मंगलवार, 20 फ़रवरी 2018

नंदकिशोर त्रिखाः पत्रकारिता के आचार्य

-संजय द्विवेदी
  इस कठिन समय में जब पत्रकारिता की प्रामणिकता और विश्वसनीयता दोनों पर गहरे सवाल खड़े हो रहे हों, डा. नंदकिशोर त्रिखा जैसे पत्रकार, संपादक, मीडिया प्राध्यापक के निधन का समाचार विह्वल करने वाला है। वे पत्रकारिता के एक ऐसे पुरोधा थे जिसने मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की और बेहद प्रामाणिक लेखन किया। अपने विचारों और विश्वासों पर अडिग रहते हुए संपादकीय गरिमा को पुष्ट किया। उनका समूचा व्यक्तित्व एक अलग प्रकार की आभा और राष्ट्रीय चेतना से भरा-पूरा था। भारतीय जनमानस की गहरी समझ और उसके प्रति संवेदना उनमें साफ दिखती थी। वे लिखते, बोलते और विमर्श करते हुए एक संत सी धीरता के साथ दिखते थे। वे अपनी प्रस्तुति में बहुत आकर्षक भले न लगते रहे हों किंतु अपनी प्रतिबद्धता, विषय के साथ जुड़ाव और गहराई के साथ प्रस्तुति उन्हें एक ऐसे विमर्शकार के रूप में स्थापित करती थी, जिसे अपने प्रोफेशन से गहरी संवेदना है। इन अर्थों में वे एक संपादक और पत्रकार के साथ पत्रकारिता के आचार्य ज्यादा दिखते थे।
  नवभारत टाइम्स, लखनऊ के संपादक, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के पत्रकारिता विभाग के संस्थापक अध्यक्ष, एनयूजे के  माध्यम से पत्रकारों के हित की लड़ाई लड़ने वाले कार्यकर्ता, लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता, संस्कृतिकर्मी जैसी उनकी अनेक छवियां हैं, लेकिन वे हर छवि में संपूर्ण हैं। पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में उनके छोटे से कार्यकाल की अनेक यादें यहां बिखरी पड़ी हैं। समयबद्धता और कक्षा में अनुशासन को उनके विद्यार्थी आज भी याद करते हैं। ये विद्यार्थी आज मीडिया में शिखर पदों पर हैं लेकिन उन्हें उनके बेहद अनुशासनप्रिय प्राध्यापक डा. त्रिखा नहीं भूले हैं। प्रातः 8 बजे की क्लास में भी वे 7.55 पर पहुंच जाने का व्रत निभाते थे। वे  ही थे, जिन्हें अनुशासित जीवन पसंद था और वे अपने बच्चों से भी यही उम्मीद रखते थे। समय के पार देखने की उनकी क्षमता अद्भुत थी। वे एक पत्रकार और संपादक के रूप में व्यस्त रहे, किंतु समय निकालकर विद्यार्थियों के लिए पाठ्यपुस्तकें लिखते थे। उनकी किताबें हिंदी पत्रकारिता की आधारभूत प्रारंभिक किताबों  में से एक हैं। खासकर समाचार संकलन और प्रेस विधि पर लिखी गयी उनकी किताबें दरअसल हिंदी में पत्रकारिता की बहुमूल्य पुस्तकें हैं। हिंदी में ऐसा करते हुए न सिर्फ वे नई पीढ़ी के लिए पाथेय देते हैं बल्कि पत्रकारिता के शिक्षण और प्रशिक्षण की बुनियादी चिंता करने वालों में शामिल हो जाते हैं। इसी तरह दिल्ली और लखनऊ में उनकी पत्रकारिता की उजली पारी के पदचिन्ह बिखरे पड़े हैं। वे ही थे जो निरंतर नया विचार सीखते, लिखते और लोक में उसका प्रसार करते हुए दिखते रहे हैं। उनकी एक याद जाती है तो दूसरी तुरंत आती है। एनयूजे के माध्यम से पत्रकार हितों में किए गए उनके संघर्ष बताते हैं कि वे सिर्फ लिखकर मुक्त होने वालों में नहीं थे बल्कि सामूहिक हितों की साधना उनके जीवन का एक अहम हिस्सा रही है। डॉ. त्रिखा छह वर्ष भारतीय प्रेस परिषद् के भी सदस्य रहे ।उन्होंने 1963 से देश के अग्रणी राष्ट्रीय दैनिक नवभारत टाइम्स में विशेष संवाददाता, वरिष्ठ सहायक-संपादक, राजनयिक प्रतिनिधि और स्थानीय संपादक के वरिष्ठ पदों पर कार्य किया । उससे पूर्व वे संवाद समिति हिन्दुस्थान समाचार के काठमांडू (नेपाल), उड़ीसा और दिल्ली में ब्यूरो प्रमुख और संपादक रहे ! अपने इस लम्बे पत्रकारिता-जीवन में उन्होंने देश-विदेश की ज्वलंत समस्याओं पर हजारों लेख, टिप्पणिया, सम्पादकीय, स्तम्भ और रिपोर्ताज लिखे।

   विचारों के प्रति गहरी प्रतिबद्धता के बावजूद उनकी समूची पत्रकारिता में एक गहरी अंतर्दृष्टि, संवेदनशीलता, मानवीय मूल्य बोध, तटस्थता के दर्शन होते हैं। उनके संपादन में  निकले अखबार बेहद लोकतांत्रिकता चेतना से लैस रहे। वे ही थे जो सबको साध सकते थे और सबके साथ सधे कदमों से चल सकते थे। उनका संपादक सभी विचारों- विचार प्रवाहों को स्थान देने की लोकतांत्रिक चेतना से भरा-पूरा था। जीवन में भी वे इतने ही उदार थे। यही उदात्तता दरअसल भारतीयता है। जिसमें स्वीकार है, तिरस्कार नहीं है। वे व्यक्ति और विचार दोनों के प्रति गहरी संवेदना से पेश आते थे। उन्हें लोगों को सुनने में सुख मिलता था। वे सुनकर, गुनकर ही कोई प्रतिक्रिया करते थे। इस तरह एक मनुष्य के रूप में उन्हें हम बहुत बड़ा पाते हैं। आखिरी सांस तक उनकी सक्रियता ने हमें सिखाया है किस बड़े होकर भी उदार, सक्रिय और समावेशी हुआ जा सकता है। वे रिश्तों को जीने और निभाने में आस्था रखते थे। उनके मित्रों में सत्ताधीशों से लेकर सामान्य जन सभी शामिल थे। लेकिन संवेदना के तल पर वे सबके लिए समभाव ही रखते थे।  बाद के दिनों उनकी किताबें बड़े स्वरूप में प्रकाशित हुयीं जिसे माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय ने प्रकाशित किया। अंग्रेजी में उनकी किताब रिपोर्टिंग आज के विद्यार्थियों को ध्यान में रखकर लिखी गयी है। इसी तरह प्रेस ला पर उनकी किताब बार-बार रेखांकित की जाती है। वे हमारे समय के एक ऐसे लेखक और संपादक थे जिन्हें हिंदी और अंग्रेजी भाषाओं पर समान अधिकार था। वे अपने जीवन और लेखन में अगर किसी एक चीज के लिए याद किए जाएंगें तो वह है प्रामणिकता। मेरे जैसे अनेक पत्रकारों और मीडिया प्राध्यापकों के लिए वे हमेशा हीरो की तरह रहे हैं जिन्होंने खुद को हर जगह साबित किया और अव्वल ही रहे। हिंदी ही नहीं समूची भारतीय पत्रकारिता को उनकी अनुपस्थिति ने आहत किया है। आज जब समूची पत्रकारिता बाजारवाद और कारपोरेट के प्रभावों में अपनी अस्मिता संरक्षण के संघर्षरत है, तब डा. नंदकिशोर त्रिखा की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

