एक
ध्येयनिष्ठ पत्रकार, संवेदनशील मनुष्य के रूप में याद किया जाएगा उन्हें
-प्रो.
संजय द्विवेदी
इस साल का दिसंबर महीना जाते-जाते एक ऐसा
आघात दे गया है जिसे हमारे जैसे तमाम लोग अरसे तक भूल नहीं पाएंगे। यह 28 दिसंबर,2019
का दिन था, शनिवार का दिन, इसी दिन शाम को हमारे प्रिय पत्रकार-संपादक और अभिभावक
श्री राधेश्याम शर्मा ने पंचकूला में आखिरी सांसें लीं। साल के आखिरी दिन 31
दिसंबर को भोपाल के माधवराव सप्रे संग्रहालय में नगर के बुद्धिजीवी पत्रकार और
संपादक जुटे, उन्हें अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देने। इस शोकसभा की खासियत यह थी कि
यहां सभी धाराओं के बुद्धिजीवियों ने राधेश्याम शर्मा को जिस रूप में याद किया वह
दुर्लभ है। इस महती सभा में रघु ठाकुर से लेकर विजयदत्त श्रीधर, कैलाशचंद्र पंत,
महेश श्रीवास्तव, लज्जाशंकर हरदेनिया, राजेंद्र शर्मा, राकेश दीक्षित, दविंदर कौर
उप्पल, गिरीश उपाध्याय, विजयमनोहर तिवारी और लाजपत आहूजा तक की मौजूदगी बताती है
कि राधेश्याम जी का संपर्कों का संसार कितना व्यापक था। एक पत्रकार जिसकी अपनी
वैचारिक आस्थाएं बहुत प्रकट हों। जिसने अपने विचाराधारात्मक आग्रहों को कभी छिपाया
नहीं, किंतु उसकी राजनीति के सभी धाराओं के नायकों से ‘भरोसे वाली दोस्ती हो’ यह संभव कहां है? आज की पत्रकारिता में वैचारिक आस्थाएं जिस तरह कट्टरता में बदली हैं और
अखाड़ों में पहलवानों की तरह खम ठोंके जा रहे हों वहां राधेश्याम जी जैसे पत्रकार
की मौजूदगी एक दीपस्तंभ की तरह थी। जहां विचारों के साथ मनुष्यता और संवेदना जगह
पाती थी। उन्होंने अपनी वैचारिक और व्यावसायिक प्रतिबद्धता को हमेशा अलग रखा।
अपने विद्यार्थी जीवन में काशी हिंदू
विश्वविद्यालय, वाराणसी में पढ़ते हुए ही वे पत्रकारिता से जुड़ गए थे। 1956 में
उन्होंने पूरी तरह अपने आपको पत्रकारीय कर्म में समर्पित कर दिया। तब से लेकर आजतक
मध्यप्रदेश से लेकर पंजाब, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और दिल्ली की पत्रकारिता में
उन्होंने अपने उजले पदचिन्ह छोड़े। एक नगर प्रतिनिधि से काम प्रारंभ कर वे विशेष
संवाददाता और फिर दैनिक ट्रिब्यून, चंडीगढ़ जैसे महत्त्वपूर्ण अखबार के संपादक
बने। इतने बड़े अखबार के संपादक पद पर रहते हुए ही उन्होंने उसे छोड़कर मीडिया
शिक्षा के लिए खुद को समर्पित कर दिया और 1990 में भोपाल में स्थापित हुए माखनलाल
चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के पहले महानिदेशक (अब
पदनाम कुलपति है)बने। इसके बाद वे हरियाणा साहित्य अकादमी के निदेशक भी बने। अपनी
पूरी जीवन यात्रा में उन्होंने कभी मूल्यों से समझौता नहीं किया।
सक्रिय
पत्रकार, योग्य संपादकः
भोपाल के तमाम लोग उनकी
पत्रकारिता के गवाह हैं, जिन्होंने एक रिर्पोटर के रुप में उनकी सक्रियता भरे दिन
देखे हैं। राजनेताओं से उनकी निकटता जगजाहिर थी। दैनिक युगधर्म के संवाददाता के रूप
में वे भोपाल में पदस्थ थे। उनका अखबार जबलपुर से निकलता था, कुछ प्रतियां ही
भोपाल आती थीं। किंतु उनका संपर्क और व्यवहार ऐसा था कि लोग उनपर भरोसा करते थे।
कांग्रेस, भाजपा, सोशलिस्ट,कम्युनिस्ट सब उनके दोस्त थे। दोस्ती भी ऐसी कि ‘राज की बातें’ उन्हें बताते, जिसकी गवाही सुबह उनका
