शुक्रवार, 11 नवंबर 2016

एक आकांक्षावान भारत का उदय !


भोपाल में आयोजित लोकमंथन के बहाने उपजे कई सवाल
-संजय द्विवेदी


  लगता है देश ने अपने आत्म को पहचान रहा है। वह जाग रहा है। नई करवट ले रहा है। उसे अब दीनता नहीं, वैभव के सपने रास आते हैं। वह संघर्ष और मुफलिसी की जगह सफलता और श्रेष्ठता का पाठ पढ़ रहा है। वह आत्मदैन्य से भी मुक्त होता हुआ भारत है। वह इंडिया से अलग बनता हुआ भारत है, जिसने एक नई यात्रा प्रारंभ कर दी है। भोपाल में दिनांक 12 से 14 नवंबर को आयोजित लोकमंथन एक ऐसा ही आयोजन है, जिसमें लोकदृष्टि से राष्ट्रनिर्माण पर विमर्श होगा। इस आयोजन के अनेक प्रश्नों के ठोस और वाजिब हल तलाशने की कोशिश देश के बुद्धिजीवी और कलावंत करेगें। लोकमंथन के इस महत्वाकांक्षी आयोजन के पीछे संघ परिवार और मध्यप्रदेश सरकार की मंशा दरअसल भारत में चल रहे परंपरागत बौद्धिक विमर्श से हटकर जड़ों की ओर लौटना भी है। अपने इस उपक्रम में यह आयोजन कितना सफल होगा, यह कहा नहीं जा सकता। किंतु ऐसे एक ऐसे विमर्श को चर्चा के केंद्र में लाना महत्व का जरूर है, जिसे या तो हाशिए पर लगा दिया गया या उसका विदेशी विचारों के चश्मे से मूल्यांकन कर लांछित किया गया।
   सदियों से विदेशी विचारों और विदेशी अवधारणाओं से धिरी भारत की बौद्धिक चेतना एक नए तरह से करवट ले रही है। इस नए भारत के उदय ने उम्मीदों का भी जागरण किया है। इसे आकांक्षावान भारत भी कह सकते हैं। उसकी उम्मीदें, सपने और आकांक्षाएं चरम पर हैं। वह अपने गंतव्य की ओर बढ़ चला है। सन् 2014 में हुए लोकसभा के चुनाव दरअसल वह संधिस्थल है, जिसने भारत को एक नई तरह से अभिव्यक्त किया। यह भारत परंपरा से चला आ रहा भारत नहीं था। यह नया भारत सपनों की ओर बढ़ जाने का संकल्प ले चुका था।
भारतीयता को मिला नया आकाशः  इस चुनाव के बहाने नरेंद्र मोदी सरीखा नायक ही नहीं मिला बल्कि जड़ों से उखड़ चुकी भारतीयता की चेतना को एक नया आकाश मिला। एक नया विहान मिला। विदेशी विचारधाराओं की गुलामी कर रहे भारत के बौद्धिक वर्ग के लिए यह एक बड़ा झटका था। उन्हें यह राजनीतिक परिवर्तन चमत्कार सरीखा लगा, किंतु वह उसे स्वीकारने के लिए तैयार नहीं था। आज भी नहीं है। लुटियंस जोन में भारतीय भाषाओं में संवाद करने वाले राजनेता को देखकर औपनेवेशिक मानसिकता से ग्रस्त बुद्धिजीवी इस परिवर्तन को हैरत से देख रहे थे। वे पुरस्कार वापसी से लेकर तमाम षडयंत्रों पर उतरे किंतु उससे क्या हासिल हुआ? देश में आज भी ब्रेकिंग इंडिया ब्रिगेड सक्रिय है, जिसका एकमात्र सपना इस देश को तोड़ने के लिए हरसंभव प्रयास करना है। वे स्थानीय असंतोष और साधारण घटनाओं पर जिस तरह की प्रतिक्रिया और वितंडा खड़ा करते हैं, उससे उनके इरादे साफ नजर आते हैं। एक शक्तिमान, सुखी, सार्थक संवाद करता हुआ भारत उनकी आंखों में चुभता है। वे निरंतर अपने अभियानों में नकारे जा रहे हैं। विरोध के लिए विरोध की राजनीति का अंत क्या होता है, सबके सामने है। भारत को जोड़ने और राष्ट्रीयता और एकात्मता पैदा करने वाले विचारों के बजाए समाज की शक्ति को तोड़ने और भारतीयता के सारे प्रतीकों को नष्ट करने के में लगी शक्तियों के मनोभाव समाज समझ चुका है। अब वह खंड-खंड में सोचने के लिए तैयार नहीं है। वह भारतीयता के सूत्रों का पाठ कर रहा है, पुर्नपाठ कर रहा है। भारत एक शक्ति पुंज के नाते दुनिया के सामने भी है। एक मुखर नेता के नेतृत्व और प्रखर आत्मविश्वास के साथ। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हम औपनेवेशिक मानसिकता से मुक्ति पाएं और भारत के सनातन मार्ग पर आगे बढ़ें।
अवसरों के खुले द्वार और वैभव के सपनेः नए बदलावों ने समाज के आत्मविश्वास और मनोबल को बढ़ाने का काम किया है। सही मायने में यह अवसरों का भी जनतंत्र है। जहां सपने देखना कुछ सीमित लोगों का काम नहीं है। समूचा समाज सपने देख सकता है और उसमें रंग भरने के लिए सार्थक यत्न कर सकता है। ऐसे समय में भारतीयता की जड़ों पर प्रहार करना। अस्मिता के सवालों को उठाकर समाज की सामूहिक शक्ति और उसकी चेतना पर आधात करना कुछ विचारधाराओं का लक्ष्य बन गया है। इसीलिए जब भारत तेरे टुकड़े होगें..” के नारे लगते हैं तो कुछ लोगों को दर्द नहीं होता, बल्कि वे नारेबाजियों के पक्ष में खड़े दिखते हैं। देश को तोड़ने, समाज को तोड़ने के हर प्रयत्न में ये लोग सक्रिय दिखते हैं। उन्हें भारत की एकता, अखंडता और आपसी सद्भाव के सूत्र नहीं दिखते। भारत और उसके लोग कैसे अलग-अलग हैं, इसी विचार को स्थापित करने में उनकी पूरी शिक्षा-दीक्षा, शोध,विचारधारा और संगठन लगे हैं। बावजूद इसके भारत एक राष्ट्र के नाते निरंतर आगे बढ़ रहा है। इसका श्रेय इस देश की महान जनता को है, जो इतने वैचारिक, राजनीतिक षडयंत्रों के बाजवूद अपने लक्ष्य से हटे बिना एक राष्ट्र के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ दे रही है। हमें इस षडयंत्रों को विफल करने के लिए ऐसे सचेतन प्रयास करने होगें जिससे भारत का एकत्व और आत्मविश्वास स्थापित हो। हम ऐसे सूत्रों को सामने लाएं, जिससे भारत की बड़ी पहचान यानि राष्ट्रीयता स्थापित हो।
आध्यात्मिक चेतना से ही मिलेगा मार्गः हमारी विविधता और बहुलता को व्यक्त करने और स्थापित करने के लिए हमारी आध्यात्मिक चेतना का साथ जरूरी है। भारत की आत्मा और उसकी तलाश करने के प्रयास जिस तरह महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानंद, महात्मा गांधी, डा. राममनोहर लोहिया, पं. दीनदयाल उपाध्याय, नानाजी देशमुख ने किया है हमें उसका पुर्नपाठ करने की जरूरत है। हमें यह सत्य समझना होगा कि भारत भले भौगोलिक रूप से एक न रहा हो, किंतु वह एक सांस्कृतिक धारा का उत्तराधिकारी और सांस्कृतिक राष्ट्र है। आज के समय में जब पूरी दुनिया एक सांस्कृतिक और वैचारिक संकट से गुजर रही है, तब भारत का विचार ही उसे दिशा दे सकता है। क्योंकि यह अकेला विचार है जिसे दूसरों को स्वीकार करने में संकट नहीं है। शेष सभी विचार कहीं न कहीं आक्रांत करते है और अधिनायकवादी प्रवृत्तियों से भरे-पूरे हैं। भारत दुनिया के सामने एक माडल की तरह है, जहां विविधता में ही एकता के सूत्र खोजे गए हैं। स्वीकार्यता, अपनत्व और विविध विचारों को मान्यता ही भारत का स्वभाव है। इस देश को जोड़ने वाली कड़ी ही लोक है। यह अध्ययन करने की जरूरत है कि आखिर वह क्या तत्व हैं, जिन्होंने इस देश को जोड़ रखा है। वे क्या लोकाचार हैं जिनमें समानताएं हैं। वे क्या विचार हैं जो समान हैं। समानता के ये सूत्र ही अपनेपन का कारण बनेगें। भारतीयता की वैश्विक स्वीकृति का कारण बनेगें। भोपाल का लोकमंथन अगर इस संदर्भों पर नई समझ दे सके तो बड़ी बात होगी।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)


