-प्रो. संजय द्विवेदी
डिजीटल मीडिया की बढ़ती ताकत, मोबाइल क्रांति और सोशल मीडिया की उपलब्धता
ने पढ़ने की दुनिया को काफी प्रभावित किया है। पढ़े जाने वाले अखबार, अब पलटे भी
कम जा रहे हैं। केंद्रीय सूचना प्रसारण मंत्री प्रकाश जावडेकर ने एक बार रायपुर
में ‘मीडिया विमर्श’ पत्रिका के आयोजन में कहा था कि “पहले एक अखबार पढ़ने में मुझे 40 मिनट लगते थे अब उतनी देर में दर्जन भर
अखबार पलट लेता हूं।” वे ठीक कह रहे हैं, किंतु
पढ़ने का समय घटने के लिए अखबार अकेले जिम्मेदार नहीं हैं। अखबारों को देखें तो वे
पुराने अखबारों से बहुत सुदर्शन हुए हैं। आज वे बेहतर प्रस्तुति के साथ, अच्छे
कागज पर, उन्नत टेक्नालाजी की मशीनों पर छप रहे हैं। वे मोटे भी हुए हैं। उनकी
प्रस्तुति टीवी से होड़ करती दिखती है। उनके शीर्षक बोलने लगे हैं, कई बार टीवी की
भाषा ही उनकी भाषा है। उनका कलेवर बहुत आकर्षक हो चुका है। बावजूद इसके पठनीयता के
संकट को देखते हुए यह जरूरी है कि अखबार नए तरीके से प्रस्तुत हों और ज्यादा ‘लाइव प्रस्तुति’ के साथ आगे आएं। तमाम समाचार पत्र
ऐसे प्रयोग कर भी रहे हैं। अखबारों को चाहिए कि वे तटस्थता से हटकर एकात्मता की ओर
बढ़ें। पूरे अखबार में एक लय और एक स्वर या संगीत की तरह एक सुर हो। ताकि उस
भावभूमि का पाठ सीधा उस अखबार से अपना भावनात्मक रिश्ता जोड़ सके।
विशिष्टता की ओर बढ़ें-
एक समय में अखबार का सर्वग्राही
होना उसकी सफलता की गारंटी होता था। वह सब कुछ साथ लेकर चलता था। किंतु अब समय है
कि अखबार अपने आप में विशिष्टता पैदा करें कि आखिर वे किस पाठक वर्ग के साथ जाना
चाहते हैं। इसका आशय यह भी है कि अखबार को अब अपना व्यक्तित्व विकसित करना होगा।
उन्हें खास दिखना होगा। उसको किसे संबोधित करना है, इसका विचार करना होगा। उन्हें
झुंड से अलग दिखना होगा। एक समर्पित संस्था की तरह काम करना होगा।अब वे सिर्फ खबर
देकर मुक्त नहीं हो सकते, उन्हें अपने सरोकारों को स्थापित करने के लिए आगे आना
होगा। सोशल मीडिया और डिजीटल मीडिया की हर हाथ में उपलब्धता के बाद खबर देने का
काम अब अकेला अखबार नहीं करता। अखबार जब तक
छपकर आता है, तब तक खबरें वायरल हो चुकी होती हैं। टीवी, डिजीटल माध्यम और
सोशल मीडिया खबरें ब्रेक कर चुके होते हैं। यानि अब अखबार का मुख्य उत्पाद खबर
नहीं है। उसका सरोकार, उसकी विश्लेषण शक्ति, उसकी खबरों के पीछे छिपे अर्थों को
बताने की क्षमता, व्याख्या की शैली यहां महत्वपूर्ण हैं। अखबार को स्थानीय जनों से
एक रिश्ता बनाना पड़ेगा जिसके मूल में खबर नहीं स्थानीय सामाजिक सरोकार होंगे।
सामाजिक सरोकारों से गहरी संलग्नता ही किसी अखबार की स्वीकार्यता में सहायक होगी।
शायद इसीलिए अब अखबार इवेंट्स और अभियानों का सहारा लेकर लोगों के बीच अपनी पैठ
बना रहे हैं। इससे ब्रांड वैल्यू के साथ स्थानीय सरोकार भी स्थापित होते हैं।
डेस्क नहीं सीधे मैदान से-
अखबारों
को अगर अपनी उपयोगिता बनाए रखनी है, तो उन्हें मैदानी रिर्पोटिंग पर ध्यान देना
