-प्रो. संजय द्विवेदी
ई-मीडिया, सोशल मीडिया, यू-ट्यूब और कुल मिलाकर
मोबाइल क्रांति ने सबसे बड़ा नुकसान अखबार और पत्रिकाओं का किया है। इस समय का
संकट यह है कि अब पढ़ने का वक्त मोबाइल पर जा रहा है। पठनीयता का यह संकट प्रिंट
माध्यमों के सामने एक चुनौती की तरह है। सूचना और ज्ञान के लिए ई-माध्यमों और
मोबाइल पर बढ़ती निर्भरता ने प्रिंट माध्यमों को बदलने की चुनौती भी दी है।
क्योंकि अगर ये बदलते नहीं तो अप्रासंगिक हो जाएंगे। बदलना मजबूरी है, सो अखबार
खुद को बदलेंगें और बचे रहेंगे।
इस पूरे परिदृश्य को देखें तो अखबार बदल रहे
हैं। ज्यादा सरोकारी और ज्यादा संदर्भों के साथ प्रस्तुत हो रहे हैं। उनकी
साज-सज्जा और प्रस्तुति भी होड़ करती दिखती है। अब राजनीति ही अखबार का मुख्य
समाचार नहीं है। समाज जीवन के विविध संदर्भ यहां जगह पा रहे हैं। अखबार के पृष्ठ
बढ़े हैं और यह आवश्यक नहीं प्रधानमंत्री पहले पन्ने पर लीड बनें। प्रधानमंत्री और
सत्ताधीशों का पहले पन्ने से गायब होना यह संकेत है कि अखबार अपने को बदल रहे हैं।
अब अखबार ‘आपकी जरूरत का’ बन रहा है।
वह आपके हिसाब से बनाया जा रहा है। उसे आपके सपनों, आकांक्षाओं, आवश्यक्ताओं के
तहत बनाया जा रहा है। वह थोपा नहीं जा रहा है, वह बात कर रहा है। तकनीक की दुनिया
ने इसे संभव किया है। हिंदुस्तान जैसे देश की विविधता और बहुलता के हिसाब से
अलग-अलग अखबार बनाए जा रहे हैं। स्थानीयता इसमें एक प्रमुख तत्व के रूप में सामने
आई है। स्थानीय संस्करणों की अवधारणा और शहरों के पूलआउट इसे व्यक्त रहे हैं।
कंटेट के स्तर पर बदलाव हमें चौतरफा दिखता है।
ई-मीडिया की क्रांति के बाद अखबार
अब खबर देने वाले पहले माध्यम नहीं रहे। सूचनाएं कई अन्य माध्यमों से हमें मिल
चुकी होती हैं। एक समय में अखबारों से ही जानते थे हमारे देश, प्रदेश और शहर में
क्या हुआ। सोशल मीडिया और मोबाइल क्रांति के चलते हर व्यक्ति अब सूचना संपन्न है।
उसके पास सारी सूचनाएं आ चुकी हैं। अब वह 24 घंटे में एक बार आने वाले अखबार का
क्या करे? जाहिर तौर पर संकट गहरा है। बावजूद इसके यह माना जा रहा है कि छपे हुए
शब्दों पर भरोसा कम नहीं होगा, इसलिए अखबारों की अहमियत कायम रहेगी। अखबार के मूल
तत्व मीडिया और सूचना क्रांति के बाद भी नहीं बदलेंगे। सोशल मीडिया का ऊफान आज है
कल रहेगा, यह जरूरी नहीं। न्यू मीडिया भी कब तक न्यू रहेगा कहा नहीं जा सकता। हम
याद करें तो टीवी क्रांति के समय भी यह माना गया था कि अब प्रिंट मीडिया को गहरा
संकट है। किंतु ऐसा नहीं हुआ बल्कि चैनल क्रांति के चलते अखबार संभले, रंगीन हुए,
ज्यादा सुदर्शन और आकर्षक प्रस्तुतिजन्य हुए। ऐसे में अखबारों की बेहतर प्रस्तुति
और सिटीजन जर्नलिज्म की मांग बढ़ेगी। अखबार की दुनिया में काम करने वाले सभी
