भोपाल में आयोजित
लोकमंथन के बहाने उपजे कई सवाल
-संजय द्विवेदी
लगता है देश ने अपने ‘आत्म’ को
पहचान रहा है। वह जाग रहा है। नई करवट ले रहा है। उसे अब दीनता नहीं, वैभव के सपने
रास आते हैं। वह संघर्ष और मुफलिसी की जगह सफलता और श्रेष्ठता का पाठ पढ़ रहा है।
वह आत्मदैन्य से भी मुक्त होता हुआ भारत है। वह इंडिया से अलग बनता हुआ भारत है,
जिसने एक नई यात्रा प्रारंभ कर दी है। भोपाल में दिनांक 12 से 14 नवंबर को आयोजित ‘लोकमंथन’ एक ऐसा
ही आयोजन है, जिसमें लोकदृष्टि से राष्ट्रनिर्माण पर विमर्श होगा। इस आयोजन के
अनेक प्रश्नों के ठोस और वाजिब हल तलाशने की कोशिश देश के बुद्धिजीवी और कलावंत
करेगें। लोकमंथन के इस महत्वाकांक्षी आयोजन के पीछे संघ परिवार और मध्यप्रदेश
सरकार की मंशा दरअसल भारत में चल रहे परंपरागत बौद्धिक विमर्श से हटकर जड़ों की ओर
लौटना भी है। अपने इस उपक्रम में यह आयोजन कितना सफल होगा, यह कहा नहीं जा सकता।
किंतु ऐसे एक ऐसे विमर्श को चर्चा के केंद्र में लाना महत्व का जरूर है, जिसे या
तो हाशिए पर लगा दिया गया या उसका विदेशी विचारों के चश्मे से मूल्यांकन कर लांछित
किया गया।
सदियों से विदेशी विचारों
और विदेशी अवधारणाओं से धिरी भारत की बौद्धिक चेतना एक नए तरह से करवट ले रही है। इस
नए भारत के उदय ने उम्मीदों का भी जागरण किया है। इसे ‘आकांक्षावान भारत’ भी कह
सकते हैं। उसकी उम्मीदें, सपने और आकांक्षाएं चरम पर हैं। वह अपने गंतव्य की ओर
बढ़ चला है। सन् 2014 में हुए लोकसभा के चुनाव दरअसल वह संधिस्थल है, जिसने भारत को एक नई तरह से अभिव्यक्त किया। यह
भारत परंपरा से चला आ रहा भारत नहीं था। यह नया भारत सपनों की ओर बढ़ जाने का
संकल्प ले चुका था।
भारतीयता को मिला नया आकाशः इस
चुनाव के बहाने नरेंद्र मोदी सरीखा नायक ही नहीं मिला बल्कि जड़ों से उखड़ चुकी
भारतीयता की चेतना को एक नया आकाश मिला। एक नया विहान मिला। विदेशी विचारधाराओं की
गुलामी कर रहे भारत के बौद्धिक वर्ग के लिए यह एक बड़ा झटका था। उन्हें यह
राजनीतिक परिवर्तन चमत्कार सरीखा लगा, किंतु वह उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं
था। आज भी नहीं है। लुटियंस जोन में भारतीय भाषाओं में संवाद करने वाले राजनेता को
देखकर औपनेवेशिक मानसिकता से ग्रस्त बुद्धिजीवी इस परिवर्तन को हैरत से देख रहे
थे। वे पुरस्कार वापसी से लेकर तमाम षडयंत्रों पर उतरे किंतु उससे क्या हासिल हुआ? देश में आज भी ‘ब्रेकिंग
इंडिया ब्रिगेड’ सक्रिय है, जिसका एकमात्र सपना इस देश को तोड़ने
के लिए हरसंभव प्रयास करना है। वे
स्थानीय असंतोष और साधारण घटनाओं पर जिस तरह की प्रतिक्रिया और वितंडा खड़ा करते
हैं, उससे उनके इरादे साफ नजर आते हैं। एक शक्तिमान, सुखी, सार्थक संवाद करता हुआ
भारत उनकी आंखों में चुभता है। वे निरंतर अपने अभियानों में नकारे जा रहे हैं।
विरोध के लिए विरोध की राजनीति का अंत क्या होता है, सबके सामने है। भारत को
जोड़ने और राष्ट्रीयता और एकात्मता पैदा करने वाले विचारों के बजाए समाज की शक्ति
को तोड़ने और भारतीयता के सारे प्रतीकों को नष्ट करने के में लगी शक्तियों के
मनोभाव समाज समझ चुका है। अब वह खंड-खंड में सोचने के लिए तैयार नहीं है। वह
भारतीयता के सूत्रों का पाठ कर रहा है, पुर्नपाठ कर रहा है। भारत एक शक्ति पुंज के
नाते दुनिया के सामने भी है। एक मुखर नेता के नेतृत्व और प्रखर आत्मविश्वास के
