शनिवार, 12 अप्रैल 2014

ऐतिहासिक चुनाव अभियान और निशाने पर मोदी


-संजय द्विवेदी
      हिंदुस्तान के लोकतांत्रिक इतिहास में शायद ये सबसे महत्वपूर्ण चुनाव हैं, जिसमें दिल्ली की गद्दी के बैठै शासकों के बजाए गुजरात राज्य के विकास माडल और उसके मुख्यमंत्री के चाल, चेहरे और चरित्र पर बात हो रही है। प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार रहे संजय बारू की किताब और उनके बयान बताते हैं कि देश पिछले दस सालों से कैसे बेचारे प्रधानमंत्री के हवाले था। इस पूरी चुनावी जंग से वे गायब हैं। प्रचार अभियान से भी गायब हैं। विपक्षी दल भी अति उदारता बरतते हुए उन्हें निशाने पर नहीं ले रहे हैं।
   जाहिर तौर पर मनमोहन सिंह के लिए सहानुभूति चौतरफा है। ऐसे ईमानदार प्रधानमंत्री जिनके शासनकाल में घोटालों के अब तक के तमाम रिकार्ड टूट गए। ऐसे महान अर्थशास्त्री जिनके राज में देश की अर्थव्यवस्था औंधें मुंह गिरी हुयी है और महंगाई अपने चरम पर है। किंतु इतिहास की इस घड़ी में वे ही ऐसे हैं जो कांग्रेस के पहले गैर गांधी प्रधानमंत्री हैं जो बिना गांधी हुए कुर्सी पर दस साल का वक्त काट ले गए। इसके पहले पीवी नरसिंह राव ही थे जो पांच साल तक प्रधानमंत्री रहे, किंतु मनमोहन सिंह ने उनका भी रिकार्ड तोड़ दिया। शायद उनके गैर राजनीतिक होने का लाभ उन्हें मिला और वे इतनी लंबी पारी खेल ले गए। अपने पूरे दस साल के कार्यकाल में वे दो ही बार सक्रिय नजर आए। एक अमरीका से साथ परमाणु करार को स्वीकारने के समय और दूसरे रिटेल में एफडीआई लागू करवाने के वक्त। जाहिर तौर पर ये दोनों कदम भारत की जनता को रास नहीं आए पर उन्होंने इसे संभव किया और इन दो अवसरों पर वे सरकार गिराने की हद तक आत्मविश्वासी और साहसी दिखे। लेकिन जाते-जाते उन्होंने न सिर्फ दल बल्कि देश को एक अविश्वास और निराशा से भर दिया। मनमोहन सिंह राजनीति इस कदर निराश करती है कि एक राज्य के नेता नरेंद्र मोदी भी हमें आदमकद दिखने लगे। निराशा यहां तक घनी थी कि लोग अरविंद केजरीवाल जैसे साधारण कद काठी के एक आंदोलनकारी को भी विकल्प के रूप में देखने लगे। जबकि अनुभव, विद्वता और ईमानदारी में जब मनमोहन सिंह जी प्रधानमंत्री बने थे तो एक चमकते चेहरे थे। आज उनकी सारी योग्यताएं औंधे मुंह पड़ी हैं। हालात यह हैं कि लोग उनके बारे में इस बेहद रोमांचक और हाईपर चुनाव में भी बात नहीं करना चाहते। देखें तो सारी चर्चा के केंद्र में नरेंद्र मोदी हैं। यानी कि कांग्रेस समेत पूरे विपक्ष ने मान लिया है कि मोदी प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं और उनको रोकना जरूरी है।
   राहुल गांधी, मुलायम सिंह,मायावती, ममता बनर्जी,नीतिश कुमार सबके निशाने पर नरेंद्र मोदी है। ऐसे में लगता है कि नरेंद्र मोदी ने अपने सधे हुए चुनाव अभियान से न सिर्फ अपने प्रतिपक्षियों को बहुत पीछे छोड़ दिया है वरन कांग्रेस कार्यकर्ताओं में बहुत हताशा भर दी है। चुनाव के ठीक पहले जिस तरह से राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के सहयोगी बढ़ने शुरू हुए उससे भी भाजपा को एक मनोवैज्ञानिक बढ़त मिलनी प्रारंभ हो गयी थी। फिर तमाम नेताओं का भाजपा प्रवेश भी यह संदेश देने में सफल रहा कि हवा बदल रही है। रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज का साथ भाजपा के सामाजिक आधार को स्वीकृति दिलाने वाला साबित हुआ तो तमाम दिग्गज कांग्रेसियों से भाजपा प्रवेश ने एक नई तरह की शुरूआत कर दी। मप्र में हाल में तीन कांग्रेस विधायक भाजपा की शरण में जा चुके हैं। इसके साथ ही कांग्रेस के कई सांसद उदयप्रताप सिंह (होशंगाबाद), जगदंबिका पाल (डुमरियागंज) भाजपा में शामिल हो चुके हैं। इन हालात ने कांग्रेस के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। इसके साथ ही उसके सहयोगी दल भी चुनाव प्रचार में मोदी के साथ कांग्रेस पर ही हमले कर रहे हैं। आप देखें तो समय ने इतिहास की इस घड़ी में नरेंद्र मोदी को बैठै-बिठाए अनेक अवसर दिए। जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के नेतृत्व में छेड़े गए ऐतिहासिक आंदोलन। इन आंदोलनों से निपटने का कांग्रेस का जो तरीका रहा, उसने जनता में गुस्सा भरा और भाजपा को एक विकल्प के रूप में देखने के लिए विचारों का निर्माण किया। भाजपा भी पिछले दो लोकसभा चुनाव हारकर आत्मविश्वास से रिक्त हो चुकी थी। इन आंदोलनों में सहयोग करते हुए उसने अपनी मैदानी सक्रियता बढ़ाई। पीढ़ीगत परिवर्तन से गुजर रही भाजपा को नरेंद्र मोदी एक उम्मीद की तरह नजर आने लगे। इस बीच अरविंद केजरीवाल के साथियों ने राजनीति में प्रवेश कर दिल्ली में चुनावी सफलता तो पा ली किंतु वे उस सफलता को संभाल नहीं पाए। अनुभवहीनता और महत्वाकांक्षांओं के भंवर में फंसकर उन्होंने एक बार फिर मोदी और भाजपा को ही ताकत दी। केजरीवाल आज खुद अपनी विफलता को स्वीकार कर चुके हैं। किंतु इस घटना ने देश के लोगों को मजबूर कर दिया कि वे भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी को एक बार अवसर देने का मन बनाएं।
  नरेंद्र मोदी की समूची राजनीतिक यात्रा में उफान उनके मुख्यमंत्री बनने के बाद ही आया। किंतु बहुत संयम से उन्होंने अपने आपको गुजरात तक सीमित रखा और अपनी महत्वाकाक्षाएं प्रकट नहीं होने दीं। इस बीच वे गुजरात में काम करते रहे और अपनी लाईन बड़ी करते गए। 2002 के दंगों के आरोपों के बावजूद वे बिना हो-हल्ले और मीडिया से सीमित संवाद करते हुए कानूनी मोर्चों और मीडिया की एकतरफा वारों को सहते हुए आगे बढ़ते गए। इतिहास की इस घड़ी में समय ने यह अवसर उनके लिए स्वयं बनाया, क्योंकि भाजपा दो लोकसभा चुनाव हार कर एक नए चेहरे की तलाश में थी। मोदी गुजरात में खुद को साबित कर चुके थे। टेक्नोसेवी होने के नाते वे सोशल मीडिया और उसकी ताकत को पहचान रहे थे। गुजरात और खुद को उन्होंने एक ब्रांड की तरह स्थापित कर लिया। विकास और सुशासन उनके मूलमंत्र बने। इसे उन्होंने जितना किया, उतना ही विज्ञापित भी किया।
    केंद्र में एक फैसले न लेती हुयी सरकार। राष्ट्रीय सुरक्षा से लेकर  महंगाई, भ्रष्टाचार के खिलाफ देश में पल रहे तमाम आंदोलन और बेचैनियां इस राष्ट्र को मथ रही थीं। नायक निराश कर रहे थे। युवा सड़कों पर थे। बदलाव के ताप से देश गर्म था। बाबा रामदेव, अन्ना हजारे, अरविंद केजरीवाल, श्रीश्री रविशंकर जैसे तमाम लोग अलख जगा रहे थे। इस बीच दिल्ली में हुई नृशंश बलात्कार की घटना ने देश को झकझोर दिया। आप देखें तो देश स्वयं एक ऐसे नायक की तलाश कर रहा था जो इन चीजों को बदल सके। बड़ी संख्या में आए नौजवान वोटर, प्रोफेशनल्स की आकांक्षाएँ हिलोरे ले रही थीं। देश के युवा आईकान राहुल गांधी, अखिलेश यादव और अरविंद केजरीवाल निराश करते नजर आए। जाहिर तौर पर जो इस नाउम्मीदी में जो चेहरा नजर आया वह नरेंद्र मोदी का था। अपने साधारण अतीत और आकर्षक वर्तमान से जुड़ती उनकी कहानियां एक फिल्म सरीखी हैं। इसके लिए वे तैयार भी थे। शायद इसीलिए चुनाव बेहद महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि ये चुनाव एक लंबी मुहिम के बाद लड़े जा रहे हैं। इस मुहिम में नरेंद्र मोदी ने बहुत पहले अपना अभियान आरंभ कर दिया था। वे पूरे देश को मथ रहे थे। अब वे देश का चेहरा भी बन गए हैं। निश्चय ही अपने सामाजिक और भौगोलिक आधार में भाजपा आज भी कई राज्यों में अनुपस्थित है। किंतु इस चुनाव में मोदी के चेहरे के सहारे वह पूर्ण बहुमत के सपने भी देख रही है। भारत जैसे महादेश में कोई भी दल आज इस तरह का दावा नहीं कर सकता। किंतु ये चुनाव जिस अंदाज में लड़े जा रहे हैं उसमें राजग व भाजपा के समर्थकों के लिए मोदी उम्मीद का चेहरा हैं तो विरोधियों के लिए वे महाविनाशक हैं। उनके पक्ष और विपक्ष में सेनाएं सजी हुयी हैं। उनके खिलाफ विषवमन व आरोपों की एक लंबी धारा है तो दूसरी ओर उम्मीदों का एक आकाश भी है। अब फैसला तो जनता को लेना है कि वह किसके साथ जाना पसंद करती है हालांकि यह तो उनके विरोधी भी मानते हैं कि प्रधानमंत्री पद के सभी उपलब्ध दावेदारों में मोदी सबसे चर्चित चेहरा हैं।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं) 