अखबार देता था। राजनीतिक गलियारों में उन दिनों भोपाल के वीटी जोशी, लज्जाशंकर
हरदेनिया, सत्यनारायण श्रीवास्तव, दाऊलाल साखी, तरूण कुमार भादुड़ी जैसे पत्रकारों
की तूती बोलती थी। किंतु राधेश्याम जी इन सबमें अपनी संपर्कशीलता, सरल स्वभाव और
पारिवारिक रिश्तों के चलते एक अलग स्थान रखते थे। आज भी भोपाल के लोग उन्हें याद
कर भावुक हो उठते हैं।
बाद के दिनों में वे ‘युगधर्म’ के संपादक होकर जबलपुर चले गए और उसके बाद
वे चंडीगढ़ चले गए। इन सारे प्रवासों के बीच भी भोपाल उनका एक घर बना रहा। वे आते
तो सबकी हाल लेते, सबसे मिलते और परिवारों में जाते। अपने साथियों और अधीनस्थों के
परिजनों, बच्चों की स्थिति, प्रगति,पढ़ाई और विवाह सब पर
उनकी नजर रहती थी। अपने लंबे पत्रकारीय जीवन में उन्होंने अनेक सर्वोच्च नेताओं,
प्रधानमंत्रियों, राष्ट्रपतियों और समकालीन विविध क्षेत्रों के लोगों से लंबे
इंटरव्यू किए। मुलाकातें कीं। किंतु उन्हें दादा माखनलाल चतुर्वेदी के साथ उनकी
भेंटवार्ता सबसे प्रेरक लगती थी। वे उसे बार-बार याद करते थे। इस भेंट में माखनलाल
जी ने उनसे कहा था – “पत्रकार की कलम न अटकनी चाहिए, न
भटकनी चाहिए, न रुकनी चाहिए, न झुकनी चाहिए।”
राधेश्याम जी ने इसे अपना जीवन मंत्र बना लिया। अपने संवादों में वे अक्सर इस बात
को रेखांकित करते थे। यह संयोग ही था कि वे बाद में दादा के नाम पर बने
विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति भी बने। उनके मीडिया चिंतन पर पत्रकारिता
विश्वविद्यालय, भोपाल ने ‘मीडियाः क्रांति या भ्रांति’ शीर्षक से पुस्तक का प्रकाशन भी 2015 में किया, जिसमें मीडिया को लेकर
उनके विमर्शों से हम परिचित हो सकते हैं। सही मायनों में संपादकों की विलुप्त हो
रही पीढ़ी में वे एक ऐसे नायक हैं, जिन-सा होना बहुत कठिन है। अपने पद के वैभव और
प्रभाव के परे वे बेहद संवेदनशील इंसान थे, जिसने सबका भला चाहा और किया।
पत्रकारिता
विश्वविद्यालय की बगिया के मालीः
उनके हिस्से एक ऐतिहासिक उपलब्धि है- भोपाल
में माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की स्थापना
और उसका पहला महानिदेशक नियुक्त होना। एक-एक व्यक्ति को जोड़कर उन्होंने इस
विश्वविद्यालय को खड़ा किया और उसकी प्रगति की हर सूचना पर हर्षित होते थे। वे जब
भी मिलते तब कहते मैं तो इस ‘बगिया का माली’ रहा। उनकी सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वे हर छोटे से छोटे व्यक्ति को यह
अहसास कराते कि वह कितना महत्त्वपूर्ण है। उनकी इसी विशेषता को रेखांकित करते हुए
वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा ने लिखा-“वे केवल राजनेताओं के ही नहीं, अपितु भोपाल के श्रेष्ठ पत्रकारों को एक
माला में पिरोने वाले व्यक्ति भी थे।पारिवारिकता उनका वैशिष्ठ्य थी।” पत्रकारिता विश्वविद्यालय के पुराने छात्र जो आज
मीडिया में शिखर पदों पर हैं, उन्हें एक पिता के रूप में याद करते हैं। उनका अभिभावकत्व
इतना प्रखर था कि वे इसके अलावा किसी और संज्ञा से नवाजे भी नहीं जा सकते थे। आज
जबकि यह विश्वविद्यालय देश में मीडिया शिक्षा का सबसे बड़ा और स्थापित केंद्र बन
