शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

स्थापना दिवस (1 नवंबर) पर विशेषः 11 साल का छत्तीसगढ़



अपने सपनों में रंग भरता छत्तीसगढ़

-संजय द्विवेदी

छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र ग्यारह वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने रचनात्मक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह राजनीति, साहित्य,कला और संस्कृति के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारे की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से भारतीय और हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है, जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है। अपनी आदर्श परंपराओं और संस्कारों के लिए जाना जाने वाला छत्तीसगढ़ सही अर्थों में सद्भावना का टापू है। भारतीय परम्परा की उदात्तता इसकी थाती है और सामाजिक समरसता इसका मूलमंत्र। सदियों से अपनी इस परंपरा के निर्वहन में लगी यह धरती अपनी ममता के आंचल में सबको जगह देती आयी है। शायद यही कारण है कि राजनीति की ओर से यहां के समाज जीवन में पैदा किए जाने वाले तनाव और विवाद की स्थितियां अन्य प्रांतों की तरह कभी विकराल रूप नहीं ले पाती हैं।


समता के गहरे भावः समाज की शक्तियों में समता का भाव इतने गहरे पैठा हुआ है कि तोड़ने वाली ताकतों को सदैव निराशा ही हाथ लगी है।संतगुरू घासीदास से लेकर पं. सुन्दरलाल शर्मा तक के प्रयासों ने जो धारा बहाई है वह अविकल बह रही है और सामाजिक तौर पर हमारी शक्ति को, एकता को स्थापित ही करती है। इस सबके मूल में असली शक्ति है धर्म की, उसके प्रति हमारी आस्था की। राज्य की धर्मप्राण जनता के विश्वास ही उसे शक्ति देते हैं और अपने अभावों, दर्दों और जीवन संघर्षों को भूलकर भी यह जनता हमारी समता को बचाए और बनाए रखती है।प्राचीनकाल से ही छत्तीसगढ़ अनेक धार्मिक गतिविधियों और आंदोलनों का केन्द्र रहा है। इसने ही क्षेत्र की जनता में ऐसे भाव भरे जिससे उसके समतावादी विचारों को लगातार विस्तार मिला। खासकर कबीरपंथ और सतनाम के आंदोलन ने इस क्षेत्र को एक नई दिशा दी। इसके ही समानांतर सामाजिक तौर पर महात्मा गांधी और पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रभावों को हम भुला नहीं सकते।


अप्रतिम धार्मिक विरासतः छत्तीसगढ़ में मिले तमाम अभिलेख यह साबित करते हैं तो यहां शिव, विष्णु, दुर्गा, सूर्य आदि देवताओं की उपासना से संबंधित अनेक मंदिर हैं। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्मों के अस्तित्व के प्रमाण यहां के अभिलेखों से मिलते हैं। कलचुरिकालीन अभिलेख भी क्षेत्र की धार्मिक आस्था का ही प्रगटीकरण करते हैं। छत्तीसगढ़ में वैष्णव पंथ का अस्तित्व यहां के साहित्य, अभिलेख, सिक्के आदि से पता चलता है। विष्णु की मूर्ति बुढ़ीखार क्षेत्र में मिलती है जिसे दूसरी सदी ईसा पूर्व की प्रतिमा माना जाता है। शरभपुरीय शासकों के शासन में वैष्णव पंथ का यहां व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। ये शासक अपने को विष्णु का उपासक मानते थे। इस दौर के सिक्कों में गरूड़ का चित्र भी अंकित मिलता है। शरभपुरीय शासकों के बाद आए पांडुवंशियों ने भी वैष्णव पंथ के प्रति ही आस्था जतायी। इस तरह यह पंथ विस्तार लेता गया। बाद में बालार्जुन जैसे शैव पंथ के उपासक रहे हों या नल और नाम वंषीय या कलचुरि शासक, सबने क्षेत्र की उदार परंपराओं का मान रखा और धर्म के प्रति अपनी आस्था बनाए रखी। ये शासक अन्य धर्मों के प्रति भी उदार बने रहे। इसी तरह प्रचार-प्रसार में बहुत ध्यान दिया। कलचुरि नरेशों के साथ-साथ शैव गुरूओं का भी इसके प्रसार में बहुत योगदान रहा।शाक्तपंथ ने भी क्षेत्र में अपनी जगह बनायी। बस्तर से लेकर पाली क्षेत्र में इसका प्रभाव एवं प्रमाण मिलता है। देवियों की मूर्तियां इसी बात का प्रगटीकरण हैं। इसी प्रकार बौद्ध धर्म के आगमन ने इस क्षेत्र में बह रही उदारता, प्रेम और बंधुत्व की धारा को और प्रवाहमान किया। चीनी यात्री हवेनसांग के वर्णन से पता चलता है कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। आरंग, तुरतुरिया और मल्लार इसके प्रमुख केन्द्र थे। हालांकि कलचुरियों के शासन काल में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम होने लगी पर इसके समाज पर अपने सकारात्मक प्रभाव छोड़े। जैन धर्म अपनी मानवीय सोच और उदारता के लिए जाना जाने वाला धर्म है। यहां इससे जुड़े अनेक शिल्प मिलते हैं। रतनपुर, आरंग और मल्लार से इसके प्रमाण मिले हैं।

शांति और सद्भाव की धाराओं का प्रवक्ताः छत्तीसगढ़ क्षेत्र में व्याप्त सहिष्णुता की धारा को आगे बढ़ाने में दो आंदोलनों का बड़ा हाथ है। तमाम पंथों और धर्मों की उपस्थिति के बावजूद यहां आपसी तनाव और वैमनस्य की धारा कभी बहुत मुखर रूप में सामने नहीं आयी। कबीर पंथ और सतनाम के आंदोलन ने सामाजिक बदलाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बदलाव की इस प्रक्रिया में वंचितों को आवाज मिली और वे अपनी अस्मिता के साथ खड़े होकर सामाजिक विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। कबीर पंथ और सतनाम का आंदोलन मूलतः सामाजिक समता को समर्पित था और गैरबराबरी के खिलाफ था। यह सही अर्थों में एक लघुक्रांति थी जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। हिंदू समाज के अंदर व्याप्त बुराइयों के साथ-साथ आत्मसुधार की भी बात संतवर गुरू घासीदास ने की। उनकी शिक्षाओं ने समाज में दमित वर्गों में स्वाभिमान का मंत्र फूंका और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। छत्तीसगढ़ में सतनाम के प्रणेता बाबा गुरूघासीदास थे। 1756 को गिरोद नामक गांव में जन्मे बाबा ने जो क्रांति की, उसके लिए यह क्षेत्र और मानवता सदैव आभारी रहेगी। मूर्तिपूजा, जातिभेद, मांसाहार, शराब व मादक चीजों से दूर रहने का संकल्प दिलवाकर सतनाम ने एक सामाजिक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। भारत जैसे धर्मप्राण देश की आस्थाओं का यह क्षेत्र सही अर्थों में एक जीवंत सद्भाव का भी प्रतीक है। रतनपुर, दंतेश्वरी, चंद्रपुर, बमलेश्वरी में विराजी देवियां हों या राजीवलोचन और शिवरीनाराण या चम्पारण में बह रही धार्मिकता सब में एक ऐसे विराट से जोड़ते हैं जो हमें आजीवन प्रेरणा देते हैं। धार्मिक आस्था के प्रति इतने जीवंत विश्वास का ही कारण है कि क्षेत्र के लोग हिंसा और अपराध से दूर रहते अपने जीवन संघर्ष में लगे रहते हैं। यह क्षेत्र अपने कलागत संस्कारों के लिए भी प्रसिद्ध है। जाहिर है धर्म के प्रति अनुराग का प्रभाव यहां की कला पर भी दिखता है। शिल्प कला, मूर्ति कला, स्थापत्य हर नजर से राज्य के पास एक महत्वपूर्ण विरासत मौजूद है। भोरमदेव, सिरपुर, खरौद, ताला, राजिम, रतनपुर, मल्लार ये स्था कलाप्रियता और धार्मिकता दोनों के उदाहरण हैं।इस नजर से यह क्षेत्र अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राज्य गठन के बाद इसके सांस्कृतिक वैभव की पहचान तथा मूल्यांकन जरूरी है। सदियों से उपेक्षित पड़े इस क्षेत्र के नायकों और उनके प्रदेय को रेखांकित करने का समय अब आ गया है। इस क्षेत्र की ऐतिहासिकता और योगदान को पुराने कवियों ने भी रेखांकित किया है। आवश्यक है कि हम इस प्रदेय के लिए हमारी सांस्कृतिक विरासत को पूरी दुनिया के सामने बताएं। बाबू रेवाराम ने अपने ग्रंथ विक्रम विलासमें लिखा हैः