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

आडवानी तो मैदान में पर मनमोहन सिंह कहां हैं?

हमेशा व्यक्तिकेंद्रित ही रहे हैं चुनाव अभियान, मोदी केंद्र में हैं तो बुरा क्या है

-संजय द्विवेदी


   कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी का कहना है कि नरेंद्र मोदी ने लालकृष्ण आडवानी को बाहर कर दिया है और अडानी को अपना लिया है।  देश राहुल गांधी से जानना चाहता है कि आडवानी जी तो गांधी नगर के मैदान में हैं किंतु प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह कहां हैं? दस साल तक देश पर राज करने वाले प्रधानमंत्री से कांग्रेस और राहुल गांधी की इतनी बेरूखी क्यों है। क्या बुर्जुर्गों को रिटायर करने का कांग्रेस का यह तरीका काबिले तारीफ है? देश भूला नहीं है कि कैसे श्रीमती इंदिरा गांधी ने पार्टी के बुर्जुगों को धकियाकर कांग्रेस पर कब्जा किया था। इतना ही नहीं तो श्रीमती सोनिया गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर लाने के लिए एक निष्ठावान कांग्रेस नेता सीताराम केसरी जो उस समय पार्टी के चुने गए अध्यक्ष थे, को किस तरह घक्के मारकर मंच से हटाया गया था।
    भाजपा के तथाकथित मोदी समय में तो आडवानी,डा. मुरलीमनोहर जोशी तो मैदान में हैं ही। जो चुनाव नहीं लड़ रहे हैं ऐसे कल्याण सिंह और यशवंत सिन्हा की जगह उनके बेटे भी मैदान में हैं। इसलिए कांग्रेस जो एक परिवार से ही चलने वाली पार्टी है, उसके नेता जब बुर्जुगों के सम्मान पर चिंतित होते हैं तो देश की जनता को आश्चर्य होता है। दूसरे नेता हैं नीतिश कुमार जो अपने दल में अपने अधिनायकवादी चरित्र के लिए मशहूर हैं और उन्होंने अपने नेता जार्ज फर्नांडीस के अंतिम दिनों ने सिर्फ उनको एक लोकसभा की टिकट से वंचित कर दिया वरन उन्हें अकेला भी छोड़ दिया। राजनीति की ये बेरहम कहानियां सबके सबके सामने हैं। किंतु नरेंद्र मोदी सबका आसान निशाना बने हुए हैं। राजनीति में कोई किसी को पछाड़कर ही आगे बढ़ता है। अपनी लोकप्रियता और कार्यकर्ता समर्थन के बल पर अगर नरेंद्र मोदी आगे बढ़ते दिख रहे हैं तो इसे व्यक्तिवादी राजनीति कहना उचित नहीं है। हर चुनाव किसी नेता को केंद्र में रखकर ही लड़ा जाता है। एक  जमाने में आधी रोटी खाएंगें, इंदिराजी को लाएंगें, इंदिरा लाओ-देश बचाओ जात पर न पात पर ,इंदिरा जी की बात पर मोहर लगेगी हाथ पर(इंदिरा गांधी), उठे करोंड़ों हाथ हैं, राजीव जी के साथ हैं (राजीव गांधी)वोट अटल को, वोट कमल को ( अटलबिहारी वाजपेयी), राजा नहीं फकीर है, देश की तकदीर है(वीपी सिंह), “जिसने कभी न झुकना सीखा उसका नाम मुलायम है” (मुलायम सिंह यादव) जैसे नारे बताते हैं कि भारतीय राजनीति कोई पहली बार व्यक्तियों को केंद्र में रखकर नहीं हो रही है। कांग्रेस में तो एक जमाने में इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा( देवकांत बरूआ) जैसी बयानबाजियां भी हुयीं। जाहिर तौर पर हर पार्टी अपने सेनापति तय करके ही मैदान में उतरती है। भाजपा के लिए यह अवसर था कि वह इस निराशापूर्ण समय में उम्मीदों को जगाने वाले किसी राजनेता को मैदान में उतारे। एक जमाने में अटलबिहारी वाजपेयी भाजपा का चेहरा थे तब भाजपा के आलोचक उनको मुखौटा कहकर उनके सार्वजनिक प्रभाव को कम करने की कोशिश करते थे। बाद में लालकृष्ण आडवानी दो लोकसभा चुनावों में दल का चेहरा रहे। जिसमें भाजपा को पराजय मिली। दो लोकसभा चुनावों की पराजय से पस्तहाल भाजपा के सामने एक ही विकल्प था कि वो एक ऐसा चेहरा सामने लाए जो उसे मैदान में फिर से खड़े होने और संभलने का मौका दे। कोई भी दल अनंतकाल तक अपने नेता को नहीं ढोता। हर नेता का अपना समय होता है। जाहिर तौर पर आडवानी अपना सर्वश्रेष्ठ पार्टी को दे चुके थे।
    भाजपा पीढ़ीगत परिवर्तन से गुजर रही है। ऐसे में नरेंद्र मोदी अपने कार्यों और कार्यशैली के बल पर भाजपा कार्यकर्ताओं की पहली पसंद बन चुके थे। उनके दल के अन्य मुख्यमंत्री इस मायने में मोदी की लोकप्रियता के सामने अपने राज्यों तक सीमित थे। दिल्ली में विराजे तमाम भाजपा नेताओं में कोई अपने राष्ट्रीय जनाधार का दावा कर सके, ऐसी स्थिति नहीं थी। ऐसे में मोदी भाजपा के लिए एकमात्र विकल्प थे। समय ने साबित किया कि भाजपा का फैसला ठीक था और आज नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के संभावित उम्मीदवारों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय चेहरा हैं। कोई भी दल लोगों का समर्थन मांगने जाता है तो उसके प्रचार अभियान में प्रयुक्त होने वाली सामग्री में भी उस नेता की छवि ही प्रस्तुत की जाती है। कांग्रेस के इस चुनाव अभियान का पूरा केंद्र राहुल गांधी हैं। आप देखें तो कांग्रेस विज्ञापनों और होर्डिंग्स में सिर्फ राहुल गांधी का चेहरा है जिसमें वे कुछ युवाओँ और विभिन्न अन्य वर्गों के लोगों के साथ दिखते हैं। मनमोहन सिंह को छोड़िए, श्रीमती सोनिया गांधी का चेहरा भी विज्ञापनों से गायब है। इसमें गलत भी क्या है? कांग्रेस पार्टी राहुल गांधी को एक केंद्र में रखकर चुनाव लड़ रही है तो चेहरा उनका ही प्रमुख रहेगा। इसी तरह जब भाजपा मोदी का चेहरा इस्तेमाल करती है तो वह लोगों की आलोचना के केंद्र में आ जाती है। राहुल को केंद्र में रखने पर कोई आलोचना नहीं होती क्योंकि उन्हें एक ऐसी पार्टी में होने की सुविधा प्राप्त है जो गांधी परिवार के नाम पर ही एकजुट है। किंतु भाजपा की आलोचना इस आधार पर होती है कि वह व्यक्तिवादी या परिवारवादी पार्टी नहीं हैं। किंतु हमें यह समझना होगा कि भाजपा स्वयं अपने तरीके से अपने दल का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार तय किया है, तय करने के बाद क्या वह इस चेहरे का वैसा ही इस्तेमाल नहीं करेगी जैसा उसने अटल जी या आडवानी जी का किया था।