मुज्जफर हुसैनः हम तुम्हें यूं भुला ना पाएंगें


                                          -संजय द्विवेदी

    मुंबई की सुबह और शामें बस ऐसे ही गुजर रही थीं। एक अखबार की नौकरी,लोकल ट्रेन के घक्के,बड़ा पाव और ढेर सी चाय। जिंदगी में कुछ रोमांच नहीं था। इस शहर में बहुत कम लोग थे, जिन्हें अपना कह सकें। पैसे इतने कम कि मनोरंजन के बहुत उपलब्ध साधनों से दूर रहना जरूरत और विवशता दोनों ही थी। ऐसे कठिन समय में जिन लोगों से मुलाकात ने मेरी जिंदगी में बहुत से बदलाव किए, लगा कि लिखकर भी व्यस्त और मस्त रहा जा सकता है, उन्हीं में एक थे पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार-स्तंभकार-अप्रतिम वक्ता श्री मुजफ्फर हुसैन। 13फरवरी,2018 की रात जब श्री मुजफ्फर हुसैन के निधन की सूचना मिली, तबसे मुंबई में बीता सारा समय चलचित्र की भांति आंखों के सामने तैर रहा है।
   श्री मुजफ्फर हुसैन हमारी जिंदगी में एक ऐसी जगह रखते थे, जो उनकी अनुपस्थिति में  और ज्यादा महसूस हो रही है। उनका घर और उनकी धर्मपत्नी नफीसा आंटी सब याद आते हैं। एक याद जाती है, तो तुरंत दूसरी आती है। लिखने का उनका जुनून, लगभग हर भारतीय भाषा के अखबारों में उनकी निरंतर उपस्थिति, अद्भुत भाषण कला, संवाद की आत्मीय शैली,सादगी सारा कुछ याद आता है। सत्ता के शिखर पुरुषों से निकटता के बाद भी उनसे एक मर्यादित दूरी रखते हुए, उन्होंने सिर्फ कलम के दम पर अपनी जिंदगी चलाई। वे सही मायने में हिंदी के सच्चे मसिजीवी पत्रकार थे। नौकरी बहुत कम की। बहुत कम समय देवगिरि समाचार, औरंगाबाद के संपादक रहे। एक स्वतंत्र लेखक, पत्रकार और वक्ता की तरह वे जिए और अपनी शर्तों पर जिंदगी काटी। सच कहें तो यह उनका ही चुना हुआ जीवन था। मनचाही जिंदगी थी। वे चाहते तो क्या हो सकते थे, क्या पा सकते थे यह कहने की आवश्यक्ता नहीं है। भाजपा और संघ परिवार के शिखर पुरुषों से उनके अंतरंग संबंध किसी से छिपे नहीं थे। लेकिन उन्हें पता था कि वे एक लेखक हैं, पत्रकार हैं और उनकी अपनी सीमाएं हैं।
    वे लिखते रहे एक विचार के लिए, एक सपने के लिए,ताजिंदगी और अविराम। भारतीय मुस्लिम समाज को भारतीय नजर से देखने और व्याख्यायित करने वाले वे विरले पत्रकारों में थे। अरब देशों और वैश्विक मुस्लिम दुनिया को भारतीय नजरों से देखकर अपने राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में समाचार पत्रों में प्रस्तुत करने वाले वे ही थे। वे ही थे जो भारतीय मुस्लिमों को एक राष्ट्रीय प्रवाह में शामिल करने के स्वप्न देखते थे। उन्हें अपनी मातृभूमि और उसके लोगों से प्यार था। वे भारतीयता और इस देश के सपनों को जीने वाले पत्रकार थे। उन्हें संवाद प्रिय था। वे अपनी प्रिय भाषा हिंदी में लिखते, बोलते और संवाद करते हुए देश भर के दुलारे बने। श्री अटलबिहारी वाजपेयी से लेकर उन दिनों के संघ प्रमुख श्री केसी सुदर्शन अगर उनकी प्रतिभा के प्रशंसक थे, तो यह अकारण नहीं था।
  आज कंगूरों पर बैठे लोगों को शायद श्री मुजफ्फर हुसैन नजर न आएं, किंतु जिन्हें परंपरा के पाठ का तरीका पता है, वे अपने इस बुजुर्ग को यूं भुला न पाएंगें। जिन दिनों में भारतीयता और भारतबोध जैसी बातें मुख्यधारा के मीडिया में अछूत थीं, उन्हीं दिनों में सिर्फ पांचजन्य जैसे पत्रों में ही नहीं, देश के हर भाषा के बड़े अखबार मुजफ्फर हुसैन को सम्मान के साथ छापते थे। अखबारों में छपने वाले लेखों से ही उनकी जिंदगी चलती थी। इसलिए उन्हें मसिजीवी कहना अकारण नहीं है। वे सही मायने में कलम के हो गए थे। एक विचार के लिए जीना और उसी के लिए अपनी समूची प्रतिभा, मेघा, लेखन और जीवन को समर्पित कर देना उनसे सीखा जा सकता है।
  आज जब वे नहीं हैं तो उनकी पत्रकारिता से कई बातें सीख सकते हैं। पहला है उनका साहस और धारा के विरूद्ध लिखने का । दूसरा वे सिद्धांतनिष्ठ जीवन, ध्येयनिष्ठ जीवन का भी उदाहरण हैं। वे पल-पल बदलने वाले लोगों में नहीं हैं। जीवन के कठिन संघर्ष उनमें अपने विचार के प्रति आस्था कम नहीं करते। वे अपने लेखन में कड़वाहटों से भरे नहीं हैं, बल्कि इस महादेश की समस्याओं के हल खोजते हैं। वे सुविधाजनक सवाल नहीं उठाते बल्कि असुविधाजनक प्रश्नों से टकराते हैं। वे अपने मुस्लिम समाज में भारतीयता का भाव भरने के लिए सवाल खड़े करते हैं और अभिव्यक्ति के खतरे भी उठाते हैं। उन पर हुए हमले, विरोधों ने उन्हें अपने विचारों के प्रति और अडिग बनाया। वे वही कहते,लिखते और बोलते थे जो उनके अपने मुस्लिम समाज और राष्ट्र के हित में था। वे कट्टरपंथियों की धमकियों से डरकर रास्ते बदलने वाले लोगों में नहीं थे। उनके लिए राष्ट्र और उसके लोग सर्वोपरि थे। अपने इन्हीं विचारों के नाते देश भर में वे आमंत्रित किए जाते थे। लोग उन्हें ध्यान से सुनते और गुनते थे। एक प्रखर वक्ता, सम्मोहक व्यक्तित्व के रूप में वे हर सभा का गौरव बने रहे। भारत, भारतप्रेम की प्रस्तुति से उनका शब्द-शब्द ह्दय में उतरता था। उन्हें मुझे मुंबई से लेकर भोपाल,रायपुर, बिलासपुर की अनेक सभाओं में सुनने का अवसर मिला। उनके अनेक आयोजनों का संचालन करते हुए, साथ रहने का अवसर मिला। यूं लगता था, जैसे मां सरस्वती उनके कंठ से बरस रही हैं। वे कश्मीर, देश विभाजन जैसे प्रश्नों पर बोलते तो स्वयं उनकी आंखों से आंसू झरने लगते। सभा में मौजूद लोगों की आंखें पनीली हो जाती थीं। ऐसा आत्मीय और भावनात्मक संवाद वही कर सकता है जिसकी कथनी-करनी, वाणी और कर्म में अंतर न हो। वे ह्दय से ह्दय का संवाद करते थे। इसलिए उनकी वाणी आज भी कानों में गूंजती है। महाराष्ट्र के अनेक नगरों में गणेशोत्वों पर दिए गए उनके व्याख्यान एक बौद्धिक उपलब्धि हैं।
   इन चार दशकों में उनका लिखा-बोला गया विपुल साहित्य उपलब्ध है। दैनिक अखबारों समेत, पांचजन्य जैसे पत्रों में उन्होंने नियमित लिखा है। उस पूरे साहित्य को एकत्र कर उनके लेखन का समग्र प्रकाशित होना चाहिए। केंद्र और महाराष्ट्र सरकार को उनकी स्मृति को संरक्षित करने के लिए कुछ सचेतन प्रयास करने चाहिए। वे अपनी परंपरा के बिरले पत्रकारों में हैं। वे भारतीय पत्रकारिता में साहस, धैर्य,प्रतिभा, स्वावलंबन और वैचारिक चेतना के प्रतीक भी हैं। लोकजागरण के लिए पत्रकारिता के माध्यम से उन्होंने जो प्रयास किए उनको रेखांकित करते हुए कुछ प्रयत्न उनसे जुड़े लोग और संस्थाएं भी कर सकती हैं। राष्ट्रवादी पत्रकारिता के तो वे शिखर हैं ही, उनकी स्मृति हमें संबल देगी, इसमें दो राय नहीं हैं। किंतु इससे जरूरी यह भी है कि उनके जाने के बाद, उनकी स्मृति संरक्षण के लिए हम क्या प्रयास करते हैं, ताकि आने वाली पीढ़ियां याद कर सकें कि इस घरती पर एक मुजफ्फर हुसैन नाम का पत्रकार भी रहा, जिसने बिना बड़े अखबारों की कुर्सियों के भी, सिर्फ कलम के दम पर अपनी बात कही और देश ने उसे बहुत ध्यान से सुना। इन दिनों जब भारतीय पत्रकारिता की प्रामणिकता और विश्वसनीयता पर गहरे काले बादल छाए हुए हैं तब श्री मुजफ्फर हुसैन  का जाना एक बड़ा शून्य रच रहा है, जिसे भर पाना कठिन है, बहुत कठिन।

बुधवार, 3 जनवरी 2018

बृजलाल द्विवेदी सम्मान से अलंकृत किए जाएंगें ‘अलाव’ के संपादक रामकुमार कृषक

       

भोपाल, 4 जनवरी, 2018। हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता को सम्मानित किए जाने के लिए दिया जाने वाला पं. बृजलाल द्विवेदी अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान इस वर्ष अलाव’ (दिल्ली) के संपादक श्री रामकुमार कृषक  को दिया जाएगा।
      श्री रामकुमार कृषक  साहित्यिक पत्रकारिता के एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर होने के साथ-साथ देश के जाने-माने संस्कृतिकर्मी,कवि एवं लेखक हैं। 1989 से वे लोकोन्मुख साहित्य चेतना पर केंद्रित महत्वपूर्ण पत्रिका अलाव’ का संपादन कर रहे हैं।
    सम्मान कार्यक्रम आगामी 4फरवरी2018 को गांधी भवनभोपाल में दिन में 11 बजे आयोजित किया गया है। मीडिया विमर्श पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने बताया कि आयोजन में अनेक साहित्कारबुद्धिजीवी और पत्रकार हिस्सा लेगें। पुरस्कार के निर्णायक मंडल में सर्वश्री विश्वनाथ सचदेव,  रमेश नैयरडा. सच्चिदानंद जोशी शामिल हैं।
         इसके पूर्व यह सम्मान वीणा(इंदौर) के संपादक स्व. श्यामसुंदर व्यासदस्तावेज(गोरखपुर) के संपादक विश्वनाथ प्रसाद तिवारीकथादेश (दिल्ली) के संपादक हरिनारायणअक्सर (जयपुर) के संपादक डा. हेतु भारद्वाजसद्भावना दर्पण (रायपुर) के संपादक गिरीश पंकजव्यंग्य यात्रा (दिल्ली) के संपादक डा. प्रेम जनमेजय,कला समय के संपादक विनय उपाध्याय (भोपाल) संवेद के संपादक किशन कालजयी(दिल्ली) और अक्षरा(भोपाल) के संपादक कैलाशचंद्र पंत को दिया जा चुका है। त्रैमासिक पत्रिका ‘मीडिया विमर्श’ द्वारा प्रारंभ किए गए इस अखिलभारतीय सम्मान के तहत साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान करने वाले संपादक को ग्यारह हजार रूपएशालश्रीफलप्रतीकचिन्ह और सम्मान पत्र से अलंकृत किया जाता है।    
कौन हैं रामकुमार कृषकः 1 अक्टूबर, 1943 को अमरोहा (मुरादाबाद-उप्र) के एक गांव गुलड़िया में जन्मे रामकुमार कृषक ने मेरठ विश्वविद्यालय से हिंदी में एमए की उपाधि और प्रयाग विवि से साहित्यरत्न की उपाधि प्राप्त की। दिल्ली में लंबे समय पत्रकारिता की। अध्यापन और लेखन करते हुए आठवें दशक के प्रमुख प्रगतिशील-जनवादी कवियों में शुमार हुए। गजल और गीत विधाओं में विशेष योगदान के साथ-साथ कहानी, संस्मरण, साक्षात्कार और आलोचना आदि गद्य विधाओं में भी उल्लेखनीय स्थान। सात कविता संग्रहों के अलावा विविध विधाओं में एक दर्जन से अधिक किताबें प्रकाशित।1978 से 1992 तक राजकमल प्रकाशन में संपादक और संपादकीय प्रमुख रहे।  1989 से अलाव पत्रिका के संपादक।


मंगलवार, 5 सितंबर 2017

आप चुनाव तो जीत जाएंगे पर भरोसा खो बैठेंगें !

