा वातावरण बनाएं जहां अखबार सामाजिक उत्तरदायित्वों का वाहक नजर आए। मजलूमों के साथ खड़ा नजर आए। ऐसे में पत्रकार सिर्फ घटना पर्यवेक्षक नहीं, कार्यकर्ता भी है। जिसे हम जर्नलिस्टिक एडवोकेसी कह सकते हैं। ऐसे अभियान अखबार की जड़ें समाज में इतनी गहरी कर देते हैं कि वे भरोसे का नाम बन जाते हैं।
मीडिया कन्वर्जेंस एक अवसर-
   आज के समय में एक मीडिया में काम करते हुए आप दूसरे मीडिया का सहयोग लेते ही हैं। एक अखबार चलाने वाला संस्थान आज निश्चित ही सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सक्रिय है तो वहीं वह डिजीटल प्लेटफार्म पर भी उसी सक्रियता के साथ उपस्थित है। इस तरह हम अपने संदेश की शक्ति को ज्यादा प्रभावी और व्यापक बना सकते हैं। हमें यह ध्यान रखना होगा कि प्रिंट पर लोग कम आ रहे हैं, या उनका ज्यादातर समय अन्य डिजीटल माध्यमों और मोबाइल पर गुजर रहा है। ऐसे में इस शक्ति को नकारने के बजाए उसे स्वीकार करने में ही भलाई है। आपके अखबार की ब्रांड वैल्यू है, सालों से आप खबरों के व्यवसाय में हैं, इसकी आपको दक्षता है, इसलिए आपने लोगों का भरोसा और विश्वास अर्जित किया है। इस भीड़ में अनेक लोग डिजिटल मीडिया प्लेटफार्म पर खबरों का व्यवसाय कर रहे हैं। किंतु आपकी यात्रा उनसे खास है। आपका अखबार पुराना है, आपके अखबार को लोग जानते हैं, भरोसा करते हैं। इसलिए आपके डिजीटल प्लेटफार्म को पहले दिन ही वह स्वीकार्यता प्राप्त है, जिसे पाने के लिए आपके डिजीटल प्रतिद्वंदियों को वर्षों लग जाएंगें। यह एक सुविधा है, इसका लाभ अखबार को मिलता ही है। अब कटेंट सिर्फ प्रिंट पर नहीं होगा। वह तमाम माध्यमों से प्रसारित होकर आपकी सामूहिक शक्ति को बहुत बढ़ा देगा। आज वे संस्थान ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं, जो एक साथ आफलाइन ( प्रिंट), आनलाइन( पोर्टल,वेब, सोशल मीडिया), आन एयर(रेडियो), मोबाइल(एप) आनग्राउंट( इवेंट) पर सक्रिय हैं। इन पांच माध्यमों को साधकर कोई भी अखबार अपनी मौजूदगी सर्वत्र बनाए रख सकता है। ऐसे में बहुविधाओं में दक्ष पेशेवरों की आवश्यकता होगी, तमाम पत्रकार इन विधाओं में पारंगत होंगे। उनके विकास का महामार्ग खुलेगा। मल्टी स्किल्ड पेशेवरों के साथ एकीकृत विपणन और ब्रांडिग सेल्युशन की बात भी होगी। कन्वरर्जेंस से मानव संसाधन का अधिकतम उपयोग संभव होगा और लागत भी कम होगी। अचल संपत्ति की लागत और समाचार को एकत्र करने की लागत भी इस सामूहिकता से कम होगी।
प्रिंट मीडिया ही है लीडर-
 सारे तकनीकी विकास और डिजीटिलाइजेशन के बावजूद भी भारत जैसे बाजार में प्रिंट ही कमा रहा है। एशिया और लैटिन अमरीका में प्रिंट के संस्करण विकसित हो रहे हैं। भारत, चीन और जापान में आज भी प्रिंट मीडिया की तूती बोल रही है। भारत में तो डिजीटल ही संकट में दिखता है क्योंकि उसने मुफ्त की आदत लगा दी है। जबकि प्रिंट मीडिया ने इसका खासा फायदा उठाया। सारी प्रमुख न्यूज वेबसाइट्स अपने प्रिंट माध्यमों की प्रतिष्ठा का लाभ लेकर अग्रणी बनी हुई हैं। भारत जैसे देश में क्षेत्रीय व भाषाई पत्रकारिता में विकास के अपार अवसर हैं। राबिन जेफ्री ने प्रिंट मीडिया के विकास के तीन चरण बताए थे- रेयर, एलीट और मास। अभी भारत ने तो मास में प्रवेश ही लिया है।

गुरुवार, 2 जनवरी 2020

राधेश्याम शर्मा होने का मतलब


एक ध्येयनिष्ठ पत्रकार, संवेदनशील मनुष्य के रूप में याद किया जाएगा उन्हें
-प्रो. संजय द्विवेदी


