-संजय द्विवेदी
देश में इस वक्त यह बहस तेज
है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाएं। देखने और सुनने में यह
विचार बहुत सराहनीय है और ऐसा संभव हो पाए तो सोने में सुहागा ही होगा।
भारतीय लोकतंत्र दुनिया का
विशालतम लोकतंत्र है और समय के साथ परिपक्व भी हुआ है। बावजूद इसके चुनाव सुधारों
की तरफ हम बहुत तेजी से नहीं चल पा रहे हैं। चुनाव आयोग जैसी बड़ी और मजबूत संस्था
की उपस्थिति के बाद भी चुनाव में धनबल का प्रभाव कम होने के बजाए बढ़ता ही जा रहा
है। यह धनबल हमारे प्रजातंत्र के सामने सबसे बड़ा संकट है। लोकसभा और विधानसभा
चुनाव साथ हों इसे लेकर जो विमर्श प्रारंभ हुआ है, वह कई मायनों में बहुत महत्व का
है। इसके चलते देश में विकास की गति बढ़ने की संभावनाएं भी जताई जा रही है। चुनाव
आचार संहिता के चलते बाधित विकास के काम, एक बार ही रूकेंगें और देश की गाड़ी तेजी
से चल पड़ेगी। इसके साथ ही वर्ष भर पूरे देश में कहीं न कहीं चुनाव होने के कारण
सरकारों की प्राथमिकताएं बदल जाती हैं। राजनीतिक दल राज्यों के चुनावों के चलते
तमाम फैसलों को टालते हैं या लोक-लुभावन फैसले लेते हैं। इससे सुशासन का स्वप्न
धरा रह जाता है। सरकारें लोकप्रियतावाद में फंसकर रह जाती हैं और राजनेता ‘चुनावी मोड’ से वापस नहीं आ पाते। भारतीय राजनीति के लिए यह
एक गहरा संकट और चुनौती दोनों है।
यह अच्छी बात है कि लोकसभा
और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने के सवाल पर सरकार और चुनाव आयोग तो साथ हैं ही,
देश के अनेक राजनीतिक दल इससे सहमत हैं। एक साथ चुनाव कराने की मूल भावना को दल और
चुनाव आयोग दोनों समझ रहे हैं। लगातार चुनावों के चलते भारत जैसे देश में हमेशा
चुनावी माहौल बना रहता है। हमारे देश में लोकसभा से लेकर पंचायतों तक के चुनाव
होते हैं और सब उत्सव सरीखे ही हैं। इन्हें ही लोकतंत्र का पर्व कहा जाता है।
इसमें हर चुनाव के चलते आचार संहिता लगती है और विकास के काम रूक जाते हैं। इसके
साथ ही सरकार और चुनाव आयोग को चुनाव कराने में भारी धन खर्च करना पड़ता है। इतना
ही नहीं राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों को भी अरबों-रूपये खर्च करने पड़ते हैं।
बार-बार चुनाव समाज जीवन और राजनीतिक जीवन में कड़वाहट और रस्साकसी का वातावरण
बनाए रखता है। वाद-विवाद की स्थितियां बनी रहती हैं। कुल मिलाकर चुनाव के ये दिन
हर तरह की अस्थिरता के दिन होते हैं। आजादी के बाद 1952, 57,62 और 67 तक लोकसभा और
विधानसभा के चुनाव साथ-साथ होते रहे। उसके बाद हालात बदले और अलग-अलग चुनावों का
सिलसिला ऐसा बना कि आज देश में वर्ष भर चुनाव होते रहते हैं।
जहां तक साथ-साथ चुनाव कराने
की बात है तो इस बारे में मंच से चिताएं तो व्यक्त की जा रही हैं किंतु कोई ठोस
काम नहीं हो सका। देश आज विकास की नई चुनौतियों के समक्ष खड़ा है, जब उसे वैश्विक
स्तर पर अपनी उपस्थिति को साबित करना है। ऐसे में बिगड़ी गाड़ी को पुनः ट्रेक पर