शनिवार, 5 नवंबर 2016

एक बेहतर दुनिया के लिए लोकमंथन


भोपाल में आयोजित विमर्श से एक नई राह का इंतजार
-संजय द्विवेदी

    समाज जीवन के विविध क्षेत्रों में कार्यरत युवा एक होकर, एक मंच पर आकर अगर राष्ट्र सर्वोपरि की भावना के साथ देश के संकटों का हल खोजें तो इससे अच्छी क्या बात हो सकती है। भोपाल में 12 से 14 नवंबर को तीन दिन के लोकमंथन नामक आयोजन की टैगलाइन ही है-'राष्‍ट्र सर्वोपरि' विचारकों एवं कर्मशीलों का राष्‍ट्रीय विमर्श। जाहिर तौर पर एक सरकारी आयोजन की इस प्रकार भी भावना चौंकाती है और इसके छिपे इरादों पर सोचने के लिए विवश भी करती है। आखिर मध्यप्रदेश की सरकार को ऐसा अचानक क्या हुआ कि उसने विमर्शों की बाढ़ ला दी है। विश्व हिंदी सम्मेलन की मेजबानी के बाद उज्जैन में विचार महाकुंभ और अब लोकमंथन। निश्चय ही सत्ता और राजनीति के अपने गणित होते हैं किंतु सरकारें अगर लोक को अपने विचार के केंद्र में ले रही हैं तो निश्चय ही उसे सराहा जाना चाहिए। लोकमंथन की जो रचना बन रही है वह आश्वस्ति जगाती है कि इसमें सारा कुछ सरकारी नहीं है। एक समावेशी संस्कृति के उत्तराधिकारी हम लोग अपने उपेक्षित पड़े लोक और जनमानस की चेतना में बसे भारत को ही खोजने और जगाने के प्रकल्पों की ओर बढ़ना चाहते हैं। लोकमंथन की वेबसाइट http://lokmanthan.org/ पर जाकर इसके उद्देश्यों और संकल्पों की झलक पायी जा सकती है। लोकमंथन सही मायने में अपने इरादों में कामयाब रहा तो यह जड़ों से विस्मृत हो रही भारतीयता के उत्कर्ष का प्रकल्प बन सकता है। एक सरकारी आयोजन होने के नाते इसकी सीमाओं का रेखांकन अभी से लोग कर रहे हैं और करना भी चाहिए। किंतु हमें यह मानना ही होगा कि देश बुद्धिजीवी और विचारवंत तबके की अपनी सोच है, वह उसे कहीं से भी साहस से व्यक्त करता है। ऐसे में जिन विद्वानों, कलावंतों और युवाओं के नाम इस आयोजन के आमंत्रितों की सूची में है देश के लिए एक उम्मीद और उत्साह जगाने वाले ही हैं।

    भारत जैसे देश में जहां समावेशी संस्कृति उसकी जड़ों में है, को पूरी दुनिया उम्मीद से देख रही है। क्योंकि यह अकेला देश है जो अपने रचे सत्य पर मुग्ध नहीं है। यह जड़वादी और कट्टरता का पोषक नहीं है। इसमें दूसरों अच्छे विचारों को स्वीकार करने का साहस और सलीका मौजूद है। विचारों की विभिन्नता से घबराता नहीं बल्कि उसमें से भी मोती चुनने का साहस रखता है। बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर, शंकराचार्य से लेकर दयानंद तक अपने समय के विद्रोही ही थे। वे अपनी परंपरा में नए विचारों को जोड़ना चाहते थे। देश ने उन्हें सुना और सराहा जो लेने योग्य था उसे ग्रहण भी किया। इस्लाम और ईसाइयत के भी गुणों को सहजता से स्वीकारने में भारत ने गुरेज नहीं किया। आज जबकि भौगोलिक राष्ट्रवाद की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी सवालों में है तब हमें अपने उस लोक के पास जाकर संकटों के समाधान तलाशने होगें। जिसे हम कभी हिंदुत्व तो कभी भारतीयता कहकर संबोधित करते हैं।

लोगों से बनता है राष्ट्रः

 उदारता, सौजन्यता,विविधता, बहुलता और स्वीकार्यता के पांच मंत्रों से ही एक सुंदर दुनिया बनाई जा सकती है। उदार चरितानाम् वसुधैव कुटुम्बकम् कहकर हम इसका स्वप्न सदियों से देखते रहे हैं। उदारवादी परंपराओं का संयोजन करके दुनिया को एक बेहतर दुनिया बनाना सदियों से भारत का स्वप्न रहा है। हमारे वेदों ने जहां हमें सिखाया कि हमारे मन उदार हों। वहीं हमारे उपनिषद् की परंपरा हमें हमारे अंतस् को खोजने की परंपरा से जोड़ती है। ध्यान परंपरा से जोड़ती है। उदारवाद को जमीन पर उतारना करूणा, बंधुत्व और सहयोग के बिना असंभव है। भारत की मूल्य चेतना में ये तीनों तत्व समाहित हैं। हमें अपने राष्ट्र या देश को उसी भावना के साथ फिर तैयार करना है। जिसमें जमीन नहीं, संसाधन नहीं उसके लोग केंद्र में होगें। क्योंकि कोई भी राष्ट्र लोगों से बनता है, उनके सपनों से बनता है। लोगों के आचार-व्यवहार पर उसकी संस्कृति विकसित होती है। इसके साथ ही हमें जीवन को सुखी बनाने के सूत्र भी अपने लोक से तलाशने होगें। भारतीय ज्ञान परंपरा और उसके स्रोत अभी सूखे नहीं है। हमें जड़ों से जुड़ने और खुद की पहचान को फिर से स्थापित करने की जरूरत है। भारतीय मन और लोकजीवन अपनी स्वाभाविकता में ही लोकतांत्रिक है। लोकतंत्र तो सामूहिकता का ही विचार है। इसमें कट्टरता और जड़ता के लिए जगह कहां है ?

लोकशक्ति को जगाने की जरूरतः

  लोकमंथन के बहाने हमें एक नया समाज दर्शन भी चाहिए जिसमें राजनीति नहीं लोक केंद्र में हो। समाज का दर्शन और राजनीति का दर्शन अलग-अलग है। राजनीति का काम विखंडन है जबकि समाज जुड़ना चाहता है। राजनीति समाज को लडाकर, कड़वाहटें पैदाकर अपने लक्ष्य संधान करती है। ऐसे में राजनीति और समाज में अंतर करने की जरूरत है। वैचारिक शून्य को भरे बिना, जनता का प्रशिक्षण किए बिना यह संभव नहीं है। हमें इसके लिए समाज को ही शक्ति केंद्र बनाना होगा। लोगों की आकांक्षाएं, कामनाएं, आचार और व्यवहार मिलकर ही समाज बनाने हैं। इसलिए एक सामाजिक संस्कृति पैदा करना आज की बड़ी जरूरत है। जो कमजोर होते, टूटते समाज को शक्ति दे सके। लोगों को राजनीतिक रूप से साक्षर करना, राजनीति की सीमाएं बताना भी जरूरी है ताकि लोग राजनीति की विवशताएं भी समझ सकें। इस लोक को जगाकर ही गांधी ने अंग्रेजों की शैतानी सभ्यता की चूलें हिला दी थीं और भद्र लोक तक सीमित कांग्रेस को एक जनांदोलन में बदल दिया था। लोकशक्ति का जागरण और उसका संगठन ही लोकमंथन की सार्थकता होगा। राज्यशक्ति ने जिस तरह निरंतर लोकशक्ति को कमजोर किया है। लोकशक्ति की सामूहिकता को नष्ट किया है उसे जगाने की जरूरत है। गांधी के बाद आजाद भारत में विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, नाना जी देशमुख ने भी लोकशक्ति के जागरण के प्रयोग किए थे। हमें उनकी दिखाई राह और उनके प्रयोगों को दुहराने की जरूरत है। यह लोकशक्ति ही सत्तातंत्र को निरंकुश होने से रोकने की गारंटी है।

 

आध्यात्मिक अनुभवों का साक्षीः

  इसमें कोई दो राय नहीं कि वेदों से लेकर आज के युग तक भारत की प्राणवायु धर्म है। वही हमारी चेतना का मूल है। यह धर्म ही हमारी सामाजिक संस्कृति का निर्माता है। आध्यात्मिक अनुभवों और अंतस् की यात्रा के व्यापक अनुभवों वाला ऐसा कोई देश दुनिया में नहीं है। भारत का यह सत्व या मूल ही उसकी शक्ति है। जिन्हें धर्म का अनुभव नहीं वे विचारधाराएं इसलिए भारत को संबोधित ही नहीं कर सकतीं। वे भारत के मन और अंतस् को छू भी नहीं सकतीं। गांधी अगर भारत के मन को छू पाए तो इसी आध्यात्मिक अनुभव के नाते। ऐसे कठिन समय में जब हमारे महान अनुभवों, महान विचारों पर अवसाद की परतें जमी हैं, धूल की मोटी परत के बीच से उन्हें झाड़-पोंछकर निकालना और अपने लोक पर भरोसा करते हुए, उनकी आंखों में झिलमिला रहे भारत के सपनों के साथ तालमेल बिठाना समय की जरूरत है। लोकमंथन जैसे आयोजन भारत के लोक को उसका खोया हुआ आत्मविश्वास लौटा सकें तो उनकी सार्थकता सिद्ध होगी। 

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

 




 