     इस साल का दिसंबर महीना जाते-जाते एक ऐसा आघात दे गया है जिसे हमारे जैसे तमाम लोग अरसे तक भूल नहीं पाएंगे। यह 28 दिसंबर,2019 का दिन था, शनिवार का दिन, इसी दिन शाम को हमारे प्रिय पत्रकार-संपादक और अभिभावक श्री राधेश्याम शर्मा ने पंचकूला में आखिरी सांसें लीं। साल के आखिरी दिन 31 दिसंबर को भोपाल के माधवराव सप्रे संग्रहालय में नगर के बुद्धिजीवी पत्रकार और संपादक जुटे, उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देने। इस शोकसभा की खासियत यह थी कि यहां सभी धाराओं के बुद्धिजीवियों ने राधेश्याम शर्मा को जिस रूप में याद किया वह दुर्लभ है। इस महती सभा में रघु ठाकुर से लेकर विजयदत्त श्रीधर, कैलाशचंद्र पंत, महेश श्रीवास्तव, लज्जाशंकर हरदेनिया, राजेंद्र शर्मा, राकेश दीक्षित, दविंदर कौर उप्पल, गिरीश उपाध्याय, विजयमनोहर तिवारी और लाजपत आहूजा तक की मौजूदगी बताती है कि राधेश्याम जी का संपर्कों का संसार कितना व्यापक था। एक पत्रकार जिसकी अपनी वैचारिक आस्थाएं बहुत प्रकट हों। जिसने अपने विचाराधारात्मक आग्रहों को कभी छिपाया नहीं, किंतु उसकी राजनीति के सभी धाराओं के नायकों से भरोसे वाली दोस्ती हो यह संभव कहां है? आज की पत्रकारिता में वैचारिक आस्थाएं जिस तरह कट्टरता में बदली हैं और अखाड़ों में पहलवानों की तरह खम ठोंके जा रहे हों वहां राधेश्याम जी जैसे पत्रकार की मौजूदगी एक दीपस्तंभ की तरह थी। जहां विचारों के साथ मनुष्यता और संवेदना जगह पाती थी। उन्होंने अपनी वैचारिक और व्यावसायिक प्रतिबद्धता को हमेशा अलग रखा।
      अपने विद्यार्थी जीवन में काशी हिंदू विश्वविद्यालय, वाराणसी में पढ़ते हुए ही वे पत्रकारिता से जुड़ गए थे। 1956 में उन्होंने पूरी तरह अपने आपको पत्रकारीय कर्म में समर्पित कर दिया। तब से लेकर आजतक मध्यप्रदेश से लेकर पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली की पत्रकारिता में उन्होंने अपने उजले पदचिन्ह छोड़े। एक नगर प्रतिनिधि से काम प्रारंभ कर वे विशेष संवाददाता और फिर दैनिक ट्रिब्यून, चंडीगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण अखबार के संपादक बने। इतने बड़े अखबार के संपादक पद पर रहते हुए ही उन्होंने उसे छोड़कर मीडिया शिक्षा के लिए खुद को समर्पित कर दिया और 1990 में भोपाल में स्थापित हुए माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पहले महानिदेशक (अब पदनाम कुलपति है)बने। इसके बाद वे हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक भी बने। अपनी पूरी जीवन यात्रा में उन्होंने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया।
सक्रिय पत्रकार, योग्य संपादकः
      भोपाल के तमाम लोग उनकी पत्रकारिता के गवाह हैं, जिन्होंने एक रिर्पोटर के रुप में उनकी सक्रियता भरे दिन देखे हैं। राजनेताओं से उनकी निकटता जगजाहिर थी। दैनिक युगधर्म के संवाददाता के रूप में वे भोपाल में पदस्थ थे। उनका अखबार जबलपुर से निकलता था, कुछ प्रतियां ही भोपाल आती थीं। किंतु उनका संपर्क और व्यवहार ऐसा था कि लोग उनपर भरोसा करते थे। कांग्रेस, भाजपा, सोशलिस्ट,कम्युनिस्ट सब उनके दोस्त थे। दोस्ती भी ऐसी कि राज की बातें उन्हें बताते, जिसकी गवाही सुबह उनका अखबार देता था। राजनीतिक गलियारों में उन दिनों भोपाल के वीटी जोशी, लज्जाशंकर हरदेनिया, सत्यनारायण श्रीवास्तव, दाऊलाल साखी, तरूण कुमार भादुड़ी जैसे पत्रकारों की तूती बोलती थी। किंतु राधेश्याम जी इन सबमें अपनी संपर्कशीलता, सरल स्वभाव और पारिवारिक रिश्तों के चलते एक अलग स्थान रखते थे। आज भी भोपाल के लोग उन्हें याद कर भावुक हो उठते हैं।
     बाद के दिनों में वे युगधर्म के संपादक होकर जबलपुर चले गए और उसके बाद वे चंडीगढ़ चले गए। इन सारे प्रवासों के बीच भी भोपाल उनका एक घर बना रहा। वे आते तो सबकी हाल लेते, सबसे मिलते और परिवारों में जाते। अपने साथियों और अधीनस्थों के परिजनों, बच्चों की स्थिति, प्रगति,पढ़ाई और विवाह सब पर उनकी नजर रहती थी। अपने लंबे पत्रकारीय जीवन में उन्होंने अनेक सर्वोच्च नेताओं, प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों और समकालीन विविध क्षेत्रों के लोगों से लंबे इंटरव्यू किए। मुलाकातें कीं। किंतु उन्हें दादा माखनलाल चतुर्वेदी के साथ उनकी भेंटवार्ता सबसे प्रेरक लगती थी। वे उसे बार-बार याद करते थे। इस भेंट में माखनलाल जी ने उनसे कहा था – पत्रकार की कलम न अटकनी चाहिए, न भटकनी चाहिए, न रुकनी चाहिए, न झुकनी चाहिए। राधेश्याम जी ने इसे अपना जीवन मंत्र बना लिया। अपने संवादों में वे अक्सर इस बात को रेखांकित करते थे। यह संयोग ही था कि वे बाद में दादा के नाम पर बने विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति भी बने। उनके मीडिया चिंतन पर पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल ने मीडियाः क्रांति या भ्रांति शीर्षक से पुस्तक का प्रकाशन भी 2015 में किया, जिसमें मीडिया को लेकर उनके विमर्शों से हम परिचित हो सकते हैं। सही मायनों में संपादकों की विलुप्त हो रही पीढ़ी में वे एक ऐसे नायक हैं, जिन-सा होना बहुत कठिन है। अपने पद के वैभव और प्रभाव के परे वे बेहद संवेदनशील इंसान थे, जिसने सबका भला चाहा और किया।
