- संजय द्विवेदी
देश के तमाम बुद्धिजीवियों ने अन्ना हजारे के आंदोलन की अपने-अपने तरीके से आलोचना प्रारंभ कर दी है। वे जो सवाल उठा रहे हैं वे भटकाव भरे तो हैं ही, साथ ही उससे चीजें सुलझने के बजाए उलझती हैं। किंतु हमें एक निहत्थे देहाती आदमी की इस बात के लिए तारीफ करनी चाहिए कि उसने दिल्ली में आकर केंद्रीय सत्ता के आतंक, चमकीले प्रलोभनों और कुटिल वकीलों व हावर्ड से पढ़कर लौटे मंत्रियों को जनशक्ति के आगे घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया। आंदोलन में एक बेहद भावात्मक अपील होने के बावजूद देश में घटी इस घटना को एक ऐतिहासिक समय कहा जा सकता है।
सत्ता और राज्य (स्टेट) की ओर से उछाले गए प्रश्नों के जो उत्तर अन्ना हजारे ने दिए हैं, वे भी जनता का प्रबोधन करने वाले हैं और लोकतंत्र को ताकत देते हैं। इस आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि यह भारतीय जनता को मुस्कराने का एक अवसर दे रहा है। उसकी खत्म हो चुकी उम्मीदों में पंख लगा रहा है। “कुछ नहीं हो सकता” के अवसाद को खत्म कर रहा है। इसके साथ ही अन्ना ने ‘इंडिया’ और ‘भारत’ को एकजुट कर दिया है। जाति,भाषा, धर्म, क्षेत्र से अलग इस आंदोलन में एक राष्ट्रीय भाव को उभरते हुए हम सब देख रहे हैं। दुनिया भर में चल रहे पारदर्शिता के आंदोलनों की कड़ी में यह अपने ढंग का एक अनोखा आंदोलन है। अफसोस की इस आंदोलन की ताकत का भान हमारे उन नेताओं को भी नहीं था, जो जनता की नब्ज पर हाथ रखने का दावा करते हैं। किंतु हमें अन्ना ने बताया कि नब्ज कहां और उन्होंने जनता की नब्ज पर हाथ रख दिया है।
वैकल्पिक राजनीति की दिशाः
अन्ना भले राजनीति में न हों और अराजनैतिक होने के दावों से उनके नंबर बढ़ते हों, किंतु यह एक ऐसी राजनीति है जिसकी देश को जरूरत है। दलों के ऊपर उठकर देश का विचार करना। अन्ना की राजनीति ही सही मायने में वैकल्पिक राजनीति तो है ही और यही राष्ट्रीय राजनीति भी है। लोकतंत्र में जब परिवर्तन की, विकल्पों की राजनीति, सच्चे विचारों की बहुलता, जल-जंगल-जमीन और कमजोर वर्गों के सवाल के कमजोर पड़ते हैं तो वह भोथरा हो जाता है। वह नैराश्य भरता है और समाज को कमजोर बनाता है। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के बाद पैदा हुए संकटों के खिलाफ देश के अनेक स्थानों पर छोटे-छोटे समूह काम कर रहे हैं। वे प्रतिरोध की चेतना को जागृत भी कर रहे हैं। किंतु इस सबके बीच एक समाज का एक सामूहिक दर्द भी है- ‘महंगाई और भ्रष्टाचार’। अन्ना ने इन्हीं दो सवालों को संबोधित किया है। शायद इसीलिए के चलते ‘इंडिया’ और ‘भारत’ मिलकर कह रहे हैं- “मैं भी अन्ना।” हमारी मुख्यधारा की राजनीति के पास आम आदमी, वंचित वर्गों के सवालों पर सोचने और बात करने का अवकाश कहां हैं। लेकिन बाबा आमटे, अन्ना हजारे, सुंदरलाल बहुगुणा, नाना जी देशमुख, ब्रम्हदेव शर्मा, मेधा पाटकर, शंकरगुहा नियोगी जैसी अनेक छवियां याद आती हैं जिनके मन में इस देश को एक वैकल्पिक राजनीति देने का हौसला दिखता है। मुख्यधारा की राजनीति द्वारा छोड़े गए सवालों से ये टकराते हैं। गांवों और आदिवासियों के प्रश्नों पर संवाद करते हुए दिखते हैं। सत्ताकामी राजनीति से विलग ये ऐसे काम थे जिनका मूल्यांकन होना चाहिए और उनके लिए भी समाज में एक जगह होनी चाहिए। अन्ना हजारे इस मामले में भाग्यशाली हैं कि उन्होंने समय द्वारा निर्मित परिस्थितियों में एक नायक का दर्जा मिल गया।
