भोपाल में आयोजित विमर्श से एक नई राह का इंतजार
-संजय द्विवेदी
समाज
जीवन के विविध क्षेत्रों में कार्यरत युवा एक होकर, एक मंच पर आकर अगर
राष्ट्र सर्वोपरि की भावना के साथ देश के संकटों का हल खोजें तो इससे अच्छी क्या
बात हो सकती है। भोपाल में 12 से
14 नवंबर
को तीन दिन के लोकमंथन नामक आयोजन की टैगलाइन ही है-“'राष्ट्र सर्वोपरि' विचारकों एवं कर्मशीलों का राष्ट्रीय विमर्श।” जाहिर तौर पर एक
सरकारी आयोजन की इस प्रकार भी भावना चौंकाती है और इसके छिपे इरादों पर सोचने के
लिए विवश भी करती है। आखिर मध्यप्रदेश की सरकार को ऐसा अचानक क्या हुआ कि उसने
विमर्शों की बाढ़ ला दी है। विश्व हिंदी सम्मेलन की मेजबानी के बाद उज्जैन में
विचार महाकुंभ और अब लोकमंथन। निश्चय ही सत्ता और राजनीति के अपने गणित होते हैं
किंतु सरकारें अगर ‘लोक’ को अपने विचार के
केंद्र में ले रही हैं तो निश्चय ही उसे सराहा जाना चाहिए। लोकमंथन की जो रचना बन
रही है वह आश्वस्ति जगाती है कि इसमें सारा कुछ सरकारी नहीं है। एक समावेशी
संस्कृति के उत्तराधिकारी हम लोग अपने उपेक्षित पड़े लोक और जनमानस की चेतना में
बसे भारत को ही खोजने और जगाने के प्रकल्पों की ओर बढ़ना चाहते हैं। लोकमंथन की
वेबसाइट http://lokmanthan.org/ पर जाकर इसके
उद्देश्यों और संकल्पों की झलक पायी जा सकती है। लोकमंथन सही मायने में अपने
इरादों में कामयाब रहा तो यह जड़ों से विस्मृत हो रही भारतीयता के उत्कर्ष का
प्रकल्प बन सकता है। एक सरकारी आयोजन होने के नाते इसकी सीमाओं का रेखांकन अभी से
लोग कर रहे हैं और करना भी चाहिए। किंतु हमें यह मानना ही होगा कि देश बुद्धिजीवी
और विचारवंत तबके की अपनी सोच है, वह उसे कहीं से भी साहस से व्यक्त करता है। ऐसे
में जिन विद्वानों, कलावंतों और युवाओं के नाम इस आयोजन के आमंत्रितों की सूची में
है देश के लिए एक उम्मीद और उत्साह जगाने वाले ही हैं।
भारत जैसे देश में जहां समावेशी संस्कृति उसकी जड़ों में है, को पूरी
दुनिया उम्मीद से देख रही है। क्योंकि यह अकेला देश है जो अपने रचे सत्य पर मुग्ध
नहीं है। यह जड़वादी और कट्टरता का पोषक नहीं है। इसमें दूसरों अच्छे विचारों को
स्वीकार करने का साहस और सलीका मौजूद है। विचारों की विभिन्नता से घबराता नहीं
बल्कि उसमें से भी मोती चुनने का साहस रखता है। बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर,
शंकराचार्य से लेकर दयानंद तक अपने समय के विद्रोही ही थे। वे अपनी परंपरा में नए
विचारों को जोड़ना चाहते थे। देश ने उन्हें सुना और सराहा जो लेने योग्य था उसे
ग्रहण भी किया। इस्लाम और ईसाइयत के भी गुणों को सहजता से स्वीकारने में भारत ने
गुरेज नहीं किया। आज जबकि भौगोलिक राष्ट्रवाद की सीमाएं स्पष्ट हो चुकी हैं और
सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भी सवालों में है तब हमें अपने उस ‘लोक’ के पास जाकर
संकटों के समाधान तलाशने होगें। जिसे हम कभी हिंदुत्व तो कभी भारतीयता कहकर
संबोधित करते हैं।
लोगों से बनता है राष्ट्रः
उदारता, सौजन्यता,विविधता, बहुलता और
स्वीकार्यता के पांच मंत्रों से ही एक सुंदर दुनिया बनाई जा सकती है। “उदार चरितानाम्
वसुधैव कुटुम्बकम्” कहकर हम इसका
स्वप्न सदियों से देखते रहे हैं। उदारवादी परंपराओं का संयोजन करके दुनिया को एक
बेहतर दुनिया बनाना सदियों से भारत का स्वप्न रहा है। हमारे वेदों ने जहां हमें
सिखाया कि हमारे मन उदार हों। वहीं हमारे उपनिषद् की परंपरा हमें हमारे अंतस् को
खोजने की परंपरा से जोड़ती है। ध्यान परंपरा से जोड़ती है। उदारवाद को जमीन पर
उतारना करूणा, बंधुत्व और सहयोग के बिना असंभव है। भारत की मूल्य चेतना में ये
तीनों तत्व समाहित हैं। हमें अपने राष्ट्र या देश को उसी भावना के साथ फिर तैयार
करना है। जिसमें जमीन नहीं, संसाधन नहीं उसके लोग केंद्र में होगें। क्योंकि कोई
भी राष्ट्र लोगों से बनता है, उनके सपनों से बनता है। लोगों के आचार-व्यवहार पर
उसकी संस्कृति विकसित होती है। इसके साथ ही हमें जीवन को सुखी बनाने के सूत्र भी
अपने लोक से तलाशने होगें। भारतीय ज्ञान परंपरा और उसके स्रोत अभी सूखे नहीं है।
हमें जड़ों से जुड़ने और खुद की पहचान को फिर से स्थापित करने की जरूरत है। भारतीय
मन और लोकजीवन अपनी स्वाभाविकता में ही लोकतांत्रिक है। लोकतंत्र तो सामूहिकता का
ही विचार है। इसमें कट्टरता और जड़ता के लिए जगह कहां है ?
