शनिवार, 24 नवंबर 2012

मीडिया विमर्श का नया अंकः सिनेमा विशेषांक


पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता सम्मान


हिंदी में प्रकाशित उर्दू सहाफत के मुस्तकबिल पर एक मुकम्मल



हिंदी में प्रकाशित उर्दू सहाफत के मुस्तकबिल पर एक मुकम्मल किताब
उर्दू पत्रकारिता का भविष्य
संपादकः संजय द्विवेदी
जिनके खूबसूरत लेखों से सजी है यह किताबः शाहिद सिद्दीकी, असद रजा,रघु ठाकुर,राजेश रैना, मासूम मुरादाबादी, धनंजय चोपड़ा,तहसीन मुनव्वर, डा.माजिद हुसैन,शारिक नूर,एहतेशाम अहमद खान, डा.ए. अजीज अंकुर,आरिफ अजीज,डा. मरजिया आरिफ,डा. हिसामुद्दीन फारूखी, फिरोज अशरफ,डा. अख्तर आलम, फिरदौस खान, इशरत सगीर,ए.एन शिबली,एजाजुर रहमान, संजय कुमार, आरिफ खान मंसूरी,डा. जीए कादरी आदि। साथ में देश के सात महत्वपूर्ण उर्दू पत्रकारों के साक्षात्कार, जिन्हें पढ़ने से पता चलती है उर्दू सहाफत की महक और उसकी खूशबू।
एक ऐसा दस्तावेज जिसे आप संभालकर रखना चाहेगें।
मूल्यः295 रूपए मात्र                           पृष्ठः144
प्रकाशकः यश पब्लिकेशन्स
1/10753 गली नंबर-3,सुभाष पार्क, नवीन शाहदरा, नियर कीर्ति मंदिर,
दिल्ली-110032
फोनः 09899938522
ईमेलः yashpublicationdelhi@gmail.com

शनिवार, 10 नवंबर 2012

अंधकार को क्यों धिक्कारें, अच्छा है एक दीप जला लें

दीपावली की बहुत-बहुत शुभकामनाएं

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

पुष्य नक्षत्र की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

पुष्य नक्षत्र की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं।

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

भारत के हर ‘संसाधन’ पर हक है मेरा!