-संजय द्विवेदी

          प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मंत्रिमंडल में परिवर्तन कर देश की जनता को यह संदेश देने की कोशिश की है कि वे राजनीतिक संस्कृति में परिवर्तन के अपने वायदे पर कायम हैं। वे यथास्थिति को बदलना और निराशा के बादलों को छांटना चाहते हैं। उन्हें परिणाम पसंद है और इसके लिए राजनीतिक नेतृत्व से काम न चले तो वे नौकरशाहों को भी अपनी टीम में शामिल कर सकते हैं। भारतीय राजनीति के इस विकट समय में उनके प्रयोग कितने लाभकारी होगें यह तो वक्त बताएगा, किंतु आम जन उन्हें आज भी भरोसे के साथ देख रहा है। यही नरेंद्र मोदी की शक्ति है कि लोगों का भरोसा उनपर कायम है।
        यह भी एक कड़वा सच है कि तीन साल बीत गए हैं और सरकार के पास दो साल का समय ही शेष है। साथ ही यह सुविधा भी है कि विपक्ष आज भी मुद्दों के आधार पर कोई नया विकल्प देने के बजाए मोदी की आलोचना को ही सर्वोच्च प्राथमिकता दे रहा है। भाजपा ने जिस तरह से अपना सामाजिक और भौगोलिक विस्तार किया है, कांग्रेस उसी तेजी से अपनी जमीन छोड़ रही है। तमाम क्षेत्रीय दल भाजपा के छाते के नीचे ही अपना भविष्य सुरक्षित पा रहे हैं। भाजपा के भीतर-बाहर भी नरेंद्र मोदी को कोई चुनौती नहीं है। पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति के तहत भाजपा के पास एक-एक कर राज्यों की सरकारें आती जा रही हैं। यह दृश्य बताता है कि हाल-फिलहाल भाजपा के विजयरथ को रोकने वाला कोई नहीं है।
     संकट यह है कि कांग्रेस अपनी आंतरिक कलह से निकलने को तैयार नहीं हैं। केंद्र सरकार की विफलताओं पर बात करते हुए कांग्रेस का आत्मविश्वास गायब सा दिखता है। विपक्ष के रूप में कांग्रेस के नेताओं की भूमिका को सही नहीं ठहराया जा सकता। हिंदी प्रदेशों में कांग्रेस नेतृत्वहीनता की स्थिति में है। अनिर्णय की शिकार कांग्रेस एक गहरी नेतृत्वहीनता का शिकार दिखती है। इसलिए विपक्ष को जिस तरह सत्ता पक्ष के साथ संवाद करना और घेरना चाहिए उसका अभाव दिखता है।
    अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार सिर्फ धारणाओं का लाभ उठाकर कांग्रेस से अधिक नंबर प्राप्त कर रही है। हम देखें तो देश के तमाम मोर्चों पर सरकार की विफलता दिखती है, किंतु कांग्रेस ने जो भरोसा तोड़ा उसके कारण हमें भाजपा ही विकल्प दिखती है। भाजपा ने इस दौर की राजनीति में संघ परिवार की संयुक्त शक्ति के साथ जैसा प्रदर्शन किया है वह भारतीय राजनीति के इतिहास में अभूतपूर्व है। अमित शाह के नेतृत्व और सतत सक्रियता ने भाजपा की सुस्त सेना को भी चाक-चौबंद कर दिया है। कांग्रेस में इसका घोर अभाव दिखता है। गांधी परिवार से जुड़े नेता सत्ता जाने के बाद आज भी जमीन पर नहीं उतरे हैं। उनकी राज करने की आकांक्षा तो है किंतु समाज से जुड़ने की तैयारी नहीं दिखती। ऐसे में कांग्रेस गहरे संकटों से दो-चार है। भाजपा जहां विचारधारा को लेकर धारदार तरीके से आगे बढ़ रही है और उसने अपने हिंदूवादी विचारों को लेकर रहा-सहा संकोच भी त्याग दिया है, वहीं कांग्रेस अपनी विचारधारा की दिशा क्या हो? यह तय नहीं कर पा रही है। पं. नेहरू ने अपने समय में जिन साम्यवादियों के चरित्र को समझ कर उनसे दूरी बना ली, किंतु राहुल जी आज भी अल्ट्रा लेफ्ट ताकतों के साथ खड़े होने में संकोच नहीं करते। एंटोनी कमेटी की रिपोर्ट कांग्रेस के वास्तविक संकटों की ओर इशारा करती है। ऐसे में नरेंद्र मोदी के अश्वमेघ के अश्व को पकड़ने वाला कोई वीर बालक विपक्ष में नहीं दिखता। बिहार की नितीश कुमार परिघटना ने विपक्षी एकता को जो मनोवैज्ञानिक चोट पहुंचाई है, उससे विपक्ष अभी उबर नहीं पाएगा। विपक्ष के नेता अपने आग्रहों से निकलने को तैयार नहीं हैं, ना ही उनमें सामूहिक नेतृत्व को लेकर कोई सोच दिखती है।
    इस दौर में नरेंद्र मोदी और उनके समर्थकों को यह सोचना होगा कि जबकि देश में रचनात्मक विपक्ष नहीं है, तब उनकी जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता से जो वादे किए, उस दिशा में सरकार कितना आगे बढ़ी है? खासकर रोजगार सृजन और भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष के सवाल पर। महंगाई के सवाल पर। लोगों की जिंदगी में कितनी राहतें और कितनी कठिनाईयां आई हैं। इसका हिसाब भी उन्हें देना होगा। राजनीति के मैदान में मिलती सफलताओं के मायने कई बार विकल्पहीनता और नेतृत्वहीनता भी होती है। कई बार मजबूत सांगठनिक आधार भी आपके काम आता है। इसका मतलब यह नहीं कि सब सुखी और चैन से हैं और विकास की गंगा बह रही है। राजनीति के मैदान से निकले अर्थों से जनता के वास्तविक जीवन का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। इसमें दो राय नहीं कि प्रधानमंत्री अनथक परिश्रम कर रहे हैं। श्री अमित शाह दल के विस्तार के लिए अप्रतिम भूमिका निभा रहे हैं। किंतु हमें यह भी विचार करना होगा कि आप सबकी इस हाड़ तोड मेहनत से क्या देश के आम आदमी का भाग्य बदल रहा है? क्या मजदूर, किसान, युवा-छात्र और गृहणियां,व्यापारी सुख का अनुभव कर रहे हैं? देश के राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव के बाद जनता के भाग्य में भी परिर्वतन होता दिखना चाहिए। आपने अनेक कोशिशें की हैं, किंतु क्या उनके परिणाम जमीन पर दिख रहे हैं, इसका विचार करना होगा। देश के कुछ शहरों की चमकीली प्रगति इस महादेश के सवालों का उत्तर नहीं है। हमें उजड़ते गांवों, हर साल बाढ़ से उजड़ते परिवारों, आत्महत्या कर रहे किसानों के बारे में सोचना होगा। उस नौजवान का विचार भी करना होगा जो एक रोजगार के इंतजार में किशोर से युवा और युवा से सीधे बूढ़ा हो जाएगा। इलाज के अभाव में मरते हुए बच्चे एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। अपने बचपन को अगर हमने इतना असुरक्षित भविष्य दिया है तो आगे का क्या। ऐसे तमाम सवाल हमारे समाज और सरकारों के सामने हैं। राजनीतिक -प्रशासनिक तंत्र  का बदलाव भर नहीं उस संस्कृति में बदलाव के लिए 2014 में लोगों ने मोदी पर भरोसा जताया है। वह भरोसा कायम है..पर दरकेगा नहीं ऐसा नहीं कह सकते। सरकार के नए सिपहसलारों को ज्यादा तेजी से परिणाम देने वाली योजनाओं पर काम करने की जरूरत है। अन्यथा एक अवसर यूं ही केंद्र सरकार के हाथ से फिसलता जा रहा है। इसमें नुकसान सिर्फ यह है कि आप चुनाव तो जीत जाएंगें पर भरोसा खो बैठेंगें।
(लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)
      
  

   