गुरुवार, 3 नवंबर 2016

डा. सुशील त्रिवेदीः एक सक्रिय बुद्धिधर्मी

डा. सुशील त्रिवेदीः एक सक्रिय बुद्धिधर्मी
-संजय द्विवेदी


       मेरे जीवन में छत्तीसगढ़ की बहुत सारी स्मृतियां हैं, मैं खुद को उनसे ही बना हुआ महसूस करता हूं। छत्तीसगढ़ की बहुत सारी मोहक स्मृतियों में एक छवि बनती है डा.सुशील त्रिवेदी की। डा. त्रिवेदी का मेरे जीवन में होना एक ऐसी छाया की तरह है, जो पिता की तरह संरक्षण देती है और मां की तरह वात्सल्य और मित्र की तरह उत्साह। वे हर समय साथ होते हैं। जनसंपर्क उनकी विलक्षणता है तो विद्वता और अध्ययनशीलता उनकी पहचान।
      मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में एक आला अफसर, लेखक और राजनीतिक विश्लेषक से अलग भी उनकी अनेक छवियां हैं, जिसमें वे मीडिया-जनसंपर्क के अध्येता, अनुवादक, संविधान और चुनाव के जानकार, कला समीक्षक, संस्कृतिकर्मी की सक्रिय भूमिकाओं में दिखते हैं। अपने काम के साथ-साथ इतनी विधाओं को एक साथ साध लेना, एक हुनर ही कहा जाएगा। कलेक्टर से लेकर छत्तीसगढ़ के राज्य निर्वाचन आयुक्त जैसे पद उनके जीवन को बड़ा नहीं करते, उन्हें बड़ा करती है उनकी जिजीविषा, सतत सक्रियता और निरंतर लेखन। अपनी सरकारी नौकरियों की व्यस्तता भरे जीवन के बावजूद परंपरा से उन्हें लिखने का संस्कार मिला है। उसमें वे कुछ जोड़ते ही हैं। उनके अवदान को उनकी 24 मौलिक पुस्तकों, 3 संपादित और 7 अनुदित ग्रंथों से समझा जा सकता है। यह साधारण नहीं है कि अवकाश प्राप्ति के बाद वे छत्तीसगढ़ के सवालों पर राष्ट्रीय मीडिया की जरूरत हैं। वे समझ का आईना हैं और चुनावी संदर्भों में उनकी वाणी सत्य पर ही जाकर ठहरती है।
    छत्तीसगढ़ के लंबे पत्रकारीय जीवन में मुझे रायपुर और बिलासपुर जैसे शहरों में रहने और लगभग पूरे छत्तीसगढ़ में जाने और लोगों से संवाद करने का मौका मिला। किंतु अनुभव की आंखें अलग होती हैं। हम जो जमीन पर जाकर देखते और महसूस करते, डा. त्रिवेदी रायपुर में ही महसूस कर रहे होते। नए बने छत्तीसगढ़ के बदलावों और उसकी पहचान से जुड़े सवालों, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मुद्दों की उनमें गहरी समझ है। उनके पास बैठकर आप रिक्त नहीं आ सकते। उनके हर किस्से में एक संदेश है। रायपुर में जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ नाम से जो पहला सेटलाइट चैनल लांच हुआ, उसी वर्ष विधानसभा और लोकसभा के चुनाव लगभग आगे-पीछे हुए। रायपुर जैसी जगह पर हमें एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी, जो तटस्थ तरीके से स्थितियों का विश्वेषण कर सके। जाहिर तौर पर डा.सुशील त्रिवेदी हमारे संकटमोचक साबित हुए। हमारा चैनल उनकी उपस्थिति से न सिर्फ गंभीरता से देखा गया बल्कि चुनाव परिणाम भी अनुमानों के आसपास रहे। रायपुर से हमने जब मीडिया विमर्श नाम की पत्रिका शुरू की तो हमारे प्रथम सलाहकारों और लेखकों में वे शामिल थे। आज भी मीडिया विमर्श के हर अंक में वे एक अनिवार्य उपस्थिति हैं। मीडिया विमर्श के प्रकाशन को वे बहुत उम्मीद से देखते हैं। पत्रिका के पांच साल पूरे होने पर हमने रायपुर में एक समारोह का आयोजन किया, जिसके मुख्यअतिथि श्री प्रकाश जावडेकर थे। इस आयोजन में मीडिया विमर्श के सबसे सक्रिय लेखक के रूप में डा.सुशील त्रिवेदी का सम्मान श्री जावडेकर ने किया।
    देवेंद्र नगर की सरकारी अफसरों की कालोनी से लेकर उनकी सेवानिवृत्ति के बाद रामनगर कालोनी के उनके आवास पर उनसे अनेक मुलाकातें हुयी हैं, दोनों स्थितियों में मैंने कभी उनके व्यवहार में अंतर नहीं पाया। वे एक ऐसी शख्सियत हैं, जिसे हमेशा अपनों का साथ सुख देता है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ही नहीं देश भर में उनके चाहने वालों का एक महापरिवार है, जिसके मुखिया वे खुद हैं। परिवार, समाज और देश तीनों के लिए उनके पास एक दिल है जो समान रूप से तीनों के लिए धड़कता है। वे हर भूमिका में पूर्ण हैं। उनके साथ होकर ही उनकी ऊंचाई को जाना जा सकता है। एक अधिकारी के रूप में उनके योगदान को उनके समकक्ष बयान करेगें किंतु एक लेखक, राजनीतिक विश्वेषक और कलाओं के संरक्षक की जो भूमिका है उसका हम सब मूल्यांकन कर सकते हैं। रायपुर के न जाने कितने पत्रकार मित्र हैं, जिनको डा. त्रिवेदी ने चुनाव रिर्पोटिंग के मायने समझाए, मदद की। चुनावों के दौरान चीजों और स्थितियों को समझने के लिए हम जैसे न जाने कितनों ने उनके जीवन के बहुमूल्य क्षणों का इस्तेमाल किया। उनकी सदाशयता कि उन्होंने अपना समय हमें देने के लिए कभी भी कृपणता नहीं दिखाई।
    आज भौगोलिक दूरियों के बावजूद भी उनकी वही गर्मजोशी कायम है। फोन पर उनकी आवाज गूंजती हैं, मीलों की दूरियों पलों में मिट जाती हैं। परिवार का कुशल क्षेम पूछना उनके वात्सल्य भाव का ही परिचायक है। वे दूर होकर भी अपनी छाया से संरक्षित करते हैं। भोपाल और रायपुर फिर मिल जाते हैं। कभी भोपाल उनका था, उनकी महक से चहकता। जनसंपर्क विभाग से लेकर राजभवन तक उनकी स्मृतियां हैं। कलाबोध, संस्कृतिबोध से रसपगा उनका मन भोपाल के बिना कितना रीता होगा, सोचता हूं। एक संस्कृतिधर्मी नगर भोपाल के निर्माण में, उसकी भावभूमि बनाने में जिन कुछ अफसरों की भूमिका रही, उसमें वे भी एक थे। अपनी पूरी गरिमा और मर्यादा के साथ। समय से संवाद करते हुए। कुछ रचते हुए। एक पूरी टीम को अपने आसपास और अपने जैसा बनाते हुए। इन अर्थों में वे एक विलक्षण संगठनकर्ता भी हैं, जिसके पास रंगकर्मी, संस्कृतिकर्मी, राजनेता, पत्रकार, अधिकारी, लेखक, पुरातत्वविद्, अनुवादक, संपादक, आम आदमी सभी बड़ी सहजता से आमदरफ्त कर सकते थे। उनके पास होना खुद के अधूरेपन को, खालीपन को भरना भी है। उनके पास आज सिर्फ यादें ही नहीं हैं, कर्म के बेहद सजीले पृष्ठ हैं, जिन्हें उनकी कर्मठता ने जीवंत किया है। एक पूरी परंपरा है जो उनके भोपाल से जाने के बाद भी उनकी यादों को सहेजकर खुद को शक्ति देती रहती है। रचनाधर्मियों का, संस्कृतिकर्मियों का भरा-पूरा परिवार जो उन्होंने बनाया वह आज भी उनसे उसी अंतरंगता से जुड़ा हुआ है।
   हालांकि छत्तीसगढ़ निर्माण के बाद उनकी स्थानीय व्यस्तताएं बहुत हैं। इसलिए भोपाल में उनका सहज-स्वाभाविक प्रवास कम हुआ है। रायपुर में रहते हुए वे आज भी बेहद सक्रिय हैं। एक सक्रिय बुद्धिधर्मी (बुद्धिजीवी कहने का जोखिम नहीं लूंगा) के नाते उनकी एक अलग पहचान बनी है। वे अपनी बात अलग तरीके के अभ्यासी हैं। परिवार की विरासत को उन्होंने ऊंचाई दी है। एक बड़े ओहदे पर होने के बाद भी जिस तरह उन्होंने रिश्तों, परिवार और मित्रों को अपने जिंदगी में सबसे आगे रखा,वह चीज सीखने की है। आज जबकि वे अपने यशस्वी जीवन के 75 वर्ष पूर्ण कर चुके हैं, तब हम जैसे उनके चाहने वालों के लिए वे उतने ही जरूरी और महत्वपूर्ण हैं, जब उन्होंने हमें हमारी उंगलियां पकड़कर दुनिया के सामने ला खड़ा किया था। उनकी इस कृतज्ञता को व्यक्त करने के लिए शब्द कम पड़ेंगे। आप शतायु हों सर। इसी जीवंतता के साथ, कर्मठता के साथ, उजली चादर के साथ।

लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष तथा मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं। डा. त्रिवेदी से संजय द्विवेदी के पारिवारिक एवं आत्मीय रिश्ते हैं।


