-प्रो.संजय द्विवेदी
मुझे पता है एक दिन सबको जाना होता है। किंतु बहुत कम लोग ऐसे होते हैं, जिनके जाने से निजी और सार्वजनिक जीवन में जो शून्य बनता है, उसे भर पाना मुश्किल होता है। श्री मा.गो.वैद्य चिंतक, विचारक, पत्रकार, प्राध्यापक, विधान परिषद के पूर्व सदस्य और मां भारती के ऐसे साधक थे, जिनकी उपस्थिति मात्र यह बताने के लिए काफी थी कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। वे हैं तो सुनेंगें और जरूरत होने पर सुना भी देंगें। उनकी वाणी, कलम और कृति सब एकमेक थे। कहीं कोई द्वंद्व नहीं, कोई भ्रम नहीं।
वे
स्वभाव से शिक्षक थे, जीवन से स्वयंसेवक और वृत्ति(प्रोफेशन) से पत्रकार थे। लेकिन
हर भूमिका में संपूर्ण। कहीं कोई अधूरापन और कच्चापन नहीं। सच कहने का साहस और
सलीका दोनों उनके पास था। वे एक ऐसे संगठन के ‘प्रथम प्रवक्ता’ बने जिसे बहुत ‘मीडिया फ्रेंडली’ नहीं माना जाता।
वे ही ऐसे थे जिन्होंने प्रथम सरसंघचालक से लेकर वर्तमान सरसंघचालक की कार्यविधि
के अवलोकन का अवसर मिला। उनकी रगों में, उनकी सांसों में संघ था। उनके दो पुत्र भी
प्रचारक हैं। जिनमें से एक श्री मनमोहन वैद्य संघ के सहसरकार्यवाह हैं। यानि वे एक
परंपरा भी बनाते हैं, सातत्य भी और सोच भी। 11 मार्च,1923 को जन्मे श्री वैद्य ने
97 साल की आयु में नागपुर में आखिरी सांसें लीं। वे बहुत मेधावी छात्र थे,बाद के
दिनों में वे ईसाई मिशनरी की संस्था
हिस्लाप कालेज, नागपुर में ही प्राध्यापक रहे।
प्रतिबद्धता थी पहचान
उनके अनेक छात्र
उन्हें आज भी याद करते हैं। वरिष्ठ पत्रकार श्री प्रकाश दुबे ने अपने एक
लेख में लिखा है-“मेरी जानकारी के अनुसार श्री माधव गोविंद वैद्य यानी बाबूराव वैद्य से पहले संघ में प्रवक्ता का पद नहीं हुआ करता था। संघ की आत्मकेन्द्रित
गतिविधियों को लेकर तरह तरह के कयास लगाया जाना अस्वाभाविक नहीं था। सरसंघचालक
प्रवास के दौरान संवाद माध्यमों से यदा कदा बात करते। उनके कथन में शामिल वाक्यों
और कई बार तो वाक्यांश के आधार पर विश्लेषण किया जाता। कपोल-कल्पित
धारणाएं तैयार होतीं। श्री वैद्य मेरे गुरु रहे हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में नहीं। श्री वैद्य वर्षों तक संघ से
जुड़े मराठी दैनिक तरुण भारत के संपादक थे। नागपुर विश्वविद्यालय के पत्रकारिता
विभाग में फंडामेंटल्स आफ गुड राइटिंग अंगरेजी पढ़ाते थे। कक्षा में श्री वैद्य से जमकर विवाद
होता। तीखा परंतु, शास्त्रार्थ की परिपाटी का। कहीं
व्यक्तिगत आरोप-प्रत्यारोप नहीं। अपनी धारणा पर श्री वैद्य अटल रहते।” यह साधारण
नहीं था उनके निधन पर देश के प्रधानमंत्री, उपराष्ट्रपति से लेकर सरसंघचालक
ने गहरा दुख जताया। श्री भागवत और सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने अपने संयुक्त वक्तव्य
में कहा कि उनके शरीर छोड़ने से “हम सब संघ कार्यकर्ताओं ने
अपना छायाछत्र खो दिया है।”
विनोदी स्वभाव और विलक्षण
वक्ता
श्री वैद्य को मप्र सरकार ने अपने एक पुरस्कार से सम्मानित किया। उस दिन सुबह भोपाल के एक लोकप्रिय दैनिक
ने यह प्रकाशित किया कि श्री वैद्य संघ के
प्रचारक हैं और उन्हें पत्रकारिता का पुरस्कार दिया जा रहा है। वैद्य जी ने
इस समाचार पर अपनी प्रतिक्रिया बड़ी
सहजता और विनोद भाव से कार्यक्रम में
प्रकट की, आयोजन में मुख्यमंत्री श्री
शिवराज सिंह चौहान भी मंच पर थे। वैद्य जी
ने अपने संबोधन में कहा कि “भोपाल के एक प्रमुख दैनिक
ने लिखा है कि मैं प्रचारक हूं, जबकि मैं प्रचारक नहीं हूं, बल्कि दो
प्रचारकों का बाप हूं।” उनके इस
विनोदी टिप्पणी पर पूरा हाल खिलखिला उठा।
बाद में उन्होंने जोड़ा कि मेरे दो पुत्र प्रचारक हैं।
मेरा सौभाग्य है कि मुझे उनका सानिध्य अनेक बार मिला।
उन्हें सुनना एक विरल अनुभव होता था। इस आयु में भी वे बिना किसी कागज या नोट्स के
बहुत व्यवस्थित बातें करते थे। उनके
व्याख्यानों के विषय बेहद सधे हुए और एक -एक शब्द संतुलित होते थे। 19 नवंबर, 2015
को वर्धा के महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के हबीब तनवीर सभागृह
