शनिवार, 23 मई 2015

मोदी सरकार से क्या हासिल

टूटे हुए भरोसे को जोड़ने और आम नागरिकों के आत्मविश्वास की सरकार
                          -संजय द्विवेदी

                              

   नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर मीडिया में विमर्श, संवाद और विवाद निरंतर है। एक सरकार जिसने अपने एक साल पूरे किए हैं, वह स्वयं भी इन विमर्शों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है। यानि यह सरकार संवाद करती हुई सरकार है, उत्सवधर्मी सरकार है,लोगों से सरोकार रखने वाली सरकार है। यही तीन बातें मोदी सरकार की सबसे बड़ी विशेषताएं भी हैं।
   पिछले 10 साल तक भारत में राज करने वाली खामोश सरकार के बजाए यह बोलने वाली सरकार है। यह चुप्पा सरकार नहीं है। देश की जनता को यह सक्रियता और संवादप्रियता पसंद आती आ रही है। क्योंकि कोई भी सरकार कुछ भी बोल नहीं सकती, बोलने के बाद करने का दबाव उस पर अपने आप बनता है। मोदी की सरकार के लिए यह एक वर्ष इस मायने में उपलब्धि के हैं कि उन्होंने अवसादग्रस्त और दुखी हिंदुस्तानियों को भरोसा दिया है, आत्मविश्वास दिया है। राजनीति और सरकार की सक्रियता से भी कुछ बदल सकता है, यह भरोसा जगा दिया है। इसी कारण लोगों ने मोदी को बहुमत दिया, आज भी यह भरोसा हिला और दरका नहीं है, मोदी लोगों के चहेते बने हुए हैं। उन्हें चुनकर गलती हो गयी यह अहसास उनके विरोधियों को भले ही खाए जा रहा हो किंतु जनता का भरोसा उन पर कायम है। उनकी लोकप्रियता और जादू में कहीं से कोई दरार अभी नहीं दिख रही है। वे आज भी देश के भरोसेमंद नेता के नाते लोगों के दिलों में कायम हैं। भारत एक विशाल देश है, असीमित आकांक्षाओं और अनगिनत सपनों का देश है। किंतु देशवासियों की साझा आकांक्षाएं यही हैं कि उनका देश भ्रष्ट, दब्बू, पिलपिले और अराजक देश के नाते न पहचाना जाए। उसकी पहचान एक आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था, बेहतर प्रशासन, अच्छी शिक्षा और सुरक्षा, सुप्रबंधन, युवाओं को बेहतर कार्य अवसरों वाले देश के रूप में हो। नरेंद्र मोदी ने यह भरोसा जताया है कि वे यह कर सकते है। आत्मविश्वास से लोगों को भरने का काम अपने चुनावी अभियान से उन्होंने प्रारंभ किया और मई में ऐतिहासिक जीत हासिल कर वे पांच साल के लिए सायलेंट मोड में नहीं बैठ गए,बल्कि इस सकारात्मक संवाद को निरंतर किया। आत्मविश्वास से भरी उनकी देहभाषा, उनके सपने, कुछ करने को आतुर दिखती उनकी भाषण शैली, सब कुछ मिलकर देश में सकारात्मक वातावरण तो बना ही रहे हैं, यह बता भी रहे हैं देश की जनता ने गलती नहीं की है। एक विशाल देश के सपने सामूहिकता को साधकर ही पूरे हो सकते हैं। मोदी ने कमोबेश इसे करने की कोशिश की है।
   जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने से लेकर, लालू यादव-मुलायम सिंह से लेकर दिग्विजय सिंह के शादी समारोहों में शिरकत करने जैसे छोटे प्रसंग बताते हैं कि मोदी में सामान्य शिष्टाचार से आगे बढ़कर देश को साथ लेने की आकांक्षा है। वे देश के नेता सरीखा व्यवहार कर रहे हैं। उन्हें पता है कि राज्यों को अधिकार देकर, मुख्यमंत्रियों को टीम इंडिया का हिस्सा बनाकर ही इस देश के सपने पूरे हो सकते हैं। इसलिए वे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तारीफ कर सकते हैं, तो जयललिता को आरोप मुक्त होने पर बधाई दे सकते हैं। यह बड़ा दिल ही उनकी कार्यशैली से व्यक्त हो रहा है। मोदी को पता है उनकी असली परीक्षा तो चुनाव जीतने के बाद ही प्रारंभ हुयी है। वे दंभ से भरे होते तो एक बिल पास होने पर सोनिया जी को धन्यवाद देने उनकी मेज तक न पहुंचते। यह सामान्य प्रसंग बताते हैं कि उनके पास एक लोकतांत्रिक मन है। कई बार कोई कद्दावर नेता सामने हो तो यह छवि बनती है वह लोगों की सुनता नहीं होगा, डिक्टेटर होगा। आप देखें तो अकेले नरेंद्र मोदी क्यों ममता बनर्जी, जयललिता, अरविंद केजरीवाल जैसों के बारे में भी लगभग यही छवि प्रक्षेपित होती है। किंतु अपने लोगों की स्वीकृति, आम जनता के समर्थन के बिना आप यह कहां कर सकते हैं। इन नेताओं के पास जिस प्रकार का जनसमर्थन है, जितना प्यार है, उसे हासिल करना साधारण कहां है।
   नरेंद्र मोदी की वैश्विक यात्राएं एक उठ खड़े हो रहे भारत की गवाही देती हैं। अपने देश से निराश भारतवंशियों के मन में आस्था जगाती हैं। ये भारतवंशी ही आज दुनिया में भारत के सबसे बड़े ब्रांड अंबेस्डर हैं। सही मायने में मोदी की यह यात्राएं एक अवसर हैं दुनिया में भारतीय होने का गर्व जगाने का। राजनीति भी कुछ बदलती है, मोदी लगातार यह अहसास कराते हैं। खासकर अन्ना आंदोलन के दिनों में जैसा वातावरण आम जनता में बनाया गया कि सारे राजनेता भ्रष्ट हैं और राजनीति से कुछ नहीं बदलेगा। मोदी ने अपने चुनावी अभियानों के दौरान ही इस सारे मिथक को तोड़ा और सत्ता पाकर राजनीति की राष्ट्र सर्वोपरि की धारा को आगे बढ़ाया। देश के टूटे मन को जोड़ने का यह बड़ा प्रयास था। मोदी स्वयं इस विचार को नहीं मानते की सत्ता से सब कुछ हो सकता है। वे एक ऐसी धारा से आते हैं जो समाज की सामूहिक शक्ति और चेतना में विश्वास करती है। समाज की सामूहिक शक्ति को साधना, उसे जागृत करना, उसे दिशा देना और परिणाम हासिल करना। हां, सरकारें और हर समय के नायक इसके लिए अपेक्षित वातावरण जरूर बनाते हैं। भारत की विशालता और उसका आकार व जनसंख्या हर असंभव काम को कर सकती है। बस उचित वातावरण की जरूरत है। नरेंद्र मोदी जानते हैं कि सरकारों की शक्ति की सीमा सीमित है। एक जागृत और चेतनावान समाज ही अपने संकटों से लड़ सकता है। नरेंद्र मोदी के सत्ता में होने के मायने यह भी हैं कि लोग मानते हैं अब भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा, सत्ता अराजक न होगी, वह काम करती दिखेगी, नेतृत्व का शासन-प्रशासन पर प्रभाव होगा और वे सही दिशा में चीजों को ले जाने के यत्न करेगें।
    भारत का समाज पुरूषार्थी समाज है ।वह सत्ता पर निर्भर समाज नहीं है। उसने हर समय में अपने परिश्रम, योग्यता और ज्ञान से देश के हर अभाव की पूर्ति की है। भारतीय समाज की इसी विशेषता ने दुनिया की वैश्विक मंदी के बीच भी हमारी ताकत को संभाले रखा। हम लड़खड़ाए पर गिरे नहीं। यह भारतीयों के श्रम,कौशल और पुरूषार्थ के चलते ही संभव हो पाया था। देश और दुनिया में अपने परिश्रम और ज्ञान से यही युवा अपने देश को कमाकर धन भेजते हैं, इससे देश की अर्थव्यवस्था को शक्ति मिलती है। यही शक्ति हमारी ताकत है। इसी को सूत्र में बांधने और संगठित करने का काम राजनीति करती है। लोगों की बिखरी  हुई ताकत उचित वातावरण पाकर एक होती है और बड़े परिणाम देती है। नरेंद्र मोदी की सरकार आज यह करती हुयी दिख रही है। वे सिर्फ भारतवंशियों को जोड़ नहीं रहे बल्कि उनको भारत समर्थक शक्ति के रूप में विश्व मंच पर एकजुट भी कर रहे हैं। यह भारत की वैश्विक छवि निर्माण का भी समय है। आज भारत अपने हितों को लिए दुनिया भर से समर्थन जुटा पाने में सफल होता दिखता है। इस मोदी समय का मूल्यांकन करने का वक्त दरअसल अभी नहीं आया है। हमारे प्रशासन तंत्र की मंथर गति, कार्य को रोकने और यथास्थिति बनाए रखने की शैली इसका बड़ा कारण है। किंतु दुनिया बदल रही है, जो न बदले वे रूक जाएंगें। मोदी चल चुके हैं, देश साथ चल चुका है। इस मोदी समय की वास्तविक छवियां तीसरे साल आकार लेती दिखेंगी, उसमें देश अपने भविष्य को आकार लेता हुआ देखेगा। एक नया समय भारत की जनशक्ति को एकजुट होकर सपनों में रंग भरने के लिए प्रेरित कर रहा है। मोदी समय ने हम सबको यह अवसर दिया है। इसी भरोसे और आत्मविश्वास से हम वह सब कुछ हासिल कर सकते हैं, जिससे भारत वास्तव में अपनी शक्ति को साकार होता हुआ देखेगा।    