  इस समय मोदी को घेरने के लिए जिस तरह के तर्क दिए जा रहे हैं, जरा-जरा सी बातें निकाली और उछाली जा रही हैं वह बताती हैं, भाजपा के अभियान से किस कदर प्रतिपक्षी दलों में घबराहट है। आज मनमोहन सिंह कहां हैं इसे देश जानना चाहता है पर विपक्षी राजनेता भाजपा के बुर्जुर्गों के अपमान से पीड़ित हैं।जबकि भाजपा के सारे बड़े नेता लोकसभा के मैदान में हैं आडवानी, डा. जोशी से लेकर राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, नितिन गडकरी, अरूण जेतली,सुषमा स्वराज सब मैदान में हैं। समान राजनीतिक आयु और आकांक्षाओं वाले तमाम नेताओं के चलते भाजपा को पीढ़ीगत परिवर्तन में समस्या हुयी, किंतु उसने अपने आपको संभाल लिया है और मोदी के नेतृत्व में एकजुट हो गयी है। यही पीढ़ीगत परिर्वतन राहुल गांधी कांग्रेस में करना चाह रहे हैं, वे किस तरह संकटों से दो-चार हैं कहने की आवश्यक्ता नहीं है। कांग्रेस इस काम में पिछड़ गयी, उसने परिवर्तन को देर से पहचाना और मनमोहन मंडली को ढोती रही, भाजपा ने समय पर अपना कायाकल्प कर लिया इसलिए वह मैदान में नयी उर्जा से उतरी है। भाजपा के इस बदलाव को भौंचक होकर देखने वाले इसमें कमियां निकालकर मोदी के अश्वमेध के रथ को रोकना चाहते हैं, किंतु इसे रोकना तो सिर्फ जनता के बस में है। आलोचक तो मोदी को हमेशा ताकतवर ही बनाते आए हैं।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

क्या इस जंग में सिर्फ मोहरा हैं मुसलमान?