जिनमें दक्षिण कौशल देसा,
जहॅं हरि औतु केसरी वेसा,
तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन,
पुण्यभूमि सुर-मुनि-मन-भावन।


राजनीति की एक अलग धाराः छत्तीसगढ़ की इसी सामाजिक-धार्मिक परंपरा ने यहां की राजनीति में भी सहिष्णुता के भाव भरे हैं। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की तरह जातीयता की भावना आज भी यहां की राजनीति का केंद्रीय तत्व नहीं बन पायी है। मप्र के साथ रहते हुए भी एक भौगोलिक इकाई के नाते अपनी अलग पहचान रखनेवाला यह क्षेत्र पिछले दस सालों में विकास के कई सोपान पार कर चुका है। अपनी तमाम समस्याओं के बीच उसने नए रास्ते देखे हैं। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी के तीन साल हों या डा. रमन सिंह के कार्यकाल के ये बरस, हम देखते हैं, विकास के सवाल पर सर्वत्र एक ललक दिखती है। राजनीतिक जागरूकता भी बहुत तेजी से बढ़ी है। नवसृजित तीनों राज्यों झारखंड,उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में अगर तुलना करें तो छत्तीसगढ़ ने तेजी से अनेक चुनौतियों के बावजूद, विकास का रास्ता पकड़ा है। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी का कार्यकाल जहां एक नए राज्य के सामने उपस्थित चुनौतियों को समझने और उससे मुकाबले के लिए तैयारी का समय रहा, वहीं डा. रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में कई मानक स्थापित किए। लोगों को सीधे राहत देने वाले विकास कार्यक्रम हों या नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता, सबने उन्हें एक नई पहचान दी। अजीत जोगी के कार्यकाल में जिस तरह की राजनीतिक शैली का विकास हुआ, उससे तमाम लोग उनके खिलाफ हुए और भाजपा को मजबूती मिली। डा. रमन सिंह ने अपनी कार्यशैली से विपक्षी दलों को एक होने के अवसर नहीं दिया और इसके चलते आसानी के साथ वे दूसरा चुनाव भी जीतकर पुनः मुख्यमंत्री बन गए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के इस बदलते परिवेश को देखें तो पता चलता है कि संयुक्त मप्र में जो राजनेता काफी महत्व रखते थे, नए छत्तीसगढ़ में उनके लिए जगह सिकुड़ती गई। आज का छत्तीसगढ़ सर्वथा नए नेतृत्व के साथ आगे बढ़ रहा है। संयुक्त मप्र में कांग्रेस में स्व. श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा, अरविंद नेताम, शिव नेताम, गंगा पोटाई, बीआर यादव, सत्यनारायण शर्मा, चरणदास महंत, भूपेश बधेल, बंशीलाल धृतलहरे, नंदकुमार पटेल, पवन दीवान, केयूर भूषण जैसे चेहरे नजर आते थे, तो भाजपा में स्व.लखीराम अग्रवाल, नंदकुमार साय, मूलचंद खंडेलवाल, रमेश बैस, लीलाराम भोजवानी, अशोक शर्मा, शिवप्रताप सिंह, बलीराम कश्यप, बृजमोहन अग्रवाल, प्रेमप्रकाश पाण्डेय जैसे नेता अग्रणी दिखते थे। किंतु पार्टियों का यह परंपरागत नेतृत्व राज्य गठन के बाद अपनी पुरानी ताकत में नहीं दिखता।

नए राज्य के नए नेता के रूप में डा. रमन सिंह, अजीत जोगी, अमर अग्रवाल, धनेंद्र साहू, अजय चंद्राकर, केदार कश्यप, टीएस सिंहदेव, चंद्रशेखर साहू, धरमलाल कौशिक, राजेश मूणत, रामविचार नेताम, वाणी राव, सरोज पाण्डेय, महेश गागड़ा, रामप्रताप सिंह, डा.रेणु जोगी, हेमचंद्र यादव जैसे नामों का विकास नजर आता है। जाहिर तौर पर राज्य की राजनीति परंपरागत मानकों से हटकर नए आयाम कायम कर रही है। उसकी आकांक्षाओं को स्वर और शब्द देने के लिए अब नया नेतृत्व सामने आ रहा है। ऐसे में ये दस साल दरअसल आकांक्षाओं की पूर्ति के भी हैं और बदलते नेतृत्व के भी हैं। छत्तीसगढ़ एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में भाजपा नेतृत्व के सामने है जहां वह तीसरी बार सरकार आने की उम्मीद पाल बैठी है। जबकि राज्य का परंपरागत वोटिंग पैटर्न इसकी इजाजत नहीं देता। राज्य गठन के पहले इस इलाके की सीटें जीतकर ही कांग्रेस मप्र में सरकार बनाया करती थी। किंतु पिछले दो चुनावों में लोकसभा की 10-10 सीटें दो बार जीतकर और विधानसभा की 50-50 सीटें लगातार दो चुनावों में जीतकर भाजपा ने जो करिश्मा किया है, उसकी मिसाल न मिलेगी। कांग्रेस के लिए आज यह राज्य एक कठिन चुनौती बन चुका है।

देश के दूसरे हिस्सों से छत्तीसगढ़ को देखना एक अलग अनुभव है। बस्तर की निर्मल और निर्दोष आदिवासी संस्कृति, साथ ही नक्सल के नाम मची बारूदी गंध व मांस के लोथड़े, भिलाई का स्टील प्लांट, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्लरी, गरीबी, पलायन और अंतहीन शोषण के किस्से यह हमारी पहचान के कुछ दृश्य हैं, जिनसे छतीसगढ़ का एक कोलाज बनता है। छत्तीसगढ़ आज भी इस पहचान के साथ खड़ा है। वह अपने साथ शुभ को रखना चाहता है और अशुभ का निष्कासन चाहता है। विकास के सवालों पर तेजी से काम करने के बावजूद छत्तीसगढ़ आज भी तमाम मानको पर पीछे दिखता है। देश के प्रगतिशील राज्यों की तुलना में वह अभी बहुत पीछे है। नक्सलवाद की कठिन चुनौती के साथ विकास के तमाम मानकों पर उसे खरा उतरना है। सर्वांगीण विकास ही किसी भी राज्य का वास्तविक चित्र बनाता है। हमें उस दिशा में काफी काम करना है। पिछड़े राज्यों की तुलना कर खुश होने के बजाए हमें उन राज्यों से अपनी तुलना करनी होगी जो प्रगति और विकास के मानक बने हुए हैं। जाहिर तौर पर छत्तीसगढ़ को अभी एक लंबी यात्रा तय करनी है। बिना रूके बिना थके। यह ठीक है कि छत्तीसगढ़ महतारी की मुक्ति और उसकी पीड़ा के हरण के लिए तमाम भागीरथ सक्रिय हैं। ग्यारह साल पूरे करने जा रहे छत्तीसगढ़ को देश भी एक आशा के साथ देख रहा है।

सोमवार, 24 अक्तूबर 2011

अंधकार को क्यों धिक्कारें, अच्छा है एक दीप जला लें !