सोमवार, 14 अगस्त 2017

सावर्जनिक संवाद में गिरावटः सनक में बदलती उत्तेजना

-संजय द्विवेदी
  भारतीय राजनीति और समाज में संवाद के गिरते स्तर और संवाद माध्यमों पर भीड़ के मुखर हो उठने का यह विचित्र समय है। यह वाचाल भीड़ समाज से लेकर सोशल मीडिया तक हर जगह अपनी खास राय के साथ खड़ी है। गुण या दोष के आधार पर विवेक के साथ नहीं। आलोचना के निर्मम अस्त्रों और घटिया भाषा के साथ। ऐसे कठिन समय में अपने विचार रखना भी मुश्किल हो जाता है। वे एक पक्ष पर खड़े हैं और दूसरे को सुनने को भी तैयार नहीं है। अफसोस तब होता है जब यह सारा कुछ लोकतंत्र के नाम पर घट रहा है।
  सोशल मीडिया ने इस उत्तेजना को सनक में बदलने का काम किया है। वैचारिकता की गहरी समझ और विचारधारा से आसपास भी न गुजरे हुए लोग किस तरह लोकतंत्र, सरकार और जनता के पहरेदार बन गए हैं कि आश्चर्य होता है। सवाल हरियाणा भाजपा अध्यक्ष के बेटे का हो या गोरखपुर के राधवदास अस्पताल में मौतों का पक्ष-विपक्ष के रायचंद अपनी राय के साथ खड़े हैं। आखिर क्या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उप्र के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ इतने कमजोर हैं उन्हें आपकी मदद की जरूरत है। ये लोग एक अनियंत्रित भीड़ की तरह सरकार के पक्ष या विपक्ष में कूद पड़ते हैं। पुलिस की विवेचना के पहले ही विश्लेषण कर डालते हैं। किसी को भी स्वीकार या खारिज कर देते हैं। इतनी तुरंता भीड़ इसके पहले कभी नहीं देखी गयी। ये पक्ष लेते समय यह भी नहीं देखते कहां पक्ष लिया जाना है, कहां नहीं। कई बार लगता है परपीड़न में सुख लेना हमारा स्वभाव बन रहा है। चंडीगढ़ की घटना पर भाजपा के कथित समर्थक पीड़ित लड़की वर्णिका कुंडू के चरित्र चित्रण पर उतर आए। आखिर उन्हें यह आजादी किसने दी है कि वे भाजपाई या राष्ट्रवादी होने की खोल में एक स्त्री का चरित्र हनन करें। इसी तरह गोरखपुर के अत्यंत ह्दयविदारक घटनाक्रम में जैसे गलीज टिप्पणियां हुयीं वे चिंता में डालती हैं। लोकतंत्र में मिली अभिव्यक्ति की आजादी का क्या हम इस तरह उपयोग करेंगें?
  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने आप में एक समर्थ और ताकतवर नेता हैं। मुझे नहीं लगता कि किसी सोशल मीडिया एक्टिविस्ट को उनकी मदद की दरकार है लेकिन लोग हैं कि मोदी जी की मदद के लिए मैदान में उतरकर उनकी भी छवि खराब करते हैं। हर बात पर प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री न दोषी हो सकता है न ही उन्हें दोष दिया जाना चाहिए। किंतु अगर लोग किन्हीं कारणों से अपने नेता से सवाल पूछ रहे हैं तो उनसे यह हक नहीं छीना जाना चाहिए। लोग अपने चुने गए प्रधानमंत्री और अन्य जनप्रतिनिधियों से सवाल कर सकते हैं, यह उनका जायज हक है। आप उन्हें ट्रोलिंग करके खामोश करना चाहते हैं तो यह अलोकतांत्रिक आचरण है। एक लोकतंत्र में रहते हुए संवाद-विवाद की अनंत धाराएं बहनी ही चाहिए, भारत तो संवाद परंपरा सबसे जिम्मेदार उत्तराधिकारी है। लेकिन यह संवाद वितंडावाद न बने। कोई भी संवाद समस्या का हल लेकर समाप्त हो, न कि नए विवादों को जन्म दे दें।
   राजनीति के क्षेत्र में सोशल मीडिया के बढ़ते उपयोग और किराए के टट्टुओं ने हालात और बदतर किए हैं। संवाद की शुचिता तो दूर अपने विपक्षी की हर बात की आलोचना और गलत भाषा के इस्तेमाल का चलन बढ़ा है। सारी क्रांति फेसबुक पर कर डालने की मानसिकता से लैस लोग यहां विचरण कर रहे हैं, जिनके पास अध्ययन, तर्क, परंपरा, ज्ञान ,सामयिक यर्थाथ चिंतन का भी अभाव दिखता है पर वे हैं और अपनी चौंकाने वाली घटिया टिप्पणियों से मनोरंजन कर रहे हैं। कुछ ने प्रधानमंत्री की सुपारी ले रखी है। वे दुनिया की हर बुरी चीज के लिए नरेंद्र मोदी को जिम्मेदार मानते हैं। वही मोदी भक्त कहकर संबोधित किया जा रहा संप्रदाय भी है जिसे दुनिया के हर अच्छे काम के लिए मोदी को श्रेय देने की होड़ है। ऐसे में विवेक की जगह कहां है। आलोचनात्मक विवेक को तो छोड़ ही दीजिए। मोदी के साथ हैं या मोदी के खिलाफ हैं। ऐसे में स्वतंत्र चिंतन के लिए ठौर कहां है। मैदान खुला है और आभासी दुनिया में एक ऐसा महाभारत लड़ा जा रहा है जहां कभी कौरव जीतते हैं तो कभी पांडव। किंतु सत्य यहां अक्सर पराजित होता है क्योंकि इस आभासी दुनिया में हर व्यक्ति के सच अलग-अलग हैं। यहां लोग पक्ष तय करके मैदान में उतरते हैं। यहां विरोधी नहीं दुश्मन मानकर बहसें होती हैं। वैचारिक विरोध यहां षडयंत्र और अपमान तक बढ़ जाते हैं। इस युद्ध की सीमा नहीं है। इस युद्ध में एक पक्ष अंततः हारकर मैदान छोड़ देता है और अगली सुबह नए तथ्यों (शायद गढ़े हुए भी) के साथ मैदान में उतरता है। यानि यहां युद्ध निरंतर है। जबकि महाभारत भी 18 दिनों बाद समाप्त हो गया था।
    इस दुनिया में सही या झूठ कुछ भी नहीं है। यहां यही बात मायने रखती है कि आप कहां खड़े हैं। मुख्यधारा का मीडिया भी कमोबेश इसी रोग से ग्रस्त हो रहा है। जहां सबकी पहचान जाहिर हो चुकी है। आप मुंह खोलेंगे, तो क्या बोलेगें यह लोगों को पता है। आप लिखेगें तो कलम किधर झुकी है वह अखबार में आपके नाम और फोटो से पता चल जाता है। पढ़ने की जरूरत नहीं है। एक समय था जब हम अपनी पत्रकारिता की दुनिया के चमकते नामों को इस उम्मीद से पढ़ते थे कि आखिर उन्होंने आज क्या लिखा होगा। जबकि आज ज्यादातर नामों को पढ़कर हम कथ्य का अंदाजा लगा लेते हैं। विश्वास के इस संकट से लड़ना जरूरी है। बौद्धिक दुनिया के सामने यह संकट बिलकुल सम्मुख आ खड़ा हुआ है। सोशल मीडिया की मजबूरियां और उसके इस्तेमाल से उसे नाहक बना देने वालों की मजबूरियां समझी जा सकती हैं, किंतु अगर मुख्यधारा का मीडिया भी सोशल मीडिया से प्रभाव ग्रहण कर उन्हीं गलियों में जा बसेगा तो उसकी विश्वसनीयता के सामने गहरे सवाल खड़े होगें।

   मोदी भक्त और मोदी विरोधियों ने सार्वजनिक संवाद को जिस स्तर पर ला दिया है। वहां से इसे अभी और नीचे जाना है। आने वाले समय में हमारे सार्वजनिक संवाद का चेहरा कितना खौफनाक होगा, यह चीजें हमें बता रहीं हैं। सरकार और पार्टी के प्रवक्ताओं से अलग मानवीय त्रासदी की घटनाओं पर भी हम सरकार और किसी दल की ओर से बोलने लगें तो यह काहे का सोशल मीडिया? सरकार की सफाई हम देने लगेगें तो उनके प्रवक्ता क्या करेगें? जिम्मेदार नागरिकता का पाठ पढ़ने के लिए स्कूल की जरूरत नहीं है किंतु संवेदनशीलता, दिनायतदारी, ईमानदार अभिव्यक्ति की जरूरत जरूर है। लेकिन यह साधारण सा पाठ हम तभी पढ़ सकेगें, जब स्वयं चाहेंगें।

बुधवार, 9 अगस्त 2017

असहिष्णुता की बहस के बीच केरल की राजनीतिक हत्याएं




-संजय द्विवेदी
    केरल में आए दिन हो रही राजनीतिक हत्याओं से एक सवाल उठना लाजिमी है कि भारत जैसे प्रजातांत्रिक देश में क्या असहमति की आवाजें खामोश कर दी जाएगीं? एक तरफ वामपंथी बौद्धिक गिरोह देश में असहिष्णुता की बहस चलाकर मोदी सरकार को घेरने का असफल प्रयास कर रहा है। वहीं दूसरी ओर उनके समान विचारधर्मी दल की केरल की राज्य सरकार के संरक्षण में असहमति की आवाज उठाने वालों को मौत के घाट उतार दिया जा रहा है।
    हमारा संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तथा अपने विचारों के प्रसार की सबको आजादी देता है। भारत के विभिन्न राज्यों में भाषाई मतभेद, जातीय मतभेद और राजनीतिक मतभेद हमेशा से रहे हैं। सरकार की नीतियों का विरोध भी होता रहा है। उसके तरीके जनांदोलन,घरना-प्रदर्शन, नारेबाजी,बाजार बंद कराना जैसे विविध प्रकल्प राजनीतिक दल करते रहे हैं। अभी हाल में ही भारत में हुए राजनीतिक परिवर्तन के तहत केंद्र सहित कई राज्यों में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें जनता के बहुमत से सत्ता में आई हैं। जब यह सत्ता परिवर्तन हो रहा था तो हमारे देश के तथाकथित बुद्धिजीवी इसे पचा नहीं पा रहे थे। और वे छोटी सी बात को तिल  का ताड़ बनाने का काम कर रहे थे। उनकी इस मुहिम में मीडिया का एक बड़ा वर्ग शामिल था। हम देखते हैं कि जहां पर भाजपा शासित राज्य हैं वहां विरोधी दलों के साथ एक लोकतांत्रिक व्यवहार कायम है। लेकिन केरल में जिस तरह से राजनीतिक विरोधियों को कुचलने और समाप्त कर डालने की हद तक जाकर कुचक्र रचे जा रहे हैं,वह आश्चर्य में डालते हैं। केरल में पिछले 13 महीने में दो दर्जन से अधिक स्वयंसेवकों की हत्याएं हो चुकी हैं। यह आंकड़ा पुलिस ने बताया है। जबकि चश्मदीद लोग इससे भी अधिक बर्बरता की कहानी बताते हैं।
   राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहसरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने केरल में हो रही आरएसएस कार्यकर्ताओं की हत्याओं का आरोप सीपीएम पर लगाया है। उनका कहना है कि जिस-जिस क्षेत्र में सरकार की नीतियों का हमारे कार्यकर्ता लोकतांत्रिक ढंग से विरोध करते हैं, उन्हें या तो पुलिस थानों में अकारण बंद कर दिया जाता है और बाद में झूठे मुकदमे लादकर अपराधी घोषित कर दिया जाता है। कई जगहों पर स्वयंसेवकों को घरों से खींचकर गोलियों से उड़ाया जा रहा है।यह तांडव राज्य सरकार के संरक्षण में वामपंथी कार्यकर्ता कर रहे हैं। चूंकि शासन- सरकार का वामपंथियों को संरक्षण प्राप्त है इसलिए उनके खिलाफ कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हो रही है। केरल की इन रक्तरंजित घटनाओं को लेकर पिछले दिनों लोकसभा में भी जमकर हंगामा हुआ। जबकि केंद्र सरकार ने केरल के मुख्यमंत्री से इस संबंध में जवाब तलब किया है। परंतु आरएसएस का मानना है कि राज्य सरकार के इशारे पर अफसर सही जानकारी केंद्र को नहीं भेजते हैं।
   केरल में जो घटनाएं हो रही हैं वे कम्युनिस्टों की तालिबानी मानसिकता का परिचायक हैं ये पूरी तरह लक्षित और सुनियोजित हमले हैं। इन हमलों में मुख्य रूप से दलित स्वयंसेवकों को निशाना बनाया गया है। केरल में आरएसएस के बढ़ते प्रभाव और वामपंथियों की खिसकती जमीन के चलते वामपंथी हिंसक हो रहे हैं। वे आरएसएस सहित दूसरे विरोधियों पर भी हिंसक हमले कर रहे हैं। पर न जाने किन राजनीतिक कारणों से कांग्रेस वहां खामोश है, जबकि उनके अपने अनेक कार्यकर्ताओं पर जानलेवा हमले हुए हैं और कई की जानें भी गयी हैं। एक तरफ लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा का आलाप और दूसरी तरफ विरोधी विचारों को खामोश कर देने की खूनी जंग भारतीय वामपंथियों के असली चेहरे को उजागर करती है। यह बात बताती है कि कैसे विपक्ष में रहने पर उनके सुर अलग और सत्ता में होने पर उनका आचरण क्या होता है। निर्दोष संघ कार्यकर्ता तो किसी राजनीतिक दल का हिस्सा भी नहीं हैं किंतु फिर भी उनके साथ यह आचरण बताता है कि वामपंथी किस तरह हिंदू विरोधी रूख अख्तियार किए  हुए हैं। राजनीति के क्षेत्र में केरल एक ऐसा उदाहरण है जिसकी बबर्रता की मिसाल मिलना कठिन है। एक सुशिक्षित राज्य होने के बाद भी वहां के मुख्य और सत्तारूढ़ दल का आचरण आश्चर्य चकित  करता है। पिछले दिनों केरल की घटनाओं की आंच तो दिल्ली तक पहुंची है और लोकसभा में इसे लेकर हंगामा हुआ है। भाजपा ने केरल की घटनाओं पर चिंता जताते हुए एनआईए या सीबीआई जांच की मांग की है।
  हमें यह देखना होगा कि हम ऐसी घटनाओं पर किस तरह चयनित दृष्टिकोण अपना रहे हैं। अल्पसंख्यकों पर होने वाले हमलों पर हमारी पीड़ा छलक पड़ती है किंतु जब केरल में किस दलित हिंदु युवक  के साथ यही घटना होती है हमारी राजनीति और मीडिया, खामोशी की चादर ओढ़ लेते हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसे राष्ट्रवादी संगठन के कार्यकर्ताओं के साथ हो रहे बर्बर आचरण पर किसी को कोई दर्द नहीं है। हमें देखना होगा कि आखिर हम कैसा लोकतंत्र बना रहे हैं। हम किस तरह विरोधी विचारों को नष्ट कर देना चाहते हैं। आखिर इससे हमें क्या हासिल हो रहा है। क्या राजनीति एक मनुष्य की जान से बड़ी है। क्या संघ के लोगों को केरल में काम करने का अधिकार नहीं है।आरएसएस नेता दत्तात्रेय होसवाले ने अपनी प्रेस कांफ्रेस में जो वीडियो जारी किए हैं वह बताते हैं कि वामपंथी किस दुष्टता और अमानवीयता पर आमादा हैं और लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन कर रहे हैं। किस तरह वे गांवों में जूलूस निकालकर संघ के स्वयंसेवकों को कुत्ते की औलाद कहकर नारे बाजी कर रहे हैं।वे धमकी भरी भाषा में नारे लगा रहे हैं कि अगर संघ में रहना है तो अपनी मां से कहो वे तुम्हें भूल जाएं। आखिर यह किस राजनीतिक दल की सोच और भाषा है? आखिर क्या वामपंथी का वैचारिक और सांगठनिक आधार दरक गया है जो उन्हें भारतीय लोकतंत्र में रहते हुए इस भाषा का इस्तेमाल करना पड़ रहा है या यह उनका नैसर्गिक चरित्र है। कारण जो भी हों लोकतांत्रिक मूल्यों में आस्था रखने वाली हर आवाज को आज केरल में आरएसएस के साथ खड़े होकर इन निर्मम हत्याओं की निंदा करनी चाहिए।

