डा. सुशील त्रिवेदीः एक सक्रिय बुद्धिधर्मी
-संजय द्विवेदी
मेरे जीवन में छत्तीसगढ़ की बहुत सारी
स्मृतियां हैं, मैं खुद को उनसे ही बना हुआ महसूस करता हूं। छत्तीसगढ़ की बहुत
सारी मोहक स्मृतियों में एक छवि बनती है डा.सुशील त्रिवेदी की। डा. त्रिवेदी का
मेरे जीवन में होना एक ऐसी छाया की तरह है, जो पिता की तरह संरक्षण देती है और मां
की तरह वात्सल्य और मित्र की तरह उत्साह। वे हर समय साथ होते हैं। जनसंपर्क उनकी
विलक्षणता है तो विद्वता और अध्ययनशीलता उनकी पहचान।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ दोनों राज्यों में एक
आला अफसर, लेखक और राजनीतिक विश्लेषक से अलग भी उनकी अनेक छवियां हैं, जिसमें वे
मीडिया-जनसंपर्क के अध्येता, अनुवादक, संविधान और चुनाव के जानकार, कला समीक्षक,
संस्कृतिकर्मी की सक्रिय भूमिकाओं में दिखते हैं। अपने काम के साथ-साथ इतनी विधाओं
को एक साथ साध लेना, एक हुनर ही कहा जाएगा। कलेक्टर से लेकर छत्तीसगढ़ के राज्य निर्वाचन
आयुक्त जैसे पद उनके जीवन को बड़ा नहीं करते, उन्हें बड़ा करती है उनकी जिजीविषा,
सतत सक्रियता और निरंतर लेखन। अपनी सरकारी नौकरियों की व्यस्तता भरे जीवन के
बावजूद परंपरा से उन्हें लिखने का संस्कार मिला है। उसमें वे कुछ जोड़ते ही हैं।
उनके अवदान को उनकी 24 मौलिक पुस्तकों, 3 संपादित और 7 अनुदित ग्रंथों से समझा जा
सकता है। यह साधारण नहीं है कि अवकाश प्राप्ति के बाद वे छत्तीसगढ़ के सवालों पर
राष्ट्रीय मीडिया की जरूरत हैं। वे समझ का आईना हैं और चुनावी संदर्भों में उनकी
वाणी सत्य पर ही जाकर ठहरती है।
छत्तीसगढ़ के लंबे
पत्रकारीय जीवन में मुझे रायपुर और बिलासपुर जैसे शहरों में रहने और लगभग पूरे
छत्तीसगढ़ में जाने और लोगों से संवाद करने का मौका मिला। किंतु अनुभव की आंखें
अलग होती हैं। हम जो जमीन पर जाकर देखते और महसूस करते, डा. त्रिवेदी रायपुर में
ही महसूस कर रहे होते। नए बने छत्तीसगढ़ के बदलावों और उसकी पहचान से जुड़े
सवालों, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक मुद्दों की उनमें गहरी समझ है। उनके पास बैठकर
आप रिक्त नहीं आ सकते। उनके हर किस्से में एक संदेश है। रायपुर में ‘जी 24 घंटे’
छत्तीसगढ़ नाम से जो पहला सेटलाइट चैनल लांच हुआ, उसी वर्ष विधानसभा और लोकसभा के
चुनाव लगभग आगे-पीछे हुए। रायपुर जैसी जगह पर हमें एक ऐसे चेहरे की जरूरत थी, जो
तटस्थ तरीके से स्थितियों का विश्वेषण कर सके। जाहिर तौर पर डा.सुशील त्रिवेदी
हमारे संकटमोचक साबित हुए। हमारा चैनल उनकी उपस्थिति से न सिर्फ गंभीरता से देखा
गया बल्कि चुनाव परिणाम भी अनुमानों के आसपास रहे। रायपुर से हमने जब ‘मीडिया विमर्श’ नाम की
पत्रिका शुरू की तो हमारे प्रथम सलाहकारों और लेखकों में वे शामिल थे। आज भी ‘मीडिया विमर्श’ के हर
अंक में वे एक अनिवार्य उपस्थिति हैं। मीडिया विमर्श के प्रकाशन को वे बहुत उम्मीद
से देखते हैं। पत्रिका के पांच साल पूरे होने पर हमने रायपुर में एक समारोह का
आयोजन किया, जिसके मुख्यअतिथि श्री प्रकाश जावडेकर थे। इस आयोजन में मीडिया विमर्श
के सबसे सक्रिय लेखक के रूप में डा.सुशील त्रिवेदी का सम्मान श्री जावडेकर ने
किया।
देवेंद्र नगर की सरकारी
अफसरों की कालोनी से लेकर उनकी सेवानिवृत्ति के बाद रामनगर कालोनी के उनके आवास पर
उनसे अनेक मुलाकातें हुयी हैं, दोनों स्थितियों में
मैंने कभी उनके व्यवहार में अंतर नहीं पाया। वे एक ऐसी शख्सियत हैं, जिसे हमेशा
अपनों का साथ सुख देता है। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ ही नहीं देश भर में उनके चाहने
