शुक्रवार, 28 सितंबर 2012
पुणच्या वर्षी लवकर या...
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
शुक्रवार, 21 सितंबर 2012
एक था लोकतंत्र और एक थी कांग्रेस !
एफडीआई के अजगर से कैसै बच पाएगा भारत ?
-संजय द्विवेदी
एक था
लोकतंत्र और एक थी कांग्रेस। इस कांग्रेस ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए एक ‘अलीट क्लब’ (याद कीजिए एक
अंग्रेज ए.ओ.ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना की थी) को जनांदोलन में बदल दिया और
विदेशी पराधीनता की बेड़ियों से देश को मुक्त कराया। किंतु ऐसा क्या हुआ कि यही
कांग्रेस कुछ दशकों के भीतर ही पूरी तरह बदल जाती है।
चीजें
बदलती है और दुनिया भी बदलती है किंतु विचार किसी भी दल के लिए सबसे बड़े होते
हैं। आज की कांग्रेस क्या ‘हिंद स्वराज’ लिखने वाले महात्मा गांधी के उत्तराधिकार का दावा
कर सकती है? समय के
प्रवाह में चीजें बदलती हैं किंतु इतनी नहीं कि वे अपनी मूल पहचान ही नष्ट कर दें।
इस देश में लंबे समय तक देशवासी लोकतंत्र का मतलब कांग्रेस ही समझते रहे, वह तो भला हो
श्रीमती इंदिरा गांधी का जिन्होंने आपातकाल लगाकर इस देश को एक मोह निद्रा से
निकाल दिया। कांग्रेस के पास परंपरा से जो आंदोलनकारी शक्ति, जनविश्वास, उदात्तता,
औदार्य और सबको साथ लेकर चलने के क्षमता तथा इस देश की सांस्कृतिक विरासतों का
आग्रही होने का भ्रम था वह टूट गया।
निजी जागीर में बदला एक आंदोलनः
एक आंदोलन कैसे एक परिवार की
निजी जागीर में बदलता है इसे देखना हो तो ‘कांग्रेस परिघटना’ को समझना जरूरी है। कैसे एक पार्टी
गांधी-नेहरू-इंदिरा का रास्ता छोड़कर गुलामी के सारे प्रतीकों को स्वीकारती चली
जाती है,
कांग्रेस इसका उदाहरण है। इतिहास के इस मोड़ पर जब कांग्रेस खुदरा क्षेत्र में
एफडीआई की बात के पक्ष में नाहक और बेईमानी भरे तर्क दे रही है तो समझना मुश्किल
नहीं है उसने राष्ट्रीय आंदोलन की गर्भनाल से अपना रिश्ता तोड़ लिया है। नहीं तो
जिस 20 सितंबर,2012
को सारा देश सड़क पर था, देश की छोटी-बड़ी 48 पार्टियां भारत बंद में शामिल थीं,
उसी दिन सरकार एफडीआई की अधिसूचना निकालती है। यह जनमत और लोकतंत्र का तिरस्कार
नहीं तो क्या है ? संदेश
यह कि आप कुछ भी करें पर हम अपने आकाओं (अमरीका और कारपोरेट्स) का हुकुम बजाएंगें।
इस जलते हुए देश के जलते सवालों से टकराने और उनके ठोस व वाजिब हल तलाशने के बजाए,
आत्महत्या कर रहे किसानों के देश में आप एफडीआई के लिए उतारू हैं। इसके साथ ही
अहंकार का यह प्रदर्शन जैसे आप सरकार चलाकर इस देश पर अहसान कर रहे हैं।
जनता के सवालों से बेरूखीः
जनता के सवालों से जुड़े लोकपाल
बिल, महिला आरक्षण बिल, भूमि अधिग्रहण कानून और खाद्य सुरक्षा कानून कहां है? उन्हें पास
कराने के लिए इतनी गति और त्वरा क्यों नहीं दिखाई जा रही है। जबकि पार्टी के आला
नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने दिखावटी ही सही किंतु भूमि अधिग्रहण और खाद्य
सुरक्षा कानून में गहरी रूचि दिखायी थी। खुदरा क्षेत्र में रिटेल के द्वार खोल रही
सरकार के पास सबसे बड़ा तर्क यह है कि इससे किसानों को लाभ मिलेगा। पिछले साढ़े
दशकों में किसानों के लिए कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों ने किया कि जिसके चलते
वे आत्महत्या के कगार पर पहुंच गए हैं। खुदरा में एफडीआई का चंद औद्योगिक घरानों
के अलावा कौन समर्थन कर रहा है ? एक सच्चा कांग्रेसी भी अंतर्मन से इस कदम के खिलाफ है।
किंतु ये हो रहा है और प्रतिरोध की ताकतें पस्त पड़ी हैं।