पत्रकारिता विश्वविद्यालय की बगिया के मालीः
   उनके हिस्से एक ऐतिहासिक उपलब्धि है- भोपाल में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की स्थापना और उसका पहला महानिदेशक नियुक्त होना। एक-एक व्यक्ति को जोड़कर उन्होंने इस विश्वविद्यालय को खड़ा किया और उसकी प्रगति की हर सूचना पर हर्षित होते थे। वे जब भी मिलते तब कहते मैं तो इस बगिया का माली रहा। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे हर छोटे से छोटे व्यक्ति को यह अहसास कराते कि वह कितना महत्त्वपूर्ण है। उनकी इसी विशेषता को रेखांकित करते हुए वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा ने लिखा-वे केवल राजनेताओं के ही नहीं, अपितु भोपाल के श्रेष्ठ पत्रकारों को एक माला में पिरोने वाले व्यक्ति भी थे।पारिवारिकता उनका वैशिष्ठ्य थी।  पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पुराने छात्र जो आज मीडिया में शिखर पदों पर हैं, उन्हें एक पिता के रूप में याद करते हैं। उनका अभिभावकत्व इतना प्रखर था कि वे इसके अलावा किसी और संज्ञा से नवाजे भी नहीं जा सकते थे। आज जबकि यह विश्वविद्यालय देश में मीडिया शिक्षा का सबसे बड़ा और स्थापित केंद्र बन चुका है, राधेश्याम जी की स्मृति बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। उनके महानिदेशक रहते हुए ही मैंने भी स्नातक के छात्र रूप में विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था। मैं लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक करके आया था और कुलपति के पद की गरिमा को जानता था। किंतु राधेश्याम जी ने एक स्नातक के छात्र से न सिर्फ परिचय प्राप्त किया बल्कि अपने घर पर बुलाकर चाय-नाश्ता कराया और बेहद वात्सल्यमयी अपनी धर्मपत्नी से मिलाया। उनके उस दुलार को  सोचकर आज हैरत होती है कि पत्रकारिता के शिखरों पर रहे शर्मा सर इतनी आत्मीयता कहां से लाते हैं? वे बहुत बड़े थे, जीवन से, मन से और कृति से भी। इसका अहसास उनकी स्नेहछाया में बैठकर होता था।
      बाद के दिनों में वे चंड़ीगढ़ चले गए और मैं अखबारों में काम करते हुए रायपुर, बिलासपुर, मुंबई की परिक्रमा कर भोपाल वापस आ गया। इन दिनों में कोई ऐसा समय नहीं था, जब उन्होंने हमें याद न किया हो। मैं बिलासपुर गया तो बोले मेरे भाई वहां डाक्टर हैं, उनसे मिलो। रायपुर में भी उनके दोस्तों की एक पूरी दुनिया थी। वे बोलते मिलते-जुलते क्यों नहीं ? हमेशा कहते थे रोज अपने तीन पूर्व परिचितों से मिलो और एक नया संपर्क रोज बनाओ। पत्रकारिता में आ रहे लोगों के लिए एक पाठ है यह। हम अमल नहीं कर पाए पर मानते हैं कि कर पाते तो दुनिया ज्यादा बड़ी और बेहतर होती। मेरी शादी से लेकर जीवन के हर प्रसंग उन्होंने चिठ्ठियां भेजीं, फोन किए। आज भी जब तक वे बहुत अस्वस्थ नहीं हो गए, फोन करते हालचाल पूछते। हालचाल मेरा, विश्वविद्यालय का, परिवार का, अपने दोस्तों का। कई बार यह लगता है कि वे इतनी आत्मीयता क्यों देते थे, ऐसा क्या था जो उन्हें हम जैसों से जोड़ता था। वे क्यों हमारी यह खुशफहमियां बनाए रखना चाहते थे कि हम बहुत खास हैं। देश में ऐसे न जाने कितने लोग ऐसे थे जो मानते थे कि वे शर्मा जी के बहुत करीबी हैं। एक महापरिवार उन्होंने खुद बनाया था जिसके वे मुखिया थे। वे प्यार से बड़ी से बड़ी और कड़ी से कड़ी बात कहते जो हमेशा हमारे भले के लिए होती। मीडिया विमर्शपत्रिका का प्रकाशन जब 13 साल पहले रायपुर से प्रारंभ किया तब उन्होंने इसके स्तंभ मेरा समय के लिए अपनी पत्रकारीय यात्रा की पूरी कहानी लिखी। पत्रिका के बारे में बराबर पूछताछ करते और अच्छे सुझाव भी देते। उनके लिए हर व्यक्ति बहुत खास था या वे उसे इसका अहसास कराकर छोड़ते। बहुत गहरी आत्मीयता, वात्सल्य और संवेदना से उन्होंने जो दुनिया रची थी, हमें संतोष है कि हम भी उसके नागरिक थे और उनके साथ उंगलियां पकड़कर उस रास्ते पर थोड़ा चल सके, जिस पर वे पूरी जिंदगी चलते रहे। उस विचार पर भी, उस व्यवहार पर भी जो उन्होंने जिया और हमें जीने के लिए प्रेरित किया। उनका जाना एक सच्चाई है किंतु वे बने रहेंगे हमारी यादों में यह उससे बड़ी सच्चाई है। क्योंकि उन्हें भूलना खुद को भूलना होगा, अपनी जड़ों को भूलना होगा, आत्मीयता और औदार्य को भूलना होगा। रिश्तों की गरमाहट को भूलना होगा।

