सोमवार, 12 सितंबर 2011

आइए हिंदी के लिए विलाप करें !


हिंदी दिवस (14 सितंबर) पर विशेषः

- संजय द्विवेदी

राष्ट्रभाषा के रूप में खुद को साबित करने के लिए आज वस्तुतः हिंदी को किसी सरकारी मुहर की जरूरत नहीं है। उसके सहज और स्वाभाविक प्रसार ने उसे देश की राष्ट्रभाषा बना दिया है। वह अब सिर्फ संपर्क भाषा नहीं है, इन सबसे बढ़कर वह आज बाजार की भाषा है, लेकिन हर 14 सितंबर को हिंदी दिवस के अवसर पर होने वाले आयोजनों की भाषा पर गौर करें तो यूँ लगेगा जैसे हिंदी रसातल को जा रही है। यह शोक और विलाप का वातावरण दरअसल उन लोगों ने पैदा किया है, जो हिंदी की खाते तो हैं, पर उसकी शक्ति को नहीं पहचानते। इसीलिए राष्ट्रभाषा के उत्थान और विकास के लिए संकल्प लेने का दिन सामूहिक विलापका पर्व बन गया है। कर्म और जीवन में मीलों की दूरी रखने वाला यह विलापवादी वर्ग हिंदी की दयनीयता के ढोल तो खूब पीटता है, लेकिन अल्प समय में हुई हिंदी की प्रगति के शिखर उसे नहीं दिखते।
नकारात्मक अभियानों नहीं मिलेगी ताकतः

अंग्रेजी के वर्चस्ववाद को लेकर हिंदी भक्तों की चिंताएं कभी-कभी अतिरंजित रूप लेती दिखती हैं। वे एक ऐसी भाषा से हिंदी की तुलना कर अपना दुख बढ़ा लेते हैं, जो वस्तुतः विश्व की संपर्क भाषा बन चुकी है और ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें लंबा और गंभीर कार्य हो चुकाहै। अंग्रेजी दरअसल एक प्रौढ़ हो चुकी भाषा है, जिसके पास आरंभ से ही राजसत्ताओं का संरक्षण ही नहीं रहा वरन ज्ञान-चिंतन, आविष्कारों तथा नई खोजों का मूल काम भी उसी भाषा में होता रहा। हिंदी एक किशोर भाषा है, जिसके पास उसका कोई ऐसा अतीत नहीं है, जो सत्ताओं के संरक्षण में फला-फूला हो । आज भी ज्ञान-अनुसंधान के काम प्रायः हिंदी में नहीं हो रहे हैं। उच्च शिक्षा का लगभग अध्ययन और अध्यापन अंग्रेजी में हो रहा है। दरअसल हिंदी की शक्ति यहां नहीं है, अंग्रेजी से उसकी तुलना इसलिए भी नहीं की जानी चाहिए क्योकि हिंदी एक ऐसे क्षेत्र में बोली जाने वाली भाषा है, जो विश्व मानचित्र पर अपने विस्तारवादी, उपनिवेशवादी चरित्र के लिए नहीं बल्कि सहिष्णुता के लिए जाना जाने वाला क्षेत्र है। फिर भी आज हिंदी, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी आवादी द्वारा बोली जाने वाली भाषा है, क्या आप इस तथ्य पर गर्व नहीं कर सकते ? दरअसल अंग्रेजी के खिलाफ वातावरण बनाकर हमने अपने बहुत बड़े हिंदी क्षेत्र को अज्ञानीबना दिया तो दक्षिण के कुछ क्षेत्र में हिन्दी विरोधी रूझानों को भी बल दिया । सच कहें तो नकारात्मक अभियान या भाषा को शक्ति नहीं दे सकते । एक भाषा के रूप में अंग्रेजी को सीखने तथा राष्ट्रभाषा के रूप में हिंदी को समादर देने, मातृभाषा के नाते मराठी, बंगला या पंजाबी का इस्तेमाल करने में कोई बुराई नहीं है। किंतु किसी भाषा को समाज में यदि प्रतिष्ठा पानी है तो वह नकारात्मक प्रयासों से नहीं पाई जा सकती ।

अंग्रेजी के खिलाफ चीखने से क्या होगाः

अंग्रेजी के विस्तारवाद को हमने साम्राज्यवादी ताकतों का षडयंत्र माना और प्रचारित किया। फलतः भावनात्मक रूप से सोचने-समझने वाला वर्ग अंग्रेजी से कटा और आज यह बात समूचे भारतीय उपमहाद्वीप के लिए गलत प्रमाण बन गई। यद्यपि अंग्रेजी मुठ्ठीभर सत्ताधीशों, नौकरशाहों और प्रभुवर्ग की भाषा है। वह उनकी शक्ति बन गई है। तो शक्ति को छीनने का एकमेव हथियार है उस भाषा पर अधिकार । यदि देश के तमाम गांवों, कस्बों, शहरों के लोग निज भाषा के आग्रहों आज मुठ्ठी भर लोगों के अकड़ और शासनकी भाषा न होती। इस सिलसिले में भावनात्मक नारेबाजियों से परे हटकर विश्व परिदृश्यमें हो रही घटनाओं-बदलावों का संदर्भ देखकर ही कार्यक्रम बनाने चाहिए । यह बुनियादी बात हिंदी क्षेत्र के लोग नहीं समझ सके। आज यह सवाल महत्वपूर्ण है कि अंग्रेजी सीखकर हम साम्राज्यवादी, उपनिवेशवादी कुछ क्रों से जुझ सकेंगे या उससे अनभिज्ञ रहकर। अपनी भाषा का अभिमान इसमें कहीं आड़े नहीं आता। भारतेंदु की यह बात- निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल आज के संदर्भ में भी अपनी प्रासंगिकता रखती है। आप इसी भाषा प्रेम के रुझानों को समझने के लिए दक्षिण भारत के राज्यों पर नजर डालें तो चित्र ज्यादा समझ में आएगा । मैं नहीं समझता कि किसी मलयाली भाषी, तमिल भाषी का अपनी मातृभाषा के प्रति प्रेम किसी बिहार, उ. प्र. या म. प्र. के हिंदी भाषी से कम है लेकिन दक्षिण के राज्यों ने अपनी भाषा के प्रति अनुराग को बनाए रखते हुए अंग्रेजी का भा ज्ञानार्जन किया, हिंदी भी सीखी। यदि वे निज भाषा का आग्रह लेकर बैठ जाते तो शायद वे आज सफलताओं के शिखर न छू रहे होते। आग्रहों से परे स्वस्थ चिंतन ही किसी समाज और उसकी भाषा को दुनिया में प्रतिष्ठा दिला सकता है। भाषा को अपनी शक्ति बनाने के बजाए उसे हमने अपनी कमजोरी बना डाला। बदलती दुनिया के मद्देनजर विश्व ग्रामकी परिकल्पना अब साकार हो उठी है। सो अंग्रेजी विश्व की संपर्क भाषा के रूप में और हिंदी भारत में संपर्क भाषा के स्थान पर प्रतिष्ठित हो चुकी है, यह चित्र बदला नहीं जा सकता ।

अपनी उपयोगिता से बढ़ेगी हिंदीः

हिंदी की ताकत दरअसल किसी भाषा से प्रतिद्वंद्विता से नहीं वरन उसकी उपयोगिता से ही तय होगी। आज हिंदी सिर्फ वोट माँगने की भाषाहै, फिल्मों की भाषा है। बहुत से ऐसे क्षेत्र हैं जहां में अभी आधारभूत कार्य होना शेष है। उसने खुद को एक लोकभाषा और जनभाषा के रूप में सिद्ध कर दिया है। किंतु ज्ञान-विज्ञान के विविध अनुशासनों पर उसमें काम होना बाकी है, इसके बावजूद हिंदी का अतीत खासा चमकदार रहा है।

नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन में स्वामी दयानंद से लेकर विवेकानंद तक लोगों को जगाने के अभियान की भाषा हिंदी ही बनी। गांधी ने भाषा की इस शक्ति को पहचाना और करोड़ों लोगों में राष्ट्रभक्ति का ज्वार पैदा किया तो उसका माध्यम हिंदी ही बनी थी। दयानंद ने सत्यार्थ प्रकाशजैसा क्रांतिकारी ग्रंथ हिंदी में रचकर हिंदी को एक प्रतिष्ठा दी। जानकारी के लिए ये दोनों महानायक हिंदी भाषा नहीं थे । तिलक, गोखले, पटेल सबके मुख से निकलने वाली हिंदी ही देश में उठे जनज्वार का कारण बनी । यह वही दौर है जब आजादी की अलख जगाने के लिए ढेरों अखबार निकले । उनमें ज्यादातर की भाषा हिंदी थी। यह हिंदी के खड़े होने और संभलने का दौर था । यह वही दौर जब भारतेन्दु हरिचन्द्र ने भारत दुर्दशालिखकर हिंदी मानस झकझोरा था। उधर पत्रकारिता के क्षेत्र में आजके संपादक बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माधवराव सप्रे, मदनमोहन मालवीय, गणेश शंकर विद्यार्थी, माखनलाल चतुर्वेदी एक इतिहास रच रहे थे। मिशनरी पत्रकारिता का यह समय ही हमारी हिंदी पत्रकारिता की प्रेरणा और प्रस्थान बिंदु है।

आंदोलन से बढ़ी है भाषा की शक्तिः

आजादी के बाद भी वह परंपरा रुकी या ठहरी नहीं है। हिंदी को विद्यालयों विश्वविद्यालयों, कार्यालयों। संसद तथा अकादमियों में प्रतिष्ठा मिली है। तमाम पुरस्कार योजनाएं, संबर्धन के, प्रेरणा के सरकारी प्रयास शुरू हुए हैं। लेकिन इन सबके चलते हिंदी को बहुत लाभ हुआ है, सोचना बेमानी है। हिंदी की प्रगति के कुछ वाहक और मानक तलाशे जाएं तो इसे सबसे बड़ा विस्तार जहां आजादी के आंदोलन ने, साहित्य ने, पत्रकारिता ने दिलाया, वहीं हिंदी सिनेमा ने इसकी पहुँच बहुत बढ़ा दी। सिनेमा के चलते यह दूर-दराज तक जा पहुंची। दिलीप कुमार, राजकुमार, राजकपूर, देवानंद के स्टारडमके बाद अभिताभ की दीवनगी इसका कारण बनी। हिंदी न जानने वाले लोग हिंदी सिनेमा के पर्दे से हिंदी के अभ्यासी बने। यह एक अलग प्रकार की हिंदी थी। फिर ट्रेनें, उन पर जाने वाली सवारियां, नौकरी की तलाश में हिंदी प्रदेशों क्षेत्रों में जाते लोग, गए तो अपनी भाषा, संस्कृति,परिवेश सब ले गए । तो कलकत्ता में कलकतिया हिंदीविकसित हुई, मुंबई में बम्बईयी हिंदीविकसित हुई। हिंदी ने अन्य क्षेत्रीय भाषाओं से तादात्म्य बैठाया, क्योंकि हिंदी के वाहक प्रायः वे लोग थे जो गरीब थे, वे अंग्रेजी बोल नहीं सकते थे। मालिक दूसरी भाषा का था, उन्हें इनसे काम लेना था। इसमें हिंदी के नए-नए रूप बने। हिंदी के लोकव्यापीकरण की यह यात्रा वैश्विक परिप्रक्ष्य में भी घट रही थी। पूर्वीं उ. प्र. के आजमगढ़, गोरखपुर से लेकर वाराणसी आदि तमाम जिलों से गिरमिटिया मजदूरोंके रूप में विदेश के मारीशस, त्रिनिदाद, वियतनाम, गुयाना, फिजी आदि द्वीपों में गई आबादी आज भी अपनी जड़ों से जुड़ी है और हिंदी बोलती है। सर शिवसागर रामगुलाम से लेकर नवीन रामगुलाम, वासुदेव पांडेय आदि तमाम लोग अपने देशों के राष्ट्राध्यक्ष भी बने। बाद में शिवसागर रामगुलाम गोरखपुर भी आए। यह हिंदी यानी भाषा की ही ताकत थी जो एक देश में हिंदी बोलने वाले हमारे भारतीय बंधु हैं। इन अर्थों में हिंदी आज तक विश्वभाषाबन चुकी है। दुनिया के तमाम देशों में हिंदी के अध्ययन-आध्यापन का काम हो रहा है।
बन गयी है समर्थ भाषाः