दीपावली के पावन पर्व पर सभी दोस्तों, शुभचिंतकों और प्यारे विद्यार्थियों को हार्दिक शुभकामनाएं।
-संजय द्विवेदी

शरद पवार को गुस्सा क्यों आता है


-संजय द्विवेदी

राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष शरद पवार को अपने प्रधानमंत्री पर सार्वजनिक रूप से हमला बोलना चाहिए या नहीं यह एक बहस का विषय है। किंतु पवार ने जो कहा उसे आज देश भी स्वीकार रहा है। एक मुखिया के नाते मनमोहन सिंह की कमजोरियों पर अगर गठबंधन के नेता सवाल उठा रहे हैं तो कांग्रेस को अपने गिरेबान में जरूर झांकना चाहिए।

गठबंधन सरकारों के प्रयोग के दौर में कांग्रेस ने मजबूरी में गठबंधन तो किए हैं किंतु वह इन रिश्तों को लेकर बहुत सहज नहीं रही है। वह आज भी अपनी उसी टेक पर कायम है कि उसे अपने दम पर सरकार बनानी है, जबकि देश की राजनीतिक स्थितियां बहुत बदल चुकी हैं। देश पर लंबे समय तक राज करने का अहंकार और स्वर्णिम इतिहास कांग्रेस को बार-बार उन्हीं वीथिकाओं में ले जाता है, जहां से देश की राजनीति बहुत आगे निकल आई है। फिर मनमोहन सिंह कांग्रेस के स्वाभाविक नेता नहीं हैं। वे सोनिया गांधी के द्वारा मनोनीत प्रधानमंत्री हैं, ऐसे में निर्णायक सवालों पर भी उनकी बहुत नहीं चलती और वे तमाम मुद्दों पर 10-जनपथ के मुखापेक्षी हैं। सही मायने में वे सरकार को नेतृत्व नहीं दे रहे हैं, बस चला रहे हैं। उनकी नेतृत्वहीनता देश और गठबंधन दोनों पर भारी पड़ रही है। देश जिस तरह के सवालों से जूझ रहा है उनमें उनकी सादगी, सज्जनता और ईमानदारी तीनों भारी पड़ रहे हैं। उनकी ईमानदारी के हाल यह हैं कि देश भ्रष्टाचार के रिकार्ड बना रहा है और अर्थशास्त्री होने का खामियाजा यह कि महंगाई अपने चरम पर है। सही मायने में इस दौर में उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह पड़े हैं।

अटलबिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में राजग ने गठबंधन का जो सफल प्रयोग किया, उसे अपनाना कांग्रेस की मजबूरी है। किंतु समय आने पर अपने सहयोगियों के साथ न खड़े होना भी उसकी फितरत है। इस अतिआत्मविश्वास का फल उसे बिहार जैसे राज्य में उठाना भी पड़ा जहां राहुल गांधी के व्यापक कैंपेन के बावजूद उसे बड़ी विफलता मिली। देखें तो शरद पवार, ममता बनर्जी सरीखे सहयोगी कभी कांग्रेस का हिस्सा ही रहे। किंतु कांग्रेस की अपने सहयोगियों की तरफ देखने की दृष्टि बहुत सकारात्मक नहीं है। लालूप्रसाद यादव, रामविलास पासवान, मुलायम सिंह यादव, मायावती सभी तो दिल्ली की सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे हैं, किंतु कांग्रेस का इनके साथ मैदानी रिश्ता देखिए तो हकीकत कुछ और ही नजर आएगी। कांग्रेस गठबंधन को एक राजनीतिक धर्म बनाने के बजाए व्यापार बना चुकी है। इसी का परिणाम है अमर सिंह जैसे सहयोगी उसी व्यापार का शिकार बनकर आज जेल में हैं। सपा सांसद रेवतीरमण सिंह का नंबर भी जल्दी आ सकता है। यह देखना रोचक है कि अपने सहयोगियों के प्रति कांग्रेस का रवैया बहुत अलग है। वहां रिश्तों में सहजता नहीं है।

शरद पवार के गढ़ बारामती इलाके की सीट पर राकांपा की हार साधारण नहीं है। एक तरफ जहां कांग्रेस की उदासीनता के चलते महाराष्ट्र में राकांपा हार का सामना करती है। वहीं केंद्रीय मंत्री के रूप में शरद पवार हो रहे हमलों पर कांग्रेस का रवैया देखिए। कांग्रेसी उन्हें ही महंगाई बढ़ने का जिम्मेदार ठहराने में लग जाते है। एक सरकार सामूहिक उत्तरदायित्व से चलती है। भ्रष्टाचार हुआ तो ए. राजा दोषी हैं और महंगाई बढ़े तो शरद पवार दोषी ,यह तथ्य हास्यास्पद लगते हैं। फिर खाद्य सुरक्षा बिल जैसै सवालों पर मतभेद बहुत जाहिर हैं। श्रीमती सोनिया गांधी के द्वारा बनाया गयी राष्ट्रीय सलाहकार परिषद मंत्रियों और कैबिनेट पर भारी है, उसके द्वारा बनाए गए कानून मंत्रियों पर थोपे जा रहे हैं। यह सारा कुछ भी सहयोगी दलों के मंत्री सहज भाव से नहीं कर रहे हैं, मंत्री पद का मोह और सरकार में बने रहने की कामना सब कुछ करवा रही है।

सीबीआई का दुरूपयोग और उसके दबावों में राजनीतिक नेताओं को दबाने का सारा खेल देश के सामने है। ऐसे में यह बहुत संभव है कि ये विवाद अभी और गहरे हों। सरकार की छवि पर संकट देखकर लोग सरकार से अलग होने या अलग राय रखने की बात करते हुए दिख सकते हैं। ममता बनर्जी सरकार में मंत्री रहते हुए अक्सर ऐसा करती दिखती थीं और अपना जनधर्मी रूख बनाए रखती थीं। सहयोगी दलों की यह मजबूरी है कि वे सत्ता में रहें किंतु हालात को देखते हुए अपनी असहमति भी जताते रहें, ताकि उन्हें हर पाप में शामिल न माना जाए। शरद पवार जैसै कद के नेता का ताजा रवैया बहुत साफ बताता है कि सरकार में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। जब गठबंधन नकारात्मक चुनावी परिणाम देने लगा है, सहयोगी दल चुनावों में पस्त हो रहे हैं तो उनमें बेचैनी स्वाभाविक है। जिस बारामती में शरद पवार, कांग्रेस के बिना भी भारी पड़ते थे वहीं पर अगर वे कांग्रेस के साथ भी अपनी पार्टी को नहीं जिता पा रहे हैं, तो उनकी चिंता स्वाभाविक है। जाहिर तौर पर सबके निशाने पर चुनाव हैं और गठबंधन तो चुनाव जीतने व सरकार बनाने के लिए होते हैं। अब जबकि गठबंधन भी हार और निरंतर अपमान का सबब बन रहा है तो क्यों न बेसुरी बातें की जाएं। क्योंकि सरकार चलाना अकेली शरद पवार की गरज नहीं है, इसमें सबसे ज्यादा किसी का दांव पर है तो कांग्रेस का ही है। शरद पवार से वैसे भी आलाकमान के रिश्ते बहुत सहज नहीं रहे क्योंकि सोनिया गांधी के विदेशी मूल का सवाल उठाकर एनसीपी ने रिश्तों में एक गांठ ही डाली थी। बाद के दिनों में सत्ता साकेत की मजबूरियों ने रास्ते एक कर दिए। ऐसी स्थितियों में शायद कांग्रेस को एक बार फिर से गठबंधन धर्म को समझने की जरूरत है, किंतु अपनी ही परेशानियों से बेहाल कांग्रेस के इतना वक्त कहां है? श्रीमती सोनिया गांधी की खराब तबियत जहां कांग्रेस संगठन को चिंता में डालने वाली है वहीं कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी की क्षमताएं अभी बहुज्ञात नहीं हैं।