कहां चाहिए एफडीआईः
क्या ही बेहतर होता कि एफडीआई को देश की
अधोसंरचना के क्षेत्र में, सड़क, बिजली और क्रिटिकल टेक्नालाजी के क्षेत्र में
लाया जाता। केंद्र सरकार के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने देश के प्रमुख समाचार
पत्रों में एक पेज का विज्ञापन जारी कर देश को गुमराह करने की कोशिश की है।
विज्ञापन के मुताबिक खुदरा क्षेत्र में एफडीआई से एक करोड़ रोजगारों का सृजन होगा।
जबकि यह सफेद झूठ है। पहले सरकार ने कहा था कि इससे 40 लाख लोगों को काम मिलेगा।
जबकि अगर 40 लाख लोगों को काम देना है तो आज वालमार्ट को उसके 28 देशों में जितने
कुल स्टोर हैं उसकी तुलना में दोगुने स्टोर अकेले भारत में खोलने होंगें। यदि
रिटेल क्षेत्र के चारों टाप ब्रांड्स का औसत निकाल लिया जाए तो प्रति स्टोर
कर्मचारियों की संख्या होती है 117, ऐसे में चारों ब्रांड मिलकर 40 लाख लोगों को
नियोजित करना चाहें तो देश में 34,180 स्टोर खोलने होंगें। क्या देश की जनता को
सरकार ने मूर्ख समझ रखा है ? आज देश का अंसंगठित खुदरा क्षेत्र का कुल कारोबार लगभग
408.8 बिलियन डालर का है। औसतन प्रत्येक दुकानदार 15 लाख रूपए का सालाना कारोबार
करते हुए कम से कम तीन लोगों को रोजगार मुहैया कराता है। हमारी सरकारें जो लोगों को
रोजी-रोजगार दे नहीं सकतीं। उन्हें पढ़ा-लिखा और बाजार के लायक बना नहीं सकतीं,
उन्हें क्या हक है कि वे काम कर रहे इन लोगों के पेट पर लात मारें। सरकार इस बात
भी अपनी पीठ ठोंक रही है कि खुदरा में उसने सिर्फ 51 प्रतिशत विदेशी निवेश की सीमा
तय की है, अन्य देशों में यह 100 प्रतिशत है। अब सवाल यह उठता है कि भारत की विशाल
आबादी और भारत जैसी समस्याएं क्या अन्य देशों के पास हैं? आप
ब्राजील,थाईलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर, अर्जेंटाइना और चिली जैसे देशों से भारत
की तुलना कैसे कर सकते हैं ? किसानों को शोषण मुक्त करने की नारेबाजियां हम आजादी के
बाद से देख रहे हैं। किंतु उनके शोषण का एक नया तंत्र और नए बिचौलिए एफडीआई के बाद
भी पैदा होंगें। खासकर उन्हें खास किस्म के बीज ही उगाने की सलाहें भी इसी षडयंत्र
के तहत दी जाएंगीं। ताकि वे फिर-फिर बीज उन्हीं कंपनियों से लें और इससे एक बीज का
बाजार भी खड़ा हो जाएगा।
झूठ बोलती सरकारः
यह भी एक सफेद झूठ है कि तीस प्रतिशत सामान लघु
उद्योगों से लिया जाएगा, किंतु वे लघु उद्योग भारत के होंगें या चीनी यह कहां
स्पष्ट है। अमरीकी वालमार्ट की दुकानों में चीन माल भरा पड़ा है। वालमार्ट ऐसा ही
वरदान है तो अमरीका जैसे देशों में ‘अकुपाई वालमार्ट’ जैसे प्रदर्शन क्यों हुए? क्यों अमरीकी
राष्ट्रपति को लोगों से यह आह्लवान करना पड़ा कि लोग छोटे और आसपास के स्टोर्स से
सामान खरीदें। क्योंकि अमरीकी बाजार में अपनी मोनोपोली स्थापित हो जाने के बाद
वालमार्ट ने अपने ग्राहकों को चूसने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में यह सोचना
बहुत लाजिमी है जो कंपनी ‘दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण इंसानों .यानि अमरिकियों’ का खून चूस
सकती है वह हम
निरीह भारतीयों को क्या बक्शेगी। फिर उनके पास ओबामा हैं और हमारे पास मनमोहन सिंह
जैसे नेता। जिन्हें जनता के दर्द से कभी वास्ता नहीं रहा।
आज वालमार्ट का कारोबार दुनिया के 28 देशों
में फैला हुआ है। जिसकी बिक्री 9800 स्टोर्स के माध्यम से 405 बिलियन डालर की है।
वाल्मार्ट में कुल 21 लाख कर्मचारी कार्यरत हैं। इस अनुपात को एक नजीर मानें तो