शनिवार, 16 मई 2015

रिटेल एफडीआई पर केंद्र सरकार के यू-टर्न के मायने क्या हैं

                          -संजय द्विवेदी


   भारतीय जनता पार्टी की मोदी सरकार ने खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत एफडीआई के पूर्ववर्ती सरकार के निर्णय को जारी रखने का फैसला किया है। कभी इसी भाजपा ने 8 दिन संसद रोककर, हर राज्य की राजधानी में बड़ा प्रदर्शन आयोजित कर यह कहा था कि वह सत्ता में आई तो तुरंत रिटेल सेक्टर में एफडीआई का फैसला वापस ले लेगी। भाजपा के चुनाव घोषणापत्र और चुनावी जुमलों में यह नारेबाजी जारी रही। 20 सिंतबर,2012 को 48 छोटी-बड़ी पार्टियों के साथ भारत बंद का आयोजन कर भाजपा ने इस नीति का विरोध किया था और एक मंच पर भाजपा-कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट सब साथ आए थे।
   आखिर अपने एक साल पूरे करने जा रही भाजपा सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि उसने रिटेल एफडीआई को जारी रखने का फैसला किया है? यह समझना मुश्किल है कि क्या उस समय अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, आडवानीजी ने जो कुछ कहा था वह सच था या आज जब वे सत्ता में होते हुए इसे आगे बढ़ा रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात के खिलाफ थे। भाजपा पर भरोसा कर उसे वोट देने वाले इन फैसलों से ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं। वैसे भी यह कानून नहीं है, एक नीति है जो एक कैबिनेट के फैसले से रद्द हो सकती है। इसके लिए राज्यसभाई बहुमत की जरूरत नहीं है। सरकार चाहती तो इसे एक पल में रद्द कर सकती थी। रिटेल में एफडीआई का सवाल वैसे भी राज्य की सूची में है। उस समय 11 राज्यों ने इसे स्वीकार किया था और भाजपा शासित राज्यों ने इसे स्वीकारने से मना किया था। भूमि अधिग्रहण कानून को अलोकप्रियता सहकर भी बदलने के लिए आतुर मोदी सरकार आखिर रिटेल एफडीआई के फैसले को रद्द करने से क्यों बच रही है, यह एक बड़ा सवाल है। क्या जब वे 8 दिन लोकसभा रोककर और भारत बंद में शामिल होकर देश का करोडों का आर्थिक नुकसान कर रहे थे, तब उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि वे सत्ता में आएगें? आज जब पालिसी का मूल्यांकन करने का समय था तो उसने मनमोहन सरकार की नीति  को जस का तस स्वीकार किया है। सैद्धांतिक रूप से चीजों का विरोध करना और व्यावहारिक तरीके से उसे स्वीकारना साफ तौर पर दोहरी राजनीति है, जिसे सराहा नहीं जा सकता।  7 मार्च,2013 को रामलीला मैदान की रैली में आज के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यह घोषणा की थी कि वे सत्ता में आते ही इस जनविरोधी नीति को वापस लेंगे। कहा जा रहा है कि सरकार इस नीति को इसलिए वापस नहीं ले सकती कि इससे विदेशों में, निवेशकों में गलत संदेश जाएगा? दूसरी ओर प्रवक्ता यह भी कह रहे ,हैं हमने किसी को साल भर में रिटेल में एफडीआई के लिए अनुमति नहीं दी है। यह कहां का मजाक है ?अगर आप अनुमति नहीं दे रहे हैं, तो इस नीति का लाभ क्या है। सही तो यह है कि सरकार पहले भारत के आम लोगों के बीच अपनी छवि की चिंता करे न कि निवेशकों और वैश्विक छवि की। आम जनता का भरोसा खोकर सरकार दुनिया में अपनी छवि चमका भी ले जाती है तो उसका फायदा क्या है?
    हालात यह हैं तमाम राज्यों में होलसेल का लाइसेंस लेकर विदेश कंपनियां रिटेल सेक्टर में फुटकर कारोबार कर रही हैं और लोगों से झूठ बोला जा रहा है। क्या देश की जनता के प्रश्न और सरकार के हित अलग-अलग हैं? पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने जिस छल के साथ बिना चर्चा किए फिर इस नीति को लागू किया, क्या इस व्यवस्था को जनतंत्र कहना उचित होगा? जनभावनाएं खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के खिलाफ हैं, तमाम राजनीतिक दल इसके विरोध में हैं किंतु सरकार तयशुदा राह पर चल रही है। शायद इसीलिए राजनीतिक दलों की नैतिकता और ईमानदारी पर सवाल उठते हैं। क्योंकि आज के राजनीतिक दल अपने मुद्दों के प्रति भी ईमानदार नहीं रहे। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई का सवाल जिससे 5 करोड़ लोगों की रोजी-रोटी जाने का संकट है, हमारी राजनीति में एक सामान्य सा सवाल है। भाजपा ने कांग्रेस के इस कदम का विरोध करते हुए राजनीतिक लाभ तो ले लिया और आज वह खुद उसी रास्ते पर बढ़ रही है।
    याद कीजिए कि आज के राष्ट्रपति और पूर्ववर्ती सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी दिनांक सात दिसंबर, 2011 को संसद में यह आश्वासन देते हैं कि आम सहमति और संवाद के बिना खुदरा क्षेत्र में एफडीआई नहीं लाएंगें। किंतु मनमोहन सरकार अपना वचन भूल गई और चोर दरवाजे से जब संसद भी नहीं चल रही है, खुदरा एफडीआई को देश पर थोप दिया गया। आखिर क्या हमारा लोकतंत्र बेमानी हो गया है? जहां राजनीतिक दलों की सहमति, जनमत का कोई मायने नहीं है। क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि राजनीतिक दलों का विरोध सिर्फ दिखावा है ?
    आप देखें तो राजनीति और अर्थनीति अरसे से अलग-अलग चल रहे हैं। यानि हमारी राजनीति तो देश के भीतर चल रही है किंतु अर्थनीति को चलाने वाले लोग कहीं और बैठकर हमें नियंत्रित कर रहे हैं। यही कारण है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में अर्थनीति पर दिखावटी मतभेदों को छोड़ दें तो आम सहमति बन चुकी है। रास्ता वही अपनाया जा रहा है जो नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने दिखाया था। उसके बाद आयी तीसरा मोर्चा की सरकारें हो या स्वदेशी की पैरोकार भाजपा की सरकार सबने वही किया जो मनमोहन टीम चाहती है। ऐसे में यह कहना कठिन है कि हम विदेशी राष्ट्रों के दबावों, खासकर अमरीका और कारपोरेट घरानों के प्रभाव से मुक्त होकर अपने फैसले ले पा रहे हैं। अपनी कमजोर सरकारों को गंवानें की हद तक जाकर भी हमारी राजनीति अमरीका और कारपोरेट्स की मिजाजपुर्सी में लगी रही। यह सारा कुछ हम देख चुके हैं। पश्चिमी और अमरीकी मीडिया जिस तरह अपने हितों के लिए सर्तक और एकजुट है, क्या हमारा मीडिया भी उतना ही राष्ट्रीय हितों के लिए सक्रिय और ईमानदार है?
    हम देखें तो 1991 की नरसिंह राव की सरकार जिसके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे ने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की शुरूआत की। तब राज्यों ने भी इन सुधारों को उत्साहपूर्वक अपनाया। लेकिन जनता के गले ये बातें नहीं उतरीं यानि जन राजनीति का इन कदमों को समर्थन नहीं मिला, सुधारों के चैंपियन आगामी चुनावों में खेत रहे और संयुक्त मोर्चा की सरकार सत्ता में आती है। गजब यह है कि संयुक्त मोर्चा सरकार और उसके वित्तमंत्री पी. चिदंबरम् भी वही करते हैं जो पिछली सरकार कर रही थी। वे भी सत्ता से बाहर हो जाते हैं। फिर अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में आती है। उसने तो गजब ढाया। प्रिंट मीडिया में निवेश की अनुमति, केंद्र में पहली बार विनिवेश मंत्रालय की स्थापना की और जोर-शोर से यह उदारीकरण का रथ बढ़ता चला गया। यही कारण था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक स्व.दत्तोपंत ढेंगड़ी ने तत्कालीन भाजपाई वित्तमंत्री को अनर्थमंत्री तक कह दिया। संघ और भाजपा के द्वंद इस दौर में साफ नजर आए। सरकारी कंपनियां धड़ल्ले से बेची गयीं और मनमोहनी एजेंडा इस सरकार का भी मूलमंत्र रहा। अंततः इंडिया शायनिंग की हवा-हवाई नारेबाजियों के बीच भाजपा की सरकार भी विदा हो गयी। सरकारें बदलती गयीं किंतु हमारी अर्थनीति पर अमरीकी और कारपोरेट प्रभाव कायम रहे। सरकारें बदलने का नीतियों पर असर नहीं दिखा। फिर कांग्रेस लौटती है और देश के दुर्भाग्य से उन्हीं डा. मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह, चिदम्बरम् जैसों के हाथ देश की कमान आ जाती है जो देश की अर्थनीति को किन्हीं और के इशारों पर बनाते और चलाते थे। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि जनता ने प्रतिरोध नहीं किया। जनता ने हर सरकार को उलट कर एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की, किंतु हमारी राजनीति पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
    एक बार फिर लोगों ने नरेंद्र मोदी की सरकार को चुनकर उन्हें भारत के स्वाभिमान को विश्वमंच पर स्थापित करने की कमान दी है। नरेंद्र मोदी जैसा कद्दावर और मजबूत नेता अगर घुटने टेकता दिखेगा तो देश किस पर भरोसा करे?रिटेल एफडीआई का सवाल बहुत छोटा सवाल हो सकता है किंतु वह इतना बताने के लिए पर्याप्त है कि हमारे राजनीतिक दल गहरे द्वंद और मुद्दों पर दिशाहीनता के शिकार हैं। बाजार की आंधी में उनके पैर उखड़ रहे हैं। वे विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों पर खासे भ्रमित हैं। यहां तक कि सरकारों को अपनी छवि की भी परवाह नहीं है। प्रधानमंत्री अगर सत्ता संभालते हुए अपनी सरकार गरीबों को समर्पित करते हैं और साल भर में सरकार की छवि कारपोरेट समर्थक, गरीब और मध्यम वर्ग विरोधी के रूप में स्थापित हो जाए, तो उन्हें सोचना जरूर चाहिए। एफडीआई रिटेल पर भाजपा सरकार के नए रवैये पर स्वदेशी जागरण मंच, मजदूर संघ, अखिलभारतीय ग्राहक पंचायत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की धारा के मित्र क्या सोच रहे हैं, इसे जानने में लोगों की रूचि जरूर है। उम्मीद है कि वे भी सरकार के इस फैसले के साथ तो नहीं ही होगें।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)