गुरुवार, 27 अक्तूबर 2016

कैसे बढ़ेंगी पुलिस-पब्लिक की नजदीकियां

पुलिस का भय तो हो किंतु भरोसा कायम करना जरूरी
-संजय द्विवेदी

  पुलिस-पब्लिक की नजदीकियां बढ़ाने के तमाम जतन आजादी के बाद से ही हो रहे हैं। कई तरह के नवाचार और प्रयोग हो चुके हैं तमाम पर काम जारी है। सोशल मीडिया के अवतार के बाद पुलिस अब इस नए माध्यम से भी लोगों के बीच जाना चाहती है। देश के पहले पत्रकारिता विश्वविद्यालय- माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में पिछले दिनों सोशल मीडिया फार ला एंड आर्डर विषय पर दो दिवसीय कार्यशाला (24,25 अक्टूबर,2016) संपन्न हुयी। इस कार्यशाला में मप्र के तमाम बड़े पुलिस अफसर, मीडिया प्रोफेशनल और मीडिया शिक्षक हिस्सा ले रहे हैं।
  जाहिर तौर पर ऐसे विमर्शों में पुलिस का अपना पक्ष होता है और शेष समाज का दूसरा। ऐसे में यह जरूरी है कि हम इस बात पर विचार करें कि आखिर क्या कारण है कि पुलिस का चेहरा वैसा नहीं बन पाया जैसा इसे होना चाहिए। देखा जाए तो पुलिस अपनी पेंट हो चुकी या बनी-बनाई छवि से ही जूझ रही है। यह जरूरी है कि वह अपनी परंपरागत छवि से मुक्त हो। अपनी शुचिता के प्रति सावधान हो और समाज में आदर पाने के लिए आवश्यक उपाय करे। यहां यह कहना ठीक नहीं है कि पुलिस का भय नहीं होना चाहिए। पुलिस का भय तो होना ही चाहिए, पर पुलिस से किसे डरना चाहिए? अपराधी को या फरियादी को। आरोपियों को या आम जनता को? निश्चय ही पुलिस का भय तो हो किंतु असम्मान न हो, अविश्वास न हो। इसके लिए पुलिस महकमे को बहुत काम करने की जरूरत है। समाज इस नए दौर में एक अच्छी पुलिसिंग के इंतजार में है। आज मप्र जैसे राज्य में 10 हजार की आबादी पर 14 पुलिस वाले हैं। जाहिर है पुलिसिंग को इस हालात में मजबूत करना कठिन है।
  पुलिस विभाग की ओर से अनेक योजनाएं चलाई जा रही हैं। मप्र जैसे राज्य में सोशल मीडिया पर पुलिस सक्रिय है। अधिकारी समस्याएं सुन रहे हैं। नक्सल क्षेत्रों में शिक्षा उदय अभियान जैसे प्रयोग भी पुलिस ने किए हैं। निजी लोगों की मदद से ट्रैफिक सुधारने के प्रयोग भी पुलिस ने किए हैं। थाने से लेकर डीपीजी स्तर तक जनसुनवाई के प्रयोग भी अनेक राज्य कर रहे हैं। यानि कोशिश है कि भरोसा कायम किया जाए। विश्वास बहाली हो और छवि ठीक हो। अनेक राज्यों ने ग्राम रक्षा समितियों और नगर सुरक्षा समितियों के प्रयोग भी किए हैं जिनसे लोगों का सीधा जुड़ाव पुलिस से हो और अच्छी पुलिसिंग लोगों को मिले। चौपाल और जनसुनवाई के प्रयोगों से पुलिस अधिकारी जनता के मनोभावों को सुन और समझ रहे हैं।
    जनता के मन से पुलिस के प्रति बनी धारणा को बदलने के लिए पुलिस विभाग भी कई स्थानों पर बेहतर प्रयोग करता नजर आता है। बढ़ती तकनीक ने उन्हें यह सुविधा भी दिलाई है। सीसीटीवी कैमरों और मोबाइल के चलते अनेक अपराधों के कारणों तक पुलिस शीध्रता से पहुंच रही है। पुलिस प्रशासन खासकर त्यौहारों के समय समाज के विविध वर्गों से शांति व्यवस्था के नाम पर संवाद करता है। उससे नगरों की शांति व्यवस्था बनाए रखने में मदद भी मिलती है। यह संवाद निरंतर हो तो इसके लाभ व्यापक तौर पर उठाए जा सकते हैं। संवाद और निरंतर संवाद ही इसका समाधान है। सिनेमा के माध्यम से जिस तरह की पुलिसिया छवि प्रक्षेपित की जा रही है, उसे देखना होगा। अच्छा पुलिसवाला एक अपवाद की तरह सामने आता है। जबकि बदलती दुनिया और बदलते समाज में पुलिस को एक नए तरीके से सामने आना होगा। उसकी छवि और कार्यशैली बदलनी होगी। हमारे देश में पुलिस सुधार पर काफी लंबे अरसे से चर्चा हो रही है लेकिन सरकारें यथास्थितिवादी मानसिकता से धिरी हुयी हैं। वे नया करने और सोचने की मानसिकता में नहीं हैं। दिल्ली और मुंबई पुलिस ने कुछ बहुत अच्छे प्रयोग किए हैं। जाहिर तौर पर महानगरों की पुलिस ज्यादा संसाधनों से लैस है लेकिन राज्यों में वे प्रयोग दुहराए जा सकते हैं। यह बात निश्चित है कि धटनाएं रोकी नहीं जा सकतीं किंतु एक बेहतर पुलिसिंग समाज में संवाद और भरोसे का निर्माण करती है। यह भरोसा बचाना और उसे बढ़ाना आज के पुलिस तंत्र की जिम्मेदारी है। यहां यह भी जोड़ना जरूरी है कि मीडिया के तमाम अवतारों और प्रयोगों के बाद भी व्यक्तिगत संपर्कों और व्यक्तित्व का महत्व कम नहीं होगा। जिन समयों में सोशल मीडिया जैसे प्रयोग नहीं थे तब भी पुलिस अधिकारी बहुत बेहतर तरीके से कामों को अंजाम देते थे। पंजाब के आतंकवाद से निपटने में हमारे पुलिस अधिकारियों की भूमिका हमेशा रेखांकित की जाती है। अच्छी पुलिसिंग समाज का अधिकार है वह उसे मिलनी ही चाहिए। वर्तमान समय में जिस तरह सुशासन को लक्ष्य कर काम लिए जा रहे हैं और शासन और प्रशासन में नए प्रयोग किए जा रहे हैं वे प्रयोग पुलिस महकमे में भी दोहराए जाने चाहिए। हमारी पुलिस को बेहतर ट्रेनिंग और आधुनिक साधनों से लैस करते हुए उन्हें नए समय में संवाद के साधनों से भी परिचित कराने की जरूरत है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भी इंटरनेट की पहुंच ने एक नया भारत उदित किया है। प्रधानमंत्री डिजीटल इंडिया बनाने का आग्रह करते दिखते हैं। इस डिजीटल इंडिया को पुराने हथियारों और संचार साधनों से संबोधित नहीं किया जा सकता। इसलिए हमारी पुलिस को नए तरीके से नए साधनों के असर और उनके प्रयोगों से जोड़ने की जरूरत है। अलग-अलग स्थानों पर हो रहे प्रयोगों को नए स्थानों पर आजमाने जैसे आइडिया शेयरिंग की भी जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता। मप्र जैसे राज्य में डायल 100 जैसे प्रयोग भी एक मिसाल की तरह है जिसके तहत सभी थानों में गाड़ियां उपलब्ध करायी गयी हैं और समाज को पुलिस की मदद के लिए ये वाहन हमेशा चौकस दिखते हैं। आनलाईन एफआईआर जैसे प्रयोग भी मप्र सहित कुछ राज्यों ने संभव किए हैं। निश्चय ही इन नए प्रयोगों से हमें जल्दी ही एक स्मार्ट पुलिस का चेहरा देखने को मिलेगा जो भरोसा भी जगाएगा और छवि भी बदलेगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)


