बुधवार, 29 अप्रैल 2020

करोना से गंभीर लड़ाई लड़ रहा है मध्यप्रदेश


संवेदना, सक्रियता और साहस के तीन मंत्रों से जीती जाएगी यह जंग
-प्रो.संजय द्विवेदी


   मध्यप्रदेश उन राज्यों में है जहां करोना का संकट कम नहीं है। खासकर भोपाल, इंदौर जैसे शहर करोना के हाटस्पाट के रुप में मीडिया में अपनी जगह बनाए हुए हैं, वहीं 2168 मरीजों के साथ देश के राज्यों में पांचवें नंबर पर उसकी मौजूदगी बनी हुई है। ऐसे कठिन समय में संवेदनशील नेतृत्व, सही दिशा और स्पष्ट नीति के साथ आगे बढ़ना जरूरी था। विगत 23 मार्च,2020 को मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद शिवराज सिंह चौहान के सामने यह चुनौती थी कि वे राज्य को करोना के कारण उत्पन्न संकटों से न सिर्फ उबारें बल्कि जनता के मन में अवसाद और निराशा की भावना पैदा न होने दें। क्योंकि यह लड़ाई सिर्फ मैदानी नहीं है, आर्थिक नहीं है, बल्कि मनोवैज्ञानिक भी है। ऐसे समय में राज्य शासन और उसके मुखिया की संवेदना अपेक्षित ही नहीं,अनिवार्य है। उन्होंने सत्ता संभालते ही अपने चिकित्सा अमले को आईआईटीटी(IITT) यानि आइडेंटिटीफिकेशन,आइसोलेशन, टेस्टिंग और ट्रीटमेंट का मंत्र दिया। सेंपल एकत्रीकरण टेस्टिंग की क्षमता में वृद्धि को बढ़ाने की दिशा में तेजी से प्रयास हुए।
सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्थाएं-
     यह जानना जरुरी है कि अपने विशाल भौगोलिक वृत्त में मध्यप्रदेश किस तरह चुनौतियों का सामना कर एक उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है। इसके लिए मध्यप्रदेश ने एक साथ कई मोर्चों पर काम प्रारंभ किया और सबमें सफलता पाई। मात्र दो दिन में 450 कर्मचारियों का प्रशिक्षण कर उसने राज्य स्तरीय कोरोना नियंत्रण कक्ष की स्थापना की। इस नियंत्रण कक्ष के माध्यम से नागरिकों की समस्याओं का पंजीयन, राज्य के वरिष्ठ अधिकारियों का प्रादेशिक अधिकारियों, जिला मजिस्ट्रेटों और आवासीय आयुक्तों से प्रभावी संपर्क सुनिश्चित किया गया। इसके साथ ही सीएम हेल्पलाइन और वाट्सअप नंबर का प्रचार प्रसार, भोजन, राशन, चिकित्सा, आवास जैसी व्यवस्थाएं दृढ़ता से लागू की गईं। सुदृढ़ प्रशासनिक व्यवस्था इसका एक और आयाम था जिसके तहत राज्य स्तर पर अधिकारियों की व विशेषज्ञों की कोर टीम तैयार हुई। सभी स्तर के अधिकारियों की द्वितीय पंक्ति को तैयार कर मैदान में उतार दिया गया। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान स्वयं अग्रणी रहते हुए मैदान में उतरे। भोपाल में सड़कों पर उतरकर, अस्पतालों में जाकर उन्होंने लोगों को भरोसा दिलाया कि सरकार उनके साथ खड़ी है। इसके साथ ही मुख्यमंत्री प्रतिदिन मैदानी अधिकारियों से वीडियो कांफ्रेस के माध्यम से उन्हें प्रेरित करते दिखे।
    लाकडाउन के दौरान आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए प्रभावी संपर्क और समन्वय बनाना एक ऐसा काम था जिससे स्थिति पर नियंत्रण बनाए रखना संभव हुआ। डेटा आधारित रणनीति बनाना किसी भी संकट से निजात दिलाने की पहली शर्त है। कोविड पोर्टल में प्रदेश का महामारी डाटाइस संग्रहित हो रहा है।इस पोर्टल के माध्यम से कोरोना से युद्ध की नीतियां तैयार हो रही हैं तथा संदिग्ध और पाजिटिव मामलों पर नजर रखी जा रही है। कोरोना वारियर्स,सार्थक एप के माध्यम से घर-घर जाकर सर्वेक्षण, सैंपलिंग, फालोअप,पाजिटिव केस पंजीयन का काम कर रहे हैं। उपकरण और अधोसंरचना के क्षेत्र में प्रदेश में पीपीई किट्स का निर्माण प्रारंभ हुआ। अब डाक्टर, पैरामेडिकल स्टाफ, सुरक्षा व्यवस्था में लगे पुलिसवालों तथा अन्य कर्मियों के लिए पर्याप्त मात्रा में पीपीई किट्स की उपलब्धता कराते हुए उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की गयी। लोगों में प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के लिए आयुर्वेद, होम्योपैथ और यूनानी रोग प्रतिरोधक दवाओं तथा त्रिकुट काढ़ा चूर्ण का वितरण भी किया गया। इस अभियान से लगभग एक करोड़ लोग लाभान्वित हुए।
कोरोना योद्धाओं को संरक्षण-
 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वास्थ्य कर्मियों के लिए 50 लाख तक का बीमा घोषित किया है। इसी को ध्यान में रखते हुए मध्यप्रदेश सरकार ने करोना संकट से लड़ने वाले सभी विभागों के कर्मियों के लिए मुख्यमंत्री कोविड-19 योद्धा कल्याण योजना घोषित की है। इसमें सेवा के दौरान मृत्यु पर कर्मियों के आश्रितों को 50 लाख रुपए की मदद का प्रावधान है। जिला खनिज निधि का कोरोना से लड़ाई में उपयोग हो सकते इसकी स्वीकृति भी सरकार ने दी है। इसके तहत प्रदेश के 11 जिले 811 लाख रुपए की निधि का उपयोग करने की स्वीकृति मुख्यमंत्री से ले कर राहत के कामों में जुट गए हैं। इससे संबंधित जिलों में मेडिकल उपकरणों की खरीदी, नए आईसीयू बेड की स्थापना,पीपीई किट आदि की व्यवस्थाएं संभव हो सकी हैं। अपनी जान को जोखिम में डालकर सेवा करने वाले डाक्टर्स, नर्स,वार्ड ब्याव आदि करोना योद्धाओं को उनके समर्पण और संकल्प के लिए दस हजार रुपए प्रतिमाह की सेवा निधि की व्यवस्था की गई है।इसके साथ ही पुलिस कर्मियों को कर्मवीर पदक और अन्य विभागों के कर्मियों को कर्मवीर सम्मान देने की बात है।
    इस संदर्भ में मुख्यमंत्री भी लोगों में साहस भरते हुए नजर आते हैं। वे साफ कहते हैं कि कोरोना ऐसी बीमारी नहीं है जो ठीक न हो सके। यदि लक्षण दिखने पर उसका इलाज करा लिया जाए, तो यह बीमारी ठीक हो जाती है। उन्होंने आर्थिक चिंताओं पर यह कह संबल दिया कि जान है तो जहान है। आर्थिक मामले तो ठीक कर लिए जाएंगें, किंतु हम ही न रहे तो सारी प्रगति के मायने क्या हैं।यानि मुख्यमंत्री अपेक्षित संवेदनशीलता के साथ लोंगो को साहस और ताकत देते नजर आते हैं। जिसमें उनकी नजर में जनता का स्वास्थ्य पहली प्राथमिकता है।
सामान्य जनों को मदद का भरोसा-   
  राज्य के गरीब परिवारों को एक माह का निःशुल्क राशन देने की व्यवस्था ने तमाम परिवारों को मुस्कराने का मौका दिया। अनूसूचित जाति-जनजाति विभाग द्वारा अतिथि शिक्षकों का अप्रैल माह तक का अग्रिम भुगतान, आहार अनुदान योजना में अति पिछड़ी जनजाति की महिलाओं के खाते में एक हजार रूपए के मान से दो महीने का अग्रिम भुगतान किया गया। मध्यप्रदेश सरकार की चिंताओं में मजदूर वर्ग भी था। इसके तहत 22 राज्यों में फंसे 7 हजार प्रवासी मजदूरों के खाते में 70लाख रुपए की सहायता राशि भेजी गई। यही नहीं दूसरे राज्यों में फंसे मजदूरों और विद्यार्थियों को प्रदेश में लाने का बड़ा अभियान भी चलाया गया। पहले ही दिन 80 हजार से अधिक मजदूर अपने घर पहुंचे। बैंकों के सहयोग से सरकार की विभिन्न योजनाओं के 17 सौ करोड़ रुपए जरुरतमंदों के खाते में जमा किए गए। सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजनाओं के तहत 46 लाख हितग्राहियों को के खातों में दो महीने की पेंशन की राशि अग्रिम के तौर पर जमा करने का निर्णय भी साधारण नहीं था। प्रदेश के सभी जिलों में संबल योजना का क्रियान्वयन प्रारंभ कर सभी हितग्राहियों को राहत दी गई। किसानों को लेकर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह की संवेदना बहुज्ञात है। फसल बीमा सहित मंडियों को प्रारंभ कराना और फसल ऋण में राहत ऐसे कदम से थे, जिससे किसानों को सीधी राहत मिली।  
जनसंगठनों की मदद से राहत अभियान को गति-
कोरोना संकट में राहत कार्यों में योगदान के लिए 33 हजार लोंगो का पंजीयन कराकर विभिन्न सेवा के कामों में उनकी सहायता ली गयी। जन अभियान परिषद के नेटवर्क से जुड़े 11,826 स्वैच्छिक संगठनों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने एक सप्ताह के भीतर प्रदेश के हजारों गांवों में दीवाल लेखन के माध्यम से जागरूकता पैदा की। इसके साथ ही कोरोना संबंधी कामों में जनअभियान परिषद के 55 से 60 हजार कार्यकर्ता सतत रूप से लगे हुए हैं।
    इसी दौरान मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान विशेषज्ञों से संवाद तो कर ही रहे हैं। इसके अलावा आध्यात्मिक नेताओं से भी वे संवाद के माध्यम से राह दिखाने की अपील कर रहे हैं। पिछले दिनों उन्होंने कोविड 19 की चुनौतियां और एकात्म बोध विषय पर देश के प्रख्यात आध्यात्मिक नेताओं व चिंतकों से उनकी राय जानी। इसके पूर्व उनके विशेषज्ञ समूह में शामिल नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी,  पूर्व मुख्यसचिव निर्मला बुच और अन्य सामाजिक चिंतकों से वे संवाद कर चुके हैं। हम देखते हैं कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की संवेदना, सक्रियता, साहस और बेहतर सोच ने मध्यप्रदेश को इस संकट में संभलने का अवसर दिया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि शीध्र ही मध्यप्रदेश और देश करोना के संकट के मुक्त होकर सर्वांगीण विकास के पथ पर एक  नई यात्रा पर निकलेगा।


