शनिवार, 11 जुलाई 2015

भारत-पाक रिश्तेः कब पिधलेगी बर्फ



-संजय द्विवेदी
 नरेंद्र मोदी की पाकिस्तानी प्रधानमंत्री से मुलाकात और उनका पाकिस्तान जाने का फैसला साधारण नहीं है। आखिर एक पड़ोसी से आप कब तक मुंह फेरे रह सकते हैं? बार-बार छले जाने के बावजूद भारत के पास विकल्प सीमित हैं, इसलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की इस साहसिक पहल की आलोचना बेमतलब है। पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी स्वयं कहा करते थे हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते। यानि संवाद ही एक रास्ता है, क्योंकि रास्ता बातचीत से ही निकलेगा। पाकिस्तान और भारत के बीच अविश्वास के लंबे घने अंघेरों के बावजूद अगर शांति एक बहुत दूर लगती हुई संभावना भी है, तो भी हमें उसी ओर चलना है। सीमा पर अपने सम्मान के लिए डटे रहना, हमलों का पुरजोर जवाब देना किंतु बातचीत बंद न करना, भारत के पास यही संभव और सम्मानजनक विकल्प हैं।
  पाकिस्तान की राजनीति का मिजाज अलग है। सेना की मुख्य भूमिका ने वहां की राजनीति को बंधक बना रखा है। आवाम का मिजाज भी बंटा हुआ है। किंतु एक बड़ी संख्या ऐसी भी है जो भारत से शांतिपूर्ण रिश्ते चाहती है। गर्म बातों का बाजार ज्यादा जल्दी बनता है और वह बिकता भी है। मीडिया, राजनीति व समाज में ऐसी ही आवाजें ज्यादा दिखती और सुनी जाती हैं। अमन, शांति और बेहतर भविष्य की ओर देखने वाली आवाजें अक्सर अनसुनी कर दी जाती हैं। किंतु पाकिस्तान को भी पता है कि आतंकवाद को पालने-पोसने का अंजाम कैसे अपने ही मासूम बच्चों के जनाजे में बदल जाता है। अपने मासूमों का जनाजा ढोता पाकिस्तान जानता है कि शांति ही एक रास्ता है, किंतु उसकी राजनीति और गर्म मिजाज धर्मांधता ने उसके पांव बांध रखे हैं। हिंदुस्तान के प्रति धृणा और भारत भय वहां की राजनीति का स्थायी भाव है। इसका वहां एक बड़ा बाजार है। ऐसे में भारत जैसा देश जो निरंतर अपने पड़ोसियों से बेहतर रिश्तों का तलबगार है, पाकिस्तान को उसके हालात पर नहीं छोड़ सकता। रिश्तों में बर्फ जमती रही है तो नेतृत्व परिवर्तन के साथ पिघलती भी रही है। अपने परमाणु बम पर पाकिस्तान को बहुत नाज है। कुछ बहकी आवाजें अपना गम गलत को उसे भारत के विरूद्ध चलाने की बातें भी करती हैं। किंतु हमें पता है कि परमाणु युद्ध के अंजाम क्या हैं। कोई भी मुल्क खुद को नक्शे से मिटाने की सोच नहीं सकता। कश्मीर में हमारे कुछ भ्रमित नौजवानों को इस्तेमाल एक छद्य युद्ध लड़ना और आमने-सामने की लड़ाई में बहुत अंतर है। पाकिस्तान ने इसे भोगा है, सीखा भले कुछ न हो।
  आज की बदलती दुनिया में जब आतंकवाद के खिलाफ एक संगठित और बहुआयामी लड़ाई की जरूरत है तो पाकिस्तान आज भी अच्छे और बुरे तालिबान के अंतर को समझने में लगा है। नरेंद्र मोदी के दिल्ली की सत्ता में आगमन से पाकिस्तान के चरमपंथियों को भी अपनी राजनीति को चमकाने का मौका मिला। जुबानी तीर चले। किंतु नरेंद्र मोदी ने संवाद को आगे बढ़ाने का फैसला कर यह बता दिया है कि वे अड़ियल नहीं है और सही फैसलों को करते हुए बातचीत को जारी रखना चाहते हैं। आप देखें तो वर्तमान के दोनों शासकों मोदी और शरीफ के बीच संवाद पहले दिन से कायम है। दोनों ने शिष्टाचार बनाए रखते हुए आपसी संवाद बनाए रखा। मोदी की शपथ में आकर शरीफ ने साहस का ही परिचय दिया था। अपनी आलोचनाओं की परवाह न करते हुए पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने दिल्ली आने का फैसला किया था। अपने देशों की राजनीतिक-कूटनीतिक प्रसंगों पर होने वाली बयानबाजी को छोड़ दें तो दोनों नेताओं ने संयम बनाए रखा है। मोदी के सत्ता में आने से भारत-पाक रिश्ते बिगड़ेगें, इस संभावना की भी हवा निकल गयी है। मोदी ने साफ कहा है कि वे इस मामले में अटलजी को लाइन को आगे बढ़ाएंगें। आखिर कश्मीर में जो हुआ वह मोदी के साहस से ही उपजा फैसला था। पीडीपी- भाजपा सरकार को संभव बनाने का चमत्कार आखिरकार मोदी का ही मूल विचार है। अब जबकि वे ईद मानने कश्मीर जा रहे हैं तो यह समझा जा सकता कि कश्मीर की मोदी के लिए क्या अहमियत है। एक भारतीय शासक होने के नाते पाकिस्तान की कश्मीर फांस को भी वे समझते हैं। बावजूद इसके इतना तो मानना ही पड़ेगा की भारत-पाक रिश्तों में सुधार के बिना, भारत एक महाशक्ति नहीं बन सकता। सैन्य संसाधनों पर हो रहे व्यय के अलावा हिंसा, आतंक और अशांति के कारण दोनों देश बहुत नुकसान उठा रहे हैं। ऐसा नहीं है कि हुक्मरानों को इस सच्चाई का पता नहीं है किंतु कुछ ऐसे प्रसंग हैं जिससे बात निकलती तो  है पर दूर तलक नहीं जाती। भारत के पूर्व प्रधानमंत्रियों ने अपने स्तर पर काफी प्रयास किए किंतु कहते हैं कि इतिहास की गलतियों का सदियां भुगतान करती हैं। भारत और पाकिस्तान एक ऐसे ही भंवरजाल में फंसे हैं।
  नरेंद्र मोदी ने विश्व राजनीति में भारत की उपस्थिति को स्थापित करते हुए अपने पड़ोसियों से भी रिश्ते सुधारने की पहल की है। वे जहां दुनिया जहान को नाप रहे हैं वहीं वे नेपाल, भूटान,वर्मा, बांग्लादेश, अफगानिस्तान को भी उतना ही सहयोग, समय और महत्व दे रहे हैं। वे सिर्फ महाशक्तियों को साधने में नहीं लगे हैं बल्कि हर क्षेत्रीय शक्ति का साथ ले रहे हैं। रूस से अलग हुए देशों की यात्रा इसका उदाहरण है। मोदी की पाकिस्तान यात्रा इस मायने में खास है। इससे यह मजाक भी खत्म होगा कि आखिर मोदी और शरीफ पाकिस्तान के बाहर ही क्यों मिलते हैं। राजनीतिशास्त्री श्री वेदप्रताप वैदिक भी मानते हैं कि पाकिस्तान का भद्रलोक व्यक्ति के तौर पर चाहे मोदी को पसंद न करता हो लेकिन वह भारत के प्रधानमंत्री के रुप में मोदी का स्वागत करने के लिए आतुर है। पिछले साल मेरी पाकिस्तान-यात्रा के दौरान यह बात मुझे सभी महत्वपूर्ण सत्तारुढ़ और विरोधी नेताओं ने कही थी। मोदी ने अपनी पाकिस्तान-यात्रा की बिसात अच्छी तरह से बिछा ली है। शायद यह यात्रा युगांतरकारी सिद्ध हो।