चुका है, राधेश्याम जी की स्मृति बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। उनके
महानिदेशक रहते हुए ही मैंने भी स्नातक के छात्र रूप में विश्वविद्यालय में प्रवेश
लिया था। मैं लखनऊ विश्वविद्यालय से स्नातक करके आया था और कुलपति के पद की गरिमा
को जानता था। किंतु राधेश्याम जी ने एक स्नातक के छात्र से न सिर्फ परिचय प्राप्त
किया बल्कि अपने घर पर बुलाकर चाय-नाश्ता कराया और बेहद वात्सल्यमयी अपनी
धर्मपत्नी से मिलाया। उनके उस दुलार को
सोचकर आज हैरत होती है कि पत्रकारिता के शिखरों पर रहे शर्मा सर इतनी
आत्मीयता कहां से लाते हैं? वे बहुत बड़े थे, जीवन से, मन से
और कृति से भी। इसका अहसास उनकी स्नेहछाया में बैठकर होता था।
बाद के दिनों में वे चंड़ीगढ़ चले गए और
मैं अखबारों में काम करते हुए रायपुर, बिलासपुर, मुंबई की परिक्रमा कर भोपाल वापस
आ गया। इन दिनों में कोई ऐसा समय नहीं था, जब उन्होंने हमें याद न किया हो। मैं
बिलासपुर गया तो बोले मेरे भाई वहां डाक्टर हैं, उनसे मिलो। रायपुर में भी उनके
दोस्तों की एक पूरी दुनिया थी। वे बोलते मिलते-जुलते क्यों नहीं ?
हमेशा कहते थे “रोज अपने तीन पूर्व
परिचितों से मिलो और एक नया संपर्क रोज बनाओ।” पत्रकारिता
में आ रहे लोगों के लिए एक पाठ है यह। हम अमल नहीं कर पाए पर मानते हैं कि कर पाते
तो दुनिया ज्यादा बड़ी और बेहतर होती। मेरी शादी से लेकर जीवन के हर प्रसंग
उन्होंने चिठ्ठियां भेजीं, फोन किए। आज भी जब तक वे बहुत अस्वस्थ नहीं हो गए, फोन
करते हालचाल पूछते। हालचाल मेरा, विश्वविद्यालय का, परिवार का, अपने दोस्तों का।
कई बार यह लगता है कि वे इतनी आत्मीयता क्यों देते थे, ऐसा क्या था जो उन्हें हम
जैसों से जोड़ता था। वे क्यों हमारी यह खुशफहमियां बनाए रखना चाहते थे कि हम बहुत
खास हैं। देश में ऐसे न जाने कितने लोग ऐसे थे जो मानते थे कि वे शर्मा जी के बहुत
करीबी हैं। एक महापरिवार उन्होंने खुद बनाया था जिसके वे मुखिया थे। वे प्यार से
बड़ी से बड़ी और कड़ी से कड़ी बात कहते जो हमेशा हमारे भले के लिए होती। ‘मीडिया विमर्श’ पत्रिका का प्रकाशन जब 13 साल पहले
रायपुर से प्रारंभ किया तब उन्होंने इसके स्तंभ ‘मेरा समय’ के लिए अपनी पत्रकारीय यात्रा की पूरी कहानी लिखी। पत्रिका के बारे में
बराबर पूछताछ करते और अच्छे सुझाव भी देते। उनके लिए हर व्यक्ति बहुत खास था या वे
उसे इसका अहसास कराकर छोड़ते। बहुत गहरी आत्मीयता, वात्सल्य
और संवेदना से उन्होंने जो दुनिया रची थी, हमें संतोष है कि हम भी उसके नागरिक थे
और उनके साथ उंगलियां पकड़कर उस रास्ते पर थोड़ा चल सके, जिस पर वे पूरी जिंदगी
चलते रहे। उस विचार पर भी, उस व्यवहार पर भी जो उन्होंने जिया और हमें जीने के लिए
प्रेरित किया। उनका जाना एक सच्चाई है किंतु वे बने रहेंगे हमारी यादों में यह
उससे बड़ी सच्चाई है। क्योंकि उन्हें भूलना खुद को भूलना होगा, अपनी जड़ों को
भूलना होगा, आत्मीयता और औदार्य को भूलना होगा। रिश्तों की गरमाहट को भूलना होगा।
सटीक व प्रेरणादायी वर्णन। "बस वही जीते हैं,जो दूसरों के लिए जीते हैं" ऐसे थे स्व. राधेश्याम शर्मा जी।
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