बुधवार, 20 जुलाई 2022

'मीडिया विमर्श' के 'कन्नड मीडिया विशेषांक' का लोकार्पण

कन्नड और हिंदी साहित्य में हैं एकता के सूत्र: मधुसूदन साईं

बेंगलुरु में श्री मधुसूदन साईं ने किया पत्रिका के विशेषांक का लोकार्पण



बेंगलुरु, 15 जुलाई। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित देश की प्रतिष्ठित पत्रिका 'मीडिया विमर्श' के 'कन्नड मीडिया विशेषांक' का लोकार्पण बेंगलुरू में श्री सत्य साईं यूनिवर्सिटी फॉर ह्यूमन एक्सीलेंस के चांसलर श्री मधुसूदन साईं ने किया। इस अवसर पर पत्रिका के सलाहकार संपादक एवं भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी एवं डॉ. राकेश उपाध्याय भी उपस्थित थे।

   पत्रिका का लोकार्पण करते हुए श्री मधुसूदन साईं ने कहा इस विशेषांक में कन्नड मीडिया और संस्कृति के कई आयामों की जानकारी मिलती है। कन्नड और हिंदी भाषा में एकता के कई सूत्र हैं। कन्नड और हिंदी साहित्य में भी एकता के कई सूत्र मिलते हैं। उन्होंने कहा कि हिंदी पत्रिकाओं के ऐसे विशेषांकों से भारतीय संस्कृति में एकात्मकता का बोध होता है। इस विशेषांक के माध्यम से हिंदी पाठकों को कन्नड मीडिया के विभिन्न आयामों के बारे में जानने और सांस्कृतिक एकात्मकता के अंतःसूत्र को समझने का अवसर मिलता है।  

   मीडिया विमर्श' के सलाहकार संपादक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने कहा कि कन्नड पत्रकारिता और मीडिया की व्यापक दुनिया है। इससे अवगत होने का मौका हिंदी पाठकों को इस विशेषांक के माध्यम से मिलेगा। उन्होंने कहा कि भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद की परंपरा को 'मीडिया विमर्श' ने अपने उर्दू पत्रकारिता विशेषांक, गुजराती पत्रकारिता विशेषांक, तेलुगू मीडिया विशेषांक, मलयालम मीडिया विशेषांक और तमिल मीडिया विशेषांक के माध्यम से लगातार आगे बढ़ाया है। 'मीडिया विमर्श' का कन्नड मीडिया विशेषांक इस दिशा में एक और प्रयास है। कन्नड मीडिया के इतिहास, विकास, पत्रकारिता और सिनेमा के मूल्यांकन एवं विश्लेषण के माध्यम से भारतीय भाषाओं में अंतर-संवाद की यह परंपरा सार्थक होगी। 

    'मीडिया विमर्श' के 'कन्नड मीडिया विशेषांक' में कन्नड पत्रकारिता का इतिहास, कन्नड सिनेमा, टीवी, रेडियो, वेब आदि कन्नड मीडिया के विभिन्न आयामों पर केंद्रित आलेखों का प्रकाशन हुआ है। इस विशेषांक में कुल 27 आलेखों में से 21 हिंदी में और 6 अंग्रेजी में हैं। आलेख कर्नाटक के कई विद्वानों ने लिखे हैं। विशेषांक के अतिथि संपादक डॉ. सी. जय शंकर बाबु हैं।




पत्रकारिता से साहित्य में चली आई ‘न हन्यते’

                                                                              - इंदिरा दांगी



आचार्य संजय द्विवेदी की नई किताब 'न हन्यते' को खोलने से पहले मन पर एक छाप थी कि पत्रकारिता के आचार्य की पुस्तक है और दिवंगत प्रख्यातों के नाम लिखे स्मृति-लेख हैं, जैसे समाचार पत्रों में संपादकीय पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ करते ही हैं; लेकिन पुस्तक का पहला ही शब्द-चित्र मेरी इस धारणा को तोड़ता है। ‘सत्ता साकेत का वीतरागी’ में वे पूर्व प्रधानमंत्री और भारत के महान नेता अटल बिहारी वाजपेयी को देश के बड़े बेटे के तौर पर याद करते हैं; राजनीति से ऊपर जिसके लिये देश था। इसीलिये उनके देहवसान पर पूरा देश रोया और ये संस्मरण फिर उनकी स्मृति से हमें नम कर जाता है।

  ‘उन्हें भूलना है मुश्किल’ वैचारिकता के शिल्प-स्तर पर एक नये प्रयोग का संस्मरण था, जबकि लेखक ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रथम प्रवक्ता श्री माधव गोविंद वैध के जीवन की अनगिनत उपलब्धियों के बजाय उनको घर के ऐसे बड़े-बुज़ुर्ग के तौर पर याद किया है, जिनका जीवन आगे आने वाली पीढ़ियों के लिये रोशनी का एक स्तंभ रहेगा। ‘बौद्धिक तेज से दमकता व्यक्तित्व’ संस्मरण-रेखाचित्र अनिल माधव दवे को पाठक के ज़हन में राजनेता और प्रचारक के अलावा धरती के हितैषी की छवि और छाप भी देता है। जब लेखक उनकी वसीयत बयान करते हैं कि “...मेरी स्मृति में कोई स्मारक, पुरस्कार, प्रतिमा स्थापन न हो। मेरी स्मृति में यदि कोई कुछ करना चाहते हैं तो वृक्ष लगाएं।” जिस राजनेता का सर्वस्व जल, जंगल, जमीन के नाम रहा हो और जिसके कार्यालय का नाम ही ‘नदी का घर’ हो, उसकी वसीयत वृक्षों के सिवाय और क्या होती। 

   ‘उन्होने सिखाया ज़िंदगी का पाठ’ में लेखक ने अपने पत्रकारिता-गुरु प्रोफेसर कमल दीक्षित को याद किया है; ऐसे ही गुरुजनों के परिश्रम, अनुशासन और मेधा ने माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय को राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पहचान दिलवाई। ‘रचना, सृजन और संघर्ष से बनी शख्सियत’ में शिव अनुराग पटैरया को याद करते हुए संजय जी शब्द-रेखाओं से कैसा अविस्मरणीय चित्र खींचते हैं, “वे ही थे जो खिलखिलाकर मुक्त हंसी हंस सकते थे, खुद पर भी, दूसरों पर भी।” ऐसे पात्र दुर्लभ हैं आज–समय में भी, साहित्य में भी। ‘सरोकारों के लिये जूझने वाली योद्धा’ संस्मरण पाठक को एक ऐसी शिक्षिका दविंदर कौर उप्पल से मिलवाता है, जो सख्त, अनुशासन प्रिय, नर्म और ममतामयी थीं। लेखक ने अपनी शिक्षिका के समग्र व्यक्तित्व को अपनी एक पंक्ति से जैसे अमिट बना दिया है, “पूरी जिंदगी में उन्होंने किसी की मदद नहीं ली।”

