पुलिस का भय तो हो किंतु भरोसा कायम करना जरूरी
-संजय द्विवेदी
पुलिस-पब्लिक की नजदीकियां बढ़ाने के तमाम जतन
आजादी के बाद से ही हो रहे हैं। कई तरह के नवाचार और प्रयोग हो चुके हैं तमाम पर
काम जारी है। सोशल मीडिया के अवतार के बाद पुलिस अब इस नए माध्यम से भी लोगों के
बीच जाना चाहती है। देश के पहले पत्रकारिता विश्वविद्यालय- माखनलाल चतुर्वेदी
राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में पिछले दिनों ‘सोशल मीडिया फार ला एंड आर्डर’ विषय पर दो दिवसीय कार्यशाला (24,25
अक्टूबर,2016) संपन्न हुयी। इस कार्यशाला में मप्र के तमाम बड़े पुलिस अफसर,
मीडिया प्रोफेशनल और मीडिया शिक्षक हिस्सा ले रहे हैं।
जाहिर तौर पर ऐसे विमर्शों
में पुलिस का अपना पक्ष होता है और शेष समाज का दूसरा। ऐसे में यह जरूरी है कि हम
इस बात पर विचार करें कि आखिर क्या कारण है कि पुलिस का चेहरा वैसा नहीं बन पाया
जैसा इसे होना चाहिए। देखा जाए तो पुलिस अपनी पेंट हो चुकी या बनी-बनाई छवि से ही
जूझ रही है। यह जरूरी है कि वह अपनी परंपरागत छवि से मुक्त हो। अपनी शुचिता के
प्रति सावधान हो और समाज में आदर पाने के लिए आवश्यक उपाय करे। यहां यह कहना ठीक
नहीं है कि पुलिस का भय नहीं होना चाहिए। पुलिस का भय तो होना ही चाहिए, पर पुलिस
से किसे डरना चाहिए? अपराधी को या फरियादी को। आरोपियों को या आम
जनता को? निश्चय ही पुलिस का भय तो हो किंतु असम्मान न
हो, अविश्वास न हो। इसके लिए पुलिस महकमे को बहुत काम करने की जरूरत है। समाज इस
नए दौर में एक अच्छी पुलिसिंग के इंतजार में है। आज मप्र जैसे राज्य में 10 हजार
की आबादी पर 14 पुलिस वाले हैं। जाहिर है पुलिसिंग को इस हालात में मजबूत करना
कठिन है।
पुलिस विभाग की ओर से अनेक
योजनाएं चलाई जा रही हैं। मप्र जैसे राज्य में सोशल मीडिया पर पुलिस सक्रिय है।
अधिकारी समस्याएं सुन रहे हैं। नक्सल क्षेत्रों में शिक्षा उदय अभियान जैसे प्रयोग
भी पुलिस ने किए हैं। निजी लोगों की मदद से ट्रैफिक सुधारने के प्रयोग भी पुलिस ने
किए हैं। थाने से लेकर डीपीजी स्तर तक जनसुनवाई के प्रयोग भी अनेक राज्य कर रहे
हैं। यानि कोशिश है कि भरोसा कायम किया जाए। विश्वास बहाली हो और छवि ठीक हो। अनेक
राज्यों ने ग्राम रक्षा समितियों और नगर सुरक्षा समितियों के प्रयोग भी किए हैं
जिनसे लोगों का सीधा जुड़ाव पुलिस से हो और अच्छी पुलिसिंग लोगों को मिले। चौपाल
और जनसुनवाई के प्रयोगों से पुलिस अधिकारी जनता के मनोभावों को सुन और समझ रहे
हैं।
जनता के मन से पुलिस के
प्रति बनी धारणा को बदलने के लिए पुलिस विभाग भी कई स्थानों पर बेहतर प्रयोग करता
नजर आता है। बढ़ती तकनीक ने उन्हें यह सुविधा भी दिलाई है। सीसीटीवी कैमरों और
मोबाइल के चलते अनेक अपराधों के कारणों तक पुलिस शीध्रता से पहुंच रही है। पुलिस
प्रशासन खासकर त्यौहारों के समय समाज के विविध वर्गों से शांति व्यवस्था के नाम पर
संवाद करता है। उससे नगरों की शांति व्यवस्था बनाए रखने में मदद भी मिलती है। यह