रविवार, 16 अक्तूबर 2011

मीडिया शिक्षा पर एक बेहतर किताब


भोपाल। भारत में मीडिया शिक्षा एक लंबी यात्रा पूरी कर चुकी है। इसका विस्तार निरंतर हो रहा है। इस विधा में हो रहे विस्तार और इसके सामने उपस्थित चुनौतियों पर प्रकाश डालती हुई एक किताब मीडिया शिक्षाःमुद्दे और अपेक्षाएं का प्रकाशन दिल्ली के यश पब्लिकेशन्स ने किया है।

पुस्तक के संपादक, माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता और संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने बताया कि इस पुस्तक देश के जाने माने मीडिया शिक्षकों, पत्रकारों और बुद्धिजीवियों के लेख शामिल किए गए हैं। जिन्होंने मीडिया शिक्षा के विविध पक्षों पर अपनी बेबाक राय रखी है। उन्होंने कहा कि आज जबकि मीडिया शिक्षा एक विशिष्ठ अनुशासन के रूप में अपनी जगह बना रही है तब उसपर गंभीर विमर्श जरूरी है। आज जबकि सीबीएससी के पाठ्यक्रमों से लेकर मीडिया अध्ययन में पीएचडी तक के कोर्स देश के तमाम विश्वविद्यालय में उपलब्ध हैं, तब यह जरूरी है कि हम मीडिया शिक्षा के तमाम प्रकारों पर संवाद करें और उसकी सार्थकता के लिए रास्ते निकालें।

माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता के पूर्व कुलपति और जनसत्ता के पूर्व संपादक श्री अच्युतानंद मिश्र को समर्पित की गयी इस पुस्तक में स्व. माखनलाल चतुर्वेदी, अच्युतानंद मिश्र, प्रो. बी.के. कुठियाला, विश्वनाथ सचदेव, डा.संजीव भानावत, सच्चिदानंद जोशी, प्रो.कमल दीक्षित, डा.मनोज दयाल, डा.श्रीकांत सिंह, डा. मानसिंह परमार, डा.मनीषा शर्मा, डा.वर्तिका नंदा, डा. शिप्रा माथुर, बृजेश राजपूत, प्रो. ओमप्रकाश सिंह, सचिन भागवत, प्रो.ओमप्रकाश सिंह, धनंजय चोपड़ा, डा.सुशील त्रिवेदी, प्रकाश दुबे, डा. देवब्रत सिंह,संजय कुमार, मोनिका गहलोत, संदीप कुमार श्रीवास्तव, माधवी श्री, मिथिलेश कुमार, मीतेंद्र नागेश, जया शर्मा, आशीष कुमार अंशू,मधु चौरसिया, सुमीत द्विवेदी आदि के लेख शामिल हैं। 159 पृष्ठ की इस पुस्तक का मूल्य 295 रूपए है। प्रकाशक का पता हैः यश पब्लिकेशंस, 1/10753, गली नंबर-3, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, नियर कीर्ति मंदिर, दिल्ली-110032

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

मीडिया विमर्श के नए अंक में एक बड़ी बहस ‘लोक’ ऊपर या ‘तंत्र’


भोपाल। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित लोकप्रिय पत्रिका मीडिया विमर्श का नया अंक (सितंबर, 2011) एक बड़ी बहस छेड़ने में कामयाब रहा है। इस अंक में अन्ना हजारे और बाबा रामदेव के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलनों से उपजे हालात पर विमर्श किया गया है। इस अंक की आवरण कथा इन्हीं संदर्भों पर केंद्रित है। अन्ना ने किया दिल्ली दर्प दमन शीर्षक संपादकीय में पत्रिका के कार्यकारी संपादक संजय द्विवेदी ने कहा है कि हमें अपने लोकतंत्र को वास्तविक जनतंत्र में बदलने की जरूरत है।

इसके साथ ही इस अंक में जनांदोलनों पर केंद्रित कई आलेख हैं, जिसमें प्रख्यात लेखिका मैत्रेयी पुष्पा ने यह सवाल खड़ा किया है कि आखिर जनांदोलनों में साहित्यकार और लेखक क्यों गायब दिखते हैं। इसके साथ ही डा. विजयबहादुर सिंह का एक लेख और एक कविता इन संदर्भों को सही तरीके से रेखांकित करती है। उदीयमान भारत की वैश्विक भूमिका पर केंद्रित माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का लेख एक नई दिशा देता है। धार्मिक चैनलों और मीडिया में धर्म की जरूरत पर डा. वर्तिका नंदा एक लंबा शोधपरक लेख चैनलों पर बाबा लाइव शीर्षक से प्रकाशित है। समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर ने मजीठिया वेज बोर्ड के बारे में एक विचारोत्तेजक लेख लिखकर पत्रकारों का शोषण रोकने की बात की है।

अंक में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अमरकांत एवं प्रख्यात पत्रकार रामशरण जोशी के साक्षात्कार भी हैं। इसके साथ ही गिरीश पंकज के नए व्यंग्य उपन्यास ऊं मीडियाय नमः के कुछ अंश भी प्रकाशित किए गए हैं। पत्रिका के अंक के अन्य प्रमुख लेखकों में नवीन जिंदल, संजय कुमार, प्रीति सिंह, लीना, डा. सुशील त्रिवेदी, मधुमिता पाल के नाम उल्लेखनीय हैं।

अगला अंक सोशल नेटवर्किंग पर केंद्रितः मीडिया विमर्श का आगामी अंक सोशल नेटवर्किग पर केंद्रित है। भारत जैसे देश में भी खासकर युवाओं के बीच संवाद का माध्यम सोशल नेटवर्किंग बन चुकी है। इससे जुड़े विविध संदर्भों पर इस अंक में विचार होगा। सोशल नेटवर्किंग के सामाजिक प्रभावों के साथ-साथ संवाद की इस नई शैली के उपयोग तथा खतरों की तरफ भी पत्रिका प्रकाश डालेगी। इस अंक में जाने-माने पत्रकार, साहित्यकार और बुद्धिजीवियों के लेख शामिल किए जा रहे हैं। इस अंक में आप भी अपना योगदान दे सकते हैं। अपने लेख, विश्वेषण या अनुभव 10 नवंबर,2011 तक मेल कर दें तो हमें सुविधा होगी। लेख के साथ अपना एक चित्र एवं संक्षिप्त परिचय जरूर मेल करें। हमारा मेल पता है- mediavimarsh@gmail.com