   

सोमवार, 11 मई 2015

नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल पर समाचार पत्रों में छपी टिप्पणी


डेली न्यूज एक्टीविस्ट, लखनऊ 
                                                                   
स्टार समाचार, सतना

इंदौर में विश्व संवाद केंद्र द्वारा आयोजित नारद जयंती कार्यक्रम










स्नेह की डोरः सच कहूं तो छत्तीसगढ़ की जमीं से आत्मीयता और स्नेह की खुशबू लिए मेरे मित्र,छत्तीसगढ़ के स्कूल शिक्षा एवं आदिवासी कल्याण मंत्री श्री केदार कश्यप आज मेरे कर्मस्थल माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में पधारे। उनके साथ भोपाल नगर निगम के अध्यक्ष भाई सुरजीत सिंह चौहान भी थे।




नारद जयंती प्रसंग पर विश्व संवाद केंद्र द्वारा इंदौर में आयोजित कार्यक्रमः समाचार पत्रों की नजर में

नई दुुनिया
दबंग दुनिया

पत्रिका 

स्वदेश 



शनिवार, 9 मई 2015

समाचार पत्रों में छपे लेखों की क्लीपिंग्स

हिंद समाचार-1 मई,2015

                                                            पंजाब केसरी-1 मई,2015
जग बानी 1 मई,2015

 