देश में साहित्य-सृजन की दृष्टि से, प्रकाश-उद्योग की दृष्टि से हिन्दी एक समर्थ भाषा बनी है । भाषा और ज्ञान के तमाम अनुशासनों पर हिन्दी में काम शुरु हुआ है । रक्षा, अनुवांशिकी, चिकित्सा, जीवविज्ञान, भौतिकी क्षेत्रों पर हिन्दी में भारी संख्या में किताबें आ रही हैं । उनकी गुणवक्ता पर विचार हो सकता है किंतु हर प्रकार के ज्ञान और सूचना को अभिव्यक्ति देने में अपनी सामर्थ्य का अहसास हिन्दी करा चुकी है । इलेक्ट्रानिक मीडिया के बड़े-बड़े अंग्रेजी दां चैनलभी हिन्दी में कार्यक्रम बनाने पर मजबूर हैं । ताजा उपभोक्तावाद की हवा के बावजूद हिन्दी की ताकत ज्यादा बढ़ी है । हिन्दी में विज्ञापन, विपणन उपभोक्ता वर्ग से हिन्दी की यह स्थिति विलापकी नहींतैयारीकी प्रेरणा बननी चाहिए । हिन्दी को 21वीं सदी की भाषा बनना है । आने वाले समय की चुनौतियों के मद्देनजर उसे ज्ञान, सूचनाओं और अनुसंधान की भाषा के रुप में स्वयं को साबित करना है । हिन्दी सत्ता-प्रतिष्ठानों के सहारे कभी नहीं फैली, उसकी विस्तार शक्ति स्वयं इस भाषा में ही निहित है । अंग्रेजी से उसकी तुलना करके कुढ़ना और दुखी होना बेमानी है । अंग्रेजी सालों से शासकवर्गों तथाप्रभुवर्गोंकी भाषा रही है । उसे एक दिन में उसके सिंहासन से नहीं हटाया जा सकता । हिन्दी का इस क्षेत्र में हस्तक्षेप सर्वथा नया है, इसलिए उसे एक लंबी और सुदीर्घ तैयारी के साथ विश्वभाषा के सिंहासन पर प्रतिष्ठित होने की प्रतीक्षा करनी चाहीए, इसीलिए हिन्दी दिवस को विलाप, चिंताओं का दिन बनाने के बतजाए हमें संकल्प का दिन बनाना होगा। यही संकल्प सही अर्थों में हिंदी को उसकी जगह दिलाएगा ।

मंगलवार, 6 सितंबर 2011

सोशल नेटवर्किंगः नए समय का संवाद


-संजय द्विवेदी

तेजी से बदलती दुनिया, तेज होते शहरीकरण और जड़ों से उखडते लोगों व टूटते सामाजिक ताने बाने ने इंटरनेट को तेजी से लोकप्रिय किया है। कभी किताबें,अखबार और पत्रिकाएं दोस्त थीं आज का दोस्त इंटरनेट है क्योंकि यह दुतरफा संवाद का भी माध्यम है। सो पढ़े या लिखे हुए की तत्काल प्रतिक्रिया ने इसे लोकप्रिय बनाया है। आज का पाठक सब कुछ तुरंत चाहता है-इंस्टेंट। टीवी और इंटरनेट उसकी इस भूख को पूरा करते हैं। यह गजब है कि आरकुट, फेसबुक, ट्यूटर जैसी सोशल साइट्स का प्रभाव हमारे समाज में भी महसूस किया जाने लगा है। यह इंटरनेट पर गुजारा गया वक्त अपने पढ़ने के वक्त से लिया गया है। जाहिर तौर पर यह सामाजिकता के खिलाफ है और निजता को स्थापित करने वाला है।

निजता का माध्यमः सूचना और संचार के अभी तक प्रकट सभी माध्यम कहीं न कहीं सामूहिकता को साधते हैं। किंतु इंटरनेट व्यक्ति की निजता को स्थापित करता है। इसका समाज पर गहरा असर देखा जा रहा है। सूचनाएं अब मुक्त हैं। वे उड़ रही हैं इंटरनेट के पंखों। कई बार वे असंपादित भी हैं, पाठकों को आजादी है कि वे सूचनाएं लेकर उसका संपादित पाठ स्वयं पढ़ें। सूचना की यह ताकत अब महसूस होने लगी है। यह बात हमने आज स्वीकारी है, पर कनाडा के मीडिया विशेषज्ञ मार्शल मैकुलहान को इसका अहसास साठ के दशक में ही हो गया था। तभी शायद उन्होंने कहा था कि मीडियम इज द मैसेजयानी माध्यम ही संदेश है।मार्शल का यह कथन सूचना तंत्र की महत्ता का बयान करता है। आज का दौर इस तंत्र के निरंतर बलशाली होते जाने का समय है। संचार क्रांति ने इसे संभव बनाया है। नई सदी की चुनौतियां इस परिप्रेक्ष्य में बेहद विलक्षण हैं। इस सदी में यह सूचना तंत्र या सूचना प्रौद्योगिकी ही हर युद्ध की नियामक है, जाहिर है नई सदी में लड़ाई हथियारों से नहीं सूचना की ताकत से होगी। मंदीग्रस्त अर्थव्यवस्था से ग्रस्त पश्चिमी देशों को बाजार की तलाश तथा तीसरी दुनिया को देशों में खड़ा हो रहा, क्रयशक्ति से लबरेज उपभोक्ता वर्ग वह कारण हैं जो इस दृश्य को बहुत साफ-साफ समझने में मदद करते हैं । पश्चिमी देशों की यही व्यावसायिक मजबूरी संचार क्रांति का उत्प्रेरक तत्व बनी है। हम देखें तो अमरीका ने लैटिन देशों को आर्थिक, सांस्कृतिक रूप से कब्जा कर उन्हें अपने ऊपर निर्भर बना लिया। अब पूरी दुनिया पर इसी प्रयोग को दोहराने का प्रयास जारी है। निर्भरता के इस तंत्र में अंतर्राट्रीय संवाद एजेंसियां, विज्ञापन एजेसियां, जनमत संस्थाएं, व्यावसायिक संस्थाए मुद्रित एवं दृश्य-श्रवण सामग्री, अंतर्राष्ट्रीय दूरसंचार कंपनियां, अंतर्राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियां सहायक बनी रही हैं। लेकिन ध्यान दें कि सूचनाएं अब पश्चिम के ताकतवर देशों की बंधक नहीं रह सकती। उन्होंने अपना निजी गणतंत्र रच लिया है। विजय कुमार लिखते हैं- हम एक ऐसे समय में रह जी रहे हैं जब एक ओर आदमी के भीतर का अकेलापन लगातार बढ़ रहा है तब दूसरी ओर उसके भीतर नए-नए संबंधों को खोजने और पाने की ललक भी है। एक अधिक व्यापक सूचना से भरी हुयी अधिक उष्मा और अधिक मानवीय संबंधों वाली दुनिया की तलाश मनुष्य के भीतर सदा रही से रही है।1

एक वर्चुअल दुनिया इसी संचार क्रांति का एक प्रभावी हिस्सा है- सोशल नेटवर्किंग साइट्स, जिन्होंने सही मायने में निजता के एकांत को एक सामूहिक संवाद में बदल दिया है। अब यह निजता, निजता न होकर एक सामूहिक संवाद है, वार्तालाप है, जहां सपने बिक रहे हैं, आंसू पोछे जा रहे हैं, प्यार पल रहा है, साथ ही झूठ व तिलिस्म का भी बोलबाला है। यह वर्चुअल दुनिया है जो हमने रची है, अपने हाथों से। इस अपने रचे स्वर्ग में हम विहार कर रहे है और देख रहे हैं फेसबुक,ट्विटर और आरकुट की नजर से एक नई दुनिया। इन तमाम सोशल साइट्स ने हमें नई आँखें दी हैं, नए दोस्त और नई समझ भी। यहां सवाल हैं, उन सवालों के हल हैं और कोलाहल भी है। युवा ही नहीं अब तो हर आयु के लोग यहां विचरते हैं कि ज्ञान और सूचना ना ही सही, रिश्तों के कुछ मोती चुनने के लिए। यह एक एक नया समाज है, यह नया संचार है, नया संवाद है, जिसे आप सूचना या ज्ञान की दुनिया भी नहीं कह सकते। यह एक वर्चुअल परिवार सरीखा है। जहां आपके सपने, आकांक्षाएं और स्फुट विचारों, सबका स्वागत है। दोस्त हैं जो वाह-वाह करने, आहें भरने और काट खाने के लिए तैयार बैठे हैं। यह सारा कुछ भी है तुरंत, इंस्टेंट। तुरंतवाद ने इस उत्साह को जोश में बदल दिया है। यानि आपकी लिखी एक पंक्ति पर तत्काल हल्लाबोल हो सकता है। शशि थरूर को याद कीजिए। केंद्रीय मंत्री का पद अपने इसी ट्विटर प्रेम के नाते छोड़ना पड़ा। एक वाक्य का विचार यहां क्रांति बन रहा है। विचार की ताकत तो देखिए। यह ट्वीट करना अब एक फैशन है। विचार किस तरह एक कीमती समाज बना रहा है, इसे देखिए। वहां लिखे एक वाक्य की कीमत तमाम पोथियों से बड़ी है। ट्विटर कम्युनिटी में होना एक बड़ी बात है। आप ट्विटर पर नहीं, फेसबुक पर नहीं, आरकुट पर भी नहीं- क्या आदमी हो यार। ये सोशल साइट्स हमें नई सामाजिकता का बोध दे रही हैं। ये बता रही हैं इनके बिना आप कुछ भी नहीं। यह सारा कुछ इतना लुभावना है कि काम के घंटों से वक्त चुराकर भी, आप वहां जाते हैं। ताजा खबर है कि हमारे केंद्रीय मंत्रियों की घोषणाएं भी अब ट्विटर पर होंगी। जेपीसी पर मचे धमाल पर डा. मुरली मनोहर जोशी की भूमिका पर सफाई भाजपा की ओर से नेता प्रतिपक्ष सुषमा स्वराज ने ट्विटर पर ही दी। सारे सितारों, खिलाड़ियों और सेलिब्रटीज की ट्वीट के लिए अब अखबारों में कालम शुरू हो चुके हैं। जाहिर तौर पर यह सोशल साइट्स को यह मीडिया और अधिकारिक क्षेत्रों की स्वीकृति सरीखा ही है। उसे मिलती मान्यता का प्रतीक है।