यादवी युद्ध में उत्तर प्रदेश

कुनबे की कलह में वास्तविक नेता बनकर उभरे हैं अखिलेश यादव
-संजय द्विवेदी

  उत्तर प्रदेश के यादवी युद्ध में आखिर सबसे ज्यादा फायदे में कौन है? मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, नेताजी, अमर सिंह, रामगोपाल या शिवपाल यादव? निश्चित ही इस प्रश्न का तुरंत उत्तर देना संभव नहीं है। किंतु जैसी गोटियां बिछाई गयी हैं, उसमें अखिलेश एक नायक की तरह उभरे हैं। उनकी सरकार की चार साल की नाकामियां अचानक परिदृश्य से गायब हैं और चारों तरफ चाचा से टकराते अखिलेश की चर्चा है। अखिलेश के पास इस वक्त खोने के लिए कुछ नहीं है। वे बहुत उंचाई पर हैं और राजनीति में हार-जीत तो लगी रहती है। अगर परिवार साथ भी था तो कौन सी गारंटी थी कि समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलेगा। अगर परिवार टकरा रहा है तो भी सरकार सपा के नेतृत्व में नहीं बनेगी, इसे भरोसे से कौन कह सकता है।
    मुलायम सिंह यादव उप्र के एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्हें उत्तर प्रदेश का मन, मिजाज और तेवर पता हैं। वे हर विधानसभा क्षेत्र के चरित्र और उसके स्वभाव को जानते हैं। कल्याण सिंह भी लगभग ऐसी ही जानकारियों से लैस राजनेता हैं, किंतु वे राजस्थान के राजभवन में बिठा दिए गए हैं। ऐसे में मुलायम सिंह इस घटनाचक्र के अगर प्रायोजक न भी हों तो भी उनकी इच्छा के विरूद्ध यह हो रहा है, कहना कठिन है। मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह अपने बेचारेकहे जा रहे बेटे को यह कहकर ताकत दी है कि शिवपाल को मंत्री बनाने का मामला अखिलेश पर छोड़ता हूं उसके बहुत बड़े संदेश हैं। मुलायम सिंह यादव यूं ही नेताजी नहीं हैं, उनमें उप्र की राजनीति की गहरी समझ और स्थितियों को अपने पक्ष में कर लेने की अभूतपूर्व क्षमता है। उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना भले ही पूरा न हो पाया हो किंतु वे अपने पुत्र को उत्तर प्रदेश की राजनीति का सबसे नामवर चेहरा बनाने में कामयाब रहे हैं। आज समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के सिवा क्या बचा है? जो मुलायम के आसपास के नेता हैं, वे सब अपनी चमक खो चुके हैं, या सबकी हालत खराब है। दिल्ली में राज्यसभा के नेता रहे प्रो. रामगोपाल यादव पार्टी से बाहर हैं, बड़बोले अमर सिंह की बोलती बंद है, शिवपाल यादव मंत्रिमंडल से बाहर हैं, आजम खान की चमक भी कम हुयी है, ले-देकर सारा उत्तर प्रदेश अखिलेश यादव की चर्चाओं में व्यस्त है।
   इस पूरे एपीसोड ने अखिलेश यादव की सारी कमजोरियों, नाकामियों और अकुशल प्रबंधन को भुला दिया है। जनता आज अखिलेश को सहानुभूति से देख रही है और मानती है कि अखिलेश को फ्री हैंड दिया जाए तो वह बहुत कुछ कर सकते हैं। यहीं सवाल उठता है कि अखिलेश आखिर इतने दिनों तक आखिर सब कुछ क्यों सहते रहे? क्यों वे पिता द्वारा बार-बार अपमान किए जाने के बाद भी चुप रहे? क्यों वे चाचाओं की चाही-अनचाही इच्छाओं के आगे झुकते रहे? इस तरह अचानक उनके बागी तेवर स्वाभाविक हैं या किसी पूर्व लिखित स्क्रिप्ट के तहत वे ऐसे अंदाज दिखा रहे हैं, जिस पर भरोसा करना कठिन है।
    ठीक चुनाव के पहले वे पिता का घर छोड़कर क्या अपने वयस्क और समझदार होने की सूचना दे रहे हैं? परिवार में कलह किसके नहीं होती, किंतु कलह का अचानक इस तरह चुनाव के ठीक पहले सतह पर आना बहुत कुछ कहता है। बावजूद इसके समाजवादी पार्टी चुनाव जीते या हारे, अखिलेश अपने तेवरों से दल के सबसे बड़े नेता हो गए हैं। मुलायम सिंह से भी बड़े। जनता के बीच उनकी छवि सुधरी है और उन्हें एक किस्म की सहानुभूति भी मिल रही है, जिसके भले ही वे पात्र नहीं हैं। दूसरी सबसे बड़ी बात समाजवादी पार्टी के सभी नेताओं मुलायम, रामगोपाल, शिवपाल, अमर सिंह, आजम खां से अलग अखिलेश के पास अभी लंबी आयु है। लंबी पारी खेलने के लिए समय है। जबकि शेष नेताओं को लंबी आयु के नाते अखिलेश जैसी समय की सुविधा हासिल नहीं है। अखिलेश उत्तर प्रदेश विधानसभा के आसन्न चुनावों में हारें या जीतें, उन्होंने इस युद्ध के बहाने अपना कद बड़ा कर लिया है। अमर सिंह जैसे नेताओं के उपकारों को लेकर मुलायम सिंह यादव भले भावुक होते दिखें, किंतु जनता में अमर सिंह को भला-बुरा कहकर अखिलेश ने अपनी ताकत भी दिखाई है और लोकप्रियता भी बढ़ाई है। यह साधारण नहीं है कि अमर सिंह ने इस पूरे प्रसंग में खामोशी ओढ़ रखी है। वे जानते हैं कि इस वक्त बोलने से उनके लिए चीजें और मुश्किल हो जाएंगीं। यह भी गजब है कि जो लोग पार्टी से निरंतर निकाले जा रहे हैं, वे मुख्यमंत्री के दरबार में भी डटे हैं और मंत्री भी बने हुए हैं। सपा के दो समानांतर सत्ता केंद्र बन चुके हैं। 

  इस पूरी कवायद के बीच यह चर्चा भी आम है कि उत्तर प्रदेश में सपा एक सेकुलर मोर्चा बनाकर मैदान में उतरना चाहती है, जिसमें वह कांग्रेस को भी अपने साथ लेना चाहती है। बिहार के सफल प्रयोग और उत्तर प्रदेश की बदहाली में कांग्रेस और सपा दोनों के लिए यह एक अच्छा अवसर हो सकता है। मुलायम सिंह यादव समय को दूर से पढ़ लेने वाले नेता हैं, इसलिए वे इस समझौते के लिए पहल करते हुए दिखते हैं। कांग्रेस के विधायक जिस तरह लगातार पार्टी छोड़ रहे हैं, उसमें उसके पास विकल्प सीमित हैं। राहुल गांधी भी अखिलेश यादव के प्रति अच्छे भाव रखते हैं, ऐसे में मुलायम एक बार फिर उप्र में सपा की सत्ता के लिए सपने बांध रहे हैं। इस यादवी युद्ध से परिवार को निकाल मुलायम सिंह कैसे अपने पुत्र को राजसत्ता तक पुनः पहुंचाते हैं, इसे देखना रोचक होगा। कुनबे की कलह से समाजवादी पार्टी को कुछ हासिल हो या न हो किंतु नेताजी के बाद एक नेता जरूर हासिल हुआ है जिसका नाम अखिलेश यादव है।

शनिवार, 22 अक्तूबर 2016

गुरू ज्ञान पर भारी है गूगल ज्ञान

अध्यापक-विद्यार्थी संबंधः नए रास्तों की तलाश
-संजय द्विवेदी

    ऐसे समय में जब आधुनिक संचार साधनों ने अध्यापकों को लगभग अप्रासंगिक कर दिया है, हमें सोचना होगा कि आने वाले समय में अध्यापक-विद्यार्थी संबंध क्या आकार लेगें, क्या शक्ल लेगें? यहां यह भी कहना जरूरी है कि ज्ञान का रिप्लेसमेंट असंभव है। लेकिन जिस तरह जीवन सूचनाओं के आधार पर बनाया, सिखाया और चलाया जा रहा है, उसमें ज्ञानी और गुणीजनों का महत्व धीरे-धीरे कम होगा। वैसे भी हमारे देश में समाज विज्ञानों में जिस तरह की शिक्षा पद्धति बनायी और अपनायी जा रही है। उसका असर उनके शोध पर भी दिखता है। तमाम बड़े परिसरों के बाद भी वैश्विक स्तर पर हमारी संस्थाएं बहुत काम की नहीं दिखतीं। उनकी गुणवत्ता पर अभी काफी काम करना शेष है।
   नए विचारों के लिए स्पेस कम होते जाना, नवाचारों के प्रति हिचक हमारी शिक्षा का बड़ा संकट है। साथ ही शिक्षकों द्वारा नयी पीढ़ी में सिर्फ अवगुण ढूंढना, इस नए समय के ऐसे मुद्दे हैं- जिनसे पूरा शिक्षा परिसर आक्रांत है। नई पीढ़ी की जरूरतें अलग हैं और जाहिर तौर पर वे बहुत आज्ञाकारी नहीं हैं। सब कुछ को वे सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि गुरूजी ऐसा कह रहे हैं। फिलवक्त हमारे समय की बहुत उर्जावान और संभावनाशील और जानकार पीढ़ी इस समय शिक्षकों के सामने उपस्थित है। परंपरागत शिक्षण की चुनौतियां अलग हैं और प्रोफेशनल शिक्षा के तल बहुत अलग हैं। यह पीढ़ी जल्दी और ज्यादा पाना चाहती है। उसे सब कुछ तुरंत चाहिए- इंस्टेंट। श्रम, रचनाशीलता और इंतजार उनके लिए एक बेमानी और पुराने हो चुके शब्द हैं। जाहिर तौर पर इस पीढ़ी से, इसी की भाषा में संवाद करना होगा। यह पीढ़ी नए तेवरों के साथ, सूचनाओं के तमाम संजालों के साथ हमारे सामने है। यहां अब विद्यार्थी की नहीं, शिक्षक की परीक्षा है। उसे ही खुद को साबित करना है।
सूचनाओं के बीच शिक्षाः
   हमारा समय सूचनाओं से आक्रांत है। सूचनाओं की बमबारी से भरा-पूरा। क्या लें क्या न लें-तय कर पाना मुश्किल है। आज के विद्यार्थी का संकट यही है कि वह ज्यादा जानता है। हां, यह संभव है कि वह अपने काम की बात कम जानता हो। उसके सामने इतनी तरह की चमकीली चीजें हैं कि उसकी एकाग्रता असंभव सी हो गयी है। वह खुद के चीजों और विषयों पर केंद्रित नहीं कर पा रहा है। क्लास रूम टीचिंग उसे बेमानी लगने लगी है। शिक्षक भी नए ज्ञान के बजाए पुरानी स्लाइड और पावर पाइंट से ज्ञान की आर्कषक प्रस्तुति के लिए जुगतें लगा रहे हैं, फिर भी विफल हो रहे हैं। वह कक्षा में बैठे अपने विद्यार्थी तक भी पहुंच पाने में असफल हैं। विद्यार्थी भी मस्त है कि क्लास में धरा है। टीचर से ज्यादा भरोसा गूगल पर जो है। गूगल भी ज्ञान दान के लिए आतुर है। हर विषय पर कैसी भी आधी-अधूरी जानकारी के साथ।
   इससे किताबों पर भरोसा उठ रहा है। किताबें इंतजार कर रही हैं कि लोग आकर उनसे रूबरू होगें। लेकिन सूचनाओं  से भरे इस समय में पुस्तकालय भी आन लाइन किए जा रहे हैं। यानि इन किताबों के सामने प्रतीक्षा के अलावा विकल्प नहीं हैं। यह प्रतीक्षा कितनी लंबी है कहा नहीं जा सकता।
मुश्किल में एकाग्रताः
  सच कहें तो इस कठिन समय का सबसे संकट है एकाग्रता। आधुनिक संचार साधनों ने सुविधाओं के साथ-साथ जो संकट खड़ा किया है वह है एकाग्रता और एकांत का संकट। आप अकेले कहां हो पाते हैं? यह मोबाइल आपको अकेला कहां छोड़ता है? यहां संवाद निरंतर है और कुछ न कुछ स्क्रीन पर चमक जाता है कि फिर आप वहीं चले जाते हैं, जिससे बचने के उपाय आप करना चाहते हैं। सूचनाएं, ज्यादा बातचीत और रंगीनियों ने हाल बुरा कर दिया है। सेल्फी जैसे राष्ट्रीय रोग की छोड़िए, जिंदगी ऐसे भी बहुत ज्यादा आकर्षणों से भर गयी है। ऐसे आकर्षणों के बीच शिक्षा के लिए समय और एकाग्रता बहुत मुश्किल सी है। बहुत सी सोशल नेटवर्किंग साइट्स का होना हमें कितना सामाजिक बना रहा है, यह सोचने का समय है। सोशल नेटवर्क एक नई तरह की सामाजिकता तो रच रहे हैं तो कई अर्थों में हमें असामाजिक भी बना रहे हैं। इसी के चलते गुरू ज्ञान पर भारी है गूगल ज्ञान। इस नए समय में शिक्षक को नई तरह से पारिभाषित करना प्रारंभ कर दिया है।
चाहिए तैयारी और नयी दृष्टिः
  जाहिर तौर पर शिक्षा और शिक्षकों के सामने नए विचारों को स्वीकारने और जड़ता को तोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उन्हें परंपरा से हटकर नया ज्ञान, नए तरीके से प्रस्तुत करना होगा। प्रस्तुतिकरण की शैली में परिवर्तन लाना होगा। शिक्षक की सबसे बड़ी चुनौती- अपने विद्यार्थी के मन में ज्ञान की ललक पैदा करना है। उसे ज्ञान प्राप्ति के लिए जिज्ञासु बनाना है। उसकी एकाग्रता के जतन करना है और कक्षा में उसे वापस लाना है। वापसी इस तरह की कि वह कक्षा में सिर्फ शरीर से नहीं, मन से भी उपस्थित रहे। उसे नए संचार माध्यमों की सीमाएं भी बतानी जरूरी हैं और किताबों की ओर लौटाना जरूरी है। उसके मन में यह स्थापित करना होगा कि ज्ञान का विकल्प सूचनाएं नहीं हैं। सिर्फ सतही सूचनाओं से वह ज्ञान हासिल नहीं करता, बल्कि अपने स्थापित भ्रमों को बढ़ाता ही है। उसे यह भी बताना होगा कि उसे चयनित और उपयोगी ज्ञान के प्रति सजगता और ग्रहणशीलता बनानी होगी। 

