एफडीआई के अजगर से कैसै बच पाएगा भारत ?
-संजय द्विवेदी
एक था
लोकतंत्र और एक थी कांग्रेस। इस कांग्रेस ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए एक ‘अलीट क्लब’ (याद कीजिए एक
अंग्रेज ए.ओ.ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना की थी) को जनांदोलन में बदल दिया और
विदेशी पराधीनता की बेड़ियों से देश को मुक्त कराया। किंतु ऐसा क्या हुआ कि यही
कांग्रेस कुछ दशकों के भीतर ही पूरी तरह बदल जाती है।
चीजें
बदलती है और दुनिया भी बदलती है किंतु विचार किसी भी दल के लिए सबसे बड़े होते
हैं। आज की कांग्रेस क्या ‘हिंद स्वराज’ लिखने वाले महात्मा गांधी के उत्तराधिकार का दावा
कर सकती है? समय के
प्रवाह में चीजें बदलती हैं किंतु इतनी नहीं कि वे अपनी मूल पहचान ही नष्ट कर दें।
इस देश में लंबे समय तक देशवासी लोकतंत्र का मतलब कांग्रेस ही समझते रहे, वह तो भला हो
श्रीमती इंदिरा गांधी का जिन्होंने आपातकाल लगाकर इस देश को एक मोह निद्रा से
निकाल दिया। कांग्रेस के पास परंपरा से जो आंदोलनकारी शक्ति, जनविश्वास, उदात्तता,
औदार्य और सबको साथ लेकर चलने के क्षमता तथा इस देश की सांस्कृतिक विरासतों का
आग्रही होने का भ्रम था वह टूट गया।
निजी जागीर में बदला एक आंदोलनः
एक आंदोलन कैसे एक परिवार की
निजी जागीर में बदलता है इसे देखना हो तो ‘कांग्रेस परिघटना’ को समझना जरूरी है। कैसे एक पार्टी
गांधी-नेहरू-इंदिरा का रास्ता छोड़कर गुलामी के सारे प्रतीकों को स्वीकारती चली
जाती है,
कांग्रेस इसका उदाहरण है। इतिहास के इस मोड़ पर जब कांग्रेस खुदरा क्षेत्र में
एफडीआई की बात के पक्ष में नाहक और बेईमानी भरे तर्क दे रही है तो समझना मुश्किल
नहीं है उसने राष्ट्रीय आंदोलन की गर्भनाल से अपना रिश्ता तोड़ लिया है। नहीं तो
जिस 20 सितंबर,2012
को सारा देश सड़क पर था, देश की छोटी-बड़ी 48 पार्टियां भारत बंद में शामिल थीं,
उसी दिन सरकार एफडीआई की अधिसूचना निकालती है। यह जनमत और लोकतंत्र का तिरस्कार
नहीं तो क्या है ? संदेश
यह कि आप कुछ भी करें पर हम अपने आकाओं (अमरीका और कारपोरेट्स) का हुकुम बजाएंगें।
इस जलते हुए देश के जलते सवालों से टकराने और उनके ठोस व वाजिब हल तलाशने के बजाए,
आत्महत्या कर रहे किसानों के देश में आप एफडीआई के लिए उतारू हैं। इसके साथ ही
अहंकार का यह प्रदर्शन जैसे आप सरकार चलाकर इस देश पर अहसान कर रहे हैं।
जनता के सवालों से बेरूखीः
जनता के सवालों से जुड़े लोकपाल
बिल, महिला आरक्षण बिल, भूमि अधिग्रहण कानून और खाद्य सुरक्षा कानून कहां है? उन्हें पास
कराने के लिए इतनी गति और त्वरा क्यों नहीं दिखाई जा रही है। जबकि पार्टी के आला
नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने दिखावटी ही सही किंतु भूमि अधिग्रहण और खाद्य
सुरक्षा कानून में गहरी रूचि दिखायी थी। खुदरा क्षेत्र में रिटेल के द्वार खोल रही
सरकार के पास सबसे बड़ा तर्क यह है कि इससे किसानों को लाभ मिलेगा। पिछले साढ़े
दशकों में किसानों के लिए कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों ने किया कि जिसके चलते
वे आत्महत्या के कगार पर पहुंच गए हैं। खुदरा में एफडीआई का चंद औद्योगिक घरानों
के अलावा कौन समर्थन कर रहा है ? एक सच्चा कांग्रेसी भी अंतर्मन से इस कदम के खिलाफ है।
किंतु ये हो रहा है और प्रतिरोध की ताकतें पस्त पड़ी हैं।
कहां चाहिए एफडीआईः
क्या ही बेहतर होता कि एफडीआई को देश की