  
   

रविवार, 26 अप्रैल 2020

करोना संकट को अवसर बनाकर आगे बढ़ने का समय


डा. मोहन भागवत ने अपने संबोधन में दिखाई नई राहें


-प्रो.संजय द्विवेदी



  करोना संकट से विश्व मानवता के सामने उपस्थित गंभीर चुनौतियों को लेकर दुनिया भर के विचारक जहां अपनी राय रख रहे हैं, वहीं दुनिया के सबसे बड़े सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डा. मोहन भागवत के संवाद ने सबका ध्यान अपनी ओर खींचा है। कहने को तो डा. भागवत अपने संगठन के स्वयंसेवकों से संवाद कर रहे थे लेकिन इस संवाद के निहितार्थ बहुत विलक्षण हैं। उनके संवाद में देशभक्ति, मानवता और भारतवासियों के प्रति प्रेम के साथ वैश्विक आह्वान भी था कि अब विश्व मानवता के लिए भारत अपने वैकल्पिक दर्शन के साथ खड़ा हो। उन्होंने साफ कहा कि हमें संकटों को अवसर में बदलने की कला सीखनी होगी।
एक राष्ट्र-एक जन-
   सेवा के कामों में जुटे अपने स्वयंसेवकों से उन्होंने साफ कहा कि उनके लिए कोई पराया नहीं है। एक अरब तीस करोड़ भारतवासी उनका परिवार हैं। भाई-बंधु हैं। इसलिए सेवा की जरूरत जिन्हें सबसे ज्यादा उन तक मदद किसी भेदभाव के बिना सबसे पहले पहुंचनी चाहिए। उनकी इस राय के खास मायने हैं। उनका साफ कहना था भय और क्रोध से अतिवाद पैदा होता है। हमें हर तरह के अतिवाद से बचना है और भारत की सामूहिक शक्ति को प्रकट करना है। उनके संवाद में देश के सामने उपस्थित चुनौतियों का सामना करने और उससे आगे निकलने की सीख नजर आई। उनके समूचे भाषण में भय और क्रोध शब्द का उन्होंने कई बार इस्तेमाल किया और इन दो शब्दों के आधार होने वाली प्रतिक्रिया से सर्तक रहने को कहा। उनका कहना था कि समाज के अग्रणी जनों को ऐसे अवसरों पर अपने लोगों को संभालना चाहिए ताकि प्रतिक्रिया के अतिवादी रूप सामने न आएं।  
नर सेवा-नारायण सेवा-
सेवा संघ के मुख्य कामों में एक है। देश के हर संकट, दैवी आपदाओं और दुर्घटनाओं में संघ के स्वयंसेवक बिना प्रचार की आस किए सेवा के लिए आगे आते हैं। उसके सेवा भारती, एकल विद्यालय, वनवासी कल्याण आश्रम जैसे संगठन प्रत्यक्ष सेवा के काम से जुड़े हैं। इसके अलावा संघ के प्रत्येक आनुषांगिक संगठन के अपने-अपने सेवा के काम हैं। उन्होंने सेवा के काम में प्रत्यक्ष लगे कार्यकर्ताओं के लिए कहा कि वे सावधानी के साथ अपना काम करें ताकि काम के लिए वे बचे रहें। कोई छूट न जाए और  अपनत्व की भावना का प्रसार हो। उन्होंने कहा कि हम उपकार नहीं सेवा कर रहे हैं इसलिए इसे गुणवत्तापूर्ण ही होना होगा। प्रेम,स्नेह, श्रेष्ठता और अपनत्व की भावना से ही सेवा स्वीकार होती है। हमें अच्छाई का प्रसार करना है और भारतीयता के मूल्यों को स्थापित करना है। समाज के संरक्षण और उसकी सतत उन्नति ही हमारे लक्ष्य हैं।
स्वावलंबी भारत-सशक्त भारत-
अपने संबोधन में डा. भागवत ने स्वदेशी और स्वालंबन की आज फिर बात की। उनका कहना था कि जो कुछ हमारे पास उसे अन्य से लेने की आवश्यक्ता क्या है। इसके लिए हमें स्वदेशी का आचरण करते हुए स्वदेशी उत्पादों की गुणवत्ता पर ध्यान देना होगा। जिसके बिना हमारा काम चल सकता है उसे विदेशों से लेने की आवश्यक्ता क्या है। विदेशों पर निर्भरता को कम करने और समाज का स्वालंबन बढ़ाने पर उनका खासा जोर था। वे यहीं रुके उन्होंने रासायनिक खेती के खतरों की तरफ इशारा करते हुए जैविक खेती और गो-पालन पर भी जोर दिया। संघ लंबे समय से स्वदेशी की बात करता आ रहा है किंतु सत्ता की राजनीति मजबूरियों और राजनीति के खेल में उसकी आवाज अनसुनी की जाती रही है। कभी नीतियों के स्तर पर तो कभी विश्व बाजार के दबावों में। करोना संकट के बहाने एक बार फिर संघचालक ने स्वदेशी के आह्वान को मुखर किया है तो इसके विशेष अर्थ हैं।
संतों की हत्या पर जताया दुख-
अपने संवाद में डा. भागवत पालघर में दो संतों की हत्या पर दुखी नजर आए। उन्होंने कहा कि हमें ऐसी घटनाओं के परिप्रेक्ष्य को समझकर इसकी पुनरावृत्ति रोकनी चाहिए। क्योंकि संत तो सब कुछ छोड़कर समाज के लिए निकले थे उनकी हत्या का कोई कारण नहीं है। नागरिक अनुशासन ही देशभक्ति का सबसे बड़ा प्रतीक है। राजनीति को स्वार्थ से अलग कर उसे समाज केंद्रित बनाने पर जोर देते हुए उनका कहना था कि आज हमें पर्यावरण, जीवन और मानवता तीनों के बारे में सोचने की जरूरत है। डा. भागवत के व्याख्यान की मुख्य बातें सही मायने में एक जीवंत समाज बनाने की भावना से भरी-पूरी हैं। उनकी सोच का भारत ही अरविंद, विवेकानंद और महात्मा गांधी के सपनों का भारत है।
        कोरोना संकट में हुए इस व्याख्यान के बहाने डा. भागवत ने संघ की सामाजिक, सांस्कृतिक भूमिका का खाका खींच दिया है। स्वयंसेवकों के सामाजिक उत्तरदायित्व और देश तोड़क शक्तियों के मंसूबों की ओर इशारा करते हुए उन्होंने भय  और क्रोध के आधार पर सृजित होने वाले अतिवाद को बड़ी चिंता से प्रकट किया। उनके संबोधन से साफ है कि संघ समाज में अपनी भूमिका को ज्यादा व्यापक करते हुए अपने सरोकारों को समाज के साथ जोड़ना चाहता। इस बार गर्मियों में संघ के प्रशिक्षण शिविर भी स्थगित हैं इसलिए स्वयंसेवकों के सामने इस संदेश पाथेय से करने के लिए काफी कुछ होगा। उम्मीद की जानी चाहिए कि संघ अपने विविध संगठनों के माध्यम से सेवा और देश के सशक्तिकरण के प्रयासों को व्यापक बनाने में सफल रहेगा। साथ ही उसके संकल्पों और कार्यों को सही संदर्भों में समझा जाएगा।