मुस्लिम समाज के वास्तविक सवालों से अलग भय फैलाने की राजनीति
-संजय द्विवेदी

  आखिर क्या बात है कि चुनाव के ठीक पहले मुस्लिम वोटों को झपट लेने की राजनीति प्रारंभ होती है और चुनाव होते ही सब उन्हें भूल जाते हैं। क्या मुसलमान सिर्फ एक वोट है या वह इस देश का एक नागरिक भी है। आखिर उसकी चिताएं भी हैं और भविष्य भी। क्या कारण है मुस्लिम समाज के वास्तविक प्रश्नों से अलग उसे भयाक्रांत कर किसी के पक्ष या किसी के विरोध में एकजुट किए जाने की राजनीति ही हर चुनाव में परवान चढ़ती है। देवबंध के विद्वानों से लेकर, शाही इमाम मौलाना बुखारी, उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ही नहीं पूरी तथाकथित सेकुलर बिरादरी इस काम में जुट जाती है। मुस्लिम राजनीति के संकट पर बातचीत करते समय या तो हम इतनी संवेदनशीलता और संकोच से भर जाते हैं कि सत्यदूर रह जाता है या फिर उपदेशक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं। हम इन विमर्शों में प्रायः मुस्लिम राजनीति को दिशाहीन, अवसरवादी, कौम की मूल समस्याओं को न समझने वाली आदि-आदि करार दे देते हैं। दरअसल यह प्रवृत्ति किसी भी संकट को अतिसरलीकृत करके देखने से उपजती है।
  मुस्लिम राजनीति के संकट वस्तुतः भारतीय राजनीति और समाज के ही संकट हैं। उनकी चुनौतियां कम या ज्यादा गंभीर हो सकती हैं, पर वे शेष भारतीय समाज के संकटों से जरा भी अलग नहीं है। सही अर्थों में पूरी भारतीय राजनीति का चरित्र ही कमोबेश भावनात्मक एवं तात्कालिक महत्व के मुद्दों के इर्द-गर्द नचाता रहा है। आम जनता का दर्द, उनकी आकांक्षाएं और बेहतरी कभी भारतीय राजनीति के विमर्श के केंद्र में नहीं रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का यह सामूहिक चरित्र है, अतएव इसे हिंदू, मुस्लिम या दलित राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखने को कोई अर्थ नहीं है और शायद इसलिए जनता का एजेंडाकिसी की राजनीति का एजेंडा नहीं है। यह अकारण नहीं है कि मंडल और मंदिर के भावनात्मक सवालों पर आंदोलित हो उठने वाला हमारा राजनीतिक समाज बेरोजगारी के भयावह प्रश्न पर एक देशव्यापी आंदोलन चलाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसलिए मुस्लिम नेताओं पर यह आरोप तो आसानी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कौम को आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा बनाए रखा, लेकिन क्या यही बात अन्य वर्गों की राजनीति कर रहे लोगों तथा मुख्यधारा की राजनीति करने वालों पर लागू नहीं होती ? बेरोजगारी, अशिक्षा, अंधविश्वास, गंदगी, पेयजल ये समूचे भारतीय समाज के संकट हैं और यह भी सही है कि हमारी राजनीति के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक परिवेश में आश्चर्यजनक ही है। देश की मुस्लिम राजनीति का एजेंडा भी हमारी मुख्यधारा की राजनीति से ही परिचालित होता है। जाहिर है मूल प्रश्नों से भटकाव और भावनात्मक मुद्दों के इर्द-गिर्द समूची राजनीति का ताना बुना जाता है।
   सही अर्थों में भारतीय मुसलमान अभी भी बंटवारे के भावनात्मक प्रभावों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। पड़ोसी देश की हरकतें बराबर उनमें भय और असुरक्षाबोध का भाव भरती रहती हैं। लेकिन आजादी के साढ़े छः दशक बीत जाने के बाद अब उनमें यह भरोसा जगने लगा है कि भारत में रुकने का उनका फैसला जायज था। इसके बावजूद भी कहीं अन्तर्मन में बंटवारे की भयावह त्रासदी के चित्र अंकित हैं। भारत में गैर मुस्लिमों के साथ उनके संबंधों की जो जिन्नावादी असहजताहै, उस पर उन्हें लगातार भारतवादीहोने का मुलम्मा चढ़ाए रखना होता है। दूसरी ओर पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों से अपने रिश्तों के प्रति लगातार असहजता प्रकट करनी पड़ती है। मुस्लिम राजनीति का यह वैचारिक द्वंद्व बहुत त्रासद है। आप देखें तो हिंदुस्तान के हर मुसलमान नेता को एक ढोंग रचना पड़ता है। एक तरफ तो वह स्वयं को अपने समाज के बीच अपनी कौम और उसके प्रतीकों का रक्षक बताता है, वहीं दूसरी ओर उसे अपने राजनीतिक मंच (पार्टी) पर भारतीय राष्ट्र राज्य के साथ अपनी प्रतिबद्धता का स्वांग रचना पड़ता है। समूचे भारतीय समाज की स्वीकृति पाने के लिए सही अर्थों में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। आज की राजनीति में तो ऐसा संभव नहीं दिखता । भारतीय समाज में ही नहीं, हर समाज में सुधारवादी और परंपरावादियों का संघर्ष चलता रहा है। मुस्लिम समाज में भी ऐसी बहसे चलती रही हैं। इस्लाम के भीतर एक ऐसा तबका पैदा हुआ, जिसे लगता था कि हिंदुत्व के चलते इस्लाम भ्रष्ट और अपवित्र होता जा रहा है। वहीं मीर तकी मीर, नजीर अकबरवादी, अब्दुर्रहीम खानखाना, रसखान की भी परंपरा देखने को मिलती है। हिंदुस्तान का आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर एक शायर था और उसे सारे भारतीय समाज में आदर प्राप्त था। एक तरफ औरंगजेब था तो दूसरी तरफ उसका बड़ा भाई दारा शिकोह भी था, जिसनें उपनिषद्का फारसी में अनुवाद किया। इसलिए यह सोचना कि आज कट्टरता बढ़ी है, संवाद के अवसर घटे हैं-गलत है। आक्रामकता अकबर के समय में भी थी, आज भी है। यही बात हिंदुत्व के संदर्भ में भी उतनी ही सच है।
   वीर सावरकर और गांधी दोनों की उपस्थिति के बावजूद लोग गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इसके विपरीत मुस्लिमों का नेतृत्व मौलाना आजाद के बजाए जिन्ना के हाथ में आ जाता है। इतिहास के ये पृष्ठ हमें सचेत करते हैं। यहां यह बात रेखांकित किए जाने योग्य है कि अल्पसंख्यक अपनी परंपरा एवं विरासत के प्रति बड़े चैतन्य होते हैं। वे चाहते हैं कि कम होने के नाते कहीं उनकी उपेक्षा न हो जाए । यह भयग्रंथि उन्हें एकजुट भी रखती है। अतएव वे भावनात्मक नारेबाजियों से जल्दी प्रभावित होते हैं। सो उनके बीच राजनीति प्रायः इन्हीं आधारों पर होती है। यह अकारण नहीं था कि नमाज न पढ़ने वाले मोहम्मद अली जिन्ना, जो नेहरू से भी ज्यादा अंग्रेज थे, मुस्लिमों के बीच आधार बनाने के लिए कट्टर हो गए । आधुनिक संदर्भ में सैय्यद शहबुद्दीन का उदाहरण ताजा है, जिन्हें एक ईमानदार और उदार अधिकारी जानकार ही अटलबिहारी वाजपेयी ने राजनीति में खींचा । लेकिन जब उन्होंने अपनी मुस्लिम कांस्टिटुएंसीबनानी शुरु की तो वे खुद को कट्टर मुस्लिमप्रोजेक्ट करने लगे । कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई है, लेकिन एक समय जामिया मिलिया में मचे धमाल में वे कट्टरपंथियों के साथ खड़े दिखे ।
      मुस्लिम राजनीति वास्तव में आज एक खासे द्वंद में हैं, जहां उसके पास नेतृत्व का संकट है । आजादी के बाद 1964 तक पं. नेहरु मुसलमानों के निर्विवादित नेता रहे । सच देखें तो उनके बाद मुसलमान किसी पर भरोसा नहीं कर पाया और जब किया तब ठगा गया । बाबरी मस्जिद काण्ड के बाद मुस्लिम समाज की दिशा काफी बदली है । बड़बोले राजनेताओं को समाज ने हाशिए पर लगा दिया है । मुस्लिम समाज में अब राजनीति के अलावा सामाजिक, आर्थिक, समाज सुधार, शिक्षा जैसे सवालों पर बातचीत शुरु हो गई है । सतह पर दिख रहा मुस्लिम राजनीति का यह ठंडापन एक परिपक्वता का अहसास कराता है । मुस्लिम समाज में वैचारिक बदलाव की यह हवा जितनी ते होगी, समाज उतना ही प्रगति करता दिखेगा । एक सांस्कृतिक आवाजाही, सांस्कृतिक सहजीविता ही इस संकट का अंत है । जाहिर है इसके लिए नेतृत्व का पढ़ा, लिखा और समझदार होना जरुरी है । नए जमाने की हवा से ताल मिलाकर यदि देश का मुस्लिम अपने ही बनाए अंधेरों को चीरकर आगे आ रहा है तो भविष्य उसका स्वागत ही करेगा । वैसे भी धार्मिक और जज्बाती सवालों पर लोगों को भड़काना तथा इस्तेमाल करना आसान होता है । गरीब और आम मुसलमान ही राजनीतिक षडयंत्रों में पिसता तथा तबाह होता है, जबकि उनका इस्तेमाल कर लोग ऊंची कुर्सियां प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें भूल जाता हैं । आभिजात्य और जमाने की दौड़ में आगे आ गए मुस्लिम नेता दरअसल अपने कौम की खिदमत और उसे रास्ता बताने के बजाए उन्हें उसी बदहाली में रहने देना चाहते हैं ।इस संदर्भ में प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी का यह शेर हमारी मुस्लिम राजनीति के ही नहीं, समूची भारतीय राजनीति के चरित्र को बेनकाब करता है-
इस्लाम की अजमत का क्या जिक्र करुं हमदम
काउंसिल में बहुत सैय्यद, मस्जिद में फकत जुम्मन
इसलिए कौम के सैय्यदों (अगड़ों) को जुम्मनों (गरीबों-वंचितों) की चिंता करनी होगी और यही शुरुआत भारतीय मुस्लिम राजनीति को समूचे समाज में स्वीकृति और प्रतिष्ठा दिलाएगी। आज जरूरत इस बात की है कि मौलाना बुखारी, देवबंद के उलेमा हों या आजम खां वे अपनी कौम को एक सही रास्ता बताएं। नरेंद्र मोदी या भाजपा के खिलाफ अभियान चलाने, मुसलमानों को बरगलाने के बजाए वे अपना कार्यक्रम सामने रखें। भाजपा आज जब आगे बढ़कर मुस्लिम समाज से संवाद कर रही है तो मुस्लिम नेतृत्व को भी भरोसा रखते हुए उनकी बात सुननी चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हौव्वा खड़ा कर आरएसएस के लिए प्रलाप किया जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि संघ मुस्लिम विरोधी है। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। आरएसएस के नेताओं ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के सहयोग से मुस्लिम समाज से संवाद प्रारंभ किया है। आपातकाल के समय जमाते इस्लामी और आरएसएस के नेता कई जेलों में एक साथ थे। उनके बीच बेहतर रिश्ते भी विकसित हुए थे। इसलिए मुस्लिम वोटों की ठेकेदारी करने के बजाए मुस्लिम समाज को स्वतंत्र रूप से सोचने और अपने फैसले करने का अवसर देना चाहिए। भाजपा भी अब राजनीतिक रूप से अछूत नहीं है। उसकी अटलजी के नेतृत्व वाली सरकार में उमर अब्दुला से लेकर सभी सेकुलर दलों के लोग मंत्री रह चुके हैं। भाजपा की अटल सरकार से लेकर राज्यों में कायम उसकी सरकारों का ट्रैक भी देखने की जरूरत है। क्या ये सरकारें अल्पसंख्यकों के खिलाफ रही हैं? क्या उनके चरित्र में कहीं अल्पसंख्यक विरोधी रवैया ध्वनित होता है? सच्चाई तो यह है कि वाजपेयी सरकार ने न सिर्फ डा. एपीजे कलाम को देश के राष्ट्रपति पद पर प्रतिष्ठित किया वरन अभी के राष्ट्रपति चुनाव में एक ईसाई आदिवासी पीए संगमा को अपना समर्थन दिया। सही तो यह है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी के विरूद्ध अभियान चलाने वाले मुस्लिम वोटों के सौदागर हिंदु-मुस्लिम रिश्तों में सहजता के विरोधी हैं। ऐसे में हिंदुस्तानी मुसलमानों से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस चुनावों में किसी बहकावे, दबाव और भय में न आकर स्वतंत्र होकर अपना प्रतिनिधि चुनें और कटुता तथा सांप्रदायिकता की राजनीति को हाशिए लगाकर बता दें कि वे अपने मत तय करने के लिए स्वविवेक से ही फैसला करते हैं, फतवों और नारों से प्रभावित होकर नहीं।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं)