शुक्रवार, 8 मई 2015

मोदी सरकारः साल भर चले अढ़ाई कोस

देश के प्रधानमंत्री के सामने सत्ता को मानवीय और जनधर्मी बनाने की चुनौती

                           -संजय द्विवेदी    

  
    भारतीय जनता पार्टी को पहली बार केंद्र में बहुमत दिलाकर सत्ता में आई नरेंद्र मोदी की सरकार के एक साल पूर्ण होने पर जो स्वाभाविक उत्साह और जोशीला वातावरण दिखना चाहिए वह सिरे से गायब है। क्या नरेंद्र मोदी की सरकार से उम्मीदें ज्यादा थीं और बहुत कुछ होता हुआ न देखकर यह निराशा सिरे चढ़ी है या लोगों का लगता है मोदी की सरकार अपने सपनों तक नहीं पहुंच पाएगी। सक्रियता, संवाद और सरकार की चपलता को देखें तो वह नंबर वन है। मोदी आज भी देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। उनके कद का कोई नेता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता। वैश्विक राजनेता बनने की ओर अग्रसर मोदी आज दुनिया में सुने और सराहे जा रहे हैं। किंतु भारत के भीतर वह लहर थमती हुयी दिखती है।
   दिल्ली चुनाव के परिणाम वह क्षण थे जिसने मोदी की हवा का गुब्बारा निकाल दिया तो कुशल प्रबंधक माने जा रहे भाजपा अध्यक्ष का चुनाव प्रबंधन औंधे मुंह पड़ा था। सिर्फ तीन सीटें जीतकर भाजपा दिल्ली प्रदेश में अपने सबसे बुरे समय में पहुंच गयी तो बिहार में उसके विरोधी एकजुट हो गए। यह वही समय था, जिसने मोदी की सर्वोच्चता को चुनौती दी। इधर अचानक लौटे राहुल गांधी के गर्जन-तर्जन और सोनिया गांधी के मार्च ने विपक्षी एकजुटता को भी मुखर किया। संसद में राज्यसभाई लाचारी पूरी सरकार पर भारी पड़ रही है और सरकार लोकसभा में बहुमत के बावजूद संसद के भीतर घबराई सी नजर आती है। वह तो भला हो अरविंद केजरीवाल और उनके नादान दोस्तों का कि वे ऐसी सरकार चला रहे हैं, जहां रोजाना एक खबर है और उनसे लोगों की उम्मीदें धराशाही हो गयी हैं। यह अकेली बात मोदी को राहत देने वाली साबित हुयी है। केंद्र की सरकार को एक साल पूरा करते हुए अपयश बहुत मिले हैं। बिना कुछ गलत किए यह सरकार कारपोरेट की सरकार, किसान विरोधी सरकार, सूटबूट की सरकार, धन्नासेठों की सरकार जैसे तमगे पा चुकी है। आश्चर्य यह है कि भाजपा के कार्यकर्ता और उसका संगठन इन गलत आरोपों को खारिज करने के आत्मविश्वास से भी खाली है। आखिर इस सरकार ने ऐसा क्या जनविरोधी काम किया है कि उसे खुद पर भरोसा खो देना चाहिए? नरेंद्र मोदी की ईमानदारी, उनकी प्रामणिकता और जनता से संवाद के उनके निरंतर प्रयत्नों को क्यों नहीं सराहा जाना चाहिए? एक कठिन परिस्थितियों से वे देश को प्रगति और विकास की राजनीति से जोड़ना चाहते हैं। वह संकल्प उनकी देहभाषा और वाणी दोनों से दिखता है। किंतु क्या नरेंद्र मोदी यही अपेक्षा अपनी टीम से कर सकते हैं? अगर अरविंद केजरीवाल के नादान दोस्तों ने उनकी छवि जमीन पर ला दी है तो मोदी भी समान परिघटना के शिकार हैं। उनके दरबार में भी गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति, आदित्यनाथ, साक्षी महराज जैसे नगीने हैं, जो उन्हें चैन नहीं लेने देते तो विरोधियों के हाथ में कुछ कहने के लिए मुद्दे पकड़ा देते हैं।
   आप देखें तो अटल जी के नेतृत्व वाली राजग सरकार का जादू इतनी जल्दी नहीं टूटा था बल्कि साल पूरा करने पर अटल जी एक हीरो की तरह उभरे थे। यह भरोसा देश में पैदा हुआ थी कि गठबंधन की सरकारें भी सफलतापूर्वक चलाई जा सकती हैं। अटल जी के नेतृत्व के सामने भी संकट कम नहीं थे, किंतु उन्होंने उस समय जो करिश्मा कर दिखाया, वह बहुत महत्व का था। उनकी सरकार ने जब एक साल पूरा किया तो उत्साह चरम पर था हालांकि यह उत्साह आखिरी सालों में कायम नहीं रह सका। किंतु आज यह विचारणीय है कि वही उत्साह मोदी सरकार के एक साल पूरे करने पर क्यों नहीं दिखता।
   क्या संगठन और सरकार में समन्वय का अभाव है? हालांकि यह शिकायत करने का अधिकार नरेंद्र मोदी को नहीं है क्योंकि यह माना जाता है कि अमित शाह उनका ही चयन हैं और वे मोदी को अच्छी तरह समझते हैं। फिर आखिर संकट कहां है? मोदी का मंत्रिमंडल क्या बेहद औसत काम करने वाली टीम बनकर नहीं रह गया है? उम्मीदों की तरफ भी छलांग लगाती हुयी यह सरकार नहीं दिखती। संसद में सरकार का फ्लोर मैनेजमेंट भी कई बार निष्प्रभावी दिखता है। मंत्री आत्मविश्वास से खाली दिखते हैं, किंतु उनका दंभ चरम पर है। कार्यकर्ताओं और सांसदों की न सुनने जैसी शिकायतें एक साल में ही मुखर हो रही हैं। जाहिर तौर पर दल के भीतर और बाहर बैचेनियां बहुत हैं। संजय जोशी प्रकरण को जिस तरह से मीडिया में जगह मिली और संगठन से जिस तरह के बर्ताव की खबरें आयीं, वह चौंकाने वाली हैं। क्या सामान्य शिष्टाचार भी अब अनुशासनहीनता की श्रेणी में आएंगे, यह बात लोग पूछने लगे हैं। नरेंद्र मोदी के अच्छे इरादों, संकल्पों के बावजूद समूची सरकार की जो छवि प्रक्षेपित हो रही है, वह बहुत उत्साह जगाने वाली नहीं है। समन्वय और संवाद का अभाव सर्वत्र और हर स्तर पर दिखता है। विकास और सुशासन के सवालों के साथ भाजपा के अपने भी कुछ संकल्प हैं। उसके साथ राजनीतिक संस्कृति में बदलाव की उम्मीदें भी जुड़ी हुई हैं, पर क्या बदल रहा है,यह कह पाना कठिन है। इसमें कोई दो राय नहीं कि बहुत जल्दी मोदी से ज्यादा उम्मीदें पाली जा रही हैं। पर यह उम्मीदें तो मोदी ने ही जगाई थीं। वे पांच साल मांग रहे थे, जनता ने उन्हें पांच साल दिए हैं। अब वक्त डिलेवरी का है। जनता को राहत तो मिलनी चाहिए। किंतु मोदी सरकार के खिलाफ जिस तरह का संगठित दुष्प्रचार हो रहा है, वह इस सरकार की छवि पर ग्रहण लगाने के लिए पर्याप्त है।
   दिल्ली में आकर मोदी दिल्ली को समझते, उसके पहले उनके विरोधी एकजुट हो चुके हैं। राजनेताओं में ही नहीं दिल्ली में बहुत बड़ी संख्या में बसने वाले नौकरशाहों, बुद्धिजीवियों की एक ऐसी आबादी है, जो मोदी को सफल होते देखना नहीं चाहती। इसलिए मोदी के हर कदम की आलोचना होगी। उन्हें देश की जनता ने स्वीकारा है, किंतु लुटियंस की दिल्ली ने नहीं। स्वाभाविक शासकों के लिए मोदी का राजधानी प्रवेश एक अस्वाभाविक घटना है। वे इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि एक राष्ट्रवादी विचारों की सरकार पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में विराजी हुयी है। नरेंद्र मोदी की विफलता में ही इन भारतविरोधी बुद्धिजीवियों और अंतर्राष्ट्रीय ताकतों की शक्ति लगी हुयी है। देश के भीतर हो रही साधारण घटनाओं पर अमरीका की बौखलाहट देखिए। अश्वेतों पर आपराधिक अन्याय-अत्याचार करने वाले हमें धार्मिक सहिष्णुता की सलाहें दे रहे हैं क्योंकि हम धर्मान्तरण की प्रलोभनकारी घटनाओं के विरोध में हैं। वे ग्रीनपीस के साथ खड़े हैं क्योंकि सरकार भारतविरोधी तत्वों पर नकेल कसती हुयी दिखती है। ऐसे कठिन समय में नरेंद्र मोदी की सरकार को यह छूट नहीं दी जा सकती कि वह आराम से काम करे। उसके सामने यह चुनौती है कि वह समय में देश के सामने खड़े जटिल प्रश्नों का हल निकाले। मोदी अपने समय के नायक हैं और उन्हें यह चुनौतियां स्वीकारनी ही होगीं। साल का जश्न मने न मने, नरेंद्र मोदी और उनकी टीम को इतिहास ने यह अवसर दिया है कि वे देश का भाग्य बदल सकते हैं। इस दायित्वबोध को समझकर वे अपनी सत्ता और संगठन के संयोग से एक ऐसा वातावरण बनाएं जिसमें देश के आम आदमी का आत्मविश्वास बढ़े, लोकतंत्र सार्थक हो और संवाद निरंतर हो। उम्मीद की जानी कि अपनी सामान्य पृष्ठभूमि की विरासत का मान रखते हुए नरेंद्र मोदी इस सत्ता तंत्र को आम लोगों के लिए ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा मानवीय बनाने के अपने प्रयत्नों को और तेज करेंगें। तब शायद उनके खिलाफ आलोचनाओं का संसार सीमित हो सके। अभी तो उन्हें लंबी यात्रा तय करनी है।  

गुरुवार, 7 मई 2015

कौन हैं जो मोदी को विफल करना चाहते हैं?

