-प्रो.
संजय द्विवेदी
हमारे
सामाजिक विमर्श में इन दिनों भारतीयता और उसकी पहचान को लेकर बहुत बातचीत हो रही
है। वर्तमान समय ‘भारतीय
अस्मिता’
के जागरण का समय है। यह ‘भारतीयता
के पुर्नजागरण’
का भी समय है। ‘हिंदु’
कहते ही उसे दूसरे पंथों के समकक्ष रख दिए जाने के खतरे के नाते,
मैं ‘हिंदु’
के स्थान पर ‘भारतीय’
शब्दपद का उपयोग कर रहा हूं। इसका सच तब खुलकर सामने आ जाता है, जब हिंदुत्व
विरोधी ताकतें ही कई अर्थों में भारतीयता विरोधी एजेंडा भी चलाते हुए दिखती हैं।
वे हिंदुत्व को अलग-अलग नामों से लांछित करती हैं। कई बार ‘साफ्ट
हिंदुत्व’
तो कई बार ‘हार्ड
हिंदुत्व’
की बात की जाती है। किंतु डा. राधाकृष्णन की किताब ‘द
हिंदु व्यू आफ लाइफ’
कई अंधेरों को चीरकर हमें सच के करीब ले जाती है। इस दिशा में स्वातंत्र्य वीर
सावरकर की ‘हिंदुत्व’
भी महत्त्वपूर्ण बातें बताती है।
हिंदुत्व शब्द को लेकर समाज के कुछ
बुद्धिजीवियों में जिस तरह के नकारात्मक भाव हैं कि उसके पार जाना कठिन है।
हिंदुत्व की तरह ही हमारे बौद्धिक विमर्श में एक दूसरा सबसे लांछित शब्द है- ‘राष्ट्रवाद’।
इसलिए राष्ट्रवाद के बजाए राष्ट्र, राष्ट्रीयता, भारतीयता और राष्ट्रत्व जैसे
शब्दों का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि ‘राष्ट्रवाद’
की पश्चिमी पहचान और उसके व्याख्यायित करने के पश्चिमी पैमानों ने इस शब्द को कहीं
का नहीं छोड़ा है। इसलिए नेशनलिज्म या राष्ट्रवाद शब्द छोड़कर ही हम भारतीयता के वैचारिक
अधिष्ठान की सही व्याख्या कर सकते हैं।
वर्णव्यवस्था
और जाति के बाद-
भारतीय
समाज को लांछित करने के लिए उस पर सबसे बड़ा आरोप वर्ण व्यवस्था का है। जबकि वर्ण
व्यवस्था एक वृत्ति थी, टेंपरामेंट थी। आपके स्वभाव, मन और इच्छा के अनुसार आप
उसमें स्थापित होते थे। व्यावसायिक वृत्ति का व्यक्ति वहां क्षत्रिय बना रहने को
मजबूर नहीं था, न ही किसी को अंतिम वर्ण में रहने की मजबूरी थी। अब ये चीजें काल
बाह्य हैं। वर्ण व्यवस्था समाप्त है। जाति भी आज रूढ़ि बन गयी किंतु एक समय तक यह
हमारे व्यवसाय से संबंधित थी। हमारे परिवार से हमें जातिगत संस्कार मिलते थे-जिनसे
हम विशेषज्ञता प्राप्त कर ‘जाब
गारंटी’
भी पाते थे। इसमें सामाजिक सुरक्षा थी और इसका सपोर्ट सिस्टम भी था। बढ़ई, लुहार, सोनार, केवट, माली ये जातियां भर
नहीं है। इनमें एक व्यावसायिक हुनर और दक्षता जुड़ी थी। गांवों की अर्थव्यवस्था
इनके आधार पर चली और मजबूत रही। आज यह सारा कुछ उजड़ चुका है। हुनरमंद जातियां आज
रोजगार कार्यालय में रोजगार के लिए पंजीयन करा रही हैं। जाति व्यवस्था और वर्ण
व्यवस्था दोनों ही अब अपने मूल स्वरूप में काल बाह्य हो चुके हैं। अप्रासंगिक हो
चुके हैं। ऐसे में जाति के गुण के बजाए,
जाति की पहचान खास हो गयी है। इसमें भी कुछ गलत नहीं है। हर जाति का अपना इतिहास
है, गौरव है और महापुरुष हैं। ऐसे में जाति भी ठीक है, जाति की पहचान भी ठीक है,
पर जातिभेद ठीक नहीं है। जाति के आधार भेदभाव यह हमारी संस्कृति नहीं। यह मानवीय
भी नहीं और सभ्य समाज के लिए जातिभेद कलंक ही है।
राजनीतिक
नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा से बना राष्ट्र-
हमारा राष्ट्र राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक
अवधारणा से बना है। सत्य,अहिंसा, परोपकार, क्षमा जैसे गुणों के साथ यह राष्ट्र
ज्ञान में रत रहा है, इसलिए यह ‘भा-रत’
है। डा. रामविलास शर्मा इस भारत की पहचान कराते हैं। इसके साथ ही इस भारत को
पहचानने में महात्मा गांधी, धर्मपाल,अविनाश चंद्र दास, डा.राममनोहर लोहिया,वासुदेव
शरण अग्रवाल, डा. विद्यानिवास मिश्र,निर्मल वर्मा हमारी मदद कर सकते हैं। डा.
रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘भारतीय
संस्कृति और हिंदी प्रदेश’
हमारा दृष्टिदोष दूर कर सकती है। आर्य शब्द के मायने ही हैं श्रेष्ठ और राष्ट्र मतलब है
समाज और लोग। शायद इसीलिए इस दौर में तारिक फतेह कह पाते हैं, “मैं
हिंदु हूं, मेरा जन्म पाकिस्तान में हुआ है।”
यानी भारतीयता या
भारत राष्ट्र का पर्याय हिंदुत्व और हिंदु राष्ट्र भी है। क्योंकि यह भौगोलिक
संज्ञा है, कोई पांथिक संज्ञा नहीं है। इन अर्थों में हिंदु और भारतीय तथा
हिंदुत्व और भारतीयता पर्याय ही हैं। हालांकि इस दौर में इसे स्वीकारना कठिन ही
नहीं, असंभव भी है।
विविधता
ही विशेषता-
‘भारतीयता’
भाववाचक शब्द है। यह हर उस आदमी की जमीन है जो इसे अपनी मातृभूमि और पुण्यभूमि
मानता है,
जो इसके इतिहास से अपना रिश्ता जोड़ता है,
जो इसके सुख-दुख और आशा-निराशा को अपने साथ जोड़ता है,
जो इसकी जय में खुश और पराजय में दुखी होता है। समान संवेदना और समान अनुभूति से
जुड़ने वाला हर भारतवासी अपने को भारतीय कहने का हक स्वतः पा जाता है। भारत किसी
के विरुद्ध नहीं है। विविधता में एकता इस देश की प्रकृति है,
यही
प्रकृति इसकी विशेषता भी है। भारत एक साथ नया और पुराना दोनों है। विविध सभ्यताओं
के साथ संवाद, अवगाहन ,समभाव और सर्वभाव इसकी मूलवृत्ति है। समय के साथ हर समाज
में कुछ विकृतियां आती हैं। भारतीय समाज भी उन विकृतियों से मुक्त नहीं है। लेकिन
प्रायः ये संकट उसकी लंबी गुलामी से उपजे हैं। स्त्रियों, दलितों के साथ हमारा
व्यवहार भारतीय स्वभाव और उसके दर्शन के अनुकूल नहीं है। किंतु गुलामी के कालखंड
में समाज में आई विकृतियों को त्यागकर आगे बढ़ना हमारी जिम्मेदारी है और हम बढ़े
भी हैं।
सुख
का मूल है धर्म-
भारतीय
दर्शन संपूर्ण जीव सृष्टि का विचार करने वाला दर्शन है। संपूर्ण समष्टि का ऐसा शाश्वत्
चिंतन किसी भूमि में नहीं है। यहां आनंद ही हमारा मूल है। परिवार की उत्पादकीय
संपत्ति ही पूंजी थी। चाणक्य खुद कहते हैं, ‘मनुष्यानां वृत्ति अर्थं।‘
इसलिए भारतीय दर्शन योगक्षेम की बात करता है। योग का मतलब है- अप्राप्ति की
प्राप्ति और क्षेम का मतलब है-प्राप्त की सुरक्षा। इसलिए चाणक्य कह पाए,
‘सुखस्य मूलं धर्मः/धर्मस्य
मूलं अर्थः/अर्थस्य
मूलं राज्यं।‘
वर्तमान
चुनौतियां और समाधान-
प्रख्यात विचारक ग्राम्सी कहते हैं,
“गुलामी आर्थिक नहीं सांस्कृतिक होती
है।”
भारतीय समाज भी लंबे समय से सांस्कृतिक गुलामी से घिरा हुआ है। जिसके कारण हमारे
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त को कहना पड़ा, “हम कौन थे, क्या हो गए हैं,
और क्या होंगे अभी, आओ विचारें मिलकर, यह समस्याएं सभी।” किंतु दुखद यह है कि आजादी
के बाद भी हमारा बौद्धिक, राजनीतिक और प्रभु वर्ग समाज में वह चेतना नहीं जागृत कर
सका, जिसके आधार पर भारतीय समाज का खोया हुआ आत्मविश्वास वापस आता।
क्योंकि वह अभी अंग्रेजों द्वारा कराए गए हीनताबोध से मुक्त नहीं हुआ है। भारतीय
ज्ञान परंपरा को अंग्रेजों ने तुच्छ बताकर खारिज किया ताकि वे भारतीयों की चेतना
को मार सकें और उन्हें गुलाम बनाए रख सकें। गुलामी की लंबी छाया इतनी गहरी है कि
उसका अंधेरा आज भी हमारे बौद्धिक जगत को पश्चिमी विचारों की गुलामी के लिए मजबूर
करता है। भारत को समझने की आंखें और दिल दोनों हमारे पास नहीं थे। स्वामी दयानंद,
महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, महात्मा गांधी, बाबा साहब आंबेडकर द्वारा दी गयी