करोना, संवेदना और शिवराज


राजसत्ता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की हो रही पहल
-    प्रो.संजय द्विवेदी


     मनुष्यों की तरह सरकारों का भी भाग्य होता है। कई बार सरकारें आती हैं और सुगमता से किसी बड़ी चुनौती और संकट का सामना किए बिना अपना कार्यकाल पूरा करती हैं। कई बार ऐसा होता है कि उनके हिस्से तमाम दैवी आपदाएं, प्राकृतिक झंझावात और संकट होते हैं। इस बार सत्तारुढ़ होते ही मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ऐसे ही संकटों से दो-चार हैं। सत्ता ग्रहण करते ही वैश्विक करोना संकट ने उनके सामने हर मोर्चे पर चुनौतियों का अंबार ला खड़ा किया। यहीं पर अनुभव, राज्य की शक्ति और सीमाओं की समझ तथा समाज की चिंताओं का अध्ययन काम आता है। मध्यप्रदेश जैसे भौगोलिक तौर पर विस्तृत राज्य की चुनौतियां बहुत विलक्षण हैं। चुनौती इसलिए भी बड़ी है क्योंकि उसके दोनों बड़े शहरों इंदौर और भोपाल में करोना का संक्रमण विकराल दिखता है।  
     करोना का संकट एक ऐसी चुनौती है जिससे उबरना आसान नहीं है। सच तो यह है कि इस संकट के सामने दुनिया की हर सरकार खुद को विवश पा रही है। शपथ लेते ही जिस तरह खुद को झोंककर मप्र के मुख्यमंत्री ने अपनी दक्षता दिखाई वह सीखने की चीज है। शिवराज सिंह की खूबी यह है कि वे अप्रतिम वक्ता और संवादकला के महारथी हैं। उनकी वाणी और कर्म में जो साम्य है, वह उन्हें हमारे समय के राजनेताओं में एक अलग ऊंचाई देता है। उनकी खूबी यह भी है कि वे सिर्फ कहते नहीं हैं, खुद को उस अभियान में झोंक देते हैं। ऐसे में जनता, शासन-प्रशासन और सामाजिक संगठन उनके साथ होते हैं। करोना युद्ध में भी उन्होंने पहले तो लोगों को आश्वस्त किया कि वे लौट आए हैं। उनकी पुराना ट्रैक भी एक भरोसा जगाता है, जिसमें हर वर्ग की परवाह है, उनसे संवाद है और योजनाओं का सार्थक क्रियान्वयन है।
करोना योद्धाओं को भरोसा दिलाया-
       सरकार संभालते ही उन्होंने पहले तो करोना योद्धाओं को भरोसा दिया कि वे निर्भय होकर काम करें और उनकी चिंता सरकार पर छोड़ दें। यही कारण है कि डाक्टरों और पुलिस हमले और असहयोग करने वालों को उन्होंने जेल की सीखचों को भीतर डालकर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून जैसे कड़े कदम उठाए। इसके बाद मुख्यमंत्री कोविड-19 योद्धा कल्याण योजना की शुरुआत की है जिसमें करोना की बीमारी में सेवा दे रहे कर्मियों के कल्याण की बात की गई। हर स्तर की  चिकित्सा सेवाओं से जुड़े कर्मी, गृह विभाग, नगरीय निकाय के हर स्तर के कर्मी, निजी संगठनों के लोग व कोविड -19 से संबंधित सेवाओं में जुड़े हर पात्र कर्मी को इससे जोड़ा गया है। अपनी जान पर खेल लोगों की जान बचाने वाले लोगों के कर्तव्यबोध को जगाने का यह अप्रतिम प्रयास है। इसके तहत सेवा के दौरान प्रभावित होने और जान जाने पर 50 लाख तक के मुआवजे का उनके आश्रितों को प्रावधान है।
किसानों और श्रमिकों को प्रति संवेदना-
  किसानों पर अपने अनुराग के लिए शिवराज जाने ही जाते हैं। उन्हें किसानों के आंसू पोंछने और राज्य को कृषि क्षेत्र में ऊंचाईयों पर ले जाने का श्रेय है। किसानों को कष्ट न हो इसके लिए उनकी सरकार हर उपाय करती ही है। इसके साथ ही श्रमिकों के साथ उनकी संवेदना बहुज्ञात है। दूसरे राज्यों में फंसे श्रमिकों को वापस लाने, कोटा में फंसे विद्यार्थियों को वापस लाने की पहल को इसी नजर से देखा जाना चाहिए। सामान्य योजनाओं से समझा जा सकता है कि वे लोगों को कष्ट को समझते हैं तो सामाजिक सहभागिता के अवसर भी जुटाते हैं। महिलाओं से मास्क बनाने का आह्वान उनकी इसी सोच का परिचायक है जिसमें प्रति मास्क 11 रुपए दिए जाने का योजना है। इसे उन्होंने जीवनशक्ति योजना का नाम दिया है। किसानों के कल्याण और उन्हें सही मूल्य मिले इसके लिए सरकार शीध्र ही मंडी एक्ट में संशोधन के लिए भी तैयार है। राज्य में किसान उत्पादक संगठन(एफपीओ) को स्व-सहायता समूहों की तरह सशक्त बनाने की भी तैयारी है।
       करोना को लेकर उनकी पूरी टीम पूरी सक्रियता से मैदान में है। वे ही हैं जो सरकार, संगठन, सामाजिक संगठनों, धार्मिक नेताओं, आम लोगों और समाज के हर वर्ग से संवाद करते हुए संकटों का हल निकाल रहे हैं। संवाद में उनका भरोसा है इसलिए वे राज्य स्तरीय समिति में नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी, पूर्व मुख्य सचिव निर्मला बुच, जबलपुर के लोकप्रिय चिकित्सक डा. जितेंद्र जामदार आदि के साथ चर्चा कर राहें निकाल रहे हैं। शिवराज जी की खूबी है कि वे अपनी सहजता, सरलता और भोलेपन से लोगों के दिलों में जगह बनाते हैं तो वहीं जब दृढ़ता प्रदर्शन करना होता है, तो वे कड़े फैसले लेने में संकोच नहीं करते। इस बार सत्ता में आते ही उन्होंने जिस तरह ताबड़तोड़ फैसले लिए उसने यह साबित किया कि वे शांतिकाल के नायक तो हैं ही, संकटकाल में भी अपना धैर्य नहीं खोते। असली राजनेता की यही पहचान है। राज्य की आर्थिक चिंताओं से बड़ी इस राज्य के लोंगो की जिंदगी है। तभी कोराना संकट से मुकाबले के प्रारंभ में ही मुख्यमंत्री ने कहा जान है तो जहान है। आर्थिक प्रगति तो हम कभी भी कर लेंगें पर  जीवन न रहा तो उसका क्या मतलब। यह साधारण वक्तव्य नहीं है। यह एक तपे हुए राजनेता का बयान है, जिसके लिए अपने राज्य के लोग ही सब कुछ हैं। इसीलिए अब वे हैप्पीनेस फार्मूले की बात कर रहे हैं। उनके सपनों का आनंद मंत्रालय फिर से पुर्नर्जीवित होने जा रहा है। इसके तहत आनंद की गतिविधियों तो पूर्ववत चलेंगी ही,वर्तमान करोना संकट में इसके शिकार मरीजों को खुश रखने के भी प्रयास होगें। उम्मीद की जानी चाहिए कि मध्यप्रदेश और देश करोना संकट से जीत पूरी दुनिया के सामने एक उदाहरण बनेगा। उसके द्वारा स्थापित व्यवस्थाएं एक उदाहरण बनेंगी। जिसमें स्वास्थ्य, स्वच्छता, आनंद और सामाजिक सुरक्षा के भाव मिले जुले होंगे। राजसत्ता को सामाजिक सरोकारों से जोड़ने में मध्यप्रदेश सरकार के प्रयास एक उदाहरण बनेगें इसमें दो राय नहीं है।