   यह उम्मीद लगाने में हर्ज नहीं है कि नरेंद्र मोदी कश्मीर संकट को हल करने को पहली प्राथमिकता देगें। उनके मन में धारा-370 की टीस है किंतु वे इस लेकर हड़बड़ी में नहीं हैं। देश को लेकर मोदी में मन में अनेक सपने हैं जिनमें शांतिपूर्ण कश्मीर भी उनका एक बड़ा सपना है। कश्मीर में हुए पीडीपी-भाजपा समझौते को किसी भी नजर से देखें, किंतु भाजपा उसकी राजनीतिक धारा को समझने वाला हर व्यक्ति मानता है कि कश्मीर का भाजपा और संघ परिवार के लिए क्या महत्व है। भाजपा चाहकर भी अपने पूर्वापर से पल्ला नहीं झाड़ सकती। नरेंद्र मोदी अगर पाकिस्तान की राजनीतिक सोच में कुछ परिवर्तन लाकर भारत के प्रति थोड़ा भी सद्भभाव भर पाते हैं तो यह एक ऐतिहासिक घटना होगी। यह काम किसी भाजपाई प्रधानमंत्री के लिए उतना ही आसान है जबकि किसी अन्य के लिए बहुत मुश्किल। देखना है कि इतिहास की इस घड़ी में नरेंद्र मोदी अपने सपनों को कैसे सच कर पाते हैं।

शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

रायपुर में आयोजित कार्यक्रम की छवियां और समाचार पत्रों में प्रकाशित क्लिीपिंग्स










सवालों में सरकार

-संजय द्विवेदी
  नरेंद्र मोदी की सरकार के लिए सुषमा स्वराज, वसुंधरा राजे सिंधिया, स्मृति ईरानी और पंकजा मुंडे के मामलों ने नया संकट खड़ा कर दिया है। विपक्ष को बैठे बिठाए एक मुद्दा हाथ लग गया है, तो लंदन में बैठे ललित मोदी रोज एक नया ट्विट करके मीडिया और विरोधियों को मसाला उपलब्ध करा ही देते हैं। विपक्ष ऐसी स्थितियों में अवसर को छोड़ना नहीं चाहता और उसकी मांग है कि नरेंद्र मोदी इस विषय पर कुछ तो बोलें। राजनीति में मौन कई बार रणनीति होता है और नरसिंह राव, मनमोहन सिंह से लेकर नरेंद्र मोदी सभी इसे साधते रहे हैं। ऐसे में मीडिया के लिए ये खबरें रोजाना का खाद्य बन गयी हैं। एक भगोड़े का ट्विट और उस पर प्रतिक्रियाएं जुटाकर मीडिया ने भी अपने नित्य के हल्लाबोल को निरंतर कर लिया है।
   राजनीति में ऐसे प्रसंग चौंकाने वाले होते हैं और छवि को दागदार भी करते हैं। किंतु जैसी राजनीति बन गयी है उसमें यह उम्मीद कर पाना कठिन है कि पूंजीपतियों और राजनेताओं का रिश्ता न बने। राजे और सुषमा की कहानी दरअसल रिश्तों की भी कहानी है। संपर्क हुआ, रिश्ते बने और आत्मीय व व्यावासायिक रिश्ते भी बन गए। प्रथम दृष्ट्या तो ये कहानियां बहुत सहज हैं और इसे सीधे तौर पर भ्रष्टाचार कहना भी कठिन है। किंतु ललित मोदी ने अपनी जैसा छवि बनायी है, उसके बाद उनसे रिश्ते किसी को भी संकट में ही डालेगें। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियां कम हैं जो रिश्तों को छिपाती नहीं बल्कि अपने साथियों का खुलकर साथ देती हैं। आप देखें तो शरद पवार और उनके दल की सहानुभूति ललित मोदी से साफ दिखती है। अपने पुराने समाजवादी साथी स्वराज कौशल के पक्ष में समाजवादी पार्टी के नेता रामगोपाल यादव ने खबर आते ही सुषमा स्वराज को क्लीन चिट दे दी। किंतु भाजपा, कांग्रेस जैसे दलों का संकट यह है कि वे रिश्ते रखते हुए भी कूबूल करने की जहमत नहीं उठा सकते। क्या ही अच्छा होता कि प्रधानमंत्री को भाजपा के ये नेता इस्तीफे के लिए आफर करते और प्रधानमंत्री उसे अस्वीकार कर देते। किंतु भाजपा का नेतृत्व किंकर्तव्यविमूढ़ता का शिकार है। दिखावटी नैतिकता की बंदिशें उन्हें वास्तविकता के साथ खड़े होने से रोकती हैं।
   सुषमा स्वराज के प्रकरण में ऐसा कुछ नहीं था कि जिसके कारण भाजपा को किंतु- परंतु करने की जरूरत थी। बावजूद उसके प्रवक्ता लड़खड़ाते नजर आए। नीतियों को लेकर अस्पष्टता ऐसे ही दृश्य रचती है। नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार का मीडिया प्रबंधन पहले दिन से लड़खड़ाया हुआ है। बिना किसी बड़े आरोप के साल भर में सरकार की छवि मीडिया द्वारा कैसी प्रक्षेपित की जा रही है, उसे देखना रोचक है। मंत्रिमंडल के सहयोगियों की मेहनत और उनके काम पर कुछ अनावश्यक आरोप भारी पड़ते हैं। पहले मीडिया से संवाद नियंत्रित करना और साल के अंत में सबको संवाद को लिए लगा देना, एक नासमझी भरी रणनीति है। नियंत्रित संवाद वहीं सफल हो सकता है जो दल बहुजन समाज पार्टी जैसे एकल नेता के दल हों। सुषमा स्वराज प्रकरण पर बिहार के दो सांसदों (कीर्ति आजाद और आर के सिंह) की बयानबाजी की जरूरत क्या थी? एक तरफ मंत्रियों पर नियंत्रण और दूसरी ओर सांसदों की ओर से किया जा रहा ज्ञान दान भाजपा की बदहवासी को ही प्रकट करता है।
        संकट को समझना और उस पर उपयुक्त प्रतिक्रिया देना अभी भाजपा को सीखना है। भाजपा के प्रवक्ताओं को  टीवी पर हकलाते देखना भी रोचक है। ये ऐसे लोग हैं जो बिना पाप किए अपराधबोध से ग्रस्त हैं। सक्रिय प्रधानमंत्री, सक्रिय सरकार और व्यापक जनसमर्थन भी मीडिया और प्रतिपक्ष के साझा दुष्प्रचार पर भारी पड़ रहा है। मेरे जैसे व्यक्ति की यह मान्यता है कि नरेंद्र मोदी को दिल्ली में बैठे परंपरागत राजनेता, राजनीतिक परिवार, नौकरशाह, भारतद्वेषी बुद्धिजीवी और पत्रकार आज भी स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। उन्हें देश की जनता ने प्रधानमंत्री बना दिया है पर ये भारतद्वेषी बुद्धिजीवी नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए उनकी सरकार का छिद्रान्वेषण पहले दिन से ही जारी है। जब पूरी दुनिया योग कर रही होगी, तो वे योग के खिलाफ भारतीय टीवी चैनलों पर ज्ञान देते हैं। मोदी विदेश यात्रा पर होते हैं तो वे उनकी यात्राओं की आलोचना करने में व्यस्त होते हैं। यानि नरेंद्र मोदी का हर काम उनकी स्वाभाविक आलोचना के केंद्र में होता है। शायद यह पहली बार है कि कोई सरकार और उसका नेता जनसमर्थन से तो संयुक्त है किंतु दिल्लीपतियों के निशाने पर है। इस पूरे समूह के लिए नरेंद्र मोदी का दिल्ली प्रवेश एक ऐसी घटना है जिसे वे स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं। इसलिए भाजपा और उसके नेताओं पर लगने वाले आरोपों को अपराध बनाकर प्रस्तुत किया जा रहा है। एक सक्षम विदेश मंत्री के नाते सुषमा स्वराज के कामों, उनके द्वारा एक साल में 37 देशों की यात्राओं का जिक्र नहीं होता। विदेशों में भारतवंशियों जब भी कोई संकट आया,वे और उनका विभाग सक्रिय दिखे। किंतु ललित मोदी से उनके पति के रिश्ते चर्चा के केंद्र में हैं।

     भारतीय राजनीति और मीडिया के लिए यह गहरे संकट का क्षण है, जहां आग्रह, दुराग्रह में बदलता दिखता है। नेताओं के प्रतिमा भंजन की इस राजनीति का मुकाबला भाजपा और उसकी सरकार को करना है। उन्हें यह मान लेना होगा कि यह यूपीए की सरकार नहीं है, जिसकी ओर बहुत से बुद्धिजीवी और पत्रकार इसलिए आंखें मूंद कर बैठे थे कि उसने भाजपा को रोक रखा है। यूपीए-तीन की प्रतीक्षा में जो समूह दिल्ली में बैठा था, नरेंद्र मोदी का आगमन उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती है। इसलिए नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार की छवि बिगाड़ना एक सुनियोजित यत्न है और इसे समझना भाजपा की जिम्मेदारी है। भाजपा नेताओं के लिए सत्ता में होने से ज्यादा जरूरी अपनी छवि, आचरण और देहभाषा का संयमित होना है। अपने असफल मीडिया प्रबंधन के नाते भाजपा ने साल भर में बहुत कुछ खोया है। भाजपा को अपनी सरकार के प्रति लोगों का भरोसा बनाए रखने के लिए कुछ टोटके करने होगें। करने के साथ कहने का भी साहस जुटाना होगा। जहां आप गलत नहीं हैं, वहां मौन रणनीति नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री को अपनी टीम में वही भरोसा भरना होगा जिससे वे खुद लबरेज हैं। उनका मौन सरकार पर भारी पड़ रहा है। दिग्गजों की छवियां खराब हो रही हैं। ऐसे में भाजपा को ज्यादा भरोसा और ज्यादा आत्मविश्वास के साथ सामने आने की जरूरत है।