मीडिया हाउस अब डिजीटल मीडिया पर भी काम कर रहे हैं। उनकी वर्षों में बनी
विश्वसनीयता और प्रामणिकता उनके काम आ रही है। अखबार इस तरह बचे रहेगें। एक समय
में अखबारों में 40 प्रतिशत भाषण, 20 प्रतिशत प्रेसनोट और 40 प्रतिशत खबरें छपती
थीं। अब आपके मन और इच्छा का अखबार तैयार हो रहा है। उसका जोर सूचनाओं पर नहीं,
विश्लेषण पर है, व्याख्या पर है। फीचर पर है। घटनाओं पर नहीं इवेंट्स पर है। वह
सुंदर दृश्यों का साक्षी बनना चाहता है। अब समस्याएं ही उसका मुख्य स्वर नहीं, अब
जीवन या लाइफ स्टाइल भी उसका मुख्य समाचार है। उसकी इच्छा एक साथ आधुनिकता और
परंपरा दोनों को साधने की है। भारत की विविधता और उत्सवधर्मिता उसका मूल स्वर है।
बाजार भी इसमें उसके साथ खड़ा है। वह अब ईद और दीवाली भर नहीं, करवा चौथ, छठ और
गरबा सबका राष्ट्रीयकरण कर रहा है। उसे अक्षय तृतीया की भी याद है और वेलेंटाइन डे
की भी। उसे रोज डे भी मनाना है और नया साल भी। नया साल एक जनवरी का भी और गुड़ी
पाड़वा, हिंदू नववर्ष का भी।
इस
बदलते अखबार को समझना है तो भारत और उसके समाज को भी समझना होगा। 1991 के बाद जीवन
में घुस आई उदारीकरण के पैदा हुई, समझ को भी समझना होगा। यह झोलाछाप पत्रकारिता का
समय नहीं है, यह एक कारपोरेट मीडिया है। जिसके केंद्र में सिर्फ गरीब, संघर्ष करते
लोग नहीं, खाय-अधाए लोग भी हैं। वह जरुरतों और संसाधनों से भरे पूरे लोगों की भी
कहानियां सुना रहा है। उनकी पार्टियां उसके पन्नों पर पेज-3 की तरह परोसी जा रही
हैं। सेलेब्रटी होना अब समाचार के लायक होना भी है। सेलेब्रेटी के लिए सामाजिक
मूल्य मायने नहीं रखते, वह क्या खाता है, क्या पहनता है, उसकी पार्टियां कितनी
रंगीन है, यहां उसी का मूल्य है। अखबारों में अब एक साथ गंभीरता और हल्कापन दोनों
है। वे बाजार को भी साधते हैं और कुछ पढ़ने वाले पाठकों को भी। वे अब एक बड़े
वृत्त के लिए काम करते हैं। अखबार भी चाहते हैं कि वे भी आदमी की तरह स्मार्ट बनें
और स्मार्ट पाठकों के बीच पढ़े जाएं। इसलिए अब पाठक ही नहीं, अखबार भी अपने पाठकों
को चुन रहे हैं। अखबार अब सिर्फ प्रसारित नहीं होना चाहते, वे ‘क्लास’ के बीच पढ़े जाना चाहते हैं। वे प्रभुवर्गों
के बीच अपनी मौजूदगी चाहते हैं। राजनीति की तरह अब अखबारों के केंद्र में ‘जनता’ नहीं ताकतवर लोग हैं। खाए-अधाए लोग हैं, जो उपभोक्ता बन चुके हैं या उनमें खरीददार बनने की संभावनाएं हैं। इसलिए
यहां प्रबंधन खास है, संपादक दोयम। क्योंकि यहां ‘विचारों का
भी प्रबंधन’ करना है, इसलिए कुछ समझदार
लोग बिठाए गए हैं। जो एक बाजार के लिए अनुकूलित समाज बनाने में अहर्निश साधना कर
रहे हैं। ऐसे अखबारों में ‘काम के लोग’
तलाशे जा रहे हैं। कई अर्थों में कार्य स्थितियां बेहतर हो रही हैं।
इस नए समय ने डेस्क और फील्ड की दूरी को