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शनिवार, 15 जुलाई 2017

मोदी विमर्श का दस्तावेज है मोदी युग

समीक्षक – डा.शाहिद अली *


प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी केवल भारत ही नहीं बनिस्बत दुनिया के देशों के लिए एक विमर्श का विषय बन चुके हैं। भारत की राजनीति में आजादी के बाद श्री नरेन्द्र मोदी पहले नेता बन चुके हैं जो किसी राजनीति के राजाश्रय से नहीं जन्में हैं किन्तु उनकी ताकतवर छवि और नेतृत्व किसी अचंभे से कम नहीं है। भारत में अच्छे दिन आने वाले हैं, की खोज के संकल्प से शुरु प्रधानमंत्री के रुप में श्री नरेन्द्र मोदी का सफर किसी करिश्माई नेता से कम नहीं है जो दुनिया के लोगों का ध्यान निरंतर अपनी ओर खींचता है। भारतीय राजनीति के परिदृश्य में ऐसा पहली बार हुआ है कि भारत का कोई प्रधानमंत्री विदेशों में बसे भारतीय समुदाय के लिए भी लोकप्रिय श्री नरेन्द्र मोदी अन्तर्राष्ट्रीय जगत में भारतीयों की स्थिति को सशक्त बनाने में पूरी ताकत से लगे हुए हैं। नोटबंदी और जी.एस.टी. जैसे क्रांतिकारी आर्थिक सुधारों की दिशा में कदम रखते हुए प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी भारत की नई पहचान का पर्याय बन चुके हैं। डिजीटल इंडिया की सुनहरी तस्वीर में स्वच्छ भारत के सपने को साकार करने का बीड़ा उठाने वाले राजनेता श्री नरेंद्र मोदी एक तरफ लोगों की सराहना बटोरते हैं तो दूसरी तरफ मीडिया सहित विपक्ष की आलोचना का भी सामना करते हैं। इन्हीं चुनौतियां के बीच मोदी युग की जमीन को देखने का काम लेखक एवं शिक्षाविद श्री संजय द्विवेदी करते हैं।
लगभग दो दशक से भारतीय राजनीति के टिप्पणीकार श्री संजय द्विवेदी विभिन्न विषयों पर अपनी सधी हुई कलम से समकालीन मुद्दों को रेखांकित करने का काम कर रहे हैं। श्री द्विवेदी ने मीडिया विमर्श की मशाल से सच्ची पत्रकारिता की रोशनी में राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली अनेक घटनाओं पर सही समय और सही रुप  में अनेकों टिप्पणियों से पाठकों को नए चिंतन से जोड़ने का सराहनीय लेखन किया है। इसी क्रम में वे जन-जन के लोकप्रिय राजनेता श्री नरेन्द्र मोदी के राजनीतिक कार्यशैली को भी नजदीक से देखते हैं और मोदी युग की ग्रंथावली बिना किसी पक्षपात के अपने सैंकड़ों पाठकों और प्रशंसकों के सामने रखते हैं। जिसे आज सर्वाधिक पढा जा रहा है।
मीडिया शिक्षा से जुड़े श्री द्विवेदी के समक्ष मोदी का व्यक्तित्व, वैचारिक आकाश और उनके राजनीतिक फैसलों का लोगों पर पड़ने वाला प्रभाव विशेष अभिरुचि बन कर उभरा है। यही कारण है कि श्री द्विवेदी, मोदी सरकार के कार्यों और उसकी कार्यशैली पर लिखे 63 आलेखों के संकलन से मोदी युग को कलमबद्ध करने का प्रयास करते हैं। इस कृति में लेखक की मान्यता है कि लंबे समय बाद भाजपा में अपनी वैचारिक लाईन को लेकर गर्व का बोध दिख रहा है। अरसे बाद वे भारतीय राजनीति के सेक्युलर संक्रमण से मुक्त होकर अपनी वैचारिक भूमि पर गरिमा के साथ खड़े हैं।
उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान श्री नरेन्द्र मोदी की अग्निपरीक्षा और कैशलेस व्यवस्था पर मोदी युग का विश्लेषण अति उत्तम है। मोदी ने स्मार्ट सिटी, स्टैंड अप इंडिया, स्टार्ट अप इंडिया, स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया जैसे नारों से भारत के नव मध्य वर्ग को आकर्षित किया था किन्तु बिहार और दिल्ली विधानसभा में मिली हार कई सवालों और आलोचनाओं को जन्म देती है, इसकी पड़ताल भी लेखक बेहद संजीदा होकर करते हैं। वे विपक्ष को टटोलते हैं कि आखिर क्या वज़हें हैं कि जनता कई बार तकलीफों में होने के बावजूद मोदी के विरोध पर चुप क्यों हो जाती है। काले धन के खिलाफ आभासी की लड़ाई, जेएनयू के भारत विरोधी, शहादत और मातम, साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की घटनाएँ, सांप्रदायिक हिंसा के खतरे, उद्योग जगत की चिंताएं, भारत पाक रिश्ते, कश्मीर की घटनाएं इत्यादि लेखों को गहराई से मोदी युग में पढ़ा जा सकता है।
अक्सर राजनीतिक लेखन में भावात्मक पक्षधरता हावी होती है। इसका यह नुक़सान होता है कि हम राजनीतिक घटनाओं की गवेषणा निष्पक्षता से नहीं कर पाते हैं। किन्तु मोदी युग को सामने लाते हुए लेखक ने स्वयं को भावात्मक पक्षधरता से सर्वथा अलग रखा है। इन कारणों से इस कृति को देखने का नजरिया पाठकों के लिए भी उसे निष्पक्षता के साथ निर्णय करने में मदद करता है। लेखक आशावादी हैं। मोदी को जिन आशाओं पर खरा उतरना है उसके लिए सचेत भी करते हैं। मसलन अरसे बाद मुस्कुराया देश, विश्व मंच पर भारत का परचम, बौद्धिक वर्ग और मोदी सरकार, मोदी सरकार कितना इंतजार, राष्ट्रवाद, शक्ति को सृजन में लगाएं मोदी जैसे लेखों की श्रृंखला अहम मसलों पर ध्यान केन्द्रित करती है। यहां लेखन सफल हो जाता है।
इन दिनों सरकार से ज्यादा चर्चा राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की होती है। संघ के लिए यह बात अहम है कि संघ की नई सामाजिक अभियांत्रिकी के प्रयोगों में एक स्वयं सेवक नरेन्द्र मोदी देश में सकारात्मक नेतृत्व देने में वरदान साबित हो रहे हैं। इस मायने में संघ का मार्गदर्शन स्वयं सेवक के लिए जरुरी है कि वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की लंबी साधना एवं परिश्रम को विफल न होने दे। लेखक ने आरएसएस के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत की सलाह का हवाला भी इन लेखों में दिया है साथ ही संघ परिवार के रणनीतिकारों सर्वश्री भैयाजी जोशी, सुरेश सोनी, दत्तात्रेय होसबोले, डा.कृष्ण गोपाल, मनमोहन वैद्य एवं राम माधव के विविध दायित्वों पर भी प्रकाश डाला है।
लालकृष्ण आडवाणी से लेकर समकालीन राजनेताओं और नए राजनीतिक परिदृश्य में उभरते युवा नेतृत्व में मोदी के रिश्ते और गर्माहट का अहसास भी इस मोदी युग की कृति में होता है। आखिर मोदी होने का क्या मतलब है यह पुस्तक का प्रमुख आकर्षण है। लेखक की  यह मान्यता है कि मोदी की भाषण कला, भाजपा का विशाल संगठन, कांग्रेस सरकार की विफलताएं और भ्रष्टाचार की कथाएँ मिलकर मोदी को महानायक के शीर्ष पर लाती हैं। कुल मिलाकर लेखक श्री संजय द्विवेदी का मोदी युग का 249 पृष्ठीय दस्तावेज अद्वितीय लेखन का प्रकाशपुंज है। मोदी युग की इस कृति में देश के प्रख्यात टीकाकारों, पत्रकारों, मीडिया शिक्षकों सर्वश्री विजय बहादुर सिंह, अकु श्रीवास्तव, आशीष जोशी, इंदिरा दागी, डा.वर्तिका नंदा, तहसीन मुनव्वर और सईद अंसारी की सटीक टिप्पणियां भी हैं। लोकप्रिय राजनेता श्री नरेन्द्र मोदी के ऐतिहासिक छायाचित्रों से युक्त यह पुस्तक विद्यार्थियों, शिक्षकों, राजनीति और समाज सेवा से जुड़े सभी वर्गों के लिए पठनीय तथा संग्रहणीय है।


पुस्तक: मोदी युग, लेखक: संजय द्विवेदी
प्रकाशकः पहले पहल प्रकाशन , 25, प्रेस काम्पलेक्स, एम.पी. नगर,
भोपाल (म.प्र.) 462011मूल्य: 200 रूपए, पृष्ठ-250

समीक्षकः *एसोसिएट प्रोफेसर, जनसंचार विभाग
 कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय, रायपुर (छ.ग.)