बुधवार, 24 जून 2015

मोदी मुहिम से पड़ोसियों के दिलों में उतरता भारत

-संजय द्विवेदी
    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सफल बंगलादेश यात्रा ने यह साबित कर दिया है कि अगर नेतृत्व आत्मविश्वास से भरा हो तो अपार सफलताएं हासिल की जा सकती हैं। बंगलादेश से लेकर नेपाल, म्यांमार, श्रीलंका तक अब नरेंद्र मोदी की यशकथा कही और सुनी जा रही है। ढाका के विश्वविद्यालय में उनका संबोधन वास्तव में उन्हें एक ऐसी ऊंचाई और गरिमा प्रदान करता है, जिसके वे हकदार हैं। उनके संबोधन ने भारत और बंगलादेश रिश्तों में एक नए युग की शुरुआत की है। एक राष्ट्रनायक सरीखी छवि और वाणी उनके पूरे व्यक्तित्व से झलकती है।
   समूचा भारतीय उपमहाद्वीप एक साझी विरासत और रिश्तों का उत्तराधिकारी है। बावजूद इसके भारत के रिश्ते अपने पड़ोसियों से बहुत सहज नहीं रहे। इस दर्द को भारत ने हमेशा महसूस किया है, किंतु साझा नहीं किया। पाकिस्तान और चीन ही इस इलाके में हमारे समूचे विदेश विमर्श का हिस्सा बने रहे। अपने अन्य पड़ोसियों से हमारे रिश्ते सहज ही रहे किंतु उन्हें अच्छा नहीं कहा जा सकता। हम पाकिस्तान और चीन से रिश्ते सुलझाने में ही लगे रहे, बाकी कहीं झांककर नहीं देखा। ऐसे में यह बात महत्व की है कि हमें लंबे अरसे बाद एक ऐसा नेता मिला है जो संवाद में रूचि रखता है और अपने पड़ोसियों से सहज रिश्ते बनाना चाहता है। नेपाल के भूकंप में मानवीय सहायता उपलब्ध कराकर जिस तरह से उन्होंने सारे विषय पर अपेक्षित संवेदना का संचार किया वह उनकी मानवीय दृष्टि का परिचायक है। इस काम से जहां नेपाल-भारत के रिश्ते और सहज हुए वहीं नेपाल में सक्रिय भारतविरोधी शक्तियों को भी सीख मिली। नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालते ही अपने शपथ ग्रहण समारोह में दक्षेस देशों के प्रमुखों को ससम्मान बुलाकर अपने इरादे जाहिर कर दिए थे। वे पड़ोसियों से बेहतर रिश्ते बनाना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी की यह रणनीति अब अमल में दिखने लगी है। वे निरंतर प्रवास और संपर्क से इसे साध रहे हैं। भारत का पाकिस्तान के साथ रिश्ता किसी से छिपा नहीं है। भारतीय मीडिया और पाकिस्तानी मीडिया में भी यह रोजाना की खास खबर है। नरेंद्र मोदी इतिहास की इस घड़ी में रुकना नहीं चाहते, वे जहां जैसे रिश्ते बनाए और बचाए जा सकते हैं, उसके प्रयासों में लगे हैं। श्रीमती सुषमा स्वराज जैसी अनुभवी और दक्ष विदेशमंत्री का लाभ भी इस पूरी मुहिम को मिल रहा है। भारतवंशियों की शक्ति को एकत्र कर दुनिया के हर देश में नरेंद्र मोदी एक अलग वातावरण बनाने का काम कर रहे हैं। अमरीका से लेकर आस्ट्रेलिया तक उनका यह रूप लोगों ने देखा है। यह वैश्विक स्तर पर भारत के उठ खड़े होने का समय भी है। अपने पहले भाषण में ही मोदी ने साफ किया कि वे न तो आंख झुकाकर बात करना चाहते हैं न ही चाहते हैं कि कोई देश सिर झुकाकर बात करे। एक-दूसरे की अस्मिता का सम्मान करते हुए आगे बढ़ना प्रारंभ से भारत की नीति रही है। नरेंद्र मोदी इसे साकार करते हुए दिखते हैं। नेपाल,म्यांमार, बंगलादेश, श्रीलंका, मालदीव जैसे अपेक्षाकृत आकार में छोटे देश हों या चीन जैसे विशाल देश मोदी ने सबको साथ लेने का प्रयास किया है। वे चाहते हैं कि इस उपमहाद्वीप में शांति का वातावरण बने और आतंकवाद समाप्त हो। सबसे बड़ी बात वे इन देशों में आर्थिक प्रगति को होते हुए देखना चाहते हैं। एक-दूसरे के सहयोग से बड़ी आर्थिक बनकर अपने देश का गौरव बनाना उनका उद्देश्य दिखता है।
 मोदी एक अच्छे वक्ता और आक्रामक शैली में संवाद करने वाले नेता हैं। उनकी देहभाषा में गर्मजोशी और ठहराव है। श्रीमती इंदिरा गांधी के बाद शायद वे सबसे प्रभावी राजनेता हैं जिसकी देश की जनता और विदेश के जनमानस पर पकड़ बनती हुई दिख रही है। उन्हें इवेंट मैनेजर कहकर उनकी ताकत को कम करने, कम आंकने के सुनियोजित यत्न भी चल रहे हैं किंतु दुनिया भर में फैले भारतवंशियों को एकजुट कर एक सकारात्मक दबाव समूह खड़ा करना उनकी एक सोची समझी नीति है। वे इस पर अरसे से काम भी कर रहे हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए भी वे वैश्विक संवाद करते रहे हैं। उद्योगों और निवेश के लिए अनुकूल वातावरण बनाना ऐसे ही संवादों से संभव है। वे भारत को एक ब्रांड में तब्दील करने की कोशिशों में लगे हैं। उनको देखकर और सुनकर ऐसा लगता है कि वे इसे संभव बनाने में सफल रहेंगे।

  राजनीति की पिच पर वे एक ऐसे राजनेता हैं जो हर सभा में शतक बनाते ही हैं। लोगों के दिलों को छूती हुयी उनकी आवाज उन्हें विश्वसनीय बनाती है। रिश्तों में वे दिलदार दिखते हैं। पड़ोसियों के संकट में खड़े होना या उन्हें उनके विकास में मदद करना दोनों मोर्चों पर वे अपनी दरियादिली दिखा चुके हैं। उनके इन तेवरों से पाकिस्तान जैसे पड़ोसियों की प्रतिक्रियाएं समझी जा सकती हैं। म्यांमार में जंगलों में जिस तरह भारतीय सेना ने आपरेशन किया और विद्रोही आतंकियों को मार गिराया, वह एक ऐतिहासिक सूचना है। इस घटना पर पाकिस्तान की असेंबली में प्रस्ताव पास करने से लेकर वहां के नेताओं की बौखलाहट बताती है कि इस क्षेत्र में भारत की बढ़ती स्वीकृति से वे खासे परेशान हैं। यह बात साबित करती है कि किस तरह पाकिस्तान आतंकवादियों की पनाहगाह बना हुआ है। वरना एक दूसरे देश के साथ अच्छे रिश्तों के नाते हुए भारतीय सेना के आपरेशन पर इतना हायतौबा मचाने की जरूरत क्या है। पाकिस्तान को यह समझना होगा कि भारत का राजनैतिक नेतृत्व अधिनायकवादी नहीं है। वह अपने पड़ोसियों को आदर देने वाला और उनकी स्वतंत्रता का सम्मान करने वाला देश है। भारत की विदेशनीति भी इन्हीं आदर्शों पर आधारित है। लाइन आफ कंट्रोल का आए दिन उल्लंघन करने वाले पाकिस्तान के प्रति भारत की सदाशयता का उसने सदा फायदा उठाया है। भारत में आतंकवाद को पोषित करना और कश्मीर में रोजाना संकट खड़े करना पाकिस्तान की नीति रही है। कश्मीर का एक बड़ा हिस्सा आज भी पाकिस्तान के कब्जे में है। बावजूद भारत उसके साथ शांति का ही राग गाता रहा है। उसकी तमाम नादानियों और साजिशों के बाद भी भारत ने हमेशा दोस्ती का हाथ बढ़ाया। पूर्व प्रधानमंत्री अटलजी हमेशा ये कहते ही थे कि हम अपने पड़ोसी नहीं बदल सकते। एक सुखी, समृद्ध पाकिस्तान भारत के लिए भी अच्छा होगा। किंतु पाकिस्तान की सूइयां अटकी हुयी हैं। कश्मीर उसकी दुखती रग बन गया है और भारतविरोध वहां की राजनीति की प्राणवायु। कश्मीर के नाम पर की जा रही पाकिस्तानी हरकतें इस देश को हमेशा दुखी करती हैं। अब जबकि एक सरकार कश्मीर में बनी है जिसमें भाजपा भी हिस्सेदार है तो पाकपरस्त ताकतें खुद को असहाय पा रही हैं। मोदी ने इसे समझते हुए आगे बढ़ने का फैसला किया है। पाक पर अपनी ज्यादा ताकत लगाने के बजाए वे पूरी दुनिया को साथ लाना और सबके साथ बढ़ना चाहते हैं। नरेंद्र मोदी की यह नीति भारत के भविष्य को भी रेखांकित करती है। वे विश्वमंच पर भारत को स्थापित करने के प्रयत्नों में लगे हैं ऐसे में जरूरी है उनकी इस यात्रा में उनके पड़ोसी भी साथ हों। पाकिस्तान को छोड़कर उन्होंने लगभग सभी पड़ोसियों से रिश्ते सहज किए हैं। इसका लाभ भारत को आर्थिक रूप से भले न हो किंतु मानवीय दृष्टि और वैश्विक दृष्टि से जरूर मिलेगा।