बुधवार, 25 मार्च 2020

कुशाभाऊ ठाकरे का नाम हटाना चंदूलाल जी का सम्मान नहीं

छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नाम संजय द्विवेदी का खुला पत्र



सेवा में,
श्री भूपेश बघेल जी
मुख्यमंत्रीः छत्तीसगढ़ शासन, रायपुर

 आदरणीय भूपेश जी,
 सादर नमस्कार,
    आशा है आप स्वस्थ एवं सानंद हैं। यह पत्र विशेष प्रयोजन से लिख रहा हूं। मुझे समाचार पत्रों से पता चला कि आपके मंत्रिमंडल ने रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय का नाम बदलकर अब चंदूलाल चंद्राकर पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय करने का निर्णय लिया है। राज्य के मुख्यमंत्री होने के नाते और लोकतंत्र में जनादेश प्राप्त राजनेता होने के नाते आपका निर्णय सिर माथे। लेकिन आपके इस फैसले पर मेरे मन में कई प्रश्न उठे हैं, जिन्हें आपसे साझा करना जागरूक नागरिक होने के नाते अपना कर्तव्य समझता हूं।
    मैंने 1994 से लेकर 2009 तक अपनी युवा अवस्था का एक लंबा समय पत्रकार होने के नाते छत्तीसगढ़ की सेवा में व्यतीत किया है। रायपुर और बिलासपुर में अनेक अखबारों के माध्यम से मैंने छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा और उसके भूमिपुत्रों को न्याय दिलाने के लिए सतत लेखन किया है। मेरी पुस्तकों के विमोचन कार्यक्रमों में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह, अजीत जोगी, डा. रमन सिंह, सत्यनारायण शर्मा, बृजमोहन अग्रवाल, चरणदास महंत, धर्मजीत सिंह,स्व. नंदकुमार पटेल, स्व.बी.आर. यादव जैसे नेता आते रहे हैं। आपसे भी विधायक और मंत्री के नाते मेरा व्यक्तिगत संवाद रहा है। आपके गांव भी आपके साथ एक आयोजन में जाने का अवसर मिला और क्षेत्र में आपकी लोकप्रियता, संघर्षशीलता का गवाह  रहा हूं।
योद्धा हैं आप-
   आपसे हुए अनेक संवादों में आपके व्यक्तित्व, उदारता और लोगों को साथ लेकर चलने की आपकी क्षमता तथा छत्तीसगढ़ राज्य के लिए आपके मन में पल रहे सुंदर सपनों को जानने-समझने का अवसर मिला। मैं आपकी संघर्षशीलता, अंतिम व्यक्ति के प्रति आपके अनुराग को प्रणाम करता हूं। आप सही मायने में योद्धा हैं, जिन्होंने स्व. नंदकुमार पटेल के छोड़े हुए काम को पूरा किया। सत्ता में आने के बाद आपका रवैया आपको एक अलग छवि दे रहा है, जिसके बारे में शायद आपके सलाहकार आपको नहीं बताते हैं। आप राज्य के मुख्यमंत्री हो चुके हैं और मैं अदना सा लेखक हूं, सो आपसे मित्रता का दावा तो नहीं कर सकता। किंतु आपका शुभचिंतक होने के नाते मैं आपसे यह निवेदन करना चाहता हूं कि आप कटुता, बदले की भावना और निपटाने की राजनीति से बचें। यह कांग्रेस का रास्ता नहीं है, देश का रास्ता नहीं है और छत्तीसगढ़ का रास्ता तो बिल्कुल नहीं।
नाम में क्या रखा है-
   विश्वविद्यालय का नाम आदरणीय चंदूलाल चंद्राकर के नाम पर रखकर आप उनका सम्मान नहीं कर रहे, बल्कि एक महानायक को विवादों में ही डाल रहे हैं। चंदूलाल जी छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्नदृष्टा हैं। वे पांच बार दुर्ग क्षेत्र से लोकसभा के सांसद, दो बार केंद्रीय मंत्री, कांग्रेस के प्रवक्ता और राष्ट्रीय महासचिव जैसे पदों पर रहे हैं। वे छत्तीसगढ़ के पहले पत्रकार हैं जिन्हें दैनिक हिंदुस्तान जैसे राष्ट्रीय अखबार का संपादक होने का अवसर मिला। ऐसे महत्त्वपूर्ण पत्रकार, राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के नाम पर आप कुछ बड़ा कर सकते थे। एक बड़ी लकीर खींच सकते थे किंतु आपको चंदूलाल जी का सम्मान नहीं, एक अन्य सामाजिक कार्यकर्ता कुशाभाऊ ठाकरे का नाम हटाना ज्यादा प्रिय है। मुझे लगता है इससे आपने अपना कद छोटा ही किया है।
      मृत्यु के बाद कोई भी सामाजिक कार्यकर्ता पूरे समाज का होता है। राजनीतिक आस्थाओं के नाम पर उसका मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। समाज के प्रति उसका प्रदेय सब स्वीकारते और मानते हैं। स्वयं चंदूलाल जी यह पसंद नहीं करते कि उनकी स्मृति में ऐसा काम हो, जिसके लिए किसी का नाम मिटाना पड़े।
     कुशाभाऊ जी एक सात्विक वृत्ति के राजनीतिक नायक थे, जिन्होंने छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश की अहर्निश सेवा की। उनका नाम एक विश्वविद्यालय से हटाकर आप उसी अतिवाद को पोषित करेगें, जिसके तहत कुछ लोग जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का नाम बदलने की बात करते हैं। नाम बदलने की प्रतियोगिता हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी। यह देश की संस्कृति नहीं है। हमें यह भी सोचना चाहिए कि सत्ता आजन्म के लिए नहीं होती। काल के प्रवाह में पांच साल कुछ नहीं होते। कल अगर कोई अन्य दल सत्ता में आकर चंदूलाल जी का नाम इस विश्वविद्यालय से फिर हटाए तो क्या होगा ? हम अपने नायकों का सम्मान चाहते हैं या उनके नाम पर राजनीति यह आपको सोचना है। इस बहाने शिक्षा परिसरों को हम अखाड़ा बना ही रहे हैं, जो वस्तुतः अपराध ही है।