लोकशक्ति को
जगाने की जरूरतः
लोकमंथन के बहाने हमें एक नया समाज दर्शन भी
चाहिए जिसमें राजनीति नहीं लोक केंद्र में हो। समाज का दर्शन और राजनीति का दर्शन
अलग-अलग है। राजनीति का काम विखंडन है जबकि समाज जुड़ना चाहता है। राजनीति समाज को
लडाकर, कड़वाहटें पैदाकर अपने लक्ष्य संधान करती है। ऐसे में राजनीति और समाज में
अंतर करने की जरूरत है। वैचारिक शून्य को भरे बिना, जनता का प्रशिक्षण किए बिना यह
संभव नहीं है। हमें इसके लिए समाज को ही शक्ति केंद्र बनाना होगा। लोगों की
आकांक्षाएं, कामनाएं, आचार और व्यवहार मिलकर ही समाज बनाने हैं। इसलिए एक सामाजिक
संस्कृति पैदा करना आज की बड़ी जरूरत है। जो कमजोर होते, टूटते समाज को शक्ति दे
सके। लोगों को राजनीतिक रूप से साक्षर करना, राजनीति की सीमाएं बताना भी जरूरी है
ताकि लोग राजनीति की विवशताएं भी समझ सकें। इस लोक को जगाकर ही गांधी ने अंग्रेजों
की शैतानी सभ्यता की चूलें हिला दी थीं और भद्र लोक तक सीमित कांग्रेस को एक
जनांदोलन में बदल दिया था। लोकशक्ति का जागरण और उसका संगठन ही लोकमंथन की
सार्थकता होगा। राज्यशक्ति ने जिस तरह निरंतर लोकशक्ति को कमजोर किया है। लोकशक्ति
की सामूहिकता को नष्ट किया है उसे जगाने की जरूरत है। गांधी के बाद आजाद भारत में
विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, नाना जी देशमुख ने भी लोकशक्ति के जागरण के प्रयोग
किए थे। हमें उनकी दिखाई राह और उनके प्रयोगों को दुहराने की जरूरत है। यह
लोकशक्ति ही सत्तातंत्र को निरंकुश होने से रोकने की गारंटी है।
आध्यात्मिक
अनुभवों का साक्षीः
इसमें कोई दो राय नहीं कि
वेदों से लेकर आज के युग तक भारत की प्राणवायु धर्म है। वही हमारी चेतना का मूल
है। यह धर्म ही हमारी सामाजिक संस्कृति का निर्माता है। आध्यात्मिक अनुभवों और
अंतस् की यात्रा के व्यापक अनुभवों वाला ऐसा कोई देश दुनिया में नहीं है। भारत का
यह सत्व या मूल ही उसकी शक्ति है। जिन्हें धर्म का अनुभव नहीं वे विचारधाराएं
इसलिए भारत को संबोधित ही नहीं कर सकतीं। वे भारत के मन और अंतस् को छू भी नहीं
सकतीं। गांधी अगर भारत के मन को छू पाए तो इसी आध्यात्मिक अनुभव के नाते। ऐसे कठिन
समय में जब हमारे महान अनुभवों, महान विचारों पर अवसाद की परतें जमी हैं, धूल की
मोटी परत के बीच से उन्हें झाड़-पोंछकर निकालना और अपने लोक पर भरोसा करते हुए,
उनकी आंखों में झिलमिला रहे भारत के सपनों के साथ तालमेल बिठाना समय की जरूरत है।
लोकमंथन जैसे आयोजन भारत के लोक को उसका खोया हुआ आत्मविश्वास लौटा सकें तो उनकी
सार्थकता सिद्ध होगी।
(लेखक
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में
जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)
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