शुक्रवार, 7 अक्तूबर 2011

अस्मिताओं के सम्मान से ही एकात्मताः सहस्त्रबुद्धे





भोपाल, 7 अक्टूबर। विचारक एवं चिंतक विनय सहस्त्रबुद्धे का कहना है कि छोटी-छोटी अस्मिताओं का सम्मान करते हुए ही हम एक देश की एकात्मता को मजबूत कर सकते हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल द्वारा आयोजित व्याख्यान मीडिया में विविधता एवं बहुलताः समाज का प्रतिबिंबन विषय पर अपने विचार व्यक्त कर रहे थे। उन्होंने कहा कि अस्मिता का सवाल अतार्किक नहीं है, इसे समझने और सम्मान देने की जरूरत है। बहुलता का मतलब ही है विविधता का सम्मान, स्वीकार्यता और आदर है।

उन्होंने कहा कि इसके लिए संवाद बहुत जरूरी है और मीडिया इस संवाद को बहाल करने और प्रखर बनाने में एक खास भूमिका निभा सकता है। ऐसा हो पाया तो मणिपुर का दर्द पूरे देश का दर्द बनेगा। पूर्वोत्तर के राज्य मीडिया से गायब नहीं दिखेंगें। बहुलता के लिए विधिवत संवाद के अवसरों की बहाली जरूरी है। ताकि लोग सम्मान और संवाद की अहमियत को समझकर एक वृहत्तर अस्मिता से खुद को जोड़ सकें। आध्यात्मिक लोकतंत्र इसमें एक बड़ी भूमिका निभा सकता है। इससे समान चिंतन, समान भाव, समान स्वीकार्यता पैदा होती है। समाज के सब वर्गों को एकजुट होकर आगे जाने की बात मीडिया आसानी से कर सकता है। किंतु इसके लिए उसे ज्यादा मात्रा में बहुलता को अपनाना होगा। उपेक्षितों को आवाज देनी पड़ेगी। अगर ऐसा हो पाया तो विविधता एक त्यौहार बन जाएगी, वह जोड़ने का सूत्र बन सकती है।

कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि दूसरों को सम्मान देते हुए ही समाज आगे बढ़ सकता है। मैं को विलीन करके ही समाज का रास्ता सुगम बनता है। मीडिया संगठनों की रचना ही बहुलता में बाधक है। साथ ही समाचार संकलन पर घटता खर्च मीडिया की बहुलता को नियंत्रत कर रहा है। विविध विचारों को मिलाने से ही विचार परिशुद्ध होते हैं। वरना एक खास किस्म की जड़ता विचारों के क्षेत्र को भी आक्रांत करती है।

कार्यक्रम के प्रारंभ में विषय प्रवर्तन करते हुए जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने कहा कि समाज में मीडिया के बढ़ते प्रभाव के मद्देनजर यह जरूरी है कि समाज की बहुलताओं और विभिन्नताओं का अक्स मीडिया कवरेज में भी दिखे। इससे मीडिया ज्यादा सरोकारी, ज्यादा जवाबदेह, ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा संतुलित और ज्यादा प्रभावी बनेगा। इसकी अभिव्यक्ति में शामिल व्यापक भावनाएं इसे प्रभावी बना सकेंगी। उन्होंने कहा कि विभिन्नताओं में सकात्मकता की तलाश जरूरी है क्योंकि सकारात्मकता से ही विकास संभव है जबकि नकारात्मकता से विनाश या विवाद ही पैदा होते हैं। कार्यक्रम का संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया। इस मौके पर रेक्टर सीपी अग्रवाल, डा. श्रीकांत सिंह ने अतिथियों का पुष्पगुच्छ देकर स्वागत किया।

बुधवार, 5 अक्तूबर 2011

पचमढी की छवियां





पचमढ़ी की कुछ छवियां





भोपाल।मप्र के पचमढी की खूबसूरती देखते ही बनती है। वहां होना एक अद्भुत अनुभव है।

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

उनकी दुआओं से ही बरसती हैं रहमतें


-संजय द्विवेदी

बुर्जुगों की दुआएं और पुरखों की आत्माएं जब आशीष देती हैं तो हमारी जिंदगी में रहमतें बरसने लगती हैं। धरती पर हमारे बुर्जुग और आकाश से हमारे पुरखे हमारी जिंदगी को रौशन करने के लिए दुआ करते हैं। उनकी दुआओं-आशीषों से ही पूरा घर चहकता है। किलकारियों से गूंजता है और जिंदगी भी हमारे साथ महक उठती है। जिंदगी उजाले से भर जाती है, रास्ते रौशन हो उठते हैं और कायनात मुस्कराने लगती है।

यह फलसफा इतना आसान नहीं है। आत्मा से दुआ करके देखिए, या आत्माओं की दुआएं लेकर देखिए। यह तभी महसूस होगा। आत्मा के भीतर एक भरोसा, एक आंच और जज्बा धीरे-धीरे उतरता चला जाता है। वह भरोसा आत्मविश्वास की शक्ल ले लेता है, और आप वह कुछ भी कर डालते हैं जिसके बारे में आपने सोचा न था। क्योंकि आपको भरोसा है कि आपके साथ बड़ों की दुआएं हैं।

उन घरों की रौनक को देखिए जिनमें बुर्जुग भी हैं और बच्चे भी। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को साथ खेलते हुए देखिए। उनके संवाद और निश्चल प्रेम को देखिए। यही पीढ़ियों का संवाद है। अनुभवों और परंपराओं का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरण है। हमारे बुर्जुग आने वाली पीढ़ी को देखकर खुश होते हैं। इसलिए बेटा नहीं, पोता ज्यादा प्यारा होता है,बेटी नहीं- उसकी बेटी ज्यादा प्यारी होती है। पीढ़ियां यूं ही बनती हैं। इसी तरह आत्मा को अजर-अमर मानने वाली संस्कृति के विश्वासी क्या ये मानेंगें कि हमारे पुरखे हमें देख रहे हैं ? वे यह देख रहे हैं कि हमने कैसे परिवार को जोड़कर रखा है ? कैसे हम प्रगति कर रहे हैं ? कैसे हमने अपनी विरासतों को संभाला हुआ है ? अगर हम सारा कुछ बेहतर करते हैं तो वे हमें आशीष देते हैं। कुछ बेहतर होने पर देवताओं द्वारा की जाने पुष्पवर्षा को सिर्फ कथा न मानिए। हमारे पुरखे भी अपनी आशीषों के, दुआओं के फूल हम पर बरसाते हैं। वे खुश होते हैं और हमारी तरक्की के रास्ते खोलते हैं।

वे हमसे दूर पर भगवान से निकट हैं, प्रकृति से उनका सीधा संवाद है,उनकी दुआएँ ही हममें ताकत भरती हैं कि हम कुछ कर सकें। पितृमोक्ष के ये दिन हमारे श्रद्धा निवेदन के दिन हैं। स्मृतियों के दिन हैं। उनको याद करने के दिन हैं जिनकी परंपरा के अनुगामी हम हैं। जिनके चलते हम इस दुनिया में हैं। यह स्मरण ही हमें जड़ों से जोड़ता है। यह बताता है कि कैसे पूरी सृष्टि एक भाव से हमें जोड़ती है और कैसे हम सब एक परमपिता के ही अंश हैं। यह पर्व बताता है कि कैसे हम एक परिवार हैं,बंधु-बांधव हैं और सहयात्री हैं। एक ऐसी परंपरा के हिस्से हैं जो अविनाशी है और चिरंतन है, सनातन है।

