असहमति को स्वीकारने का साहस हमारे सत्ताधारियों में कहां है
-संजय द्विवेदी
असहमति को स्वीकारने की विधि हमारे सत्ताधारियों को छः दशकों के हमारे लोकतंत्र ने सिखाई कहां है?इसलिए अन्ना हजारे के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ जो अनपेक्षित हो। यह न होता जो आश्चर्य जरूर होता। लोकतंत्र इस देश में सबसे बड़ा झूठ है,जिसकी आड़ में हमारे सारे गलत काम चल रहे हैं। संसद और विधानसभाएं अगर बेमानी दिखने लगी हैं तो इसमें बैठने वाले इस जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। साढ़े छः दशक का लोकतंत्र भोग लेने के बाद लालकिले से प्रधानमंत्री उसी गरीबी और बेकारी को कोस रहे हैं। यह गरीबी, बेकारी, भुखमरी और तंगहाली अगर साढ़े छः दशक की यात्रा में खत्म नहीं हुयी तो क्या गारंटी है कि आने वाले छः दशकों में भी यह खत्म हो जाएगी। अमीर और गरीब की खाई इन बीस सालों में जितनी बढ़ी है उतनी पहले कभी नहीं थी। अन्ना एक शांतिपूर्ण अहसमहमति का नाम हैं, इसलिए वे जेल में हैं। नक्सलियों, आतंकवादियों और अपराधी जमातों के प्रति कार्रवाई करते हमारे हाथ क्यों कांप रहे हैं?अफजल और गुरू और कसाब से न निपट पाने वाली सरकारें अपने लोगों के प्रति कितनी निर्मम व असहिष्णु हो जाती हैं यह हम सबने देखा है। रामदेव और अन्ना के बहाने दिल्ली अपनी बेदिली की कहानी ही कहती है।
बदजबानी और दंभ के ऐसे किस्से अन्ना के बहाने हमारे सामने खुलकर आए हैं जो लोकतंत्र को अधिनायकतंत्र में बदलने का प्रमाण देते हैं। कपिल सिब्बल और मनीष तिवारी जैसै दरबारियों की दहाड़ और हिम्मत देखिए कि वे अन्ना और ए. राजा का अंतर भूल जाते हैं। ऐसे कठिन समय में अन्ना हजारे हमें हमारे समय के सच का भान भी कराते हैं। वे न होते तो लोकतंत्र की सच्चाईयां इस तरह सामने न आतीं। एक सत्ता किस तरह मनमोहन सिंह जैसे व्यक्ति को एक रोबोट में रूपांतरित कर देती है, यह इसका भी उदाहरण है। वे लालकिले से क्या बोले, क्यों बोले ऐसे तमाम सवाल हमारे सामने हैं। आखिर क्या खाकर आप अन्ना की नीयत पर शक कर रहे हैं। आरएसएस और न जाने किससे-किससे उनकी नातेदारियां जोड़ी जा रही हैं। पर सच यह है कि पूरे राजनीतिक तंत्र में इतनी घबराहट पहले कभी नहीं देखी गयी। विपक्षी दल भी यहां कौरव दल ही साबित हो रहे हैं। वे मौके पर चौका लगाना चाहते हैं किंतु अन्ना के उठाए जा रहे सवालों पर उनकी भी नीयत साफ नहीं है। वरना क्या कारण था कि सर्वदलीय बैठक में अन्ना की टीम से संवाद करने पर ही सवाल उठाए गए। यह सही मायने में दुखी करने वाले प्रसंग हैं। राजनीति का इतना असहाय और बेचारा हो जाना बताता है कि हमारा लोकतंत्र कितना बेमानी हो चुका है। किस तरह उसकी चूलें हिल रही हैं। किस तरह वह हमारे लिए बोझ बन रहा है। भारत के शहीदों की शहादत को इस तरह व्यर्थ होता देखना क्या हमारी नीयत बन गयी है। सवाल लोकपाल का नहीं उससे भी बड़ा है। सवाल प्रजातांत्रिक मूल्यों का है। सवाल इसका भी है कि असहमति के लिए हमारे लोकतंत्रांत्रिक ढांचें में स्पेस कम क्यों हो रहा है।
सवाल यह भी है कि कश्मीर के गिलानी से लेकर माओवादियों का खुला समर्थन करने वाली अरूंधती राय तक दिल्ली में भारत की सरकार को गालियां देकर, भारत को भूखे-नंगों का देश कह कर चले जाएं किंतु दिल्ली की बहादुर पुलिस खामोश रहती है। उसी दिल्ली की सरकार में अफजल गुरू के मृत्युदंड से संबंधित फाइल 19 रिमांडर के बाद भी धूमती रहती है। किंतु बाबा रामदेव और अन्ना हजारे के लिए कितनी त्वरा और कितनी गति है। यह गति काश आतंकियों, उनके पोषकों, माओवादियों के लिए होती तो देश रोजाना खून से न नहाता। किंतु हमारा गृहमंत्रालय भगवा आतंकवाद, बाबा रामदेव और अन्ना हजारे की कुंडलियां तलाशने में लगा है। मंदिर में सोने वाले एक गांधीवादी के पीछे लगे हाथ खोजे जा रहे हैं। आंदोलन को बदनाम करने के लिए अन्ना हजारे को भी अपनी भ्रष्ट मंडली का सदस्य बताने की कोशिश हो रही है। आखिर इससे हासिल क्या है। क्या अन्ना का आभा इससे कम हुयी है या कांग्रेस के दंभ से भरे नेता बेनकाब हो रहे हैं। सत्ता कुछ भी कर सकती है, इसमें दो राय नहीं किंतु वह कब तक कर सकती है-एक लोकतंत्र में इसकी भी सीमाएं हैं। चाहे अनचाहे कांग्रेस ने खुद को भ्रष्टाचार समर्थक के रूप में स्थापित कर लिया है। अन्य दल दूध के धुले