सवालों पर गंभीर नहीं है संसदः
यह देखना दिलचस्प है कि हमारी संसद को इन प्रश्नों पर कभी बहुत गंभीर नहीं देखा गया। शायद इसीलिए वैकल्पिक राजनीति और उसके सवाल सड़क पर तो जगह बनाते हैं पर संसद में उन्हें आवाज नहीं मिलती। जब जनता के सवालों से संसद मुंह मोड़ लेती है तब ये सवाल सड़कों पर नारों की शक्ल ले लेते हैं। दिल्ली में ही नहीं देश में ऐसे ही दृश्य उपस्थित हैं, क्योंकि संसद ने लंबे अरसे से महंगाई और भ्रष्टाचार के सवालों पर जैसी रस्मी बातें और बहसें कीं, वह जनता के गले नहीं उतरीं। वैकल्पिक राजनीति को ऐसे घटाटोप में स्पेस मिल ही जाता है। संसद और जनप्रतिनिधि यहां पीछे छूट जाते हैं। अब वह जनता सड़क पर है, जो स्वयंभू है। ‘जन’ से बड़ी संसद नहीं है, ‘जन’ ही स्वयंभू है- यह एक सच है। सत्ता या राज्य जिसे आसानी से नहीं स्वीकारते। इसलिए वे प्रतिरोधों को कुचलने के लिए हर स्तर पर उतर आते हैं।
यह मानने में हिचक नहीं होनी चाहिए संविधान साफ कहता है कि “हम भारत के लोग” किंतु राजनीति इस तथ्य को स्वीकारने को तैयार नहीं है वह कहना चाह रही है कि –“हम संसद के लोग।” ऐसे में अन्ना और उन जैसे तमाम लोगों की वैकल्पिक राजनीति ही संविधान की असली आत्मा की रक्षा करते हुए दिखती है। अन्ना हजारे का उदय इसी वैकल्पिक राजनीति का उत्कर्ष है। इस आंदोलन ने जनता के इस कष्ट और अविश्वास को प्रकट कर दिया है, अब वह अपनी सरकार और संसद की प्रतीकात्मक कार्रवाईयों से आगे कुछ होते हुए देखना चाहती है।
जोश के साथ होश में है आंदोलनः
अन्ना के आंदोलन के आरंभिक दिन लगभग अहिंसक ही हैं। पूरा आंदोलन जोश के साथ होश को संभाले हुए हैं। जिसे आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर ने रेखांकित भी किया। इसके मायने यहीं हैं कि देश की जनता में महात्मा गांधी द्वारा रोपे गए अहिंसा के भाव अभी सूखे नहीं हैं। गांधी की लंबी छाया में यह देश आज भी जीता है। देश के तमाम हिस्सों से ऐसे ही प्रदर्शनों की मनोहारी छवियां दिख रही हैं। आधुनिक मीडिया और उसकी प्रस्तुति ने प्रदर्शनों में विविधता व प्रयोगों को भी रेखांकित किया है। सत्ता के लिए जूझने वाले दल यहां अप्रासंगिक हो गए लगते हैं। युवाओं, बच्चों और महिलाओं के समूह एक बदलाव की प्रेरणा से घरों से निकलते हुए दिखते हैं। अफसोस यह कि इस बदलाव की आंधी और जनाकांक्षा को समझ पाने में सरकार और प्रतिपक्ष के दल भी सफल नहीं रहे। आज भी उनका दंभ उनके बयानों और देहभाषा से झलकता है। एक अहिंसक अभियान से निपटने की कोशिशें चाहे वह बाबा रामदेव के साथ हुयी हों या अन्ना हजारे के साथ, उसने जनता के आक्रोश को बढ़ाने का ही काम किया। अपनी जनविरोधी क्रूरता के प्रकटीकरण के बाद सरकार अंततः जनशक्ति के आगे घुटने टेकने को मजबूर हो गयी। राणेगढ़ सिद्धी से आए एक ग्रामीण ने, जिसने नवीं तक शिक्षा पायी है, ने दिल्ली के दर्प का दमन कर दिया। अन्ना हजारे की इस पूरी लड़ाई में केंद्र सरकार ने पहले गलत कदम उठाए, फिर एक-एक कर कदम पीछे लिए हैं, उससे सत्ता की जगहंसाई ही हो रही है। राज्य की मूर्खताओं और दमनकारी चरित्र को चुनौती देते हुए हजारे इसीलिए जनता की आवाज बन गए हैं, क्योंकि उनका रास्ता उनके गांव से शुरू होकर वापस उनके गांव ही जाता है। यह आवाज इतनी प्रखर और सत्ता के कान फाड़ देने वाली इसलिए लग रही है क्योंकि उसे राजसत्ता का वरण नहीं करना है।
बंदी बनी सरकारः