शादियों में बदलते रिश्तेः फेसबुक अब रिश्ते ही नहीं बना रहा है, वे रिश्ते शादियों में तब्दील हो रहे हैं। व्यक्ति की निजता के साथ ये साइट्स नए रिश्ते बना रही हैं। फेसबुक एक नया राज्य है जिसका नागरिक होना एक गर्व का विषय है। उसने सबको आवाज दी है। वाणी दी है। तमाम भाषाओं के हजारों-हजार शब्द लगातार वहां अपनी जगह बना रहे हैं। चित्रों, चलचित्रों को उसने जगह दी है। देश में दस करोड़ से ज्यादा कम्प्यूटर वाले हैं, इंटरनेट वाले हैं। अगर नहीं हैं तो बाकी तमाम मोबाइल वाले हैं। अब मोबाइल से भी यह खेल आसान हो चला है। मोबाइल के यंत्र खुद को अपडेट कर रहे हैं। वे भी फेसबुक के साथ होना चाहते हैं। यानी वह वर्चुअल दुनिया जो आपने रची है वह आपके साथ-साथ है। शायद अपने परिवेश के प्रति आपमें वह आग और जागरूकता न हो, किंतु आप साइबर के खिलाड़ी हैं, एक वर्चुअल दुनिया के सक्रिय नागरिक हैं। वरिष्ठ पत्रकार मधुसूदन आनंद इस राय से इत्तेफाक नहीं रखते। वे मानते हैं कि जो लोग सैंकड़ों हजारों दोस्त होने का दावा करते हैं, वे सच्ची दोस्ती और जतन-संपर्क के बीच या तो भेद नहीं करना चाहते या जानबूझकर उसे नजरंदाज करते हैं। ये कामकाजी दोस्तियां होती हैं जिनका प्रदर्शन अपने विशाल प्रभामंडल के लिए किया जाता है। ये दोस्तियां आदमी की ताकत बताती हैं कि इस आदमी की पहुंच कहां-कहां है। इस तरह की दोस्तियां विरोधियों को डराने के काम भी आती हैं और समर्थकों का काम कराने में भी। इन दोस्तियों से आदमी का अहम तुष्ट होता है और उसमें सुरक्षा भाव बढ़ता है।2

हालांकि दुनिया के तमाम देशों में चल रहे जनांदोलनों में फेसबुक और सोशल नेटवर्किंग साइट्स का खासा असर देखा जा रहा है। भारत में भी अन्ना हजारे के आंदोलन में फेसबुक और टिवटर का खासा इस्तेमाल देखा गया। इसके चलते इस आंदोलन पर ये आरोप भी लगे कि यह देश के खाए-अधाए मध्यवर्ग का आंदोलन है। किंतु सही यह है कि यह आज नई पीढ़ी के बीच संवाद का माध्यम बन गया है। सोशल मीडिया पर राजनेता भी अपनी टिप्पणियां करते हैं और उसके महत्व को रेखांकित करते हुए पीयूष पांडेय लिखते हैं-अमेरिकी सोशल मीडिया की दुनिया में ताजा बहस यह है कि सोशल मीडिया पर लिखे जा रहे शब्दों को किस तरह लिया जाए? यह बहस अब आवश्यकता है। उमर के ट्वीट के संदर्भ में एक बात गौर करने लायक है कि यदि उन्होंने अपना बयान किसी अखबार या टेलीविजन चैनल को दिया होता तो शायद वे तोड़-मरोड़कर छापने या प्रसारित करने की बात भी कह सकते थे, लेकिन ट्विटर पर आपका खाता सिर्फ और सिर्फ आपका है। इसे संचालित करने की जिम्मेदारी आपकी है। अगर आपका ट्विटर या फेसबुक खाता हैक न हुआ हो तो आप इस पर लिखे शब्द से मुकर नहीं सकते।3

बहुत कुछ घट रहा है इस दुनिया में- अब विचार के अलावा भी बहुत कुछ इस दुनिया में घट रहा है। वह मनोरोगियों और मनोविकारियों के हाथ में भी ताकत दे रहा है तो तमाम को विकारी भी बना रहा है। इसके सामाजिक प्रभावों का अध्ययन होना प्रारंभ हुआ है। तमाम प्रकार के दिखते हुए लाभों के अलावा सामाजिक संकट भी खड़े होने लगे हैं। उसने तमाम युवक-युवतियों को वह वर्चुअल दुनिया दी है जो उन्हें अपने परिवेश से काटकर एक ऐसी जमीन पर ले जा रही है जहां अवसाद और मनोरोग साथ-साथ जकड़ते हैं। नकली प्रोफाइल बनाकर किए जाने वाले छल और भावनाओं के व्यापार यहां भी हैं। छली जा रही तमाम कहानियां सुनाई देने लगी हैं। यह सुनना दुखद है किंतु सारा कुछ घट रहा है।

जनांदोलनों में खास भूमिकाः नया मीडिया किस तरह से उपयोगी बना है और सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने अपनी उपयोगिता साबित की है वह एक अध्ययन का विषय है। खासकर जनांदोलनों में उसने एक कारगर भूमिका का निर्वहन किया है। अनेक खतरों के साथ उसके सामाजिक लाभों का मूल्यांकन होना अभी शेष है। कथादेश के मीडिया वार्षिकी में इसी ताकत को स्वीकार करते हुए इस अंक के संपादकीय में संपादक द्वय दिलीप मंडल और अविनाश लिखते हैं-“ 21वीं सदी के मौजूदा दौर में परंपरागत मीडिया जब उम्मीद की कोई रोशनी नहीं दिखा रहा है, तब वैकल्पिक मीडिया के कुछ नए रूप सामने आए हैं। इनमें इंटरनेट पर खासतौर नजर रखने की जरूरत है। मिश्र और दूसरे अरब देशों में विद्गोह के कई कारण हैं, लेकिन इंटरनेट ने विद्रोहियों को संगठित होने में मदद की। दुनिया ने देखा कि फेसबुक जैसे सोशल नेटवर्किंग साइट ने खासकर मिस्र में किस तरह संगठनकर्ता की भूमिका निभाई।4

पीछे हुआ पारंपरिक मीडियाः किंतु पारंपरिक मीडिया अब चाहकर भी इसका मुकाबला नहीं कर सकता क्यों कि इसकी तेजी सब पर भारी है। सबसे बड़ी बात है इसकी गति और त्वरा। सिरिल गुप्ता की मानें तो- पारंपरिक मीडिया कितना भी तेज से अधिक तेज होने का दावा करता हो और चाहे खबर किसी भी कीमत पर लाता हो, नए मीडिया के सामने पानी मांगता है। लीबिया में पारंपरिक मीडिया पैठ न बना सका, लेकिन नए मीडिया साधनों जैसै ब्लाग,. ट्विटर, फेसबुक , यू-ट्यूब के जरिए पल-पल की खबर दुनिया देखती रही। नौबत यह आ गयी कि गद्दाफी सरकार ने पूरे देश में इंटरनेट की सुविधा बंद कर दी। फिर भी सैटलाइट कनेक्शन के जरिए लोगों को खबर मिलती रही। 5

पर सेहत तो बचा लीजिएः इसके सामाजिक प्रभावों के साथ-साथ स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं भी अब असर दिखाने लगीं हैं। तमाम प्रकार की बीमारियों के साथ अब कंप्यूटर सिड्रोम का खतरा आसन्न है। जिसने नई पीढ़ी ही नहीं, हर कंप्यूटर प्रेमी को जकड़ लिया है। अब यहां सिर्फ काम की बातें नहीं, बहुत से ऐसे काम हैं जो नहीं होने चाहिए, हो रहे हैं। एकांत अब आवश्यक्ता में बदल रहा है। समय मित्रों, परिजनों के साथ नहीं अब यहां बीत रहा है। ऐसे में परिवारों में भी संकट खड़े हो रहे हैं। यह खतरा टेलीविजन से बड़ा दिख रहा है, क्योंकि लाख के बावजूद टीवी ने परिवार की सामूहिकता पर हमला नहीं किया था। साइबर की दुनिया अकेले का संवाद रचती है, यह सामूहिक नहीं है इसलिए यह स्वप्नलोक सरीखी भी है। यहां सामने वाले की पहचान क्या है यह भी नहीं पता, उस नाम का कोई है या नहीं यह भी नहीं पता, किंतु कहानियां चल रही हैं, संवाद हो रहा है, प्यार घट रहा है, क्षोभ बढ़ रहा है। एक वाक्य के विचार किस तरह कमेंट्स में और पल की दोस्ती किस तरह प्यार में बदलती है- इसे घटित होता हम यहां देख सकते हैं। यानी खतरे आसमानी भी हैं और रूहानी भी।

संदर्भः

  1. कुमार विजयः कहां पहुंचा रहे हैं अतंरंगता के नए पुल, नवनीत हिंदी डायजेस्ट (मुंबई), फरवरी, 2011 पेज-18
  2. आनंद मधुसूदनः कितनी लंबी हो सकती है एक क्लिक की दूरी, नवनीत हिंदी डायजेस्ट (मुंबई) फरवरी, 2011, पेज-22
  3. पांडेय पीयूषः ट्विटर पर उमर वाणी, दैनिक जागरण,राष्ट्रीय संस्करण, नई दिल्ली, 4 सितंबर, 2011
  4. मंडल दिलीप एवं अविनाश, संपादकीय, कथादेश,दिल्ली, अप्रैल-2011
  5. गुप्त सिरिलःपुराने मीडिया की विदाई के दिन, कथादेश, दिल्ली, अप्रैल-2011

रविवार, 4 सितंबर 2011

गुरू-शिष्य संबंधः नए रास्तों की तलाश


शिक्षक दिवस ( 5 सितंबर) पर विशेषः

अध्यापकों का विवेक और रचनाशीलता भी है कसौटी पर

-संजय द्विवेदी

शिक्षक मनुष्य का निर्माता है। एक शिक्षक की भूमिका बच्चों को साक्षर करने से ही खत्म नहीं हो जाती बल्कि वह अपने छात्रों में आत्मबल, आदर्श, नैतिक बल, सच्चाई, ईमानदारी, लगन और मेहनत की वह मशाल भी जलाता है जो उसे पूर्ण मनुष्य बनाते हैं। - सर जान एडम्स

जब हर रिश्ते को बाजार की नजर लग गयी है, तब गुरू-शिष्य के रिश्तों पर इसका असर न हो ऐसा कैसे हो सकता है ? नए जमाने के, नए मूल्यों ने हर रिश्ते पर बनावट, नकलीपन और स्वार्थों की एक ऐसी चादर डाल दी है, जिसमें असली सूरत नजर ही नहीं आती। अब शिक्षा बाजार का हिस्सा है, जबकि भारतीय परंपरा में वह गुरू के अधीन थी, समाज के अधीन थी।

बाजार में उतरे शातिर खिलाड़ीः

पूंजी के शातिर खिलाड़ियों ने जब से शिक्षा के बाजार में अपनी बोलियां लगानी शुरू की हैं तबसे हालात बदलने शुरू हो गए थे। शिक्षा के हर स्तर के बाजार भारत में सजने लगे थे। इसमें कम से कम चार तरह का भारत तैयार हो रहा था। आम छात्र के लिए बेहद साधारण सरकारी स्कूल थे जिनमें पढ़कर वह चौथे दर्जे के काम की योग्यताएं गढ़ सकता था। फिर उससे ऊपर के कुछ निजी स्कूल थे जिनमें वह बाबू बनने की क्षमताएं पा सकता था। फिर अंग्रेजी माध्यमों के मिशनों, शिशु मंदिरों और मझोले व्यापारियों की शिक्षा थी जो आपको उच्च मध्य वर्ग के करीब ले जा सकती थी। और सबसे ऊपर एक ऐसी शिक्षा थी जिनमें पढ़ने वालों को शासक वर्ग में होने का गुमान, पढ़ते समय ही हो जाता है। इस कुलीन तंत्र की तूती ही आज समाज के सभी क्षेत्रों में बोल रही है। इस पूरे चक्र में कुछ गुदड़ी के लाल भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं, इसमें दो राय नहीं किंतु हमारी व्यवस्था ने वर्ण व्यवस्था के हिसाब से ही शिक्षा को भी चार खानों में बांट दिया है और चार तरह के भारत बनाने की कोशिशें शुरू कर दी हैं। जाहिर तौर पर यह हमारी एकता- अखंडता और सामाजिक समरसता के लिए बहुत घातक है।