हैं ऐसा नहीं हैं किंतु केंद्र की सत्ता में होने के कारण और इस दौर में अर्जित अपने दंभ के कारण कांग्रेस ने अपनी छवि मलिन ही की है। कांग्रेस का यह दंभ आखिर उसे किस मार्ग पर लेकर जाएगा कहना कठिन हैं किंतु देश के भीतर कांग्रेस के इस व्यवहार से एक तरह का अवसाद और निराशा घर कर गयी है। इसके चलते कांग्रेस के युवराज की एक आम आदमी के पक्ष के कांग्रेस का साफ-सुथरा चेहरा बनाने की कोशिशें भी प्रभावित हुयी हैं। आप लोंगों पर गोलियां चलाते हुए (पूणे), लाठियां भांजते हुए (रामदेव की सभा) और लोगों को जेलों में ठूंसते हुए (अन्ना प्रसंग) कितने भी लोकतंत्रवादी और आम आदमी के समर्थक होने का दम भरें, भरोसा तो टूटता ही है। अफसोस यह है कि आम आदमी की बात करने वाले विपक्षी दलों के नेताओं की भूमिका भी इस मामले में पूरी तरह संदिग्ध है। अवसर का लाभ लेने में लगे विपक्षी दल अगर सही मायने में बदलाव चाहते हैं तो उन्हें अन्ना के साथ लामबंद होना ही होगा। पूरी दुनिया में पारदर्शिता के लिए संघर्ष चल रहे हैं, भारत के लोगों को भी अब एक सार्थक बदलाव के लिए, लंबी लड़ाई के लिए तैयार हो जाना चाहिए।
har sattadhari yahi karta hai
जवाब देंहटाएंअन्ना बम कांग्रेस शासनकाल में फूटा ये कांग्रेस का दुर्भाग्य है। अगर यह भाजपा के शासनकाल में फूटता तो आपके लेख पढ़ने में मुझ और मजा आता।
जवाब देंहटाएंसही लिखा है।
जवाब देंहटाएंऔर कुछ उम्मीद भी नहीं की जा सकती, सरकार से।
नपुंसक लोग हैं सत्तासीन।
वो चाहते हैं सब वैसा हो जाएं,
मर्द बनने की कोशिश करने वालों के साथ और कैसा बर्ताव करेंगे ये।
बहुत अच्छा लेख। कमाल की बात यह है की इस देश में बहुत कम लोग भरष्टाचार के खिलाफ बोलते हैं और अगर कोई बोलता है तो उसकी आवाज़ दबा दी जाती है।
जवाब देंहटाएंयत्र........ तत्र ........सर्वत्र.....!! ये पंक्तियाँ कभी प्रसिद्ध व्यंगकार शरद जोशी ने भ्रष्टाचार के लिए लिखी थी..... मगर आज यही पंक्तियाँ अन्ना के आन्दोलन पर एक दम सटीक बैठ रही है..... यहाँ, वहां हर जगह व्याप्त भ्रष्टाचार का विरोध भी यत्र........ तत्र ........सर्वत्र.... हो रहा है....... हर ओर अन्ना सिर्फ अन्ना हैं,,,,,,, अब सरकार को सोचना ही होगा......!! क्या सही है क्या गलत....??
जवाब देंहटाएंsuperb article sir...
जवाब देंहटाएंvery true and even inspiring...
aapne toh sab kuch bol diya hai...kuch comment de hi nhi sakte :D
True. We could not learn to respect opposite views in last 60 years. Actually u r right when u say that there is a phony democracy in India.
जवाब देंहटाएंBut that is what we all (including people sitting in the parliament) know very well. That is why they are able to manipulate things.
The question is how to check them, how to work towards proper democracy? We have to address these basic questions.
... saarthak charchaa ... prabhaavshaalee va prasanshaneey abhivyakti !!
जवाब देंहटाएंभारत में भ्रष्टाचार की जड़े इतनी मजबूत हो गई है कि इन्हें उखाड़ पाना बहुत मुस्किल हो गया है और जो लोग इन्हे उखाड़ने का प्रयत्न मात्र ही करते है, जड़े उन्ही के गले की फास बन जाती है। शायद कुछ ऐसा ही सरकार अन्ना हजारे के साथ कर रही है।
जवाब देंहटाएंहमेशा की तरह , सार्थक , सटीक और सवाल उठाता है आपका लेख | इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है | लेकिन आपके अंदाजे बयाँ सबसे निराले हैं | बात को अपने अंदाज में कहना और इस तरह से कहना की जनसाधारण को भी समझ आ जाए | यही आपकी लेखनी की विशेषता है | वरना कौन पढ़ना चाहता है आजकल राजनीती से सम्बन्धित लेख | आपका विश्लेषण बहुत खूब है | वाकई आज देश अपनी उदास और निराश आखों से चारों और देख रहा है की कोई तो जिसे देश की बागडौर सौपी जाए |
जवाब देंहटाएंचलो अन्ना के बहाने ही सही देश के सामने कांग्रेस का चेहरा साफ हुआ | आपके ज्वलंत सवाल सोचने पर मजबूर करते है | देश तो सोच ही रहा है | लेकिन लेकिन लेकिन उनका क्या करे जो सोचना ही नहीं चाहते | जिनको शर्म नहीं आती | वो अपने मद में इतने बौराए है की उन्हें ये भी खबर नहीं की देश की धडकने क्या कहती है | देश के युवा क्या सोचते है | की देश के पत्रकार क्या लिख रहे है | काश वो ये लेख ही पढ़ लेते |