अदालती फैसले को सही संदर्भ में समझने की जरूरत
                  -संजय द्विवेदी
    राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए संदर्भ पत्र पर उच्चतम न्यायालय की राय को केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी अपनी विजय के रूप में प्रचारित करने में लगी है। जबकि यह मामले को आधा समझना है। ऐसी आधी-अधूरी समझ से ही संकट खड़े होते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला दिया है उसके मूलभाव को समझे बिना- भारत के खनिज संसाधनों पर भी हक है मेरा का गायन ठीक नहीं कहा जा सकता। देश में मची संसाधनों की लूट को कैग ने सही तरीके से समझा है किंतु सरकार इन गंभीर विषयों पर नीति बनाने के बजाए सारा कुछ बाजार और स्वविवेक पर सौंपने की नीति पर चलने के लिए आतुर है।
   देश के राष्ट्रपति महोदय के संदर्भ पत्र पर पांच जजों की संविधान पीठ का फैसला दरअसल सरकार के कामकाज में दखल न देने की भावना ज्यादा है। वैसे भी सरकार का काम नीति बनाना है और नीति बनाते समय यह सावधानी रखना भी है कि इसे लूटतंत्र में न बदला जा सके। केंद्र सरकार को तय करना है कि आखिर देश के प्राकृतिक संसाधनों के मामले में क्या नीति बनाई जाए। किंतु उसे अपनी मनमानियों को जायज ठहराने के लिए इस्तेमाल करना उचित नहीं कहा जा सकता। फैसला बहुत व्यापक संदर्भ की बात करता है और उसने सिर्फ संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की है। अदालत ने साफ कहा है कि प्राकृतिक संसाधनों का आवंटन नीतिगत मामला है और यह सरकार का अधिकार है कि वह इसका तरीका तय करे। इसके साथ ही अदालत ने यह भी माना है कि नीलामी बेहतर विकल्प है। अदालत का कहना है कि आबंटन हर हाल में पारदर्शी होना चाहिए। अगर आबंटन का तरीका मनमाना है तो अदालत उसकी समीक्षा करेगी।
   इस फैसले की आड़ लेकर कांग्रेस के कुछ प्रवक्ता और मंत्री जिस तरह कैग को नसीहतें देने में और की गयी लूटपाट को वैधानिक बताने में जुटे हैं, वह ठीक नहीं है। उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे नेतागण संसाधनों की इस लूट को जारी रखने के पक्ष में हैं और किसी नीति-नियम के खिलाफ है। कैग के खिलाफ उनकी उलटबासियां बताती हैं कि वे नहीं चाहते कि उनके कामों की किसी प्रकार से समीक्षा हो। कोई एजेंसी उनके कामों का आंकलन करे इसके लिए भी वे तैयार नहीं हैं। जबकि यह समझना होगा कि सरकार पर आपका हक होने से संसाधनों पर भी आपका हक नहीं  हो जाता बल्कि ये संसाधन देश के हैं। इनका उचित प्रकार दोहन करके प्राप्त राशि को विकास के काम में लगाया जाना चाहिए। यह साधारण नहीं है कि जिन इलाकों से ये खनिज संसाधन निकाले जा रहे हैं वहां रहने वाली आबादी सबसे गरीब है। ये वही इलाके हैं जहां गरीबी, मुफलिसी और बेचारगी फैली हुयी है। ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि ये संसाधन जिन लोगों के इलाकों से निकाले जा रहे हैं क्या उनका इन पर कोई हक नहीं हैं। अगर है तो क्यों न इन इलाकों से होने वाली आय का एक बड़ा हिस्सा सरकारें इन पर खर्च करें। खनिज संसाधनों से युक्त अमीर घरती पर अगर देश के सबसे गरीब लोग बसते हैं तो यह हमारे लोकतंत्र की बिडंबना ही कही जाएगी। ऐसे में इस विरोधाभास को हटाने और खत्म करने की भी जरूरत महसूस की जा रही है।
   खुद मंत्रिमंडलीय समूह ने कोयला खदानों के आबंटन में हुई अनियमितताओं को उचित पाया है और तमाम आबंटन रद कर दिए हैं। अगर नीलामी के जरिए ये आबंटन हुए होते तो निश्चय ही सरकार को ज्यादा फायदा हुआ होता। कम से कम नकली कंपनियां और फर्जी पतों का इस्तेमाल कर अनुभवहीन कंपनियां तो मैदान में नहीं कूदतीं,वही कंपनियां सामने आती जिनकी व्यवसाय में रूचि है। निश्चित रूप से नीलामी के बजाए कथित विवेकाधिकार भ्रष्टाचार को ही जन्म देगा और घोटालों को एक संस्थागत रूप मिल जाएगा। जिस चावला समिति का गठन सरकार ने किया था, उसने भी प्रतिस्पर्धी बोली के पक्ष में सिफारिश की थी। हालांकि केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि उसने चावला समिति की सिफारिशें स्वीकारी नहीं हैं। ऐसे में इस फैसले की आड़ लेकर सरकार अगर पुरानी नीति को जारी रहने देती है तो निश्चय ही देश के राजस्व को चूना ही लगेगा। हमारे खनिज संसाधनों की लूट यूं ही होती रहेगी और हम इस घाटे के नाते पैदा हालतों में एफडीआई जैसे टोटकों से अपनी अर्थव्यवस्था को संभालने का जतन करते रहेंगें।
   यह दुखद ही है कि आला अदालत ने जाने क्यों सरकारों की मनमानियों को देखते हुए भी उन पर भरोसा किया है जबकि क्या ही बेहतर होता कि वह सरकार को एक मुकम्मल नीति बनाने का सुझाव देती और उसे विधायिका से स्वीकृत लेकर लागू करने की बात कहती। हमारी आला अदालत ने भले ही सरकार के सम्मान को बहाल रखते हुए एक सकारात्मक फैसला सुनाया है, किंतु टूजी स्पेक्ट्रम से लेकर कोलगेट तक जो राह हमारी राजनीति ने चुनी है, उसे देखने के बाद देश भरोसे से खाली है। आज वह सिर्फ सुप्रीम कोर्ट पर ही भरोसा करने के लिए विवश है। ऐसे में अदालत का भी सरकार को बेलगाम छोड़ देना, बड़े संकट रच सकता है। बावजूद इसके यह उम्मीद रखनी चाहिए कि हमारे प्रधानमंत्री इस संबंध में नीतियां बनाने में वही उत्साह दिखाएंगें जैसा वे आर्थिक सुधारों के लिए दिखा रहे हैं। भरोसे से खाली देश में नीतियां ही हमारी मार्गदर्शक बन सकती हैं। हर अधिकार के साथ कर्तव्य भी जुड़े हैं और इतनी तो उम्मीद की ही जानी चाहिए कि देश के संसाधनों की तरफ ललचाई नजरों से देखती हुयी राजनीति कम से यह तो न कहे कि भारत के हर प्राकृतिक संसाधन पर हक है मेरा।