होगा। टीवी,डिजिटल सोशल मीडिया और हर जगह ज्ञान देने वाले की फौज है पर मैदान में
उतरकर वास्तविक चीजें और खबरें करने वाले लोग कम हैं। एक ही ज्ञान इतने स्थानों से
कापी होकर निरंतर प्रक्षेपित हो रहा है कि अब लोग नए विचारों की प्रतीक्षा में
हैं। नई खबरों की प्रतीक्षा में हैं। ये खबरें डेस्क पर लिखी और रची हुई नहीं
होंगी। इसमें माटी की महक और जमीन हो रहे संघर्षों की धमक होगी। इन खबरों में आम
लोगों की जिंदगी होगी जो अपने पसीने की खुशबू से इस दुनिया बेहतर बनाने में लगे
हैं। यहां सपने होंगे, उम्मीदें होंगी और असंभव के संभव बनाते भागीरथ होंगे। इसके
लिए हमें बोलने के बजाए सुनने का अभ्यास करना होगा। इसे ही ‘इंटरेक्टिव’ होना कहते हैं। यह मंच एकतरफा बात के
बजाए संवाद का मंच होगा। अपने पाठकों और उनकी भावनाओं का विचार यहां प्रमुख होगा।
उन पर चीजें थोपी नहीं जाएंगी, उन्हें बतायी जाएंगी, समझायी जाएंगी और उस पर उनकी
राय का भी आदर किया जाएगा। लोकतांत्रिक विमर्शों के मंच बनकर ही अखबार अपनी साख
बना और बचा पाएंगे। अखबार विचारों को थोपने के बजाए, विमर्श के मंच की तरह काम
करेगें। सब पक्षों और सभी राय को जगह देते हुए एक सुंदर दुनिया के सपने को सच
बनाते हुए दिखेंगे। समाचार और विचार पक्ष अलग-अलग हैं और उन्हें अलग ही रखा जाएगा।
खबरों में विचारों की मिलावट से बचने के सचेतन प्रयास भी करने होंगे। विचार के
पन्नों पर पूरी आजादी के साथ विमर्श हों, हर तरह की राय का वहां स्वागत हो।
विचारों की विविधता भी हो और बहुलता भी हो। पत्रकार अपनी पोलिटिकल लाइन तो रखें तो
लेकिन पार्टी लाइन से बचें यह भी ध्यान रखना होगा। क्योंकि अखबार की विश्वसनीयता
और प्रामणिकता इससे ही स्थापित होती है।
समस्या नहीं समाधान बनें-
हमारे समाज की एक प्रवृत्ति है
कि हम समस्याओं की ओर बहुत आकर्षित होते हैं और समाधानों की ओर कम सोचते हैं।
अखबारों ने भी अरसे से मान लिया है कि उनका काम सिर्फ संकटों की तरफ इंगित करना है,उंगली उठाना है।हमारा समाज भी ऐसा मानता है कि हमसे क्या मतलब ? जबकि यह हमारा ही समाज है, हमारा ही शहर है और हमारा ही देश है। इसके
संकट, हमारे संकट हैं। इसके दर्दों का समाधान ढूंढना और अपने लोगों को न्याय
दिलाना हमारी भी जिम्मेदारी है। एक संस्था के रूप में अखबार बहुत ताकतवर हैं।
इसलिए उन्हें सामान्यजनों की आवाज बनकर उनके संकटों के समाधान के प्रकल्प के रूप
में सामने आना चाहिए। वे सहयोग के लिए हाथ बढ़ाएं और एक ऐसा वातावरण बनाएं जहां
अखबार सामाजिक उत्तरदायित्वों का वाहक नजर आए। मजलूमों के साथ खड़ा नजर आए। ऐसे
में पत्रकार सिर्फ घटना पर्यवेक्षक नहीं, कार्यकर्ता भी है। जिसे हम ‘जर्नलिस्टिक एडवोकेसी’ कह सकते हैं। ऐसे अभियान
अखबार की जड़ें समाज में इतनी गहरी कर देते हैं कि वे ‘भरोसे
का नाम’ बन जाते हैं।
मीडिया कन्वर्जेंस एक अवसर-
आज के
समय में एक मीडिया में काम करते हुए आप दूसरे मीडिया का सहयोग लेते ही हैं। एक