      मैं आपको सिर्फ स्मरण दिलाना चाहता हूं कि डा. रमन सिंह की सरकार ने तीन विश्वविद्यालय साथ में खोले थे स्वामी विवेकानंद टेक्नीकल विश्वविद्यालय, पं. सुंदरलाल शर्मा खुला विश्वविद्यालय और कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय। इनमें सुंदरलाल शर्मा आजन्म कांग्रेसी रहे, जिनसे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी प्रभावित थे। इससे क्या डा. रमन सिंह का कद घट गया। चंदूलाल चंद्राकर जी के नाम पर जनसंपर्क विभाग के पुरस्कार दिए जाते रहे, पंद्रह साल राज्य में भाजपा की सरकार रही तो क्या भाजपा ने उनके नाम पर दिए जा रहे पुरस्कारों को बदल दिया। नायक मृत्यु के बाद राजनीति का नहीं, समाज का होता है। तत्कालीन रमन सरकार ने इसी भावना को पोषित किया। इसके साथ ही महाकवि गजानन माधव मुक्तिबोध की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए राजनांदगांव में डा. रमन सिंह ने जो कुछ किया, उसकी देश के अनेक साहित्यकारों ने सराहना की। क्या हम अपने नायकों को भी दलगत राजनीतिक का शिकार बन जाने देगें। मुझे लगता है यह उचित नहीं है। कुशाभाऊ ठाकरे विश्वविद्यालय में ठाकरे जी की प्रतिमा भी स्थापित है। अनेक वर्षों में सैकड़ों विद्यार्थी यहां से अपनी डिग्री लेकर जा चुके हैं। उनकी डिग्रियों पर उनके विश्वविद्यालय का नाम है। इस नाम से एक भावनात्मक लगाव है। मुझे लगता है कि इतिहास को इस तरह बदलना जरूरी नहीं है। एक नए विश्वविद्यालय के साथ जो अभी ठीक से अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं है, इस तरह के प्रयोग उसे कई नए संकटों में डाल सकते हैं। यह कहा जा रहा है कि कुछ पत्रकारों की मांग पर ऐसा किया गया, आप आदेश करें तो मैं देश भर के तमाम संपादकों के पत्र आपको भिजवा देता हूं जो इस नाम को बदलने का विरोध करेंगे। राजनीति में इस तरह के प्रपंचों को आप बेहतर समझते हैं, इस प्रायोजिकता का कोई मूल्य नहीं है। मूल्य है उन विचारों का जिससे आगे का रास्ता सुंदर और विवादहीन बनाया जा सकता है।
गांधी परिवार पर हमले के लिए अवसर-
    आपके विद्वान सलाहकार आपको नहीं बताएंगे क्योंकि उनकी प्रेरणाभूमि भारत नहीं है, नेहरू और गांधी नहीं हैं। प्रतिहिंसा और विवाद पैदा करना उनकी राजनीति है। आज वे कांग्रेस के मंच पर आकर यही सब करना चाहते हैं, जिसके चलते उनकी समूची विचारधारा पुरातात्विक महत्त्व की चीज बन गयी है। वे आपको यह नहीं बताएंगें कि ऐसे कृत्यों से आप गांधी- नेहरू परिवार के अपमान के लिए नई जमीन तैयार कर रहे हैं। देश में अनेक संस्थाएं पं. जवाहरलाल नेहरू,श्रीमती इंदिरा गांधी, श्री फिरोज गांधी, श्री राजीव गांधी, श्री संजय गांधी के नाम पर हैं। इस बहाने गांधी परिवार के राजनीतिक विरोधियों को इनकी गिनती करने और मृत्यु के बाद इन नायकों पर हमले करने का अवसर मिलता है। मेरा मानना है यह एक ऐसी गली में प्रवेश है, जहां से वापसी नहीं है। अपने राजनीतिक चिंतन का विस्तार करें, इन छोटे सवालों में आप जैसे व्यक्ति का उलझना ठीक नहीं है। छत्तीसगढ़ के अनेक नायकों के लिए आपको कुछ करना चाहिए पं. माधवराव सप्रे,कवि-पत्रकार-राजनेता श्रीकांत वर्मा,सरस्वती के संपादक रहे पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, रंगकर्मी सत्यदेव दुबे जैसे अनेक नायक हैं जिनकी स्मृति का संरक्षण जरूरी है। लेकिन यह काम किसी का नाम पोंछकर न हो।
सेवा के अवसर को यूं न गवाएं-
    महिमामय प्रभु ने बहुत भाग्य से आपको छत्तीसगढ़ महतारी की सेवा का अवसर दिया है। छत्तीसगढ़ को देश का अग्रणी राज्य बनाना और उसके सपनों में रंग भरने की जिम्मेदारी इतिहास ने आपको दी है। इस समूचे भूगोल की सेवा और इसके नागरिकों को न्याय दिलाना आपका कर्तव्य है। इन विवादित कदमों से बड़े लक्ष्यों को हासिल करने में कोई मदद नहीं मिलेगी। छत्तीसगढ़ के स्वभाव को आप मुझसे ज्यादा जानते हैं। यहां अतिवाद की राजनीति के लिए कोई जगह नहीं है। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री श्री अजीत जोगी अपनी तमाम योग्यताओं के बावजूद भी राज्य की जनता वह स्नेह नहीं पा सके, जिसके वे अधिकारी थे। आप सोचिए कि ऐसा क्यों हुआ ? राज्य की जनता ने डा. रमन सिंह को सेवा के लिए तीन कार्यकाल दिए। यह छत्तीसगढ़ है जहां लोग अपने जैसे लोगों को,सरल और सहज स्वभाव को स्वीकारते हैं। यहां नफरतें और कड़वाहटें लंबी नहीं चल सकतीं।
      इस माटी के प्रति मेरा सहज अनुराग मुझे यह कहने के लिए बाध्य कर रहा है कि आप राज्य के स्वभाव के विपरीत न चलें। प्रतिहिंसा, विवाद और वितंडावाद यहां के स्वभाव का हिस्सा नहीं है। अभी तीन दिन पहले बस्तर में सुरक्षाबलों के 17 जवान शहीद हुए हैं। करोना से सारा देश जूझ रहा है। ऐसे समय में बस्तर की शांति, छत्तीसगढ़ के नागरिकों का स्वास्थ्य आपकी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। मुझे आपको कर्तव्यबोध कराने का साहस नहीं करना चाहिए किंतु आपके प्रति सद्भाव और मेरे प्रति आपका स्नेह मुझे यह हिम्मत दे रहा है। छत्तीसगढ़ महतारी की मुझ पर अपार कृपा रही है। बिलासपुर में बैठी मां महामाया, बस्तर की मां दंतेश्वरी, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्वरी से मैं नवरात्रि के दिनों में यह प्रार्थना करता हूं वे आपको शक्ति, साहस दें कि आप अपना मार्ग प्रशस्त कर सकें। बेहतर होगा कि आप अपने मंत्रिमंडल द्वारा लिए इस फैसले को वापस लेकर सद्भाव की राजनीतिक परंपरा को अक्षुण्ण रखेंगें। भारतीय नववर्ष पर आपको सुखी और सार्थक जीवन के लिए मंगलकामनाएं।
जय जोहार!
सादर आपका शुभचिंतक
-        संजय द्विवेदी,
                                                                                कार्यकारी संपादकः मीडिया विमर्श, भोपाल

                                                       