अन्ना को बंदी बनाकर, खुद बंदी बनी सरकार के पास इस क्षण के इस्तेमाल का समय अभी भी गया नहीं हैं, किंतु उसने अन्ना और जनशक्ति को कम आंकने की भूल की, इसमें दो राय नहीं है। केंद्र सरकार ने जनता के प्रश्नों पर जैसी आपराधिक लापरवाहियां बरतीं उसने जनता के गुस्से को सामूहिक असंतोष में बदल दिया। देश के नाकारा विपक्ष की दिशाहीनता के बावजूद भी, जब अन्ना हजारे जैसा पारदर्शी, प्रामाणिक नेतृत्व जनता के सामने दिखा तो आम आदमी की उम्मीदें लहलहा उठीं। सत्ता के कुटिल प्रवक्ताओं और चतुर मंत्रियों की चालें भी दिल्ली में आए इस ऋषि की तपस्या को भंग न कर सकीं। उम्मीद की जानी कि दिल्ली की सरकार देश की जनता के साथ छल न करते हुए एक सबक ले और अन्ना द्वारा उठाए गए सवालों के सार्थक समाधान की दिशा में प्रयास करे।
अन्न ने न केवल दिल्ली का दर्प दमन किया है बल्कि महीने के पंद्रह दिन आंदोलनों,हड़ताल और घेराव से त्रस्त रहने वाली दिल्ली को यह भी दिखा दिया की शांति के साथ लोगों को परेशान किए बिना भी आंदोलन किया जा सकता है। एक पत्रकार के तौर पर इस आंदोलन को कवर करते हुए मुझे कभी भी यह महसूस नहीं हो रहा है कि आंदोलनकारियों ने आम जन को परेशान कर रखा हो और वैसे भी इस आंदोलन में कोई कार्यकर्ता नहीं है बल्कि सभी आम लोग ही हैं। संजय जी को इस शानदार आलेख के लिए कोटिश: बधाई।
जवाब देंहटाएंAnna ke aandolan ko ab sirf dilli tak simit nahi kaha jaa sakta. Aaj pure din Navi Mumbai ka yah Kharghar ilaakaa "ANNA TUM SANGHARSH KARO, HUM TUMHARE SATH HAIN" aur "BHARATMATA KI JAY" jaise naaro se gunjata raha. Sadko par juloos hote rahe jisme na sirf yaha ke yuva balki sabhi umra sabhi tabke ke log shaamil the.
जवाब देंहटाएंMahilaaye, bachche, sambrant parivaar ke sadasyon se lais is juloos ko dekhkar pahli baar mahsoos hua ki janta vaastav me ek bhrashtachhar mukt samaaj me jeene ko utsuk hai.
Aise me aap jaise patrakaar evam margdarshak ki lekhni aam jan ke manobal ko badhane ka nek kaam kar rahi hai.
Anna ke sath sath aapko bhi mera purna sahyog hai.
आपका लेख पढ़ा संजय जी. काफ़ी हद तक सहमत हूँ. आपने सही रेखांकित किया है कि अराजनीतिक होते हुए भी अन्ना ने राजनीतिकों के होश ठिकाने कर दिया हैं.
जवाब देंहटाएंआपने सही ही कहा है कि '' संविधान साफ कहता है कि “हम भारत के लोग” किंतु राजनीति इस तथ्य को स्वीकारने को तैयार नहीं है वह कहना चाह रही है कि –“हम संसद के लोग।” ऐसे में अन्ना और उन जैसे तमाम लोगों की वैकल्पिक राजनीति ही संविधान की असली आत्मा की रक्षा करते हुए दिखती है।'' किसी भी राष्ट्र में जनता से बड़ा कुछ नही होता. जो इसे नही मानना चाहते हैं वो असल में क्रूर तानाशाही मानसिकता के बीमार लोग हैं.
इस देश में डर मूर्खों और आलसियों से नही है संजय जी जी, डर उनसे है, जो बहुत योजनाबद्ध ढंग से गरीबों और पिछड़ों के कंधे पर बन्दूक रखकर अपना जाती मामला और खुदगर्जी को पूरा करने में लगे हुए हैं! इनसे पूछा जाना चाहिए कि ये गलत, वो गलत और वो भी गलत तो फिर सही क्या है भाई लोगों ? गलत को गलत बताते हो, चलो ठीक है लेकिन उसकी जगह कोई सही उपाय भी तो बताओ! नही तो हम तुम्हारी ही नीयत पर शक क्यों न करें ? अन्ना और उनकी टीम गलत है तो उसका विकल्प भी तो बताओ ! और नही बता सकते तो तुमसे बड़ा चोर और कोई नही.