  

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

अब मोदी के खिलाफ बुद्धिजीवियों का प्रलाप


मुद्दों पर भारतीय बुद्धिजीवियों का चयनित दृष्टिकोण सबसे बड़ा संकट
-संजय द्विवेदी

     देश के तमाम जाने- माने बुद्धिजीवियों ने एक दिल्ली में 7 अप्रैल को प्रेस क्लब आफ इंडिया की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में न सिर्फ भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को जी-भर कर कोसा वरन एक साझा बयान पर हस्ताक्षर भी किए (जनसत्ता, 8 अप्रैल,2014)। भारतीय बुद्धिजीवियों की यह लीला न पहली है न अंतिम बल्कि इससे पता चलता है कि समाज में चल रहे आलोड़न और अपनी जड़ों से वे कितने उखड़े हुए हैं। हमारे बुद्धिजीवियों का यही शुतुरमुर्गी चरित्र और मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण देश का सबसे बड़ा संकट है।
   सवाल यह उठता है कि पिछले दस सालों में मनमोहन-चिदंबरम-मोंटेंक सिंह अहलूवालिया की आर्थिक कलाबाजियों, निरंतर भ्रष्टाचार के बीच सिसकते हिंदुस्तान के साथ कितनी बार ये हस्ताक्षर करने वाले बुद्धिजीवी नजर आए? यहां तक की अन्ना के आंदोलन में भी देश की पीड़ा के स्वर देने के लिए ये महापुरूष अपने ही बनाए स्वर्गों में अटके रहे। यूआर अनंतमूर्ति, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, के. सच्चिदानंद, प्रभात पटनायक से लेकर इस बयान पर हस्ताक्षर करने वाले लगभग दो दर्जन बुद्धिजीवियों की वीरता तब कहां थी जब मुलायम सिंह यादव के राज में हर महीने एक दंगा हो रहा था। ये महापुरूष कश्मीरी पंडितों के पलायन को लेकर कितनी बार हस्ताक्षर अभियान और गोष्ठियां करते नजर आए? क्या कश्मीर के पाप के लिए आज तक किसी नेता कश्मीरी उलेमा ने माफी मांगी ? सही मायने में यह वे कायर जमातें हैं जो समय के सवालों से मुंह चुराते हुए अपनी सड़ी हुयी वैचारिकी और न समझ में आने वाली भाषा में एकालाप की अभ्यासी हो चुकी है। तीन दशकों तक पश्चिम बंगाल को अपने वैचारिक सुराज से आलोकित करने वाले ये लोग किस मुंह से गुजरात और उसके मुख्यमंत्री की आलोचना के अधिकारी हैं? यू आर अनंतमूर्ति कहते हैं कि मोदी सत्ता में आए तो हम अपने लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार खो बैठेंगें। उन्हें याद करना चाहिए कि एक बार इस देश में श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर हमारे लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार छीने थे तो उस संघर्ष की अगुवाई वामपंथियों ने नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने की थी। संघ परिवार तो लोकतंत्र की मुक्ति के लिए लड़ने वाला परिवार रहा है जबकि हमारे बुद्धिजीवी संघर्ष की वेला में शुतुरमुर्गी शैली में रेत में सिर छिपा कर लुप्त हो जाते हैं। आज मोदी को कारपोरेट समर्थक बताकर कोसने वालों की नजर में सोनिया गांधी और उनके नामित प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कैसे कारपोरेट विरोधी नजर आने लगे हैं? मनमोहन सिंह ही इस देश में मनुष्य विरोधी आर्थिक नीतियों के प्रेरणाश्रोत और प्रारंभकर्ता हैं। आखिर क्या कारण है जिन मनमोहन सिंह ने खुदरा क्षेत्र में एफडीआई लागू की, उनके खिलाफ ये बुद्धिजीवी कोई बयान देते नजर नहीं आए और जिस नरेंद्र मोदी ने खुदरा में एफडीआई न लाने का वायदा किया है, वो कारपोरेट समर्थक हो गया।
  अफसोस तो यह है कि हमारे बुद्धिजीवियों की अपनी कोई राय है नहीं। वे स्वतंत्र चिंतन के बजाए मोदी फोबिया से ग्रस्त हैं। वे दंगों से भी पीड़ित नहीं हैं। वे मुलायम के दंगों, 84 में सिखों के नरसंहार, भागलपुर, मलियाना से लेकर 1947 से लेकर कितनी बार हुए दंगों से पीड़ित नहीं हैं।  उनके लेखन में भी यह पीड़ा कभी उभरकर नहीं आती वे तो बस मोदी के दंगों से पीड़ित हैं। यह जाने बिना कि आखिर गुजरात का दंगा हुआ क्यों? गुजरात के दंगे गोधरा के भीषण नरमेघ की प्रतिक्रिया में हुए थे। उस घटना के बाद गुजरात जल उठा। आखिर सेकुलर राजनीति चैंपियन मुलायम सिंह के राज में दंगें क्यों हो रहे हैं? क्या कारण है कि मुलायम सिंह दंगों की सीरीज के बावजूद सेकुलर राजनीति के मसीहा बने हुए हैं और मोदी जिनके राज में 2002 के बाद कोई दंगा नहीं हुआ वे सेकुलर बुद्धिजीवियों के निशाने पर हैं?
  सही मायने में हमारे बुद्धिजीवी मोदी के खिलाफ सुपारी किलर्स की तरह व्यवहार कर रहे हैं। आखिर यह सुपारी किसने दी है? वे कौन होते हैं भारत के एक राज्य के तीसरी बार निर्वाचित मुख्यमंत्री के खिलाफ इस प्रकार विष वमन करने वाले और लोगों को गुमराह करने वाले? भारत की जनता की समझ क्या इतनी भोथरी है कि वह सही और गलत का फैसला न कर सके। आखिर क्या कारण है देश के तमाम चुनावों में ये बुद्धिजीवी इतनी रुचि नहीं दिखाते किंतु नरेंद्र मोदी के खिलाफ ये तुरंत एकजुट हो गए। इसमें कहीं न कहीं संदेह उपजता है कि ये बुद्धिजीवी भारतीय लोकतंत्र और उसके नागरिकों के शुभचिंतक नहीं हैं। देश में पिछले दस सालों में क्या कुछ नहीं हुआ। महंगाई, भ्रष्टाचार और कदाचार के प्रतिदिन होते प्रसंगों पर, नक्सलियों के आतंक और आतंकियों की वहशत पर हमारे बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका रही है? कहने की आवश्यक्ता नहीं है। आखिर नरेंद्र मोदी अगर देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो इस देश के संविधान की शपथ लेकर और जनसमर्थन के बाद ही बनेंगें। क्या हमें अपने संविधान,संसद, न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है? क्या नरेंद्र मोदी ने गुजरात में ऐसा कुछ किया है, जिसके प्रमाण इन बुद्धिजीवियों के पास हैं? सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधों और राजनीतिक दुराग्रहों के आधार पर मोदी को लांछित करना ठीक नहीं हैं। बहुत दिन नहीं हुए जब 90 के दशक की राजनीति में लालकृष्ण आडवानी को ऐसे ही सांप्रदायिक फ्रेम में कसा जाता था। आज वे भी सेकुलर नेताओं के दुलारे हैं। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनने के पहले ऐसी ही आशंकाएं उनकी सरकार को लेकर भी जतायी जाती थीं। आज भी भाजपा देश के कई राज्यों गुजरात, मप्र, छत्तीसगढ़, गोवा में सत्ता में है, पंजाब में वह सहयोगी दल है। बिहार में जेडीयू की सहयोगी रही है। उप्र, कर्नाटक,महाराष्ट्र में उसकी सरकारें रही हैं। क्या वे सरकारें अल्पसंख्यकों से भेद करती नजर आयीं। क्या वे संविधान को तोड़ती नजर आयीं। जाहिर तौर पर नहीं। भाजपा और उसकी सरकारों का कामकाज कमोबेश अन्य दलों की सरकारों जैसा ही रहा है। कई मायने में बेहतर भी। दिल्ली से लेकर राज्यों तक में भाजपा के साथ सत्ता का अनुभव देश और सहयोगी दलों सबको है। आज देश की राजनीति में भाजपा अश्पृश्य नहीं है। वह देश की एक ऐसी पार्टी है जिसने अपने भौगोलिक और राजनीतिक विस्तार किया है। विविध समाजों और पंथों और क्षेत्रों तक उसकी पहुंच बनी है। वही है जो राष्ट्रपति पद के लिए डा. एपीजे कलाम को चुन सकती है और एक ईसाई आदिवासी पीए संगमा का समर्थन कर सकती है। वही है जो कश्मीर पंडितों की पीड़ा और उनके आर्तनाद में साथ खड़ी हो सकती है। वही है जिसके जिसके लिए अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की परिभाषाएं बेमानी है। भारतीयता उसके केंद्र में है। इसे वे नहीं समझ सकते जो विदेश विचारों,विदेशी सोच और विदेशी पैसों के बल पर सोचते और बोलते हैं। कोई भी विचारधारा देश से बड़ी नहीं होती। किंतु फिर भी कुछ लोगों के लिए चीन युद्ध के समय चीन के चेयरमैन माओ उनके भी चेयरमैन लगते रहे हैं। रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण उनके लिए राजनीतिक नारा हो सकता है। किंतु जिन्हें देश की, उसके इतिहास की समझ नहीं है, उन्हें तो सरदार पटेल द्वारा सोमनाथ का उद्धार भी एक राजनीति ही लगेगा। देश के बुद्धिजीवियों से देश इसीलिए निराश है। क्योंकि वे राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बनने के बजाए खुद राजनीति का हिस्सा बन गए हैं। ऐसी राजनीति का हिस्सा जिसे इस देश के मन की थाह नहीं है। ऐसी राजनीति जो बंटवारे और टुकड़े करने में भरोसा रखती है। उसे नरेंद्र मोदी रास कहां आएंगें? उन्हें तो मनमोहन सिंह, गुजराल, देवगौड़ा या कुछ भी दे दीजिए वे सह लेगें पर वे एक नरेंद्र मोदी को नहीं सह सकते क्योंकि उन्हें पता है कि मोदी का मतलब एक ऐसी विचारधारा है जिसके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है जबकि इनकी परिभाषा में भारत एक राष्ट्र है ही नहीं। इनका बस चले तो ये कश्मीर पाकिस्तान को, छ्त्तीसगढ़ माओवादियों को और अरूणाचल चीन को सौंप दें। ऐसे बुद्धिजीवी इस देश को नहीं चाहिए, हम बुद्धिहीन ही सही पर देश नहीं बंटने नहीं देंगें। इसीलिए प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की आवाज जब प्रचार माध्यमों पर गूंजती है- मैं देश नहीं झुकने दूंगा तो इन बुद्धिवादियों को दर्द सबसे ज्यादा होता है, किंतु हर आम हिंदुस्तानी इस पर मंत्र झूम उठता है, झूमता रहेगा।