     ‘बहुत कठिन है उन–सा होना’ शिल्प के स्तर पर पुस्तक का सबसे लाजवाब संस्मरण है, जिसमें लेखक ने छतीसगढ़ के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी को याद करते हुए लिखा है, “वे दरअसल पढ़ने-लिखने वाले इंसान थे। बहुपठित और बहुविग्य। किंतु वे ‘शक्ति’ चाहते थे, जो साहित्य और संस्कृति की दुनिया उन्हें नहीं दे सकती थी। इसलिये शक्ति जिन-जिन रास्तों से आती थी, वह उन सब पर चले। वे आईपीएस बने, आईएएस बने, राजनीति में गये और सीएम बने।...वे कलेक्टर थे तो जननेता की तरह व्यवहार करते थे, जब मुख्यमंत्री बने तो कलेक्टर सरीखे दिखे।” व्यक्तित्वों का ऐसा मूल्यांकन सिर्फ साहित्य में ही संभव है।

     संजय जी की लेखनी की एक विशिष्टता है कि वे अपनी रचना में ऐसा वातावरण, ऐसी भाषा रचते हैं कि किसी अपरिचित पात्र के वर्णन में भी पाठक को आत्मीय की स्मृति-सा आस्वादन मिलता है। ‘ध्येयनिष्ठ संपादक और प्रतिबद्ध पत्रकार’ संस्मरण में अपने पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति राधेश्याम शर्मा को वे किस तरह याद करते हैं देखिये, “वे आते तो सबसे मिलते और परिवारों में जाते। अपने साथियों और अधीनस्थों के परिजनों, बच्चों की स्थिति, प्रगति, पढ़ाई और विवाह सब पर उनकी नजर रहती थी।”

     श्यामलाल चतुर्वेदी पर लिखा संस्मरण ‘समृद्ध लोकजीवन के स्वप्नद्रष्टा’ जहां आपको छत्तीसगढ़ के लोकसेवक पत्रकार से मिलवायेगा, तो ‘पत्रकरिता के आर्चाय’ रेखाचित्र में आप एक पुरोधा डॉ. नंदकिशोर त्रिखा से मिलेंगे, जिन्होंने मूल्यों के आधार पर पत्रकारिता की। ‘भारतबोध के अप्रतिम व्याख्याता’ एक मार्मिक रेखाचित्र बन पड़ा है, जिसमें मुज़फ्फर हुसैन से हम मिलते हैं, जिन्होंने सिर्फ लेखन के बूते न सिर्फ जीवन जिया, सत्ता के गलियारों से लेकर आम सभाओं तक में सम्मान पाया, अपने समुदाय की चिंता की और कट्टरपंथियों से कभी नहीं डरे। ‘संवेदना से बुनी राजनीति का चेहरा’ में जे. जयललिता की अपार लोकप्रियता और जनसेवक की छवि का पता और पड़ताल है तो ‘छत्तीसगढ़ का गांधी’ में संत पवन दीवान का भोला संत-व्यक्तित्व। ‘एक ज़िंदादिल और बेबाक इंसान’ में लेखक ने अपने पुराने युवा संवाददाता साथी देवेंद्र कर को याद किया है, वहीं ‘स्वाभिमानी जीवन की पाठशाला’ संस्मरण में बसंत कुमार तिवारी के जुझारू व्यक्तित्व और किरदार को शब्द दिये हैं। 

    ‘माओवादियों के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज़’ महेंद्र कर्मा जैसे जनसेवक, जननायक से हमें रूबरू करता शब्द-चित्र है। ‘माटी की महक’ प्रख्यात राजनेता नंदकुमार पटेल और उनके पुत्र दिनेश पटेल के साथ अपने निजी समय और सम्पर्क को याद करते हुए संजय जी नक्सली हिंसा में शहीद अपने इन प्रिय व्यक्तित्वों के बहाने पाठकों से झकझोर देने वाले सवाल करते हैं कि इनका कुसूर क्या था? ‘ध्येयनिष्ठ जीवन’ शब्द-चित्र में लखीराम अग्रवाल को ऐसे मार्मिक ढंग और शैली में याद किया है कि जो इस राजनेता को जानते भी नहीं रहे होंगे, वे भी अब उन्हें सम्मान से याद करेंगे। बलिराम कश्यप पर लिखा शब्द-चित्र ‘जनजातियों की सबसे प्रखर आवाज’ का कथ्य तो पाठक को हिला कर रख देता है। जब हम एक ऐसे राजनेता को जानते हैं जिसके पुत्र को माओवादियों ने मार डाला, फिर भी जो बस्तर के दूर-दराज इलाकों में जाकर जन-जन से मिलता रहा, क्योंकि वंचित आदिवासी ही उनकी संतान थी।

    ‘न तो थके और न ही हारे’ में एक ईमानदार पत्रकार रामशंकर अग्निहोत्री को लेखक ने याद किया है। पुस्तक का अंतिम संस्मरण कानू सान्याल पर ‘विकल्प के अभाव की पीड़ा’ है। नक्सलवाद को हम उसके रक्तरंजित परिचय से याद करते हैं, लेकिन लेखक नक्सलबाड़ी आंदोलन के इस नायक को कानू दा कहते हुए जिन शब्दों में याद करते हैं, वे शब्द न सिर्फ इस अभिशप्त नायक को सम्मान देते हैं; बल्कि लेखक को पत्रकारिता से परे साहित्य की दुनिया का हिस्सा बना जाते हैं। लेखक के ही शब्दों में इस (अ)नायक को नमन, “वे भटके हुए आंदोलन का आख़िरी प्रतीक थे, किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही।”

पुस्तक : न हन्यते

लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी

मूल्य : 250 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

(लेखिका देश की प्रख्यात कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं। इन दिनों भोपाल में रहती हैं।)