हिन्दी विकास के लिए व्यवस्थित योजना जरूरीः प्रो. कुठियाला






भोपाल, 2अक्टूबर। माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि हिन्दी के विकास के लिए एक व्यवस्थित योजना और लक्ष्य तय करने होंगे। इस लक्ष्य को पेशेवर विपणन रणनीति के जरिए ही हासिल किया जा सकता है। दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में आयोजित नवें अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में भाग लेकर भोपाल लौटे प्रो. कुठियाला विश्वविद्यालय परिवार के साथ अपनी यात्रा के अनुभवों को साझा कर रहे थे। गांधी, हिन्दी और अफ्रीकाविषय पर आयोजित इस व्याख्यान का आयोजन इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग ने किया था।
    प्रो. कुठियाला ने कहा कि हिन्दी के विकास में बाधा उसकी कट्टरता है। अगर हम हिन्दी ही की जगह हिन्दी भी का रवैया अपना लें और उसका अन्य भारतीय भाषाओं के साथ बड़ी बहन की जगह बहनापा बने तो वह अपने विकास में खुद सक्षम है और उसको किसी की मदद की जरुरत नहीं है। उन्होंने सम्मेलन के नौ सत्रों में हुई चर्चा का सार संक्षेप और पारित किये गये प्रस्तावों तथा बहस के प्रमुख बिन्दुओं के बारे में भी चर्चा की। हिंदी सम्मेलन में लोकतंत्र और मीडिया की भाषा के रुप में हिन्दीके सत्र में वक्ता के रुप में श्री कुठियाला ने सम्मेलन में लोकतंत्र, मीडिया और हिन्दी पर बुनियादी सवाल उठाए। उन्होंने आश्चर्य व्यक्त किया कि आखिर आज कम्प्यूटर पर हिन्दी में वर्तनी जांचनेऔर सर्च इंजन बनाने का काम क्यों नहीं हो सका।
    अपने वक्तव्य में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के समाज, मीडिया और कानून व्यवस्था पर भी रोशनी डाली। कई देशों की यात्रा कर चुके प्रो. कुठियाला ने कहा कि दक्षिण अफीका के आदमी में एक संतोष दिखता है जो अन्य देशों में दुर्लभ है।उन्होंने भारतीय परिवेश के साथ ही वहां के अनुभवों की रोचक तुलना की। कार्यक्रम का संचालन इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. आशीष जोशी ने किया। इस अवसर पर विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव प्रो. रामदेव भारद्वाज, विभागाध्यक्षगण सर्वश्री संजय द्विवेदी, पुष्पेंद्रपाल सिंह,ड़ा. पवित्र श्रीवास्तव, डा. पी शशिकला सहित अनेक शिक्षक, अधिकारी और विद्यार्थी मौजूद थे। अंत में आभार प्रदर्शन प्रदीप डहेरिया ने किया।

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

पुणच्या वर्षी लवकर या...


शुक्रवार, 21 सितंबर 2012

एक था लोकतंत्र और एक थी कांग्रेस !