उच्चशिक्षा के क्षेत्र में बदहालीः

हालात यह हैं कि कुल 54 करोड़ का हमारा युवा वर्ग उच्च शिक्षा के लिए तड़प रहा है। उसकी जरूरतों को हम पूरा नहीं कर पा रहे हैं। सरकारी क्षेत्रों की उदासीनता के चलते आज हमारे सरकारी विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय लगभग स्लम में बदल रहे हैं। एक लोककल्याणकारी सरकार जब सारा कुछ बाजार को सौंपने को आतुर हो तो किया भी क्या जा सकता है। प्राथमिक शिक्षा से लेकर उच्चशिक्षा का बाजार अब उन व्यापारियों के हवाले है, जिनको इससे मोटी कमाई की आस है। जाहिर तौर पर शिक्षा अब सबके लिए सुलभ नहीं रह जाएगी। कम वेतन और सुविधाओं में काम करने वाले शिक्षक आज भी गांवों और सूदूर क्षेत्रों में शिक्षा की अलख जगाए हुए हैं। किंतु यह संख्या निरंतर कम हो रही है। सरकारी प्रोत्साहन के अभाव और भ्रष्टाचार ने हालात बदतर कर दिए हैं। इससे लगता है कि शिक्षा अब हमारी सरकारों की प्राथमिकता का हिस्सा नहीं रही।

बढ़ गयी है जिम्मेदारीः

ऐसे कठिन समय में शिक्षक समुदाय की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। क्योंकि वह ही अपने विद्यार्थियों में मूल्य व संस्कृति प्रवाहित करता है। आज नई पीढ़ी में जो भ्रमित जानकारी या कच्चापन दिखता है, उसका कारण शिक्षक ही हैं। क्योंकि अपने सीमित ज्ञान, कमजोर समझ और पक्षपातपूर्ण विचारों के कारण वे बच्चों में सही समझ विकसित नहीं कर पाते। इसके कारण गुरू के प्रति सम्मान भी घट रहा है। रिश्तों में भी बाजार की छाया इतनी गहरी है कि वह अब डराने लगी हैं। आज आम आदमी जिस तरह शिक्षा के प्रति जागरूक हो रहा है और अपने बच्चों को शिक्षा दिलाने के आगे आ रहा है, वे आकांक्षांए विराट हैं। उनको नजरंदाज करके हम देश का भविष्य नहीं गढ़ सकते। सबसे बड़ा संकट आज यह है कि गुरू-शिष्य के संबंध आज बाजार के मानकों पर तौले जा रहे हैं। युवाओं का भविष्य जिन हाथों में है, उनका बाजार तंत्र किस तरह शोषण कर रहा है इसे समझना जरूरी है। सरकारें उन्हें प्राथमिक शिक्षा में नए-नए नामों से किस तरह कम वेतन पर रखकर उनका शोषण कर रही हैं, यह एक गंभीर चिंता का विषय है। इसके चलते योग्य लोग शिक्षा क्षेत्र से पलायन कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि जीवन को ठीक से जीने के लिए यह व्यवसाय उचित नहीं है।

नई पीढ़ी की व्यापक आकांक्षांएः

शहरों में पढ़ रही नई पीढ़ी की समझ और सूचना का संसार बहुत व्यापक है। उसके पास ज्ञान और सूचना के अनेक साधन हैं जिसने परंपरागत शिक्षकों और उनके शिक्षण के सामने चुनौती खड़ी कर दी है। नई पीढ़ी बहुत जल्दी और ज्यादा पाने की होड़ में है। उसके सामने एक अध्यापक की भूमिका बहुत सीमित हो गयी है। नए जमाने ने श्रद्धाभाव भी कम किया है। उसके अनेक नकारात्मक प्रसंग हमें दिखाई और सुनाई देते हैं। गुरू-शिष्य रिश्तों में मर्यादाएं टूट रही हैं, वर्जनाएं टूट रही हैं, अनुशासन भी भंग होता दिखता है। नए जमाने के शिक्षक भी विद्यार्थियों में अपनी लोकप्रियता के लिए कुछ ऐसे काम कर बैठते हैं जो उन्हें लांछित ही करते हैं। सीखने की प्रक्रिया का मर्यादित होना भी जरूरी है। परिसरों में संवाद, बहसें और विषयों पर विमर्श की धारा लगभग सूख रही है। परीक्षा को पास करना और एक नौकरी पाना इस दौर की सबसे बड़ी प्राथमिकता बन गयी है। ऐसे में शिक्षकों के सामने सबसे बड़ी चुनौती इस पीढ़ी की आकांक्षाओं की पूर्ति करने की है। साथ ही उनमें विषयों की गंभीर समझ पैदा करना भी जरूरी है। शिक्षा के साथ कौशल और मूल्यबोध का समावेश न हो तो वह व्यर्थ हो जाती है। इसलिए स्किल के साथ मूल्यों की शिक्षा बहुत जरूरी है। कारपोरेट के लिए पुरजे और रोबोट तैयार करने के बजाए अगर हम उन्हें मनुष्यता,ईमानदारी और प्रामणिकता की शिक्षा दे पाएं और स्वयं भी खुद को एक रोलमाडल के प्रस्तुत कर पाएं तो यह बड़ी बात होगी। शिक्षक अपने विद्यार्थियों के लिए एक दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक के रूप में सामने आते है। वह उसका रोल माडल भी हो सकते हैं।

सही तस्वीर गढ़ने की जरूरतः

गुरू-शिष्य परंपरा को समारोहों में याद की जाने वाली वस्तु के बजाए अगर हम उसकी सही तस्वीरें गढ़ सकें तो यह बड़ी बात होगी। किंतु देखा यह जा रहा है गुरू तो गुरूघंटाल बन रहे हैं और छात्र तोममोल करने वाले माहिर चालबाज। काम निकालने के लिए रिश्तों का इस्तेमाल करने से लेकर रिश्तों को कलंकित करने की कथाएं भी हमारे सामने हैं, जो शर्मसार भी करती हैं और चेतावनी भी देती है। नए समय में गुरू का मान- स्थान बचाए और बनाए रखा जा सकता है, बशर्ते हम विद्यार्थियों के प्रति एक ईमानदार सोच रखें, मानवीय व संवेदनशील व्यवहार रखें, उन्हें पढ़ने के बजाए समझने की दिशा में प्रेरित करें, उनके मानवीय गुणों को ज्यादा प्रोत्साहित करें। भारत निश्चय ही एक नई करवट ले रहा है, जहां हमारे नौजवान बहुत आशावादी होकर अपने शिक्षकों की तरफ निहार रहे हैं, उन्हें सही दिशा मिले तो आसमान में रंग भर सकते हैं। हमारे युवा भारत में इस समय दरअसल शिक्षकों का विवेक, रचनाशीलता और कल्पनाशीलता भी कसौटी पर है। क्योंकि देश को बनाने की इस परीक्षा में हमारे छात्र अगर फेल हो रहे हैं तो शिक्षक पास कैसे हो सकते हैं ?

गुरुवार, 1 सितंबर 2011

बाजार के खिलाफ प्रतिरोध की शक्ति बने मीडिया


लोक को संरक्षित करने से ही बचेगा भारत

-संजय द्विवेदी

भारत एक ऐसा राष्ट्र है जो मृत्युंजय है। विश्व के अनेक विद्वानों, रहस्यदर्शियों, वैज्ञानिकों और प्रतिभावान शोधार्थियों ने भारत की अमरता को सिद्ध किया है। किसी ने इसे ज्ञान की भूमि कहा तो किसी ने मोक्ष की, किसी ने इसे सभ्यताओं का मूल कहा तो किसी ने इसे भाषाओं की जननी कहा। किसी ने यहां आत्मिक पिपासा बुझाई तो कोई यहां के वैभव से चमत्कृत हुआ। कोई इसे मानवता का पालना मानता है तो किसी ने इसे संस्कृतियों का संगीत कहा। ऐसी महान संस्कृति का आंगन भारत है, जिसकी हर सांस में ही पूरी वसुधा को एक कुटुम्ब मानने की आकांक्षा है। अपनी इसी आकांक्षा के नाते यह देश कह पाया कि- कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। दरअसल इसीलिए भारत मृत्युंजय है। वह वसुधा पर ऐसी संस्कृति का संवाहक है जो प्रेम, करूणा, संवेदना के भावों से भरी है और समूची मानवता के कल्याण के बात करती है।

ऐसी महान संस्कृति हमारे लिए प्रेरणा का कारण बनना चाहिए। किंतु गुलामी के लंबे कालखंड और विदेशी विचारों ने हमारे अपने गौरव ग्रंथों, मानबिंदुओं पर गर्द की चादर डाल दी। इस पूरे दृश्य को इतना धुंधला दिया गया कि हमें अपने गौरव का, अपने मान का, अपने ज्ञान का आदर ही न रहा। यह हर क्षेत्र में हुआ। हर क्षेत्र को विदेशी नजरों से देखा जाने लगा। हमारे अपने पैमाने और मानक भोथरे बना दिए गए। स्वामी विवेकानंद को याद करें वे उसी स्वाभिमान को जगाने की बात करते हैं। महात्मा गांधी से लेकर जयप्रकाश नारायण ने हमें उसी स्वत्व की याद दिलायी। सोते हुए भारत को जगाने और झकझोरने का काम किया।

ऐसे समय में जब एक बार फिर हमें अपने स्वत्व के पुर्नस्मरण की जरूरत है तो पत्रकारिता इसमें एक बड़ा साधन बन सकती है। हम देश में अपने नायकों की तलाश कर रहे हैं। वे हमारी जमीन के नायक हैं,इस देश के इतिहास के नायक हैं। पत्रकारिता की अपनी एक संस्कृति है। खासकर भारत के संदर्भ में पत्रकारिता लोकजागरण का ही अनुष्ठान है। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में ही देश में तेजी से पत्रकारिता का विकास हुआ और इसके चलते देशभक्ति, जनजागरण और समाज सुधार के भाव इसकी जड़ों में हैं। आजादी के बाद इसमें कुछ बदलाव आए और आज बाजारवादी शक्तियों का प्रभाव इस माध्यम पर काफी देखा जा रहा है। फिर भी सबसे प्रभावशाली संचार माध्यम होने के नाते मीडिया को इस तरह छोड़ देना संभव नहीं है। हमें उसकी भूमिका पर विचार करना ही होगा। हमें तय करना होगा किस तरह मीडिया लोकसंस्कारों को पुष्ट करते हुए अपनी जड़ों से जुड़ा रह सके। साहित्य हो या मीडिया दोनों का काम है, लोकमंगल के लिए काम करना। राजनीति का भी यही काम है। लोकमंगल हम सबका ध्येय है। लोकतंत्र का भी यही उद्देश्य है। संकट तब खड़ा होता है जब लोक हमारी नजरों से ओझल हो जाता है। लोक हमारे संस्कारों का प्रवक्ता है वह हमें बताता है कि क्या करने योग्य है और क्या करने योग्य नहीं है। इसलिए लोकमानस की मान्यताएं ही हमें संस्कारों से जोड़ती हैं और इसी से हमारी संस्कृति पुष्ट होती है।

मीडिया दरअसल एक ऐसी ताकत के रूप में उभरा है जो प्रभु वर्गों की वाणी बन रहा है, जबकि मीडिया की पारंपरिक संस्कृति और इतिहास इसे आम आदमी की वाणी बनने की सीख देते हैं। जाहिर तौर पर समय के प्रवाह में समाज जीवन के हर क्षेत्र में कुछ गिरावट दिख रही है। किंतु मीडिया के प्रभाव के मद्देनजर इसकी भूमिका बड़ी है। उसे लोक का प्रवक्ता होना चाहिए पर वह कारपोरेट और प्रभु वर्गों का प्रवक्ता बन जाता है। ऐसे में यह बहुत जरूरी है कि हम इसकी सकारात्मक भूमिका पर विचार करें।