'पॉजिटिव' होने के लिए 'पॉजिटिव लाइफ' जीना जरूरी: प्रो. द्विवेदी

'मेंटल हेल्थ ऑफ यंग मीडिया प्रोफेशनल्स' विषय पर नागपुर में सेमिनार का आयोजन

आईआईएमसी, अमरावती एवं यूनीसेफ के संयुक्त तत्वावधान में हुआ कार्यक्रम का आयोजन



नागपुर, 18 जुलाई। ''पत्रकारों को जीवन और जीविका के बीच संतुलन बनाए रखने की जरुरत है। सकारात्मक होने के लिए सकारात्मक जीवन जीना आवश्यक है। मीडियाकर्मियों को लोकमंगल के साथ-साथ आत्ममंगल पर भी विचार करना चाहिए। ध्यान, प्राणायाम और नेचुरोपैथी को अपना कर पत्रकार मानसिक तनाव को दूर कर सकते हैं और अपने पत्रकारिता कर्म को श्रेष्ठ बना सकते हैं।'' यह विचार भारतीय जन संचार संस्थान के महानिदेशक प्रो. (डॉ.) संजय द्विवेदी ने 'मेंटल हेल्थ ऑफ यंग मीडिया प्रोफेशनल्स' विषय पर आईआईएमसी, अमरावती एवं यूनीसेफ के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सेमिनार को संबोधित करते हुए व्यक्त किए। 

    नागपुर में भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के सभागार में आयोजित इस कार्यक्रम की अध्यक्षता दैनिक भास्कर, नागपुर के समूह संपादक प्रकाश दूबे ने की। आयोजन में वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृपाशंकर चौबे विशिष्ट अतिथि के रूप में मौजूद रहे।

    कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो. संजय द्विवेदी ने कहा कि यदि मन स्वस्थ रहेगा, तो विचार भी स्वस्थ रहेंगे। मन और शरीर पर ध्यान देने की जरुरत है, लेकिन स्वास्थ्य की अतिरिक्त चिंता भी तनाव का बड़ा कारण है। अपने कार्य को बड़ा मानने से अहंकार पैदा होता है, जो तनाव का प्रमुख कारक है। पत्रकार अगर पत्रकारिता को सेवा मानकर काम करेंगे, तो तनाव दूर रहेगा। 

     सेमिनार के प्रथम सत्र की अध्यक्षता करते हुए दैनिक भास्कर, नागपुर के समूह संपादक प्रकाश दूबे ने कहा कि जीवन में गिरावट तनाव का प्रमुख कारण है। पत्रकारों को हताशा से बचना चाहिए। मीडियाकर्मियों को भाषाओं को सीखने की जरुरत है, भाषा न जानने से हताशा होती है। उन्होंने पत्रकारों एवं उनके परिवार के सदस्यों की शारीरिक एवं मानसिक जांच कराने की पुरजोर मांग की। 

   इस अवसर पर वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय ने कहा कि दुनिया चलाने की सोच से पत्रकारों में तनाव पैदा होता है। अन्य व्यवसायों की तुलना में पत्रकारिता में तनाव, अनिद्रा और हताशा ज्यादा है। अगर पत्रकार जीवन और जीविका में अंतर करना सीखेंगे, तो यह तनाव कम हो सकता है।

     महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग के अध्यक्ष प्रो. कृपाशंकर चौबे ने कहा कि पत्रकारों को कई काम एक साथ करने होते हैं, इसलिए वे तनावग्रस्त ज्यादा होते हैं। तनाव से रचनात्मकता कम होती है। इससे मुक्ति के लिए पत्रकारों को आवश्यक कदम उठाने चाहिए।

    सेमिनार के द्वितीय सत्र की अध्यक्षता आईआईएमसी के महानिदेशक प्रो. संजय द्विवेदी ने की। इस सत्र में प्रख्यात मनोचिकित्सक एवं साइकिएट्रिक सोसायटी, नागपुर के अध्यक्ष डॉ. सागर चिद्दलवार ने मानसिक स्वास्थ्य के महत्व एवं आवश्यकता पर विस्तार से चर्चा की। पत्र सूचना कार्यालय के शशिन राय, 'तरुण भारत' के डिजिटल हेड शैलेश पांडे और 'द हितवाद' के चीफ रिपोर्टर कार्तिक लोखंडे ने भी द्वितीय सत्र में अपने विचार व्यक्त किए।

     सेमिनार में विषय प्रवर्तन आईआईएमसी के डीन (छात्र कल्याण) प्रो. (डॉ.) प्रमोद कुमार ने किया एवं धन्यवाद ज्ञापन भारतीय जन संचार संस्थान, पश्चिमी क्षेत्रीय केंद्र, अमरावती के क्षेत्रीय निदेशक प्रो. (डॉ.) वी.के. भारती ने दिया। कार्यक्रम में एनबीबीएस एलयूपी (भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद) के निदेशक डॉ. बी.एस. द्विवेदी, यूनीसेफ की संचार विशेषज्ञ स्वाति महापात्र, मीडियाकर्मियों, शिक्षकों एवं विद्यार्थियों की भी उल्लेखनीय उपस्थिति रही।

रविवार, 12 जून 2022

शिवाजीः सुशासन, समरसता, सामाजिक न्याय के वाहक

 

-प्रो.संजय द्विवेदी

   शिवाजी का नाम आते ही शौर्य और साहस की प्रतिमूर्ति का एहसास होता है। अपने सपनों को सच करके उन्होंने खुद को न्यायपूर्ण प्रशासक रूप में स्थापित किया। इतिहासकार भी मानते हैं कि उनकी राज करने की शैली में परंपरागत राजाओं और मुगल शासकों से अलग थी। वे सुशासन, समरसता और न्याय को अपने शासन का मुख्य विषय बनाने में सफल रहे। बिखरे हुए मराठों को एक सूत्र में पिरोकर उन्होंने जिस तरह अपने सपनों को साकार किया वह प्रेरित करने वाली कथा है। एक अप्रतिम सैनिक, कूटनीतिज्ञ, योद्धा के साथ ही वे कुशल रणनीतिकार के रूप में भी सामने आते हैं। वे अपनी मां जीजाबाई और गुरू के प्रति बहुत श्रद्धाभाव रखते थे। शायद इन्हीं समन्वित मानवीय गुणों से वे ऐसे शासक बने जिनका कोई पर्याय नहीं है।