           एफडीआई के अजगर से कैसै बच पाएगा भारत ? 
                -संजय द्विवेदी
  एक था लोकतंत्र और एक थी कांग्रेस। इस कांग्रेस ने अंग्रेजों द्वारा बनाए गए एक अलीट क्लब’ (याद कीजिए एक अंग्रेज ए.ओ.ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना की थी) को जनांदोलन में बदल दिया और विदेशी पराधीनता की बेड़ियों से देश को मुक्त कराया। किंतु ऐसा क्या हुआ कि यही कांग्रेस कुछ दशकों के भीतर ही पूरी तरह बदल जाती है।
   चीजें बदलती है और दुनिया भी बदलती है किंतु विचार किसी भी दल के लिए सबसे बड़े होते हैं। आज की कांग्रेस क्या हिंद स्वराज लिखने वाले महात्मा गांधी के उत्तराधिकार का दावा कर सकती है? समय के प्रवाह में चीजें बदलती हैं किंतु इतनी नहीं कि वे अपनी मूल पहचान ही नष्ट कर दें। इस देश में लंबे समय तक देशवासी लोकतंत्र का मतलब कांग्रेस ही समझते रहे, वह तो भला हो श्रीमती इंदिरा गांधी का जिन्होंने आपातकाल लगाकर इस देश को एक मोह निद्रा से निकाल दिया। कांग्रेस के पास परंपरा से जो आंदोलनकारी शक्ति, जनविश्वास, उदात्तता, औदार्य और सबको साथ लेकर चलने के क्षमता तथा इस देश की सांस्कृतिक विरासतों का आग्रही होने का भ्रम था वह टूट गया।
निजी जागीर में बदला एक आंदोलनः
एक आंदोलन कैसे एक परिवार की निजी जागीर में बदलता है इसे देखना हो तो कांग्रेस परिघटना को समझना जरूरी है। कैसे एक पार्टी गांधी-नेहरू-इंदिरा का रास्ता छोड़कर गुलामी के सारे प्रतीकों को स्वीकारती चली जाती है, कांग्रेस इसका उदाहरण है। इतिहास के इस मोड़ पर जब कांग्रेस खुदरा क्षेत्र में एफडीआई की बात के पक्ष में नाहक और बेईमानी भरे तर्क दे रही है तो समझना मुश्किल नहीं है उसने राष्ट्रीय आंदोलन की गर्भनाल से अपना रिश्ता तोड़ लिया है। नहीं तो जिस 20 सितंबर,2012 को सारा देश सड़क पर था, देश की छोटी-बड़ी 48 पार्टियां भारत बंद में शामिल थीं, उसी दिन सरकार एफडीआई की अधिसूचना निकालती है। यह जनमत और लोकतंत्र का तिरस्कार नहीं तो क्या है ? संदेश यह कि आप कुछ भी करें पर हम अपने आकाओं (अमरीका और कारपोरेट्स) का हुकुम बजाएंगें। इस जलते हुए देश के जलते सवालों से टकराने और उनके ठोस व वाजिब हल तलाशने के बजाए, आत्महत्या कर रहे किसानों के देश में आप एफडीआई के लिए उतारू हैं। इसके साथ ही अहंकार का यह प्रदर्शन जैसे आप सरकार चलाकर इस देश पर अहसान कर रहे हैं।
जनता के सवालों से बेरूखीः
जनता के सवालों से जुड़े लोकपाल बिल, महिला आरक्षण बिल, भूमि अधिग्रहण कानून और खाद्य सुरक्षा कानून कहां है? उन्हें पास कराने के लिए इतनी गति और त्वरा क्यों नहीं दिखाई जा रही है। जबकि पार्टी के आला नेता सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने दिखावटी ही सही किंतु भूमि अधिग्रहण और खाद्य सुरक्षा कानून में गहरी रूचि दिखायी थी। खुदरा क्षेत्र में रिटेल के द्वार खोल रही सरकार के पास सबसे बड़ा तर्क यह है कि इससे किसानों को लाभ मिलेगा। पिछले साढ़े दशकों में किसानों के लिए कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों ने किया कि जिसके चलते वे आत्महत्या के कगार पर पहुंच गए हैं। खुदरा में एफडीआई का चंद औद्योगिक घरानों के अलावा कौन समर्थन कर रहा है ? एक सच्चा कांग्रेसी भी अंतर्मन से इस कदम के खिलाफ है। किंतु ये हो रहा है और प्रतिरोध की ताकतें पस्त पड़ी हैं।