गुरुवार, 26 दिसंबर 2019

आशा-निराशा के झूलों में झूलता रहा पूरा साल



जा रहे साल-2019 के नाम



-प्रो. संजय द्विवेदी
     किसी भी जाते हुए साल, बीते हुए समय को लोग याद कहां करते हैं। कई बार बीते दिन सुखद ही लगते हैं। फिर भी यह दिन नहीं है, साल है। वह भी 2019 जैसा। जिसने भारत की राजनीति, समाज, संस्कृति और उसके बौद्धिक विमर्शों को पूरा का पूरा बदल दिया है। जाते हुए साल ने नागरिकता संशोधन कानून(सीएए) के नाम पर सड़कों पर जो आक्रोश देखा है,यह संकेत है कि आने वाले दिन भी बहुत आसान नहीं हैं। कड़वाहटों, नफरतों और संवादहीनता से हमारी राजनीतिक जमातों ने जैसा भारत बनाया है, वह आश्वस्त नहीं करता। डराता है। राष्ट्र की समूची राजनीति के सामने आज यह प्रश्न है वह इस देश को कैसा बनाना चाहती है। यह देश एक साथ रहेगा, एकात्म विचार करेगा या खंड-खंड चिंतन करता हुआ,वर्षों से चली आ रही सुविधाजनक राजनीति का अनुगामी बनेगा। वह सवालों से टकराकर उनके ठोस और वाजिब हल तलाशेगा या शुतुरर्मुग की तरह बालू में सिर डालकर अपने सुरक्षित होने की आभासी प्रसन्नता में मस्त रहेगा।
पुलवामा हमले से हिला देशः
     साल के आरंभिक दिनों में हुए पुलवामा हमले ने जहां हमारी आंतरिक सुरक्षा पर गहरे सवाल खड़े किए, वहीं साल के आखिरी दिनों में मची हिंसा बताती है कि हमारा सभ्य होना अभी शेष है। लोकतांत्रिक प्रतिरोध का माद्दा अर्जित करने और गांधीवादी शैली को जीवन में उतारने के लिए अभी और जतन करने होगें। हम आजाद तो हुए हैं पर देशवासियों में अभी नागरिक चेतना विकसित करने में विफल रहे हैं। यह साधारण नहीं है कि सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने और अपने ही लोगों को ही प्रताड़ित करने में हमारे हाथ नहीं कांप रहे हैं। पुलवामा में 40 सैनिकों की शहादत देने के बाद भी राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर हमारी नागरिक चेतना में कोई चैतन्य नहीं है।राजनीतिक लाभ के लिए भारतीय संसद में बनाए गए कानूनों को रोकने की हमारी कोशिशें बताती हैं कि विवेकसम्मत और विचारवान नागरिक अभी हमारे समाज में अल्पमत में हैं। यह ठीक है कि सरकारों की जिम्मेदारी है कि वे अपने नागरिकों में विश्वास की बहाली करें और उनसे संवाद करें। किंतु यहां यह भी देखना होगा कि विरोध के लिए उतरे लोग क्या इतने मासूम हैं और संवाद के लिए तैयार हैं? अथवा वे ललकारों और हुंकारों के बीच ही अपने राजनीतिक पुर्नजीवन की आस लगाए बैठे हैं। ऐसे समय में हमारे राजनीतिक नेतृत्व से जिस नैतिकता और समझदारी की उम्मीद की जाती है, क्या वह उसके लिए तैयार भी हैं?
मोदी हैं सबसे बड़ी खबरः
      इस साल की सबसे बड़ी खबर तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ही हिस्से रही। लगातार दूसरी बार एक गैरकांग्रेसी सरकार का सत्ता में पूर्ण बहुमत के साथ आना भारतीय राजनीतिक इतिहास की एक बड़ी घटना है। मोदी का जादू फिर सिर चढ़कर बोला और भाजपा 303 सीटें जीतकर सत्ता में वापस आई। 2014 में भाजपा को 282 सीटें मिली थीं।  इसी के साथ मोदी ऐसे प्रधानमंत्री भी बन गए जिन्होंने पं. जवाहरलाल नेहरू और श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद तीसरे ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने, दूसरी बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई। दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस साल अपना पद छोड़ दिया और काफी मान-मनौव्वल के बाद भी नहीं माने। अंततः श्रीमती सोनिया गांधी को यह पद स्वीकार करना पड़ा।
       साल के आखिरी महीने की कड़वाहटों को छोड़ दें तो जाता हुआ साल 2019 कई मामलों में बहुत उम्मीदें जगाने वाला साल भी है। कश्मीर में धारा 370 की समाप्ति और राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला दो ऐसी बातें हैं जो इस साल के नाम लिखी जा चुकी हैं। इस मायने में यह साल हमेशा के लिए इतिहास के खास लम्हों में दर्ज हो गया है। भारतीय राजनीति में चीजों को टालने का एक लंबा अभ्यास रहा है। समस्याओं से टकराने और दो-दो हाथ करने और हल निकालने के बजाए, हमारा सोच संकटों से मुंह फेरने का रहा है। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद अरसे से एक ऐसे नायक का इंतजार होता रहा, जो निर्णायक पहल कर सके और फैसले ले सके। धारा 370 सही मायने में केंद्र सरकार का एक अप्रतिम दुस्साहस ही कहा जाएगा। किंतु हमने देखा कि इसे देश ने स्वीकारा और कांग्रेस पार्टी सहित अनेक राजनीतिक दलों के नेताओं ने इस फैसले की सराहना की।
मंदिर पर सुप्रीम फैसलाः