भारतीय संस्कृति में सामाजिक संवाद की अनेक धाराएं है। संवाद की परंपराएं हैं। शास्त्रार्थ हमारे लोकजीवन का हिस्सा है। समाज में विविध समाजों और रिश्तों के बीच संवाद की परंपराएं हैं। हमें उनपर ध्यान देने की जरूरत है। सुसंवाद से ही सुंदर समाज की रचना संभव है। मीडिया इसी संवाद का केंद्र है। वह हमें भाषा भी सिखाता है और जीवन शैली को भी प्रभावित करता है। आज खासकर दृश्य मीडिया पर जैसी भाषा बोली और कही जा रही है उससे सुसंवाद कायम नहीं होता, बल्कि समाज में तनाव बढ़ता है। इसका भारतीयकरण करने की जरूरत है। हमारे जनमाध्यम ही इस जिम्मेदारी को निभा सकते हैं। वे समाज में मची होड़ और हड़बड़ी को एक सहज संवाद में बदल सकते हैं।

कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो लोकमें ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है। भारत गांवों में बसने वाला देश होने के साथ-साथ एक प्रखर लोकचेतना का वाहक देश भी है। आप देखें तो फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में लोक की छवि सफलता की गारंटी बन रही है। बालिका वधू जैसे टीवी धारावाहिक हों या पिछले सालों में लोकप्रिय हुए फिल्मी गीत सास गारी देवे (दिल्ली-6) या दबंग फिल्म का मैं झंडू बाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए इसका प्रमाण हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं।

किंतु लोकजीवन के तमाम किस्से, गीत-संगीत और प्रदर्शन कलाएं, शिल्प एक नई पैकेजिंग में सामने आ रहे हैं। इनमें बाजार की ताकतों ने घालमेल कर इनका मार्केट बनाना प्रारंभ किया है। इससे इनकी जीवंतता और मौलिकता को भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। जैसे आदिवासी शिल्प को आज एक बड़ा बाजार हासिल है किंतु उसका कलाकार आज भी फांके की स्थिति में है। जाहिर तौर पर हमें अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी लोकका हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविरायकहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोकको नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोककी उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है। संस्कृति अलग से कोई चीज नहीं होती, वह हमारे समाज के सालों से अर्जित पुण्य का फल है। इसे बचाने के लिए, संरक्षित करने के लिए और इसके विकास के लिए समाज और मीडिया दोनों को साथ आना होगा। तभी हमारे गांव बचेगें, लोक बचेगा और लोक बच गया तो संस्कृति बचेगी।

बुधवार, 24 अगस्त 2011

वे जीत नहीं सकते इसलिए थकाना चाहते हैं


-संजय द्विवेदी

देश के लिए 74 साल का एक बुजुर्ग दिल्ली में भूखा बैठा है और सरकारें इफ्तार पार्टियां उड़ा रही हैं। वे अन्ना हजारे से जीत नहीं सकतीं, इसलिए उन्हें थकाने में लगी हैं। सरकार की संवेदनहीनता इस बात से पता चलती है कि उसने कहा कि अनशन अन्ना की समस्या है, हमारी नहीं। इतनी क्रूर और संवेदनहीन सरकार को क्या जनता माफ कर पाएगी ? इसके साथ ही मुख्य विपक्षी दल की नीयत और दिशाहीनता पर सवाल अब उनके सांसद ही सवाल उठाने लगे हैं। भाजपा के सांसद यशवंत सिन्हा, शत्रुध्न सिन्हा, उदय सिंह और वरूण गांधी का तरीका बताता है कि पार्टी के भीतर सब कुछ सामान्य नहीं है।

संसद के नाम पर चल रहा छलः

जनता का रहबर होने का दम भरने वाली राजनीतिक पार्टियां संसद की सर्वोच्चता के नाम पर अपने पापों पर पर्दा डालना चाहती है। सरकार ने अन्ना के सवाल पर आजतक सारे फैसले गलत लिए हैं और हर कार्रवाई के बाद पीछे हाथ खींचे हैं। आगे भी वह अपने फैसलों पर पछताएगी ही। फिलहाल तो सरकार की रणनीति पिछले दस दिनों से मामले को लंबा खींचने और आंदोलन को थकाने की है। किंतु इस बार भी उसका आकलन गलत ही साबित होगा। अन्ना को थकाने वाले खुद थक रहे हैं और रोज जनता की नजरों से गिर रहे हैं। जिस लोकपाल बिल को लगभग हर पक्ष से जुड़े लोग बेकार बता चुके हैं उससे केंद्र की सरकार को इतना मोह क्यों है, यह समझना लगभग मुश्किल है। लेकिन बुधवार की सर्वदलीय बैठक ने सरकार को एक ताकत जरूर दी है। जब राजनीतिक फैसले करने चाहिए सरकार और विपक्ष मिलकर संसद का रोना रो रहे हैं, किंतु उन्हें नहीं पता कि बातें अब आगे निकल चुकी हैं। अन्ना का आंदोलन अब जन-जन का आंदोलन बन गया है।

अन्ना की चिंता नहीं, सवालों से मुंह चुरा रहेः

सरकार के लोग निरंतर यह विलाप कर रहे हैं कि उन्हें अन्ना की सेहत की चिंता है। किंतु अगर उन्हें उनकी चिंता होती तो क्या दस दिनों तक कोई मार्ग नहीं निकलता? सरकार पहले उन पर अपने दरबारियों से हमले करवाती है, इसके बाद उन्हें गिरफ्तार करती है, फिर छोड़ देती है। फिर दो दिनों तक रामलीला मैदान साफ करवाने के बाद उन्हें अनशन के लिए जगह देती है। चार दिनों तक कोई गंभीर संवाद नहीं करती और जब प्रयास शुरू भी करती है तो उसमें गंभीरता नहीं दिखती। प्रधानमंत्री जिस तरह तदर्थ आधार पर सरकार चला रहे हैं वह बात पूरे देश को निराश करती है।

इसने बड़े आंदोलन और सवालो को नजरंदाज करके सरकार आखिर चाहती क्या है यह समझ से परे है। दरअसल सरकार पुरानी राजनीतिक शैलियों से आंदोलन को तोड़ना चाहती है। जिसमें पहला प्रयास अन्ना की छवि बिगाड़ने, उन्हें डराने और धमकाने के हुए, इसके बाद अब सरकार इसे लंबा खींचने में लगी है। सरकार को यह अंदाजा है कि अंततः आंदोलन कमजोर पड़ेगा, बिखरेगा और चाहे-अनचाहे हिंसा की ओर बढ़ेगा,ऐसे में इसे दबाना और कुचलना आसान हो जाएगा। निश्चय ही इतने लंबे आंदोलन में अब तक शांति बने रहना साधारण नहीं है। यह सारा कुछ इसलिए हो पाया क्योंकि अन्ना का नैतिक बल इसके पीछे है। किंतु कोई संगठनात्मक आधार न होने के कारण सरकार इस आंदोलन के बिखराव के लिए आश्वस्त है। सरकार को यह भी लगता है कि इस बार वह बच निकली तो जनता की स्मृति बहुत क्षीण होती है और वह मनचाहा लोकपाल पारित करा लेगी।

विपक्ष की भूमिका भी सरकार के सहयोगी सरीखीः

विपक्ष की भूमिका भी इस मामले में सरकार के लिए राहत देने वाली रही है। इस मामले में सरकार पोषित बुद्धिजीवी वातावरण को बिगाड़ने का काम कर रहे हैं। वे अन्ना को तमाम मुद्दों पर घेरना चाहते हैं। जैसे धर्मनिरपेक्षता या आरक्षण के सवाल। वे यह भूल जाते हैं इस देश में धर्मनिरपेक्षता अपने तरीके ओढ़ी-बिछाई और इस्तेमाल की जाती रही है। धर्मनिरपेक्षता के मसीहा वीपी सिंह की सरकार को भाजपा और वामदलों दोनों का समर्थन हासिल था। उप्र में मुलायम सिहं यादव, बिहार में लालूप्रसाद यादव दोनों भाजपा के समर्थन से सरकारें चला चुके हैं। एनडीए की सरकार में शरद यादव, उमर फारूख, ममता बनर्जी और रामविलास पासवान सभी मंत्री रहे हैं। इसी दौर में गुजरात के दंगे भी हुए आप बताएं कि इनमें कौन मंत्री पद छोड़कर अपनी धर्मनिरपेक्षता पर कायम रहा? संसद की सर्वोच्चता की बार-बार बात करने वाले सांसद और राजनीतिक दल शायद यही कहना चाहते हैं कि जनता नहीं, वे ही मालिक हैं। वे जनता के नहीं, जनता उनकी सेवक है। यह उसी तरह है जैसे एक माफिया, हजारों लोगों के बीच भय का ही व्यापार करता है। लोग उससे डरना छोड़ देंगें, तो वो क्या करेगा ? सांसद भी डरे हुए हैं। उन्हें लगता है लोग अगर मुक्तकंठ से बात करने लगे, उनका भय समाप्त हो गया तो क्या होगा? उनके जनप्रतिनिधि के भीतर छिपा सामंती भाव उन्हें सच कहने और करने से रोक रहा है। कल तक अन्ना को भ्रष्ट और अहंकारी बताने वाले, उन्हें अकारण गिरफ्तार करने वाले, राजनेता आज अन्ना के लिए धड़ियाली आंसू बहा रहे हैं। उनके स्वास्थ्य की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं। आखिर इस नौटंकी को क्या जनता नहीं समझती ? सही मायने में सरकार को अन्ना के स्वास्थ्य की चिंता करने के बजाए अपने स्वास्थ्य की चिंता करनी चाहिए। अन्ना के अनशन का एक-एक दिन सरकार पर भारी पड़ रहा है और जनरोष स्थायी भाव में बदल रहा है।

बौद्धिक कुलीनों का बेसुरा रागः

बहुत अफसोस है देश के बुद्धिजीवी जिन्हें माओवादियों, कश्मीर के अली शाह गिलानी जैसे अतिवादियों का समर्थन करने और आईएसआई के एजेंट फई के कथित कश्मीर मुक्ति से जुड़े सेमिनारों में पत्तलें चाटने से एतराज नहीं हैं वे भी अन्ना की नीयत पर शक कर रहे हैं। यह देखकर भी कि प्रशांत भूषण, मेधा पाटकर और स्वामी अग्निवेश जैसे लोग भी अन्ना के साथ खड़े हैं, उन्हें यह अज्ञात भय खाए जा रहा है कि अन्ना के आंदोलन को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लोग हड़प लेंगें। इन बिकाऊ और उधार की बुद्धि के आधार पर अपना काम चलाने वाले बुद्धिजीवी भी देश का एक बड़ा संकट हैं। अन्ना के खिलाफ कुछ बुद्धिजीवी जिस तरह के आरोप लगा रहे हैं कि उसमें भारत की समझ न होना और पूर्वाग्रह ही दिखता है। खासकर अंग्रेजी चैनलों में गपियाते और अंग्रेजियत की मानसिकता से भरे ये लोग शायद अन्ना की पृष्ठभूमि और अपरिष्कृत शैली के कारण उनसे दूरी बनाए हुए हैं, हालांकि भारत जैसे देश में ऐसे बौद्धिक कुलीनों का कोई महत्व नहीं हैं किंतु अगर ये साथ होते तो अन्ना को आंदोलन को ज्यादा व्यापकता मिल पाती। क्योंकि शासन सत्ता में इन्हीं बौद्धिक कुलीनों की बात सुनी जाती है, सो अन्ना की भावनाएं सत्ता के कानों तक पहुंच पातीं।