लोकमंगल रहा शिवाजी का शासन सूत्र-                                                                                                                          

    इतिहासकार ईश्वरी प्रसाद कहते हैं- प्रशासन की उनकी प्रणाली कई क्षेत्रों में मुगलों से बेहतर थी। इतिहास के पन्नों में ऐसा शासक कभी-कभी आता है, जिसने लोकमन में जगह बनाई हो। शिवाजी एक ऐसे शासक हैं जिनके प्रति उनकी प्रजा में श्रद्धाभाव साफ दिखता है क्योंकि लोकमंगल ही उनके शासन का मूलमंत्र था। उनकी राज्य प्रणाली, प्रशासन में आम आदमी के लिए, स्त्रियों के लिए, कमजोर वर्गों के लिए ममता है, समरसता का भाव है। वे न्यायपूर्ण व्यवस्था के हामी हैं। प्रख्यात इतिहासकार डा. आरसी मजूमदार की मानें तो शिवाजी न केवल एक साहसी सैनिक और सफल सैन्य विजेता थे,बल्कि अपने लोगों के प्रबुद्ध शासक भी थे। बाद के इतिहासकारों ने तमाम अन्य भारतीय नायकों की तरह शिवाजी के प्रशासक स्वरूप की बहुत चर्चा नहीं की है। आज भारतीय पुर्नजागरण का समय है और हमें अपने ऐसे नायकों की तलाश है, जो हमारे आत्मविश्वास को बढ़ा सकें। ऐसे समय में शिवाजी की शासन प्रणाली में वे सूत्र खोजे जा सकते हैं, जिससे देश में एकता और समरसता की धारा को मजबूत करते हुए समाज को न्याय भी दिलाया जा सकता है।शिवाजी अपने समय के बहुत लोकप्रिय शासक थे। उन पर जनता की अगाध आस्था दिखती थी। साथ ही उनके राजतंत्र में बहुत गहरी लोकतांत्रिकता भी दिखती है। क्योंकि वे अपने विचारों को थोपने के बजाए या राजा की बात भगवान की बात है ऐसी सोच के बजाए अपने मंत्रियों से सलाहें लेते रहते थे। विचार-विमर्श उनके शासन का गुण हैं। जिससे वे शासन की लोकतांत्रिक चेतना को सम्यक भाव से रख पाते हैं।

सत्ता का विकेंद्रीकरण और सामाजिक संतुलन-

शिवाजी ऐसे शासक हैं जो सत्ता के विकेंद्रीकरण की वैज्ञानिक विधि पर काम करते हुए दिखते हैं। समाज के सभी वर्गों,जातियों, सामाजिक समूहों की अपनी सत्ता में वे भागीदारी सुनिश्चित करते हैं, जिनमें मुसलमान भी शामिल हैं। उन्होंने मंत्रियों को अलग-अलग काम सौंपे और उनकी जिम्मेदारियां तय कीं ताकि अनूकूल परिणाम पाए जा सकें। वे परंपरा से अलग हैं इसलिए वे अपने नागरिकों या सैन्य अधिकारियों को कोई जागीर नहीं सौंपते। किलों( दुर्ग) की रक्षा के लिए उन्होंने व्यवस्थित संरचनाएं खड़ी की ताकि संकट से जूझने में वे सफल हों। रक्षा और प्रशासन के मामलों को उन्होंने सजगता से अलग-अलग रखा और सैन्य अधिकारियों के बजाए प्रशासनिक अधिकारियों को ज्यादा अधिकार दिए। उनकी यह सोच बताती है नागरिक प्रशासन उनकी चिंता के केंद्र में था। उन्होंने राजस्व प्रणाली में व्यापक सुधार करते हुए किसानों से सीधा संपर्क और संवाद बनाने में सफलता पाई। उन्होंने केंद्रीय प्रशासन और प्रांतीय प्रशासन की साफ रचना खड़ी और उनके अधिकार व कर्तव्य भी सुनिश्चित किए। उन्होंने अष्ट प्रधान नाम से केंद्रीय मंत्रियों की टोली बनाई जिसमें आठ मंत्री थे। उनमें कुछ पेशवा कहे गए जो वरिष्ठ थे। चार प्रांतों विभक्त शिवाजी की राज्य रचना एक अनोखा उदाहरण थी। प्रत्येक प्रांत को जिलों और गांवों में बांटा गया था। गांव का प्रमुख देशपाण्डेय या पटेल कहलाता था। शिवाजी गांवों में राजस्व प्रणाली को वैज्ञानिक बनाने का काम किया और उनको किसानों के लिए उपयोगी बनाया। इस व्यवस्था में किसान किस्तों में भी भुगतान कर सकते थे। राज्यस्व अधिकारियों पर नियंत्रण रहे इसलिए नियमित उनके खातों की गहन जांच भी की जाती थी। उन्होंने न्यायिक प्रशासन को भी जवाबदेह बनाया।

सैन्य प्रणाली में किए नए प्रयोग-

  शिवाजी स्वयं योद्धा थे। जाहिर तौर पर उनकी सैन्य प्रणाली बहुत अग्रगामी थी। पूर्व की परंपरा में सैनिक छः माह काम करते थे फिर छः माह दूसरे कामों से अपना जीवन यापन करते थे। शिवाजी ने नियमित सेना को स्थापित किया, उन्हें पूरे साल सैनिक जीवन जीना होता था। सैनिकों को नियमित भुगतान के साथ उनकी योग्यता और देशभक्ति के आधार पर जगह मिलने लगी। शिवाजी ने लगभग 280 किलों के माध्यम से अभेद्य रचना खड़ी की। उनकी सेना में कठोर अनुशासन था। सेना में सभी वर्गों के सैनिक थे। 700 से अधिक मुस्लिम भी उनकी सेना में थे।अपने सैनिकों को उन्होंने गुरिल्ला युद्ध में प्रशिक्षित कर बड़ी सफलताएं पाईं। मृत सैनिकों के परिजनों का खास ख्याल रखा जाता था। इसके साथ ही उन्होंने बहुत अनुशासित सेना खड़ी की। सेना में अनुशासन बनाए रखने के लिए शिवाजी बहुत सख्त थे। महिलाओं और बच्चों को मारना या प्रताड़ित करना, ब्राह्मणों को लूटना, खेती को खराब करना आदि युद्ध के दौरान भी दंडनीय अपराध थे। अनुशासन के रखरखाव के लिए विस्तृत नियम सख्ती से लागू किए गए थे। किसी भी सैनिक को अपनी पत्नी को युद्ध के मैदान में ले जाने की अनुमति नहीं थी। शिवाजी ने अपनी सेना को सब तरह से सुसज्जित किया जिसमें छह विभाग थे। जो इस प्रकार हैं- घुड़सवार सेना, पैदल सेना, ऊंट और हाथी बटालियन, तोपखाने और नौसेना। यह विवरण बताता है कि उनका राज्यतंत्र किस तरह लोगों की सुरक्षा और शांति के लिए काम कर रहा था। वे प्रेरित करने वाले नेता था। इसलिए उनकी शक्ति बढ़ती चली गयी।उनके कट्टर दुश्मन औरंगज़ेब को स्वयं स्वीकार करना पड़ा कि "मेरी सेनाओं को उन्नीस वर्षों से उनके खिलाफ काम में लगाया गया है और फिर भी उनकी (शिवाजी की) स्थिति हमेशा बढ़ती रही है।"