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)

सोमवार, 10 अक्तूबर 2016

भारतीय मूल्यों पर आधारित हो शिक्षा

जरूरी है स्वायत्तता, सम्मान और विश्वास
-संजय द्विवेदी

       किसी देश या समाज की सफलता दरअसल उसकी शिक्षा में छिपी होती है। भारत जैसे देश का दुनिया में लंबे अरसे तक डंका बजता रहा तो इसका कारण यहां की ज्ञान परंपरा ही रही है। आज हमारी शिक्षा व्यवस्था पर चौतरफा दबाव हैं। हम सब अभिभावक, शिक्षक और प्रशासन तीनों भूमिकाओं में खुद को विफल पा रहे हैं। देश के बुद्धिजीवी इन सवालों को उठाते तो हैं पर समाधान नहीं सुझाते। बाजार का रथ लगता है, पूरी शिक्षा को जल्दी अपने अश्वमेघ का हिस्सा बना लेगा। ज्ञान, विज्ञान और चरित्र हमारे जीवन दर्शन में शिक्षा का आधार रहा है। हमारी भारतीय ज्ञान परंपरा, समग्र ज्ञान से बने जीवन दर्शन पर आधारित है। लेकिन हम देख रहे हैं कि हमारी पीढियां फैक्ट्री जैसी शिक्षा पाने के लिए विवश हैं। आज उन्हें कीमत तो पता है पर मूल्य को वे नहीं जानते।
        हमारे देश का आदर्श ग्लोबलाइजेशन नहीं हो सकता। वसुधैव कुटुम्बकम् ही हमारी वास्तविक सोच और वैश्विक सोच को प्रगट करता है। हम अपनी ज्ञान परंपरा में सिर्फ स्वयं का नहीं बल्कि समूचे लोक का विचार करते हैं। शिक्षा से मुनाफा कमाने की होड़ के समय में हमारे सारे मूल्य धराशाही हो चुके हैं। पहले भी शिक्षा का व्यवसायिक चरित्र था किंतु आज शिक्षा का व्यापारीकरण हो रहा है। एक दुकान या फैक्ट्री खोलने की तरह एक स्कूल डाल लेने का चलन बढ़ रहा है, जबकि यह खतरनाक प्रवृत्ति है।
     वैसे भी जो समाज व्यापार के बजाए शिक्षा से मुनाफा कमाने लगे उसका तो राम ही मालिक है। हमारे ऋषियों-मुनियों ने जिस तरह की जिजीविषा से शिक्षा को सेवा और स्वाध्याय से जोड़ा था वह तत्व बहुलतः शिक्षा व्यवस्था और तंत्र से गायब होता जा रहा है। इस ऐतिहासिक फेरबदल ने हमारे शिक्षा जगत से चिंतन, शोध और अनुसंधान बंद कर दिया है। पश्चिम के दर्शन और तौर-तरीकों को स्वीकार करते हुए अपनी जड़ें खोद डालीं। आज हम न तो पश्चिम की तरह बन पाए, न पूरब का सत्व और तेज बचा पाए। इसका परिणाम है कि हमारे पास इस शिक्षा से जानकारी और ज्ञान तो आ गई पर उसके अनुरूप आचरण नहीं है। जीवन में आचरण की गिरावट और फिसलन का जो दौर है वह जारी है। यह कहां जाकर रूकेगा कहा नहीं जा सकता। भारतीय जीवन मूल्य और जीवन दर्शन अब किताबी बातें लगती हैं। उन्हें अपनाने और जीवन में उतारने की कोशिशों बेमानी साबित हो रही हैं।
     सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों के कई प्रवक्ता कहते हैं परमवैभव ही हमारा विजन है। किंतु इसके लिए हमारी कोशिशें क्या हैं। विश्व में जो श्रेष्ठ है, सर्वश्रेष्ठ है-विश्व मानवता को उसे मिलना ही चाहिए। एक नए भारत का निर्माण ही इसका रास्ता है। वह कैसे संभव है जाहिर तौर पर शिक्षा के द्वारा। इंडिया को भारत बनाने की कठिन यात्रा हमें आज ही शुरू करनी होगी। जनमानस जाग चुका है। जगाने की जरूरत नहीं है। नई पीढ़ी भी अंगड़ाई लेकर उठ चुकी है। वह संकल्पबद्ध है। अधीर है, अपने सामने एक नया भारत गढ़ना और देखना चाहती है। वह एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहती है, जिसमें वह स्वाभिमान के साथ अपना विकास कर सके। सवाल उठता है कि फिर बाधक कौन है। जाहिर तौर हम, हमारी परंपरागत व्यवस्थाएं, गुलामी के अवशेष, पुरानी पीढ़ी की सोच, धारणाएं, विचारधाराएं इस परिवर्तन की बाधक हैं। आजादी के पहले जो कुछ हुआ उसके लिए हम लार्ड मैकाले को कोसते रहते हैं किंतु इन सात दशकों में जो घटा है उसका दोष किस पर देगें? एक स्वाभिमानयुक्त भारत और भारतीयों का निर्माण करने के बजाए हमने आत्मदैन्य से युक्त और परजीवी भारतीयों का निर्माण किया है। इन सात दशकों के पाप की जिम्मेदारी तो हमें ही लेनी होगी। सच्चाई तो यह है कि हमारे आईटीआई और आईआईएम जैसे महान प्रयोग भी विदेशों को मानव संसाधन देने वाले संस्थान ही साबित हुए। बाकी चर्चा तो व्यर्थ है।