यह अकारण नहीं है कि अरूंधती राय ने लिखा कि वे अन्ना नहीं बनना चाहेंगीं। जबकि सच यह है कि वे अन्ना बन भी नहीं सकतीं। अन्ना बनने के जिस धैर्य, रचनाशीलता, सातत्य और संयम की आवश्यक्ता है क्या वह अरूधंती के पास है ? अन्ना के पास राणेगढ़ सिद्धि जैसा एक प्रयोग है जबकि अरूंधती के पास देशतोड़क विचारों को समर्थन करने का ही अतीत है। किंतु अरूंधती इस समय भारतीय राज्य के साथ खड़ी हैं। क्योंकि वह राज्य और पुलिस दिल्ली में अरूंधती को भारत को भूखे नंगों का देश कहने के बाद भी उन पर मुकदमा दर्ज नहीं करता और अन्ना जैसे संत को अकारण तिहाड़ में डाल देता है। क्या भारतीय लोकतंत्र को निरंतर कोसने वाली अरूंधती दिल्ली पुलिस और गृहमंत्रालय के इसी अहसान का बदला चुकाने के लिए अन्ना के आंदोलन की तुलना माओवादियों के कामों से कर रही हैं और इस आंदोलन को लोकतंत्र को कमजोर करने वाला बता रही हैं।

विश्वसनीयता खोती सरकारः

तमाम सवाल हमारे पास हैं किंतु सबसे बड़ी बात यह है कि अन्ना के प्रति सरकार जिस संवेदनहीनता का परिचय दे रही है, उसकी मिसाल न मिलेगी। बस, अन्ना के लिए दुआएं कि वे अपनी हर लड़ाई जीतें क्योंकि यह लड़ाई भारत के आम आदमी में स्वाभिमान भर रही है। हर क्षण यह बता रही है कि जनता ही लोकतंत्र में मालिक है, जबकि जनप्रतिनिधि उसके सेवक हैं। दिल्ली के दर्प दमन का अन्ना का अभियान अपनी मंजिल तक जरूर पहुंचेगा और वह दिन भारत के सौभाग्य का क्षण होगा। अन्ना जेल में हों या जेल के बाहर उनकी आवाज सुनी जाएगी क्योंकि वे अब देश के आखिरी आदमी की आवाज बन चुके हैं और निश्चित ही सरकार अब अपना नैतिक व विश्वसनीयता दोनों ही खो चुकी है। ऐसे में देश की आम जनता ही अपने विवेक से सच और गलत का फैसला करेगी। इसके परिणाम आने वाले दिनों में जरूर दिखेंगें।

इतना तो तय है कि सरकार और उसके सलाहकारों को देश के मानस की समझ नहीं है। वह भारतीय जनता के व्यापक स्मृतिदोष के सहारे अपनी चालें चल रही है किंतु इतिहास बताता है कि चालाकियां कई बार खुद पर भारी पड़ती हैं। दंभ, दमन, छल और षडयंत्र निश्चय ही लंबी राजनीति के लिए मुफीद नहीं होते किंतु लगता है कि राजनीतिक दलों ने इन्हें ही अपना मंत्र बना लिया है। छल और बल से यह लड़ाई जीतकर सांसद अपना रूतबा बना भी लें किंतु वे जनता का भरोसा, प्रामणिकता और विश्वसनीयता खो देंगें, जब यही नहीं रहेगा तो इस संसद व सरकार के मायने क्या हैं? क्योंकि कोई भी राजनीति अगर जनविश्वास खो देती है तो उसका किसी जनतंत्र में मतलब क्या रह जाता है ? डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे –“लोकराज लोकलाज से चलता है। क्या हमें उनकी बात अनसुनी कर देना चाहिए ?

रविवार, 21 अगस्त 2011

अन्ना ने किया दिल्ली का दर्प दमन

- संजय द्विवेदी

देश के तमाम बुद्धिजीवियों ने अन्ना हजारे के आंदोलन की अपने-अपने तरीके से आलोचना प्रारंभ कर दी है। वे जो सवाल उठा रहे हैं वे भटकाव भरे तो हैं ही, साथ ही उससे चीजें सुलझने के बजाए उलझती हैं। किंतु हमें एक निहत्थे देहाती आदमी की इस बात के लिए तारीफ करनी चाहिए कि उसने दिल्ली में आकर केंद्रीय सत्ता के आतंक, चमकीले प्रलोभनों और कुटिल वकीलों व हावर्ड से पढ़कर लौटे मंत्रियों को जनशक्ति के आगे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। आंदोलन में एक बेहद भावात्मक अपील होने के बावजूद देश में घटी इस घटना को एक ऐतिहासिक समय कहा जा सकता है।

सत्ता और राज्य (स्टेट) की ओर से उछाले गए प्रश्नों के जो उत्तर अन्ना हजारे ने दिए हैं, वे भी जनता का प्रबोधन करने वाले हैं और लोकतंत्र को ताकत देते हैं। इस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह भारतीय जनता को मुस्कराने का एक अवसर दे रहा है। उसकी खत्म हो चुकी उम्मीदों में पंख लगा रहा है। कुछ नहीं हो सकता के अवसाद को खत्म कर रहा है। इसके साथ ही अन्ना ने इंडिया और भारत को एकजुट कर दिया है। जाति,भाषा, धर्म, क्षेत्र से अलग इस आंदोलन में एक राष्ट्रीय भाव को उभरते हुए हम सब देख रहे हैं। दुनिया भर में चल रहे पारदर्शिता के आंदोलनों की कड़ी में यह अपने ढंग का एक अनोखा आंदोलन है। अफसोस की इस आंदोलन की ताकत का भान हमारे उन नेताओं को भी नहीं था, जो जनता की नब्ज पर हाथ रखने का दावा करते हैं। किंतु हमें अन्ना ने बताया कि नब्ज कहां और उन्होंने जनता की नब्ज पर हाथ रख दिया है।

वैकल्पिक राजनीति की दिशाः

अन्ना भले राजनीति में न हों और अराजनैतिक होने के दावों से उनके नंबर बढ़ते हों, किंतु यह एक ऐसी राजनीति है जिसकी देश को जरूरत है। दलों के ऊपर उठकर देश का विचार करना। अन्ना की राजनीति ही सही मायने में वैकल्पिक राजनीति तो है ही और यही राष्ट्रीय राजनीति भी है। लोकतंत्र में जब परिवर्तन की, विकल्पों की राजनीति, सच्चे विचारों की बहुलता, जल-जंगल-जमीन और कमजोर वर्गों के सवाल के कमजोर पड़ते हैं तो वह भोथरा हो जाता है। वह नैराश्य भरता है और समाज को कमजोर बनाता है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद पैदा हुए संकटों के खिलाफ देश के अनेक स्थानों पर छोटे-छोटे समूह काम कर रहे हैं। वे प्रतिरोध की चेतना को जागृत भी कर रहे हैं। किंतु इस सबके बीच एक समाज का एक सामूहिक दर्द भी है- महंगाई और भ्रष्टाचार। अन्ना ने इन्हीं दो सवालों को संबोधित किया है। शायद इसीलिए के चलते इंडिया और भारत मिलकर कह रहे हैं- मैं भी अन्ना।हमारी मुख्यधारा की राजनीति के पास आम आदमी, वंचित वर्गों के सवालों पर सोचने और बात करने का अवकाश कहां हैं। लेकिन बाबा आमटे, अन्ना हजारे, सुंदरलाल बहुगुणा, नाना जी देशमुख, ब्रम्हदेव शर्मा, मेधा पाटकर, शंकरगुहा नियोगी जैसी अनेक छवियां याद आती हैं जिनके मन में इस देश को एक वैकल्पिक राजनीति देने का हौसला दिखता है। मुख्यधारा की राजनीति द्वारा छोड़े गए सवालों से ये टकराते हैं। गांवों और आदिवासियों के प्रश्नों पर संवाद करते हुए दिखते हैं। सत्ताकामी राजनीति से विलग ये ऐसे काम थे जिनका मूल्यांकन होना चाहिए और उनके लिए भी समाज में एक जगह होनी चाहिए। अन्ना हजारे इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उन्होंने समय द्वारा निर्मित परिस्थितियों में एक नायक का दर्जा मिल गया।

सवालों पर गंभीर नहीं है संसदः

यह देखना दिलचस्प है कि हमारी संसद को इन प्रश्नों पर कभी बहुत गंभीर नहीं देखा गया। शायद इसीलिए वैकल्पिक राजनीति और उसके सवाल सड़क पर तो जगह बनाते हैं पर संसद में उन्हें आवाज नहीं मिलती। जब जनता के सवालों से संसद मुंह मोड़ लेती है तब ये सवाल सड़कों पर नारों की शक्ल ले लेते हैं। दिल्ली में ही नहीं देश में ऐसे ही दृश्य उपस्थित हैं, क्योंकि संसद ने लंबे अरसे से महंगाई और भ्रष्टाचार के सवालों पर जैसी रस्मी बातें और बहसें कीं, वह जनता के गले नहीं उतरीं। वैकल्पिक राजनीति को ऐसे घटाटोप में स्पेस मिल ही जाता है। संसद और जनप्रतिनिधि यहां पीछे छूट जाते हैं। अब वह जनता सड़क पर है, जो स्वयंभू है। जन से बड़ी संसद नहीं है, जन ही स्वयंभू है- यह एक सच है। सत्ता या राज्य जिसे आसानी से नहीं स्वीकारते। इसलिए वे प्रतिरोधों को कुचलने के लिए हर स्तर पर उतर आते हैं।

यह मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए संविधान साफ कहता है कि हम भारत के लोग किंतु राजनीति इस तथ्य को स्वीकारने को तैयार नहीं है वह कहना चाह रही है कि –“हम संसद के लोग। ऐसे में अन्ना और उन जैसे तमाम लोगों की वैकल्पिक राजनीति ही संविधान की असली आत्मा की रक्षा करते हुए दिखती है। अन्ना हजारे का उदय इसी वैकल्पिक राजनीति का उत्कर्ष है। इस आंदोलन ने जनता के इस कष्ट और अविश्वास को प्रकट कर दिया है, अब वह अपनी सरकार और संसद की प्रतीकात्मक कार्रवाईयों से आगे कुछ होते हुए देखना चाहती है।

जोश के साथ होश में है आंदोलनः

अन्ना के आंदोलन के आरंभिक दिन लगभग अहिंसक ही हैं। पूरा आंदोलन जोश के साथ होश को संभाले हुए हैं। जिसे आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर ने रेखांकित भी किया। इसके मायने यहीं हैं कि देश की जनता में महात्मा गांधी द्वारा रोपे गए अहिंसा के भाव अभी सूखे नहीं हैं। गांधी की लंबी छाया में यह देश आज भी जीता है। देश के तमाम हिस्सों से ऐसे ही प्रदर्शनों की मनोहारी छवियां दिख रही हैं। आधुनिक मीडिया और उसकी प्रस्तुति ने प्रदर्शनों में विविधता व प्रयोगों को भी रेखांकित किया है। सत्ता के लिए जूझने वाले दल यहां अप्रासंगिक हो गए लगते हैं। युवाओं, बच्चों और महिलाओं के समूह एक बदलाव की प्रेरणा से घरों से निकलते हुए दिखते हैं। अफसोस यह कि इस बदलाव की आंधी और जनाकांक्षा को समझ पाने में सरकार और प्रतिपक्ष के दल भी सफल नहीं रहे। आज भी उनका दंभ उनके बयानों और देहभाषा से झलकता है। एक अहिंसक अभियान से निपटने की कोशिशें चाहे वह बाबा रामदेव के साथ हुयी हों या अन्ना हजारे के साथ, उसने जनता के आक्रोश को बढ़ाने का ही काम किया। अपनी जनविरोधी क्रूरता के प्रकटीकरण के बाद सरकार अंततः जनशक्ति के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो गयी। राणेगढ़ सिद्धी से आए एक ग्रामीण ने, जिसने नवीं तक शिक्षा पायी है, ने दिल्ली के दर्प का दमन कर दिया। अन्ना हजारे की इस पूरी लड़ाई में केंद्र सरकार ने पहले गलत कदम उठाए, फिर एक-एक कर कदम पीछे लिए हैं, उससे सत्ता की जगहंसाई ही हो रही है। राज्य की मूर्खताओं और दमनकारी चरित्र को चुनौती देते हुए हजारे इसीलिए जनता की आवाज बन गए हैं, क्योंकि उनका रास्ता उनके गांव से शुरू होकर वापस उनके गांव ही जाता है। यह आवाज इतनी प्रखर और सत्ता के कान फाड़ देने वाली इसलिए लग रही है क्योंकि उसे राजसत्ता का वरण नहीं करना है।