-संजय द्विवेदी
   क्या सच में नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का जादू टूट रहा है? अगर टूट रहा है तो वो कौन है जिसका जादू सिर चढ़कर बोल रहा है? वे कौन लोग हैं जो पूर्ण बहुमत से सत्ता में आई देश की पहली राष्ट्रवादी सरकार को मार्ग से भटकाना चाहते हैं? जाहिर तौर पर सवाल कई हैं पर उनके उत्तर नदारद हैं। क्या यथास्थितिवादी ताकतें इतनी प्रबल हैं कि वे जनमत का भी आदर नहीं करेंगी और केंद्र की सरकार को उन्हीं कठघरों में कैद करने में सफल हो जाएंगी, जैसी वो पिछले तमाम दशकों से कैद है? क्या भारतीय जनता के प्रबल आत्मविश्वास और भरोसे से उपजा नरेंद्र मोदी और भाजपा का प्रयोग भी एक सत्ता परिर्वतन की घटना भर बनकर रह जाएगा? भाजपा को प्यार करने वाले और नरेंद्र मोदी को एक परिवर्तनकामी नेता मानकर उन पर भरोसा जताने वाले लोग यही सोच रहे हैं। यहां सवाल यह भी उठता है कि अगर नरेंद्र मोदी विफल हो जाते हैं तो उससे किसका भला होगा?
   एक राष्ट्रवादी दल और भारतीय जमीन से उपजे विचारों से शक्ति लेने के कारण भाजपा ने आम भारतीय जनमानस की उम्मीदों को बहुत बढ़ा दिया है। निश्चय ही जब एक राष्ट्रवादी दल सत्ता में आता है तो समाज को परिवर्तित करने की दिशा में उसके द्वारा प्रभावी कदमों की उम्मीद की ही जाती है। ऐसे समय में जब बहुत सावधानी से दोस्त और दुश्मन चुनने का समय होता है, सत्ता-संगठन के गलियारों में निरंतर उपस्थित रहने वाली और उनका उपभोग करने वाली यथास्थितिवादी ताकतें या दलाल चोला बदलकर तंत्र में पुनः शामिल होने का जतन करते हैं। भारतीय राजनीति और चुनावी तंत्र ऐसा बन गया है कि इन ताकतों को चुनाव पूर्व ही सत्ता संघर्ष में शामिल ताकतों के साथ रिश्ता बनाते देखा जा सकता है। ये सही मायने में पूरे तंत्र को बिगाड़ने, भ्रष्ट बनाने और कई बार भ्रम पैदा करने की कोशिशें करते हैं। उन्हें उनके संकल्प और पथ से विचलित करना चाहते हैं। क्या दिल्ली में ऐसी संगठित कोशिशें प्रारंभ नहीं हो गयी हैं? ऐसे कठिन समय में सत्ता में विराजी परिवर्तनकामी ताकतों को सर्तकता से इन सत्ता के दलालों को हाशिए लगाना होगा। इनकी शक्ति और इनकी प्रभावी उपस्थिति के बावजूद यह काम करना होगा, वरना इस सरकार की विफलता की पटकथा ये सब मिलकर लिख देगें।
  सत्ता में आते ही सत्य दूर रह जाता है। नई चमकीली चीजें आकर्षण का केंद्र बन जाती हैं। अपने कार्य के स्वरूप, अपने कामों की मीमांशा तब संभव नहीं रह जाती। साथ ही तब जब आप लोगों की सुनने को तैयार न हों और असहमति के लिए जगह भी सिकुडती जा रही हो, तो यह खतरा और बड़ा हो जाता है। ऐसे में सत्ता के दलालों की विरूदावली और भाटों का गायन हर शासक को प्रिय लगने लगता है। मोदी सरकार इन संकटों से दो-चार हो रही है।
   किसी भी तरह के परिर्वतन के लिए निष्ठा और ईमानदारी ही पूंजी होती है। सौभाग्य से देश के प्रधानमंत्री के पास ये दोनों गुण मौजूद हैं। इसलिए उन्हें संकल्प लेकर ऐसे बदलाव तेजी से करने चाहिए, जिनमें बदलाव जरूरी हैं। जो परिर्वतन अपरिहार्य हैं वो होने ही चाहिए क्योंकि इतिहास बार-बार मौके नहीं देता। जो स्थापित वर्ग हैं और जिनके हाथ में पहले से ही साधन और शक्ति है- सुविधाएं हैं, उनके बजाए सरकार की नजर उन लोगों की ओर जानी चाहिए जो सालों-साल से छले जा रहे हैं। जिनकी देश की इस चमकीली और बाजारू प्रगति में कोई हिस्सेदारी नहीं हैं। उन अनाम लोगों की आस्थाएं लोकतंत्र में बनी और बची रहें, इसके लिए सरकार को यत्न तेज करने होंगें।
  अपने वादों के प्रति ईमानदारी सिर्फ वाणी में ही नहीं, कर्म में भी दिखनी चाहिए। चतुराई के आधार पर मंचों या संसद में की जा रही व्याख्याओं और उनके पीछे छिपे मंतव्यों को लोग समझते हैं। इसलिए देहभाषा में सादगी और ईमानदारी दिखनी चाहिए न कि सिर्फ चपलता और चतुराई। चतुराई के आधार पर की जा रही व्याख्याओं का समय अब जा चुका है। यह बहुत अच्छी बात है कि हमारे प्रधानमंत्री राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और सरदार पटेल को अपना आदर्श मानते हैं। उन्हें आदर्श मानते ही मोदी जी के सामने एक ही विकल्प है कि वे गांधी की ईमानदारी और पटेल की दृढ़ता को अपने राजकाज के संचालन में प्रकट करने का कोई अवसर न गवाएं।
  यह मान लेने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि जो लोग प्रभुता संपन्न हैं सिर्फ उन्हें बढ़ाकर किसी देश की प्रगति संभव नहीं हैं। वह प्रगति आपकी जीडीपी तो बढ़ा सकती है पर देश में छिपे अंधेरे कायम रहेंगें। यह भी कटु सत्य है कि कोई भी व्यवसायी, व्यवसाय से समझौता नहीं कर सकता, उसके लिए उसके आर्थिक हित ही प्रधान हैं। भारत भूमि पर व्यापार की सहूलियतें न मिलीं तो वे विदेश चले जाएंगें, सब कुछ नष्ट हो गया तो मंगल पर बस्तियां बसा लेगें, किंतु भूमि पुत्रों को तो यहीं रहना है। नरेंद्र मोदी की सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस दोनों वर्गों के हितों का टकराव रोकने और सबसे जरूरतमंद पर सबसे ज्यादा ध्यान देने की है। भाजपा और उसके विचार परिवार के लिए सोचने और अपने गिरेबान में झांकने का समय है। गांधी अंतकरणः के आधार पर बोलते थे, इसलिए उन पर भरोसा करने का मन होता था। आज चतुराई, भाषण कौशल से जंग जीतने की कोशिशें हो रही हैं, जबकि दिल्ली चुनाव में यह सारे चुनावी हथियार धरे रह गए। ये इस बात की गवाही है कि अंततः आपको लोगों के दिलों में उतरना होता है और उनमें अपनी कही जा रही बातों के प्रति भरोसा जगाना होता है। भरोसा न टूटे इसके लिए निरंतर यत्न करना होता है। जब 6 माह में ही दिल्ली प्रदेश का चुनाव भाजपा हार गयी, सवाल तभी से उठने शुरू हुए हैं। विरोधी एकजुट हो रहे हैं। ऐसे समय में भाजपा को यह बताना होगा कि आखिर अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में जो करिश्मा किया उससे उसने आखिर क्या सीखा है? भाजपा और उसके नेतृत्व को यह समझना होगा कि चाटुकारिता से कोई नेतृत्व स्वीकार्य नहीं बनता। संजय जोशी को बधाई देने वालों को लेकर जैसी खबरें मीडिया में आईं आखिर वह क्या साबित करती हैं? पार्टी के दिग्गज नेताओं की उपेक्षा से लेकर तमाम ऐसे सवाल हैं जो सामने खड़े हैं। क्या दल अब सामाजिक संबंधों और मानवीय व्यवहारों को भी नियंत्रित करेगा, यह एक बड़ा सवाल है। एक जमाने में इंदिरा गांधी जी और उनकी कांग्रेस के बारे में मजाक चलता था कि इंदिरा जी अगर किसी खंभे को खड़ा करें तो उसे भी वोट मिल जाएंगें। किंतु इंदिरा जी अपने समस्त खंभों के साथ चुनाव हार गयीं। आज राजनीति और देश दोनों बहुत आगे बढ़ चुके हैं। 1977 में सत्ता में आई जनता पार्टी की सरकार के बारे में लोगों की राय बुरी नहीं थी और बताने वाले बताते हैं कि यूं लगा कि जैसे कांग्रेस कभी वापस नहीं आएगी। किंतु अनुशासनहीनता तथा नेताओं के आचरण के चलते जनता पार्टी इतिहास बन गयी और लोग उन्हीं इंदिरा जी को ले आए जिन्हें उन्होंने हटाया था।