वालों का एक महापरिवार है, जिसके मुखिया वे खुद हैं। परिवार, समाज और देश तीनों के
लिए उनके पास एक दिल है जो समान रूप से तीनों के लिए धड़कता है। वे हर भूमिका में
पूर्ण हैं। उनके साथ होकर ही उनकी ऊंचाई को जाना जा सकता है। एक अधिकारी के रूप
में उनके योगदान को उनके समकक्ष बयान करेगें किंतु एक लेखक, राजनीतिक विश्वेषक और
कलाओं के संरक्षक की जो भूमिका है उसका हम सब मूल्यांकन कर सकते हैं। रायपुर के न
जाने कितने पत्रकार मित्र हैं, जिनको डा. त्रिवेदी ने चुनाव रिर्पोटिंग के मायने
समझाए, मदद की। चुनावों के दौरान चीजों और स्थितियों को समझने के लिए हम जैसे न
जाने कितनों ने उनके जीवन के बहुमूल्य क्षणों का इस्तेमाल किया। उनकी सदाशयता कि
उन्होंने अपना समय हमें देने के लिए कभी भी कृपणता नहीं दिखाई।
आज भौगोलिक दूरियों के बावजूद भी उनकी वही
गर्मजोशी कायम है। फोन पर उनकी आवाज गूंजती हैं, मीलों की दूरियों पलों में मिट
जाती हैं। परिवार का कुशल क्षेम पूछना उनके वात्सल्य भाव का ही परिचायक है। वे दूर
होकर भी अपनी छाया से संरक्षित करते हैं। भोपाल और रायपुर फिर मिल जाते हैं। कभी
भोपाल उनका था, उनकी महक से चहकता। जनसंपर्क विभाग से लेकर राजभवन तक उनकी
स्मृतियां हैं। कलाबोध, संस्कृतिबोध से रसपगा उनका मन भोपाल के बिना कितना रीता
होगा, सोचता हूं। एक संस्कृतिधर्मी नगर भोपाल के निर्माण में, उसकी भावभूमि बनाने
में जिन कुछ अफसरों की भूमिका रही, उसमें वे भी एक थे। अपनी पूरी गरिमा और मर्यादा
के साथ। समय से संवाद करते हुए। कुछ रचते हुए। एक पूरी टीम को अपने आसपास और अपने
जैसा बनाते हुए। इन अर्थों में वे एक विलक्षण संगठनकर्ता भी हैं, जिसके पास
रंगकर्मी, संस्कृतिकर्मी, राजनेता, पत्रकार, अधिकारी, लेखक, पुरातत्वविद्,
अनुवादक, संपादक, आम आदमी सभी बड़ी सहजता से आमदरफ्त कर सकते थे। उनके पास होना
खुद के अधूरेपन को, खालीपन को भरना भी है। उनके पास आज सिर्फ यादें ही नहीं हैं,
कर्म के बेहद सजीले पृष्ठ हैं, जिन्हें उनकी कर्मठता ने जीवंत किया है। एक पूरी
परंपरा है जो उनके भोपाल से जाने के बाद भी उनकी यादों को सहेजकर खुद को शक्ति
देती रहती है। रचनाधर्मियों का, संस्कृतिकर्मियों का भरा-पूरा परिवार जो उन्होंने
बनाया वह आज भी उनसे उसी अंतरंगता से जुड़ा हुआ है।
हालांकि छत्तीसगढ़ निर्माण
के बाद उनकी स्थानीय व्यस्तताएं बहुत हैं। इसलिए भोपाल में उनका सहज-स्वाभाविक
प्रवास कम हुआ है। रायपुर में रहते हुए वे आज भी बेहद सक्रिय हैं। एक सक्रिय
बुद्धिधर्मी (बुद्धिजीवी कहने का जोखिम नहीं लूंगा) के नाते उनकी एक अलग पहचान बनी
है। वे अपनी बात अलग तरीके के अभ्यासी हैं। परिवार की विरासत को उन्होंने ऊंचाई दी
है। एक बड़े ओहदे पर होने के बाद भी जिस तरह उन्होंने रिश्तों, परिवार और मित्रों
को अपने जिंदगी में सबसे आगे रखा,वह चीज सीखने की है। आज जबकि वे अपने यशस्वी जीवन
के 75 वर्ष पूर्ण कर चुके हैं, तब हम जैसे उनके चाहने वालों के लिए वे उतने ही
जरूरी और महत्वपूर्ण हैं, जब उन्होंने हमें हमारी उंगलियां पकड़कर दुनिया के सामने
ला खड़ा किया था। उनकी इस कृतज्ञता को व्यक्त करने के लिए शब्द कम पड़ेंगे। आप
शतायु हों सर। इसी जीवंतता के साथ, कर्मठता के साथ, उजली चादर के साथ।
लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं
संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष तथा मीडिया विमर्श
पत्रिका के कार्यकारी संपादक हैं। डा. त्रिवेदी से संजय द्विवेदी के पारिवारिक एवं
आत्मीय रिश्ते हैं।
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