  किंतु समाज आज एक नई करवट ले रहा है। उसे लगने लगा है कि कहीं कुछ चूक हुयी है। सर्वश्रेष्ठ हमारे पास है, हम सर्वश्रेष्ठ हैं। किंतु अचानक क्या हुआ? वेद, नाट्यशास्त्र, न्यायशास्त्र, ज्योतिष और खगोल गणनाएं हमारी ज्ञान परंपरा की अन्यतम उपलब्धियां हैं पर फिर भी हम आत्म दैन्य से क्यों भरे हैं? देश में स्वतंत्र बुद्धिजीवियों का अकाल क्यों पड़ गया? एक समय कुलपति कहता था तो राजा उसकी मानता। कुलगुरू की महिमा अनंत थी। आज दरबारों में सिर्फ दरबारियों की जगह है। शिक्षा शास्त्रियों को विचार करना होगा कि उनकी जगह क्यों कम हुयी? साथ ही उन्हें गरिमा की पुर्नस्थापना के सचेतन प्रयास करने होगें। विश्वविद्यालय जो ज्ञान के केंद्र हैं और होने चाहिए। वे आज सिर्फ परीक्षा केंद्र बनकर क्यों रह गए हैं? अपने परिसरों को ज्ञान,शोध और परामर्श का केंद्र हम कब बनाएंगे? विश्वविद्यालय परिसरों की स्वायत्तता का दिन प्रतिदिन होता क्षरण, बढ़ता राजनीतिकरण इसके लिए जिम्मेदार है। स्वायत्तता और सम्म्मान दोनों न हो तो शिक्षा क्षेत्र में होने के मायने भी क्या हैं? कोई भी विश्वविद्यालय या परिसर स्वायत्तता, सम्मान और विश्वास से ही बनता है। क्या ऐसा बनाने की रूचि शिक्षाविदों और ऐसे बनने देने की इच्छाशक्ति हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र में है।

सोमवार, 3 अक्तूबर 2016

अरसे बाद मुस्कराया देश

-संजय द्विवेदी
  उड़ी हमले के 11 दिन बाद पाक अधिकृत कश्मीर में भारतीय सेना की कार्रवाई सही मायने में हिंदुस्तानी आवाम के जख्मों पर राहत का मलहम सरीखी ही है। लगातार जख्मी किए जा रहे देश को अरसे बाद मुस्कराने का मौका मिला है। भारत एक युद्धकामी देश नहीं है। किंतु उसके पड़ोसी देश की हरकतों ने भारतीय मानस को इतना चोटिल किया है कि पाकिस्तान का नाम भी अब उसके नाम के सुंदर अर्थ के बजाए एक विपरीत अर्थ देता है। पाक के साथ नापाक शब्द अक्सर अखबारों की सुर्खियों में रहता है। कैसे एक देश अपने कुटिल कर्मों से अपने वास्तविक नाम का अर्थ भी खो बैठता है, पाकिस्तान इसका उदाहरण है।
   भारत-पाकिस्तान एक भूगोल, एक इतिहास, एक विरासत और अपनी आजादी के लिए एक साथ जंग लड़ने वाले देश हैं। लेकिन इतिहास किस तरह साझी विरासतों को भी बांटता है कि आज दोनों तरफ आग उगलते दरिया मौजूद हैं। नफरतें, कड़वाहटें और संवादहीनता हमारे समय का सच बन गयी हैं। भारत के लिए अच्छी राय रखना पाकिस्तान में मुश्किल है, तो पाकिस्तान के लिए अच्छे विचार हमारे देश में बुरी बात है। हमने अपनी साझी विरासतों के बजाए साझी नफरतों के सहारे ही ये बीते सात दशक काटे हैं। ये नफरतों के जंगल आज दोनों ओर लहलहा रहे हैं। इन्हें काटने वाले हाथ दिखते नहीं हैं।
एक मानसिक अवस्था है पाकिस्तानः
 पाकिस्तान दरअसल एक मुल्क नहीं, भारत विरोधी विचारों से लबरेज मनोदशा वाले लोगों का समूह है। भारत न हो, तो शायद पाकिस्तान को अपना वजूद बचाना मुश्किल हो जाए। भारत का भय और भारत का प्रेत उसकी राजनीति का प्राणवायु है। जेहादी आतंकवाद ने उसके इस भय को और गहरा किया है। पाकिस्तान एक ऐसा देश बन चुका है, जिसके हाथ अपने मासूम बच्चों को कंधा देते हुए नहीं कांपते। वह आत्मघाती युवाओं की फौज तैयार कर अपने नापाक सपनों को जिलाए रखना चाहता है। जाहिर तौर पर इस पाकिस्तान से जीता नहीं जा सकता। वह एक ऐसा पाकिस्तान बन गया है, जिसने खुद की बरबादी पर दुखी होना छोड़ दिया है, वह भारत के दुखों से खुश होता है। उसे अपने देश में लगी आग नहीं दिखती, वह इस बात पर प्रसन्न है कि कश्मीर भी जल रहा है। उसके अपने लोग कैसी जिंदगी जी रहे हैं, इसकी परवाह किए बिना आईएसआई भारत में आतंकी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर रही है। पाकिस्तान दरअसल एक प्रतिहिंसा में जलता हुआ मुल्क है, जिसे अपनी बेहतरी नहीं भारत की बर्बादी के सपने सुख देते हैं। इस मानसिक अवस्था से उसे निकालना संभव कहां है?
भारत के पास सीमित हैं विकल्पः
भारत के पास पाकिस्तान से लड़ने का विकल्प है पर यह विकल्प भी वह कई बार आजमा चुका है। युद्ध के बजाए पाक को हजार जगह से घाव देना ज्यादा उचित है। कभी यही वाक्य जिया उल हक ने भारत के लिए कहा था कि भारत को हजार जगह घाव दो। आज भारत के पास यही एक विकल्प है कि वह सठे साठ्यं समाचरेत् का पालन करे। दुष्ट के साथ सद् व्यवहार से आप कुछ हासिल नहीं कर सकते। पाकिस्तान का संकट दरअसल उसके निर्माण से जुड़ा हुआ है। वह एक लक्ष्यहीन और ध्येयहीन राष्ट्र है। उसका ध्येय सिर्फ भारत धृणा है। सिर्फ नफरत है। नफरतों के आधार पर देश बन तो जाते हैं, पर चलाए नहीं जा सकते। इसका उदाहरण बंगलादेश है, जिसने पाकिस्तान से मुक्ति ली और आज अपनी किस्मत खुद लिख रहा है। 1947 में भारत और पाकिस्तान ने एक साथ सफर प्रारंभ किया, दोनों देशों की यात्रा का आकलन हमें सत्य के करीब ले जाएगा। पाकिस्तान इतनी विदेशी मदद के बाद भी कहां है और भारत अपने विशाल आकार-प्रकार और भारी आबादी के बाद भी कहां पहुंचा है? भारत ने अपना अलग रास्ता चुना। लोकतंत्र को स्वीकारा और मन से लागू किया। पाकिस्तान आज भी एक नकली लोकतंत्र के तले जी रहा है, जहां फौज राजनैतिक नेतृत्व को नियंत्रित करती हुयी दिखती है।
कश्मीर का क्या करोगेः
   पाकिस्तान की दुखती रग है कश्मीर। क्योंकि कश्मीर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को बेमानी साबित करता है। ज्यादा मुस्लिम आबादी का क्षेत्र होकर भी भारत के साथ उसका होना पाकिस्तान को सहन नहीं हो रहा है। जबकि सच तो यह है कि द्विराष्ट्रवाद का खोखलापन तो बांगलादेश के निर्माण के साथ ही साबित हो चुका है। भारत को जख्म देकर पाकिस्तान खुद भी पूरी दुनिया में बदनाम हो चुका है। आज समूची दुनिया पाकिस्तान के असली चेहरे को समझ चुकी है। अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी अगर भारत के पक्ष में है तो पाकिस्तान को यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि आंखों का भी पानी होता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सिर्फ धर्म के आधार पर समर्थन नहीं बटोरा जा सकता है। जिहादी आतंकवाद से त्रस्त दुनिया सिर्फ हिंदुओं या ईसाईयों की नहीं है, बल्कि बड़ी संख्या में इस्लामी देश भी इसके शिकार है। एक तटस्थ विश्लेषक की तरह सोचे तो रोजाना किसका खून धरती पर गिर रहा है। सोचेगें तो सच सामने आएगा। इस आतंक की शिकार सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी ही है। जेहादी आतंकवाद मुसलमानों को ही निगल रहा है। पूरी दुनिया का इस्लाम के प्रति नजरिया बदल रहा है। लोग इस्लाम को आतंक से जुड़ा मानने लगे हैं। इस तस्वीर को बदलना दरअसल मुस्लिम समुदाय, मुस्लिम देशों और मुस्लिम विद्वानों की जिम्मेदारी है। हमारा मजहब शांति का मजहब है, यह कहकर नहीं बल्कि करके दिखाना होगा। आतंकवाद के किसी भी स्वरूप का खंडन करना, उसके विरूद्ध विश्व जनमत को खड़ा करना ही विकल्प है।
    पाकिस्तान का एक देश के नाते अनेक क्षेत्रीय अस्मिताओं और राष्ट्रीयताओं से मुकाबला है। बलूचिस्तान और सिंध उनमें से चर्चित हैं। धर्म भी पाक को जोड़ने वाली शक्ति साबित नहीं हो पा रहा है, क्योंकि क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति को पाकिस्तान ठीक से संबोधित नहीं कर पाया। पाक अधिकृत कश्मीर के हालात और भी खराब हैं। भारत के साथ कश्मीर का जो हिस्सा है, उससे तो पीओके की तुलना ही नहीं का जा सकती। पाकिस्तान से अपना मुल्क नहीं संभल रहा है और वह कश्मीर के सपने देख रहा है। जबकि सच तो यह है कि कश्मीर को पाकिस्तान कभी लड़कर हासिल नहीं कर सकता। इस जंग में पाकिस्तान की हार तय है। वह अपने हाथ जला सकता है। खुद की तबाही के इंतजाम कर सकता है। सिर्फ अपनी आंतरिक राजनीति को संभालने के लिए वह जरूर कश्मीर का इस्तेमाल कर सकता है।

    आज विश्व मानवता के सामने शांति और सुख से रहने के सवाल अहम हैं। देशों की जंग में आम आवाम ही हारता है। इसलिए भारतीय उपमहाद्वीप को युद्ध से रोकना हर जिम्मेदार पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी की जिम्मेदारी है। जंग से तबाही, मौतों और आर्तनाद के सिवा हमें क्या मिलेगा, यह हम भी जानते हैं। पाकिस्तान को एक रहना है, तो उसे अपने भस्मासुरों पर लगाम लगानी ही पड़ेगी अन्यथा अपने आंतरिक और बाह्य संकटों के चलते उसके टुकड़े-टुकड़े होने में अब ज्यादा देर नहीं है।

शनिवार, 24 सितंबर 2016

नेटिजन या सिटिजन क्या बनेंगे आप ?