                                    E-Mail : drshahidktujm@gmail.com

सोमवार, 10 जुलाई 2017

भारत और इजराइल के रिश्तेःसंस्कृति के दो पाट

-संजय द्विवेदी

   इजराइल और भारत का मिलन दरअसल दो संस्कृतियों का मिलन है। वे संस्कृतियां जो पुरातन हैं, जड़ों से जुड़ी है और जिन्हें मिटाने के लिए सदियां भी कम पड़ गयी हैं। दरअसल यह दो विचारों का मिलन है, जिन्होंने इस दुनिया को बेहतर बनाने के लिए सपने देखे। वे विचार जिनसे दुनिया सुंदर बनती है और मानवता का विस्तार होता है। भारत की संस्कृति जहां समावेशी और सबको साथ लेकर चलने की पैरवी करती है, वहीं इजराइल ने एक अलग रास्ता पकड़ा, वह अपने विचारों को लेकर दृढ़ है और आत्ममुग्धता की हद तक स्वयं पर भरोसा करता है। उसके बाद आए विचार इस्लाम और ईसायत की आक्रामकता और विस्तारवादी नीतियों के बाद भी अगर भारत और इजराइल दोनों इस जमीन पर हैं, तो यह सपनों को जमीन पर उतर जाने जैसा ही है। ये दोनों देश बताते हैं कि लाख षडयंत्रों के बाद भी अगर विचार जिंदा है, संस्कृति जिंदा है तो देश फिर धड़कने लगते है। वे खड़े हो जाते हैं। दोनों देश दरअसल अपनी सांस्कृतिक परंपरा के आधार पर आज तक जीवित हैं और निरंतर उसका परिष्कार कर रहे हैं। तमाम टकराहटों, हमलों, विनाशकारी षडयंत्रों के बाद भी यहूदी और हिंदू संस्कृति एक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक सत्य की तरह वैश्विक पटल पर आज भी कायम हैं।  
    भारत के साथ इजराइल के रिश्ते बहुत सहमे-सहमे से रहे हैं। भला हो पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंहराव का जिन्होंने हमें इजराइल से रिश्तों को लेकर हमें सहज बनाया और हमारे रिश्ते प्रारंभ हुए। यह भारतीय हिचक ही हमें दुनिया भर में दोस्त और दुश्मन पहचानने में संकट में डालती रही है। सत्तर वर्षों के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री की इजराइल यात्रा आखिर क्या बताती है? यह हमारी कमजोर राजनीतिक इच्छाशक्ति का सबसे बड़ा प्रमाण है। जो हमारे घरों में बम बरसाते रहे, सीमा पर कायराना हरकतें करते रहे उनके लिए हम लालकालीन बिछाते रहे, क्रिक्रेट खेलते रहे, हिंदी-चीनी भाई-भाई करते रहे किंतु सूदूर एकांत में खड़ा एक प्रगतिशील और वैज्ञानिक प्रगति के शिखर छू रहा एक देश हमें चाहता रहा, दोस्ती के हाथ बढ़ाए खड़ा रहा पर हम संकोच से भरे रहे। यह संकोच क्या है? यही न कि हिंदुस्तानी मुसलमान इस दोस्ती पर नाराज होगा। आखिर इजराइल-फिलिस्तीन के मामले से हिंदुस्तानी मुसलमान का क्या लेना देना? हमें आखिर क्या पड़ी है,जब दुनिया के तमाम मुस्लिम देश भी इजराइल से रिश्ते और संवाद बनाए हुए हैं। शक्ति की आराधना दुनिया करती है और वैज्ञानिक प्रगति के आधार पर इजराइल आज एक ऐसी शक्ति से जिससे कोई भी सीख सकता है। अपनी माटी के प्रति प्रेम, अपने राष्ट्र के प्रति अदम्य समर्पण हमें इजराइल सिखाता है, किंतु हम हैं कि अपने कायर परंपरावादी रवैये में दोस्त और दुश्मन का अंतर भी भूल गए हैं। भला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का कि उन्होंने अपने साहस और इच्छाशक्ति से वह कर दिखाया है जिसकी हिम्मत हमारे तमाम नायक नहीं कर पाए।
    विश्व शांति का उपदेश देने वाली शक्तियां भी दरअसल शक्ति संपन्न देश हैं। दुर्बल व्यक्ति का शांति प्रवचन कौन सुनता है। आज हमें यह तय करना होगा कि भारत अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को चुनौती देने वाले किसी विचार को सहन नहीं करेगा। भारत अपने सभी पूर्वाग्रहों को छोड़कर अपने शत्रु और मित्र चुनेगा। आखिर क्या कारण है कि ईरान के सर्वोच्च नेता कश्मीर की जंग में पाकिस्तान की तरह कश्मीरी अतिवादियों को समर्थन देते हुए दिखते हैं। ऐसे में भारत को क्यों यह अधिकार नहीं है कि वह उन राष्ट्रों के साथ समन्वय करे जो वैश्विक इस्लामी आतंकवाद के विरूद्ध खड़े हैं।
   भारत की वर्तमान सरकार के प्रयत्नों से वैश्विक स्तर पर भारत का जो मान बढ़ा है और उसकी आवाज सुनी जा रही है।वह एक दुर्लभ क्षण है। भारत अब एक दुर्बल राष्ट्र की छवि को छोड़कर अपने पुरूषार्थ का अवगाहन कर रहा है। वह स्वयं की शक्ति को पहचान रहा है। हमें भी इजराइल और उसके नागरिकों के आत्मसंघर्ष को समझना होगा। हमें समझना होगा कि किस प्रकार इजराइल के नागरिकों ने अपने सपने को जिंदा रखा और एक राष्ट्र के रूप में आकार लिया। देश के प्रति उनकी निष्ठा, उनका समर्पण हमें सिखाता है कि कैसे हम अपने देश को एक रख सकते हैं। भारत और इजराइल के स्वभाव का अंतर आप इससे समझ सकते हैं कि गुलामी के लंबे कालखंड ने हमें हमारी चीजों से विरक्त कर दिया, हम आत्महीनता से भर गए, आत्मदैन्य से भर गए। अपनी जमीन पर भी लांछित रहे। वहीं इजराइल के लोगों ने उजाड़े जाने के बाद भी अपने को दैन्य से भरने नहीं दिया, सर ऊंचा रखा और अपने राष्ट्र के सपने को मरने नहीं दिया। यहीं हिंदु संस्कृति और यहूदी संस्कृति के अंतर को समझा जा सकता है। काल के प्रवाह से अविचल यहूदी अपनी मातृभूमि का स्वप्न देखते रहे, हम अपनी मातृभूमि पर रह कर भी विस्मरण के शिकार हो गए। लेकिन हर राष्ट्र का एक स्वप्न होता है जो जिंदा रहता है। इसीलिए हमारे आत्मदैन्य को तोड़ने वाले नायक आए, हमें गुलामी से मुक्ति मिली और हमने अपनी जमीन फिर से पा ली। लेकिन राष्ट्रों का भाग्य होता है। इजराइल में जो आए वे एक सपने के साथ थे, उनका सपना इजराइल को बनाना था, उसके उन्हीं मूल्यों पर बनाना था, जिनके लिए वे हजारों मुसीबतें उठाकर भी वहां आए थे। हमें बलिदानों के बाद आजादी मिली, किंतु हमने उसकी कीमत कहां समझी। हम एक ऐसा देश बनाने में लग गए जिसकी जड़ों में भारतीयता और राष्ट्रवाद के मूल्य नहीं थे। विदेशी समझ,विदेशी भाषा और विदेशी चिंतन के आधार पर जो देश खड़ा हुआ, वह भारत नहीं इंडिया था। इस यात्रा को सत्तर सालों के बाद विराम लगता दिख रहा है। भारत एक जीता जागता राष्ट्रपुरूष है और वह अपने को पहचान रहा है। सही मायनों में ये दो-तीन साल भारत से भारत के परिचय के भी साल हैं। राजनीतिक संस्कृति से लेकर सामाजिक स्तर पर इसके बदलाव परिलक्षित हो रहे हैं। इजराइल की ओर बढ़े हाथ दरअसल खुद को भी पहचानने की तरह हैं। भूले हुए रास्तों के याद आने की तरह हैं। उन जड़ों और गलियों में लौटने की तरह हैं, जहां भारत की रूहें बसती और धड़कती हैं। इजराइल जैसे देश में होना दरअसल भारत में होना भी है। दुनिया की दो पुरातन संस्कृतियों-परंपराओं और जीवन शैलियों का मिलन साधारण नहीं हैं। यह एक नई दुनिया जरूर है लेकिन वह अपनी जड़ों से जुड़ी है। उन जड़ों से जिन्हें सींचने में पीढ़ियां लगीं हैं। एक बार भारत दुनिया के चश्मे से खुद को देख रहा है, उसे अपने निरंतर तेजमय होने का अहसास हो रहा है। इजराइल यात्रा के बहाने प्रधानमंत्री ने सालों की दूरियां दिनों में पाट दीं हैं, हमें भरोसा दिया है कि भारत अपने आत्मविश्वास से एक बार फिर से अपनी उम्मीदों में रंग भरेगा। आम हिंदुस्तानी अपने प्रधानमंत्री के वैश्विक नेतृत्व के इस दृश्य पर मुग्ध है।