अखबार चलाने वाला संस्थान आज निश्चित ही सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सक्रिय है तो
वहीं वह डिजीटल प्लेटफार्म पर भी उसी सक्रियता के साथ उपस्थित है। इस तरह हम अपने
संदेश की शक्ति को ज्यादा प्रभावी और व्यापक बना सकते हैं। हमें यह ध्यान रखना
होगा कि प्रिंट पर लोग कम आ रहे हैं, या उनका ज्यादातर समय अन्य डिजीटल माध्यमों
और मोबाइल पर गुजर रहा है। ऐसे में इस शक्ति को नकारने के बजाए उसे स्वीकार करने
में ही भलाई है। आपके अखबार की ‘ब्रांड वैल्यू’ है, सालों से आप खबरों के व्यवसाय में हैं, इसकी आपको दक्षता है, इसलिए
आपने लोगों का भरोसा और विश्वास अर्जित किया है। इस भीड़ में अनेक लोग डिजिटल
मीडिया प्लेटफार्म पर खबरों का व्यवसाय कर रहे हैं। किंतु आपकी यात्रा उनसे खास
है। आपका अखबार पुराना है, आपके अखबार को लोग जानते हैं, भरोसा करते हैं। इसलिए
आपके डिजीटल प्लेटफार्म को पहले दिन ही वह स्वीकार्यता प्राप्त है, जिसे पाने के लिए आपके डिजीटल प्रतिद्वंदियों को वर्षों लग जाएंगें। यह
एक सुविधा है, इसका लाभ अखबार को मिलता ही है। अब कटेंट सिर्फ प्रिंट पर नहीं
होगा। वह तमाम माध्यमों से प्रसारित होकर आपकी सामूहिक शक्ति को बहुत बढ़ा देगा।
आज वे संस्थान ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं, जो एक साथ आफलाइन ( प्रिंट), आनलाइन(
पोर्टल,वेब, सोशल मीडिया), आन एयर(रेडियो), मोबाइल(एप) आनग्राउंट( इवेंट) पर
सक्रिय हैं। इन पांच माध्यमों को साधकर कोई भी अखबार अपनी मौजूदगी सर्वत्र बनाए रख
सकता है। ऐसे में बहुविधाओं में दक्ष पेशेवरों की आवश्यकता होगी, तमाम पत्रकार इन
विधाओं में पारंगत होंगे। उनके विकास का महामार्ग खुलेगा। मल्टी स्किल्ड पेशेवरों
के साथ एकीकृत विपणन और ब्रांडिग सेल्युशन की बात भी होगी। कन्वरर्जेंस से मानव
संसाधन का अधिकतम उपयोग संभव होगा और लागत भी कम होगी। अचल संपत्ति की लागत और
समाचार को एकत्र करने की लागत भी इस सामूहिकता से कम होगी।
प्रिंट मीडिया ही है लीडर-
सारे
तकनीकी विकास और डिजीटिलाइजेशन के बावजूद भी भारत जैसे बाजार में प्रिंट ही कमा
रहा है। एशिया और लैटिन अमरीका में प्रिंट के संस्करण विकसित हो रहे हैं। भारत,
चीन और जापान में आज भी प्रिंट मीडिया की तूती बोल रही है। भारत में तो डिजीटल ही
संकट में दिखता है क्योंकि उसने मुफ्त की आदत लगा दी है। जबकि प्रिंट मीडिया ने
इसका खासा फायदा उठाया। सारी प्रमुख न्यूज वेबसाइट्स अपने प्रिंट माध्यमों की
प्रतिष्ठा का लाभ लेकर अग्रणी बनी हुई हैं। भारत जैसे देश में क्षेत्रीय व भाषाई
पत्रकारिता में विकास के अपार अवसर हैं। राबिन जेफ्री ने प्रिंट मीडिया के विकास
के तीन चरण बताए थे- रेयर, एलीट और मास। अभी भारत ने तो ‘मास’ में प्रवेश ही लिया है।
आधुनिकता के सापेक्ष बदलाव नियत है, इसमें कोई दोराय नही है। वक़्त जैसे जैसे बीतेगा, ऑनलाइन प्रारूप का सूरज भी वैसे वैसे ढलता जायेगा, तब हो सकता है कि अखबार का वर्चस्व पुनः स्थापित हो..
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