    राममंदिर पर सुप्रीम कोर्ट का सुप्रीम फैसला भी इसी कड़ी में एक बहुत महत्वपूर्ण तारीख है। जिसने सदियों से चले आ रहे भूमि विवाद का निपटारा करके भारतीय इतिहास के सबसे खास मुकदमे का पटाक्षेप किया। तीन तलाक का मुद्दा एक ऐसा ही विषय था जिसने भारतीय मुस्लिम स्त्रियों की जिंदगी में छाए अंधेरों को काटकर एक नई शुरुआत की। यह एक ऐसा विषय था जिसे आस्था और संविधान की बहस में उलझाया गया। लेकिन मानवीय और संवैधानिक दृष्टि से यह बहुत बड़ा मुद्दा था। हालांकि स्त्री सुरक्षा के लिए यह साल भी बहुत उम्मीदें जगाकर नहीं गया। साल के प्रारंभ में उन्नाव दुष्कर्म कांड से लेकर साल के अंत में हैदराबाद की वेटनरी डाक्टर की निर्मम हत्या और दुराचार की घटनाओं ने बताया कि हमारे समाज में अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है। हैदराबाद दुष्कर्म मामले के आरोपियों को पुलिस ने तत्काल मार गिराया किंतु निर्भया मामले के अपराधियों को आज तक फांसी के फंदों पर नहीं लटकाया जा सका। कानून की बेचारगी इस सबके बीच चर्चा का विषय बनी।
सामान्य वर्ग को आरक्षण की राहतः     
    जनवरी महीने में सामान्य वर्ग को दस प्रतिशत आरक्षण देने का बिल संसद ने पास किया। गुजरात इसे लागू करने वाला देश का पहला राज्य बना। इस कानून ने आरक्षण पर मचे बवाल पर सामान्य वर्गों को राहत देने की भावभूमि बनाई। इस साल के एक महत्वपूर्ण उत्सव के रूप में प्रयागराज में कुंभ को भी याद किया जाएगा। इस कुंभ में 15 करोड़ लोगों ने स्नान किया और दुनिया के 190 देशों को आमंत्रण भेजे गए। कुंभ की व्यवस्थाओं को लेकर उप्र सरकार की काफी सराहना भी हुयी।
        इस साल ने हमें आशा, निराशा, उम्मीदों और सपनों के साथ चलने के सूत्र भी दिए हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार युवाओं पर भारी उम्मीदें जता रहे थे। हम देखें तो भारत का स्टार्टअप तंत्र  जिस तरह से युवा शक्ति के नाते प्रभावी हुआ है, वह हमारी एक बड़ी उम्मीद है। सन 2019 में ही कुल 1300 स्टार्टअप प्रारंभ हुए। कुल 27 कंपनियों के साथ भारत में पहले ही चीन और अमरीका के बाद तीसरे सबसे ज्यादा यूनिकार्न (एक अरब से ज्यादा के स्टार्टअप) मौजूद हैं। भारत की यह प्रतिभा सर्वथा नई और स्वागतयोग्य है। वहीं दूसरी ओर मंदी की खबरों से इस साल बाजार थर्राते रहे। निजी क्षेत्रों में काफी लोगों की नौकरियां  गईं और नए रोजगार सृजन की उम्मीदें भी दम तोड़ती दिखीं। बहुत कम ऐसा होता है महंगाई और मंदी दोनों साथ-साथ कदमताल करें। पर ऐसा हो रहा है और भारतीय इसे झेलने के लिए मजबूर हैं। नीतियों का असंतुलन, सरकारों का अनावश्यक हस्तक्षेप बाजार की स्वाभाविक गति में बाधक हैं। भारत जैसे महादेश में इस साल की दूसरी तिमाही में विकास दर 4.5 फीसद रह गयी थी, अगले छह माह में यह क्या रूप लेगी कहा नहीं जा सकता। इस साल पांच फीसदी की विकास दर भी नामुमकिन लग रही है। सच तो यह है कि मोदी सरकार ने अपने प्रारंभिक दो सालों में जो भी बेहतर प्रदर्शन किया, नोटबंदी और जीएसटी ने बाद के दिनों में उसके कसबल ढीले कर दिए। बिजनेस टुडे के पूर्व संपादक प्रोसेनजीत दत्ता मानते हैं कि-यदि सहस्त्राब्दी का पहला दशक मुक्त बाजार सिद्धांत की अपार संभावनाओं वाला था तो यह दशक बेतरतीब सरकारी हस्तक्षेप वाला रहा। ऐसे में आने वाला साल किस तरह की करवट लेगा इसके सूत्रों को जानने के लिए मार्च,2020 तक नए बजट के बाद की संभावनाओं का इंतजार करना होगा। इसमें दो राय नहीं कि वैश्विक स्तर पर भारत की विदेश नीति में प्रधानमंत्री ने अपनी सक्रियता से एक नर्ई ऊर्जा भरी, किंतु भारत की स्थानीय समस्याओं, लालफीताशाही, शहरों में बढ़ता प्रदूषण, कानून-व्यवस्था के हालात ऐसे ही रहे तो उन संभावनाओं का दोहन मुश्किल होगा।
नवसंकल्पों और नवाचारों का समयः
    उदारीकरण की इस व्यवस्था के बीज इस अकेले साल के माथे नहीं डाले जा सकते। 1991 से लागू इस भूमंडलीकरण और उदारीकरण ने हमारे गांवों, किसानों और सामान्य जनों को बेहद अकेला छोड़ दिया है। किसानों की आत्महत्याएं, उनकी फसल का सही मूल्य, जनजातियों के जीवन और सुरक्षा जैसे सवाल आज नक्कारखाने में तूती की तरह ही हैं। मुख्यधारा की राजनीति के मुद्दे बहुत अलग हैं। उन्हें देश के वास्तविक प्रश्नों पर लाना कठिन ही नहीं असंभव ही है। जाता हुआ साल भी हमारे सामने विकराल जनसंख्या, शरणार्थी समस्या, घुसपैठ, कृषि संकट, महंगाई, बेरोजगारी जैसे तमाम प्रश्न छोड़कर जा रहा है। सन 2020 में इन मुद्दों की समाप्ति हो जाएगी, सोचना बेमानी है। बावजूद इसके हमारे बौद्धिक विमर्श में असंभव प्रश्नों पर भी बातचीत होने लगी है, यह बड़ी बात है। हमें अपने देश के सवालों पर, संकटों पर, बात करनी होगी। भले वे सवाल कितने भी असुविधाजनक क्यों न हों। 2019 का साल जाते-जाते कुछ बड़े मुद्दों का हल देकर जा रहा है। नए साल-2020 का स्वागत करते हुए हमें कुछ नवसंकल्प लेने होंगें, नवाचार करने होंगे और अपने समय के संकटों के हल भी तलाशने होगें। अलविदा- 2019!




सोमवार, 23 दिसंबर 2019

बृजलाल द्विवेदी स्मृति पत्रकारिता सम्मान से अलंकृत किए जाएंगे कमलनयन पाण्डेय


9 फरवरी,2020 को मीडिया विमर्शके आयोजन में होंगे सम्मानित


भोपाल। पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष त्रैमासिक पत्रिका युगतेवर’ (सुल्तानपुर,उत्तर प्रदेश) के संपादक कमलनयन पाण्डेय को दिया जाएगा। सम्मान समारोह आगामी 09 फरवरी, 2020 (रविवार) को भोपाल स्थित गांधी भवन में आयोजित किया जाएगा।
          मीडिया विमर्शपत्रिका के कार्यकारी संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने बताया कि यह पुरस्कार प्रतिवर्ष हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित करने के लिए दिया जाता है। उन्होंने बताया कि श्री कमलनयन पाण्डेय साहित्यिक पत्रकारिता के महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ जाने-माने साहित्यकार और लेखक भी हैं। 38 वर्षों से वे समकालीन लेखन को समर्पित साहित्यिक पत्रिका युगतेवरका संपादन कर रहे हैं। पूर्व में यह पत्रिका तेवरनाम से भी प्रकाशित होती रही है, 2006 में इसका नाम युगतेवरकर दिया गया। सम्मान का यह बारहवां वर्ष है। त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्शद्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिल भारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रुपए, शाल, श्रीफल, प्रतीक चिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है।
     पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव(पूर्व संपादकः नवभारत टाइम्स,मुंबई), रमेश नैयर (पूर्व निदेशकः छत्तीसगढ़ ग्रंथ अकादमी, रायपुर), तथा डा. सच्चिदानंद जोशी( सदस्य सचिवः इंदिरा गांधी कला केंद्र,दिल्ली) शामिल हैं। इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यास, दस्तावेज (गोरखपुर) के संपादक डा.विश्वनाथ प्रसाद तिवारी, कथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायण, अक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाज, सद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकज, व्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय, कला समय (भोपाल) के संपादक विनय उपाध्याय, संवेद (दिल्ली) के संपादक किशन कालजयी, अक्षरा (भोपाल) के संपादक कैलाशचंद्र पंत, अलाव (दिल्ली) के संपादक रामकुमार कृषक और प्रेरणा (भोपाल) के संपादक अरुण तिवारी को दिया जा चुका है।