अगर हमारे शहर में एक वालमार्ट का स्टोर प्रारंभ होता है तो वह 1300 खुदरा
दुकानदारों की दुकानें बंद कराएगा जिससे लगभग 3900 लोग बेरोजगार हो जाएंगें। क्या
भारत जैसे देश में यह प्रयोग मानवीय कहा जाएगा ? इसमें खुदरा क्षेत्र में लगी श्रमशक्ति
को भी शामिल करके देखें तो एक स्टोर खुलते ही लगभग 3,675 लोग तुरंत अपने रोजगार से
हाथ धो बैठेंगें। एफडीआई के रिटेल सेक्टर के आगमन का विश्लेषण करने वाले विद्वानों
और पत्रकारों का मानना है कि ऐसे सुपर बाजार अगर एक रोजगार सृजित करेंगें तो तुरंत
17 लोगों का रोजगार खा जाएंगें। ऐसा अमानवीय और दैत्याकार कदम उठाते हुए सरकार को
सिहरन नहीं हो रही है और वह झूठ पर झूठ बोलती जा रही है।
भूले गांधी का जंतरः
महात्मा गांधी ने हमें एक जंतर दिया था कि जब भी
आप कोई कदम उठाएं तो यह ध्यान रखें कि इसका आखिरी आदमी पर क्या असर होगा। किंतु अब
लगता है कि हमारी राजनीति गांधी के इस मंत्र को भूल गयी है। हम सही मायने में
विश्वमानव हो चुके हैं जहां अपनी भूमि और उस पर बसने वाले लोग हमारे लिए मायने
नहीं रखते हैं। विदेशी सोच और उधार के ज्ञान पर देश की राजनीति में आए हार्वड और
कैंब्रिज के डिग्रीधारियों ने इस देश को बंधक बना लिया है। जाहिर तौर पर इस बार
हमारी राजनीति मीर जाफर बनकर एक बार फिर इतिहास को दोहराने में लगी है। अफसोस यह
है कि हमारे प्रतिपक्ष के राजनीतिक दलों में इस सवाल को लेकर ईमानदारी नहीं है। वे
भी आत्मविश्वास से खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के सवाल को नहीं उठा रहे हैं। सिर्फ
जनभावना के चलते वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल दिखते हैं। इसलिए जब हमें यह पता
चलता है कि अकेली वालमार्ट ने इस देश में लाबिंग के लिए 53 मीलियन डालर खर्च किए
हैं तो आश्चर्य नहीं होता। लाबिंग का मतलब बताने की जरूरत नहीं कि हमारे नेताओं और
अधिकारियों को मोटे उपहारों से लादा गया होगा।
यह कहने के जरूरत
नहीं है लोकतंत्र के नाम पर हमारी सरकारें एक अधिनायकवादी तंत्र चला रही हैं, जहां
आम आदमी के दुख-दर्द और उसकी परेशानियों से उसका कोई सरोकार नहीं है। लोग
लुटते-पिटते रहें, मेहनतकश आत्महत्याएं करते रहें किंतु आवारा पूंजी की लालची
हमारी सरकारों और कारपोरेट्स की लपलपाती जीभें हमारी संवेदना को चिढ़ाती रहेंगीं।
यह देश की राजनीति का दैन्य ही कहा जाएगा कि एक व्यक्ति एक साथ सरकार की जनविरोधी
नीतियों के साथ भी है और उसके खिलाफ भी। मुलायम सिंह, मायावती, करूणानिधि जैसे लोग
साबित करते हैं कि जनता उनके लिए एक वोट भर है और अवसरवाद उनका मूलमंत्र। दुनिया
भर में मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार को निगल गए तो भारत के निरीह व्यापारी उनका
मुकाबला क्या खाकर करेंगें। इस खेल में बड़ी मछली, छोटी मछली को निगलती रहेगी और
हम भारत के लोग इसे देखने के लिए विवश होंगें क्योंकि इस बार हमारी पूरी राजनीतिक
जमात मीरजाफर सरीखी नजर आ रही है और हमने प्लेट में रखकर हिंदुस्तान विदेशियों को
सौंपने की तैयारी कर ली है। ऐसे कठिन समय में हमें फिर गांधी की याद करते हुए एक
निर्णायक संघर्ष के लिए खड़े होना पड़ेगा क्योंकि हर कठिन समय में वे ही हमें
पश्चिम की ‘शैतानी
सभ्यता’ से
लड़ने का पाठ पढ़ाते हैं।
Labels:
कांग्रेस,
राजकाज,
राजनीति,
राहुल गांधी,
संजय द्विवेदी
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
गुरुवार, 20 सितंबर 2012
इस हार का दोष विदेशियों को मत दीजिएगा !