उदार और सहिष्णु शासक-

  शिवाजी जी ने अपनी जंग मुगलों के विरूद्ध लड़ी, किंतु वे सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय के मंत्रदृष्टा थे। उन्होंने कभी किसी जाति और धर्म के विरूद्ध कभी कुछ न किया, न ही कहा। उनके शासन में सभी सुखी थे क्योंकि वे सबको अपना मानते थे। अपनी आठ सदस्यीय केंद्रीय मंत्रिपरिषद में उन्होंने सात ब्राम्हणों को जगह दी। वे बेहद सहिष्णु हिंदू शासक थे। उन्होंने साफ कहा कि वे हिंदुओं, ब्राम्हणों और गायों के रक्षक हैं। उन्होंने सभी पंथों और उनके ग्रंथों के प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित किया। किसी मस्जिद को अपने राज में कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया न पहुंचने दिया। युद्ध के दौरान महिलाओं और बच्चों के सम्मान और सुरक्षा उनकी चिंता का मूल विषय थे।

    मुस्लिम महिलाओं को सम्मान देने की उनकी अनेक कथाएं बहुश्रुत हैं। उन्होंने मुस्लिम विद्वानों और आलिमों को हमेशा आर्थिक मदद दी। सरकारी विभागों में उन्होंने मुस्लिम अधिकारियों को नियुक्त किया। औरंगजेब द्वारा सभी हिंदुओं पर जजिया कर लगाने पर शिवाजी ने उसे एक पत्र भी लिखा। बहुत खराब सामाजिक परिस्थितियां और मुगल शासकों द्वारा हिंदु विरोधी कृत्यों के बाद भी शिवाजी ने अपने राज्य में मुस्लिम जनता को कभी पराएपन का एहसास नहीं होने दिया और उनका संरक्षण किया। उन्होंने यह नियम ही बना दिया था कि किसी भी युद्ध, छापामार युद्ध में महिलाओं, मस्जिदों और पवित्र पुस्तक कुरान को कोई नुकसान नहीं पहुंचना चाहिए।

  समग्रता में शिवाजी ऐसे भारतीय शासक के रूप में सामने आते हैं, जिसने अपनी बाल्यावस्था में जो सपना देखा, उसे पूरा किया। भारतीय समाज में आत्मविश्वास का मंत्र फूंका और भारतीय लोकचेतना के मानकों के आधार पर राज्य संचालन किया। मूल्यों और अपने धर्म पर आस्था रखते हुए उन्होंने जो मानक बनाए वे आज भी प्रेरित करते हैं। ऐसे महापुरुष सदियों में आते हैं, जिनका व्यक्तित्व और कृतित्व लंबे समय तक लोगों के लिए आदर्श बन जाता है।

रविवार, 30 जनवरी 2022

भारतबोध का नया समयः नए युगबोध का दस्तावेज

 

- इंदिरा दांगी

(समीक्षक देश की प्रख्यात कहानीकार एवं उपन्यासकार हैं। इन दिनों भोपाल में रहती हैं।)


   प्रोफेसर संजय द्विवेदी भारतीय पत्रकारिता के प्रतिष्ठित आचार्य हैं। उनकी नई पुस्तक भारतबोध का नया समयके पहले आलेख में (जो कि पुस्तक का शीर्षक भी है) मीडिया आचार्य संजय द्विवेदी वसुधैव कुटुम्बकम् (धरती मेरा घर है) की उपनिषदीय अवधारणा को बताते हुए इस धरा को, इस धरती को ऋषियों-ज्ञानियों की जननी मानते हैं और इसी का परिणाम वे मानते हैं कि इस देश में राजसत्तायें भी लोकसत्तायें रही हैं। आलेख पुनर्जागरण से ही निकलेंगी राहेंमें लेखक प्रसिद्ध विचार गुलामी आर्थिक नहीं सांस्कृतिक होती हैकी रोशनी में अपनी बात रखते हैं। अपनी संस्कृति को लेकर नए समय के लोगों में जो हीनताबोध है, वही लेखक की चिंता है।

आज़ादी की ऊर्जा का अमृतआलेख में लेखक स्वाधीनता के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर पुरोधाओं की महान परंपरा को कृतज्ञता से याद करते हैं। और एकदम यहां अनायास ही अपने पढ़ने वालों के जहन में एक सवाल भी छोड़ते चलते हैं। इस आलेख में स्वतंत्रता संग्राम के तौर पर सिर्फ कुछ गिने हुए महापुरुषों और हाईलाइट्सवाले आन्दोलनों का ही नाम नहीं लिया गया है, बल्कि वे जो सच्चे लोकनायक थे, जिनकी सब लड़ाईयां और शहादतें देश के लिए थीं, उन्हें भी समतुल्य खड़ा किया गया है। जय-विजय के बीच हम सबके रामआलेख पढ़ते हुए मुझे पंडित विद्यानिवास मिश्र का निबंध मेरे राम का मुकुट भीग रहा हैयाद आने लगता है। लेखक ने यहां तुलसी के राम, कबीर के राम, रहीम के राम से लेकर गांधी और लोहिया के राम तक को याद किया है।

गौसंवर्धन से निकलेंगी समृद्धि की राहेंआलेख न सिर्फ गौवंश पर आधारित भारतीय कृषि अर्थव्यवस्था का ऐतिहासिक-सांस्कृतिक अवलोकन करता है, वरन विश्व अर्थव्यवस्था में गाय के महत्त्व के साथ ही साथ उसके औषधीय महत्त्व पर भी रोशनी डालता है। एकात्म मानव दर्शन और मीडिया दृष्टिलेख में एक बहुत ही जरूरी बात है कि मीडिया की दृष्टि लोकमंगल की हो, समाज के शुभ की हो। इसी तरह चुनी हुई चुप्पियों का समयएक बहुत ही प्रासंगिक और समसमायिक आलेख है, और साथ ही इसकी विषय वस्तु कालातीत है। अद्भुत अनुभव है योगलेख को पढ़ते हुए आप इस पुस्तक में उस मुकाम तक पहुंच जाएंगे, जहां आपको लगेगा कि गौसंवर्धन का अर्थशास्त्रीय पहलू हो या नई शिक्षा नीति की बात या फिर वर्तमान राजनीति का सिनारियो या फिर विश्व योग के सिरमौर भारत पर चर्चाये पुस्तक वास्तव में इस नये समय में नये भारत को समझने में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।