-संजय द्विवेदी

  उपराष्ट्रपति डा.हामिद अंसारी की नई किताब सिटिजन एंड सोसाइटी के विमोचन के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि प्रौद्योगिकी के कारण लोग नेट पर आश्रित हो गए हैं, और पारंपरिक सीमाएं विलोपित हो रही हैं। बावजूद इसके परिवार देश की सबसे बड़ी ताकत है। निश्चय ही प्रधानमंत्री हमारे समय के एक बड़े सामाजिक प्रश्न पर संवाद कर रहे थे।
    आज यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि हम पहले सिटिजन(नागरिक) हैं या नेटिजन(इंटरनेट पर आश्रित व्यक्ति)। नेटिजन होना जरूरत है, आदत है या स्टेटस सिंबल? ऐसे में क्या नागरिक धर्म, पारिवारिक दायित्वबोध पीछे छूट गए हैं? देशभक्ति ,राजनीति से लेकर समाजसेवा सब नेट पर ही संभव हो गयी है तो लोगों से क्यों प्रत्यक्ष मिलना? क्यों समाज में जाना और संवाद करना? नेटिजन होना दरअसल एकांत में होना भी है। क्योंकि नेट आपको आपके परिवेश से काटता भी और एकांत भी मांगता है। यह संभव नहीं कि आप नेट पर चैट भी करते रहें और सामने बैठे मनुष्य से संवाद भी। यह भी गजब है कि भरे-पूरे परिवार और महफिलों में भी हमारी उंगलियां स्मार्ट फोन पर होती हैं और संवाद वहां निरंतर है, किंतु हमारे अपने उपेक्षित हैं। महफिलों, सभाओं, विधानसभाओं, कक्षाओं, अंतिम संस्कार स्थल से लेकर भोजन की मेजों पर भी मोबाइल में लगे लोग दिख जाएंगे। मनुष्य ने अपना एकांत रच लिया है, और इस एकांत में भी वह अधीर है। पल-पल स्टेटस चेक करता है कि क्या-कहां से आ गया होगा। यह गजब समय है, जहां एकांत भी कोलाहल से भरे हैं। स्क्रीन चमकीली चीजों और रोशनियों से भरा पड़ा है। इसके चलते हमारे आसपास का सौंदर्य और प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता बेईमानी हो चली है। हमारे अपने प्रतीक्षा में हैं कि हम कुछ कहें, बोलें, बतियाएं पर हमें चैटिंग से फुरसत नहीं है। हम आभासी दुनिया के चमकते चेहरों पर निहाल हैं, कोई इस प्रतीक्षा में है, हम उसे भी निहारेगें। यह अजब सी दुनिया है, नेटिजन होने की सनक से भरी दुनिया, जिसने हमारे लिए अंधेरे रचे हैं और परिवेश से हमें काट दिया है। प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना और प्रौद्योगिकी के लिए इस्तेमाल होना दोनों दो चीजें हैं, पर हम इसका अंतर करने में विफल हैं।
 हालात यह हैं कि भरे-पूरे परिवार में संवाद की कहीं जगह बची ही नहीं है। माता-पिता और संतति सब नेटिजन बन चुके हैं। उनमें संवाद बंद है, सब के पास चमकती हुयी स्क्रीन है और उससे उपजी व्यस्तताएं। शिक्षा मंदिरों का हाल और बुरा है। कक्षा में उपस्थित शिक्षक अपने विद्यार्थियों तक नहीं पहुंच पा रहा है, मोबाइल यहां भी बाधा बना है। शिक्षक की भरी-पूरी तैयारी के बाद भी उसके विद्यार्थी ज्ञान गूगल गुरू से ही लेना चाहते हैं। शिक्षक भौंचक है। उसके विद्यार्थियों में एकाग्रता का संकट सामने है। वे कंधे उचकाकर फिर स्क्रीन पर चेक करते हैं, नए नोटिफिकेशन से बाक्स भर गया है। बहुत से चित्र, संवाद और बहुत सी अन्य चीजें उनकी प्रतीक्षा में हैं। एकाग्रता, तन्मयता, दत्तचित्तता जैसे शब्द इस विद्यार्थी के लिए अप्रासंगिक हैं। वह किताबों से भाग रहा है, वे भारी हैं और भटका रही हैं। उसे फोकस्ड और पिन पाइंट ज्ञान चाहिए। गूगल तैयार है। गुरू गूगल ने ज्यादातर अध्यापक को अप्रासंगिक कर दिया है। ज्ञान की तलाश किसे है, पहले हम सूचनाओं से तो पार पा लें। आज डिजीटल इंडिया के शिल्पकार प्रधानमंत्री अगर यह कह रहे हैं कि परिवार हमारी सबसे बड़ी ताकत है, तो हमें रूककर सोचना होगा कि प्रौद्योगिकी की जिंदगी में क्या सीमा होनी चाहिए। क्या प्रौद्योगिकी का हम प्रयोग करेंगे या वह हमारा इस्तेमाल करेगी। नेटिजन और सिटिजन क्या समन्वय बनाकर एक साथ चल सकते हैं, इस पर भी सोचना जरूरी है।

    भारत जैसे विविधता और बहुलता से भरे देश में डिजीटल इंडिया के प्रयोग एक डिजीटल डिवाइड भी पैदा कर रहे हैं। एक बड़ा समाज इन चमकीली सूचनाओं से दूर है और उस तक चीजें पहुंचने में वक्त लगेगा। सूचनाएं और संवाद किसी भी समाज की शक्ति होती हैं। वह उसकी ताकत को बढ़ाती हैं। लेकिन नाहक, प्रायोजित और संपादित सूचनाएं कई तरह के खतरे भी पैदा करती हैं। क्या हमें हमारे देश की वास्तविक सूचनाएं देने के जतन हो रहे हैं? क्या हम इस देश को उस तरह से चीन्हते हैं जैसा यह है? 128 करोड़ आबादी, 122 भाषाएं और 1800 बोलियों वाले 33 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले देश की आकांक्षाएं, उसके सपने, उसके दुख-सुख-आर्तनाद क्या हमें पता हैं? क्या हमें पता है कि एक वनवासी कैसे बस्तर या अबूझमाड़ के जंगलों में हमारे लोकतंत्र की प्रतीक्षा में सात दशक गवां चुका है? गांव, गरीब, किसान की बातें करते-करते थक चुकी हमारी सरकारें और संवेदनहीन प्रशासनिक तंत्र क्या इस चमकीले डिजीटल इंडिया के सहारे भी हाशिए पर पड़े लोगों के लिए कोई स्पेस ढूंढ पाएगा। समर्थों की चाकरी में जुटी सारी नौकरशाही क्या लोकसेवक होने के वास्तविक अहसास से भर पाएगा। कहते हैं लोकतंत्र सौ साल में साकार होता है। सत्तर साल पूरे कर चुके इस देश में 70 प्रतिशत तो लोकतंत्र आ जाना चाहिए था, किंतु देश के बड़े बुद्धिजीवी रामचंद्र गुहा 2016 में भी हमारे लोकतंत्र को 50-50 बता रहे हैं। ऐसे में नागरिक बोध और नागरिक चेतना से लैस मनुष्यों के निर्माण में हमारी चूक साफ नजर आ रही है।  लोकतंत्र कुछ समर्थ लोगों और प्रभु वर्गों की ताबेदारी बनकर सहमा हुआ सा नजर आता है। परिवार हमारी शक्ति है और समाज हमारी सामूहिक शक्ति। व्यवस्था के काले हाथ परिवार और समाज दोनों की सामूहिक शक्ति को नष्ट करने पर आमादा हैं। समाज की शक्ति को तोड़कर, उन्हें गुटों में बांटकर राजनीति अपने लक्ष्य संधान तो कर रही है पर देश हार रहा है। समाज को सामाजिक दंड शक्ति के रूप में करना था किंतु वह राजनीतिक के हाथों तोड़ा जा रहा है, रोज और सुबह-शाम। आज समाज नहीं राजनीति पंच बन बैठी है, वह हमें हमारा होना और जीना सिखा रही है। राजरंग और भोग में डूबा हुआ समाज बनाती व्यवस्था को सवाल रास कहां आते हैं। इसलिए सवाल उठाता सोशल मीडिया भी नागवार गुजरता है। सवाल उठाते नौजवान भी आंख में चुभते हैं। सवाल उठाता मीडिया भी रास नहीं आता। सवाल उठाने वाले बेमौत मारे जाते हैं, ताकि समाज सहम जाए, चुप हो जाए। नेटिजन से पहले सिटिजन और उससे पहले मनुष्य बनना, खुद की और समाज की मुक्ति के लिए संघर्ष किसी भी जीवित इंसान की पहली शर्त है। लोग नेट पर आश्रित भले हो गए हों, किंतु उन्हें लौटना उसी परिवार के पास है जहां संवेदना है, आंसू हैं, भरोसा है, धड़कता दिल है और ढेर सारा प्यार है।