सोमवार, 3 जुलाई 2017

मोदीः जनविश्वास पर खरा उतरने की चुनौती

-संजय द्विवेदी

  जिस दौर में राजनीति और राजनेताओं के प्रति अनास्था अपने चरम पर हो, उसमें नरेंद्र मोदी का उदय हमें आश्वस्त करता है। नोटबंदी, कैसलेश जैसी तमाम नादानियों के बाद भी नरेंद्र मोदी लोगों के दुलारे बने हुए हैं, तो यह मामला गंभीर हो जाता है। आखिर वे क्या कारण हैं जिसके चलते नरेंद्र मोदी अपनी सत्ता के तीन साल पूरे करने के बाद भी लोकप्रियता के चरम पर हैं। उनका जादू चुनाव दर चुनाव जारी है और वे हैं कि देश-विदेश को मथे जा रहे हैं। इस मंथन से कितना विष और कितना अमृत निकलेगा यह तो वक्त बताएगा, पर यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए वे उम्मीदों को जगाने वाले नेता साबित हुए हैं।
  नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व का विश्लेषण करते हुए चार बातें सामने आती हैं- एक तो उनकी प्रामाणिकता अंसदिग्ध है, यानी उनकी नीयत पर आम जनता का भरोसा कायम है। दूसरा उन-सा अथक परिश्रम और पूर्णकालिक राजनेता अभी राष्ट्रीय परिदृश्य पर कोई और नहीं है। तीसरा ताबड़तोड़ और बड़े फैसले लेकर उन्होंने सबको यह बता दिया है कि सरकार क्या सकती है। इसमें लालबत्ती हटाने, सर्जिकल स्ट्राइक, नोटबंदी, कैशलेस अभियान और जीएसटी को जोड़ सकते हैं। चौथी सबसे बड़ी बात उन्होंने एक सोए हुए और अवसादग्रस्त देश में उम्मीदों का ज्वार खड़ा कर दिया है। आकांक्षाओं को जगाने वाले राजनेता होने के नाते उनसे लोग जुड़ते ही जा रहे हैं। अच्छे दिन भले ही एक जुमले के रूप में याद किया जाए पर मोदी हैं कि देश के युवाओं के लिए अभी भी उम्मीदों का चेहरा है। यह सब इसके बाद भी कि लोग महंगाई से बेहाल हैं, बैंक अपनी दादागिरी पर आमादा हैं। हर ट्रांजिक्शन आप पर भारी पड़ रहा है। यानी आम लोग मुसीबतें सहकर, कष्ट में रहकर भी मोदी-मोदी कर रहे हैं तो इस जादू को समझना जरूरी है। अगर राजनीति ही निर्णायक है और चुनावी परिणाम ही सब कुछ कहते हैं तो मोदी पर सवाल उठाने में हमें जल्दी नहीं करनी चाहिए। नोटबंदी के बाद उत्तर प्रदेश एक अग्निपरीक्षा सरीखा था, जिसमें नरेंद्र मोदी और उनकी टीम ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया है। ऐसे में आखिर क्या है जो मोदी को खास बनाता है। अपने कष्टों को भूल कर, बलिदानों को भूलकर भी हमें मोदी ही उम्मीद का चेहरा दिख रहे हैं। आप देखें तो आर्थिक मोर्चे पर हालात बदतर हैं। चीजों के दाम आसमान पर हैं। भरोसा न हो तो किसी भी शहर में सिर्फ टमाटर के दाम पूछ लीजिए। काश्मीर के मोर्चे पर हम लगातार पिट रहे हैं। सीमा पर भी अशांति है। पाक सीमा के साथ अब चीन सीमा पर भी हालात बुरे हैं। सरकार के मानवसंसाधन मंत्रालय का हाल बुरा है। तीन साल से नई शिक्षा नीति लाते-लाते अब उन्होंने कस्तूरीरंगन जी की अध्यक्षता में एक समिति बनाई है। जाहिर है हीलाहवाली और कामों की प्राथमिकता में इस सरकार का अन्य सरकारों जैसा बुरा है। दूसरा नौकरशाही पर अतिशय निर्भरता और अपने काडर और राजनीतिक तंत्र पर अविश्वास इस सरकार की दूसरी विशेषता है। लोगों को बेईमान मानकर बनाई जा रही नीतियां आर्थिक क्षेत्र में साफ दिखती हैं। जिसका परिणाम छोटे व्यापारियों और आम आदमी पर पड़ रहा है। बैंक और छोटी जमा पर घटती ब्याज दरें इसका उदाहरण हैं। यहां तक कि सुकन्या समृद्धि और किसान बचत पत्र भी इस सरकार की आंख में चुभ रहे हैं। आम आदमी के भरोसे और विश्वास पर चढ़कर आई सरकार की नीतियां आश्चर्य चकित करती हैं। विश्व की मंदी के दौर में भी हमारे सामान्य जनों की बचत ने इस देश की अर्थव्यवस्था को बचाए रखा, आज हालात यह हैं कि हमारी बचत की आदतों को हतोत्साहित करने और एक उपभोक्तावादी समाज बनाने के रास्ते पर सरकार की आर्थिक नीतियां हैं। आखिर छोटी बचत को हतोत्साहित कर, बैकों को सामान्य सेवाओं के लिए भी उपभोक्ताओ से पैसे लेने की बढ़ती प्रवृत्ति खतरनाक ही कही जाएगी। आज हालात यह हैं कि लोगों को अपने बैंक में जमा पैसे पर भी भरोसा नहीं रहा। इस बढ़ते अविश्वास के लिए निश्चित ही सरकार ही जिम्मेदार है।
   अब सवाल यह उठता है कि इतना सारा  कुछ जनविरोधी तंत्र होने के बाद भी मोदी की जय-जयकार क्यों लग रही है। इसके लिए हमें इतिहास की वीथिकाओं में जाना होगा जहां लोग अपने ताकतवर नेता पर भरोसा करते हैं और उससे जुड़ना चाहते हैं। आज अगर नरेंद्र मोदी की तुलना इंदिरा गांधी से हो रही है तो कुछ गलत नहीं है। क्योंकि उनकी तुलना मनमोहन सिंह से नहीं हो सकती। किंतु मनमोहन सिंह के दस साल को गफलत और गलतियों भरे समय ने ही नरेंद्र मोदी को यह अवसर दिया है। मनमोहन सिंह ने देश को यह अहसास कराया कि देश को एक ताकतवर नेता की जरूरत है जो कड़े और त्वरित फैसले ले सके। उस समय अपने व्यापक संगठन आधार और गुजरात की सरकार के कार्यकाल के  आधार पर नरेंद्र मोदी ही सर्वोच्च विकल्प थे। यह मनमोहन मार्का राजनीति  से ऊब थी जिसने मोदी को एक बड़ा आकाश दिया। यह अलग बात है कि नरेंद्र मोदी अब प्रशासनिक स्तर पर जो भी कर रहे हों पर राजनीतिक फैसले बहुत सोच-समझ कर ले रहे हैं। उप्र में योगी आदित्यनाथ की ताजपोशी से लेकर राष्ट्रपति चयन तक उनकी दूरदर्शिता और राजनीति केंद्रित निर्णय सबके सामने हैं।
   जाहिर तौर पर मोदी इस समय की राजनीति का प्रश्न और उत्तर दोनों हैं। वे संकटकाल से उपजे नेता हैं और उन्हें समाधान कारक नेता होना चाहिए। जैसे बेरोजगारी के विकराल प्रश्न पर, सरकार की बेबसी साफ दिखती है। प्रचार, इवेंट्स और नारों से अलग इस सरकार के रिपोर्ट कार्ड का आकलन जब भी होगा, उससे वे सारे सवाल पूछे जाएंगें, जो बाकी सत्ताधीशों से पूछे गए। भावनात्मक भाषणों, राष्ट्रवादी विचारों से आगे एक लंबी जिंदगी भी है जो हमेशा अपने लिए सुखों, सुविधाओं और सुरक्षा की मांग करती है। आक्रामक गौरक्षक, काश्मीर घाटी के पत्थरबाज, नक्सली आतंकी एक सवाल की तरह हमारे सामने हैं। आकांक्षाएं जगाने के साथ आकांक्षाओं को संबोधित करना भी जरूरी है। नरेंद्र मोदी के लिए आने वाला समय इस अर्थ में सरल है कि विपक्ष उनके लिए कोई चुनौती पेश नहीं कर पा रहा है, पर इस अर्थ में उनकी चुनौती बहुत कठिन है कि वे उम्मीदों को जगाने वाले नेता हैं और उम्मीदें तोड़ नहीं सकते। अब नरेंद्र मोदी की जंग दरअसल खुद नरेंद्र मोदी से है। वे ही स्वयं के प्रतिद्वंद्वी हैं। 2014 के चुनाव अभियान में गूंजती उनकी आवाज मैं देश नहीं झुकने दूंगा, लोगों के कानों में गूंज रही है। आज के प्रधानमंत्री के लिए ये आवाजें एक चुनौती की तरह हैं, क्योंकि उसने देशवासियों से अच्छे दिन लाने के वादे पर वोट लिए थे। लोग भी आपको वोट करते रहेगें जब उन्हें भरोसा ना हो जाए कि 2014 का आपका सारा चुनाव अभियान और उसके नारे एक जुमले की तरह थे। कांग्रेसमुक्त भारत के लिए देश ने आपको वोट नहीं दिए थे। कांग्रेस की सरकार से ज्यादा मानवीय, ज्यादा जनधर्मी, ज्यादा संवेदनशील शासन के लिए लोगों ने आपको चुना था, साहेब भी शायद इस भावना को समझ रहे होगें।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं) 

मंगलवार, 27 जून 2017

मोदी राजनीति का दस्तावेज 'मोदी युग'