साथ। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हम औपनेवेशिक मानसिकता से मुक्ति पाएं और भारत
के सनातन मार्ग पर आगे बढ़ें।
अवसरों के खुले द्वार और वैभव के सपनेः नए बदलावों ने समाज के आत्मविश्वास और मनोबल को
बढ़ाने का काम किया है। सही मायने में यह अवसरों का भी जनतंत्र है। जहां सपने
देखना कुछ सीमित लोगों का काम नहीं है। समूचा समाज सपने देख सकता है और उसमें रंग
भरने के लिए सार्थक यत्न कर सकता है। ऐसे समय में भारतीयता की जड़ों पर प्रहार
करना। अस्मिता के सवालों को उठाकर समाज की सामूहिक शक्ति और उसकी चेतना पर आधात
करना कुछ विचारधाराओं का लक्ष्य बन गया है। इसीलिए जब “भारत तेरे टुकड़े होगें..” के नारे लगते हैं तो कुछ लोगों को दर्द नहीं
होता, बल्कि वे नारेबाजियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं। देश को तोड़ने, समाज को
तोड़ने के हर प्रयत्न में ये लोग सक्रिय दिखते हैं। उन्हें भारत की एकता, अखंडता
और आपसी सद्भाव के सूत्र नहीं दिखते। भारत और उसके लोग कैसे अलग-अलग हैं, इसी
विचार को स्थापित करने में उनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा, शोध,विचारधारा और संगठन लगे
हैं। बावजूद इसके भारत एक राष्ट्र के नाते निरंतर आगे बढ़ रहा है। इसका श्रेय इस
देश की महान जनता को है, जो इतने वैचारिक, राजनीतिक षडयंत्रों के बाजवूद अपने
लक्ष्य से हटे बिना एक राष्ट्र के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दे रही है। हमें इस
षडयंत्रों को विफल करने के लिए ऐसे सचेतन प्रयास करने होगें जिससे भारत का एकत्व
और आत्मविश्वास स्थापित हो। हम ऐसे सूत्रों को सामने लाएं, जिससे भारत की बड़ी
पहचान यानि राष्ट्रीयता स्थापित हो।
आध्यात्मिक चेतना से ही मिलेगा मार्गः हमारी विविधता और बहुलता को व्यक्त करने और स्थापित
करने के लिए हमारी आध्यात्मिक चेतना का साथ जरूरी है। भारत की आत्मा और उसकी तलाश
करने के प्रयास जिस तरह महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, महात्मा
गांधी, डा. राममनोहर लोहिया, पं. दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख ने किया है हमें
उसका पुर्नपाठ करने की जरूरत है। हमें यह सत्य समझना होगा कि भारत भले भौगोलिक रूप
से एक न रहा हो, किंतु वह एक सांस्कृतिक धारा का उत्तराधिकारी और सांस्कृतिक
राष्ट्र है। आज के समय में जब पूरी दुनिया एक सांस्कृतिक और वैचारिक संकट से गुजर
रही है, तब भारत का विचार ही उसे दिशा दे सकता है। क्योंकि यह अकेला विचार है जिसे
दूसरों को स्वीकार करने में संकट नहीं है। शेष सभी विचार कहीं न कहीं आक्रांत करते
है और अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से भरे-पूरे हैं। भारत दुनिया के सामने एक माडल की
तरह है, जहां विविधता में ही एकता के सूत्र खोजे गए हैं। स्वीकार्यता, अपनत्व और
विविध विचारों को मान्यता ही भारत का स्वभाव है। इस देश को जोड़ने वाली कड़ी ही
लोक है। यह अध्ययन करने की जरूरत है कि आखिर वह क्या तत्व हैं, जिन्होंने इस देश
को जोड़ रखा है। वे क्या लोकाचार हैं जिनमें समानताएं हैं। वे क्या विचार हैं जो
समान हैं। समानता के ये सूत्र ही अपनेपन का कारण बनेगें। भारतीयता की वैश्विक
स्वीकृति का कारण बनेगें। भोपाल का लोकमंथन अगर इस संदर्भों पर नई समझ दे सके तो
बड़ी बात होगी।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता
एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)