गुरुवार, 5 मार्च 2020

दिवाकर मुक्तिबोधः छत्तीसगढ़ की हिंदी पत्रकारिता का चमकदार चेहरा


-प्रो. संजय द्विवेदी


    छत्तीसगढ़ यानी वह प्रदेश जहां हिंदी पत्रकारिता की उजली परंपरा का प्रारंभ पं. माधवराव सप्रे ने सन् 1900 में छत्तीसगढ़ मित्र के माध्यम से किया। उसके बाद की पीढ़ी में तमाम नायक सामने आते गए और अपनी यशस्वी भूमिका का निर्वहन करते रहे। हमारे समय के नायकों में एक नाम है श्री दिवाकर मुक्तिबोध का। आधुनिक हिंदी पत्रकारिता में उनकी मौजूदगी ऐसे संपादक की तरह है, जिसने बिना शोरगुल मचाए पत्रकारिता का धर्म निभाया। बड़े अखबारों के संपादक रहे इस व्यक्ति ने खुद को हमेशा आम आदमी बनाए रखा। रायपुर, बिलासपुर में उनकी सौम्य उपस्थिति हमने देखी और महसूस की है। दिवाकर मुक्तिबोध हमारे समय के उन संपादकों में हैं, जिन्होंने रिपोर्टिंग से अपनी शुरुआत की और बाद के दिनों में कुशल संपादक, राजनीतिक विश्लेषक के रूप में अपनी पहचान बनाई।  
यशस्वी पारिवारिक परंपरा के संवाहक-
     हिंदी के यशस्वी कवि-लेखक श्री गजानन माधव मुक्तिबोध का पुत्र होना ही आत्मगौरव का विषय है। दिवाकर जी का पिता के प्रति आदर है, किंतु वे उनके नाम का इस्तेमाल नहीं करते। उनका नाम लेने से वे संकोच से भर जाते हैं। पिता की यादें, उनका संघर्ष उनकी आंखों को पनीला कर जाते हैं। मां और पिता के प्रति उनका यह स्वाभाविक अनुराग और सम्मान उन्हें आज भी संबल देता है। हिंदी सेवा के भाव उन्हें अपने परिवार से विरासत में ही मिले हैं। अपने पिता की लंबी छाया के बीच पहचान बनाना कठिन होता है। किंतु दिवाकर जी ने साहित्य के बजाए पत्रकारिता का मार्ग पकड़ा और अपनी खास जगह बनाई। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के दिग्गज संपादकों का स्मरण करें तो उनमें सर्वश्री चंदूलाल चंद्राकर, गोविंदलाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र, रमेश नैयर, गुरूदेव काश्यप, तुषारकांति बोस, श्रीकांत वर्मा, जगदीश उपासने, सुधीर सक्सेना, ललित सुरजन, विष्णु सिन्हा, रम्मू श्रीवास्तव, बसंत कुमार तिवारी, राजनारायण मिश्र, डा. हिमांशु द्विवेदी,सुनील कुमार, गिरिजाशंकर, रूचिर गर्ग जैसे अनेक नाम ध्यान में आते हैं। इन सबके बीच दिवाकर मुक्तिबोध का नाम भी बहुत सम्मान से लिया जाता है। मराठीभाषी होते हुए भी वे हिंदी सेवा में पं. माधवराव सप्रे जी के मार्ग के अनुयायी हैं।
विविध भूमिकाओं में बनी शानदार पहचान-
     मध्यप्रदेश के इंदौर शहर में 5 अगस्त,1948 को जन्में दिवाकर जी ने समाजशास्त्र में स्नातकोत्तर की परीक्षा पास की।पत्रकारीय रुचि के चलते पत्रकारिता में स्नातक की डिग्री भी ली। छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता के पिछले साढ़े चार दशक, दिवाकर मुक्तिबोध की पत्रकारीय यात्रा के गवाह हैं। मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता के वे अप्रतिम उदाहरण हैं। राजनीतिक रिपोर्टिंग, खेल रिपोर्टिंग, उपसंपादक, समाचार संपादक, स्थानीय संपादक, संपादक जैसे अनेक भूमिकाओं में उन्होंने खुद को साबित किया। उनकी खास पहचान राजनीतिक विश्लेषक के रूप में बनी। दैनिक भास्कर एवं नवभारत में उनके स्तंभ हस्तक्षेप, हफ्तावार, देख भाई देख, बिंब-प्रतिबिंब बहुत सराहे गए। इन स्तंभों के अलावा भी उन्होंने विपुल लेखन किया है। अपने लेखों के माध्यम से वे हमारे समय की समस्याओं, संकटों, राजनीतिक संदर्भों पर पैनी टिप्पणियां करते रहे। जिनसे छत्तीसगढ़ का पाठक वर्ग जुड़ाव महसूस करता रहा। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि उनके लेखन में नीर-क्षीर-विवेक के दर्शन होते हैं। राजनीतिक विचारों से वे आक्रांत नहीं होते और सच के साथ निर्भीकता से खड़े होकर उन्होंने वही कहा जो उचित था। उनके समूचे लेखन में सच का स्पंदन है, उसका ताप है। वे कहते हैं तो सुनना अच्छा लगता है, क्योंकि वे हमारी बात कह रहे होते हैं। अपने जीवन में वे जितने सरल और संयत दिखते हैं, उनकी पत्रकारिता में उतना ही तेज और ताप है। आपसे निजी तौर पर वे बहुत सहजता, सरलता और धीमी आवाज में बात करेंगे, किंतु उनके मन में खबरों को लेकर जो तड़प है वह उनके पास बैठकर ही महसूस की जा सकती है। देशबंधु, नवभारत, अमृतसंदेश, दैनिक भास्कर, न्यूज चैनल वाच न्यूज,आज की जनधारा, अमन पथ, पायनियर जैसे मीडिया संस्थानों में काम करते हुए उनके साथ कई पीढ़ियों को पत्रकारिता का ककहरा सीखने का अवसर मिला। छत्तीसगढ़ के पत्रकार मित्रों से मिलते हुए दिवाकर जी बात हो तो ज्यादातर उनके मुरीद मिलेंगे। क्योंकि जब भी जिस भूमिका में रहे हों, दिवाकर जी ने सबके साथ न्याय किया है।
कुशल संपादक, योग्य नेतृत्वकर्ता-
   दैनिक भास्कर- रायपुर और बिलासपुर और नवभारत-बिलासपुर के संपादक के रुप में दिवाकर जी जब कार्यरत थे, उनके काम को, कार्यशैली को निकट से देखने और महसूस करने का अवसर मिला। दैनिक भास्कर, बिलासपुर में तो वे मेरे संपादक ही रहे। उनके साथ काम करना वात्सल्य की छांव में काम करना है। वे अपने अपने अधीनस्थों की जिस तरह रक्षा करते हैं, वह विरल है। जिम्मेदारी देना और भरोसा करना उनसे सीखा जा सकता है। कम बोलकर भी वे कमांड पूरा रखते हैं। भाषा के साथ उनका बहुत सावधानी का रिश्ता है। उनमें एक ऐसा कापी एडीटर है जो शुद्धता का  आग्रही है। वे पत्रकारिता की भाषा के साथ कोई मजाक नहीं चाहते। इसलिए साफ-सुथरी कापी उनकी पसंद है। वे मूलतः रिर्पोटर हैं किंतु भाषा की उनमें विलक्षण समझ उन्हें सफल संपादक भी बनाती है। उनके साथ काम करते हुए मैंने उनसे अनेक पाठ सीखे। उनकी ऊंचाई के सामने आपका सारा अहंकार विलीन हो जाता है, मंद मुस्कान के साथ जब वे आपका, आपके परिवार का हाल पूछते हैं तो लगता है कि आपने सब कुछ पा लिया। दिवाकर जी सही मायनों में खालिस पारिवारिक व्यक्ति हैं, उनका लेखन भले ही सार्वजनिक हो। उनकी दुआएँ और उनका साथ हमें मिला, इससे हमारी और हम जैसों की दुनिया खूबसूरत ही बनी। हमें खुशी है कि उनकी जिंदगी में हमारे लिए जगह है। सारगर्भित लेखन और संपादन के लिए उन्हें 2008 में वसुंधरा सम्मान से भी अलंकृत किया गया।
किताबें बताती हैं समय का सच-
    दिवाकर जी की दो किताबें इस राह से गुजरते हुए और 36 का चौसर उनके लेखन की बानगी देती हैं, इतिहास को समेटे हुए, अपने समय का आख्यान करते हुए। ये किताबें बिलासपुर के श्री प्रकाशन से छपी हैं। दिवाकर जी की पहली किताब उनके विश्लेषणों की किताब है जिसमें वे विविध सामाजिक, राजनीतिक संदर्भों पर बात करते हैं। दूसरी किताब छत्तीसगढ़ केंद्रित है। इसमें छत्तीसगढ़ की राजनीति का जायजा है। उनके लेखों के गुजरते हुए इतिहास साथ चलता है। एक जिंदादिल पत्रकार किस तरह अपने समय को देखता और विश्लेषित करता है, यह भी पता चलता है। बावजूद इसके इन किताबों से दिवाकर जी पूरे पता नहीं चलते। इसके लिए उनके जानने वालों के पास जाना होगा। वे रिर्पोटर, संपादक, प्रबंधक, परिवार के मुखिया, पिता और दोस्त हर भूमिका में फिट और हिट हैं। उनके साथ होना एक ऐसे पुराने पेड़ की छांव में होना है, जो निरंतर अपने लोगों को छांव दे रहा है और आक्सीजन भी। वे महसूस नहीं कराते, आपके लिए कर देते हैं। वे वाचाल नहीं हैं, इसलिए बोलकर करना उनकी आदत नहीं है। वे कहते कम हैं, करते ज्यादा हैं। इस दुनिया में उन्होंने सिर्फ दोस्त बनाए हैं, दुश्मन नहीं। अपने सच और अपने विचारों के साथ खड़े इस व्यक्ति ने कभी दुराग्रह नहीं रखे, लाभ और लोभ में नहीं फंसे। इसलिए हर कोई उनका अपना है और वे सबके हैं। छत्तीसगढ़ क्षेत्र के दिग्गज नेताओं, सामाजिक क्षेत्र और विविध विधाओं के नायकों से उनके जीवंत रिश्ते रहे हैं। इन रिश्तों को उन्होंने जिया किंतु अपने लाभ के लिए कभी उनका इस्तेमाल नहीं किया। शुचिता और परंपरा की विरासत और उसकी ठोस जमीन पर वे हमेशा खड़े नजर आए। राजनीति पर लिखना, राजनेताओं से रिश्ते रखना किंतु अपने लेखन और जीवन को उससे बचाकर रखना वे ही कर सकते थे, उन्होंने किया भी। उनके जैसे व्यक्ति के बारे में ही यह उक्ति कही गयी होगी- ज्योंकि त्यों धर दीनी चदरिया।  हिंदी की पत्रकारिता की सेवाओं के लिए उन्हें याद करना तो विशेष है ही, अच्छे मनुष्य के रूप में भी उनको याद किया जाना ज्यादा जरूरी है। क्योंकि इस कठिन समय में संपादक तो अनेक हैं किंतु मनुष्य कितने हैं। शायद इसलिए एक शायर लिखते हैं, आदमी को मयस्सर नहीं इंसा होना। दिवाकर मुक्तिबोध को मैं बेहतर संपादक, आला इंसान ,शानदार बास और बड़े भाई के रूप में याद करता हूं। इस तरह उनका हमारी जिंदगी में होना हमें भी गौरव देता है।
 संपर्कः प्रो. संजय द्विवेदी,
जनसंचार विभाग, माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय,
बी-38, विकास भवन, प्रेस कांप्लेक्स, महाराणा प्रताप नगर, भोपाल-462011 (मप्र)
मोबाइलः 9893598888, ई-मेलः 123dwivedi@gmail.com