मुश्किल में डालती हैं राजनीति और
अर्थनीति की अलग-अलग राहें
- संजय द्विवेदी
यह सिर्फ और सिर्फ भारत में ही संभव है कि
राजनीति और अर्थनीति अलग-अलग सांस ले रहे हों। 20 सितंबर,2012 के भारत बंद में अड़तालीस
(48) से ज्यादा छोटी-बड़ी राजनीतिक पार्टियां सहभागी होती हैं किंतु सरकार को कोई
फर्क नहीं पड़ता। क्या जनता के सवाल और सरकार के सवाल अलग-अलग हैं? फिर क्या इस
व्यवस्था को जनतंत्र कहना उचित होगा? जनभावनाएं खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के खिलाफ हैं,
तमाम राजनीतिक दल सड़क पर हैं पर केंद्र सरकार स्थिर है। उसे फर्क नहीं पड़ता और
सौदागरों को जैसे सत्ता को बचाने में महारत मिल चुकी है।
विरोध करेंगें पर सरकार से चिपके रहेंगें-
यह देखना विलक्षण है कि जो राजनीतिक दल सत्ता
की इस जनविरोधी नीति के खिलाफ सड़क पर हैं, वही सरकार को गिराने के पक्ष में नहीं
हैं। मुलायम सिंह यादव से लेकर एम. करूणानिधि तक यह द्वंद साफ दिखता है। यानि
सत्ता को हिलाए बिना वे जनता के दिलों में उतर जाना चाहते हैं। ऐसे में सवाल यह
उठता है कि क्या किसी जनविरोधी सरकार का पांच साल चलना जरूरी है ? निरंतर
भ्रष्टाचार व महंगाई के सवालों से घिरी, जनविरोधी फैसले करती सरकार आखिर क्यों
चलनी चाहिए? यदि
इसे चलना चाहिए तो डा. राममनोहर लोहिया यह बात क्यों कहा करते थे कि “जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार
नहीं करतीं।” किंतु आप
देखिए डा. लोहिया और लोकनायक जयप्रकाश के चेले उप्र से लेकर बिहार तक सौदेबाजी में लगे
हैं। मुलायम सिंह यादव सरकार को बचाएंगें चाहे वो कुछ भी करे क्योंकि उनके पास
सांप्रदायिक ताकतों को रोकने का एक शाश्वत बहाना है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश
कुमार कह रहे हैं जो उनके राज्य को विशेष राज्य का दर्जा देगा उसके साथ हो
लेंगें।आखिर हमारी राजनीति को हुआ क्या है? आखिर राजनीतिक दलों के लिए क्या देश के लोग एक
तमाशा हैं कि आप सरकार को चलाने में मदद करें और सड़कों पर सरकार के खिलाफ गले भी
फाड़ते रहें। शायद इसीलिए राजनीतिक दलों की नैतिकता और ईमानदारी पर सवाल उठते हैं।
क्योंकि आज के राजनीतिक दल अपने मुद्दों के प्रति भी ईमानदार नहीं रहे। सत्ता पक्ष
की नीतियों से देश लुटता रहे किंतु वे सांप्रदायिक तत्वों को रोकने के लिए घोटाले
पर घोटाले होने देंगें।
मुद्दों के साथ ईमानदार नहीं है विपक्ष-
खुदरा क्षेत्र में एफडीआई का सवाल जिससे 5 करोड़
लोगों की रोजी-रोटी जाने का संकट है, हमारी राजनीति में एक सामान्य सा सवाल है।
राजनीतिक दल कांग्रेस के इस कदम का विरोध करते हुए राजनीतिक लाभ तो उठाना चाहते
हैं किंतु वे ईमानदारी से अपने मुद्दों के साथ नहीं हैं। यह दोहरी चाल देश पर भारी
पड़ रही है। सरकार की बेशर्मी देखिए कि आज के राष्ट्रपति और तब के वित्तमंत्री
श्री प्रणव मुखर्जी दिनांक सात दिसंबर, 2011 को संसद में यह आश्वासन देते हैं कि आम
सहमति और संवाद के बिना खुदरा क्षेत्र में एफडीआई नहीं लाएंगें। किंतु सरकार अपना
वचन भूल जाती है और चोर दरवाजे से जब संसद भी नहीं चल रही है, खुदरा एफडीआई को देश
पर थोप देती है। आखिर क्या हमारा लोकतंत्र बेमानी हो गया है? जहां राजनीतिक
दलों की सहमति, जनमत का कोई मायने नहीं है। क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि
राजनीतिक दलों का विरोध सिर्फ दिखावा है। क्योंकि आप देखें तो राजनीति और अर्थनीति
अरसे से अलग-अलग चल रहे हैं। यानि हमारी राजनीति तो देश के भीतर चल रही है किंतु
अर्थनीति को चलाने वाले लोग कहीं और बैठकर हमें नियंत्रित कर रहे हैं। यही कारण है
कि मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में अर्थनीति पर दिखावटी मतभेदों को छोड़ दें तो आमसहमति बन चुकी है। आज
कोई दल यह कहने की स्थिति में नहीं है कि वह सत्ता में आया तो खुदरा क्षेत्र में
एफडीआई लागू नहीं होगा। क्योंकि सब किसी न किसी समय सत्ता सुख भोग चुके हैं और
रास्ता वही अपनाया जो नरसिंह राव और मनमोहन सिंह की सरकार ने दिखाया था। उसके बाद
आयी तीसरा मोर्चा की सरकारें हो या स्वदेशी की पैरोकार भाजपा की सरकार सबने वही
किया जो मनमोहन टीम चाहती है। ऐसे में यह कहना कठिन है कि हम विदेशी राष्ट्रों के
दबावों, खासकर अमरीका और कारपोरेट घरानों के प्रभाव से मुक्त होकर अपने फैसले ले
पा रहे हैं। अपनी कमजोर सरकारों को गंवानें की हद तक जाकर भी हमारी राजनीति अमरीका
और कारपोरेट्स की मिजाजपुर्सी में लगी है। क्या यह साधारण है कि कुछ महीनों तक
पश्चिमी और अमरीकी मीडिया द्वारा निकम्मे और ‘अंडरअचीवर’ कहे जा रहे हमारे माननीय प्रधानमंत्री आज एफडीआई को
मंजूरी देते ही उन सबके लाडले हो गए। यह ऐसे ही है जैसे फटा पोस्टर निकला हीरो।
लेकिन पश्चिमी और अमरीकी मीडिया जिस तरह अपने हितों के लिए सर्तक और एकजुट है क्या
हमारा मीडिया भी उतना ही राष्ट्रीय हितों के लिए सक्रिय और ईमानदार है?