मोदी की बातों में माटी की महकआलेख में लेखक भारत के प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी के जननायक हो जाने के सफर की पड़ताल करते हुए उनकी भाषण कला, देहभाषा और लोकविमर्श की शक्ति पर चर्चा करते हैं। खुद को बदल रहे हैं अखबारलेख में ई-पत्रकारिता के इस दौर में परंपरागत समाचार पत्रों को नये समय की चुनौतियों से रूबरू कराते हैं द्विवेदी जी। अगले लेख पत्रकारिता में नैतिकतामें जहां आचार्य द्विवेदी ग्रामीण पत्रकारिता की उपेक्षा की बात करते हैं, वहां मुझे याद आता है कि जब किसी छोटी जगह पर कोई बड़ा आयोजन होता है या कोई राजनेता जाता है तो रिपोर्टिंग करने के लिए स्टेट या राजधानी से पत्रकार जाते हैं, मतलब ग्रामीण भारत कितना उपेक्षित है भारतीय पत्रकारिता में, जबकि फिल्मी अभिनेत्रियों और अभिनेताओं की छोटी-से-छोटी खबर छपती हैं बड़े-बड़े अख़बारों में। मीडिया गुरु ने सही ही विषय लिया है इस आलेख में।

मीडिया शिक्षा के सौ वर्षमें लेखक ने पिछली एक सदी में मीडिया शिक्षा की दशा और दिशा से अवगत कराया है। संकल्प से सिद्धि का सूत्र मिशन कर्मयोगीआलेख में वे बताते हैं कि मिशन कर्मयोगी अधिकारियों और कर्मचारियों की क्षमता निर्माण की दिशा में अपनी तरह का एक नया प्रयोग है। देश को श्रेष्ठ लोकसेवकों आवश्यकता है, और ये पहली बार है कि बात सरकारी सेवकों के कौशल विकास की हो रही है।

इस पुस्तक में इन आलेखों से आगे, पत्रकारिता के शलाका पुरुषों, देव पुरुषों पर लेख हैं। देवर्षि नारद, विवेकानंद, माधवराव सप्रे, महात्मा गांधी, मदन मोहन मालवीय, बाबा साहेब आंबेडकर, वीर सावरकर, डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जीवन पर आधारित आलेख हैं।

इस तरह इस किताब में, नए युगबोध का ऐसा कोई विषय नहीं जो अछूता हो; अपनी पुस्तक में लेखक ने नए भारत से हमें मिलवाया है, नए भारतबोध के साथ। किताब पढ़कर एक आम पाठक शायद आखिर में यही सोचे कि पत्रकारिता के पाठ्यक्रम में कैसी किताबें पढ़ाई जानी चाहिए-यकीनन भारत बोध का नया समयजैसी!!

पुस्तक : भारतबोध का नया समय

लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी

मूल्य : 500 रुपये

प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

 



समकालीन भारत को समझने की कुंजी

                                                     - प्रो. कृपाशंकर चौबे

             (समीक्षक- महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष हैं)



जनसंचार के गंभीर अध्येता प्रो. संजय द्विवेदी की नई पुस्तक भारतबोध का नया समयका पहला ही निबंध इसी शीर्षक से है। भारतबोध की समझ को स्पष्ट करने के लिए लेखक ने गांधी, धर्मपाल, लोहिया, वासुदेव शरण अग्रवाल, निर्मल वर्मा से लेकर रामविलास शर्मा के राष्ट्रबोध संबंधी चिंतन का अवलंबन लिया है। इस निबंध में संजय द्विवेदी ठीक कहते हैं कि भारतीय दर्शन संपूर्ण जीव सृष्टि का दर्शन है। यहां यह ध्यान देने योग्य है कि समस्त ब्रह्मांड के मंगल की ही कामना सनातन धर्म करता है और अध्यात्मवाद भी। सर्वे भवन्ति सुखिनः’, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्जैसी सूक्तियों को छोड़ भी दें तो प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में कहा गया है, ‘विश्व पुष्टं ग्रामे अस्मिन अनातुरम। अथर्ववेद में भी कहा गया है, ‘सर्वा आशा मम मित्रं भवंतु। भारतीय दर्शन में लोक को सबसे अधिक वरीयता दी जाती है। लोक कोरे मनुष्य नहीं, सारे जीव-जंतु, सभी वनस्पति, नदी, समुद्र, पहाड़ सबको लेकर बनता है। भारतीय दृष्टि चूंकि पेड़, पत्ते, दूब, पौधे, नदी, समुद्र, पहाड़ में दैवी सत्ता का साक्षात्कार करती है, इसीलिए वह उदात्त है। भारतबोध की शांतिपूर्ण सह अस्तित्व की पुकार कुछ लोग सुन रहे हैं, कुछ सुनकर भी बहरे बने हुए हैं। वैसे ही लोग भारतबोध की बहस को बहकाने में लगे हैं। संजय द्विवेदी लिखते हैं कि विविधता में एकता देश की प्रकृति है। जाहिर है कि विविधता भारत की कमजोरी नहीं, शक्ति है। एक और महत्त्वपूर्ण बात संजय द्विवेदी ने कही है कि भारत राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक अवधारणा से बना है।

इस सांस्कृतिक अवधारणा का विस्तार रवींद्रनाथ ठाकुर तक की रचनाओं में भी हम देख सकते हैं। भारत तीर्थकविता में टैगोर कहते हैं-आर्य अनार्य, द्रविड़, चीनी, शक, हूण, पठान, मुगल सब यहां एक देह में लीन हो गए। यह देह ही भारतबोध है। उसी विश्व भ्रातृत्व भावना को विवेकानंद के शिकागो भाषण के संबोधन के चार शब्दों मेरे अमेरिकी भाइयों और बहनोंमें समूचे विश्व ने साक्षात किया था। विवेकानंद इसीलिए विश्व को धर्म का मर्म समझा पाए थे। संजय द्विवेदी ने विवेकानंद को सही अभिप्राय में उद्धृत किया है। किताब में विवेकानंद पर एक स्वतंत्र अध्याय भी है। उसका शीर्षक है विवेकानंद : युवा शक्ति के प्रेरक। विवेकानंद ने कहा था, “उठो, जागो, स्वयं जागकर औरों को जगाओ। मुझे बहुत से युवा संन्यासी चाहिए जो भारत के ग्रामों में फैलकर देशवासियों की सेवा में खप जाएं।विवेकानंद ने देशवासियों में ही ईश्वर को देखा था। उन्होंने कहा था कि इस देश के तैंतीस करोड़ भूखे, दरिद्र और कुपोषण के शिकार लोगों को देवी देवताओं की तरह मंदिरों में स्थापित कर दिया जाए और मंदिरों से देवी देवताओं की मूर्तियों को हटा दिया जाए। इस महान विचार के कारण विवेकानंद सदा-सर्वदा प्रेरणा पुरुष बने रहेंगे।