लोकेन्द्र सिंह

यह मानने में किसी को कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि हमारे समय में भारतीय राजनीति के केंद्र बिन्दु नरेन्द्र मोदी हैं। राजनीतिक विमर्श उनसे शुरू होकर उन पर ही खत्म हो रहा है। भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस से लेकर बाकि राजनीतिक दलों की राजनीतिक रणनीति में नरेन्द्र मोदी प्राथमिक तत्व हैं। विधानसभा के चुनाव हों या फिर नगरीय निकायों के चुनावभाजपा मोदी नाम का दोहन करने की योजना बनाती हैजबकि दूसरी पार्टियां मोदी की काट तलाशती हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के समर्थक जहाँ प्रत्येक सफलता को नरेन्द्र मोदी के प्रभाव और योजना से जोड़कर देखते हैंवहीं मोदी आलोचक (विरोधी) प्रत्येक नकारात्मक घटना के पीछे मोदी को प्रमुख कारक मानते हैं। इसलिए जब राजनीतिक विश्लेषक संजय द्विवेदी भारतीय राजनीति के वर्तमान समय को 'मोदी युग' लिख रहे हैंतब वह कोई अतिशयोक्ति नहीं है। अपनी नई पुस्तक 'मोदी युग : संसदीय लोकतंत्र का नया अध्याय' में उन्होंने वर्तमान समय को उचित ही संज्ञा दी है। ध्यान कीजिएसंयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) और कांग्रेसनीत केंद्र सरकार को कब और कितना 'मनमोहन सरकार' कहा जाता था?उसे तो संप्रग के अंग्रेजी नाम 'यूनाइटेड प्रोगेसिव अलाइंसके संक्षिप्त नाम 'यूपीए सरकारसे ही जाना जाता था। इसलिए जब राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) और भाजपानीत सरकार को 'मोदी सरकार' कहा जा रहा हैतब कहाँ संदेह रह जाता है कि भारतीय राजनीति यह वक्त 'मोदीमय' है। हमें यह भी निसंकोच स्वीकार कर लेना चाहिए कि आने वाला समय नेहरूइंदिरा और अटल युग की तरह मोदी युग को याद करेगा। यह समय भारतीय राजनीति की किताब के पन्नों पर हमेशा के लिए दर्ज हो रहा है। भारतीय राजनीति में इस समय को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा। इसलिए 'मोदीयुग'पर आई राजनीतिक चिंतक संजय द्विवेदी की किताब महत्वपूर्ण है और उसका अध्ययन किया जाना चाहिए।
            लेखक संजय द्विवेदी की पुस्तक 'मोदी सरकारके तीन साल के कार्यकाल का मूल्यांकन करती है। श्री द्विवेदी के पास राजनीतिक विश्लेषण का समृद्ध अनुभव है। पत्रकारिता में भी शीर्ष पदों पर रहकर उन्होंने राजनीति को बरसों बहुत करीब से देखा है। मोदी सरकार के सत्ता में आने के पहले से नरेन्द्र मोदी की राजनीति पर लेखक की पैनी नजर रही है। नरेन्द्र मोदी की राजनीति पर केंद्रित उनकी एक पुस्तक वर्ष 2014 में आई थी- 'मोदीलाइव'। यह पुस्तक 2014 के अभूतपूर्व चुनाव का अहम दस्तावेज थी। जबकि 'मोदी युगमोदी सरकार के तीन साल के कार्यकाल और इन तीन साल में मोदी राजनीति का महत्वपूर्ण दस्तावेज है। मोदीयुग नाम से ऐसा नहीं समझा जाना चाहिए कि यह पुस्तक मोदी सरकार का गुणगान करती है। ऐसा भ्रम होना स्वाभाविक हैक्योंकि इस समय मोदी की खुशामद में अनेक पुस्तकें आ रही हैं। प्रधानमंत्री मोदी हमारे समय का ऐसा राजनीतिक व्यक्तित्व हैं कि उन पर अनेक लोग अपने-अपने अंदाज से लिख रहे हैं। मोदीयुग में मोदी की जय-जयकार होगीकुछ लोगों को ऐसा भ्रम इसलिए भी हो सकता है क्योंकि लेखक संजय द्विवेदी की पहचान 'राष्ट्रीय विचारधारा के लेखक' के नाते भी है। किन्तुमोदी राजनीति पर केंद्रित अपने आलेखों में लेखक ने अपने लेखकीय धर्म को बहुत जिम्मेदारी से निभाया है। उन्होंने मोदी सरकार की लोककल्याणकारी नीतियों का समर्थन भी किया हैतो अनेक स्थानों पर सवाल भी खड़े किए हैं। एक अच्छे लेखक की यही पहचान है कि जब वह राजनीति का ईमानदारी से विश्लेषण करता हैतब अपने वैचारिक आग्रह को एक तरफ रखकर चलता है। वैसे भी राष्ट्रवादी विचारकों के लिए अपने वैचारिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए राजनीति साधन नहीं हैजिस प्रकार कम्युनिस्टों के लिए राजनीति ही उनके वैचारिक लक्ष्यपूर्ति का साधन है। यहाँ वैचारिक धरातल पर खड़े रहकर राजनीति का निष्पक्ष मूल्यांकन संभव है। आवरण के बाद दो पृष्ठ पलटने के बाद ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह-सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले का चित्र देखकर भी यह भ्रम हो सकता है कि इस पुस्तक में भाजपा और मोदी की आलोचना संभव ही नहीं है। लेखक ने यह पुस्तक अपने मार्गदर्शक श्री होसबाले को समर्पित की है।  क्योंकिकिसी भी सामान्य व्यक्ति के लिए यह समझना मुश्किल है कि 'राष्ट्र सबसे पहलेकी अवधारणा में भरोसा करने वाले व्यक्ति के लिए राजनीति अलग विषय है और विचार अलग।
            मोदीयुग के पहले ही लेख में लेखक श्री द्विवेदी लिख देते हैं कि कैसे यह वक्त 'भारतीय राजनीति का मोदी समय' है। वह लिखते हैं- 'राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के लिए यह समय वास्तव में स्वर्णयुग हैजबकि पूर्वांचल के असम में सरकार बनाकर उसने कीर्तिमान रच दिया। हरियाणा भी इसकी एक मिसाल हैजहाँ पहली बार भाजपा की अकेले दम पर सरकार बनी है। मणिपुर जैसे राज्य में उसके विधायक चुने गए हैं। ऐसे कठिन राज्यों में जीत रही भाजपा अपने भौगोलिक विस्तार के रोज नए क्षितिज छू रही है। भाजपा और संघ परिवार को ये अवसर यूँ ही नहीं मिले हैं... नरेन्द्र मोदी दरअसल इस विजय के असली नायक और योद्धा हैंउन्होंने मैदान पर उतर कर एक सेनापति की भाँति न सिर्फ नेतृत्व दिया बल्कि अपने बिखरे परिवार को एकजुट कर मैदान में झोंक दिया।लेखक का स्पष्ट कहना है कि भाजपा के विस्तार और लगातार विजयी अभियान के पीछे नरेन्द्र मोदी की नीति और मेहनत का निवेश है।
            जैसा कि ऊपर लिखा गया है कि पुस्तक में मोदी सरकार का प्रशस्ति गान नहीं है। लेखन ने जहाँ जरूरी समझावहाँ नागफनी से चुभते सवाल खड़े किए हैं। नोटबंदी को उन्होंने 'कालेधन के खिलाफ आभासी' लड़ाई लिखा है। नोटबंदी के आगे सरकार के कैशलेस के विचार को खारिज करते हुए लेखक श्री द्विवेदी ने इस व्यवस्था को'भारतीय मन और प्रकृति के खिलाफबताया है। कैशलेस को उन्होंने नोटबंदी से उपजा शिगूफा भी कहा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के संबंध में अकसर यह कहा जाता है कि वह अभी तक चुनावी मोड से बाहर नहीं निकल सके हैं। जहाँ तक मेरी समझ हैइसका एक बड़ा कारण उनकी भाषण शैली है। बाकि यह भी सच है कि वह अब भी विपक्ष पर उसी तरह हमलावर हैंजैसे कि सत्ता में आने से पहले थे। यहाँ लेखक प्रधानमंत्री मोदी से अपेक्षा व्यक्त करते हैं कि उन्हें शक्ति को सृजन में लगाना चाहिए। विपक्ष पर हल्लाबोल की मुद्रा से बाहर आना चाहिए। उनका कहना सही है- 'रची जा रही कृत्रिम लड़ाइयों में उलझकर भाजपा अपने कुछ समर्थकों को तो खुश रखने में कामयाब होगीकिंतु इतिहास बदलने और कुछ नया रचने की अपनी भूमिका से चूक जाएगी।लेखक संजय द्विवेदी ने यह भी लिखा है कि मोदी सरकार को अत्यधिक डिजिटलाइजेशन से बचना चाहिए। बौद्धिक और राष्ट्रप्रेमी समाज बनाने की चुनौती पर काम करना चाहिए। इसके लिए निष्पक्ष और स्वतंत्र बुद्धिजीवियों से सरकार को संपर्क करना चाहिए। अपने एक लेख में उन्होंने 'एफडीआईपर भाजपा सरकार की नीति पर भी चुभते हुए सवाल उठाए हैं।
            मोदीयुग में लेखक संजय द्विवेदी एक ओर मोदी सरकार की नीतियों और व्यवहार की आलोचना करते हैंतो वहीं उसे सचेत भी करते हैं। इसके साथ ही लेखक उन लोगों और संस्थाओं को भी उजागर करते हैंजो दुर्भावनापूर्ण ढंग से मोदी सरकार को बदनाम करने का षड्यंत्र रचती हैं। खासकरमोदी सरकार को एक समुदाय का दुश्मन सिद्ध करने के लिए देश में 'असहिष्णुता' का बनावटी वातावरण बनाने वाली बेईमान बौद्धिकता पर लेखक ने खुलकर चोट की है। इस असहिष्णु समय मेंलिखिए जोर से लिखिए किसने रोका है भाईआभासी सांप्रदायिकता के खतरेकौन हैं जो मोदी को विफल करना चाहते हैं और कुछ ज्यादा हड़बड़ी में हैं मोदी के आलोचक सहित दूसरे अन्य लेखों में भी आप पढ़ पाएंगे कि कैसे कुछ ताकतें भ्रम उत्पन्न करके एक पूर्ण बहुमत की सरकार को बेकार के प्रश्नों में उलझाने की साजिश कर रही हैं। बहरहालपिछले तीन साल में भारत में एक अलग प्रकार की राजनीतिक हलचल देखने को मिली है। एक ओर भारतीय जनता पार्टी 'सबका साथ-सबका विकास' का दावा और वायदा करती हुई अपना विस्तार करती जा रही हैवहीं दूसरी ओर अपनी राजनीतिक जमीन को बचाने के संकट से जूझ रहे कुछेक राजनीतिक दल और विचारधाराएं सुनियोजित तरीके से ऐसे मुद्दों एवं घटनाओं को चर्चा के केंद्र में बनाकर रखे हुए हैंजिनसे आम समाज का कोई भला नहीं होना है। हालाँकि यह भी सच है कि इन प्रयासों से उनका राजनीतिक एजेंडा भी पूरा होता नहीं दिखता है। इस समय की राजनीति को जानना और समझना बेहद जरूरी है। 'मोदीयुगपुस्तक इस काम में हमारी भरपूर मदद कर सकती है। महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों की टिप्पणियों को पढ़कर भी इस पुस्तक की गहराई को समझा जा सकता है। प्रख्यात लेखक विजय बहादुर सिंहनवोदय टाइम्स के संपादक अकु श्रीवास्तवलोकसभा टीवी के संपादक आशीष जोशी,ख्यातिनाम कथाकार इंदिरा दांगीलेखिका एवं मीडिया शिक्षक डॉ. वर्तिका नंदाईटीवी उर्दू के वरिष्ठ संपादक तहसीन मुनव्वर और सुविख्यात एंकर सईद अंसारी ने भी पुस्तक के संबंध में अपने विचार व्यक्त किए हैं। छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह ने लेखक संजय द्विवेदी की लेखनी की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पुस्तक की प्रस्तावना मूल्यानुगत मीडिया के संपादक और वरिष्ठ मीडिया अध्यापक प्रोफेसर कमल दीक्षित ने लिखी है और प्रख्यात लेखक डॉ. सुशील त्रिवेदी ने भूमिका लिखी है। पुस्तक में 63 लेख शामिल किए गए हैं। यह पुस्तक का पहला संस्करण हैजो हिंदी पत्रकारिता दिवस30 मई, 2017 के सुअवसर पर आया है।
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पुस्तक : मोदीयुग : संसदीय लोकतंत्र का नया अध्याय
लेखक : संजय द्विवेदी
मूल्य : 200 रुपये
प्रकाशक : पहले पहल प्रकाशन, 25 प्रेस कॉम्प्लेक्सएमपी नगर,भोपाल (मध्यप्रदेश) - 462011
वितरक : मीडिया विमर्श, 428-रोहित नगरफेज-1, भोपाल (मध्यप्रदेश)- 462039
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