कहां चाहिए एफडीआईः
  क्या ही बेहतर होता कि एफडीआई को देश की अधोसंरचना के क्षेत्र में, सड़क, बिजली और क्रिटिकल टेक्नालाजी के क्षेत्र में लाया जाता। केंद्र सरकार के वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय ने देश के प्रमुख समाचार पत्रों में एक पेज का विज्ञापन जारी कर देश को गुमराह करने की कोशिश की है। विज्ञापन के मुताबिक खुदरा क्षेत्र में एफडीआई से एक करोड़ रोजगारों का सृजन होगा। जबकि यह सफेद झूठ है। पहले सरकार ने कहा था कि इससे 40 लाख लोगों को काम मिलेगा। जबकि अगर 40 लाख लोगों को काम देना है तो आज वालमार्ट को उसके 28 देशों में जितने कुल स्टोर हैं उसकी तुलना में दोगुने स्टोर अकेले भारत में खोलने होंगें। यदि रिटेल क्षेत्र के चारों टाप ब्रांड्स का औसत निकाल लिया जाए तो प्रति स्टोर कर्मचारियों की संख्या होती है 117, ऐसे में चारों ब्रांड मिलकर 40 लाख लोगों को नियोजित करना चाहें तो देश में 34,180 स्टोर खोलने होंगें। क्या देश की जनता को सरकार ने मूर्ख समझ रखा है ? आज देश का अंसंगठित खुदरा क्षेत्र का कुल कारोबार लगभग 408.8 बिलियन डालर का है। औसतन प्रत्येक दुकानदार 15 लाख रूपए का सालाना कारोबार करते हुए कम से कम तीन लोगों को रोजगार मुहैया कराता है। हमारी सरकारें जो लोगों को रोजी-रोजगार दे नहीं सकतीं। उन्हें पढ़ा-लिखा और बाजार के लायक बना नहीं सकतीं, उन्हें क्या हक है कि वे काम कर रहे इन लोगों के पेट पर लात मारें। सरकार इस बात भी अपनी पीठ ठोंक रही है कि खुदरा में उसने सिर्फ 51 प्रतिशत विदेशी निवेश की सीमा तय की है, अन्य देशों में यह 100 प्रतिशत है। अब सवाल यह उठता है कि भारत की विशाल आबादी और भारत जैसी समस्याएं क्या अन्य देशों के पास हैं? आप ब्राजील,थाईलैंड, इंडोनेशिया, सिंगापुर, अर्जेंटाइना और चिली जैसे देशों से भारत की तुलना कैसे कर सकते हैं ? किसानों को शोषण मुक्त करने की नारेबाजियां हम आजादी के बाद से देख रहे हैं। किंतु उनके शोषण का एक नया तंत्र और नए बिचौलिए एफडीआई के बाद भी पैदा होंगें। खासकर उन्हें खास किस्म के बीज ही उगाने की सलाहें भी इसी षडयंत्र के तहत दी जाएंगीं। ताकि वे फिर-फिर बीज उन्हीं कंपनियों से लें और इससे एक बीज का बाजार भी खड़ा हो जाएगा।
झूठ बोलती सरकारः
 यह भी एक सफेद झूठ है कि तीस प्रतिशत सामान लघु उद्योगों से लिया जाएगा, किंतु वे लघु उद्योग भारत के होंगें या चीनी यह कहां स्पष्ट है। अमरीकी वालमार्ट की दुकानों में चीन माल भरा पड़ा है। वालमार्ट ऐसा ही वरदान है तो अमरीका जैसे देशों में अकुपाई वालमार्ट जैसे प्रदर्शन क्यों हुए? क्यों अमरीकी राष्ट्रपति को लोगों से यह आह्लवान करना पड़ा कि लोग छोटे और आसपास के स्टोर्स से सामान खरीदें। क्योंकि अमरीकी बाजार में अपनी मोनोपोली स्थापित हो जाने के बाद वालमार्ट ने अपने ग्राहकों को चूसने में कोई कसर नहीं छोड़ी। ऐसे में यह सोचना बहुत लाजिमी है जो कंपनी दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण इंसानों .यानि अमरिकियों का खून चूस सकती है वह हम निरीह भारतीयों को क्या बक्शेगी। फिर उनके पास ओबामा हैं और हमारे पास मनमोहन सिंह जैसे नेता। जिन्हें जनता के दर्द से कभी वास्ता नहीं रहा।