प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि सिर्फ़ संसद सर्वोच्च है, तो फिर देश की जनता क्या है? संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत '' हम भारत के लोग ....'' से होती है तो सर्वोच्च कौन हुआ ?देश की जनता या संसद? क्या कानून बनाने की मांग जनता नही कर सकती? अन्ना ने कब कहा कि कानून वे बनायेंगें? अन्ना सिर्फ़ ये चाहते हैं कि डकैती पर कानून बनना हो तो डकैती पर ही बने न कि चोरी पर! लेकिन डकैत चाह रहे हैं कि चोरी पर कानून बना कर वे छुट्टा डकैती करते रहें !
इस लेख के लिए संजय जी आपको साधुवाद !
आज कुशल कूटनीतिज्ञ योगेश्वर श्री किसन जी का जन्मदिवस जन्माष्टमी है, किसन जी ने धर्म का साथ देकर कौरवों के कुशासन का अंत किया था। इतिहास गवाह है कि जब-जब कुशासन के प्रजा त्राहि त्राहि करती है तब कोई एक नेतृत्व उभरता है और अत्याचार से मुक्ति दिलाता है। आज इतिहास अपने को फ़िर दोहरा रहा है। एक और किसन (बाबु राव हजारे) भ्रष्ट्राचार के खात्मे के लिए कौरवों के विरुद्ध उठ खड़ा हुआ है। आम आदमी लोकपाल को नहीं जानता पर, भ्रष्ट्राचार शब्द से अच्छी तरह परिचित है, उसे भ्रष्ट्राचार से मुक्ति चाहिए।
जवाब देंहटाएंआपको जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं एवं हार्दिक बधाई।
ये तो होना ही था। अन्ना को हल्के से लेने का कांग्रेस को खामियाजा भुगतना ही होगा। दरअसल हमारे राजनेताओं को ये गुमान है कि वो ही जनता या जनसमर्थन की राजनीति करना जानते है। और अन्ना के मामले में मनीष तिवारी, कपिल सिब्बल, दिग्विजय सिंह की मूर्खताएं इसी का एक जीता-जागता सबूत है।
जवाब देंहटाएंश्रीकृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक बधाई एवं शुभकामनाएं !
जवाब देंहटाएंइन दिनों देश से केवल एक ही खबर पूरे विश्व में एक साथ चर्चा का विषय बनी हुई है...और वो है भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की मुहिम...जिसमें एक बार फिर पूरा देश एक साथ उठ खड़ा हुआ है....अन्ना की आंधी का प्रभाव दिल्ली में ही नहीं विदेशों में भी देखने को मिल रहा है सर....उनकी एक आवाज पर जनता एकजुट हो गई है....जिसे देखकर थोड़ी संतुष्टि जरूर मिल रही है....
जवाब देंहटाएंअंग्रेजों के कानून की हूबहू नकल करके बनाये गए कानून में राजा और प्रजा का भेद स्पष्ट दिखायी देता है। लेकिन आश्चर्यजनक बात यह है कि कल तक राजनेता स्वयं को जनप्रतिनिधि और सेवक कहता था लेकिन आज उसकी भाषा राजशाही की पोषक है। संसद जनता से बड़ी हो गयी और जनता के लिए और जनता के द्वारा शब्दों को हाशिये पर डालने का काम किया जा रहा है। मुझे एक बात से सहमति नहीं लगती कि सभी लोग कहते हैं कि विपक्ष नहीं है। यदि विपक्ष नहीं होता तो अन्ना की गिरफ्तारी के बाद संसद में हंगामा नहीं होता। विपक्ष तो है लेकिन उसे भी नकारा सिद्ध कर जनता को यह संदेश दिया जा रहा है कि देश विकल्पहीनता की स्थिति में है। इस कारण जनता का उद्धार केवल कांग्रेस ही कर सकती है। क्या आप अन्ना के मुद्दे पर लोकसभा में बोलते हुए सुषमा स्वराज को और राजसभा में अरूण जेटली को नकार सकते हैं? या यह कह सकते हैं कि वे कमजोर हैं?
जवाब देंहटाएंanna par likhagaya lekh bhi unke aandolan ki tarah sargarbhit aur santulit hai is aandolan ko samajik aandolan hi rakha jai to achha hai jab ham samajik aandolno se apni baat manva sakte hai to rajnitij manch ki jarurat nahi hai
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