गुरुवार, 4 जून 2015

भाजपा के लिए कठिन परीक्षा हैं उत्तर प्रदेश और बिहार के चुनाव

-संजय द्विवेदी

   लोकसभा चुनावों में उत्तर प्रदेश और बिहार की राजनीति का सिरमौर बनकर भारतीय जनता पार्टी ने केंद्र की सत्ता पर तो काबिज हो गयी है पर अब इन दोनों राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में उसकी साख दांव पर है। लोकसभा चुनावों के परिणामों के आधार पर तो दोनों राज्यों में उसकी सरकार बननी तय है किंतु दिल्ली के विधानसभा चुनावों ने यह साबित किया कि कहानियां दोहराई नहीं जाती हैं।

   उत्तर प्रदेश और बिहार पिछले तीन दशकों से सामाजिक न्याय की ताकतों की लीलाभूमि बने हुए हैं और इन शक्तियों ने अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को बार-बार कराया है। उप्र और बिहार में कांग्रेस किस हाल में है किसी से छिपा नहीं है तो भाजपा भी उप्र में लंबे समय से सत्ता से बाहर है। विधानसभा चुनावों का मैदान उप्र में सपा-बसपा के बीच बंटा हुआ है। लोकसभा चुनावों का कोई असर मैदान में नहीं है यह उप्र में हुए विधानसभा उपचुनावों से साफ जाहिर है। इसी तरह बिहार में भाजपा एक बड़ी शक्ति है किंतु विधानसभा में यह शक्ति उसे एक मजबूत गठबंधन का हिस्सा होने के नाते हासिल हुयी थी। ऐसे में उत्तर भारत के ये दो राज्य मोदी लहर की असलियत भी सामने लाने वाले हैं। यह भी गजब है कि दोनों राज्यों में भाजपा के पास मुख्यमंत्री पद के लिए एक भी लोकप्रिय चेहरा नहीं है। यानि यह तय है कि ये चुनाव भी मोदी की आदमकद छाया में ही लड़े जाएंगें। जिस तरह स्मृति ईरानी को उप्र का मुख्यमंत्री प्रोजेक्ट कर चुनाव लड़ने की बात की जा रही है, वह प्रयोग दिल्ली चुनाव में किरण बेदी प्रयोग की तरह भारी पड़ सकता है। अमेठी के चुनाव समर में पराजित स्मृति ईरानी के साथ उप्र के कार्यकर्ता कोई रिश्ता जोड़ पाएंगें ऐसा संभव नहीं लगता। ऐसे में उप्र की डगर कठिन है और मोदी का नाम ही वहां एक सहारा रहेगा। अमित शाह की सारी रणनीतिक कुशलता के बावजूद चुनाव अंततः कार्यकर्ता लड़ता है और वही अपने वोटर को घर से निकाल कर मतदान केंद्र तक पहुंचाता है। बिहार में चुनाव पहले हैं इसलिए बिहार का प्रभाव उप्र के चुनावों पर भी पड़ना तय है। आप देखें तो बिहार में जनता परिवार की एकता पर ही भाजपा की रणनीति और नजरें टिकी हुयी हैं। दलित नेता जीतन राम मांझी से प्रधानमंत्री की मुलाकात साधारण घटना नहीं है। यानि प्रधानमंत्री भी इस चुनाव के मायने समझ रहे हैं और अपने तरीके से कदम उठा रहे हैं। जनता परिवार की एकता अगर टूटती है तो भाजपा को इस बहुकोणीय मुकाबले में ज्यादा लाभ मिल सकता है किंतु आज भी वहां का संगठन अपने दम पर पूर्ण बहुमत लाने के आत्मविश्वास से खाली है। दूसरी ओर भाजपा के दिग्गज नेताओं की आपसी स्पर्धा और अविश्वास भी एक बड़ी  चुनौती हैं। कभी स्टार प्रचारक रहे शत्रुध्न सिन्हा जैसे नेताओं की नाराजगी समय-समय पर मीडिया के माध्यम से मुखरित होती रहती है। ऐन चुनाव के वक्त ऐसी उलटबासियों को रोकना और नियंत्रित करना जरूरी है। बिहार की सामाजिक-राजनीतिक संरचना और वहां के समाज की राजनीतिक प्रतिक्रियाएं हमेशा ही राजनीतिक विज्ञानियों और समाज शास्त्रियों के चिंतन-मनन और अनुशीलन का विषय रही हैं। कोई एक सबसे बड़ा कारक इस राज्य की राजनीति को सर्वाधिक प्रभावित करता है तो वह आज भी जाति ही है। जाति के इस समीकरण को समझकर जो दल गठबंधन करते हैं और उपयुक्त उम्मीदवारों का चयन करते हैं वो मैदान मार ले जाते हैं। भाजपा ने पिछले लोकसभा चुनावों में रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा जैसे स्थानीय क्षत्रपों से तालमेल कर एक सोशल इंजीनिरिंग की और उसे इसका लाभ भी मिला। आने वाले चुनावों में ये दो नेता अपने दल के साथ भाजपा के साथ हैं और उम्मीद है कि जीतनराम मांझी भी भाजपा के साथ आ जाएं। मोदी सरकार के साल भर के कामकाज और उसके प्रभावों का आकलन भी इस चुनावों में एक बड़ा कारक रहेगा। भूमि अधिग्रहण कानून पर बना वातावरण जिसे अभी भी भाजपा जनता के गले नहीं उतार पाई है चिंता का कारण बन सकता है। बिहार के लोग अपनी राजनीतिक समझ और पक्षधरता के लिए जाने जाते हैं। उनकी राजनीतिक समझ पूरे देश के सामने एक उदाहरण की तरह सामने आती रही है। क्रांतिकारी विचारों और आंदोलनों के बीज इस धरती से फूटते रहे हैं और पूरा देश यहां से आंदोलित होता रहा है। पटना का गांधी मैदान ऐसी तमाम रैलियों का गवाह है, जिनसे देश की राजनीति में परिवर्तन परिलक्षित हुए हैं। ऐसे में मोदी और उनकी टीम के लिए बिहार एक चुनौती की तरह है। यदि भाजपा बिहार के मैदान को फतह करती है तो उसे उप्र की जीत के लिए एक नया आत्मविश्वास मिलेगा, जो दिल्ली की पराजय से कहीं न कहीं कमजोर पड़ा है। नरेंद्र मोदी के सेनापति अमित शाह की कठिन परीक्षा इस राज्य में होनी है क्योंकि उनकी भी रणनीतिक कुशलता एक बार सवालों के दायरे में हैं। बिहार में भाजपा के पास प्रखर नेताओं की एक पूरी जमात है जिसमें सुशील कुमार मोदी, रविशंकर प्रसाद, नंदकिशोर यादव, गिरिराज सिंह, शत्रुध्न सिन्हा, सीपी ठाकुर, शाहनवाज हुसैन, राजीव प्रताप रूढ़ी आदि शामिल हैं। ये सारे नेता अगर एक होकर बिहार के मैदान में उतरते हैं तो एनडीए में शामिल रामविलास पासवान और उपेंद्र सिन्हा को मिलाकर भाजपा की ताकत बहुत बढ़ जाती है। दूसरी तरफ नीतीश कुमार अपने स्वयं के चेहरे के नाते एक लोकप्रिय छवि रखते हैं किंतु उनका संकट यह है उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नाहक टकराव लेकर और मांझी प्रकरण में जल्दबाजी दिखाकर अपनी विश्वसनीयता को चोट ही पहुंचाई है। आज जनता परिवार के दल ही उनको नेता स्वीकारने के लिए तैयार नहीं है। बिहार के भीतर-बाहर भी उनकी छवि एक ऐसे नेता की बन रही है, जो अवसरवाद के साथ- साथ सत्ता के लिए समझौते कर सकता है। इससे निश्चय ही नीतीश की नैतिक आभा कम हुयी है। वहीं नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनावों के दौरान स्वयं को एक पिछड़ा वर्ग से आने वाला प्रधानमंत्री प्रचारित कर बिहार के जनमानस में पैठ बनाई है। विकास के सवाल पर भाजपा के नेता यह प्रचारित करने में लगे हैं कि भाजपा जब तक जेडीयू सरकार में थी तभी तक यह विकास और सुशासन का मामला चला और अब क्योंकि भाजपा अलग है इसलिए नीतीश पर भरोसा करना कठिन है।यह कह पाना कठिन है कि भाजपा का यह विकास मंत्र कितना काम करेगा। बिहार की राजनीति को समझने वाले इस बात को समझते हैं कि इस प्रदेश के चुनाव साधारण नहीं है, यहां से हवा बिगड़ने और बनने का काम प्रारंभ होता है। नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव का भविष्य जहां इस चुनाव से तय होगा, वहीं नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए भी ये चुनाव भाजपा संगठन में उनकी उपस्थिति को तय करेंगें। दिल्ली प्रदेश के बाद मोदी के लिए यह दूसरी कठिन परीक्षा है। भाजपा को बिहार में मौजूदा विधायकों से अधिक लाने की चुनौती जहां मौजूद है,वहीं उप्र के नेता इस बात से आश्वस्त हो सकते हैं कि वहां तो मौजूदा विधायकों से ज्यादा विधायक निश्चित ही आएंगें। जानकारी के लिए दिल्ली और उप्र दो ऐसे राज्य हैं जहां भाजपा के लोकसभा सदस्यों की संख्या विधायकों से ज्यादा है। 