सोमवार, 7 अप्रैल 2014

नरेंद्र मोदी से कौन डरता है?


-संजय द्विवेदी
   लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी खुद एक मुद्दा बने हुए हैं। अपनी पार्टी के भीतर जंग तो उन्होंने जीत ली किंतु विरोधी अभी हार मानने के लिए तैयार नहीं हैं। 2002 के गुजरात दंगों की लंबी छाया उनके पीछे ऐसी पड़ी है, जैसे उसके पहले या बाद देश में दंगे हुए ही न हों। जिन राज्यों में दंगे हर माह हो रहे हैं वे भी मोदी के दंगों से दुखी हैं। ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी दिल्ली तक आ गए तो क्या गजब हो जाएगा। जिन नीतीश कुमार ने अपने नेता जार्ज फर्नांडिस की दुर्गति और अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, वे भाजपा के बुर्जुग नेताओं के अपमान से बहुत दुखी हैं। किंतु याद कीजिए नीतीश ने जार्ज का टिकट काट दिया था, जबकि मोदी न सिर्फ आडवानी को गुजरात से लड़ने के लिए राजी कर लेते हैं, वरन उनके परचा भरने पर उनके साथ भी दिखते हैं। जबकि मप्र में भोपाल की सीट पर आडवानी जी का इंतजार हो रहा था। जाहिर तौर पर भाजपा के दुख से दुखी अन्य दलों के नेता जब मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं तो पता चलता है कि इनके द्वंद किस तरह जनता के सामने प्रकट हो रहे हैं। इस चुनाव में मोदी का दंगा मुद्दा है किंतु उप्र और महाराष्ट्र में हुए दंगें मुद्दा नहीं हैं। मोदी करें तो पाप और मुलायम करें तो लीला। उप्र के दंगों की पृष्ठभूमि शुद्ध प्रशासनिक नाकामी और राजनीतिक नेतृत्व की कायरता कही जाएगी, जबकि गुजरात के दंगे गोधरा के भीषण नरमेघ की प्रतिक्रिया में हुए थे। दोनों की परिस्थितियों और दंगों को नियंत्रित करने की शैली में अंतर साफ नजर आता है। कोई भी सरकार गोधरा जैसी हिंसा के बाद हालात संभालने में कुछ वक्त लेती ही । एक लड़की से हुयी छेड़खानी के मामले को संभाल न पाने वाली उप्र की सरकार गोधरा के काण्ड के बाद की हकीकतों को जाने बिना अपनी सेकुलर छवि पर मुग्ध है। उसके मंत्री दंगाईयों को छोड़ने के लिए फोन कर रहे हैं, यह भी एक चैनल के स्टिंग आपरेशन में उजागर हो चुका है।