पुस्तक में आजादी के अमृत महोत्सव पर स्वतंत्र अध्याय है, जिसमें संजय द्विवेदी बताते हैं कि कितने उत्कट बलिदानों के बाद आजादी मिली। आजादी के बाद के भारत को गढ़ने में जिनका भी योगदान रहा, उसका वे स्मरण करते हैं। इस तरह के प्रसंगों के कारण पूरी पुस्तक एकांगी होने के दोष से मुक्त है। इसी अध्याय में लेखक ने वेद और श्रीमद्भागवत गीता को उद्धृत कर अमृत महोत्सव का आशय बताया है। एक वैदिक ऋचा में कहा गया है, ‘मृत्योः मुक्षीय मामृतात्अर्थात हम दुःख, कष्ट, क्लेश और विनाश से निकलकर अमृत की तरफ बढ़ें। गीता में भगवान कृष्ण कहते हैं, ‘सम दुःख-सुखम् धीरम् सः अमृत त्वाय कत्यचेअर्थात जो सुख-दुःख, आराम, चुनौतियों के बीच भी धैर्य के साथ अटल, अडिग और सम रहता है, वही अमृत को, अमरत्व को प्राप्त करता है। लेखक ने स्वतंत्रता आंदोलन और पत्रकारिताशीर्षक अध्याय में जेल-जब्ती-जुर्मानेवाली पत्रकारिता का स्मरण किया है। पुस्तक में संकलित लोकमंगल है मीडिया का धर्म’, ‘पत्रकारिता में नैतिकता’, ‘नारद : लोकमंगल के संचार कर्ता’, ‘आंबेडकर और मूकनायक’, ‘भारतीय पत्रकारिता के कर्मवीर’, ‘एकात्म मानववाद और मीडिया दृष्टि’, ‘मन की बातशीर्षक लेख पत्रकारिता के विद्यार्थियों व अध्येताओं के लिए बहुत उपयोगी हैं। लगे हाथ मीडिया शिक्षा के सौ वर्षऔर राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर भी अलग-अलग अध्यायों में संजय द्विवेदी ने विहंगम दृष्टि डाली है। लेखक ने गांधी, माधव राव सप्रे, वीर सावरकर, श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर नरेंद्र मोदी की प्रेरणाओं के प्रयोजन को भी रेखांकित किया है। एक अलग अध्याय में लेखक ने नए भारत की चुनौतीपर विचार किया है, तो श्रीराम, गौसंवर्द्धन, योग, संसद, मिशन कर्मयोगी पर भी। समकालीन भारत और विमर्शों को समझने के लिए यह पुस्तक कुंजी का काम करेगी।

पुस्तक : भारतबोध का नया समय

लेखक : प्रो. संजय द्विवेदी

मूल्य : 500 रुपये

 प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस, 4754/23, अंसारी रोड़, दरियागंज, नई दिल्ली-110002

 अमेजन पर उपलब्ध-

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मंगलवार, 25 जनवरी 2022

गुलाम भारत का आजाद फौजी

 

- प्रो. संजय द्विवेदी



सफल जीवन के चार सूत्र कहे जाते हैं - जिज्ञासा, धैर्य, नेतृत्व की क्षमता और एकाग्रता। जिज्ञासा का मतलब है जानने की इच्छा। धैर्य का मतलब विषम परिस्थितयों में खुद को संभाले रखना। नेतृत्व की क्षमता यानी जनसमूह को अपने कार्यों से आकर्षित करना। और एकाग्रता का अर्थ है एक ही चीज पर ध्यान केंद्रित करना। अगर भारत के संदर्भ में हम देखें, तो किसी व्यक्ति के जीवन में ये चारों सूत्र चरितार्थ होते हैं, तो वो सिर्फ नेताजी सुभाष चंद्र बोस हैं। नेताजी ने एक ऐसी सरकार के विरुद्ध लोगों को एकजुट किया, जिसका सूरज कभी अस्‍त नहीं होता था। दुनिया के एक बड़े हिस्‍से में जिसका शासन था। अगर नेताजी की खुद की लेखनी पढ़ें, तो हमें पता चलता है कि वीरता के शीर्ष पर पहुंचने की नींव कैसे उनके बचपन में ही पड़ गई‍ थी।

वर्ष 1912 में यानी आज से 110 साल पहले, उन्‍होंने अपनी मां को जो चिठ्ठी लिखी थी, वो चिट्ठी इस बात की गवाह है कि नेताजी के मन में गुलाम भारत की स्थिति को लेकर कितनी वेदना थी। उस समय उनकी उम्र सिर्फ 15 साल थी। सैंकड़ों वर्षों की गुलामी ने देश का जो हाल कर दिया था, उसकी पीड़ा उन्‍होंने अपनी मां से पत्र के द्वारा साझा की थी। उन्‍होंने अपनी मां से पत्र में सवाल पूछा था कि, मां, क्‍या हमारा देश दिनों-दिन और अधिक पतन में गिरता जाएगा? क्‍या ये दुखिया भारत माता का कोई एक भी पुत्र ऐसा नहीं है, जो पूरी तरह अपने स्‍वार्थ को तिलांजलि देकर, अपना संपूर्ण जीवन भारत मां की सेवा में समर्पित कर दे? बोलो मां, हम कब तक सोते रहेंगे?” इस पत्र में उन्‍होंने अपनी मां से पूछे गए सवालों का उत्तर भी दिया था। उन्‍होंने अपनी मां को स्‍पष्‍ट कर दिया था कि अब और प्रतीक्षा नहीं की जा सकती, अब और सोने का समय नहीं है, हमको अपनी जड़ता से जागना ही होगा, आलस्‍य त्‍यागना ही होगा और कर्म में जुट जाना होगा। अपने भीतर की इस तीव्र उत्‍कंठा ने उस किशोर सुभाष चंद्र को नेताजी सुभाष चंद्र बोस बनाया।