दृष्टि से भारत को समझने के बजाए हम विदेशी विचारकों द्वारा आरोपित दृष्टियों से
भारत को देख रहे थे। भारत को नवसाम्यवादी विचारकों द्वारा आरोपित किए जा रहे
मुद्दों को समझना जरूरी है। माओवाद, खालिस्तान,रोहिंग्या को संरक्षण देने की मांग,
जनजातियों और विविध जातियों की कृत्रिम अस्मिता के नित नए संघर्ष खड़े करने में
लगे ये लोग भारत को कमजोर करने का कोई मौका नहीं छोड़ना चाहते। इसमें उनका सहयोग
अनेक उदार वाममार्गी बौद्धिक और दिशाहीन बौद्धिक भी कर रहे हैं। आर्थिक तौर पर
मजबूत ये ताकतें ‘एक भारत-श्रेष्ठ भारत’ के विचार के सामने चुनौती की
तरह हैं। हमारे समाज की कमजोरियों को लक्ष्य कर अपने हित साधने में लगी ये ताकतें
भारत में तरह-तरह की बैचेनियों का कारक और कारण भी हैं।
भारत के सामने अपनी एकता को बचाने का एक ही मंत्र है,‘सबसे पहले भारत’। इसके साथ ही हमें अपने समाज
में जोड़ने के सूत्र खोजने होगें। भारत विरोधी ताकतें तोड़ने के सूत्र खोज रही
हैं, हमें जोड़ने के सूत्र खोजने होगें। किन कारणों से हमें साथ रहना है, वे क्या
ऐतिहासिक और सामाजिक कारण हैं जिनके कारण भारत का होना जरूरी है। इन सवालों पर
सोचना जरूरी है। अगर वे हमारे समाज को तोड़ने, विखंडित करने और जाति, पंथ के नाम
पर लड़ाने के लिए सचेतन कोशिशें चला सकते हैं, तो हमें भी इस साजिश को समझकर सामने
आना होगा। भारत का भला और बुरा भारत के लोग ही करेगें। इसका भला वे लोग ही करेंगें
जिनकी मातृभूमि और पुण्यभूमि भारत है। वैचारिक गुलामी से मुक्त होकर, नई आंखों से
दुनिया को देखना। अपने संकटों के हल तलाशना और विश्व मानवता को सुख के सूत्र देना
हमारी जिम्मेदारी है । स्वामी विवेकानंद हमें इस कठिन दायित्वबोध की याद दिलाते
हैं। वे हमें बताते हैं कि हमारा दायित्व क्या है। विश्व के लिए, मानवता के लिए,
सुख और शांति के लिए भारत और उसके दर्शन की विशेषताएं हमें सामने रखनी होगीं। कोई
भी समाज श्रेष्ठतम का ही चयन करता है। विश्व भी श्रेष्ठतम का ही चयन करेगा। हमारे
पास एक ऐसी वैश्विक पूंजी है जो समावेशी है,सुख और आनंद का सृजन करने वाली है।
अपने को पहचानकर भारत अगर इस ओर आगे आ रहा है तो उसे आने दीजिए। भारत का भारत से
परिचय हो जाने दीजिए।
( लेखक मीडिया विमर्श पत्रिका
के कार्यकारी संपादक और वरिष्ठ पत्रकार हैं)
शानदार सत्य
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट विश्लेषण
जवाब देंहटाएंWah
जवाब देंहटाएंउत्कृष्ट विश्लेषण
जवाब देंहटाएंसर् , अत्यंत महत्वपूर्ण एवं ज्वलंत विषय है ये वर्तमान मे। मैंने बहुत सारे लेख पढ़े हैं पर इस मुद्दे पर जितना सरल, सटीक और प्रासंगिक आपका लेख है उतना पहले मैंने कभी नहीं पढ़ा। धर्म, जाती, हिंदुत्व, राष्ट्रवाद को इतने अच्छे से आपने परिभाषित किया है कि किसी अनपढ़ को भी समझ आ जाये।
जवाब देंहटाएंपूरा लेख पढ़ने के बाद हमे ये अच्छी तरह से समझ आ जाता है कि हमारे लिए उपर्युक्त शब्द , मात्र शब्द भर नहीं हैं अपितु ये एक प्रकार से हमारी जीवनशैली थी पहले जो पूरे समाज को जोड़ती भी थी और सुव्यवस्थित भी रखती थी। लेकिन आज कल हमने इनका इस्तेमाल गलत संदर्भ में और गलत चीजों के लिए करना शुरू कर दिया है जो कि भविष्य के लिए घातक है।
इस लेख को मेरे साथ साझा करने के लिए आपका बहुत आभार, अत्यंत ज्ञानदायक लेख है।
सामयिक विश्लेषण
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