    ऐसे कठिन समय में जब सेकुलर जमातें मोदी को निशाने पर लेते हुए नहीं थक रही हैं, मान लिया मोदी देश के प्रधानमंत्री बन भी गए तो कौन सा वज्रपात आ जाएगा। यह तो तय मानिए कि वे मनमोहन सिंह की सरकार से बुरी सरकार नहीं चलाएंगे। जिनको तमाम सेकुलर ताकतों के साथ सपा और बसपा ने देश का बेड़ा गर्क करने के लिए समर्थन दे रखा है। 2002 के बाद अगर गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ तो भरोसा कीजिए कि देश में दंगों की फसल नहीं लहलहाएगी। यह आश्वासन उस मुलायम सिंह यादव की उत्तर प्रदेश सरकार से ज्यादा भरोसेमंद है, जिनके सरकार में आते ही दंगों की लाइन लग गयी है और उत्तर प्रदेश के दंगापीड़ितों ने सबसे बड़ा विस्थापन और दर्द अखिलेश के राज में ही महसूस किया। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अगर मुद्दा हैं तो यह भारतीय राजनीति की दयनीयता का ही बखान करती है। देश के राजनीतिक दलों के 10 साल से सत्ता में बैठी कांग्रेस सरकार का कुशासन मुद्दा नहीं है, मुद्दा एक राज्य का मुख्यमंत्री है, जिस पर हाल-फिलहाल कोई ऐसा आरोप नहीं है, जिसके आधार पर उसे घेरा जा सके। 2002 को घसीटकर और उस जख्म की पपड़ियां हटाकर आखिर किसे क्या मिल रहा है, कहा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी को खलनायक बनाकर किसके हित सध रहे हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है। किंतु इतना तो साफ है कि सोनिया गांधी ने मौलाना बुखारी से समर्थन मांग कर यह साबित कर दिया है सबकी निगाहें सिर्फ मुस्लिम वोटों पर हैं। यह धुव्रीकरण की राजनीति आखिर देश को कहां ले जाएगी? राजनीति धारणाओं पर ही चलती है। मोदी को मुस्लिम विरोधी के रूप में स्थापित करने वाले दल क्या इस देश की आवाज सुन पा रहे हैं। आज देश के जन-मन की आवाज को ही महसूस करते हुए रामविलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू, उपेंद्र कुशवाहा, उदित राज, रामदास आठवले सरीखे नेता राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे में मोदी पर व्यक्तिगत हमले करके हम ही इस चुनाव को व्यक्ति केंद्रित बना रहे हैं। मुसलमानों में भयग्रंथि पैदा करके हम देश के भविष्य के साथ खेल रहे हैं। दरअसल मोदी की राजनीति इन्हीं छद्मों को संबोधित कर रही हैं। ये देखना कितना आश्चर्यजनक है मोदी धर्म के आधार के पर बंटवारे के खिलाफ बोल रहे हैं और सोनिया गांधी बुखारी की मिजाजपुर्सी में लगी हैं। जाहिर तौर पर मोदी विरोधियों ने पूरे चुनाव को मोदी विरोध और समर्थन में बदल दिया है। यूं लग रहा है जैसे कि ये गुजरात के मुख्यमंत्री का चुनाव है। जबकि चुनाव तो दिल्ली की सरकार के लिए हो रहे हैं। दिल्ली की सरकार और उसके कामकाज, जनता के मौलिक सवालों पर मोदी संवाद कर रहे हैं। मोदी विरोधी सिर्फ मोदी को कोस रहे हैं। क्या मोदी को रोकना किसी भी तरह की जनतांत्रिक राजनीति का एजेंडा हो सकता है। मोदी को रोकने के लिए शायद ये दल मनमोहन सिंह या कांग्रेस की सरकार को पांच साल और ढोने के लिए तैयार हो जाएं। ऐसा ही दावानल भाजपा की दिल्ली की सरकार बनने पर मचाया गया था। आखिर अटलबिहारी वाजपेयी की दिल्ली की सरकार किस मायने में कम सेकुलर थी। इस सरकार में फारूख अब्दुला के बेटे उमर भी मंत्री थे। आज की सेकुलर राजनीति के मसीहा नीतीश कुमार, ममता बनर्जी सब वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके हैं। इतना ही नहीं राष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा ने एक ईसाई आदिवासी संगमा को एनडीए ने अपना समर्थन दिया था। ये हालात बताते हैं राजनीति में कोई सिद्धांत या विचारधारा के आधार पर चलना नहीं चाहता, सब अपनी सत्ता, स्वार्थ या सुविधा के आधार पर फैसले करते हैं। नरेंद्र मोदी इसी तरह की विचारहीनता के खिलाफ एक आवाज हैं। उनका देशीपना, उनके वक्तव्यों से आती माटी की महक, उनका साधारण परिवार और परिवेश से आना, एक कुशल प्रशासक और संगठनकर्ता होने की उनकी पहचान कहीं न कहीं लोगों को आतंकित कर रही है। जिस तरह अपने राजनीतिक विरोधियों को उन्होंने समाप्त किया है, वह भी विरोधियों में दहशत भर रही हैं। लेकिन इतना तो मानना होगा कि नरेंद्र मोदी का भारतीय राजनीति में आविर्भाव कोई साधारण घटना नहीं है। अपने जीवन और कर्म से उन्होंने जो हासिल किया है और जो हासिल करने की ओर बढ़ रहे हैं उसने उनको उनको एक परिघटना में बदल दिया है। वे ही ऐसे हैं जो पहले जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के दिल में उतरे और बाद में दल ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार धोषित किया। एक मुख्यमंत्री होने के नाते उनकी लोकप्रियता और प्रशासनिक क्षमता ही नहीं हिंदी में कुशल व साधारण संवाद की शैली उन्हें बड़ा बनाती है। भारत जैसे महादेश में उनकी यह लोकछवि आज सब पर भारी है। गुजरात जैसे छोटे राज्य के मुख्यमंत्री होते हुए दिल्ली की ओर यह प्रयाण भी साधारण नहीं है। आप आज उनसे नफरत तो कर सकते हैं पर उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते। मोदी की यही ताकत है और यही उनकी सीमा भी है।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