बदलेंगें पर बचे रहेंगे अखबार


-प्रो. संजय द्विवेदी

          ई-मीडिया, सोशल मीडिया, यू-ट्यूब और कुल मिलाकर मोबाइल क्रांति ने सबसे बड़ा नुकसान अखबार और पत्रिकाओं का किया है। इस समय का संकट यह है कि अब पढ़ने का वक्त मोबाइल पर जा रहा है। पठनीयता का यह संकट प्रिंट माध्यमों के सामने एक चुनौती की तरह है। सूचना और ज्ञान के लिए ई-माध्यमों और मोबाइल पर बढ़ती निर्भरता ने प्रिंट माध्यमों को बदलने की चुनौती भी दी है। क्योंकि अगर ये बदलते नहीं तो अप्रासंगिक हो जाएंगे। बदलना मजबूरी है, सो अखबार खुद को बदलेंगें और बचे रहेंगे।
       इस पूरे परिदृश्य को देखें तो अखबार बदल रहे हैं। ज्यादा सरोकारी और ज्यादा संदर्भों के साथ प्रस्तुत हो रहे हैं। उनकी साज-सज्जा और प्रस्तुति भी होड़ करती दिखती है। अब राजनीति ही अखबार का मुख्य समाचार नहीं है। समाज जीवन के विविध संदर्भ यहां जगह पा रहे हैं। अखबार के पृष्ठ बढ़े हैं और यह आवश्यक नहीं प्रधानमंत्री पहले पन्ने पर लीड बनें। प्रधानमंत्री और सत्ताधीशों का पहले पन्ने से गायब होना यह संकेत है कि अखबार अपने को बदल रहे हैं। अब अखबार आपकी जरूरत का बन रहा है। वह आपके हिसाब से बनाया जा रहा है। उसे आपके सपनों, आकांक्षाओं, आवश्यक्ताओं के तहत बनाया जा रहा है। वह थोपा नहीं जा रहा है, वह बात कर रहा है। तकनीक की दुनिया ने इसे संभव किया है। हिंदुस्तान जैसे देश की विविधता और बहुलता के हिसाब से अलग-अलग अखबार बनाए जा रहे हैं। स्थानीयता इसमें एक प्रमुख तत्व के रूप में सामने आई है। स्थानीय संस्करणों की अवधारणा और शहरों के पूलआउट इसे व्यक्त रहे हैं। कंटेट के स्तर पर बदलाव हमें चौतरफा दिखता है।
       ई-मीडिया की क्रांति के बाद अखबार अब खबर देने वाले पहले माध्यम नहीं रहे। सूचनाएं कई अन्य माध्यमों से हमें मिल चुकी होती हैं। एक समय में अखबारों से ही जानते थे हमारे देश, प्रदेश और शहर में क्या हुआ। सोशल मीडिया और मोबाइल क्रांति के चलते हर व्यक्ति अब सूचना संपन्न है। उसके पास सारी सूचनाएं आ चुकी हैं। अब वह 24 घंटे में एक बार आने वाले अखबार का क्या करे? जाहिर तौर पर संकट गहरा है।  बावजूद इसके यह माना जा रहा है कि छपे हुए शब्दों पर भरोसा कम नहीं होगा, इसलिए अखबारों की अहमियत कायम रहेगी। अखबार के मूल तत्व मीडिया और सूचना क्रांति के बाद भी नहीं बदलेंगे। सोशल मीडिया का ऊफान आज है कल रहेगा, यह जरूरी नहीं। न्यू मीडिया भी कब तक न्यू रहेगा कहा नहीं जा सकता। हम याद करें तो टीवी क्रांति के समय भी यह माना गया था कि अब प्रिंट मीडिया को गहरा संकट है। किंतु ऐसा नहीं हुआ बल्कि चैनल क्रांति के चलते अखबार संभले, रंगीन हुए, ज्यादा सुदर्शन और आकर्षक प्रस्तुतिजन्य हुए। ऐसे में अखबारों की बेहतर प्रस्तुति और सिटीजन जर्नलिज्म की मांग बढ़ेगी। अखबार की दुनिया में काम करने वाले सभी मीडिया हाउस अब डिजीटल मीडिया पर भी काम कर रहे हैं। उनकी वर्षों में बनी विश्वसनीयता और प्रामणिकता उनके काम आ रही है। अखबार इस तरह बचे रहेगें। एक समय में अखबारों में 40 प्रतिशत भाषण, 20 प्रतिशत प्रेसनोट और 40 प्रतिशत खबरें छपती थीं। अब आपके मन और इच्छा का अखबार तैयार हो रहा है। उसका जोर सूचनाओं पर नहीं, विश्लेषण पर है, व्याख्या पर है। फीचर पर है। घटनाओं पर नहीं इवेंट्स पर है। वह सुंदर दृश्यों का साक्षी बनना चाहता है। अब समस्याएं ही उसका मुख्य स्वर नहीं, अब जीवन या लाइफ स्टाइल भी उसका मुख्य समाचार है। उसकी इच्छा एक साथ आधुनिकता और परंपरा दोनों को साधने की है। भारत की विविधता और उत्सवधर्मिता उसका मूल स्वर है। बाजार भी इसमें उसके साथ खड़ा है। वह अब ईद और दीवाली भर नहीं, करवा चौथ, छठ और गरबा सबका राष्ट्रीयकरण कर रहा है। उसे अक्षय तृतीया की भी याद है और वेलेंटाइन डे की भी। उसे रोज डे भी मनाना है और नया साल भी। नया साल एक जनवरी का भी और गुड़ी पाड़वा, हिंदू नववर्ष का भी।
      इस बदलते अखबार को समझना है तो भारत और उसके समाज को भी समझना होगा। 1991 के बाद जीवन में घुस आई उदारीकरण के पैदा हुई, समझ को भी समझना होगा। यह झोलाछाप पत्रकारिता का समय नहीं है, यह एक कारपोरेट मीडिया है। जिसके केंद्र में सिर्फ गरीब, संघर्ष करते लोग नहीं, खाय-अधाए लोग भी हैं। वह जरुरतों और संसाधनों से भरे पूरे लोगों की भी कहानियां सुना रहा है। उनकी पार्टियां उसके पन्नों पर पेज-3 की तरह परोसी जा रही हैं। सेलेब्रटी होना अब समाचार के लायक होना भी है। सेलेब्रेटी के लिए सामाजिक मूल्य मायने नहीं रखते, वह क्या खाता है, क्या पहनता है, उसकी पार्टियां कितनी रंगीन है, यहां उसी का मूल्य है। अखबारों में अब एक साथ गंभीरता और हल्कापन दोनों है। वे बाजार को भी साधते हैं और कुछ पढ़ने वाले पाठकों को भी। वे अब एक बड़े वृत्त के लिए काम करते हैं। अखबार भी चाहते हैं कि वे भी आदमी की तरह स्मार्ट बनें और स्मार्ट पाठकों के बीच पढ़े जाएं। इसलिए अब पाठक ही नहीं, अखबार भी अपने पाठकों को चुन रहे हैं। अखबार अब सिर्फ प्रसारित नहीं होना चाहते, वे क्लास के बीच पढ़े जाना चाहते हैं। वे प्रभुवर्गों के बीच अपनी मौजूदगी चाहते हैं। राजनीति की तरह अब अखबारों के केंद्र में जनता नहीं ताकतवर लोग हैं। खाए-अधाए लोग हैं, जो उपभोक्ता बन चुके हैं या उनमें खरीददार बनने की संभावनाएं हैं। इसलिए यहां प्रबंधन खास है, संपादक दोयम। क्योंकि यहां विचारों का भी प्रबंधन करना है, इसलिए कुछ समझदार लोग बिठाए गए हैं। जो एक बाजार के लिए अनुकूलित समाज बनाने में अहर्निश साधना कर रहे हैं। ऐसे अखबारों में काम के लोग तलाशे जा रहे हैं। कई अर्थों में कार्य स्थितियां बेहतर हो रही हैं।
       इस नए समय ने डेस्क और फील्ड की दूरी को भी पाट दिया है। नए कंटेंट का विकास और सृजन यहां महत्वपूर्ण है। चलता है, वाला ट्रेंड अब विदाई की ओर है। कहते हैं अखबारों के डिजीटल एडीशन का सूरज नहीं ढलता, अखबार अब चौबीस घंटों के उत्पाद में बदल रहे हैं, वे भले घर में सुबह या शाम को एक बार आ रहे हैं किंतु उनका डिजीटल संस्करण 24X7 है। ऐसे में अपार अवसरों का सृजन भी हो रहा है। एक नए अखबार से मुलाकात हो रही है, जो 1991 के बाद पैदा हुआ है। यह बाजारीकरण, भूमंडलीकरण के मूल्यों से पैदा हुआ अखबार है। परिर्वतन के इसी प्रभाव को रेखांकित करते हुए 1982 में टीवी के कलर होने पर कवि-संपादक रघुवीर सहाय ने कहा था कि अब खून का भी रंग दिखेगा 1991 में भूमंडलीकरण की नीतियों को स्वीकार करने के बाद की मीडिया में अनेक ऐसे रंग दिख रहे हैं, जो हमारे इंद्रधनुष में नहीं थे। यह बिल्कुल नया अखबार है, जिसकी जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भनाल में नहीं हैं, उसे वहां खोजिएगा भी नहीं। नैतिक अपेक्षाएं तो बिल्कुल मत पालिएगा। निराशा होगी।