बंदी बनी सरकारः

अन्ना को बंदी बनाकर, खुद बंदी बनी सरकार के पास इस क्षण के इस्तेमाल का समय अभी भी गया नहीं हैं, किंतु उसने अन्ना और जनशक्ति को कम आंकने की भूल की, इसमें दो राय नहीं है। केंद्र सरकार ने जनता के प्रश्नों पर जैसी आपराधिक लापरवाहियां बरतीं उसने जनता के गुस्से को सामूहिक असंतोष में बदल दिया। देश के नाकारा विपक्ष की दिशाहीनता के बावजूद भी, जब अन्ना हजारे जैसा पारदर्शी, प्रामाणिक नेतृत्व जनता के सामने दिखा तो आम आदमी की उम्मीदें लहलहा उठीं। सत्ता के कुटिल प्रवक्ताओं और चतुर मंत्रियों की चालें भी दिल्ली में आए इस ऋषि की तपस्या को भंग न कर सकीं। उम्मीद की जानी कि दिल्ली की सरकार देश की जनता के साथ छल न करते हुए एक सबक ले और अन्ना द्वारा उठाए गए सवालों के सार्थक समाधान की दिशा में प्रयास करे।


शुक्रवार, 19 अगस्त 2011

अन्ना ने इस देश की आत्मा को छू लिया है


भ्रष्टाचार विरोधी जनांदोलन ने देश को एक सूत्र में बांधा

-संजय द्विवेदी

अन्ना हजारे ने सही मायने में इस देश की आत्मा को छू लिया है। सच मानिए उनकी गांधी टोपी, बालसुलभ उत्साह, उनकी भारतीय वेशभूषा और बातों की सहजता कुल मिलाकर एक भरोसा जगाती हैं। अन्ना आज जहां हैं उसके पीछे कहीं न कहीं वह छवि जिम्मेदार है जो उन्हें महात्मा गांधी से जोड़ती है। इसलिए जब कांग्रेस के अहंकारी प्रवक्ता उनके बारे में कुछ कहते हैं, तो दर्द देश को होता है। अन्ना हजारे सही मायने में एक भारतीय आत्मा के रूप में उभरे हैं। उन्होंने देश की नब्ज पर हाथ रख दिया है।

कांग्रेस के दिशाहीन और जनता से कटे नेतृत्व की छोड़िए उन्होंने विपक्ष के भी नाकारेपन का लाभ उठाते हुए यह साबित कर दिया है कि लोकशाही की असल ताकत क्या है। जनता के मन में इस कदर उनका बस जाना और नौजवानों का उनके पक्ष में सड़कों पर उतरना, इसे साधारण मत समझिए। यह वास्तव में एक साधारण आदमी के असाधारण हो जाने की परिघटना है। हमारी खुफिया एजेंसियां कह रही थीं- अन्ना को रामदेव समझने की भूल न कीजिए। किंतु सरकारें कहां सुनती हैं। पूरी फौज उतर पड़ी अन्ना को निपटाने के लिए। क्या कांग्रेस के प्रवक्ता, क्या मंत्री सब उनकी ईमानदारी और निजी जीवन पर ही कीचड़ उछालने लगे। लेकिन क्या हुआ कि तीन दिनों के भीतर देश के गृहमंत्री को लोकसभा में उन्हें सच्चा गाँधीवादी बताते हुए सेल्यूट करना पड़ा। समय बदलता है, तो यूं ही बदलता है।

राजनीतिक दलों के लिए चुनौतीः

अन्ना आज राजनीतिक दलों के लिए एक चुनौती और देश के सबसे बड़े यूथ आईकान हैं। वे लोकप्रियता के उस शिखर पर हैं जहां पहुंचने के लिए राजनेता, अभिनेता और लोकप्रिय कलाकार तरसते हैं। महाराष्ट्र के एक गांव राणेगण सिद्धि के इस आम इंसान के इस नए रूपांतरण के लिए आप क्या कहेंगें? क्या यह यूं हो गया ? सच है समय अपने नायक और खलनायक दोनों तलाश लेता है। याद कीजिए यूपीए-1 की ताजपोशी का समय जब मनमोहन सिंह, एक ऐसे ईमानदार आईकान के तौर पर प्रधानमंत्री पद की शपथ लेते हैं जो भारत का भविष्य बदल सकता है, क्योंकि वह एक अर्थशास्त्री के तौर पर दुनिया भर में सम्मानित हैं। आज देखिए उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह पड़े हैं। अमरीका से हुए परमाणु करार को पास कराने के लिए अपनी जान लड़ा देने वाले अमरीका प्रिय प्रधानमंत्री के सहायकों की बेबसी देखिए वे यह कहने को मजबूर हैं कि अन्ना के आंदोलन के पीछे अमरीका का हाथ है। अमरीका की चाकरी में लगी केंद्र सरकार के सहयोगियों के इस बयान पर क्या आप हंसे बिना रह सकते हैं? लेकिन उलटबासियां जारी हैं। सबसे ईमानदार प्रधानमंत्री के राज में भ्रष्टाचार के रिकार्ड टूट रहे हैं, और विद्वान अर्थशास्त्री को प्रधानमंत्री बनाने की सजा यह कि महंगाई से जनता त्राहि-त्राहि कर रही है।

विपक्ष भी करता रहा निराशः

इस समय में तो विपक्ष भी आशा से अधिक निराश कर रहा है। प्रामणिकता के सवाल पर विपक्ष की भी विश्वसनीयता भी दांव पर है। यह साधारण नहीं है कि जिन राज्यों में विपक्षी दलों की सरकारें हैं वहां भी भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। केरल में वामपंथियों को ले डूबने वाले विजयन हों, कर्नाटक के भाजपाई मुख्यमंत्री रहे वीएस येदिरेप्पा या उप्र की मुख्यमंत्री मायावती। सब का ट्रैक बहुत बेहतर नहीं है। शिबू सोरेन, लालूप्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव की याद तो मत ही दिलाइए। राज्यों की विपक्षी सरकारें लूट-पाट का उदाहरण बनने से खुद को रोक नहीं पायीं। ऐसे में राजनीतिक विश्वसनीयता के मोर्चे पर वे कांग्रेस से बहुत बेहतर स्थिति में नहीं हैं। कम से कम भ्रष्टाचार के मामले पर मुख्यधारा के राजनीतिक दलों का राष्ट्रीय चरित्र एक सरीखा है। सो इस राजनीतिक शून्यता और विपक्ष के नाकारेपन के बीच अन्ना आशा की एक किरण बनकर उभरते हैं। विपक्ष वास्तव में सक्रिय और विश्वसनीय होता तो अन्ना कहां होते? इसलिए देखिए कि सारे दल अपनी घबराहटों के बावजूद लोकपाल को लेकर किंतु-परंतु से आगे नहीं बढ़ रहे हैं। अन्ना हजारे के नैतिक बल और व्यापक जनसमर्थन ने उन्हें सहमा जरूर दिया है किंतु वे आज भी आगे आकर सक्षम लोकपाल बनाने के उत्सुक नहीं दिखते। राजनीतिक दलों का यही द्वंद देश की सबसे बड़ी पीड़ा है। जनता इसे देख रही है और समझ भी रही है।

टूटा राज्य का दंभः

सवाल यह भी नहीं है कि अन्ना सफल होते हैं या विफल किंतु अन्ना ने जनशक्ति का भान, मदांध राजनीति को करा दिया है। राज्य( स्टेट) को यह जतला दिया है उसका दंभ, जनशक्ति चाहे तो चूर-चूर हो सकता है। बड़बोले, फाइवस्टारी और गगनविहारी नेताओं को अन्ना ने अपनी साधारणता से ही लाजवाब कर दिया है। अगर उन्हें दूसरा गांधी कहा जा रहा है तो यह अतिरंजना भले हो, किंतु सच लगती है। क्योंकि आज की राजनीति के बौनों की तुलना में वे सच में आदमकद नजर आते हैं। यह सही बात है अन्ना के पास गांधी, जयप्रकाश नारायण और वीपी सिंह जैसा कोई समृद्ध अतीत नहीं है। उनके पास सिर्फ उनका एक गांव है, जहां उन्होंने अपने प्रयोग किए, उनका अपना राज्य है, जहां वे भ्रष्टों से लड़े और उसकी कीमत भी चुकायी। किंतु उनके पास वह आत्मबल, नैतिक बल और सादगी है जो आज की राजनीति में दुर्लभ है। उनके पास निश्चय ही न गांधी सरीखा व्यक्तित्व है, ना ही जयप्रकाश नारायण सरीखा क्रांतिकारी और प्रभावकारी व्यक्तित्व। वीपी सिंह की तरह न वे राजपुत्र हैं न ही उनका कोई राजनीतिक अतीत है। किंतु कुछ बात है कि जो लोगों से उनको जोड़ती है। उनकी निश्छलता, सहजता, कुछ कर गुजरने की इच्छा, उनकी ईमानदारी और अराजनैतिक चरित्र उनकी ताकत बन गए हैं।