  यह स्वीकारने में हिचक नहीं होनी चाहिए कि भारत अमरीका नहीं है। इसलिए किसी भी सरकार को हमेशा गरीबों और मध्यवर्ग के साथ ही दिखना होगा। अमीरों के प्रति हमारी सदाशयता हो सकती है किंतु कोशिश यही होनी चाहिए हम उनके समर्थक के रूप में चिन्हित न हों। यह हमारी राजनीति की विवशता और दिशाहीनता ही कही जाएगी कि हम गांव तो पहुंचे पर गांव के हो न सके। शायद इसीलिए भरोसे से खाली किसान अपनी जान देकर भी हमसे कुछ कहना चाहता है। हमारी राजनीति किसानों के प्रति वाचिक संवेदना से तो भरी है पर समाधानों से खाली है। ऐसे खालीपन को भरने और भारत से भारत का परिचय कराने के लिए यह सरकार लोगों ने बहुत भरोसे से लाई है। इस सरकार की विफलता किन्हें खुश करेगी कहने की जरूरत नहीं है, पर लोग एक बार फिर छले जाएंगें, इसमें संदेह नहीं। यह भरोसा बचा और बना रहे, मोदी की सरकार अपने सपने सच कर पाए, यही दरअसल भारत चाहता है। यह संभव हो इसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदारी नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगियों की है। उम्मीद है कि वे भारत की जनता और उसके भरोसे को नहीं यूं ही दरकने देंगें।

सोमवार, 27 अप्रैल 2015

बौद्धिक विमर्शों से नाता तोड़ चुके हैं हिंदी के अखबार

-संजय द्विवेदी
   हिंदी पत्रकारिता को यह गौरव प्राप्त है कि वह न सिर्फ इस देश की आजादी की लड़ाई का मूल स्वर रही, बल्कि हिंदी को एक भाषा के रूप में रचने, बनाने और अनुशासनों में बांधने का काम भी उसने किया है। हिंदी भारतीय उपमहाद्वीप की एक ऐसी भाषा बनी, जिसकी पत्रकारिता और साहित्य के बीच अंतसंर्वाद बहुत गहरा था। लेखक-संपादकों की एक बड़ी परंपरा इसीलिए हमारे लिए गौरव का विषय रही है। हिंदी आज सूचना के साथ ज्ञान-विज्ञान के हर अनुशासन को व्यक्त करने वाली भाषा बनी है तो इसमें उसकी पत्रकारिता के योगदान को नकारा नहीं जा सकता है। हिंदी पत्रकारिता ने इस देश की धड़कनों को व्यक्त किया है, आंदोलनों की वाणी बनी है और लोकमत निर्माण से लेकर लोकजागरण का काम भी बखूबी किया है।
   आज की हिंदी पत्रकारिता पर आरोप लग रहे हैं कि वह अपने समय के सवालों से कट रही है। उन पर बौद्धिक विमर्श छेड़ना तो दूर वह उन मुद्दों की वास्तविक तस्वीर सूचनात्मक ढंग से भी रखने में विफल पा रही है तो यह सवाल भी उठने लगा है कि आखिर ऐसा क्यों है। 1990 के बाद के उदारीकरण के सालों में अखबारों का सुदर्शन कलेवर, उनकी शानदार प्रिटिंग और प्रस्तुति सारा कुछ बदला है। वे अब पढ़े जाने के साथ-साथ देखे जाने लायक भी बने हैं। किंतु क्या कारण है उनकी पठनीयता बहुत प्रभावित हो रही है। वे अब पढ़े जाने के बजाए पलटे ज्यादा जा रहे हैं। पाठक एक स्टेट्स सिंबल के चलते घरों में अखबार तो बुलाने लगा है किंतु वह इन अखबारों पर वक्त नहीं दे रहा है। क्या कारण है कि ज्वलंत सवालों पर बौद्धिकता और विमर्शों का सारा काम अब अंग्रेजी अखबारों के भरोसे छोड़ दिया गया है? हिंदी अखबारों में अंग्रेजी के जो लेखक अनूदित होकर छप रहे हैं वह भी सेलिब्रेटीज ज्यादा हैं, बौद्धिक दुनिया के लोग कम । हिंदी की इतनी बड़ी दुनिया के पास आज भी द हिंदू या इंडियन एक्सप्रेस जैसा एक भी अखबार क्यों नहीं है, यह बात चिंता में डालने वाली है। कम पाठक, सीमित स्वीकार्यता के बजाए अंग्रेजी के अखबारों में हमारी कलाओं, किताबों, फिल्मों और शेष दुनिया की हलचलों पर बात करने का वक्त है तो हिंदी के अखबार इनसे मुंह क्यों चुरा रहे हैं।
    हिंदी के एक बड़े लेखक अशोक वाजपेयी अगर यह कह रहे हैं कि-पत्रकारिता में विचार अक्षमता बढ़ती जा रही है, जबकि उसमें यह स्वाभाविक रूप से होना चाहिए। हिंदी में यह क्षरण हर स्तर पर देखा जा सकता है। हिंदी के अधिकांश अखबार और समाचार-पत्रिकाओं का भाषा बोध बहुत शिथिल और गैरजिम्मेदार हो चुका है। जो माध्यम अपनी भाषा की प्रामणिकता आदि के प्रति सजग नहीं हैं, उनमें गहरा विचार भी संभव नहीं है। हमारी अधिकांश पत्रकारिता, जिसकी व्याप्ति अभूतपूर्व हो चली है, यह बात भूल ही गयी है कि बिना साफ-सुथरी भाषा के साफ-सुथरा चिंतन भी संभव नहीं है। (जनसत्ता,26 अप्रैल,2015) जाहिर तौर पर श्री वाजपेयी का चिंताएं हिंदी समाज की साझा चिंताएं हैं। हिंदी के पाठकों, लेखकों, संपादकों और समाचारपत्र संचालकों को मिलकर अपनी भाषा और उसकी पत्रकारिता के सामने आ रहे संकटों पर बात करनी ही चाहिए। यह देखना रोचक है कि हिंदी की पत्रकारिता के सामने आर्थिक संकट उस तरह से नहीं हैं जैसा कि भाषायी या बौद्धिक संकट। हमारे समाचारपत्र अगर समाज में चल रही हलचलों, आंदोलनों और झंझावातों की अभिव्यक्ति करने में विफल हैं और वे बौद्धिक दुनिया में चल रहे विमर्शों का छींटा भी अपने पाठकों पर नहीं पड़ने दे रहे हैं तो हमें सोचना होगा कि आखिर हमारी एक बड़ी जिम्मेदारी अपने पाठकों का रूचि परिष्कार भी रही है। साथ ही हमारा काम अपने पाठक का उसकी भाषा और समाज के साथ एक रिश्ता बनाना भी है। कई बार ऐसा लगता है कि हिंदी के अखबार टीवी न्यूज चैनलों से होड़ कर रहे हैं। यह होड़ अखबार के सौंदर्यबोध उसकी सुंदर प्रस्तुति तक सीमित हो तो ठीक, किंतु यह कटेंट के स्तर पर जाएगी तो खतरा बड़ा होगा। एक एफएम रेडियो पर बोलती या बोलते हुए किसी रेडियो जाकी और अखबार की भाषा में अंतर सिर्फ माध्यमों का अंतर नहीं है, बल्कि इस माध्यम की जरूरत भी है। इसलिए टीवी और रेडियो की भाषा से होड़ में हम अपनी मौलिकता को नष्ट न करें। हिंदी के अखबारों के संपादकों का आत्मविश्वास शायद इस बाजारू हवा में हिल गया लगता है। वे हिंदी के प्रचारक और रखवाले जरूर हैं किंतु इन सबने मिलकर जिस तरह आमफहम भाषा के नाम पर अंग्रेजी के शब्दों को स्वीकृति और घुसपैठ की अनुमति दी है, वह आपराधिक है। यह स्वीकार्यता अब होड़ में बदल गयी है। हिंदी पत्रकारिता में आई यह उदारता भाषा के मूल चरित्र को ही भ्रष्ट कर रही है।
   यह चिंता भाषा की नहीं है बल्कि उस पीढ़ी की भी है, जिसे हमने बौद्धिक रूप से विकलांग बनाने की ठान रखी है। आखिर हमारे हिंदी अखबारों के पाठक को क्यों नहीं पता होना चाहिए कि उसके आसपास के परिवेश में क्या घट रहा है। हमारे पाठक के पास चीजों के होने और घटने की प्रक्रिया के सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक पहलुओं पर विश्लेषण क्यों नहीं होने चाहिए? क्यों वह गंभीर विमर्शों के लिए अंग्रेजी या अन्य भाषाओं पर निर्भर हो? हिंदी क्या सिर्फ सूचना और मनोरंजन की भाषा बनकर रह जाएगी?  अपने बौद्धिक विश्लेषणों, सार्थक विमर्शों के आधार पर नहीं, सिर्फ चमकदार कागज पर शानदार प्रस्तुति के कारण ही कोई पत्रकारिता लोकस्वीकृति पा सकती है? आज का पाठक समझदार, जागरूक और विविध दूसरे माध्यमों से सूचना और विश्वेषण पाने की क्षमता से लैस है। ऐसे में हिंदी के अखबारों को यह सोचना होगा कि वे कब तक अपनी छाप-छपाई और प्रस्तुति के आधार पर लोगों की जरूरत बने रहेंगें।