लाने की जरूरत है। लंबे समय बाद फिर इस बार बात शुरू हुयी है। यह फैसला निश्चय ही
एक बड़ा निर्णय होगा जो हमारे राजनीतिक-सामाजिक परिवेश को भी प्रभावित करेगा। माना
जा रहा है कि राजनीतिक दल बढ़ते चुनाव खर्च और चुनाव की अन्य समस्याओं से जूझते
रहते हैं, इसलिए उनको भी यह मार्ग उचित दिख रहा है। समय-समय पर चुनाव सुधारों को
लेकर जब भी बातें चलती हैं तो यह मुद्दा केंद्र में आता ही है। देश की राजनीतिक
पार्टियां अगर एकमत होकर इस बात पर सहमत हो जाती हैं तो यह एक बड़ी छलांग होगी। इससे
न सिर्फ हमारे राजनीतिक परिवेश में कुछ मात्रा में शुचिता बढ़ेगी बल्कि लोकतंत्र भी
मजबूत होगा। देश की सामूहिक शक्ति का प्रकटीकरण होगा और राजनीतिक दलों में
राष्ट्रीय सोच का विकास होगा। राज्यों में अलग और केंद्र में अलग व्यवहार करने की
प्रवृत्ति भी कम होगी। देश में यह व्यवस्था कई मायनों में हमारे लोकतंत्र को
ज्यादा व्यवहारिक बनाएगी। आम जनता के राजनीतिक प्रबोधन का संकल्प भी एक स्तर पर जा
पहुंचेगा। ये चुनाव दरअसल एक राष्ट्रीय चुनाव बन जाएंगें, जहां देश अपनी संपूर्णता
और समग्रता में व्यक्त हो रहा होगा।
इस व्यवस्था को लागू होने
से हमारे सामने कुछ यक्ष प्रश्न भी होंगें जिनके उत्तर हमें तलाशने होगें। अनेक
राज्यों में सरकारें अपना कार्यकाल कई कारणों से पूरा नहीं कर पाती, तो वहां के
लिए क्या व्यवस्था होगी। कई बार कुछ राज्यों में मुख्यमंत्री चुनाव की छः माह
पूर्व ही सिफारिश कर देते हैं। केंद्र सरकार भी पहले चुनाव में जाने का मन बना
सकती है। ऐसी संवैधानिक व्यवस्थाओं के हल भी हमें खोजने होगें। एक आदर्श विचार को
जमीन पर उतारने से पहले हमें अपनी व्यवस्था के सामने खड़े ऐसे प्रश्नों पर भी
विचार करना होगा। किसी राज्य में राष्ट्रपति शासन लागू होने या सरकार गिर जाने की
स्थिति में क्या चुनाव पूर्व में होगें या इंतजार करना होगा। हमें यह भी देखना होगा कि राज्यों में एक लोकप्रिय सरकार से
जनता को लंबे समय तक वंचित नहीं रखा जा सकता।
चुनाव सुधारों पर काम करने
वाले विद्वानों को चुनाव सुधार और विधानसभाओं की अवधि से जुड़े ऐसे सभी सवालों पर
काम करने की जरूरत है। लोकसभा चुनावों में अभी तीन साल शेष हैं, यह प्रयोग और इसकी
तैयारी में अभी से जुटा जा सकता है। इस प्रयोग के करने के बाद उठने वाले सवालों के
ठोस और वाजिब हल भी तलाशे जा सकते हैं। राजनीति के मैदान में सक्रिय खिलाड़ियों के
अलावा राजनीति विज्ञान, समाज शास्त्र, चुनाव सुधार, प्रशासन और सुशासन में रूचि
रखने वाले अध्येता इस मामले पर विमर्श प्रारंभ कर सकते हैं। पांच दशक बाद ही सही
इस दिशा में सोच और अध्ययन से हम भारतीय लोकतंत्र को पुनः एक नई ऊर्जा से भर सकते
हैं। सारा देश जब समवेत स्वर और समवेत आकांक्षाओं से अपनी-अपनी राज्य और केंद्र की
सरकारों को चुन रहा होगा तब हम इस अवसर को वास्तव में ‘लोकतंत्र का महापर्व’ कह पाएंगें।