अधोसंरचना के क्षेत्र में, सड़क, बिजली और क्रिटिकल टेक्नालाजी के क्षेत्र में
लाया जाता। केंद्र सरकार के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने देश के प्रमुख समाचार
पत्रों में एक पेज का विज्ञापन जारी कर देश को गुमराह करने की कोशिश की है।
विज्ञापन के मुताबिक खुदरा क्षेत्र में एफडीआई से एक करोड़ रोजगारों का सृजन होगा।
जबकि यह सफेद झूठ है। पहले सरकार ने कहा था कि इससे 40 लाख लोगों को काम मिलेगा।
जबकि अगर 40 लाख लोगों को काम देना है तो आज वालमार्ट को उसके 28 देशों में जितने
कुल स्टोर हैं उसकी तुलना में दोगुने स्टोर अकेले भारत में खोलने होंगें। यदि
रिटेल क्षेत्र के चारों टाप ब्रांड्स का औसत निकाल लिया जाए तो प्रति स्टोर
कर्मचारियों की संख्या होती है 117, ऐसे में चारों ब्रांड मिलकर 40 लाख लोगों को
नियोजित करना चाहें तो देश में 34,180 स्टोर खोलने होंगें। क्या देश की जनता को
सरकार ने मूर्ख समझ रखा है ? आज देश का अंसंगठित खुदरा क्षेत्र का कुल कारोबार लगभग
408.8 बिलियन डालर का है। औसतन प्रत्येक दुकानदार 15 लाख रूपए का सालाना कारोबार
करते हुए कम से कम तीन लोगों को रोजगार मुहैया कराता है। हमारी सरकारें जो लोगों को
रोजी-रोजगार दे नहीं सकतीं। उन्हें पढ़ा-लिखा और बाजार के लायक बना नहीं सकतीं,
उन्हें क्या हक है कि वे काम कर रहे इन लोगों के पेट पर लात मारें। सरकार इस बात
भी अपनी पीठ ठोंक रही है कि खुदरा में उसने सिर्फ 51 प्रतिशत विदेशी निवेश की सीमा
तय की है, अन्य देशों में यह 100 प्रतिशत है। अब सवाल यह उठता है कि भारत की विशाल
आबादी और भारत जैसी समस्याएं क्या अन्य देशों के पास हैं? आप
ब्राजील,थाईलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर, अर्जेंटाइना और चिली जैसे देशों से भारत
की तुलना कैसे कर सकते हैं ? किसानों को शोषण मुक्त करने की नारेबाजियां हम आजादी के
बाद से देख रहे हैं। किंतु उनके शोषण का एक नया तंत्र और नए बिचौलिए एफडीआई के बाद
भी पैदा होंगें। खासकर उन्हें खास किस्म के बीज ही उगाने की सलाहें भी इसी षडयंत्र
के तहत दी जाएंगीं। ताकि वे फिर-फिर बीज उन्हीं कंपनियों से लें और इससे एक बीज का
बाजार भी खड़ा हो जाएगा।
झूठ बोलती सरकारः
यह भी एक सफेद झूठ है कि तीस प्रतिशत सामान लघु
उद्योगों से लिया जाएगा, किंतु वे लघु उद्योग भारत के होंगें या चीनी यह कहां
स्पष्ट है। अमरीकी वालमार्ट की दुकानों में चीन माल भरा पड़ा है। वालमार्ट ऐसा ही
वरदान है तो अमरीका जैसे देशों में ‘अकुपाई वालमार्ट’ जैसे प्रदर्शन क्यों हुए? क्यों अमरीकी
राष्ट्रपति को लोगों से यह आह्लवान करना पड़ा कि लोग छोटे और आसपास के स्टोर्स से
सामान खरीदें। क्योंकि अमरीकी बाजार में अपनी मोनोपोली स्थापित हो जाने के बाद
वालमार्ट ने अपने ग्राहकों को चूसने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में यह सोचना
बहुत लाजिमी है जो कंपनी ‘दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण इंसानों .यानि अमरिकियों’ का खून चूस
सकती है वह हम
निरीह भारतीयों को क्या बक्शेगी। फिर उनके पास ओबामा हैं और हमारे पास मनमोहन सिंह
जैसे नेता। जिन्हें जनता के दर्द से कभी वास्ता नहीं रहा।
आज वालमार्ट का कारोबार दुनिया के 28 देशों
में फैला हुआ है। जिसकी बिक्री 9800 स्टोर्स के माध्यम से 405 बिलियन डालर की है।