सरकारें बदलीं पर नहीं बदले रास्ते-
हम देखें तो 1991 की नरसिंह राव की सरकार
जिसके वित्तमंत्री मनमोहन सिंह थे ने नवउदारवादी आर्थिक नीतियों की शुरूआत की। तब
राज्यों ने भी इन सुधारों को उत्साहपूर्वक अपनाया। लेकिन जनता के गले ये बातें
नहीं उतरीं यानि जनराजनीति का इन कदमों को समर्थन नहीं मिला, सुधारों के चैंपियन
आगामी चुनावों में खेत रहे और संयुक्त मोर्चा की सरकार सत्ता में आती है। किंतु
अद्भुत कि यह कि संयुक्त मोर्चा सरकार और उसके वित्तमंत्री पी. चिदंबरम् भी वही
करते हैं जो पिछली सरकार कर रही थी। वे भी सत्ता से बाहर हो जाते हैं। फिर
अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार सत्ता में आती है। उसने तो गजब ढाया। प्रिंट मीडिया
में निवेश की अनुमति, केंद्र में पहली बार विनिवेश मंत्रालय की स्थापना की और
जोरशोर से यह उदारीकरण का रथ बढ़ता चला गया। यही कारण था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ के विचारक स्व.दत्तोपंत ढेंगड़ी ने तत्कालीन भाजपाई वित्तमंत्री को
अनर्थमंत्री तक कह दिया। संघ और भाजपा के द्वंद इस दौर में साफ नजर आए। सरकारी
कंपनियां घड़ल्ले से बेची गयीं और मनमोहनी एजेंडा इस सरकार का भी मूलमंत्र रहा।
अंततः इंडिया शायनिंग की हवा-हवाई नारेबाजियों के बीच भाजपा की सरकार भी विदा हो
गयी। सरकारें बदलती गयीं किंतु हमारी अर्थनीति पर अमरीकी और कारपोरेट प्रभाव कायम
रहे। सरकारें बदलने का नीतियों पर असर नहीं दिखा। फिर कांग्रेस लौटती है और देश के
दुर्भाग्य से उन्हीं डा. मनमोहन सिंह, मोंटेक सिंह, चिदम्बरम् जैसों के हाथ देश की
कमान आ जाती है जो देश की अर्थनीति को किन्हीं और के इशारों पर बनाते और चलाते
हैं। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि जनता ने प्रतिरोध नहीं किया। जनता ने हर
सरकार को उलट कर एक राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की, किंतु हमारी राजनीति पर इसका
कोई असर नहीं हुआ।
संगठन और सरकार के सुर अलग-अलग-
क्या यह साधारण है कि हर दल का संगठन आम आदमी की
बात करता है और उसी की सरकार खास आदमी, अमरीका और कारपोरेट की पैरवी कर रही होती
है। आप देखें तो सोनिया गांधी गरीब समर्थक नीतियों की पैरवी करती दिखतीं है, राहुल
गांधी को ‘कलावतियों’ की चिंता है
वे दलितों के घर विश्राम कर रहे हैं, किंतु उनकी सरकार गरीबों के मुंह से निवाला
छीनने वाली नीतियां बना रही है। भाजपा की सरकार केंद्र में उदारीकरण की आंधी ला
देती है, जबकि उसका मूल संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ स्वदेशी और स्वावलंबन की
बातें करता रह जाता है। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के सुप्रीमो प्रकाश करात
विचारधारा से समझौता न करने की बात करते हैं किंतु उनके मुख्यमंत्री रहे बंगाल के
बुद्धदेव भट्टाचार्य नवउदारवादी प्रभावों से खुद को रोक नहीं पाते और नंदीग्राम रच
देते हैं। मुलायम सिंह भी लोहिया, जयप्रकाश और चरण सिंह का नाम लेते नहीं अधाते
किंतु वे भी ‘कारपोरेट
समाजवाद’ के
वाहक बन जाते हैं। जब कारपोरेट समाजवाद उन्हें ले डूबता है तब वे ‘अमर सिंह एंड
कंपनी’ से
मुक्ति लेते हैं। विदेशी धन और निवेश के लिए लपलपाती राजनैतिक जीभें हमें चिंता
में डालती हैं। क्योंकि देश में जो बड़े धोटाले हुए हैं वे हमारी सारी आर्थिक
प्रगति को पानी में डाल देते हैं। अमरीका के बाजार को संभालने के लिए हमारी सरकार
का उत्साह चिंता में डालता है। ओबामा के प्रति यह भक्ति भी चिंता में डालती है। यह
तब जब यह सारा कुछ उस पार्टी के राज में घट रहा है जो महात्मा गांधी का नाम लेते
नहीं थकती।
आज भी जो लोग इन फैसलों के खिलाफ हैं, उनकी
ईमानदारी भी संदेह के दायरे में है। वे चाहे मुलायम सिंह हो या करूणानिधि या कोई
अन्य। एक साल में चार बार भारत बंद कर रहे दल क्या वास्तव में जनता के सवालों के
प्रति ईमानदार है? सारी
की सारी राजनीति इस समय जनविरोधी और मनुष्यविरोधी तंत्र को स्थापित करने के लिए
मौन साधे खड़ी है। 2014 के चुनावों के मद्देनजर यह विपक्ष की दिखती हुयी उछल-कूद
हमें प्रभावित करने के लिए है, किंतु क्या जिम्मेदारी से हमारे राजनीतिक दल यह
वादा करने की स्थिति में हैं कि वे खुदरा क्षेत्र में एफडीआई को मंजूरी नहीं
देंगें। सही मायने में भारत के विशाल व्यापार पर विदेशियों की बुरी नजर पड़ गयी
है। इस बार लार्ड क्वाइव और मैकाले की रणनीतियों से नहीं, हमें अपनों से हारना है।
हार तय है, क्योंकि हममें जीत का माद्दा बचा नहीं है। प्रतिरोध नकली हो चुके हैं
और प्रतिरोध के सारे हथियार भोथरे हो चुके हैं। प्लीज, इस बार भारत की पराजय का
दोष विदेशियों को मत दीजिएगा।
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
मंगलवार, 18 सितंबर 2012
मीडिया-पुलिस रिश्तों में सहजता के लिए प्रशिक्षण जरूरी
4.