शनिवार, 30 मई 2015

आप क्यों चाहते हैं कि विरोधी भी करें मोदी-मोदी!

भाजपा सरकार को राजनीतिक विरोधियों की आलोचना से घबराने की जरूरत नहीं
-संजय द्विवेदी

   भारतीय जनता पार्टी और उसकी सरकार इन दिनों इस बात के लिए काफी दबाव में है कि उसके अच्छे कामों के बावजूद उसकी आलोचना या विरोध ज्यादा हो रहा है। भाजपा मंत्रियों और संगठन के नेताओं के इन दिनों काफी इंटरव्यू देखने को मिले जिनमें उन्हें लगता है कि मीडिया उनके प्रतिपक्ष की भूमिका में है। खुद सूचना एवं प्रसारण मंत्री अरूण जेटली ने कहा कि मीडिया एजेंडा सेट कर रहा है। इसी तरह पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की नाराजगी भी मीडिया से नजर आती है। उनसे एक एंकर ने पूछा कि कभी ऐसा लगा कि कुछ गलत हो गया, तो वे बोले कि तभी ऐसा लगता है जब आप लोगों को नहीं समझा पाते। जाहिर तौर पर दिल्ली की नई सरकार मीडिया से कुछ ज्यादा उदारता की उम्मीद कर रही है। जबकि यह आशा सिरे से गलत है।
सारे सर्वेक्षण यह बता रहे हैं कि मोदी आज भी सबसे लोकप्रिय नेता हैं, उनकी लोकप्रियता के समकक्ष भी कोई नहीं है और जनता की उम्मीदें अभी भी उनसे टूटी नहीं है। समस्या यह है कि भाजपा नेता उन लोगों से अपने पक्ष में सकारात्मक संवाद की उम्मीद कर रहे हैं जो परंपरागत रूप से भाजपा और उसकी राजनीति के विरोधी हैं। वे मोदी विरोधी भी हैं, भाजपा और संघ के विरोधी भी हैं। वे आलोचक नहीं हैं, वे स्थितियों को तटस्थ व्याख्याकार नहीं हैं। उनका एक पक्ष है उससे वे कभी टस से मस नहीं हुए। ऐसे आग्रही विचारकों की निंदा या विरोध को भाजपा को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं हैं। आज के टीवी दर्शक और अखबारों के पाठक बहुत समझदार हैं। वे इन आलोचनाओं के मंतव्य भी समझते हैं। टीवी पर भी रोज जो ड्रामा रचा जाता है बहस के नाम पर वह भी दर्शकों के लिए एक लीला ही है। पार्टियों के प्रवक्ताओं को छोड़ दें तो शेष राजनीतिक विश्लेषक या बुद्धिजीवी जो टीवी पर बैठकर हिंदुस्तान का मन बताते हैं उनके चेहरे देखकर कोई भी टीवी दर्शक यह जान जाता है कि वे क्या कहेंगें। इसी तरह नाम पढकर पाठक उनके लेख का निष्कर्ष समझ जाता है। वे वही लोग हैं जो चुनाव के पूर्व यह मानने को तैयार नहीं थे कि मोदी की कोई लहर है और भाजपा कभी सत्ता में भी आ सकती है। वे देश की दुदर्शा के दौर में भी यूपीए-तीन का इंतजार कर रहे थे। भाजपा उनके तमाम विश्वेषणों और लेखमालाओं व किंतु-परंतु के बाद भी चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल कर लेती है। उसके बाद ये सारे लोग यह बताने में लग गए कि भाजपा को देश में सिर्फ 31 प्रतिशत वोट मिले हैं और मोदी को मिला समर्थन अधूरा है क्योंकि 69 प्रतिशत वोट उनके विरूद्ध गिरे हैं।
   भाजपा की दुविधा यह है कि वह इस कथित बुद्धिजीवी वर्ग से सहानुभूति पाना चाहती है। आखिर यह क्यों जरूरी है। जबकि सच तो यह है यह वर्ग आज भी नरेंद्र मोदी को दिल से प्रधानमंत्री स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उन्हें इस जनादेश का लिहाज और उसके प्रति आस्था नहीं है। जनमत को वे नहीं मानते क्योंकि वे बुद्धिजीवी हैं। उनके मन का न हो तो सामने खड़े सत्य को भी झूठ करने की विधियां जानते हैं। ऐसे लोगों की सदाशयता आखिर भाजपा को क्यों चाहिए? आप देखें तो वे भाजपा के हर कदम के आलोचक हैं। कश्मीर का सवाल देखें। जिन्हें गिलानी और अतिवादियों के साथ मंच पर बैठने में संकोच नहीं वे आज वहां फहराए जा रहे पाकिस्तानी झंडों पीडित हैं। अगर कश्मीर में कांग्रेस या नेशनल कांफ्रेस के साथ पीडीपी सरकार बनाती तो सेकुलर गिरोह को समस्या नहीं थी। किंतु भाजपा ने ऐसा किया तो उन्हें डा. श्यामाप्रसाद मुखर्जी की याद आने लगी। वे लिखने लगे कि 370 का क्या होगा? भाजपा अपने वादे से हट रही है। भाजपा अपने वादे से हटकर आपके स्टैंड पर आती है तो आप उसके विरोध में क्यों हैं? ऐसे जाने कितने विवाद रोज बनाए और खड़े किए जाते हैं। सरकार के अच्छे कामों पर एक शब्द नहीं। किसी साध्वी के बयान पर हंगामा। राजनीति का यह दौर भी अजब है। जहां प्रधानमंत्री की सफलता भी एक बड़े वर्ग को दुखी कर रही है। उनके द्वारा विदेशों में जाकर किए जा सफल अनुबंधों और संपर्कों पर भी स्यापा व्याप्त है। यह सूचनाएं बताती हैं कि मोदी को आज भी दिल्ली वालों ने स्वीकार नहीं किया है। यह सोचना गजब है कि जब आडवानी जी का भाजपा संगठन पर खासा प्रभाव था तो इस सेकुलर खेमे के लिए अटल जी हीरो थे। जब मोदी आए तो उन्हें आडवानी जी की उपेक्षा खलने लगी। आज भाजपा के सफल पीढ़ीगत परिवर्तन को भी निशाना बनाया जा रहा है। मोदी के नेतृत्व में मिली असाधारण सफलताओं का भी छिद्रान्वेषण किया जा रहा है। यह कितना विचित्र है कि मोदी का वस्त्र चयन भी चर्चा का मुद्दा है। उनकी देहभाषा भी आलोचना के केंद्र में है। एक कद्दावर नेता को किस तरह डिक्टेटर साबित करने की कोशिशें हो रही हैं इसे देखना रोचक है।

   ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि भाजपा और उसके समविचारी संगठनों को आलोचकों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए। क्योंकि वे आलोचक नहीं है बल्कि भाजपा और संघ परिवार के वैचारिक विरोधी हैं। इसीलिए मोदी जैसे कद्दावर नेता के विरूद्ध कभी वे अरविंद केजरीवाल को मसीहा साबित करने लगते हैं तो कभी राहुल गांधी को मसीहा बना देते हैं। उन्हें मोदी छोड़ कोई भी चलेगा। जनता में मोदी कुछ भी हासिल कर लें, अपने इन निंदकों की सदाशयता मोदी को कभी नहीं मिल सकती। इसलिए मीडिया में उपस्थित इन वैचारिक विरोधियों का सामना विचारों के माध्यम से भी करना चाहिए। इनकी सद्भावना हासिल करने का कोई भी प्रयास भाजपा को हास्य का ही पात्र बनाएगा। क्योंकि एक लोकतंत्र में रहते हुए विरोध का अपना महत्व है। आलोचना का भी महत्व है। इसलिए इन प्रायोजित और तय आलोचनाओं से अलग मोदी और उनके शुभचिंतकों को यह पहचानने की जरूरत है कि इनमें कौन आलोचक हैं और कौन विरोधी। आलोचकों की आलोचना को सुना जाना चाहिए और उनके सुझावों का स्वागत होना चाहिए,जबकि विरोधियों को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए और यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए आपके राजनीतिक-वैचारिक विरोधी भी देश की बेहतरी के लिए मोदी-मोदी करने लगेंगें। यह काम अपने समर्थकों से ही करवाइए, विरोधियों को उनके दुख के साथ अकेला छोड दीजिए। अपनी चिंताओं के केंद्र में सिर्फ सुशासन,विकास और भ्रष्टाचार को रखिए, आखिरी आदमी की पीड़ा को रखिए। क्योंकि अगर देश के लोग आपके साथ हैं, तो राजनीतिक विरोधियों को मौका नहीं मिलेगा। इसलिए विचलित होकर प्रतिक्रियाओं में समय नष्ट करने के बजाए निरंतर संवाद और राष्ट्र सर्वोपरि का भाव ही मोदी सरकार का एकमात्र मंत्र होना चाहिए।

सोमवार, 25 मई 2015

समाचार पत्रों में छपे लेखों की क्लीपिंग्स

जगबानी(पंजाबी) 25 मई,2015

                                                       डेली न्यूज एक्टीविस्ट, लखनऊ,25मई,2015
                                                           स्वदेश, भोपाल 25मई,2015
                                                      हिंद समाचार (उर्दू) 25.5.2015
स्टार समाचार,सतना 25.5.2015

                                                    पंजाब केसरी, जालंधर, 25.5.2015

शनिवार, 23 मई 2015

मोदी सरकार से क्या हासिल

टूटे हुए भरोसे को जोड़ने और आम नागरिकों के आत्मविश्वास की सरकार
                          -संजय द्विवेदी

                              

   नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर मीडिया में विमर्श, संवाद और विवाद निरंतर है। एक सरकार जिसने अपने एक साल पूरे किए हैं, वह स्वयं भी इन विमर्शों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले रही है। यानि यह सरकार संवाद करती हुई सरकार है, उत्सवधर्मी सरकार है,लोगों से सरोकार रखने वाली सरकार है। यही तीन बातें मोदी सरकार की सबसे बड़ी विशेषताएं भी हैं।
   पिछले 10 साल तक भारत में राज करने वाली खामोश सरकार के बजाए यह बोलने वाली सरकार है। यह चुप्पा सरकार नहीं है। देश की जनता को यह सक्रियता और संवादप्रियता पसंद आती आ रही है। क्योंकि कोई भी सरकार कुछ भी बोल नहीं सकती, बोलने के बाद करने का दबाव उस पर अपने आप बनता है। मोदी की सरकार के लिए यह एक वर्ष इस मायने में उपलब्धि के हैं कि उन्होंने अवसादग्रस्त और दुखी हिंदुस्तानियों को भरोसा दिया है, आत्मविश्वास दिया है। राजनीति और सरकार की सक्रियता से भी कुछ बदल सकता है, यह भरोसा जगा दिया है। इसी कारण लोगों ने मोदी को बहुमत दिया, आज भी यह भरोसा हिला और दरका नहीं है, मोदी लोगों के चहेते बने हुए हैं। उन्हें चुनकर गलती हो गयी यह अहसास उनके विरोधियों को भले ही खाए जा रहा हो किंतु जनता का भरोसा उन पर कायम है। उनकी लोकप्रियता और जादू में कहीं से कोई दरार अभी नहीं दिख रही है। वे आज भी देश के भरोसेमंद नेता के नाते लोगों के दिलों में कायम हैं। भारत एक विशाल देश है, असीमित आकांक्षाओं और अनगिनत सपनों का देश है। किंतु देशवासियों की साझा आकांक्षाएं यही हैं कि उनका देश भ्रष्ट, दब्बू, पिलपिले और अराजक देश के नाते न पहचाना जाए। उसकी पहचान एक आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था, बेहतर प्रशासन, अच्छी शिक्षा और सुरक्षा, सुप्रबंधन, युवाओं को बेहतर कार्य अवसरों वाले देश के रूप में हो। नरेंद्र मोदी ने यह भरोसा जताया है कि वे यह कर सकते है। आत्मविश्वास से लोगों को भरने का काम अपने चुनावी अभियान से उन्होंने प्रारंभ किया और मई में ऐतिहासिक जीत हासिल कर वे पांच साल के लिए सायलेंट मोड में नहीं बैठ गए,बल्कि इस सकारात्मक संवाद को निरंतर किया। आत्मविश्वास से भरी उनकी देहभाषा, उनके सपने, कुछ करने को आतुर दिखती उनकी भाषण शैली, सब कुछ मिलकर देश में सकारात्मक वातावरण तो बना ही रहे हैं, यह बता भी रहे हैं देश की जनता ने गलती नहीं की है। एक विशाल देश के सपने सामूहिकता को साधकर ही पूरे हो सकते हैं। मोदी ने कमोबेश इसे करने की कोशिश की है।
   जम्मू-कश्मीर में सरकार बनाने से लेकर, लालू यादव-मुलायम सिंह से लेकर दिग्विजय सिंह के शादी समारोहों में शिरकत करने जैसे छोटे प्रसंग बताते हैं कि मोदी में सामान्य शिष्टाचार से आगे बढ़कर देश को साथ लेने की आकांक्षा है। वे देश के नेता सरीखा व्यवहार कर रहे हैं। उन्हें पता है कि राज्यों को अधिकार देकर, मुख्यमंत्रियों को टीम इंडिया का हिस्सा बनाकर ही इस देश के सपने पूरे हो सकते हैं। इसलिए वे पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की तारीफ कर सकते हैं, तो जयललिता को आरोप मुक्त होने पर बधाई दे सकते हैं। यह बड़ा दिल ही उनकी कार्यशैली से व्यक्त हो रहा है। मोदी को पता है उनकी असली परीक्षा तो चुनाव जीतने के बाद ही प्रारंभ हुयी है। वे दंभ से भरे होते तो एक बिल पास होने पर सोनिया जी को धन्यवाद देने उनकी मेज तक न पहुंचते। यह सामान्य प्रसंग बताते हैं कि उनके पास एक लोकतांत्रिक मन है। कई बार कोई कद्दावर नेता सामने हो तो यह छवि बनती है वह लोगों की सुनता नहीं होगा, डिक्टेटर होगा। आप देखें तो अकेले नरेंद्र मोदी क्यों ममता बनर्जी, जयललिता, अरविंद केजरीवाल जैसों के बारे में भी लगभग यही छवि प्रक्षेपित होती है। किंतु अपने लोगों की स्वीकृति, आम जनता के समर्थन के बिना आप यह कहां कर सकते हैं। इन नेताओं के पास जिस प्रकार का जनसमर्थन है, जितना प्यार है, उसे हासिल करना साधारण कहां है।
   नरेंद्र मोदी की वैश्विक यात्राएं एक उठ खड़े हो रहे भारत की गवाही देती हैं। अपने देश से निराश भारतवंशियों के मन में आस्था जगाती हैं। ये भारतवंशी ही आज दुनिया में भारत के सबसे बड़े ब्रांड अंबेस्डर हैं। सही मायने में मोदी की यह यात्राएं एक अवसर हैं दुनिया में भारतीय होने का गर्व जगाने का। राजनीति भी कुछ बदलती है, मोदी लगातार यह अहसास कराते हैं। खासकर अन्ना आंदोलन के दिनों में जैसा वातावरण आम जनता में बनाया गया कि सारे राजनेता भ्रष्ट हैं और राजनीति से कुछ नहीं बदलेगा। मोदी ने अपने चुनावी अभियानों के दौरान ही इस सारे मिथक को तोड़ा और सत्ता पाकर राजनीति की राष्ट्र सर्वोपरि की धारा को आगे बढ़ाया। देश के टूटे मन को जोड़ने का यह बड़ा प्रयास था। मोदी स्वयं इस विचार को नहीं मानते की सत्ता से सब कुछ हो सकता है। वे एक ऐसी धारा से आते हैं जो समाज की सामूहिक शक्ति और चेतना में विश्वास करती है। समाज की सामूहिक शक्ति को साधना, उसे जागृत करना, उसे दिशा देना और परिणाम हासिल करना। हां, सरकारें और हर समय के नायक इसके लिए अपेक्षित वातावरण जरूर बनाते हैं। भारत की विशालता और उसका आकार व जनसंख्या हर असंभव काम को कर सकती है। बस उचित वातावरण की जरूरत है। नरेंद्र मोदी जानते हैं कि सरकारों की शक्ति की सीमा सीमित है। एक जागृत और चेतनावान समाज ही अपने संकटों से लड़ सकता है। नरेंद्र मोदी के सत्ता में होने के मायने यह भी हैं कि लोग मानते हैं अब भ्रष्टाचार पर अंकुश लगेगा, सत्ता अराजक न होगी, वह काम करती दिखेगी, नेतृत्व का शासन-प्रशासन पर प्रभाव होगा और वे सही दिशा में चीजों को ले जाने के यत्न करेगें।
    भारत का समाज पुरूषार्थी समाज है ।वह सत्ता पर निर्भर समाज नहीं है। उसने हर समय में अपने परिश्रम, योग्यता और ज्ञान से देश के हर अभाव की पूर्ति की है। भारतीय समाज की इसी विशेषता ने दुनिया की वैश्विक मंदी के बीच भी हमारी ताकत को संभाले रखा। हम लड़खड़ाए पर गिरे नहीं। यह भारतीयों के श्रम,कौशल और पुरूषार्थ के चलते ही संभव हो पाया था। देश और दुनिया में अपने परिश्रम और ज्ञान से यही युवा अपने देश को कमाकर धन भेजते हैं, इससे देश की अर्थव्यवस्था को शक्ति मिलती है। यही शक्ति हमारी ताकत है। इसी को सूत्र में बांधने और संगठित करने का काम राजनीति करती है। लोगों की बिखरी  हुई ताकत उचित वातावरण पाकर एक होती है और बड़े परिणाम देती है। नरेंद्र मोदी की सरकार आज यह करती हुयी दिख रही है। वे सिर्फ भारतवंशियों को जोड़ नहीं रहे बल्कि उनको भारत समर्थक शक्ति के रूप में विश्व मंच पर एकजुट भी कर रहे हैं। यह भारत की वैश्विक छवि निर्माण का भी समय है। आज भारत अपने हितों को लिए दुनिया भर से समर्थन जुटा पाने में सफल होता दिखता है। इस मोदी समय का मूल्यांकन करने का वक्त दरअसल अभी नहीं आया है। हमारे प्रशासन तंत्र की मंथर गति, कार्य को रोकने और यथास्थिति बनाए रखने की शैली इसका बड़ा कारण है। किंतु दुनिया बदल रही है, जो न बदले वे रूक जाएंगें। मोदी चल चुके हैं, देश साथ चल चुका है। इस मोदी समय की वास्तविक छवियां तीसरे साल आकार लेती दिखेंगी, उसमें देश अपने भविष्य को आकार लेता हुआ देखेगा। एक नया समय भारत की जनशक्ति को एकजुट होकर सपनों में रंग भरने के लिए प्रेरित कर रहा है। मोदी समय ने हम सबको यह अवसर दिया है। इसी भरोसे और आत्मविश्वास से हम वह सब कुछ हासिल कर सकते हैं, जिससे भारत वास्तव में अपनी शक्ति को साकार होता हुआ देखेगा।    

