हम गुलाम थे तो एक थे, आजाद होते ही
क्यों बंट गए
-प्रो.संजय
द्विवेदी
भारत
की त्रासदी है कि बंटवारे की राजनीति आज भी यहां फल-फूल रही है। आजादी का अमृत
महोत्सव मनाते हुए भी हम इस रोग से मुक्त नहीं हो पाए हैं। यह सोचना कितना व्यथित
करता है कि जब हम गुलाम थे तो एक थे, आजाद होते ही बंट गए। यह बंटवारा सिर्फ भूगोल
का नहीं था, मनों का भी था। इसकी कड़वी यादें आज भी तमाम लोगों के जेहन में ताजा
हैं। आजादी का अमृत महोत्सव वह अवसर है कि हम दिलों को जोड़ने, मनों को जोड़ने का
काम करें। साथ ही विभाजन करने वाली मानसिकता को जड़ से उखाड़ फेंकें और राष्ट्र
प्रथम की भावना के साथ आगे बढ़ें। भारत चौदहवीं सदी के ही पुर्तगाली आक्रमण के बाद
से ही लगातार आक्रमणों का शिकार रहा है। 16वीं सदी में डच और फिर फ्रेंच, अंग्रेज,
ईस्ट इंडिया कंपनी इसे पददलित करते रहे। इस लंबे कालखंड में भारत ने अपने तरीके से
इसका प्रतिवाद किया। स्थान-स्थान पर संघर्ष चलते रहे। ये संघर्ष राष्ट्रव्यापी,
समाजव्यापी और सर्वव्यापी भी थे। इस समय में आपदाओं, अकाल से भी लोग मरते रहे।
गोरों का यह वर्चस्व तोड़ने के लिए हमारे
राष्ट्र नायकों ने संकल्प के साथ संघर्ष किया और आजादी दिलाई। आजादी का अमृत
महोत्सव मनाते समय सवाल उठता है कि क्या हमने अपनी लंबी गुलामी से कोई सबक भी सीखा
है?
जड़ों की ओर लौटें-
आजादी के आंदोलन में हमारे नायकों की भावनाएं
क्या थीं? भारत की अवधारणा क्या है? यह जंग हमने किसलिए और
किसके विरूद्ध लड़ी थी? क्या यह सिर्फ सत्ता परिवर्तन का
अभियान था? इन सवालों का उत्तर देखें तो हमें पता चलता है कि
यह लड़ाई स्वराज की थी, सुराज की थी, स्वदेशी की थी, स्वभाषाओं की थी, स्वावलंबन
की थी। यहां ‘स्व’ बहुत ही खास है। समाज
जीवन के हर क्षेत्र, वैचारिकता ही हर सोच पर ‘अपना विचार’ चले। यह भारत के मन की और उसके सोच की स्थापना की लड़ाई भी थी। महर्षि
अरविंद, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, लोकमान्य तिलक, महात्मा गांधी, वीर
सावरकर हमें उन्हीं जड़ों की याद दिलाते हैं। आज देश को जोड़नेवाली शक्तियों के सामने एक गहरी
चुनौती है, वह है देश को बांटने वाले विचारों से मुक्त कराना। भारत की पहचान
अलग-अलग तंग दायरों में बांटकर, समाज को कमजोर करने के कुत्सित इरादों को बेनकाब
करना। देश के हर मानविंदु पर सवाल उठाकर, नई पहचानें गढ़कर मूर्तिभंजन का काम किया
जा रहा है। नए विमर्शों और नई पहचानों के माध्यम से नए संघर्ष भी खड़े किए जा रहे
हैं।
न भूलें इस आजादी का मोल-
खालिस्तान, नगा, मिजो, माओवाद, जनजातीय समाज
में अलग-अलग प्रयास, जैसे मूलनिवासी आदि मुद्दे बनाए जा रहे हैं। जेहादी और
वामपंथी विचारों के बुद्धिजीवी भी इस अभियान में आगे दिखते हैं। भारतीय जीवन शैली,