एमसीयू में ‘पुलिस और मीडिया में संवाद’
भोपाल,18 सितंबर। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता
एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के तत्वाधान में ‘पुलिस और मीडिया में संवाद’
विषय पर आयोजित संगोष्ठी का निष्कर्ष है कि पुलिस को मीडिया से संवाद के लिए
प्रशिक्षण दिया जाए तथा पत्रकारों के लिए भी पुलिस से बातचीत करने और अपनी
रिर्पोटिंग के दिशा निर्देश तय करने की जरूरत है। इससे ही सही मायने में दोनों
वर्ग एक दूसरे के पूरक बन सकेंगें और लोकतंत्र मजबूत होगा। आयोजन में उपस्थित देश
के वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों एवं वरिष्ठ मीडियाकर्मियों ने इस अवसर पर कहा कि ऐसे
संवाद से रिश्तों की नयी व्याख्या तो होगी ही साथ ही काम करने के लिए नए रास्ते
बनेंगें।
कार्यक्रम का शुभारंभ करते हुए विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर
कुठियाला ने आयोजन की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह संवाद सही मायने
में मीडिया और पुलिस के बीच एक सेतु बनाने का काम करेगा। हमारी एक दूसरे पर
निर्भरता होने के बावजूद रिश्तों में सहजता और काम में सकारात्मकता नहीं दिखती।
कोई भी रिश्ता संवाद से ही बनता और विकसित होता है। समाज के दो मुख्य अंग मीडिया
और पुलिस अलग-अलग छोरों पर खड़े दिखें यह ठीक नहीं है।हमें सामूहिक उद्देश्यों की
पूर्ति एवं सहायता के लिए आगे आना होगा।
इस
अवसर पर अमर उजाला के संपादक देवप्रिय अवस्थी ने कहा कि खबरों में नमक-मिर्च
लगाकर पेश करना और उसे चटखारेदार बनाने के प्रयासों में पत्रकारिता भटक जाती है।
पुलिस जहां तथ्यों को दबाने के प्रयासों में होती है वहीं पत्रकार की कोशिश चीजों
को अतिरंजित करके देखने की होती है, जबकि दोनों गलत है। आज भी पुलिस को देखकर समाज
में भय व्याप्त होता है। इस छवि को बदलने की जरूरत है। मीडिया इसमें बडी भूमिका
निभा सकता है। मीडिया ट्रायल की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि ऐसी प्रवृत्तियां
मीडिया की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती हैं। अपराध और अपराधीकरण को ग्लैमराइज्ड
करना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता है। उनका कहना था कि पुलिस को राजनीतिक
हस्तक्षेप से मुक्त कर पुलिसिंग में लगाने की जरूरत है।
सीबीआई
के पूर्व निदेशक डी. आर. कार्तिकेयन ने कहा कि पत्रकारिता की भूमिका
मानवाधिकारों तथा लोकतंत्र की रक्षा के लिए बहुत महत्व की है। यह एक कठिन काम है।
पारदर्शिता को पुलिस तंत्र पसंद नहीं करता पर बदलते समय में हमें मीडिया के सवालों
के जबाव देने ही होंगें। आज जबकि समूचे प्रशासनिक, राजनीतिक तंत्र से लोगों की
आस्था उठ रही है तो इसे बचाने की जरूरत है। सुशासन के सवाल आज महत्वपूर्ण हो उठे
हैं। ऐसे में सकारात्मक वातावरण बनाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि ईमानदारी और
जनसेवा का संकल्प लेकर ही हम मीडिया या पुलिस में आते हैं। यह दिखना भी चाहिए। ऐसे
समय में जब अविश्वास और प्रामणिकता का संकट सामने हो तब मीडिया का महत्व बहुत बढ़
जाता है क्योंकि वह ही मत निर्माण का काम करती है। एक लोकतंत्र के लिए मीडिया का
सक्रिय और संवेदनशील होना जरूरी है और यह शर्त पुलिस पर भी लागू होती है।
भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के दौर में मीडिया के काम काज पर सवालिया निशान उठ रहे
हैं, उसका समाधान मीडिया को ही तलाशना होगा।
खुले सत्र
में हुयी अनेक मुद्दों पर चर्चाः संगोष्ठी के दूसरे एवं खुले सत्र में अनेक विषयों पर चर्चा हुयी। इस
सत्र की अध्यक्षता महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा के