    एक समय में अखबार सूचना पाने के एक प्रमुख साधन थे, किंतु अब सूचनाओं के लिए लोग अखबारों पर निर्भर नहीं है। लगभग हर सूचना पाठक को अन्य माध्यमों से मिल जाती है। इसलिए लोग सूचना के लिए अखबार पढ़ते रहेंगें यह सोचना ठीक नहीं है। अतः अखबारों को अंततः कटेंट पर लौटना होगा। गंभीर विश्लेषण और खबरों के पीछे छपे अर्थ की तलाश करनी होगी। हिंदी अखबारों को अब सूचना और मनोरंजन के डोज या ओवरडोज के बजाए नए विकल्प देखने होगें। उन विषयों पर फोकस करना होगा जिससे पाठक को घटना का परिप्रेक्ष्य पता चले, इसके लिए हमें सूचनाओं से आगे होना होगा। हिंदी अखबारों को यह मान लेना चाहिए कि वे अब सूचनाओं के प्रथम प्रस्तोता नहीं हैं बल्कि उनकी भूमिका सूचना पहुंच जाने के बाद की है। इसलिए घटना की सर्वांगीण और विशिष्ट प्रस्तुति ही उनकी पहचान बना सकती है। आज सारे अखबार एक सरीखे दिखने लगे हैं, उनमें भी विविधता की जरूरत है। हिंदी के अखबारों ने अपनी साप्ताहिक पत्रिकाओं को विविध विषयों पर केंद्रित कर एक बड़ा पाठक वर्ग खड़ा किया है। उन्हें अब साहित्य, बौद्धिक विमर्शों, संवादों, दुनिया में घट रहे परिवर्तनों पर नजर रखते हुए ज्यादा सुरूचिपूर्ण बनाना होगा। भारतीय भाषाओं खासकर मराठी, बंगला और गुजराती में ऐसे प्रयोग हो रहे हैं, जहां सूचना के अलावा अन्य संदर्भ भी बराबरी से जगह पा रहे हैं। एक बड़ी भाषा होने के नाते हिंदी से ज्यादा गंभीर प्रस्तुति और ठहराव की उम्मीद की जाती है। उसकी तुलना अंग्रेजी के अखबारों होगी और होती रहेगी क्योंकि वह अंग्रेजी के बौद्धिक आतंक को चुनौती देने की संभावना से हिंदी भरी-पूरी है। हिंदी के पास ज्यादा बड़ा फलक और जमीनी अनुभव हैं। अगर वह अपने लोक की पहचान कर, भारत की पहचान कर, अपने देश की वाणी को स्वर दे सके तो भारत का भारत से परिचय तो होगा ही,यह देश अपने संकटों के समाधान भी अपनी ही भाषा में पा सकेगा। क्या हिंदी की पत्रकारिता, उसके अखबार, संपादक और प्रबंधक इसके लिए तैयार हैं?

सोमवार, 20 अप्रैल 2015

जीवन में किसे है मूल्यों की जरूरत

भोपाल में मूल्यआधारित जीवन पर अंतराष्ट्रीय परिसंवाद से उपजे कई विमर्श
-संजय द्विवेदी

    मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में पिछले 17 से 19 अप्रैल को मूल्य आधारित जीवन पर तीन दिवसीय परिसंवाद का आयोजन किया गया। यह संवाद किसी सामाजिक-धार्मिक संगठन ने किया होता तो कोई आश्चर्य नहीं था किंतु इसकी आयोजक मध्यप्रदेश सरकार थी। खुद मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस आयोजन के दो सत्रों में आए, बोले भी। मप्र के संस्कृति विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय व शिक्षा संस्कृति उत्थान न्यास के इस आयोजन में देश-विदेश से आए लगभग 120 विद्वानों ने इस विचार मंथन में हिस्सा लिया।
   कार्यक्रम में सद् गुरू जग्गी वासुदेव से लेकर प्रणव पंड्या जैसी आध्यात्मिक हस्तियां थीं तो मीडिया दिग्गजों में आईबीएन-7 के प्रमुख उमेश उपाध्याय से लेकर राजेश बादल, राखी बख्शी, आलोक वर्मा जैसे नाम थे। शिक्षा, संस्कृति, चिकित्सा हर क्षेत्र में मूल्य स्थापना पर बात हुयी। दीनानाथ बत्रा, डा. ज्ञान चतुर्वेदी, विजय बहादुर सिंह, रमेश चंद्र शाह, उदयन वाजपेयी, फिल्म निर्माता चंद्रप्रकाश द्विवेदी जैसी हस्तियां इन चर्चाओं में शामिल रहीं। यह बात बताती है कि मूल्यों को लेकर समाज में व्याप्त चिंताओं को मध्यप्रदेश सरकार ने सही वक्त पर पहचाना है। यह प्रसंग बताता है कि सरकारें भी कैसे जीवन से जुड़े सवालों को प्रासंगिक बना सकती हैं। इस आयोजन के पीछे संदर्भ यह है कि आस्था का महाकुंभ सिंहस्थ 22 अप्रैल से 21 मई,2016 को मध्यप्रदेश की पावन नगरी उज्जैन में हो रहा है। आस्था की डोर से बंधे देशभर के लोग इस आयोजन में आकर पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं। मध्यप्रदेश सरकार का मानना है कि भारतीय परंपरा में कुंभ सिर्फ एक मिलन का स्थान,सार्वजनिक मेला या स्नान का लाभ प्राप्त करने का स्थान भर नहीं है, वरन वह अपने समाज के बीच समरसता और संवाद का माध्यम भी बनता रहा है।
    सही मायने में कुंभ युगों-युगों से विचार-विमर्श,शास्त्रार्थ और संवाद की अनंत धाराओं के समागम का केंद्र रहा है। देश और दुनिया से आने वाले विद्वान यहां चर्चा -संवाद के माध्यम से भारतीय ज्ञान-विज्ञान की तमाम परंपराओं का अवगाहन करते हैं, विश्लेषण और मूल्यांकन करते हैं तथा नए रास्ते दर्शाते हैं। संवाद और शास्त्रार्थ की यह धारा मानव जीवन के लिए ज्यादा सुखों की तलाश भी करती और मानव की मुक्ति के रास्ते भी खोजती है। भारतीय चिंतन ने हमेशा सत्य की खोज को अपना ध्येयपथ माना है, जिससे समाज में सद् गुणों का विकास हो और वह सर्वांगीण प्रगति कर सके। भारतीय चिंतन संपूर्णता में विचार का दर्शन है। उसकी दृष्टि एकांगी नहीं है इसलिए यहां विमर्श स्वाभाविक और निरंतर है।
   इसी भावभूमि के आलोक में मध्यप्रदेश सरकार ने इस संविमर्श की योजना बनाई। संविमर्श को कई स्तरों पर किए जाने की योजना है। भोपाल के यह विमर्श अन्य क्षेत्रों में  भी प्रस्तावित है। जाहिर है मध्यप्रदेश सरकार और उसके मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का चिंतन के क्षेत्र में यह नया प्रयोग है। अपने भाषण में उन्होंने यह कहा भी इस विचार मंथन से निकले निकष से शासन भी अपने कार्यक्रमों और नीतियों में बदलाव करेगा। निश्चय ही यह एकालाप नहीं है। विद्वानो के साथ बैठना और संविमर्श के माध्यम से मानव कल्याण के लिए नए मार्ग खोजना लाभकारी ही होगा। मध्यप्रदेश के लोकधर्मी प्रशासक और संस्कृति सचिव मनोज श्रीवास्तव ने जो स्वयं एक अच्छे लेखक हैं, इस पूरे आयोजन की रचना तैयार की और उसे जमीन पर उतारा। मध्यप्रदेश की विधानसभा के सभाकक्ष और उसके आसपास का सौंदर्यबोध देखते ही बनता था।
    यहां हुयी चर्चाओं में बड़ी संख्या बौद्धिक वर्गों के लोग भी रहे। प्रशासक, प्राध्यापक, राजनेता,मीडिया, कलाकार, चिकित्सक, न्याय से जुड़े वर्ग की मौजूदगी विशेष रही। इन व्यवसायों के भीतर काम करनेवाले लोगों के जीवन मूल्य क्या हों- यही चर्चा का विषय रहा। सभी प्रोफेशन से जुड़े लोगों ने अपने कामों, कार्यप्रणाली और संस्थाओं के लिए मूल्यों की बात की। इन सबने अपने लिए मूल्यों का सूचीकरण भी किया। इस पूरे विमर्श से यह बात सामने आयी कि जो विविध व्यवसायों के मूल्य हैं वही शेष समाज के भी जीवन मूल्य हैं। संस्थाएं भी अपने लिए मूल्यों का निर्धारण करती हैं। कई बार मूल्यों के अनुसार स्वयं को ढालती हैं तो कई बार अपना अनुकूलन वातावरण के हिसाब से कर लेती हैं। विमर्श का मूल स्वर यही था कि समाज को अपने भवितव्य को लेकर मूल्यों का आग्रह करना ही होगा। मूल्य विहीन समाज अपनी पहचान कायम नहीं कर सकता।

   विमर्श का मूल स्वर यही था कि भारतीय समाज में विकसित और पनपे जीवन मूल्य मात्र भावुक आस्थाएं न होकर वैज्ञानिक तथ्यों के ठोस धरातल पर खडी हुयी हैं। यह दूसरी बात है कि समय के साथ विकसित होने वाली अशिक्षा  एवं भारतीय संस्कृति के हमारी उपेक्षा ने यह हालात पैदा कर दिए हैं। विद्वानों का मानना था कि भारत की मुक्ति भारत बनने में है। भारत अगर भारत की तरह नही सोचता तो वह भारत नहीं बन सकता। विदेशी प्रवाहों और आक्रमणों ने देश का मनोबल और आत्मबल तोड़ दिया है। ऐसे समय में भारत का भारत से परिचय कराना आवश्यक है। भारत का यही तत्वबोध और आत्मबोध जगाना समय की जरूरत है। हमें अपने देश को जगाने और उसे उसकी शक्ति से परिचित कराने की जरूरत है। यह एक 1947 में बना और एक हुआ राष्ट्र नहीं है, बल्कि अपने सांस्कृतिक परिवेश और नैतिक चेतना से भरा देश है। भारत से इन अर्थो में भारत का परिचय जरूरी है। कुंभ जैसे पर्व मेले नहीं हैं,यह हमारे देश की सांस्कृतिक शक्ति, उसके विचार और सामर्थ्य का प्रगटीकरण हैं। कुंभ के बहाने भारतीय संस्कृति और समाज स्वयं में झांकता और संवाद करता है। उस परंपरा को पुनः स्थापित करने का काम अगर एक राज्य सरकार कर रही है तो उसका अभिनंदन ही किया जाना चाहिए। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री अगर संवाद और विमर्श में मूल्यों का राग छेड़ रहे हैं तो तय मानिए इस मंथन से अमृत ही निकलेगा। इससे एक सुसंवादित समाज की रचना होगी और भारत अपनी पहचान को फिर से पा सकेगा। समाज जीवन के विविध क्षेत्र अपनी चमकीली प्रगति से चमत्कृत ही न रहे बल्कि वे अपनी शक्ति को पहचाने इसका यह सही समय है। उज्जैन में महाकाल की घरती अनंत विमर्शों को आकाश देती रही है।  देश में होने वाले अन्य कुंभ पर्वों की अपेक्षा उज्जयिनी के कुंभ का महत्व विशेष है।यहां कुंभ के साथ सिंहस्थ भी सम्मिलित होता है। इस सम्मिलन में दस दुर्लभ योग उपस्थित होते हैं- वैशाख मास, शुक्ल पक्ष, पूर्णिमा तिथि. मेष राशि का सूर्य, सिंह राशि पर बृहस्पति की स्थिति, तुला राशि पर चंद्र की स्थिति, स्वाति नक्षत्र, व्यातिपात योग, पवित्र तिथि सोमवार तथा मोक्ष प्रदायक अवन्ती क्षेत्र। इन कारणों से इस अवसर पर स्नान का महत्व खास है। निश्चय ही ऐसे पुण्य समय में विद्वत जनों के बीच संविमर्श कर समाज के लिए कुछ पाथेय देना खास है। ऐसे विमर्शों से निकले हुए निष्कर्ष निश्चय ही हमारे समाज का मार्गदर्शन करेंगें।