मंगलवार, 3 मार्च 2020

बलदेव भाई शर्मा होने का मतलब


कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के नए कुलपति का चयन क्यों है महत्त्वपूर्ण
-प्रो.संजय द्विवेदी



       हिंदी पत्रकारिता के विनम्र सेवकों की सूची जब भी बनेगी उसमें प्रो. बलदेव भाई शर्मा का नाम अनिवार्य रूप से शामिल होगा। ऐसा इसलिए नहीं कि उन्हें रायपुर स्थित कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता एवं जनसंचार विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया है। बल्कि इसलिए कि उन्होंने छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और दिल्ली की पत्रकारिता में अपने उजले पदचिन्ह छोड़े हैं। उनकी पत्रकारिता की पूरी पारी ध्येयनिष्ठा और भारतबोध से भरी है। वे अपने आसपास इतना सृजनात्मक और सकारात्मक वातावरण बना देते हैं कि नकारात्मकता वहां से बहुत दूर चली जाती है।
      बड़े अखबारों के संपादक,प्रोफेसर, नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष रहते हुए उनकी सेवाओं को सारे देश ने देखा और उसके स्पंदन को महसूस किया है। इस पूरी यात्रा में बलदेव भाई के निजी जीवन के द्वंद्व, निजी दुख, पारिवारिक कष्ट कहीं से उन्हें विचलित  नहीं करते। अपने युवा पुत्र और पुत्री के निधन के समाचार उन्हें आघात तो देते हैं पर इन पारिवारिक दुखों के बीच भी वे अविचल और अडिग खड़े रहते हैं। अपने जीवन की ध्येयनिष्ठा उन्हें शक्ति देती है । लोगों का साहचर्य उन्हें सामान्य बनाए रखता है। उनका साथ और सानिध्य मुझ जैसे अनेक युवाओं को मिला है, जो उनसे प्रेरणा लेकर पत्रकारिता के क्षेत्र में आए। उनसे सीखा और उनकी बनाई राह पर चलने की कोशिश की।
     मुख्यधारा की पत्रकारिता में जिस तरह उनके विरोधी विचारों का आधिपत्य था, उसके बीच उन्होंने राह बनाई। दैनिक भास्कर, हरियाणा के राज्य संपादक के रूप में उनकी सेवाएं और एक नए संस्थान को जमाने में उनकी मेहनत हमारे सामने है। इसी तरह वाराणसी में अमर उजाला के संस्थापक संपादक के रूप में संस्थान को आकार देकर उन्होंने साबित किया कि वे किसी भी तरह के कामों को अंजाम देने में दक्ष हैं। दिल्ली के नेशनल दुनिया के संपादक, नेशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष रहते हुए उनके द्वारा किए गए काम सराहे गए। उनके कार्यकाल में राष्ट्रीय पुस्तक मेले को एक नया और व्यापक स्वरूप मिला। किताबों की बिक्री कई गुना बढ़ गयी। उनके स्वभाव और सौजन्य से लोग जुड़ते चले गए।  
     स्वदेश, ग्वालियर और रायपुर के संपादक के रूप में मध्यप्रदेश- छत्तीसगढ़ की जमीन पर उन्होंने अपने रिश्तों का संसार खड़ा किया जो आज भी उन्हें अपना मानता है। रिश्तों को बनाना और उन्हें जीना उनसे सीखा जा सकता है। बलदेव भाई की कहानी ऐसे व्यक्ति की कहानी है, जिसने अपनी किशोरावस्था में एक स्वप्न देखा और उसे पूरा करने के लिए पूरी जिंदगी लगा दी। उनकी आरंभिक पत्रकारिता राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की वैचारिक छाया में चलने वाले प्रकाशनों स्वदेश और पांचजन्य के साथ चली। इस यात्रा ने उन्हें वैचारिक तौर पर प्रखरता और तेजस्विता दी। अपने लेखन और विचारों में वे दृढ़ बने। किंतु इसी संगठनात्मक-वैचारिक दीक्षा ने उन्हें समावेशी और लोकसंग्रही बनाया। अपनी इसी धार को लेकर वे मुख्यधारा के अखबारों में भी सफलता के झंडे गाड़ते रहे। मथुरा जिले के पटलौनी(बल्देव) गांव में 6 अक्टूबर,1955 में जन्में बलदेव भाई अपने लेखन कौशल के लिए जाने जाते हैं। उनकी कई पुस्तकें अब प्रकाशित होकर लोक विमर्श का हिस्सा हैं। जिनमें मेरे समय का भारत’, ‘आध्यात्मिक चेतना और सुगंधित जीवन’, 'संपादकीय विमर्श', 'अखबार और विचार' 'हमारे सुदर्शन जी' और सहजता की भव्यता शामिल हैं। उन्हें म.प्र. शासन के पं. माणिकचंद वाजपेयी राष्ट्रीय पत्रकारिता सम्मान’, स्वामी अखंडानंद मेमोरियल ट्रस्ट, मुंबई का रचनात्मक पत्रकारिता राष्ट्रीय सम्मान व केंद्रीय हिंदी संस्थान, आगरा द्वारा पंडित माधवराव सप्रे साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान दिया जा चुका है। मूल्यनिष्ठ पत्रकारिता की लंबी और सार्थक पारी के बाद अब जब उन्हें देश के दूसरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति के रूप में नियुक्त किया गया है तब उम्मीद की जानी कि वे अपने अनुभव, दक्षता और उदारता से इस शिक्षण संस्थान की राष्ट्रीय पहचान बनाने में अवश्य सफल होंगे। फिलहाल तो इस यशस्वी पत्रकार को शुभकामनाओं के सिवा दिया ही क्या जा सकता है।



गुरुवार, 13 फ़रवरी 2020

अच्छा इंसान बनने के लिए साहित्य पढ़ना जरुरी : रघु ठाकुर


युगतेवर पत्रिका के संपादक श्री कमलनयन पांडेय
12 वें  पं. बृजलाल द्विवेदी सम्मान से सम्मानित  




भोपाल। प्रख्यात साहित्यकार एवं युगतेवर पत्रिका के संपादक श्री कमलनयन पांडेय को 12वें पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति अखिल भारतीय साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान से सम्मानित किया गया। भोपाल के गांधी भवन में मीडिया विमर्श पत्रिका एवं मूल्यानुगत मीडिया अभिक्रम के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित सम्मान समारोह में उनको सम्मानित किया गया। इस अवसर पर मुख्य अतिथि प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता एवं विचारक श्री रघु ठाकुर ने कहा कि पत्रकारिता की डिग्री के लिए साहित्य पढ़ना भले जरूरी न हो लेकिन एक अच्छा इंसान होने के लिए साहित्य पढ़ना जरूरी है। उन्होंने कहा कि पत्रकारिता के लिए विज्ञापन एक रोग है, किंतु विज्ञापन के बिना पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन कठिन कार्य है।
       समाजवादी चिंतक श्री रघु ठाकुर ने कहा कि आज के अखबारों में नेताओं के बारे में, उनके निजी जीवन के बारे में तो बहुत कुछ छपता है लेकिन साहित्यकारों के बारे में, उनके निजी जीवन के बारे में नहीं छपता है। उन्होंने कहा कि साहित्यकारों के बारे में, उनके सृजन के बारे में लोगों को जानकारी देनी चाहिए, अखबारों में साहित्यकारों को प्रमुखता से स्थान देना चाहिए। अगर अखबार पढ़ने से तनाव पैदा होता है, बेचैनी होती है, तो होनी भी चाहिए। उन्होंने कहा कि समाज में व्याप्त खामियां और समस्याओं को बदलने की शक्ति होनी चाहिए। अगर समाज में लोगों के साथ अन्याय हो रहा है तो उसके लिए बेचैनी होनी चाहिए, उसके साथ खड़ा होना चाहिए। 
सच्चा राष्ट्रवादी वही होगा जो सच्चा विश्ववादी होगा :
   राष्ट्रवाद के संबंध में अपनी बात रखते हुए रघु ठाकुर ने कहा कि एक सच्चा राष्ट्रवाद वही होगा जो सच्चा विश्ववादी होगा। अगर सभी देश अपनी सीमाओं को छोड़ने के लिए तैयार हो जाए तभी असली राष्ट्रवाद की नींव रखी जा सकती है। उन्होंने कहा कि मीडिया और राष्ट्रवाद के बीच संघर्ष की स्थिति नहीं होनी चाहिए।
पत्रकारिता के केंद्र में मनुष्य होता है : प्रो. कमल दीक्षित
कार्यक्रम के मुख्य वक्ता प्रो. कमल दीक्षित ने कहा कि पत्रकारिता देश और समाज के लिए नहीं होती बल्कि मनुष्यता के लिए होती है। इसलिए पत्रकारिता के केंद्र में मनुष्य होना चाहिए। उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता सामाजिक सरोकारों और मूल्यों से कट गई है। मीडिया का मूल्यानुगत होना आवश्यक है। पिछले कुछ वर्षों से हम इसी दिशा में प्रयास कर रहे हैं।
समाज के लिए जरूरी है असहमति : कमलनयन पांडेय
त्रैमासिक पत्रिका युगतेवर के संपादक श्री कमलनयन पांडेय ने कहा कि समाज में असहमति जरूरी है। जहां असहमति नहीं होती है, वहां सत्य का विस्फोट नहीं होता है। उन्होंने कहा कि शब्द सिर्फ शब्द नहीं होता है। शब्द संस्कृति होता है, प्रतीक होता है। उन्होंने प्रतीकों पर आधारित पत्रकारिता पर जोर देते हुए कहा कि जब रचनाकार रचना करता है तो वह प्रतीकों में रच बस जाता है। श्री पांडेय ने कहा कि शब्दों और प्रतीकों का अपना उत्कर्ष और अपकर्ष होता है। उन्होंने आदि पत्रकार नारद का उदाहरण देते हुए कहा कि कुछ लोग उन्हें चुगलखोर की संज्ञा देते हैं लेकिन यह सत्य नहीं है। उन्होंने कहा कि नारद  हमेशा कमजोर और शोषित वर्ग के लिए खड़े रहे और संचार संवाद का काम किया। उन्होंने कहा कि एक पत्रकार के रूप में आज भी नारद जीवित हैं।  लघु पत्रिका को परिभाषित करते हुए श्री पांडेय ने कहा कि जो संसाधन में सीमित हो लेकिन उद्देश्यों में महान हो उसे लघु पत्रिका कहते हैं। उन्होंने कहा कि लघु पत्रिकाओं ने सीमित दायरे में ही सही लेकिन पाठकों को सामाजिक सरोकारों से जोड़े रखा है। तमाम वैश्वीकरण और स्थानीयता के संघर्ष के बीच लघु पत्रिकाएं स्थानीयता को बचाने में पूरी ताकत से लगी हुई हैं। उन्होंने कहा कि लघु पत्रिकाओं का भविष्य आन्दोलनों में ही है। अंत में लघु पत्रिकाएं ही जनसंघर्ष और जनता का मंच बनेंगी।
     इस मौके पर विशिष्ट अतिथि के रूप में उपस्थित वरिष्ठ लेखक श्री गिरीश पंकज ने कहा कि लघु पत्रिकाएं एक महत्वपूर्ण दस्तावेज होती हैं, संग्रहणीय होती हैं। अखबारों की तरह हम उन्हें फेंकते नहीं है बल्कि संग्रहित कर के रखते हैं। मीडिया विमर्श का उदाहरण देते हुए उन्होंने कहा कि इस पत्रिका के भी सभी अंक संग्रहणीय होते हैं।
बाजार सेवक के बजाए स्वामी बन गया हैः विजयदत्त श्रीधर
    कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे पद्मश्री से अलंकृत प्रख्यात पत्रकार श्री विजयदत्त श्रीधर ने कहा कि पत्रकारिता को सामाजिक सरोकारों और मूल्यों पर आधारित होना चाहिए। उन्होंने कहा कि ऐसा नहीं है कि पहले बाजार नहीं थे, बाजार पहले भी थे। लेकिन आज बाजार सेवक की बजाय स्वामी बन गया है। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता की चिंता व्यक्ति करते हुए कहा कि एक समय था, जब अखबारों में हिंदी के गद्य शामिल किए जाते थे। लेकिन आज जबरन अंग्रेजी के शब्दों को जोड़ा जा रहा है।
    कार्यक्रम का संचालन दिल्ली से आईं साहित्यकार डॉ. पूनम मटिया ने किया। स्वागत भाषण श्रीकांत सिंह ने दिया और धन्यवाद ज्ञापन डॉ. बीके रीना ने किया।
पत्रकारिता पर केंद्रित दो पुस्तकों का विमोचन :
कार्यक्रम में पत्रकारिता पर केंद्रित दो महत्वपूर्ण पुस्तकों का भी विमोचन हुआ। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के अध्येयता डॉ. सौरभ मालवीय एवं श्री लोकेंद्र सिंह की पुस्तक "राष्ट्रवाद और मीडिया" और मीडिया प्राध्यापक प्रो. संजय द्विवेदी एवं वरिष्ठ टेलीविजन पत्रकार डॉ. वर्तिका नंदा की पुस्तक "नये समय में अपराध पत्रकारिता" का विमोचन हुआ। आयोजन में अनेक साहित्यकारों, पत्रकारों, प्राध्यापकों और मीडिया छात्र-छात्राओं ने हिस्सा लिया।