कुलपति विभूति नारायण राय ने की। उनका कहना था कि आज मीडिया और पुलिस एक
दूसरे की विरोधी भूमिका में दिखते हैं। खबरों को प्लांट करना भी हमारे सामने एक
बड़ा खतरा है। उन्होंने कहा कि हमारे रिश्ते दरअसल हिप्पोक्रेसी पर आधारित हैं।
पुलिस छिपाती है और पत्रकार कुछ अलग छापते हैं। इसमें विश्वसनीयता का संकट बड़ा हो
गया है। इस सत्र में सर्वश्री एस.के. झा, अनवेश मंगलम, अरूण गुर्टू, लाजपत आहूजा,
नरेंद्र प्रसाद, रमेश शर्मा, शिवअनुराग पटैरया, दीपक तिवारी,राजेश सिरोठिया,बृजेश
राजपूत ने अपने विचार रखे।
दूसरे सत्र में गूंजे तमाम सवालः संगोष्ठी के दूसरे सत्र की अध्यक्षता
करते हुए सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी एवं रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर के
पूर्व कुलपति अरूण गुर्टू ने कहा कि जब तक राजनीतिक हस्तक्षेप बंद नहीं
होता अच्छी पुलिसिंग संभव नहीं है। उन्होंने कहा कि मीडिया व पुलिस के उद्देश्य
दरअसल जनहित ही हैं। ऐसे में पारदर्शिता और प्रोफेशलिज्म से सही लक्ष्य पाए जा
सकते हैं।इस सत्र में सर्वश्री मदनमोहन जोशी, गिरीश उपाध्याय,जीके सिन्हा, पूर्व
पुलिस महानिदेशक –मप्र एस.सी.त्रिपाठी, जीएस माथुर,रामजी त्रिपाठी, जीपी
दुबे,राजेंद्र मिश्र, के.सेतुरमन रामभुवन सिंह कुशवाह, मनीष श्रीवास्तव, ने अपने
विचार रखे।
संवाद के सुझावः
1.
पुलिस और मीडिया के बीच निरंतर संवाद की जरूरत है।
2.
पुलिस की छवि बदलने के लिए सकारात्मक खबरें भी प्रकाशित की जाएं।
3.
सभी राज्यों में जिला स्तर पर पुलिस विभाग में एक प्रोफेशनल जनसंपर्क
अधिकारी की नियुक्ति की जाए।
4.
पुलिस के कामों और सेटअप को समझने के लिए मीडियाकर्मियों का प्रशिक्षण
हो तथा पुलिसवालों का मीडिया उन्मुखीकरण तथा कम्युनिकेशन दक्षता बढ़ाने के प्रयास
हों।
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
सोमवार, 17 सितंबर 2012
एमसीयू में ‘पुलिस और मीडिया में संवाद’ आज
राज्यपाल करेंगें संवाद का शुभारंभ
भोपाल,17 सितंबर। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार
विश्वविद्यालय, भोपाल के तत्वाधान में ‘पुलिस
और मीडिया में संवाद’
विषय पर 18 सितंबर,2012 एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। संवाद का
शुभारंभ मध्यप्रदेश के राज्यपाल रामनरेश यादव प्रातः 10.30 बजे करेंगें। इस अवसर
पर प्रदेश के गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता विशेष रूप से उपस्थित रहेगें। इसमें देश के
वरिष्ठ पुलिस अधिकारी एवं वरिष्ठ मीडियाकर्मी भागीदारी करेंगें।
विश्वविद्यालय
के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने बताया कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों एवं
संपादक स्तर के मीडियाकर्मियों के मध्य आयोजित इस विमर्श का उद्देश्य दोनों वर्गों
के बीच बेहतर तालमेल एवं एक-दूसरे की कठिनाईयों एवं सहयोग के बिंदुओं को चिन्हित कर
सार्थक संवाद के लिए वातावरण तैयार करना है। तीन सत्रों में विभाजित इस संगोष्ठी
में कानून व्यवस्थाः जनसमुदाय को क्या बताना आवश्यक, प्रहरी-कौन ? पुलिस या मीडिया या दोनों, पुलिस व्यवस्था
में जनसंपर्क की रचना विषयों पर चर्चा होगी।
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
रविवार, 16 सितंबर 2012
व्यंग्यः लड़ते हुए जाना है
-संजय
द्विवेदी
हमारे देश
के राजा ने मान लिया है कि वे जा रहे हैं और इसलिए वे लड़ते हुए जाना चाहते हैं।
सवाल यह है कि अगर जाना ही है, तो आराम से रहो। जैसे पिछले आठ साल रहे, ये
लड़ाई-वड़ाई अच्छी बात नहीं हैं। किंतु वे जोश में हैं। मालिक(अमरीका) का हुकुम है,
जाओ भले पर मेरा काम करके जाना।