नेताजी कहा करते थे कि, “सफलता हमेशा असफलता के स्तंभ पर खड़ी होती है। इसलिए किसी को असफलता से घबराना नहीं चाहिए।इस छोटी सी पंक्ति के माध्यम से नेताजी ने असफल और निराश लोगों के लिए सफलता के नए द्वारा खोल दिए। यही सरलता और सहजता ही उनकी संचार कला का अभिन्न अंग थी। नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने स्वाधीनता संग्राम में भाग लेने के साथ-साथ पत्रकारिता भी की थी और उसके माध्यम से पूर्ण स्वराज के अपने स्वप्न और विचारों को शब्दबद्ध किया था। नेताजी ने 5 अगस्त, 1939 को अंग्रेजी में राजनीतिक साप्ताहिक समाचार पत्र फॉरवर्ड ब्लॉकनिकाला और 1 जून, 1940 तक उसका संपादन किया। इस अखबार के एक अंक की कीमत थी, एक आना। नेताजी ने अपनी पत्रकारिता का उद्देश्य पूर्ण स्वाधीनता के लक्ष्य से जोड़ रखा था। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पत्रकारिता में यह विवेक था कि सही बात का अभिनंदन और गलत का विरोध करना चाहिए। नेताजी अंग्रेजी शासन के धुर विरोधी थे, लेकिन ब्रिटेन के जिन अखबारों ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम का समर्थन किया, उसकी प्रशंसा करते हुए उन अखबारों के मत को नेताजी ने अपने अखबार में पुनर्प्रस्तुत किया। नेताजी ने स्वाधीनता की लक्ष्यपूर्ति के लिए अखबार निकाला, तो रेडियो के माध्यम का भी उपयोग किया। 1941 में रेडियो जर्मनी से नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने भारतीयों के नाम संदेश में कहा था, “तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।उसके बाद 1942 में आजाद हिंद रेडियोकी स्थापना हुई, जो पहले जर्मनी से और फिर सिंगापुर और रंगून से भारतीयों के लिए समाचार प्रसारित करता रहा। 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिंद रेडियोसे नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने पहली बार महात्मा गांधी के लिए राष्ट्रपितासंबोधन का प्रयोग किया था।

आजाद हिंद सरकार की स्थापना के समय नेताजी ने शपथ लेते हुए एक ऐसा भारत बनाने का वादा किया था, जहां सभी के पास समान अधिकार हों, सभी के पास समान अवसर हों। आज स्‍वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भारत अनेक कदम आगे बढ़ा है, लेकिन अभी नई ऊंचाइयों पर पहुंचना बाकी है। इसी लक्ष्‍य को पाने के लिए आज भारत के सवा सौ करोड़ लोग नए भारत के संकल्‍प के साथ आगे बढ़ रहे हैं। एक ऐसा नया भारत, जिसकी कल्‍पना नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने की थी। समाज के प्रत्‍येक स्‍तर पर देश का संतुलित विकास, प्रत्‍येक व्‍यक्ति को राष्‍ट्र निर्माण का अवसर और राष्ट्र की प्रगति में उसकी भूमिका, नेताजी के विजन का एक अहम हिस्‍सा था। नेताजी ने कहा था, हथियारों की ताकत और खून की कीमत से तुम्‍हें आजादी प्राप्‍त करनी है। फिर जब भारत आजाद होगा, तो देश के लिए तुम्‍हें स्‍थाई सेना बनानी होगी, जिसका काम होगा हमारी आजादी को हमेशा बनाए रखना।आज भारत एक ऐसी सेना के निर्माण की तरफ बढ़ रहा है, जिसका सपना नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने देखा था। जोश, जुनून और जज्‍बा, हमारी सैन्‍य परम्‍परा का हिस्‍सा रहा है। अब तकनीक और आधुनिक हथियारी शक्ति भी उसके साथ जोड़ी जा रही है। सशस्‍त्र सेना में महिलाओं की बराबर की भागीदारी हो, इसकी नींव नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने ही रखी थी। देश की पहली सशस्‍त्र महिला रेजिमेंट, जिसे रानी झांसी रेजिमेंट के नाम से जाना जाता है, भारत की समृद्ध परम्‍पराओं के प्रति सुभाष बाबू के आगाध विश्‍वास का परिणाम था।

नेताजी जैसे महान व्यक्तित्वों के जीवन से हम सबको और खासकर युवाओं को बहुत कुछ सीखने को मिलता है। लेकिन एक और बात जो सबसे ज्यादा प्रभावित करती है, वो है अपने लक्ष्य के लिए अनवरत प्रयास। अपने संकल्पों को सिद्धि तक ले जाने की उनकी क्षमता अद्वितीय थी। अगर वो किसी काम के लिए एक बार आश्वस्त हो जाते थे, तो उसे पूरा करने के लिए किसी भी सीमा तक प्रयास करते थे। उन्होंने हमें ये बात सिखाई कि, अगर कोई विचार बहुत सरल नहीं है, साधारण नहीं है, अगर इसमें कठिनाइयां भी हैं, तो भी कुछ नया करने से डरना नहीं चाहिए। अगर हमें नेताजी को याद रखना है, तो संपूर्ण दुनिया में अपने प्रत्येक विचार, सिद्धांत, व्यवहार को किसी जन समूह के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचाने वाले संचारक के रूप में याद रखना चाहिए। आज भारत में जनसंचार के विभिन्न माध्यम हैं। आजादी के पूर्व सीमित संचार के साधनों के बाद भी नेताजी लोकप्रिय हुए। वे तब लोकप्रिय हुए, जब जन संचार की कोई अधोसंरचना उपलब्ध नहीं थी। भारत जैसी विविधता वाले देश में एक राष्ट्र की अवधारणा को बढ़ावा देने का कार्य एक कुशल संचारक ही कर सकता था और यह कार्य नेताजी ने किया। नेताजी ने अपने व्यक्तित्व के प्रयास से स्त्री, पुरुष, शिक्षित, अशिक्षित, किसान, मजदूर, पूंजीपति, सभी को प्रभावित किया और देश की स्वतंत्रता के लिए सबको एक साथ पिरोने का कार्य किया।

आज जिस मॉर्डन इंडिया को हम देख पा रहे हैं, उसका सपना नेताजी ने बहुत पहले देखा था। भारत के लिए उनका जो विजन था, वो अपने समय से बहुत आगे का था। नेताजी कहा करते थे कि अगर हमें वाकई में भारत को सशक्त बनाना है, तो हमें सही दृष्टिकोण अपनाने की जरुरत है और इस कार्य में युवाओं की महत्वपूर्ण भूमिका है। एकता, अखंडता और आत्‍मविश्‍वास की हमारी ये यात्रा नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आशीर्वाद से निरंतर आगे बढ़ रही है।