गुरुवार, 12 दिसंबर 2019

मलयालम मीडिया पर शोध ग्रंथ सरीखा है मीडिया विमर्श का विशेषांकःगफूर


त्रिश्शूर में मलयालम मीडिया पर केंद्रित अंक का विमोचन


त्रिश्शूर,(केरल)। मीडिया विमर्श पत्रिका के मलयालम विशेषांक का लोकार्पण मुस्लिम एजुकेशन सोसाइटी (एम.ई.एस ) के अध्यक्ष डॉ .पी.ए .फसल गफूर जी के कर कमलों से सम्पन्न हुआ । पत्रिका की प्रथम प्रति दक्षिण अफ्रीका के अरबा मिंच विश्व विद्यालय के अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष प्रो.डॉ गोपाल शर्मा ने स्वीकार किया। केरल राज्य के एम्.इ.एस कल्लटी कालेज, त्रिश्शूर के भाषा विभागों के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित द्विदिवसीय अंतर राष्ट्रीय संगोष्ठी महात्मा : सरहदों से परे के उदघाटन सत्र में इस विशेषांक के अतिथि सम्पादक  डॉ.सी जयशंकर बाबु के प्रयास को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि यह अंक मलयालम मीडिया पर एक शोध ग्रंथ सरीखा है।
  इस अवसर मुस्लिम एजुकेशन सोसाइटी  के अध्यक्ष डॉ .पी.ए .फसल गफूर जी ने कहा कि “यह अंक दक्षिण भारत के मलयालम मीडिया को हिंदी के पाठकों के समक्ष रखने का अद्भुत प्रयास है।इससे भारतीय भाषाओं की एकता में अभिवृद्धि होगी। प्रो.डॉ गोपाल शर्मा ने  बताया की “देश-विदेश में फैले हिंदी पाठक समूह को इस पत्रिका में प्रकाशित मलयालम मीडिया के रचनाकार,संपादक,फिल्म निदेशक,विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ आदि का परिचय प्राप्त होगा। इस क्षेत्र में तुलनात्मक अध्ययन अब शैशव दशा में है । इस दृष्टि यह शोधार्थियों को शोध के लिए  प्रेरित करेगा ।उनके विचार में मलयालम भाषी भी इस अंक को पढ़ना और पढ़वाना चाहेंगे”।
 अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी के संयोजक एवं हिंदी विभाग के अध्यक्ष डॉ.रंजित एम् ने इस अंक को महात्मा गांधी जी के व्यापक भाषा दृष्टि से जोड़ा और कहा इस अंक का यहाँ इस रूप में लोकार्पण होने से गांधी जी के हिंदी दर्शन को आगे बढ़ावा भी मिलेगा। सभा में उपस्थित सभी विद्वानों ने अतिथि संपादक की भूरी –भूरी प्रशंसा की और कहा मूलतः तेलुगु भाषी एवं हिंदी के वरिष्ठ विद्वान् एवं संपादक डा.जयशंकर बाबूजी ने मलयालम भाषा के अनेक विद्वानों से मीडिया संबंधी विषयों पर अनुग्रह पूर्वक लिखवाकर दक्षिण की भाषा पत्रकारिता के क्षेत्र में सराहनीय योगदान दिया है,और आशा की जानी चाहिए की सभी भारतीय  भाषाओं की पत्रकारिता पर विशेषांक निकाला जायेंगे। विमोचन समारोह में कोलेज के एम्.इ.एस कल्लटी कोलेज प्रबन्धन समिति के सचिव जनाब पी .यु मुजीब,चेयरमान के.सी.के.सैद अली, प्राचार्य टी.के जलील, एम्.इ.एस पालक्काट,जिला अध्यक्ष जब्बार अली, शाजिद वलांचेरी,श्रीमती ए.रमला आदि भी शामिल थे । उल्लेखनीय है कि त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श निरंतर भाषाई पत्रकारिता पर काम करते हुए अब तक उर्दू पत्रकारिता, तेलुगु मीडिया, गुजराती मीडिया पर विशेषांकों का प्रकाशन कर चुकी है। मलयालम चौथी भारतीय भाषा है जिस पर पत्रिका ने विशेषांक का प्रकाशन किया है।