आयुर्वेद, योग, भारतीय भाषाएं, भारत के मानबिंदु, भारत के गौरव पुरूष, प्रेरणापुंज
सब इनके निशाने पर हैं। राष्ट्रीय मुख्यधारा में सभी समाजों, अस्मिताओं का
एकत्रीकरण और विकास के बजाए तोड़ने के अभियान तेज हैं। इस षडयंत्र में अब
देशविरोधी विचारों की आपसी नेटवर्किंग भी साफ दिखने लगी है। संस्थाओं को कमजोर
करना, अनास्था, अविश्वास और अराजकता पैदा करने के प्रयास भी इन गतिविधियों में दिख
रहे हैं। 1857 से 1947 तक के लंबे कालखंड में लगातार लड़ते हुए। आम जन की शक्ति
भरोसा करते हुए। हमने यह आजादी पाई है। इस आजादी का मोल इसलिए हमें हमेशा स्मरण
रखना चाहिए।
भारतीयता हमारी पहचान-
दुनिया
के सामने लेनिन, स्टालिन,माओ के राज के उदाहरण सामने हैं। मानवता का खून बहाने के
अलावा इन सबने क्या किया। इनके कर्म आज समूचे विश्व के सामने हैं। यही मानवता
विरोधी और लोकतंत्र विरोधी विचार आज भारत को बांटने का स्वप्न देख रहे हैं। आजादी
अमृत महोत्सव और गणतंत्र दिवस का संकल्प यही हो कि हम लोगों में भारतभाव,
भारतप्रेम, भारतबोध जगाएं। भारत और भारतीयता हमारी सबसे बड़ी और एक मात्र पहचान
है, इसे स्वीकार करें। कोई किताब, कोई पंथ इस भारत प्रेम से बड़ा नहीं है। हम भारत
के बनें और भारत को बनाएं। भारत को जानें और भारत को मानें। इसी संकल्प में हमारी मुक्ति
है। हमारे सवालों के समाधान हैं। छोटी-छोटी अस्मिताओं और भावनाओं के नाम पर लड़ते
हुए हम कभी एक महान देश नहीं बन सकते। इजराइल, जापान से तुलना करते समय हम उनकी
जनसंख्या नहीं, देश के प्रति उन देशों के नागरिकों के भाव पर जाएं। यही हमारे
संकटों का समाधान है।
गणतंत्र दिवस को संकल्पों का दिन बनाएं-
समाज को
तोड़ने उसकी सामूहिकता को खत्म करने के प्रयासों से अलग हटकर हमें अपने देश को
जोड़ने के सूत्रों पर काम करना है। जुड़कर ही हम एक और मजबूत रह सकते हैं। समाज
में देश तोड़ने वालों की एकता साफ दिखती है, बंटवारा चाहने वाले अपने काम पर लगे
हैं। इसलिए हमें ज्यादा काम करना होगा। पूरी सकारात्मकता के साथ, सबको साथ लेते
हुए, सबकी भावनाओं का मान रखते हुए। यह बताने वाले बहुत हैं कि हम अलग क्यों हैं।
हमें यह बताने वाले लोग चाहिए कि हम एक क्यों हैं, हमें एक क्यों रहना चाहिए। इसके
लिए वासुदेव शरण अग्रवाल, धर्मपाल, रामधारी सिंह दिनकर,मैथिलीशरण गुप्त, जयशकंर
प्रसाद, विद्यानिवास मिश्र, निर्मल वर्मा, रामविलास शर्मा जैसे अनेक लेखक हमें
रास्ता दिखा सकते हैं। देश में भारतबोध का जागरण इसका एकमात्र मंत्र है। गणतंत्र
दिवस को हम अपने संकल्पों का दिन बनाएं, एक भारत-श्रेष्ठ भारत और आत्मनिर्भर भारत
का संकल्प लेकर आगे बढ़ें तो यही बात भारत मां के माथे पर सौभाग्य का तिलक बन
जाएगी। हमारी आजादी के आंदोलन के महानायकों के स्वप्न पूरे होंगें, इसमें संदेह
नहीं।
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