वाल्मार्ट में कुल 21 लाख कर्मचारी कार्यरत हैं। इस अनुपात को एक नजीर मानें तो
अगर हमारे शहर में एक वालमार्ट का स्टोर प्रारंभ होता है तो वह 1300 खुदरा
दुकानदारों की दुकानें बंद कराएगा जिससे लगभग 3900 लोग बेरोजगार हो जाएंगें। क्या
भारत जैसे देश में यह प्रयोग मानवीय कहा जाएगा ? इसमें खुदरा क्षेत्र में लगी श्रमशक्ति
को भी शामिल करके देखें तो एक स्टोर खुलते ही लगभग 3,675 लोग तुरंत अपने रोजगार से
हाथ धो बैठेंगें। एफडीआई के रिटेल सेक्टर के आगमन का विश्लेषण करने वाले विद्वानों
और पत्रकारों का मानना है कि ऐसे सुपर बाजार अगर एक रोजगार सृजित करेंगें तो तुरंत
17 लोगों का रोजगार खा जाएंगें। ऐसा अमानवीय और दैत्याकार कदम उठाते हुए सरकार को
सिहरन नहीं हो रही है और वह झूठ पर झूठ बोलती जा रही है।
भूले गांधी का जंतरः
महात्मा गांधी ने हमें एक जंतर दिया था कि जब भी
आप कोई कदम उठाएं तो यह ध्यान रखें कि इसका आखिरी आदमी पर क्या असर होगा। किंतु अब
लगता है कि हमारी राजनीति गांधी के इस मंत्र को भूल गयी है। हम सही मायने में
विश्वमानव हो चुके हैं जहां अपनी भूमि और उस पर बसने वाले लोग हमारे लिए मायने
नहीं रखते हैं। विदेशी सोच और उधार के ज्ञान पर देश की राजनीति में आए हार्वड और
कैंब्रिज के डिग्रीधारियों ने इस देश को बंधक बना लिया है। जाहिर तौर पर इस बार
हमारी राजनीति मीर जाफर बनकर एक बार फिर इतिहास को दोहराने में लगी है। अफसोस यह
है कि हमारे प्रतिपक्ष के राजनीतिक दलों में इस सवाल को लेकर ईमानदारी नहीं है। वे
भी आत्मविश्वास से खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के सवाल को नहीं उठा रहे हैं। सिर्फ
जनभावना के चलते वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल दिखते हैं। इसलिए जब हमें यह पता
चलता है कि अकेली वालमार्ट ने इस देश में लाबिंग के लिए 53 मीलियन डालर खर्च किए
हैं तो आश्चर्य नहीं होता। लाबिंग का मतलब बताने की जरूरत नहीं कि हमारे नेताओं और
अधिकारियों को मोटे उपहारों से लादा गया होगा।
यह कहने के जरूरत
नहीं है लोकतंत्र के नाम पर हमारी सरकारें एक अधिनायकवादी तंत्र चला रही हैं, जहां
आम आदमी के दुख-दर्द और उसकी परेशानियों से उसका कोई सरोकार नहीं है। लोग
लुटते-पिटते रहें, मेहनतकश आत्महत्याएं करते रहें किंतु आवारा पूंजी की लालची
हमारी सरकारों और कारपोरेट्स की लपलपाती जीभें हमारी संवेदना को चिढ़ाती रहेंगीं।
यह देश की राजनीति का दैन्य ही कहा जाएगा कि एक व्यक्ति एक साथ सरकार की जनविरोधी
नीतियों के साथ भी है और उसके खिलाफ भी। मुलायम सिंह, मायावती, करूणानिधि जैसे लोग
साबित करते हैं कि जनता उनके लिए एक वोट भर है और अवसरवाद उनका मूलमंत्र। दुनिया
भर में मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार को निगल गए तो भारत के निरीह व्यापारी उनका
मुकाबला क्या खाकर करेंगें। इस खेल में बड़ी मछली, छोटी मछली को निगलती रहेगी और
हम भारत के लोग इसे देखने के लिए विवश होंगें क्योंकि इस बार हमारी पूरी राजनीतिक
जमात मीरजाफर सरीखी नजर आ रही है और हमने प्लेट में रखकर हिंदुस्तान विदेशियों को
सौंपने की तैयारी कर ली है। ऐसे कठिन समय में हमें फिर गांधी की याद करते हुए एक
निर्णायक संघर्ष के लिए खड़े होना पड़ेगा क्योंकि हर कठिन समय में वे ही हमें
पश्चिम की ‘शैतानी
सभ्यता’ से
लड़ने का पाठ पढ़ाते हैं।
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