क्रोमोजोम्स के जरिए वैज्ञानिक यह सिद्ध करने में सफल रहे हैं कि नवजात शिशु में कितने गुण दादा व परदादा तथा कितने गुण नानामह और नाना के आते हैं। इसके मायने यह हैं कि पूर्वजों का हमसे जुड़ाव बना रहता है। श्राद्ध के वैज्ञानिक आधार तक पहुंचने में शायद दुनिया को अभी समय लगे किंतु हमारे पुराण और ग्रंथ इन रहस्यों को भली-भांति उजागर करते हैं। हमारी परंपरा में श्राद्ध एक विज्ञान ही है, जिसके पीछे तार्किक आधार हैं और आत्मा की अमरता का विश्वास है। श्राद्ध कर्म करके अपने पितरों को संतुष्ट करना, वास्तव में पीढ़ियों का आपसी संवाद है। यही परंपरा हमें पुत्र कहलाने का हक देती है और हमें हमारी संस्कृति का वास्तविक उत्तराधिकारी बनाती है। पितरों का सम्मान और उनका आशीष हमें हर कदम पर आगे बढ़ाता है। उनका हमारे पास आना और संतुष्ट होकर जाना,कपोल कल्पना नहीं है। यह बताता है कि किस तरह हम अपने पितरों से जुड़कर एक परंपरा से जुड़ते हैं, समाज के प्रति दायित्वबोध से जुड़ते हैं और अपनी संस्कृति के संरक्षण और उसकी जड़ों को सींचने का काम करते हैं। यही पितृऋण है। जिससे मुक्त होने के लिए हम सारे जतन करते हैं।

मृत्यु के अंतराल के बाद भी हमारे पुरखे हमसे जुड़े रहते हैं। यह स्मृति ही हमें जड़ों से जोड़ती है, परिवार के संस्कारों से जोड़ती है और बताती है कि दुनिया कितनी भी बदल जाए, हम लोग अपनी परंपरा के सच्चे उत्तराधिकारी हैं। श्राद्ध कर्म के बहाने हमारे पुरखे हमसे जुड़े रहते हैं, हमारी स्मृतियों में कायम रहते हैं। भारत की संस्कृति सही मायने में स्मृतियों का ही लोक है। इस लोक में हमारे पूर्वजों की यादें, उनकी सांसें, उनकी बातें, उनके जीवन मूल्य, उनकी जीवन शैली सब महकती है। हमें हमारी जड़ों से जोड़ने का यह उपक्रम भी है और मां-माटी का ऋण चुकाने का अवसर भी। श्रद्धा और विश्वास से तर्क की किताबें बेमानी हो जाती हैं। यह समय हमें लोक से जोड़ता है, जिसमें हमारी माटी, पूरी प्रकृति, विभिन्न जीव एवं देव (गाय, कुत्ते, कौआ, देवता,चीटियां, ब्राम्हण) तक का विचार है। यह हमें बताता है कि लोक के साथ हमारा रिश्ता क्या है। प्रकृति और इसमें बसने वाले जीवधारी सब हमारे लिए समान रूप से आदर के पात्र हैं। उनका संरक्षण और पूजन ही हमारी संस्कृति है। यह पाठ है लोक के साथ जीने का और उसका मान करने का। यह एक सहजीवन है जिसमें पूरी प्रकृति की पूजा का भाव है। इस लोकअर्चना से ही पितृ प्रसन्न होते हैं। वे हमें दुआएं देते हैं, जिसका फल हमारे जीवन की सर्वांगीण प्रगति के रूप में सामने आता है।

अब सवाल यह उठता है कि मृत्यु के पश्चात भी अपने पुरखों का इतना सम्यक विचार करने वाली संस्कृति का विचलन आखिर क्यों हो रहा है ? हालात यह हैं कि आत्माओं के तर्पण की बात करने वाला समाज आज परिवार के बुर्जुगों को सम्मान से जीने की स्थितियां भी बहाल नहीं कर पा रहा है। जहां माता-पिता को भगवान का दर्जा हासिल है, वहां ओल्ड होम्स या वृद्धाश्रम बन रहे हैं। यह कितने खेद का विषय है कि हमारी परंपरा के विपरीत हमारे बुर्जुग घरों में अपमानित हो रहे हैं। उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं हो रहा है। बाजार और अपसंस्कृति का परिवार नाम की संस्था पर सीधा हमला है। अगर हमारे समाज में ऐसा हो रहा तो पितृमोक्ष के मायने क्या रह जाते हैं। एक भटका हुआ समाज ही ऐसा कर सकता है।

जो समाज अपने पुरखों के प्रति श्रद्धाभाव रखता आया, उनकी स्मृतियों को संरक्षित करता आया, उसका ही जीवित आत्माओं को पीड़ा देने का प्रयास कई सवाल खड़े करता है। ये सवाल, ये हैं कि क्या हमारा दार्शनिक और नैतिक आधार चरमरा गया है? क्या हमारी स्मृतियों पर बाजार और संवेदनहीनता की इतनी गर्द चढ़ गयी है कि हम अपनी सारी नैतिकता व विवेक गवां बैठे हैं। अपने पितरों की मोक्ष के लिए प्रार्थना में जुड़ने वाले हाथ कैसे बुर्जुगों पर उठ रहे हैं, यह एक बड़ा सवाल है। पितृपक्ष के बहाने हमें यह सोचना होगा कि आखिर हम कहां जा रहे हैं? किस ओर बढ़ रहे हैं? कौन सा पाठ पढ़ रहे हैं और अपनी जड़ों का तिरस्कार कैसे कर पा रहे हैं? पाठ यह भी है कि आखिर हम अपने लिए कैसा भविष्य और कैसी गति चाहते हैं। अपने बुर्जुगों का तिरस्कार कर हम जैसी परंपरा बना रहे हैं क्या वही हमारे साथ दुहराई नहीं जाएगी। माता-पिता का तिरस्कार या उपेक्षा करती पीढ़ियां आखिर किस मुंह से अपनी संततियों से सदव्यवहार की अपेक्षा कर सकती हैं, इस पर सोचिएगा जरूर। यह भी सोचिए कि मृत्यु के बाद भी अपने पितरों को स्मृतियों में रखकर उनका पूजन,अर्चन करने वाली प्रकृति जीवित माता-पिता के अपमान को क्या सह पाएगी ? टूटते परिवारों, समस्याओं और अशांति से घिरे समाज का चेहरा क्या हमें यह बताता कि हमने अपने पारिवारिक मूल्यों के साथ खिलवाड़ किया है। अपनी परंपराओं का उल्लंधन किया है। मूल्यों को बिसराया है। इसके कुफल हम सभी को उठाने पड़ रहे हैं। आज फिर एक ऐसा समय आ रहा है जब हमें अपनी जड़ों की ओर झांकने की जरूरत है। बिखरे परिवारों और मनुष्यता को एक करने की जरूरत है। भारतीय संस्कृति के उन उजले पन्नों को पढ़ने की जरूरत है जो हमें अपने बड़ों का आदर सिखाते हैं। जो पूरी प्रकृति से पूजा एवं सद्भाव का रिश्ता रखते हैं। जहां कलह, कलुष और अवसरवाद के बजाए प्रेम, सद् भावना और संस्कार हैं। पितृऋण से मुक्ति इसी में है कि हम उन आदर्श परंपराओं का अनुगमन करें, उस रास्ते पर चलें जिन पर चलकर हमारे पुरखों ने इस देश को विश्वगुरू बनाया था। पूरी दुनिया हमें आशा के साथ देख रही है। हमारी परिवार नाम की संस्था, हमारे रिश्ते और उनकी सधनता-सब कुछ दुनिया में आश्चर्यलोक ही हैं। हम उनसे न सीखें जो पश्चिमी भोगवाद में डूबे हैं, हमें पूरब के ज्ञान- अनुशासन के आधार के एक नई दुनिया बनाने के लिए तैयार होना है। श्रवण कुमार, भगवान राम जैसी कथाएं हमें प्रेरित करती हैं, अपनों के लिए सब कुछ उत्सर्ग करने की प्रेरणा देती हैं। मां, मातृभूमि, पिता, पितृभूमि इसके प्रति हम अपना सर्वस्व अर्पित करने की मानसिकता बनाएं, यही इस समय का संदेश है। इस भोगवादी समय मे अगर हम ऐसा करने का साहस जुटा पाते हैं तो यह बात हमारे परिवारों के लिए सौभाग्य का टीका साबित होगी।