हाथ में तिरंगा और वंदेमातरम् का नादः

आजादी के साढ़े छः दशक के बाद जब वंदेमातरम, इंकलाब जिंदाबाद, भारत माता की जय की नारे लगाते नौजवान तिरंगे के साथ दिल्ली ही नहीं देश के हर शहर में दिखने लगे हैं तो आप तय मानिए कि इस देश का जज्बा अभी मरा नहीं है। इन्हें फेसबुकिया, ट्विटरिया गिरोह मत कहिए- यह चीजों का सरलीकरण है। संवाद के माध्यम बदल सकते हैं पर विश्वसनीय नेतृत्व के बिना लोगों को सड़कों पर उतारना आसान नहीं होता। गौहाटी से लेकर कोलकाता और लखनऊ से लेकर हैदराबाद तक बड़े और छोटे समूहों में अगर लोग निकले हैं तो इसका मजाक न बनाइए। कुछ करते हुए देश का स्वागत कीजिए। युवा अगर देश जाति, धर्म,राज्य और पंथ की सीमाएं तोड़कर भारत मां की जय बोल रहा है तो कान बंद मत कीजिए। सबको पता है कि अन्ना गांधी नहीं हैं, किंतु वे गांधी के रास्ते पर चल रहे हैं। वे विवेकानंद भी नहीं हैं पर विवेकानंद के अध्ययन ने उनके जीवन को बदला है। इतना तय मानिए कि वे हिंदुस्तान के आम और खास हर आदमी की आवाज बन गए हैं। अन्ना को नहीं उस भारतीय मनीषा को सलाम कीजिए जो अपने गांव की माटी और इस देश के आम आदमी में परमात्मा के दर्शन करता है। अन्ना के इस आध्यात्मिक बल को सलाम कीजिए। इस देश पर पड़ी गांधी की लंबी छाया को सलाम कीजिए कि जिनकी आभा में पूरा देश अन्ना बनने को आतुर है। अन्ना अगर गांधी को नहीं समझते, विवेकानंद को नहीं समझते तो तय मानिए वे देश को भी अपनी बात नहीं समझा पाते। उनका नैतिक बल इन्हीं विभूतियों से बल पाता है। उनको मीडिया, ट्यूटर और फेसबुक की जरूरत नहीं है, वे उनके मददगार हो सकते हैं किंतु वे अन्ना को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना के आंदोलन को बनाने वाले नहीं हैं। अन्ना का आंदोलनकारी व्यक्तित्व भारत की माटी में गहरे बसे लोकतांत्रिक चैतन्य का परिणाम है। जहां एक आम आदमी भी अपनी आध्यात्मिक चेतना और नैतिक बल से महामानव हो सकता है। गांधी ने यही किया और अब अन्ना यह कर रहे हैं। सफलताएं और असफलताएं मायने नहीं रखतीं। गांधी भी देश का बंटवारा रोक नहीं पाए, अन्ना भी शायद भ्रष्टाचार को खत्म होता न देख पाएं, किंतु उन्होंने देश को मुस्कराने का एक मौका दिया है। उन्होंने नई पीढ़ी को राष्ट्रवाद की एक नई परिभाषा दी है। खाए-अधाए मध्यवर्ग को भी फिर से राजनीतिक चेतना से लैस कर दिया है। एक लोकतंत्र के वास्तविक अर्थ लोगों को समझाने की कोशिशें शुरू की हैं। एक पूरी युवा पीढ़ी जिसने गांधी, भगत सिहं, डा.लोहिया, दीनदयाल उपाध्याय या जयप्रकाश नारायण को देखा नहीं है। उसे उस परंपरा से जोड़ने की कोशिश की है। अन्ना ने जनांदोलन और उसके मायने समझाए हैं।

सवाल पूछने लगे हैं नौजवानः

कांग्रेस के एक जिम्मेदार नेता कहते हैं कि यह फैशन है। अगर यह फैशनपरस्ती भी तो भी वह अमरीका की तरफ मुंह बाए खड़ी, एनआरआई बनने, अपना घर भरने और सिर्फ खुद की चिंता की करने वाली पीढ़ी का एक सही दिशा में प्रस्थान है। यह फैशन भी है तो स्वागत योग्य है क्योंकि अरसे बाद शिक्षा परिसरों में फेयरवेल पार्टियों, डांस पार्टिंयों और फैशन शो से आगे अन्ना के बहाने देश पर बात हो रही है,भ्रष्टाचार पर बात हो रही है, प्रदर्शन हो रहे हैं। नौजवान सवाल खड़े कर रहे हैं और पूछ रहे हैं। अन्ना ने अगर देश के नौजवानों को सवाल करना भर सिखा दिया तो यह भी इस दौर की एक बड़ी उपलब्धि होगी। अन्ना हजारे की जंग से बहुत उम्मीदें रखना बेमानी है किंतु यह एक बड़ी लड़ाई की शुरूआत तो बन ही सकती है। अन्ना की इस जंग को तोड़ने और भोथरा बनाने के खेल अभी और होंगें। सत्ता अपने खलचरित्र का परिचय जरूर देगी। किंतु भारतीय जन अगर अपनी स्मृतियों को थोड़ा स्थाई रख पाए तो राजनीतिक तंत्र को भी इसके सबक जरूर मिलेगें। क्योंकि अब तक हमारा राजनीतिक तंत्र भारतीय जनता के स्मृतिदोष का ही लाभ उठाता आया है। अब उसे लग रहा है कि हम पांच साल के ठेकेदारों से पांच साल से पहले ही सवाल क्यों पूछे जा रहे हैं। इसलिए वे ललकार रहे हैं कि आप चुनकर आइए और फिर सवाल पूछिए। पर यह सवाल भी मौंजू कि एक अरब लोगों के देश में आखिर कितने लोग लोकसभा और राज्यसभा में भेजे जा सकते हैं? यानि सवाल करने का हक क्या संसद में बैठे लोगों का ही होगा, किंतु अन्ना ने बता दिया है कि नहीं हर भारतीय को सवाल करने का हक है। हम भारत के लोग संविधान में लिखी इन पंक्तियों के मायने समझ सकें तो अन्ना का आंदोलन सार्थक होगा और अपने लक्ष्य के कुछ सोपान जरूर तय करेगा।

मंगलवार, 16 अगस्त 2011

हजारे के साथ कुछ गलत नहीं हुआ !

असहमति को स्वीकारने का साहस हमारे सत्ताधारियों में कहां है

-संजय द्विवेदी

असहमति को स्वीकारने की विधि हमारे सत्ताधारियों को छः दशकों के हमारे लोकतंत्र ने सिखाई कहां है?इसलिए अन्ना हजारे के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ जो अनपेक्षित हो। यह न होता जो आश्चर्य जरूर होता। लोकतंत्र इस देश में सबसे बड़ा झूठ है,जिसकी आड़ में हमारे सारे गलत काम चल रहे हैं। संसद और विधानसभाएं अगर बेमानी दिखने लगी हैं तो इसमें बैठने वाले इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। साढ़े छः दशक का लोकतंत्र भोग लेने के बाद लालकिले से प्रधानमंत्री उसी गरीबी और बेकारी को कोस रहे हैं। यह गरीबी, बेकारी, भुखमरी और तंगहाली अगर साढ़े छः दशक की यात्रा में खत्म नहीं हुयी तो क्या गारंटी है कि आने वाले छः दशकों में भी यह खत्म हो जाएगी। अमीर और गरीब की खाई इन बीस सालों में जितनी बढ़ी है उतनी पहले कभी नहीं थी। अन्ना एक शांतिपूर्ण अहसमहमति का नाम हैं, इसलिए वे जेल में हैं। नक्सलियों, आतंकवादियों और अपराधी जमातों के प्रति कार्रवाई करते हमारे हाथ क्यों कांप रहे हैं?अफजल और गुरू और कसाब से न निपट पाने वाली सरकारें अपने लोगों के प्रति कितनी निर्मम व असहिष्णु हो जाती हैं यह हम सबने देखा है। रामदेव और अन्ना के बहाने दिल्ली अपनी बेदिली की कहानी ही कहती है।

बदजबानी और दंभ के ऐसे किस्से अन्ना के बहाने हमारे सामने खुलकर आए हैं जो लोकतंत्र को अधिनायकतंत्र में बदलने का प्रमाण देते हैं। कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी जैसै दरबारियों की दहाड़ और हिम्मत देखिए कि वे अन्ना और ए. राजा का अंतर भूल जाते हैं। ऐसे कठिन समय में अन्ना हजारे हमें हमारे समय के सच का भान भी कराते हैं। वे न होते तो लोकतंत्र की सच्चाईयां इस तरह सामने न आतीं। एक सत्ता किस तरह मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति को एक रोबोट में रूपांतरित कर देती है, यह इसका भी उदाहरण है। वे लालकिले से क्या बोले, क्यों बोले ऐसे तमाम सवाल हमारे सामने हैं। आखिर क्या खाकर आप अन्ना की नीयत पर शक कर रहे हैं। आरएसएस और न जाने किससे-किससे उनकी नातेदारियां जोड़ी जा रही हैं। पर सच यह है कि पूरे राजनीतिक तंत्र में इतनी घबराहट पहले कभी नहीं देखी गयी। विपक्षी दल भी यहां कौरव दल ही साबित हो रहे हैं। वे मौके पर चौका लगाना चाहते हैं किंतु अन्ना के उठाए जा रहे सवालों पर उनकी भी नीयत साफ नहीं है। वरना क्या कारण था कि सर्वदलीय बैठक में अन्ना की टीम से संवाद करने पर ही सवाल उठाए गए। यह सही मायने में दुखी करने वाले प्रसंग हैं। राजनीति का इतना असहाय और बेचारा हो जाना बताता है कि हमारा लोकतंत्र कितना बेमानी हो चुका है। किस तरह उसकी चूलें हिल रही हैं। किस तरह वह हमारे लिए बोझ बन रहा है। भारत के शहीदों की शहादत को इस तरह व्यर्थ होता देखना क्या हमारी नीयत बन गयी है। सवाल लोकपाल का नहीं उससे भी बड़ा है। सवाल प्रजातांत्रिक मूल्यों का है। सवाल इसका भी है कि असहमति के लिए हमारे लोकतंत्रांत्रिक ढांचें में स्पेस कम क्यों हो रहा है।

सवाल यह भी है कि कश्मीर के गिलानी से लेकर माओवादियों का खुला समर्थन करने वाली अरूंधती राय तक दिल्ली में भारत की सरकार को गालियां देकर, भारत को भूखे-नंगों का देश कह कर चले जाएं किंतु दिल्ली की बहादुर पुलिस खामोश रहती है। उसी दिल्ली की सरकार में अफजल गुरू के मृत्युदंड से संबंधित फाइल 19 रिमांडर के बाद भी धूमती रहती है। किंतु बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के लिए कितनी त्वरा और कितनी गति है। यह गति काश आतंकियों, उनके पोषकों, माओवादियों के लिए होती तो देश रोजाना खून से न नहाता। किंतु हमारा गृहमंत्रालय भगवा आतंकवाद, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की कुंडलियां तलाशने में लगा है। मंदिर में सोने वाले एक गांधीवादी के पीछे लगे हाथ खोजे जा रहे हैं। आंदोलन को बदनाम करने के लिए अन्ना हजारे को भी अपनी भ्रष्ट मंडली का सदस्य बताने की कोशिश हो रही है। आखिर इससे हासिल क्या है। क्या अन्ना का आभा इससे कम हुयी है या कांग्रेस के दंभ से भरे नेता बेनकाब हो रहे हैं। सत्ता कुछ भी कर सकती है, इसमें दो राय नहीं किंतु वह कब तक कर सकती है-एक लोकतंत्र में इसकी भी सीमाएं हैं। चाहे अनचाहे कांग्रेस ने खुद को भ्रष्टाचार समर्थक के रूप में स्थापित कर लिया है। अन्य दल दूध के धुले हैं ऐसा नहीं हैं किंतु केंद्र की सत्ता में होने के कारण और इस दौर में अर्जित अपने दंभ के कारण कांग्रेस ने अपनी छवि मलिन ही की है। कांग्रेस का यह दंभ आखिर उसे किस मार्ग पर लेकर जाएगा कहना कठिन हैं किंतु देश के भीतर कांग्रेस के इस व्यवहार से एक तरह का अवसाद और निराशा घर कर गयी है। इसके चलते कांग्रेस के युवराज की एक आम आदमी के पक्ष के कांग्रेस का साफ-सुथरा चेहरा बनाने की कोशिशें भी प्रभावित हुयी हैं। आप लोंगों पर गोलियां चलाते हुए (पूणे), लाठियां भांजते हुए (रामदेव की सभा) और लोगों को जेलों में ठूंसते हुए (अन्ना प्रसंग) कितने भी लोकतंत्रवादी और आम आदमी के समर्थक होने का दम भरें, भरोसा तो टूटता ही है। अफसोस यह है कि आम आदमी की बात करने वाले विपक्षी दलों के नेताओं की भूमिका भी इस मामले में पूरी तरह संदिग्ध है। अवसर का लाभ लेने में लगे विपक्षी दल अगर सही मायने में बदलाव चाहते हैं तो उन्हें अन्ना के साथ लामबंद होना ही होगा। पूरी दुनिया में पारदर्शिता के लिए संघर्ष चल रहे हैं, भारत के लोगों को भी अब एक सार्थक बदलाव के लिए, लंबी लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए।