https://www.youtube.com/watch?v=rZHwqgsLN54&feature=share
बुधवार, 20 जून 2018
विश्व योग दिवस
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
मंगलवार, 22 मई 2018
वरिष्ठ पत्रकार एवं विचारक श्री माधव गोविंद वैद्य आज डी.लिट् की मानद उपाधि से अलंकृत होगें
वरिष्ठ पत्रकार मा. गो. वैद्य को नागपुर जाकर डी.लिट. सौंपेंगे कुलपति
दीक्षांत समारोह में उपराष्ट्रपति श्री एम. वैंकैया नायडू ने की थी घोषणा
भोपाल, 23 मई। वरिष्ठ पत्रकार एवं विचारक श्री माधव गोविंद वैद्य को माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति श्री जगदीश उपासने नागपुर स्थित उनके निवास पर जाकर 23 मई, बुधवार को विद्या वाचस्पति (डी. लिट.) की मानद उपाधि से सम्मानित करेंगे। इस अवसर पर आयोजित सम्मान समारोह में विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव श्री लाजपत आहूजा और कुलसचिव प्रो. संजय द्विवेदी सहित नागपुर के प्रमुख पत्रकार भी उपस्थित रहेंगे।
उल्लेखनीय है कि मध्यप्रदेश विधानसभा के सभागृह में 16 मई को आयोजित दीक्षांत समारोह में भारत के उपराष्ट्रपति एवं विश्वविद्यालय के कुलाध्यक्ष श्री वैंकैया नायडू ने श्री वैद्य को मानद उपाधि दिए जाने की घोषणा की थी। स्वास्थ्यगत कारणों से श्री वैद्य दीक्षांत समारोह में उपस्थित नहीं हो सके थे। विश्वविद्यालय ने निर्णय लिया है कि 23 मई, बुधवार को कुलपति श्री जगदीश उपासने श्री वैद्य को नागपुर स्थित उनके निवास पर जाकर विद्या वाचस्पति की मानद उपाधि से सम्मानित करेंगे। श्री माधव गोविंद वैद्य लंबे समय से पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं। उनका जन्म महाराष्ट्र में 11 मार्च, 1923 को हुआ था। प्रारंभ में श्री वैद्य नागपुर के महाविद्यालय में प्राध्यापक रहे। बाद में उन्होंने वर्ष 1966 से 1983 तक लोकप्रिय समाचार पत्र 'तरुण भारत' का संपादन किया। श्री वैद्य ने कई प्रमुख पुस्तकों का लेखन एवं संपादन किया है।
#MCU_Bhopal
#MCU_Bhopal
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
शनिवार, 28 अप्रैल 2018
राष्ट्रवाद से जुड़े विमर्शों को रेखांकित करती एक किताब
पुस्तक समीक्षा
समीक्षक- लोकेन्द्र सिंह
(समीक्षक विश्व संवाद केंद्र,भोपाल के कार्यकारी निदेशक हैं।)
देश में राष्ट्रवाद से जुड़ी बहस इन दिनों चरम पर है। राष्ट्रवाद की स्वीकार्यता बढ़ी है। उसके प्रति लोगों की समझ बढ़ी है। राष्ट्रवाद के प्रति बनाई गई नकारात्मक धारणा टूट रही है। भारत में बुद्धिजीवियों का एक वर्ग ऐसा है, जो हर विषय को पश्चिम के चश्मे से देखते है और वहीं की कसौटियों पर कस कर उसका परीक्षण करता है। राष्ट्रवाद के साथ भी उन्होंने यही किया। राष्ट्रवाद को भी उन्होंने पश्चिम के दृष्टिकोण से देखने का प्रयास किया। जबकि भारत का राष्ट्रवाद पश्चिम के राष्ट्रवाद से सर्वथा भिन्न है। पश्चिम का राष्ट्रवाद एक राजनीतिक विचार है। चूँकि वहाँ राजनीति ने राष्ट्रों का निर्माण किया है, इसलिए वहाँ राष्ट्रवाद एक राजनीतिक विचार है। उसका दायरा बहुत बड़ा नहीं है। उसमें कट्टरवाद है,जड़ता है। हिंसा के साथ भी उसका गहरा संबंध रहा है। किंतु, हमारा राष्ट्र संस्कृति केंद्रित रहा है। भारत के राष्ट्रवाद की बात करते हैं तब 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' की तस्वीर उभर कर आती है। विभिन्नता में एकात्म। एकात्मता का स्वर है- 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद'। इसी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की समझ को और स्पष्ट करने का प्रयास पुस्तक के संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने अपनी पुस्तक 'राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता' के माध्यम से किया है। उन्होंने न केवल राष्ट्रवाद पर चर्चा को विस्तार दिया है, अपितु पत्रकारिता में भी 'राष्ट्र सबसे पहले' के भाव की स्थापना को आवश्यक बताया है।
यह पुस्तक ऐसे समय में आई है, जब मीडिया में भी राष्ट्रीय विचार 'धारा' बहती दिख रही है। हालाँकि, यह भी सत्य है कि उसका इस तरह दिखना बहुतों को सहन नहीं हो रहा। भारतीयता का विरोधी कुनबा अब राष्ट्रवाद को पहले की अपेक्षा अधिक बदनाम करने का षड्यंत्र रच रहा है। किंतु, राष्ट्रवाद का जो ज्वार आया है, उसमें उनके सभी प्रयास न केवल असफल हो रहे हैं, बल्कि उसके वेग से उनके नकाब भी उतर रहे हैं। पुस्तक में शामिल 38 आलेख और तीन साक्षात्कारों से होकर जब हम गुजरते हैं, तो उक्त बातें ध्यान में आती हैं। संपादक ने यह सावधानी रखी है कि राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता पर समूचा संवाद एकतरफा न हो। वामपंथी विचारक डॉ. विजय बहादुर सिंह अपने लेख 'समझिए देश होने के मायने!' में राष्ट्रवाद के संबंध में अपने विचार रखते हैं। वह अपने साक्षात्कार में मुखर होकर कहते हैं कि उन्हें 'राष्ट्र तो मंजूर है, पर राष्ट्रवाद नहीं।' इसी तरह जनता दल (यू) के राज्यसभा सांसद और प्रभात खबर के संपादक हरिवंश 'आइए, सामूहिक सपना देखें' का आह्वान करते हैं। आजतक के एंकर- टेलीविजन पत्रकार सईद अंसारी 'भारतीयता और पत्रकारिता' को अपने ढंग से समझा रहे हैं। वरिष्ठ पत्रकार आबिद रजा ने अपने लेख में यह समझाने का बखूबी प्रयास किया है कि भारतीयता और राष्ट्रीयता एक-दूसरे की पूरक हैं। उनका कहना सही भी है।
पुस्तक में राष्ट्रवाद का ध्वज उठाकर और सामाजिक जीवन का वृत लेकर चल रहे चिंतक-विचारकों के दृष्टिकोण भी समाहित हैं। विवेकानंद केंद्र के माध्यम से युवाओं के बीच लंबे समय तक कार्य करने वाले मुकुल कानिटकर, राष्ट्रवादी विचारधारा के विद्वान डॉ. राकेश सिन्हा, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ. देवेन्द्र दीपक और वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र शर्मा, रमेश शर्मा जैसे प्रखर विद्वानों ने भारतीय दृष्टिकोण से राष्ट्रवाद को हम सबके सामने प्रस्तुत किया है। भारतीय दृष्टिकोण से देखने पर राष्ट्रवाद की अवधारण बहुत सुंदर दिखाई देती है। भारत का राष्ट्रवाद उदार है। उसमें सबके लिए स्थान है। सबको साथ लेकर चलने का आह्वान भारत का सांस्कृतिक राष्ट्रवाद करता है। इसलिए जिन लोगों को राष्ट्रवाद के नाम से ही उबकाई आती है, उन्हें यह पुस्तक जरूर पढऩी चाहिए, ताकि वह जान सकें कि राष्ट्र और राष्ट्रवाद को लेकर भारतीय दृष्टि क्या है?
मीडिया की समाज में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है। वह जनता के मध्य मत निर्माण करने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाती है। इसलिए मीडिया में कार्य करने वाले प्रत्येक व्यक्ति की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है। अक्सर यह कहा जाता है कि लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका एक विपक्ष की तरह है। इस नीति वाक्य को सामान्य ढंग से लेने के कारण अकसर पत्रकार गड़बड़ कर देते हैं। वह भूल जाते हैं कि मीडिया की विपक्ष की भूमिका अलग प्रकार की है। वह सत्ता विरोधी राजनीतिक पार्टी की तरह विपक्ष नहीं है। उसका कार्य है कि वह सत्ता के अतार्किक और गलत निर्णयों पर प्रश्न उठाए, न कि लट्ठ लेकर सरकार और उसके विचार के पीछे पड़ जाए। किंतु, आज मीडिया अपनी वास्तविक भूमिका भूल कर राजनीतिक दलों की तरह विपक्ष बन कर रह गया है। जिस तरह विपक्षी राजनीतिक दल सत्ता पक्ष के प्रत्येक कार्य को गलत ठहरा कर हो-हल्ला करते हैं, वही कार्य आज मीडिया कर रहा है। दिक्कत यहाँ तक भी नहीं, किंतु कई बार मीडिया सत्ता का विरोध करते हुए सीमा रेखा से आगे निकल जाता है। कब सत्ता की जगह देश उसके प्रश्नों के निशाने पर आ जाता है, उसको स्वयं पता नहीं चल पाता है। संभवत: इस परिदृश्य को देखकर ही पुस्तक में 'राष्ट्रवाद और मीडिया' विषय पर प्रमुखता से चर्चा की गई है।
भारतीय शिक्षण मंडल के राष्ट्रीय संगठन मंत्री मुकुल कानिटकर ने जिस तरह आग्रह किया है कि 'प्रसार माध्यम भी कहें पहले भारत', उसी बात को अपन राम ने भी अपने आलेख'पत्रकारिता में भी राष्ट्र सबसे पहले जरूरी' में उठाया है। आज जिस तरह की पत्रकारिता हो रही है, उसे देखकर तो यही कहा जा सकता है कि हमारी पत्रकारिता में भी राष्ट्र की चिंता पहले करने की प्रवृत्ति बढऩी चाहिए। पुस्तक के संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने भी इस बार को रेखांकित किया है- 'उदारीकरण और भूमंडलीकरण की इस आँधी में जैसा मीडिया हमने बनाया है, उसमें 'भारतीयता' और 'भारत' की उपस्थिति कम होती जा रही है। संपादक का यह कथन ही पुस्तक और उसके विषय की प्रासंगिकता एवं आवश्यकता को बताने के लिए पर्याप्त है। राष्ट्रवाद और मीडिया के अंतर्सबंधों एवं उनकी परस्पर निर्भरता को डॉ. सौरभ मालवीय ने भी अच्छे से वर्णित किया है।
पुस्तक के संपादक प्रो. संजय द्विवेदी के इस कथन से स्पष्ट सहमति जताई जा सकती है कि - 'यह पुस्तक राष्ट्रवाद, भारतीयता और मीडिया के उलझे-सुलझे रिश्तों तथा उससे बनते हुए विमर्शों पर प्रकाश डालती है।' निश्चित ही यह पुस्तक राष्ट्रवाद पर डाली गई धूल को साफ कर उसके उजले पक्ष को सामने रखती है। इसके साथ ही राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता के आपसी संबंधों को भी स्पष्ट करती है। वर्तमान समय में जब तीनों ही शब्द एवं अवधारणाएं विमर्श में हैं, तब प्रो. द्विवेदी की यह पुस्तक अत्यधिक प्रासंगिक हो जाती है।
पुस्तक परिचय
पुस्तक : राष्ट्रवाद, भारतीयता और पत्रकारिता
संपादक : प्रो. संजय द्विवेदी
प्रकाशकः यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स,
1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्यः 650 रूपए मात्र (सजिल्द), 250 रूपए मात्र (पेपरबैक)
1/10753, सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मूल्यः 650 रूपए मात्र (सजिल्द), 250 रूपए मात्र (पेपरबैक)
Labels:
भारतीयता और पत्रकारिता,
राष्ट्रवाद,
संजय द्विवेदी
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
गुरुवार, 22 मार्च 2018
एक विलक्षण संपादकः जगदीश उपासने
माखनलाल विश्वविद्यालय के नए
कुलपति का है हिंदी पत्रकारिता में खास योगदान
-संजय द्विवेदी
मीडिया
और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में देश के सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा केंद्र
माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय,भोपाल के कुलपति
के रूप में जब ख्यातिनाम पत्रकार श्री जगदीश उपासने का चयन हो चुका है, तब यह
जानना जरूरी है कि आखिर हिंदी पत्रकारिता के क्षेत्र में उनका योगदान क्या है? मध्यप्रदेश के
इस महत्वपूर्ण विश्वविद्यालय के कुलपति बनने से पूर्व उनकी यात्रा रेखांकित की
जानी चाहिए और उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस संस्था को और भी गति से आगे ले जाने
में कोई कसर नहीं रखेगें।
कापी के मास्टरः
हिंदी
पत्रकारिता में अंग्रेजी पत्रकारिता की तरह कापी संपादन का बहुत रिवाज नहीं है।
अपने लेखन और उसकी भाषा के सौंदर्य पर मुग्ध साहित्यकारों के अतिप्रभाव के चलते
हिंदी पत्रकारिता का संकोच इस संदर्भ में लंबे समय तक कायम रहा। जनसत्ता
और इंडिया टुडे (हिंदी) के दो सुविचारित प्रयोगों को छोड़कर ये बात
आज भी कमोबेश कम ही नजर आ रही है। ऐसे समय में जबकि हिंदी पत्रकारिता भाषाई
अराजकता और हिंग्लिश की दीवानी हो रही है, तब हिंदी की प्रांजलता और पठनीयता को
स्थापित करने वाले संपादकों को जब भी याद किया जाएगा, जगदीश उपासने
उनमें से एक हैं। वे कापी संपादन के मास्टर हैं। हिंदी भाषा को लेकर उनका अनुराग
इसलिए और भी महत्वपूर्ण हो जाता है, क्योंकि वे मराठीभाषी हैं। उन्होंने हिंदी की
सबसे महत्वपूर्ण पत्रिका इंडिया टुडे को स्थापित करने में अपना योगदान दिया। इस
तरह वे हिंदी के यशस्वी मराठीभाषी संपादकों सर्वश्री विष्णुराव पराड़कर, माधवराव
सप्रे, राहुल बारपुते की परंपरा में अपना विनम्र योगदान जोड़ते नजर आते हैं। इंडिया टुडे के माध्यम से उन्होंने जिस हिंदी को प्रस्तुत किया वह
प्रभावी, संप्रेषणीय और प्रांजल थी, वह न तो अनुवादी भाषा थी ना उसमें अंग्रेजी के
नाहक शब्दों की घुसपैठ थी। यह एक ऐसी हिंदी थी, जिसके पहली बार दर्शन हो रहे थे-
पठनीय, प्रवाहमान और सीधे दिल में उतरती हुयी। सही मायनों में उन्होंने पहली बार
देश को हिंदी की सरलता और सहजता के साथ-साथ कठिन से कठिन विषयों को प्रस्तुत करने
के सामर्थ्य के साथ प्रस्तुत किया।
शानदार पत्रकारीय पारीः
जनसत्ता, युगधर्म, हिंदुस्तान समाचार जैसे अखबारों व समाचार
एजेंसियों में पत्रकारिता करने के बाद जब वे ‘इंडिया
टुडे’ पहुंचे तो इस पत्रिका का दावा ‘देश की भाषा में देश की धड़कन’ बनने का था। समय ने इसे सच कर दिखाया। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखपत्र
पांचजन्य को टेबलाइट अखबार के बजाए पत्रिका के स्वरूप में निकालने का जब विचार हुआ
तो जगदीश उपासने को इसका समूह संपादक बनाया गया। आज पांचजन्य और आर्गनाइजर दोनों
प्रकाशन एक नए कलेवर में लोगों के बीच सराहे जा रहे हैं। जनसत्ता को प्रारंभ करने
वाली टीम और इंडिया टुडे (हिंदी) की संस्थापक टीम के इस नायक को हमेशा भाषा और
उसकी प्राजंलता के विस्तार के लिए जाना जाएगा।
आपातकाल में काटी जेलः
छत्तीसगढ़
के बालोद कस्बे और रायपुर शहर से अपनी पढ़ाई करते हुए छात्र आंदोलनों और
सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियों से जुड़े जगदीश उपासने ने विधि की परीक्षा में
गोल्ड मैडल भी हासिल किया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, मप्र के वे
प्रमुख कार्यकर्ताओं में एक थे। आपातकाल के दौरान वे तीन माह फरार रहे तो मीसा
बंदी के रूप में 16 महीने की जेल भी काटी । उनके माता-पिता का छत्तीसगढ़ के
सार्वजनिक जीवन में खासा हस्तक्षेप था। मां रजनीताई उपासने 1977 में रायपुर शहर से
विधायक भी चुनी गयीं। उपासने के पिता श्री दत्तात्रेय उपासने जो अब इस दुनिया में नहीं हैं, प्रख्यात समाज सेवी थे। उपासने परिवार का राजनीति एवं समाज सेवा में काफी योगदान
रहा है। परिवार के मुखिया के नाते श्री दत्तात्रेय उपासने ने आपात काल का वह दौर
भी झेला था, जब उनके परिवार के अधिकतर सदस्य जेल में डाल दिए गए थे। संघ
परिवार में भी उनका अभिभावक जैसा सम्मान था। जगदीश उपासने के अनुज सच्चिदानंद
उपासने आज भी छत्तीसगढ़ भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष हैं।
एक राजनीतिक
परिवार और खास विचारधारा से जुड़े होने के बावजूद जगदीश जी ने पत्रकारिता में
अपेक्षित संतुलन बनाए रखा। इन अर्थों में वे राष्ट्र के समावेशी चरित्र और उदार
लोकतांत्रिक व्यक्तित्व का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। वे अपनी विचारधारा पर गर्व
तो करते हैं, किंतु कहीं से कट्टर और जड़वादी नहीं हैं। राष्ट्रबोध और राष्ट्र के
लोगों के प्रति प्रेम उनमें कूट-कूट कर भरा हुआ है। उन्होंने हिंदी पत्रकारिता को
एक ऐसी भाषा दी, जिसमें हिंदी का वास्तविक सौंदर्य व्यक्त होता है।
उन्होंने कई पुस्तकों का संपादन किया है,
जिनमें दस खंडों में प्रकाशित सावरकर समग्र काफी महत्वपूर्ण है।
टीवी चैनलों में राजनीतिक परिचर्चाओं का आप एक जरूरी चेहरा बन चुके हैं। गंभीर
अध्ययन, यात्राएं, लेखन और व्याख्यान
उनके शौक हैं। आज जबकि वे मीडिया में एक लंबी और सार्थक पारी खेल कर माखनलाल
चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति बन चुके हैं, तो भी वे
रायपुर के अपने एक वरिष्ठ संपादक स्व. दिगंबर सिंह ठाकुर को याद करना नहीं भूलते, जिन्होंने पहली बार उनसे एक कापी तीस बार लिखवायी थी। वे प्रभाष जोशी,
प्रभु चावला और बबन प्रसाद मिश्र जैसे वरिष्ठों को अपने कैरियर में
दिए गए योगदान के लिए याद करते हैं, जिन्होंने हमेशा उन्हें
कुछ अलग करने को प्रेरित किया।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं
स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
मंगलवार, 13 मार्च 2018
जागृत ग्राहक, जागृत भारत
विश्व उपभोक्ता
अधिकार दिवस(15 मार्च) पर विशेष
-संजय द्विवेदी
यह सिर्फ
संयोग मात्र नहीं है कि विश्व उपभोक्ता अधिकार दिवस(15 मार्च) को मध्यप्रदेश की
राजधानी भोपाल में देश के सबसे महत्वपूर्ण ग्राहक अधिकार संगठन अखिल भारतीय
ग्राहक पंचायत का दो दिवसीय अधिवेशन प्रारंभ हो रहा है। आयोजन में राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के सहसरकार्यवाह श्री दत्तात्रेय होसवाले की उपस्थिति भी महत्तवपूर्ण
है। इससे पता चलता है कि सामाजिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठन भी
अब इस इस दिशा में सोचने लगे हैं और एक जागरूक ग्राहक के बहाने एक जागरूक राष्ट्र
की कल्पना कर रहे हैं।
इस बाजारवादी समय में जहां चमकती हुई
चीजों से बाजार पटा पड़ा है, हमें देखना होगा कि आखिर हम कैसा देश बना रहे हैं।
लोगों की मेहनत की कमाई पर कारपोरेट और बाजार की दुरभिसंधि से कैसे उन्हें शोषण की
शिकार बनाया जा रहा है। विज्ञापनों के माध्यम से चीजों को बेहद उपयोगी बनाकर
प्रस्तुत किया जा रहा है और एक उपभोक्तावादी समाज बनाने की कोशिशों पर जोर है।
जाहिर तौर पर इसे रोका भी नहीं जा सकता। उदारीकरण और भूमंडलीकरण की नीतियों को
स्वीकार करने के बाद हमें बाजार और इसके उपकरणों से बचने के बजाए इसके सावधान और
सर्तक इस्तेमाल की विधियां सीखनी होगीं। अपनी जागरूकता से ही हम आए दिन हो रही ठगी
से बच सकते हैं। यह जानते हुए भी कि हर व्यक्ति कहीं न कहीं ग्राहक है, उसे ठगने
की कोशिशों पर जोर है। हम यह स्वीकारते हैं कि कोई भी व्यापारी, दुकानदार या
सप्लायर भी कहीं न कहीं ग्राहक है। अगर वह एक स्थान पर कुछ लोगों को चूना लगता है
तो इसी प्रवृत्ति का वह दूसरी जगह खुद शिकार बनता है।
खरीददारी में जरूरी है समझदारीः
जीवन के हर हिस्से में आम आदमी को
कहीं न कहीं ऐसी स्थितियों का सामना करना पड़ता है, जब उसे इस तरह की लूट या ठगी
का शिकार बनाया जाता है। पेट्रोल, रसोई गैस, नापतौल, ज्वैलरी खरीद, चिकित्सा,
खाद्य पदार्थों में मिलावट,रेल यात्रा में
मनमानी दरों पर सामान देते वेंडर्स,बिजली कंपनी की लूट के किस्से,बिल्डरों की धोखा
देने की प्रवृत्ति,शिक्षा में बढ़ता बाजारीकरण जैसे अनेक प्रसंग हैं, जहां व्यक्ति
ठगा जाता है। एक जागरूक ग्राहक ही इस कठिन की परिस्थितियों से मुकाबला कर सकता है।
इसके लिए जरूरी है कि ग्राहक जागरण को एक राष्ट्रीय कर्तव्य मानकर हम सामने आएं और
ठगी की घटनाओं को रोकें। साधारण खरीददारियों को कई बार हम सामान्य समझकर सामने नहीं आते इससे गलत काम कर रहे व्यक्ति का
मनोबल और बढ़ता है और उसका लूटतंत्र फलता-फूलता रहता है। हालात यह हैं कि हम चीजें
तो खरीदते हैं पर उसके पक्के बिल को लेकर हमारी कोई चिंता नहीं होती। जबकि हमें
पता है पक्का बिल लेने से ही हमें वस्तु की कानूनी सुरक्षा प्राप्त होती है।
खरीददारी में समझदारी से हम अपने सामने आ रहे अनेक संकटों से बच सकते हैं।
ग्राहकों के पास हैं अनेक विकल्पः
एक जागरूक ग्राहक हर समस्या का समाधान है। हम अपनी साधारण समस्याओं को लेकर
सरकार और प्रशासन तंत्र को कोसते रहते हैं पर उपलब्ध सेवाओं का लाभ नहीं उठाते।
जबकि हमारे पास ग्राहकों की समस्याओं के समाधान के लिए अनेक मंच हैं जिन पर जाकर
न्याय प्राप्त किया जा सकता है। इसमें सबसे खास है उपभोक्ता फोरम। यह एक ऐसा मंच
है जहां पर जाकर आप अपनी समस्या का समाधान पा सकते हैं। प्रत्येक जिले में गठित यह
संगठन सही मायनों में उपभोक्ताओं का अपना मंच है। न्याय न मिलने पर आप इसके राज्य
फोरम और केंद्रीय आयोग में भी अपील कर सकते हैं।
इसके साथ ही अनेक राज्यों में
जनसुनवाई के कार्यक्रम चलते हैं, जिसमें कहीं कलेक्टर तो कहीं एसपी मिलकर समस्याएं
सुनते हैं। मप्र में प्रत्येक जिले में मंगलवार का दिन जनसुनवाई के लिए तय है। कई
राज्य सीएम या मुख्यमंत्री हेल्पलाइन के माध्यम से भी बिजली, गैस, नगर
निगम,शिक्षा, परिवहन जैसी समस्याओं पर बात की जा सकती है। सूचना का अधिकार ने भी
हमें शक्ति संपन्न किया है। इसके माध्यम से ग्राहक सुविधाओं पर सवाल भी पूछे जा
सकते हैं और क्या कार्रवाई हुयी यह भी पता किया जा सकता है। केंद्र सरकार के pgportal.gov.in पर जाकर भी अपनी समस्याओं का समाधान पाया जा
सकता है। इस पोर्टल पर गैस,बैंक, नेटवर्क, बीमा से संबंधित शिकायतें
की जा सकती हैं।
निश्चय ही एक जागरूक समाज और
जागरूक ग्राहक ही अपने साथ हो रहे अन्याय से मुक्ति की कामना कर सकता है। अगर
ग्राहक मौन है तो निश्चय ही यह सवाल उठता है कि उसकी सुनेगा कौन? एक शोषणमुक्त समाज बनाने के लिए ग्राहक जागरूकता के अभियान
को आंदोलन और फिर आदत में बदलना होगा। क्योंकि इससे राष्ट्र का हित
जुड़ा हुआ है।
साधारण प्रयासों से मिलीं असाधारण सफलताएः
एक संगठन और उसके कुछ कार्यकर्ता अगर
साधारण प्रयासों से असाधारण सफलताएं प्राप्त कर सकते हैं तो पूरा समाज साथ हो तो
अनेक संकट हल हो सकते हैं। अखिलभारतीय ग्राहक पंचायत के पास ऐसी अनेक सेक्सेस
स्टोरीज हैं, जिसमें जनता को राहत मिली है। उदाहरण के लिए पानी के बोतल के दाम
अलग-अलग स्थानों पर अलग होते हैं। स्टेशन, बाजार, एयरोड्र्म,पांच सितारा होटल में
अलग-अलग। इसकी शिकायत उपभोक्ता मंत्रालय से की गयी। परिणाम स्वरूप सभी स्थानों पर
पानी की बोतल एक मूल्य पर मिलेगी और पानी बोतल पर एमआरपी एक ही छापी जाए इसका आदेश
उपभोक्ता मंत्रालय ने जारी किया। यह अलग बात है यह बात लागू कराने में अभी उस स्तर
की सफलता नहीं मिली है। ग्राहक पंचायत ने अपने प्रयासों से 16 सुपर फास्ट ट्रेनों
में सुपर चार्ज रद्द करवाकर देश के रेलयात्रियों के लगभग 80 लाख रूपए अनुमानित
बचाने का काम किया है। इसी तरह रेल केटरिंग की रेटलिस्ट प्रकाशित करवाकर देश के
नागरिकों को प्रतिदिन 25 करोड़(अनुमानित) की बचत करवाई और मुनाफाखोरी पर लगाम लगी।
इसी तरह ट्रेनों में वापसी टिकिट का चार्ज हटवाकर लगभग 38 करोड़ रूपए की अनुमानित मासिक
बचत कराई। जाहिर तौर पर ऐसे प्रयास सामान्य जन भी कर सकते हैं। ग्राहकों की
सुरक्षा के लिए ग्राहक संरक्षण अधिनियम 1986 का पारित किया जाना कोई साधारण बात
नहीं थी। किंतु ग्राहक पंचायत के प्रयासों से यह संभव हुआ। जिसके अनुपालन में देश भर
में उपभोक्ता फोरम खुले और न्याय की लहर लोगों तक पहुंची।
आज आवश्यकता इस बात की है कि समाज
के हर वर्ग में ग्राहक चेतना का विकास हो। यह नागरिक चेतना का विस्तार भी है और
समाज की जागरूकता का प्रतिबिंब भी। हमें ग्राहक प्रबोधन, जागरण और उसके सक्रिय
सहभाग को सुनिश्चित करना होगा। आज जबकि समाज के सामने बैंक लूट, साइबर सुरक्षा,
जीएसटी की उलझनें, कैशलेस सिस्टम,भ्रामक विज्ञापन जैसे अनेक संकट हैं, हमें साथ
आना होगा। ग्राहकों के हित में पृथक ग्राहक मंत्रालय की स्थापना के साथ-साथ
संशोधित उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम को अधिकाधिक ग्राहकोपयोगी बनाने और शीध्र पारित
कराने के लिए प्रयास करने होगें। महंगाई की मार से त्रस्त उपभोक्ताओं के सामने
सिर्फ जागरूकता का ही विकल्प है, वरना इस मुक्त बाजार में वह लुटने के लिए तैयार
रहे।
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
शनिवार, 3 मार्च 2018
आरएसएस की अविराम एवं भाव यात्रा का 'ध्येय पथ'
ध्येय पथ : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
के नौ दशक
- लोकेन्द्र सिंह
जनसंचार माध्यमों
में जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संबंध में भ्रामक जानकारी आती है, तब सामान्य व्यक्ति चकित हो उठते हैं, क्योंकि उनके जीवन में संघ किसी और
रूप में उपस्थित रहता है, जबकि
आरएसएस विरोधी ताकतों द्वारा मीडिया में संघ की छवि किसी और रूप में प्रस्तुत की
जाती है। संघ ने लंबे समय तक इस प्रकार के दुष्प्रचार का खण्डन नहीं किया। अब भी
बहुत आवश्यकता होने पर ही संघ अपना पक्ष रखता है। दरअसल, इसके पीछे संघ का यह विचार रहा- 'कथनी नहीं, व्यवहार से स्वयं को समाज के समक्ष
प्रस्तुत करो।'
विजयदशमी, 1925 से अब तक संघ के स्वयंसेवकों ने यही
किया। परिणामस्वरूप सुनियोजित विरोध, कुप्रचार
और षड्यंत्रों के बाद भी संघ अपने ध्येय पथ पर बढ़ता रहा। इसी संदर्भ में यह भी
देखना होगा कि जब भी संघ को जानने या समझने का प्रश्न आता है, तब वरिष्ठ प्रचारक यही कहते हैं- 'संघ को समझना है, तो शाखा में आना होगा।' अर्थात् शाखा आए बिना संघ को नहीं
समझा जा सकता। संभवत: प्रारंभिक वर्षों में संघ के संबंध में द्वितीयक स्रोत
उपलब्ध नहीं रहे होंगे, यथा-
प्रामाणिक पुस्तकें। जो साहित्य लिखा भी गया था, वह संघ के विरोध में तथाकथित
प्रगतिशील खेमे द्वारा लिखा गया। संघ स्वयं भी संगठन के कार्य में निष्ठा के साथ
जुड़ा रहा। 'प्रसिद्धिपरांगमुखता' की नीति के कारण प्रचार से दूर रहा।
किंतु,
आज संघ के संबंध में सब प्रकार का
साहित्य लिखा जा रहा है/उपलब्ध है। यह साहित्य हमें संघ का प्राथमिक और सैद्धांतिक
परिचय तो दे ही देता है। इसी क्रम में एक महत्वपूर्ण पुस्तक है- 'ध्येय पथ : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
के नौ दशक'। पुस्तक का संपादन लेखक एवं
पत्रकारिता के आचार्य प्रो. संजय द्विवेदी ने किया है। यह पुस्तक संघ पर उपलब्ध
अन्य पुस्तकों से भिन्न है। दरअसल, पुस्तक
में संघ के किसी एक पक्ष को रेखांकित नहीं किया गया है और न ही एक प्रकार की
दृष्टिकोण से संघ को देखा गया है। पुस्तक में संघ के विराट स्वरूप को दिखाने का एक
प्रयास संपादक ने किया है। सामग्री की विविधता एवं विभिन्न दृष्टिकोण/विचार 'ध्येय पथ' को शेष पुस्तकों से अलग दिखाते हैं।
संपादक प्रो. संजय द्विवेदी ने संघ
की दशक की यात्रा का निकट से अनुभव किया है, इसलिए उनके संपादन में इस यात्रा के
लगभग सभी पड़ाव शामिल हो पाए हैं। चूँकि संघ का स्वरूप इतना विराट है कि उसको एक
पुस्तक में प्रस्तुत कर देना संभव नहीं है। इसके बाद भी यह कठिन कार्य करने का
प्रयास किया गया है। यह पुस्तक भ्रम के उन जालों को भी हटाने का महत्वपूर्ण कार्य
करती है,
जो हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबल्स
की संतानों ने फैलाए हैं। इस संबंध में संपादक प्रो. द्विवेदी की संपादकीय के
शुरुआती पैराग्राफ से होकर गुजरना चाहिए। उन्होंने लिखा है- ''राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ऐसा
क्या है कि वह देश के तमाम बुद्धिजीवियों की आलोचना के केंद्र में रहता है? ऐसा क्या है कि मीडिया का एक बड़ा
वर्ग भी उसे संदेह की नजर से देखता है? बिना
यह जाने की उसका मूल विचार क्या है? आरएसएस
को न जानने वाले और जानकर भी उसकी गलत व्याख्या करने वालों की तादाद इतनी है कि
पूरा सच सामने नहीं आ पाता। आरएसएस के बारे में बहुत से भ्रम हैं। कुछ तो
विरोधियों द्वारा प्रचारित हैं तो कुछ ऐसे हैं जिनकी गलत व्याख्या कर विज्ञापित
किया गया है। आरएसएस की काम करने की प्रक्रिया ऐसी है कि वह काम तो करता है, प्रचार नहीं करता। इसलिए वह कही
बातों का खंडन करने भी आगे नहीं आता है। ऐसा संगठन जो प्रचार में भरोसा नहीं करता
और उसके कैडर को सतत प्रसिद्धि से दूर रहने का पाठ ही पढ़ाया गया है, वह अपनी अच्छाइयों को बताने के लिए
आगे नहीं आता,
न ही गलत छप रही बातों का खंडन करने
का अभ्यासी है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आरएसएस के बारे में जो कहा जा ता है, वह कितना सच है? ''
'ध्येय पथ' ऐसे ही अनेक प्रश्नों के उत्तर हमारे
सामने प्रस्तुत करती है। संघ की वास्तविक तस्वीर को हमारे सामने प्रस्तुत करती है।
संघ को बदनाम करने में संलग्न विरोधी ताकतों के झूठ उजागर करने का महत्वपूर्ण
कार्य इस पुस्तक ने किया है। आजकल बड़े जोर से एक झूठ बोला जा रहा है, बल्कि उस झूठ के सहारे राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ एवं उसके कार्यकर्ताओं की देशभक्ति को कठघरे में खड़ा करने का
प्रयास किया जा रहा है- 'देश
के स्वतंत्रता आंदोलन में संघ ने हिस्सा नहीं लिया, अपितु उसके पदाधिकारियों ने अपने
कार्यकर्ताओं को आंदोलन का हिस्सा बनने से रोकने के प्रयास किए। देश की स्वतंत्रता
में संघ का कोई योगदान नहीं है।' संघ
एक राष्ट्रनिष्ठ संगठन है। संघ के स्वयंसेवक देश के गौरव के लिए अपने प्राणों की
बाजी लगा सकते हैं। समाज में संघ की ऐसी छवि बन गई है। सशक्त छवि। संघ और उसके
स्वयंसेवक देशभक्ति के पर्याय हो गए हैं। ऐसे में संघ विरोधी ताकतों ने स्वतंत्रता
आंदोलन से संबंधित उक्त झूठ को अपना हथियार बना लिया है। यह ताकतें बार-बार संघ को
इस हथियार से क्षत-विक्षत करने का प्रयास कर रही हैं। 'ध्येय पथ' ने अपने शुरुआती अध्याय में ही संघ
विरोधी ताकतों के इस हथियार को कुंद करने का बंदोबस्त कर दिया है। 'स्वतंत्रता संग्राम एवं संघ' अध्याय में वरिष्ठ पत्रकार एवं
राष्ट्रीय पुस्तक न्यास के अध्यक्ष बल्देवभाई शर्मा, डॉ. मनोज चतुर्वेदी और राजेन्द्र नाथ
तिवारी के आलेखों में प्रमाण और संदर्भ सहित यह सिद्ध किया गया है कि संघ और उसके
स्वयंसेवकों ने स्वतंत्रता आंदोलन में न केवल हिस्सा लिया, अपितु अपने स्तर पर भी ब्रिटिश सरकार
का विरोध किया। संघ की देशभक्ति ने ब्रिटिश सरकार के माथे पर भी चिंता की लकीरें
खींच दी थीं।
'इतिहास विकास एवं भावयात्रा' अध्याय में कुछ ग्यारह आलेख शामिल
हैं, जिनमें प्रख्यात बुद्धिजीवी केएन
गोविन्दाचार्य का लेख भी शामिल है। गोविन्दाचार्य संघ की यात्रा के सहयात्री भी
रहे हैं। इसलिए जब वह लिखते हैं कि संघ की यह यात्रा 'रचना और सृजन की अविराम यात्रा' है, तो शब्द कहीं अधिक जीवंत होकर उनके
कथन के साक्षी बनते हैं। गोविन्दाचार्य का यह लेख और इस अध्याय में शामिल अन्य लेख
संघ के इतिहास,
उसके उद्देश्य, कार्यप्रणाली और उसके स्वरूप से
परिचित कराने का कार्य करते हैं। इसके आगे के अध्याय में आरएसएस के 'सामाजिक योगदान' की चर्चा की गई है। यह ज्ञात तथ्य है
कि नित्य समाजसेवा करने वाला दुनिया का एकमात्र संगठन संघ ही है। देशभर में संघ की
प्रेरणा से डेढ़ लाख से अधिक सेवा कार्य संचालित किए जा रहे हैं। संघ के सेवा
विभाग की वेबसाइट 'सेवागाथा डॉट ओआरजी' पर उपलब्ध आंकड़े के अनुसार
सेवाकार्यों की संख्या लगभग एक लाख सत्तर हजार है। संघ का मानना है कि वास्तविक
एवं स्थायी परिवर्तन समाज जागरण से ही संभव है। इसलिए वह 'व्यक्ति निर्माण' के कार्य को ही अपना मुख्य कार्य
मानता है। समाज को जागृत करने, समाज
में समरसता बढ़ाने,
समाज का सशक्त एवं स्वावलंबी बनाने
में संघ की भूमिका का सम्मान स्वयं महात्मा गांधी ने भी किया है। एक लेखक वर्ग ने
संघ के प्रति अपने राजनीतिक दुराग्रह एवं पूर्वाग्रहों के कारण समाज में उसके
योगदान को कभी रेखांकित नहीं किया। राजनीतिक असर इस कदर था कि तटस्थ लेखकों का
ध्यान भी संघकार्यों के प्रति नहीं गया। प्रख्यात साहित्यकार एवं कवि डॉ.
देवेन्द्र दीपक ने अपने आलेख 'राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ और हिंदी' में
इस ओर संकेत किया है। उन्होंने लिखा है कि राज्यसभा सदस्य पं. बनारसीदास चतुर्वेदी
ने 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' में छपे अपने लेख में विभिन्न
संस्थानों की हिंदी सेवा की विस्तार से चर्चा की। इस लेख को पढ़कर जब डॉ. दीपक ने
उनको पत्र लिख कर यह जानना चाहा कि उन्होंने हिंदी के विस्तार में संघ के योगदान
का उल्लेख क्यों नहीं किया? तब
पं. बनारसीदास चतुर्वेदी ने इसे अपनी चूक मानते हुए अपने उत्तर में लिखा था- 'राजनीतिक कारणों से ध्यान उधर नहीं
जाता।'
इसी प्रकार का एक और उदाहरण आता है, जब डॉ. दीपक ने हिंदी साहित्य
सम्मेलन,
प्रयाग के शताब्दी वर्ष पर प्रकाशित
स्मारिका में 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और हिंदी' विषय पर लेख लिखने का प्रस्ताव दिया।
इस संबंध में उन्हें जो उत्तर प्राप्त हुआ, वह संघ के प्रति राजनीतिक दबाव को भी
प्रकट करता है- 'सर, क्षमा करें। हमारी ग्रांट बंद हो
जाएगी।'
बहरहाल, हिंदी के विस्तार में संघ का जो
योगदान है,
वह अनुकरणीय है। संघ की जब शुरुआत
हुई तो उसमें मराठी भाषा कार्यकर्ता अधिक थे, तब भी संघ का समूचा कार्य हिंदी में
ही होता था। तृतीय वर्ष के संघ शिक्षावर्ग में देश के लगभग सभी प्रांतों से
स्वयंसेवक प्रशिक्षण हेतु आते हैं। सबका प्रशिक्षण हिंदी भाषा में होता है। संघ ने
प्रारंभ से ही बिना किसी आंदोलन और प्रचार के हिंदी का विस्तार किया है। उल्लेखनीय
है कि संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने दो मार्च, 1950 को रोहतक में हरियाणा प्रांतीय
हिंदी सम्मेलन में हिंदी को विश्वभाषा बनाने का आह्वान किया था। यहाँ यह भी समझना
आवश्यक होगा कि संघ हिंदी को राष्ट्रभाषा एवं विश्वभाषा बनाने का आग्रही है, किंतु भारतीय भाषाओं की मजबूती का भी
पक्षधर है। संघ मातृभाषाओं में शिक्षा एवं संवाद का हिमायती है। यहाँ उल्लेख करना
चाहूँगा कि मेरे गुरुजी सुरेश चित्रांशी अकसर मुझे बताते हैं कि जब देश में
आपातकाल थोपा गया था,
तब संघ के कार्यकर्ताओं को खोज-खोज
कर जेल में डाला जा रहा था। उन्हें प्रताडि़त किया जा रहा था। यातनाएं दी जा रही
थीं। पुलिस के सामने सबसे बड़ा प्रश्न यह रहता था कि संघ के स्वयंसेवक की पहचान कैसे
हो, संघ के कार्यकर्ता पर कोई पहचान-पत्र
तो होता नहीं और न ही संघ में उनका पंजीयन होता है। ऐसे में कई कार्यकर्ता अपने
हिंदी उच्चारण के कारण में पकड़े गए। यानी भाषा से उनकी पहचान की गई।
'संगठनात्मक योगदान' अध्याय में संघ के प्रचारक मुकुल
कानिटकर का महत्वपूर्ण लेख शामिल है, जिसमें
उन्होंने भारतीय शिक्षण मंडल का विस्तृत परिचय दिया है। यह मात्र एक संगठन का
परिचय नहीं है,
बल्कि एक झलक है कि संघ की प्रेरणा
से विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे अनेक संगठन कार्य कर रहे हैं। कुछेक संगठनों का
अत्यंत संक्षिप्त परिचय इस समीक्षा/लेख के अकिंचन लेखक ने भी आलेख 'संघ : बीज से वटवृक्ष' में देने का प्रयास किया है। अकसर
आरएसएस का उल्लेख भारतीय जनता पार्टी के साथ ही किया जाता है। दरअसल, संघ की सांस्कृतिक पहचान पर राजनीतिक
लेबल चस्पा करने का यह तुच्छ प्रयास है। विरोधी प्रयास करते हैं कि संघ को
राजनीतिक संगठन साबित कर, समाज
में उसके विस्तार एवं स्वीकार्यता को सीमित किया जाए। किंतु, वह सफल नहीं हो पाते, क्योंकि संघ को समझते नहीं हैं। 'संघ और राजनीति' अध्याय में इसी लेखक ने यह बताने का
प्रयास किया है कि संघ के लिए 'प्राथमिकता
में नहीं है राजनीति'।
'ध्येय पथ' में संपादक प्रो. द्विवेदी ने 'स्त्री शक्ति और संघ' अध्याय को शामिल कर उचित ही जवाब उन
मूढ़ों को दिया है,
जो बिना जाने यह आरोप लगाते हैं कि
संघ में महिलाओं के लिए कोई स्थान नहीं है। डॉ. प्रेरणा चतुर्वेदी और संगीता सचदेव
ने अपने आलेखों में इस बात पर विस्तार से प्रकाश डाला है कि संघ किस विधि स्त्री
शक्ति के मध्य कार्य कर रहा है। संघ न केवल महिलाओं के मध्य कार्य कर रहा है, बल्कि समाज में स्त्री शक्ति की
भूमिका को सशक्त कर रहा है। राष्ट्रसेविका समिति एवं दुर्गा वाहिनी जैसे संगठन
मातृशक्ति में आत्मविश्वास भर रहे हैं। इसके अलावा अन्य संगठनों के माध्यम से भी
मातृशक्ति अपना योगदान दे रही है। इसके साथ ही एक अध्याय में यह भी बताया गया है
कि संघ अब भी अपनी नीति 'प्रसिद्धिपरांगमुखता' में भरोसा करता है, किंतु अब उसने जनसंचार माध्यमों से
मित्रता करना प्रारंभ कर दिया है। जनसंचार माध्यमों से यह मित्रता 'संघ के प्रचार' के लिए नहीं है, संघ को आज तो कतई प्रचार की आवश्यकता
नहीं है,
यह मित्रता तो समाज में चल रहे 'सकारात्मक एवं रचनात्मक कार्यों' के प्रचार-प्रसार के लिए है। इसके
अलावा समाज से संवाद बढ़ाना भी एक उद्देश्य है, ताकि संघ विरोधियों द्वारा फैलाए
भ्रमों का समुचित प्रत्युत्तर दिया जा सके। इसके साथ ही और भी महत्वपूर्ण आलेख इस
पुस्तक में शामिल हैं,
जो संघ के प्रति हमारी समझ को बढ़ाते
हैं। पुस्तक के आखिर में 'संघ
: एक परिचय,
दृष्टि और दर्शन' अध्याय को शामिल किया गया है। यह
अध्याय हमें संघ की बुनियादी रचना और जानकारी देता है, यथा- आरएसएस क्या है, उसका उद्देश्य, शाखा क्या है, शाखा में क्या होता है, स्वयंसेवक की परिभाषा क्या है? इसके साथ ही ऐसे और भी प्रश्नों के
माध्यम से जानकारी देने का प्रयास किया गया है, जो अमूमन पूछे जाते हैं।
बारह अध्यायों में 36 आलेखों को समेटे 'ध्येय पथ' वर्तमान सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत को
समर्पित है। पुस्तक में कुछ 262
पृष्ठ हैं। मुखपृष्ठ आकर्षक बन पड़ा है, जो
बरबस ही पाठकों को आकर्षित करता है। पुस्तक का प्रकाशन दिल्ली के 'यश पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स' ने किया है। प्रकाशक ने जनवरी, 2018 में दिल्ली के प्रगति मैदान में
आयोजित विश्व पुस्तक मेले में पुस्तक को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया था, जिसे पाठकों ने हाथों-हाथ लिया। अपनी
समृद्ध एवं विविध सामग्री के कारण पुस्तक ने संघ संबंधी साहित्य में शीघ्र ही अपना
स्थान बना लिया है। संघ को जानने और समझने का प्रयास करने वाले सभी प्रकार के
लोगों को यह पुस्तक पढऩी चाहिए। इस 'पुस्तक-चर्चा
आलेख'
को मैं लेखक प्रो. संजय द्विवेदी के
संपादकीय के अंतिम हिस्से के साथ पूर्ण करना चाहूँगा- 'एक संगठन जब अपनी सौ साल की आयु पूरी
करने की तरफ बढ़ रहा है तो उसके बारे में उठे सवालों, जिज्ञासाओं, उसके अवदान, उसकी भविष्य की तैयारियों पर बातचीत
होनी ही चाहिए। आशा है कि यह पुस्तक इस सिलसिले में एक अग्रगामी भूमिका निभाएगी
तथा विमर्श और चिंतन के नये द्वार खोलेगी।'
पुस्तक : ध्येय पथ : राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नौ दशक
संपादक : प्रो. संजय द्विवेदी
मूल्य : 250 रुपये (पेपरबैक), 650 रूपए (सजिल्द)
पृष्ठ : 262
प्रकाशक : यश पब्लिशर्स एंड
डिस्ट्रीब्यूटर्स
1/10753, सुभाष पार्क, नवीन
शाहदरा,
दिल्ली-110032
(समीक्षक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय
पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में सहायक प्राध्यापक हैं और
विश्व संवाद केंद्र, भोपाल के कार्यकारी निदेशक हैं।)
प्रो.संजय द्विवेदी,
पत्रकार एवं लेखक
ब्लाग में व्यक्त विचार निजी हैं। इसका किसी संगठन अथवा मेरे व्यवसाय से संबंध नहीं है।
सदस्यता लें
संदेश (Atom)