सोमवार, 12 सितंबर 2011

आइए हिंदी के लिए विलाप करें !


हिंदी दिवस (14 सितंबर) पर विशेषः

- संजय द्विवेदी

राष्ट्रभाषा के रूप में खुद को साबित करने के लिए आज वस्तुतः हिंदी को किसी सरकारी मुहर की जरूरत नहीं है। उसके सहज और स्वाभाविक प्रसार ने उसे देश की राष्ट्रभाषा बना दिया है। वह अब सिर्फ संपर्क भाषा नहीं है, इन सबसे बढ़कर वह आज बाजार की भाषा है, लेकिन हर 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर होने वाले आयोजनों की भाषा पर गौर करें तो यूँ लगेगा जैसे हिंदी रसातल को जा रही है। यह शोक और विलाप का वातावरण दरअसल उन लोगों ने पैदा किया है, जो हिंदी की खाते तो हैं, पर उसकी शक्ति को नहीं पहचानते। इसीलिए राष्ट्रभाषा के उत्थान और विकास के लिए संकल्प लेने का दिन सामूहिक विलापका पर्व बन गया है। कर्म और जीवन में मीलों की दूरी रखने वाला यह विलापवादी वर्ग हिंदी की दयनीयता के ढोल तो खूब पीटता है, लेकिन अल्प समय में हुई हिंदी की प्रगति के शिखर उसे नहीं दिखते।
नकारात्मक अभियानों नहीं मिलेगी ताकतः

अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को लेकर हिंदी भक्तों की चिंताएं कभी-कभी अतिरंजित रूप लेती दिखती हैं। वे एक ऐसी भाषा से हिंदी की तुलना कर अपना दुख बढ़ा लेते हैं, जो वस्तुतः विश्व की संपर्क भाषा बन चुकी है और ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें लंबा और गंभीर कार्य हो चुकाहै। अंग्रेजी दरअसल एक प्रौढ़ हो चुकी भाषा है, जिसके पास आरंभ से ही राजसत्ताओं का संरक्षण ही नहीं रहा वरन ज्ञान-चिंतन, आविष्कारों तथा नई खोजों का मूल काम भी उसी भाषा में होता रहा। हिंदी एक किशोर भाषा है, जिसके पास उसका कोई ऐसा अतीत नहीं है, जो सत्ताओं के संरक्षण में फला-फूला हो । आज भी ज्ञान-अनुसंधान के काम प्रायः हिंदी में नहीं हो रहे हैं। उच्च शिक्षा का लगभग अध्ययन और अध्यापन अंग्रेजी में हो रहा है। दरअसल हिंदी की शक्ति यहां नहीं है, अंग्रेजी से उसकी तुलना इसलिए भी नहीं की जानी चाहिए क्योकि हिंदी एक ऐसे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है, जो विश्व मानचित्र पर अपने विस्तारवादी, उपनिवेशवादी चरित्र के लिए नहीं बल्कि सहिष्णुता के लिए जाना जाने वाला क्षेत्र है। फिर भी आज हिंदी, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आवादी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, क्या आप इस तथ्य पर गर्व नहीं कर सकते ? दरअसल अंग्रेजी के खिलाफ वातावरण बनाकर हमने अपने बहुत बड़े हिंदी क्षेत्र को अज्ञानीबना दिया तो दक्षिण के कुछ क्षेत्र में हिन्दी विरोधी रूझानों को भी बल दिया । सच कहें तो नकारात्मक अभियान या भाषा को शक्ति नहीं दे सकते । एक भाषा के रूप में अंग्रेजी को सीखने तथा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को समादर देने, मातृभाषा के नाते मराठी, बंगला या पंजाबी का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। किंतु किसी भाषा को समाज में यदि प्रतिष्ठा पानी है तो वह नकारात्मक प्रयासों से नहीं पाई जा सकती ।

अंग्रेजी के खिलाफ चीखने से क्या होगाः

अंग्रेजी के विस्तारवाद को हमने साम्राज्यवादी ताकतों का षडयंत्र माना और प्रचारित किया। फलतः भावनात्मक रूप से सोचने-समझने वाला वर्ग अंग्रेजी से कटा और आज यह बात समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए गलत प्रमाण बन गई। यद्यपि अंग्रेजी मुठ्ठीभर सत्ताधीशों, नौकरशाहों और प्रभुवर्ग की भाषा है। वह उनकी शक्ति बन गई है। तो शक्ति को छीनने का एकमेव हथियार है उस भाषा पर अधिकार । यदि देश के तमाम गांवों, कस्बों, शहरों के लोग निज भाषा के आग्रहों आज मुठ्ठी भर लोगों के अकड़ और शासनकी भाषा न होती। इस सिलसिले में भावनात्मक नारेबाजियों से परे हटकर विश्व परिदृश्यमें हो रही घटनाओं-बदलावों का संदर्भ देखकर ही कार्यक्रम बनाने चाहिए । यह बुनियादी बात हिंदी क्षेत्र के लोग नहीं समझ सके। आज यह सवाल महत्वपूर्ण है कि अंग्रेजी सीखकर हम साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी कुछ क्रों से जुझ सकेंगे या उससे अनभिज्ञ रहकर। अपनी भाषा का अभिमान इसमें कहीं आड़े नहीं आता। भारतेंदु की यह बात- निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल आज के संदर्भ में भी अपनी प्रासंगिकता रखती है। आप इसी भाषा प्रेम के रुझानों को समझने के लिए दक्षिण भारत के राज्यों पर नजर डालें तो चित्र ज्यादा समझ में आएगा । मैं नहीं समझता कि किसी मलयाली भाषी, तमिल भाषी का अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम किसी बिहार, उ. प्र. या म. प्र. के हिंदी भाषी से कम है लेकिन दक्षिण के राज्यों ने अपनी भाषा के प्रति अनुराग को बनाए रखते हुए अंग्रेजी का भा ज्ञानार्जन किया, हिंदी भी सीखी। यदि वे निज भाषा का आग्रह लेकर बैठ जाते तो शायद वे आज सफलताओं के शिखर न छू रहे होते। आग्रहों से परे स्वस्थ चिंतन ही किसी समाज और उसकी भाषा को दुनिया में प्रतिष्ठा दिला सकता है। भाषा को अपनी शक्ति बनाने के बजाए उसे हमने अपनी कमजोरी बना डाला। बदलती दुनिया के मद्देनजर विश्व ग्रामकी परिकल्पना अब साकार हो उठी है। सो अंग्रेजी विश्व की संपर्क भाषा के रूप में और हिंदी भारत में संपर्क भाषा के स्थान पर प्रतिष्ठित हो चुकी है, यह चित्र बदला नहीं जा सकता ।