   आज वालमार्ट का कारोबार दुनिया के 28 देशों में फैला हुआ है। जिसकी बिक्री 9800 स्टोर्स के माध्यम से 405 बिलियन डालर की है। वाल्मार्ट में कुल 21 लाख कर्मचारी कार्यरत हैं। इस अनुपात को एक नजीर मानें तो अगर हमारे शहर में एक वालमार्ट का स्टोर प्रारंभ होता है तो वह 1300 खुदरा दुकानदारों की दुकानें बंद कराएगा जिससे लगभग 3900 लोग बेरोजगार हो जाएंगें। क्या भारत जैसे देश में यह प्रयोग मानवीय कहा जाएगा ? इसमें खुदरा क्षेत्र में लगी श्रमशक्ति को भी शामिल करके देखें तो एक स्टोर खुलते ही लगभग 3,675 लोग तुरंत अपने रोजगार से हाथ धो बैठेंगें। एफडीआई के रिटेल सेक्टर के आगमन का विश्लेषण करने वाले विद्वानों और पत्रकारों का मानना है कि ऐसे सुपर बाजार अगर एक रोजगार सृजित करेंगें तो तुरंत 17 लोगों का रोजगार खा जाएंगें। ऐसा अमानवीय और दैत्याकार कदम उठाते हुए सरकार को सिहरन नहीं हो रही है और वह झूठ पर झूठ बोलती जा रही है।
भूले गांधी का जंतरः
 महात्मा गांधी ने हमें एक जंतर दिया था कि जब भी आप कोई कदम उठाएं तो यह ध्यान रखें कि इसका आखिरी आदमी पर क्या असर होगा। किंतु अब लगता है कि हमारी राजनीति गांधी के इस मंत्र को भूल गयी है। हम सही मायने में विश्वमानव हो चुके हैं जहां अपनी भूमि और उस पर बसने वाले लोग हमारे लिए मायने नहीं रखते हैं। विदेशी सोच और उधार के ज्ञान पर देश की राजनीति में आए हार्वड और कैंब्रिज के डिग्रीधारियों ने इस देश को बंधक बना लिया है। जाहिर तौर पर इस बार हमारी राजनीति मीर जाफर बनकर एक बार फिर इतिहास को दोहराने में लगी है। अफसोस यह है कि हमारे प्रतिपक्ष के राजनीतिक दलों में इस सवाल को लेकर ईमानदारी नहीं है। वे भी आत्मविश्वास से खुदरा क्षेत्र में एफडीआई के सवाल को नहीं उठा रहे हैं। सिर्फ जनभावना के चलते वे विरोध प्रदर्शनों में शामिल दिखते हैं। इसलिए जब हमें यह पता चलता है कि अकेली वालमार्ट ने इस देश में लाबिंग के लिए 53 मीलियन डालर खर्च किए हैं तो आश्चर्य नहीं होता। लाबिंग का मतलब बताने की जरूरत नहीं कि हमारे नेताओं और अधिकारियों को मोटे उपहारों से लादा गया होगा।
  यह कहने के जरूरत नहीं है लोकतंत्र के नाम पर हमारी सरकारें एक अधिनायकवादी तंत्र चला रही हैं, जहां आम आदमी के दुख-दर्द और उसकी परेशानियों से उसका कोई सरोकार नहीं है। लोग लुटते-पिटते रहें, मेहनतकश आत्महत्याएं करते रहें किंतु आवारा पूंजी की लालची हमारी सरकारों और कारपोरेट्स की लपलपाती जीभें हमारी संवेदना को चिढ़ाती रहेंगीं। यह देश की राजनीति का दैन्य ही कहा जाएगा कि एक व्यक्ति एक साथ सरकार की जनविरोधी नीतियों के साथ भी है और उसके खिलाफ भी। मुलायम सिंह, मायावती, करूणानिधि जैसे लोग साबित करते हैं कि जनता उनके लिए एक वोट भर है और अवसरवाद उनका मूलमंत्र। दुनिया भर में मल्टीब्रांड खुदरा व्यापार को निगल गए तो भारत के निरीह व्यापारी उनका मुकाबला क्या खाकर करेंगें। इस खेल में बड़ी मछली, छोटी मछली को निगलती रहेगी और हम भारत के लोग इसे देखने के लिए विवश होंगें क्योंकि इस बार हमारी पूरी राजनीतिक जमात मीरजाफर सरीखी नजर आ रही है और हमने प्लेट में रखकर हिंदुस्तान विदेशियों को सौंपने की तैयारी कर ली है। ऐसे कठिन समय में हमें फिर गांधी की याद करते हुए एक निर्णायक संघर्ष के लिए खड़े होना पड़ेगा क्योंकि हर कठिन समय में वे ही हमें पश्चिम की शैतानी सभ्यता से लड़ने का पाठ पढ़ाते हैं।