हम भारतीय तो वफादार नौकर हैं, मालिक का सारा
पाप अपने सर लेते हैं। मालिक एक्सीडेंट करता है, नौकर जेल जाता है। मालिक खून करता
है- नौकर कहता है- ‘मैंने
किया’ और
जेल जाता है। ऐसे में सरकार रहे या जाए हम तो अपने मालिक का काम करके ही जाएंगें।
जिंदगी में कभी नहीं लड़े, किसी बात के लिए नहीं लड़े पर आज लड़ेंगें। हमें ऐसा-
वैसा न समझो हम तो सच्चे सेवक हैं। आठ साल की सरकार में मालिक के दो काम थे, दोनों
करके जा रहे हैं। परमाणु करार के लिए सरकार दांव पर लगा दी थी। अब फिर एफडीआई के
लिए दांव पर लगायी है। प्राण जाए पर वचन न जाई। यही रघुकुल रीति है। इसे ममता
बनर्जी और मुलायम सिंह नहीं समझ सकते जिनकी जीभ चमड़े की है, आज कुछ कहते हैं कल
कुछ और। एक हम ही हैं कि जो कल थे वो आज भी हैं। हमारे मालिक चुनाव में हैं। वोट
मांग रहे हैं। कह रहे हैं इंडिया में एफडीआई हो जाएगा तो अमरीका संभल जाएगा। उनकी
जनता को कष्ट नहीं होना।
हम तो
भारतीय हैं दुख सहने के आदी। दूसरों को दुख न हो, हमें हो तो हो। परपीड़ा हमारा
संस्कार नहीं है। हम तो लोकोपकार करने वाले जीव हैं। गरीबी में भी हम अपना
स्वाभिमान कायम रखने वाले लोग हैं। नासमझ लोग ही मेरे विरोध में हैं। उन्हें नहीं
पता की वसुधैव कुटुम्बकम् के मायने क्या हैं। पूरा विश्व एक परिवार है- हम सब भाई
बंधु हैं सो अमरीका के संकट के दूर करने में हमारा थोड़ा ‘सेक्रीफाइस’ जरूरी है।
मालिक चुनाव में हैं और मैं घर में बैठा रहूं ऐसा नहीं हूं मैं। उनकी दुआ से
कुर्सी है। बीच में जरा अहसानफरामोशी की तो देखा, दुनिया के सारे अखबार मुझे ‘अंडरअचीवर’ कहने लगे। अब
स्वामिभक्ति का एक काम किया तो सबके सुर बदल गए। इसे कहते हैं फटा पोस्टर निकला
हीरो। जो हारकर जीत जाए उसे बाजीगर कहते हैं।
बस ओबामा साहब ये चुनाव जीत जाएं, हमारी पार्टी
भारत में डूब जाए तो भी चलेगा। क्योंकि मेरे तो दस साल पूरे हो रहे हैं। अब
जिन्हें पार्टी और सरकार चलानी हो वे जानें। मैं चला, मैं चला । पर ध्यान रखना जब
भी इतिहास लिखा जाएगा वफादारों में मेरा नाम होगा। मैंने गद्दारी नहीं की। मालिकों
की सेवा की। इसलिए मैं असरदार हूं। साइलेंट मोड में रहता हूं। वक्त पर ऐसा झटका
देता हूं कि लोग देखते रह जाते हैं। बावजूद देखो मेरी ईमानदारी की हनक कायम है।
बाबा रामदेव से लेकर अन्ना हजारे सभी मुझे ईमानदार कहते हैं। घोटाले हो रहे हैं तो
उसके लिए मेरे मंत्री जिम्मेदार हैं।मैं तो पाक-साफ हूं। हां कोयले में कुछ काला
हुआ पर उससे क्या होता है। राजनीति तो कालिख की कोठरी है। कुछ चिपक गया तो छुड़ा
लेंगें। मैं वोटों का लोभी नहीं हूं इसलिए चुनाव भी नहीं लड़ता, कुछ मांगना मुझे
अच्छा नहीं लगता है। मैं तो बिन मांगे बहुत कुछ दे देता हूं। जैसे भ्रष्टाचार और
महंगाई जनता नहीं मांग रही थी मैंने दी। अब देखिए जनता को खुदरा में एफडीआई भी
नहीं चाहिए मैंने दी। फिर भी हमें ‘अंडरअचीवर’ कैसे कहा जा सकता है। बिना मांगे तो भगवान भी कुछ
नहीं देते, मैं बिना मांगें सब दे रहा हूं। लोग याद करेगें कि हमारे देश में एक
ऐसा भी राजा था जिसने सब कुछ हमें बिना मांगे दिया। मैं तो ‘युवराज’ को भी बिन
मांगे मंत्री पद देना चाहता हूं पर शायद उन्हें खुद पर भरोसा नहीं है। इसलिए
प्रधानमंत्री के अलावा किसी पद पर बैठना नहीं चाहते हैं। मुझे देखकर शायद उन्हें
लगता हो कि कुछ न करने वाले के लिए यही पद ठीक है। पर ऐसा नही है कि मैं कुछ नहीं
कर रहा हूं। कुछ न करना भी आखिर कुछ करना है। आखिर देश में कुछ करता तो दस साल
राजा कैसे रहता। इसलिए मैने वही किया और कहा जो मेरे मालिकों की इच्छा है।
---------------
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)