अवसरवाद और परिवारवाद के बीच जनतंत्र

-संजय द्विवेदी
  भारतीय समाज में हो रहे तमाम सकारात्मक बदलावों के बावजूद हमारी राजनीति और राजनीतिक दल इससे मुक्त दिखते हैं। उनको किसी भी तरह से नैतिक नियमों में बांधना हमें और आपको निराश ही करेगा। वे गिरते हुए ही स्वाभाविक दिखते हैं।यह गिरावट चौतरफा है। एक नयी पार्टी जिसने आम आदमी को उम्मीदों को पंख लगा दिए थे, उसने भी गिरावट में होड़ सी ले ली है, शायद यह कहते हुए कि हम किसी से कम नहीं। टिकट वितरण से लेकर मतदान तक जिस तरह के खेल होंगें, उन्हें कई बार देखा और परखा गया है। यहां विचारधाराएं और वाद ठिठके हुए खड़े हैं। हर दिन एक नायक एक नई धारा का हिस्सा बन जाता है। पिछले दिन कही गयी बातों और आचरण से ठीक विपरीत बात कहता और आचरण करता हुआ। क्या ये भारतीय राजनीति के सबसे बेचारगी भरे दिन नहीं हैं? क्या ये दिन हमें यह नहीं बताते कि अब हमें राजनीति से नैतिक अपेक्षाएं पालना बंद कर देना चाहिए? किसी एक घटना या एक बात से एक आदमी पूरा का पूरा खारिज और एक बेहतर खबर से वह आसमान पर। इस टीवी समय ने मूल्यांकन के ऐसे ही तुरंतवादी रवैये हमें दिए हैं। हम लोटपोट हो जाते हैं या खारिज कर देते हैं। सुनने, सहने, पढ़ने और समझने का अवकाश इतना कम क्यों होता जा रहा है?
  पिछले कुछ महीनों में हर हफ्ते हमारे नायक बदलते रहे हैं। कभी मोदी, कभी केजरीवाल तो कभी राहुल गांधी। टीवी को नाटक चाहिए। उसे ड्रामा चाहिए पर क्या समाज को भी ड्रामा चाहिए? या समाज को उस ड्रामे का हिस्सा होना चाहिए? ऐसे सवाल हम सबको मथ रहे हैं। राजनीति कभी इतनी सच्ची और अच्छी नहीं थी किंतु कुछ मूल्य थे, विचार थे, आंदोलन थे और उन सबके साथ कुछ लोग थे, जिन पर समाज भरोसा कर सकता था। इस भरोसे की डोर से बहुत कुछ टूटने से बचा रहता था। लेकिन देखिए सीटों को लेकर भाजपा के प्रथम पंक्ति के नायकों के बीच कैसा हाहाकार, दैन्य और विलाप नजर आया। वानप्रस्थ में भी सीट न छोड़ने के तैयार लोग भी यह कहते हैं कि पाप किया जो संसद में आया। भाजपा के लौहपुरूष ने तो अपने हाथों ही जो रचा उस पर आप सहानुभूति के अलावा क्या जता सकते हैं। कांग्रेस ही अच्छी थी जिसके प्रधानमंत्री बिना कोई लोकसभा टिकट मांगें और किसी की सीट छीने दस साल राज कर गए। यहां नरेंद्र मोदी जी की सीट ही कई चैनलों के लिए दिन-रात का चना-चबैना बन गयी। राजनीति और लोकतंत्र की चुनौतियों के बजाए आला एंकर भी मोदी की सीट पर ज्वलंत विमर्श कर रहे हैं। इधर केजरीवाल के साथ भोजन करने वाले जनतंत्र के प्रेमियों को नागपुर में सिर्फ दस हजार रूपए प्लेट पर भोजन उपलब्ध था। 
अवसरवाद एक विचारधाराः अवसरवाद राजनीतिक क्षेत्र में सबसे बड़ी विचारधारा के नाते उभरा है। मौका देखकर चौका लगाने वालों की बन आई है। सत्ता मिलने की आस हो तो कोई अछूत नहीं रह जाता। भाजपा के साथ खड़े तमाम चेहरों को देखकर आपको सत्ता फेवीकोल की तरह नजर आएगी। रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज, रामकृपाल यादव,जगदंबिका पाल, भागीरथ प्रसाद, उदयप्रताप राव, बृजभूषण शरण सिंह, वायको और रामदास जैसे तमाम नाम हैं, जिन्हें अचानक भाजपा और उसके नेता मोदी में तमाम सकारात्मक बदलाव नजर आने लगे। इस जूलूस में तमाम पुराने कांग्रेसी, समाजवादी सब शामिल हैं। राजनीति की निर्ममता ही देखिए कि जीवन भर का तप, एक टिकट की बलिबेदी पर चढ़ जाता है। भाजपा की महिला मोर्चा की अध्यक्ष रहीं, अटलजी की भतीजी करूणा शुक्ला की बेबसी देखिए वे बिलासपुर से कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं। मूल्य इस तरह भी शीर्षासन कर रहे हैं। सफलता का मूल्य है, राजनीति में प्रतिशोध के गहरे भाव हैं। ऐसे ही हिंदुस्तानी राजनीति फल-फूल रही है। लोकतंत्र का पर्व सही मायने में किसी बदलाव की सूरते हाल को बताने वाला होने के बजाए अवसरवादियों की प्रतिष्ठा का मंच बन गया है। यहां अवसरवाद एक विचार बनकर पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर छाया हुआ है। बदलाव और परिवर्तन का दम भरने वाली ताकतें भी यहीं आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं। इसलिए चुनाव के बाद कोई क्रांतिकारी परिर्वतन समाज जीवन या राजनीति में देखने को मिलेंगें, सोचना बेमतलब लगता है।

परिवारवाद बना शक्तिः नई पीढ़ी परिवारों से आ रही है। सुविधाओं की कोख से आ रही है और जनसंर्घषों को घता बताकर आ रही है। राजपुत्रों की पूरी एक पीढ़ी पिछले सदन में लोकसभा पहुंची और इस बार भी उसकी बड़ी संख्या में आमद संभावित है। राजनीति का इस तरह घरानों में कैद हो जाना बताता है कि सारा कुछ बहुत सहज नहीं है। देश के लाखों-करोड़ों राजनीतिक कार्यकर्ताओं के संघर्ष को घता बताकर जब कोई राजपुत्र सत्ता की देहरी पर चढ़ जाता है तो दिल टूटते हैं। किंतु एक समय में कार्यकर्ताओं को परखकर उनका निर्माण करने वाली राजनीतिक परंपराएं भी अपने घरों में से ही उत्तराधिकारी खोज रही हैं। परिवार से बाहर न निकलने वाली राजनीति, आखिर कैसे जनधर्मी हो सकती है ? कैसे वह सरोकारों से जुड़ सकती है? ऐसे में हमारी नयी राजनीतिक जमात के पास जमीन के अनुभव और संघर्ष की कथाएं अनुपस्थित हैं। वे अपने पिता की लंबी छाया में स्थापित जरूर हो जाते हैं किंतु जनता से रिश्ता नहीं बना पाते। परिवारवाद की इस बीमारी से अब सारे दल ग्रस्त हैं। किसी भी दल को यह कहने का अधिकार नहीं बचा है कि वह जनता के बीच से नेतृत्व को विकसित कर रहा है। इसके साथ ही दलों की विचारधारात्मक दूरी समाप्त हो चुकी है। विचारधारा के अंत की भविष्यवाणियों के बीच राजनीतिक दल इसके जीवंत प्रतीक दिखते हैं। दलों की पहचान करने वाले विचार अब नहीं बचे हैं, सिर्फ झंडे बचे हैं जिनसे दलों को अलग किया जा सकता है। ऐसे कठिन समय में आत्मविश्वास से भरे एक राजनेता की तलाश पूरा हिंदुस्तान कर रहा है। जिसका जीवन निष्कलंक हो और उसके मन में एक आग हो। बदलाव और परिर्वतन की वह आग ही इस देश के राजनीतिक और सामाजिक चरित्र को बदल सकती है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस बदलाव का प्रतीक बनकर उभरे हैं। उनकी सोच और काम करने के तरीके की प्रस्तुति अहंकारजन्य भले दिखती हो किंतु वे युवा भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक बन सकते हैं। अरविंद केजरीवाल भी एक ऐसे ही प्रतीक बन सकते थे किंतु चीजों का गलत आकलन और सत्ता पाने की हड़बड़ी ने उन पर अविश्वास गहरा किया है। राहुल गांधी एक ऐसी पार्टी के नायक हैं, जिसने पिछले 10 सालों में देश को खासा निराश किया है। ऐसे में उन अकेले के भरोसे हिंदुस्तानी मतदाता छले जाने के लिए तैयार नहीं हैं। इस कठिन समय में मतदाताओं को इस चुनाव में अपने विवेक का सही इस्तेमाल करते हुए एक ऐसी सरकार चुननी है जो भारत की आकांक्षाओं, उसके सपनों को उसके नजरिए से देख और पूरा कर सके। जनता का विवेक एक बार फिर कसौटी पर है। लोकतंत्र की परिपक्वता के लिए यह जरूरी भी है कि जनता इस इम्तहान में दिल से ज्यादा दिमाग से काम ले।