अपनी उपयोगिता से बढ़ेगी हिंदीः

हिंदी की ताकत दरअसल किसी भाषा से प्रतिद्वंद्विता से नहीं वरन उसकी उपयोगिता से ही तय होगी। आज हिंदी सिर्फ वोट माँगने की भाषाहै, फिल्मों की भाषा है। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां में अभी आधारभूत कार्य होना शेष है। उसने खुद को एक लोकभाषा और जनभाषा के रूप में सिद्ध कर दिया है। किंतु ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें काम होना बाकी है, इसके बावजूद हिंदी का अतीत खासा चमकदार रहा है।

नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन में स्वामी दयानंद से लेकर विवेकानंद तक लोगों को जगाने के अभियान की भाषा हिंदी ही बनी। गांधी ने भाषा की इस शक्ति को पहचाना और करोड़ों लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया तो उसका माध्यम हिंदी ही बनी थी। दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाशजैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिंदी में रचकर हिंदी को एक प्रतिष्ठा दी। जानकारी के लिए ये दोनों महानायक हिंदी भाषा नहीं थे । तिलक, गोखले, पटेल सबके मुख से निकलने वाली हिंदी ही देश में उठे जनज्वार का कारण बनी । यह वही दौर है जब आजादी की अलख जगाने के लिए ढेरों अखबार निकले । उनमें ज्यादातर की भाषा हिंदी थी। यह हिंदी के खड़े होने और संभलने का दौर था । यह वही दौर जब भारतेन्दु हरिचन्द्र ने भारत दुर्दशालिखकर हिंदी मानस झकझोरा था। उधर पत्रकारिता के क्षेत्र में आजके संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी एक इतिहास रच रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता का यह समय ही हमारी हिंदी पत्रकारिता की प्रेरणा और प्रस्थान बिंदु है।

आंदोलन से बढ़ी है भाषा की शक्तिः

आजादी के बाद भी वह परंपरा रुकी या ठहरी नहीं है। हिंदी को विद्यालयों विश्वविद्यालयों, कार्यालयों। संसद तथा अकादमियों में प्रतिष्ठा मिली है। तमाम पुरस्कार योजनाएं, संबर्धन के, प्रेरणा के सरकारी प्रयास शुरू हुए हैं। लेकिन इन सबके चलते हिंदी को बहुत लाभ हुआ है, सोचना बेमानी है। हिंदी की प्रगति के कुछ वाहक और मानक तलाशे जाएं तो इसे सबसे बड़ा विस्तार जहां आजादी के आंदोलन ने, साहित्य ने, पत्रकारिता ने दिलाया, वहीं हिंदी सिनेमा ने इसकी पहुँच बहुत बढ़ा दी। सिनेमा के चलते यह दूर-दराज तक जा पहुंची। दिलीप कुमार, राजकुमार, राजकपूर, देवानंद के स्टारडमके बाद अभिताभ की दीवनगी इसका कारण बनी। हिंदी न जानने वाले लोग हिंदी सिनेमा के पर्दे से हिंदी के अभ्यासी बने। यह एक अलग प्रकार की हिंदी थी। फिर ट्रेनें, उन पर जाने वाली सवारियां, नौकरी की तलाश में हिंदी प्रदेशों क्षेत्रों में जाते लोग, गए तो अपनी भाषा, संस्कृति,परिवेश सब ले गए । तो कलकत्ता में कलकतिया हिंदीविकसित हुई, मुंबई में बम्बईयी हिंदीविकसित हुई। हिंदी ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से तादात्म्य बैठाया, क्योंकि हिंदी के वाहक प्रायः वे लोग थे जो गरीब थे, वे अंग्रेजी बोल नहीं सकते थे। मालिक दूसरी भाषा का था, उन्हें इनसे काम लेना था। इसमें हिंदी के नए-नए रूप बने। हिंदी के लोकव्यापीकरण की यह यात्रा वैश्विक परिप्रक्ष्य में भी घट रही थी। पूर्वीं उ. प्र. के आजमगढ़, गोरखपुर से लेकर वाराणसी आदि तमाम जिलों से गिरमिटिया मजदूरोंके रूप में विदेश के मारीशस, त्रिनिदाद, वियतनाम, गुयाना, फिजी आदि द्वीपों में गई आबादी आज भी अपनी जड़ों से जुड़ी है और हिंदी बोलती है। सर शिवसागर रामगुलाम से लेकर नवीन रामगुलाम, वासुदेव पांडेय आदि तमाम लोग अपने देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी बने। बाद में शिवसागर रामगुलाम गोरखपुर भी आए। यह हिंदी यानी भाषा की ही ताकत थी जो एक देश में हिंदी बोलने वाले हमारे भारतीय बंधु हैं। इन अर्थों में हिंदी आज तक विश्वभाषाबन चुकी है। दुनिया के तमाम देशों में हिंदी के अध्ययन-आध्यापन का काम हो रहा है।
बन गयी है समर्थ भाषाः

देश में साहित्य-सृजन की दृष्टि से, प्रकाश-उद्योग की दृष्टि से हिन्दी एक समर्थ भाषा बनी है । भाषा और ज्ञान के तमाम अनुशासनों पर हिन्दी में काम शुरु हुआ है । रक्षा, अनुवांशिकी, चिकित्सा, जीवविज्ञान, भौतिकी क्षेत्रों पर हिन्दी में भारी संख्या में किताबें आ रही हैं । उनकी गुणवक्ता पर विचार हो सकता है किंतु हर प्रकार के ज्ञान और सूचना को अभिव्यक्ति देने में अपनी सामर्थ्य का अहसास हिन्दी करा चुकी है । इलेक्ट्रानिक मीडिया के बड़े-बड़े अंग्रेजी दां चैनलभी हिन्दी में कार्यक्रम बनाने पर मजबूर हैं । ताजा उपभोक्तावाद की हवा के बावजूद हिन्दी की ताकत ज्यादा बढ़ी है । हिन्दी में विज्ञापन, विपणन उपभोक्ता वर्ग से हिन्दी की यह स्थिति विलापकी नहींतैयारीकी प्रेरणा बननी चाहिए । हिन्दी को 21वीं सदी की भाषा बनना है । आने वाले समय की चुनौतियों के मद्देनजर उसे ज्ञान, सूचनाओं और अनुसंधान की भाषा के रुप में स्वयं को साबित करना है । हिन्दी सत्ता-प्रतिष्ठानों के सहारे कभी नहीं फैली, उसकी विस्तार शक्ति स्वयं इस भाषा में ही निहित है । अंग्रेजी से उसकी तुलना करके कुढ़ना और दुखी होना बेमानी है । अंग्रेजी सालों से शासकवर्गों तथाप्रभुवर्गोंकी भाषा रही है । उसे एक दिन में उसके सिंहासन से नहीं हटाया जा सकता । हिन्दी का इस क्षेत्र में हस्तक्षेप सर्वथा नया है, इसलिए उसे एक लंबी और सुदीर्घ तैयारी के साथ विश्वभाषा के सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने की प्रतीक्षा करनी चाहीए, इसीलिए हिन्दी दिवस को विलाप, चिंताओं का दिन बनाने के बतजाए हमें संकल्प का दिन बनाना होगा। यही संकल्प सही अर्थों में हिंदी को उसकी जगह दिलाएगा ।