संवाद निरंतर हो तो इसके लाभ व्यापक तौर पर उठाए जा सकते हैं। संवाद और निरंतर
संवाद ही इसका समाधान है। सिनेमा के माध्यम से जिस तरह की पुलिसिया छवि प्रक्षेपित
की जा रही है, उसे देखना होगा। अच्छा पुलिसवाला एक अपवाद की तरह सामने आता है।
जबकि बदलती दुनिया और बदलते समाज में पुलिस को एक नए तरीके से सामने आना होगा।
उसकी छवि और कार्यशैली बदलनी होगी। हमारे देश में पुलिस सुधार पर काफी लंबे अरसे
से चर्चा हो रही है लेकिन सरकारें यथास्थितिवादी मानसिकता से धिरी हुयी हैं। वे
नया करने और सोचने की मानसिकता में नहीं हैं। दिल्ली और मुंबई पुलिस ने कुछ बहुत
अच्छे प्रयोग किए हैं। जाहिर तौर पर महानगरों की पुलिस ज्यादा संसाधनों से लैस है
लेकिन राज्यों में वे प्रयोग दुहराए जा सकते हैं। यह बात निश्चित है कि धटनाएं
रोकी नहीं जा सकतीं किंतु एक बेहतर पुलिसिंग समाज में संवाद और भरोसे का निर्माण
करती है। यह भरोसा बचाना और उसे बढ़ाना आज के पुलिस तंत्र की जिम्मेदारी है। यहां
यह भी जोड़ना जरूरी है कि मीडिया
के तमाम अवतारों और प्रयोगों के बाद भी व्यक्तिगत संपर्कों और व्यक्तित्व का महत्व
कम नहीं होगा। जिन समयों में सोशल मीडिया जैसे प्रयोग नहीं थे तब भी पुलिस अधिकारी
बहुत बेहतर तरीके
से कामों को अंजाम देते थे। पंजाब के
आतंकवाद से निपटने में हमारे पुलिस अधिकारियों की भूमिका हमेशा रेखांकित की जाती
है। अच्छी पुलिसिंग समाज का अधिकार है वह उसे मिलनी ही चाहिए। वर्तमान समय में जिस
तरह सुशासन को लक्ष्य कर काम लिए जा रहे हैं और शासन और प्रशासन में नए प्रयोग किए
जा रहे हैं वे प्रयोग पुलिस महकमे में भी दोहराए जाने चाहिए। हमारी पुलिस को बेहतर
ट्रेनिंग और आधुनिक साधनों से लैस करते हुए उन्हें नए समय में संवाद के साधनों से
भी परिचित कराने की जरूरत है। शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में भी इंटरनेट की पहुंच
ने एक नया भारत उदित किया है। प्रधानमंत्री डिजीटल इंडिया बनाने का आग्रह करते
दिखते हैं। इस डिजीटल इंडिया को पुराने हथियारों और संचार साधनों से संबोधित नहीं
किया जा सकता। इसलिए हमारी पुलिस को नए तरीके से नए साधनों के असर और उनके
प्रयोगों से जोड़ने की जरूरत है। अलग-अलग स्थानों पर हो रहे प्रयोगों को नए
स्थानों पर आजमाने जैसे आइडिया शेयरिंग की भी जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता।
मप्र जैसे राज्य में डायल 100 जैसे प्रयोग भी एक मिसाल की तरह है जिसके तहत सभी
थानों में गाड़ियां उपलब्ध करायी गयी हैं और समाज को पुलिस की मदद के लिए ये वाहन
हमेशा चौकस दिखते हैं। आनलाईन एफआईआर जैसे प्रयोग भी मप्र सहित कुछ राज्यों ने
संभव किए हैं। निश्चय ही इन नए प्रयोगों से हमें जल्दी ही एक स्मार्ट पुलिस का
चेहरा देखने को मिलेगा जो भरोसा भी जगाएगा और छवि भी बदलेगा।
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता
एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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