शनिवार, 16 मई 2015

रिटेल एफडीआई पर केंद्र सरकार के यू-टर्न के मायने क्या हैं

                          -संजय द्विवेदी


   भारतीय जनता पार्टी की मोदी सरकार ने खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत एफडीआई के पूर्ववर्ती सरकार के निर्णय को जारी रखने का फैसला किया है। कभी इसी भाजपा ने 8 दिन संसद रोककर, हर राज्य की राजधानी में बड़ा प्रदर्शन आयोजित कर यह कहा था कि वह सत्ता में आई तो तुरंत रिटेल सेक्टर में एफडीआई का फैसला वापस ले लेगी। भाजपा के चुनाव घोषणापत्र और चुनावी जुमलों में यह नारेबाजी जारी रही। 20 सिंतबर,2012 को 48 छोटी-बड़ी पार्टियों के साथ भारत बंद का आयोजन कर भाजपा ने इस नीति का विरोध किया था और एक मंच पर भाजपा-कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट सब साथ आए थे।
   आखिर अपने एक साल पूरे करने जा रही भाजपा सरकार की ऐसी क्या मजबूरी है कि उसने रिटेल एफडीआई को जारी रखने का फैसला किया है? यह समझना मुश्किल है कि क्या उस समय अरूण जेटली, सुषमा स्वराज, आडवानीजी ने जो कुछ कहा था वह सच था या आज जब वे सत्ता में होते हुए इसे आगे बढ़ा रहे हैं। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात के खिलाफ थे। भाजपा पर भरोसा कर उसे वोट देने वाले इन फैसलों से ठगा हुआ सा महसूस कर रहे हैं। वैसे भी यह कानून नहीं है, एक नीति है जो एक कैबिनेट के फैसले से रद्द हो सकती है। इसके लिए राज्यसभाई बहुमत की जरूरत नहीं है। सरकार चाहती तो इसे एक पल में रद्द कर सकती थी। रिटेल में एफडीआई का सवाल वैसे भी राज्य की सूची में है। उस समय 11 राज्यों ने इसे स्वीकार किया था और भाजपा शासित राज्यों ने इसे स्वीकारने से मना किया था। भूमि अधिग्रहण कानून को अलोकप्रियता सहकर भी बदलने के लिए आतुर मोदी सरकार आखिर रिटेल एफडीआई के फैसले को रद्द करने से क्यों बच रही है, यह एक बड़ा सवाल है। क्या जब वे 8 दिन लोकसभा रोककर और भारत बंद में शामिल होकर देश का करोडों का आर्थिक नुकसान कर रहे थे, तब उन्हें यह अंदाजा नहीं था कि वे सत्ता में आएगें? आज जब पालिसी का मूल्यांकन करने का समय था तो उसने मनमोहन सरकार की नीति  को जस का तस स्वीकार किया है। सैद्धांतिक रूप से चीजों का विरोध करना और व्यावहारिक तरीके से उसे स्वीकारना साफ तौर पर दोहरी राजनीति है, जिसे सराहा नहीं जा सकता।  7 मार्च,2013 को रामलीला मैदान की रैली में आज के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने यह घोषणा की थी कि वे सत्ता में आते ही इस जनविरोधी नीति को वापस लेंगे। कहा जा रहा है कि सरकार इस नीति को इसलिए वापस नहीं ले सकती कि इससे विदेशों में, निवेशकों में गलत संदेश जाएगा? दूसरी ओर प्रवक्ता यह भी कह रहे ,हैं हमने किसी को साल भर में रिटेल में एफडीआई के लिए अनुमति नहीं दी है। यह कहां का मजाक है ?अगर आप अनुमति नहीं दे रहे हैं, तो इस नीति का लाभ क्या है। सही तो यह है कि सरकार पहले भारत के आम लोगों के बीच अपनी छवि की चिंता करे न कि निवेशकों और वैश्विक छवि की। आम जनता का भरोसा खोकर सरकार दुनिया में अपनी छवि चमका भी ले जाती है तो उसका फायदा क्या है?
    हालात यह हैं तमाम राज्यों में होलसेल का लाइसेंस लेकर विदेश कंपनियां रिटेल सेक्टर में फुटकर कारोबार कर रही हैं और लोगों से झूठ बोला जा रहा है। क्या देश की जनता के प्रश्न और सरकार के हित अलग-अलग हैं? पूर्ववर्ती यूपीए सरकार ने जिस छल के साथ बिना चर्चा किए फिर इस नीति को लागू किया, क्या इस व्यवस्था को जनतंत्र कहना उचित होगा? जनभावनाएं खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के खिलाफ हैं, तमाम राजनीतिक दल इसके विरोध में हैं किंतु सरकार तयशुदा राह पर चल रही है। शायद इसीलिए राजनीतिक दलों की नैतिकता और ईमानदारी पर सवाल उठते हैं। क्योंकि आज के राजनीतिक दल अपने मुद्दों के प्रति भी ईमानदार नहीं रहे। खुदरा क्षेत्र में एफडीआई का सवाल जिससे 5 करोड़ लोगों की रोजी-रोटी जाने का संकट है, हमारी राजनीति में एक सामान्य सा सवाल है। भाजपा ने कांग्रेस के इस कदम का विरोध करते हुए राजनीतिक लाभ तो ले लिया और आज वह खुद उसी रास्ते पर बढ़ रही है।
    याद कीजिए कि आज के राष्ट्रपति और पूर्ववर्ती सरकार के तत्कालीन वित्तमंत्री श्री प्रणव मुखर्जी दिनांक सात दिसंबर, 2011 को संसद में यह आश्वासन देते हैं कि आम सहमति और संवाद के बिना खुदरा क्षेत्र में एफडीआई नहीं लाएंगें। किंतु मनमोहन सरकार अपना वचन भूल गई और चोर दरवाजे से जब संसद भी नहीं चल रही है, खुदरा एफडीआई को देश पर थोप दिया गया। आखिर क्या हमारा लोकतंत्र बेमानी हो गया है? जहां राजनीतिक दलों की सहमति, जनमत का कोई मायने नहीं है। क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि राजनीतिक दलों का विरोध सिर्फ दिखावा है ?
    आप देखें तो राजनीति और अर्थनीति अरसे से अलग-अलग चल रहे हैं। यानि हमारी राजनीति तो देश के भीतर चल रही है किंतु अर्थनीति को चलाने वाले लोग कहीं और बैठकर हमें नियंत्रित कर रहे हैं। यही कारण है कि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में अर्थनीति पर दिखावटी मतभेदों को छोड़ दें तो आम सहमति बन चुकी है। रास्ता वही अपनाया जा रहा है जो नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने दिखाया था। उसके बाद आयी तीसरा मोर्चा की सरकारें हो या स्वदेशी की पैरोकार भाजपा की सरकार सबने वही किया जो मनमोहन टीम चाहती है। ऐसे में यह कहना कठिन है कि हम विदेशी राष्ट्रों के दबावों, खासकर अमरीका और कारपोरेट घरानों के प्रभाव से मुक्त होकर अपने फैसले ले पा रहे हैं। अपनी कमजोर सरकारों को गंवानें की हद तक जाकर भी हमारी राजनीति अमरीका और कारपोरेट्स की मिजाजपुर्सी में लगी रही। यह सारा कुछ हम देख चुके हैं। पश्चिमी और अमरीकी मीडिया जिस तरह अपने हितों के लिए सर्तक और एकजुट है, क्या हमारा मीडिया भी उतना ही राष्ट्रीय हितों के लिए सक्रिय और ईमानदार है?
    हम देखें तो 1991 की नरसिंह राव की सरकार जिसके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे ने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की शुरूआत की। तब राज्यों ने भी इन सुधारों को उत्साहपूर्वक अपनाया। लेकिन जनता के गले ये बातें नहीं उतरीं यानि जन राजनीति का इन कदमों को समर्थन नहीं मिला, सुधारों के चैंपियन आगामी चुनावों में खेत रहे और संयुक्त मोर्चा की सरकार सत्ता में आती है। गजब यह है कि संयुक्त मोर्चा सरकार और उसके वित्तमंत्री पी. चिदंबरम् भी वही करते हैं जो पिछली सरकार कर रही थी। वे भी सत्ता से बाहर हो जाते हैं। फिर अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में आती है। उसने तो गजब ढाया। प्रिंट मीडिया में निवेश की अनुमति, केंद्र में पहली बार विनिवेश मंत्रालय की स्थापना की और जोर-शोर से यह उदारीकरण का रथ बढ़ता चला गया। यही कारण था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचारक स्व.दत्तोपंत ढेंगड़ी ने तत्कालीन भाजपाई वित्तमंत्री को अनर्थमंत्री तक कह दिया। संघ और भाजपा के द्वंद इस दौर में साफ नजर आए। सरकारी कंपनियां धड़ल्ले से बेची गयीं और मनमोहनी एजेंडा इस सरकार का भी मूलमंत्र रहा। अंततः इंडिया शायनिंग की हवा-हवाई नारेबाजियों के बीच भाजपा की सरकार भी विदा हो गयी। सरकारें बदलती गयीं किंतु हमारी अर्थनीति पर अमरीकी और कारपोरेट प्रभाव कायम रहे। सरकारें बदलने का नीतियों पर असर नहीं दिखा। फिर कांग्रेस लौटती है और देश के दुर्भाग्य से उन्हीं डा. मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह, चिदम्बरम् जैसों के हाथ देश की कमान आ जाती है जो देश की अर्थनीति को किन्हीं और के इशारों पर बनाते और चलाते थे। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि जनता ने प्रतिरोध नहीं किया। जनता ने हर सरकार को उलट कर एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की, किंतु हमारी राजनीति पर इसका कोई असर नहीं हुआ।
    एक बार फिर लोगों ने नरेंद्र मोदी की सरकार को चुनकर उन्हें भारत के स्वाभिमान को विश्वमंच पर स्थापित करने की कमान दी है। नरेंद्र मोदी जैसा कद्दावर और मजबूत नेता अगर घुटने टेकता दिखेगा तो देश किस पर भरोसा करे?रिटेल एफडीआई का सवाल बहुत छोटा सवाल हो सकता है किंतु वह इतना बताने के लिए पर्याप्त है कि हमारे राजनीतिक दल गहरे द्वंद और मुद्दों पर दिशाहीनता के शिकार हैं। बाजार की आंधी में उनके पैर उखड़ रहे हैं। वे विचारों, नीतियों और कार्यक्रमों पर खासे भ्रमित हैं। यहां तक कि सरकारों को अपनी छवि की भी परवाह नहीं है। प्रधानमंत्री अगर सत्ता संभालते हुए अपनी सरकार गरीबों को समर्पित करते हैं और साल भर में सरकार की छवि कारपोरेट समर्थक, गरीब और मध्यम वर्ग विरोधी के रूप में स्थापित हो जाए, तो उन्हें सोचना जरूर चाहिए। एफडीआई रिटेल पर भाजपा सरकार के नए रवैये पर स्वदेशी जागरण मंच, मजदूर संघ, अखिलभारतीय ग्राहक पंचायत और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की धारा के मित्र क्या सोच रहे हैं, इसे जानने में लोगों की रूचि जरूर है। उम्मीद है कि वे भी सरकार के इस फैसले के साथ तो नहीं ही होगें।
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)


   

सोमवार, 11 मई 2015

नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल पर समाचार पत्रों में छपी टिप्पणी


डेली न्यूज एक्टीविस्ट, लखनऊ 
                                                                   
स्टार समाचार, सतना

इंदौर में विश्व संवाद केंद्र द्वारा आयोजित नारद जयंती कार्यक्रम










स्नेह की डोरः सच कहूं तो छत्तीसगढ़ की जमीं से आत्मीयता और स्नेह की खुशबू लिए मेरे मित्र,छत्तीसगढ़ के स्कूल शिक्षा एवं आदिवासी कल्याण मंत्री श्री केदार कश्यप आज मेरे कर्मस्थल माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में पधारे। उनके साथ भोपाल नगर निगम के अध्यक्ष भाई सुरजीत सिंह चौहान भी थे।




नारद जयंती प्रसंग पर विश्व संवाद केंद्र द्वारा इंदौर में आयोजित कार्यक्रमः समाचार पत्रों की नजर में

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