भी पाट दिया है। नए कंटेंट का विकास और सृजन यहां महत्वपूर्ण है। चलता है, वाला
ट्रेंड अब विदाई की ओर है। कहते हैं अखबारों के डिजीटल एडीशन का सूरज नहीं ढलता,
अखबार अब चौबीस घंटों के उत्पाद में बदल रहे हैं, वे भले घर में सुबह या शाम को एक
बार आ रहे हैं किंतु उनका डिजीटल संस्करण 24X7 है। ऐसे में अपार अवसरों का सृजन भी हो रहा है। एक नए अखबार से मुलाकात हो
रही है, जो 1991 के बाद पैदा हुआ है। यह बाजारीकरण,
भूमंडलीकरण के मूल्यों से पैदा हुआ अखबार है। परिर्वतन के इसी प्रभाव को रेखांकित
करते हुए 1982 में टीवी के कलर होने पर कवि-संपादक रघुवीर सहाय ने कहा था कि ‘अब खून का भी रंग दिखेगा।’
1991 में भूमंडलीकरण की नीतियों को स्वीकार करने के बाद की मीडिया में अनेक ऐसे
रंग दिख रहे हैं, जो हमारे इंद्रधनुष में नहीं थे। यह बिल्कुल नया अखबार है, जिसकी
जड़ें स्वतंत्रता आंदोलन के गर्भनाल में नहीं हैं, उसे वहां खोजिएगा भी नहीं।
नैतिक अपेक्षाएं तो बिल्कुल मत पालिएगा। निराशा होगी।
सर सृजन महत्वपूर्ण है...👍
जवाब देंहटाएंनैतिक अपेक्षा पालने पर निराशा होगी..
सर बदलाव जरूरी है लेकिन प्रतिस्पर्धा के युग में अखबारो का भाषा के साथ खिलवाड़ बिल्कुल पसंद नहीं आता..
इंग्लिश सीखने को टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दू जैसे पेपर पढ़ने को कहा जाता है लेकिन हिंदी सीखने के लिए हम कौन सा अखबार पढ़े.??.... कभी कभी तो हेडलाइन में भी इंग्लिश के शब्द डाल दिये जाते है...
सर मैं साहित्यिक और किलिष्टि भाषा के पक्ष पक्ष में नहीं हूं लेकिन अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग पसन्द नहीं आता...
और यदि अच्छी हिंदी का प्रयोग होगा भी तो कोई बुराई नहीं है...
लेकिन दिक्कत पत्रकारिता उद्योग में है..
पत्रकारिता करने के लिए अब विद्वान और विद्वत लोगों की आवश्यकता नहीं रही अब दिहाड़ी मजदूर चाहिए...
चाहे जितना सोशल मीडिया पर समय दू लेकिन सुबह अखबार का इंतज़ार रहता ही है.....
सर आपके लेख पर लाइक का सिमबल भेजने से अच्छा था कि मैं अपने विचार रखूं अगर गलत हूँ तो आप मुझें करेक्ट करियेगा☺️
बहुत खूब बात कही है कि नैतिक अपेक्षा ना ही रखी जाए, और वास्तविकता यही है कि अखबार काफी बदल चुका है, पहले स्टोरी और उसकी research पे बहुत जोर था, अब न्यू मीडिया की होड़ में हम सब बातों से यहां तक कि न्यूज़ क्वालिटी से भी कोम्प्रोमाईज़ कर जाते है। ये अच्छी बात है कि अखबारों के डिजिटल एडिशन का सूरज कभी नही ढलता पर हम इस लड़ाई में बहुत कुछ खो भी रहे हैं। मेरे खयाल से सर् आप भी इस बात से सहमत होंगे क्योंकि आपका लेख भी इस तरफ इशारा कर रहा है। बहुत ही प्रासंगिक लेख है। मुझसे साझा करने के लिए आपका बहुत बहुत आभार। ����
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