में उन्होंने पं. दीनदयाल उपाध्याय पर केंद्रित मेरे द्वारा संपादित पुस्तक ‘भारतीयता का संचारक –दीनदयाल उपाध्याय’ का लोकार्पण भी किया। यहां उन्होंने राष्ट्रवाद पर बेहद
मौलिक व्याख्यान दिया और भारतीय राष्ट्रवाद और पश्चिमी राष्ट्रवाद को बिलकुल नए
संदर्भों में व्याख्यायित किया।
श्री वैद्य एक
संपादक के रुप में बहुत प्रखर थे। उनकी लेखनी और संपादन प्रखरता का आलम यह था कि
तरूण भारत मराठी भाषा का एक लोकप्रिय दैनिक बना। उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व में अनेक पत्रकारों का निर्माण किया और
पत्रकारों की एक पूरी मलिका खड़ी की। जीवन के अंतिम दिनों तक वे लिखते-पढ़ते रहे,
उनकी स्मृति विलक्षण थी।
कुशल संपादक और पारखी नजर
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल ने उन्हें 2018 डी.लिट् की मानद उपाधि से सम्मानित करने का निर्णय लिया। इस वर्ष श्री अमृतलाल वेगड़, श्री महेश श्रीवास्तव और श्री वैद्य को डी.लिट् की उपाधि मिलनी थी। माननीय उपराष्ट्रपति श्री वैकेंया नायडू दीक्षांत समारोह के लिए 16 मई,2018 को भोपाल पधारे। विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष के नाते उन्होंने इन नामों की घोषणा की। अपने स्वास्थ्य के चलते श्री वैद्य आयोजन में नहीं आ सके। तत्कालीन कुलपति श्री जगदीश उपासने ने निर्णय लिया कि 23 मई,2018 को उनके उनके गृहनगर नागपुर में एक सारस्वत आयोजन कर श्री वैद्य को यह उपाधि दी जाए। उस अवसर पर कुलसचिव होने के नाते समारोह का संचालन मैंने किया। समारोह के बाद व्यक्तिगत भेंट में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के 90 वर्ष पूरे होने पर मेरे द्वारा संपादित पुस्तक ‘ध्येय पथ’ की प्रति उन्हें भेंट की। मुझे उनके स्वास्थ्य के नाते लग रहा था कि शायद ही वे पुस्तक को देखें। किंतु 22 जुलाई,2018 को उनका एक मेल मुझे प्राप्त हुआ, जिसमें पुस्तक के बारे में उन्होंने लिखा कि कुछ त्रुटियां यत्र-तत्र हैं। उन्होंने लिखा-
प्रिय प्रो. संजयजी द्विवेदी
सादर सस्नेह नमस्कार।
मुझे मानद डि. लिट्. पदवी देने के अवसर पर आपने सम्पादित की ‘ध्येयपथ’
(राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नौ दशक) यह
पुस्तक भेंट की थी। उसको मैंने अथ से इति तक पूरा पढ़ा। किताब अच्छी है। कुछ
त्रुटियाँ यत्र तत्र दिखी हैं। किन्तु सम्पूर्ण पुस्तक संघ के कार्य की विशेषताओं
को प्रकट करती है।
जब त्रुटियाँ ध्यान में आयी, तब मैंने उनको अंकित नहीं किया था। अत: उनकी
चर्चा मैं यहाँ नहीं करूंगा। केवल ‘संघ की प्रार्थना’ इस प्रकरण के सम्बन्ध में मुझे यह कहना है कि संघ की आज की प्रार्थना
प्रथम बार 1940 में पुणे संघ शिक्षा वर्ग में गायी
गयी थी। बाद में नागपुर में। क्योंकि पुणे का संघ शिक्षा वर्ग प्रथम शुरू हुआ और
बाद में नागपुरका।
प्रार्थना का प्रथम गायन, दोनों स्थानोंपर श्री यादवराव जोशी ने ही किया था। प्रार्थना का मराठी
प्रारूप 1939 में सिन्दी में (नागपुरसे करीब 50 कि.मी.) बनाया गया था।
उस बैठक में प. पू. डॉक्टरजी, प. पू. श्री गुरुजी, माननीय
आप्पाजी जोशी (वर्धा जिला संघचालक), माननीय बालासाहब देवरस आदि ज्येष्ठ-श्रेष्ठ
कार्यकर्ता उपस्थित थे। उसका संस्कृत श्री. नरहरि
नारायण भिडेजी ने किया। वे प्राध्यापक नहीं थे। एक विद्यालय में शिक्षक थे।
अस्तु। शेष सब शुभ।
स्नेहांकित
मा. गो. वैद्य
ऐसे
साधक पत्रकार-संपादक की स्मृतियां अनंत हैं। एक याद जाती है तुरंत दूसरी आती है। उन्हें याद करना एक ऐसे नायक को याद करना
है, जिसके बिना हम पूरे नहीं हो सकते। वे
सही मायने में हमारे समय के साधक महापुरुष थे, जिन्होंने अपनी युवावस्था में जिस
विचार को स्वीकारा अपनी सारी गुणसंपदा उसे
ही समर्पित कर दी। वे उन लोगों मे थे जिन्होंने पहले संघ को समझा और बाद में उसे
गढ़ने में अपनी जिंदगी लगा दी। उनकी पावन स्मृति को शत्-शत् नमन।
शानदार भावुक हृदयस्पर्शी लेख
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख।
जवाब देंहटाएंनमन..🌻
हम लोगों की प्रेरणा तो आप हैं जिसे सुना पढ़ा देखा और साथ रहा।प्रणाम
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