रविवार, 10 जून 2012
अर्थव्यवस्था को तबाह कर देगा खुदरा क्षेत्र में एफडीआईः द्विवेदी
गुरुवार, 7 जून 2012
“वो जो बाजार के खिलाड़ी हैं तेरा हर ख्वाब बेच डालेंगें”
शनिवार, 19 मई 2012
घर में ही बेगानी उर्दू और उसकी पत्रकारिता
बाजार और मीडिया के बीच भारतीय भाषाएं
बाजार की सबसे प्रिय भाषाः
- वनिता (मलयालम)-पाक्षिक
- प्रतियोगिता दर्पण (हिंदी)-मासिक
- सरस सलिल( हिंदी)-पाक्षिक
- सामान्य ज्ञान दर्पण (हिंदी)-मासिक
- इंडिया टुडे (अंग्रेजी)-साप्ताहिक
- मेरी सहेली (हिंदी)-मासिक
- मलयालया मनोरमा (मलयालम)-साप्ताहिक
- क्रिकेट सम्राट (हिंदी)-मासिक
- जनरल नालेज टुडे (अंग्रेजी)-मासिक
- कर्मक्षेत्र (बंगला)-साप्ताहिक ( स्रोतः आईआरएस-2011 क्यू फोर)
शुक्रवार, 18 मई 2012
मोहब्बत की हदें और सरहदें
सोमवार, 7 मई 2012
नक्सलवाद के खिलाफ हमारी मिमियाहटें
मंगलवार, 17 अप्रैल 2012
सोशल मीडिया के खतरों का भी रखें ख्यालः अग्रवाल
विश्वविद्यालय में व्याख्यान,पूर्व छात्र मिलन तथा सांस्कृतिक संध्या का आयोजन
भोपाल, 7 अप्रैल। संघ लोकसेवा आयोग के अध्यक्ष प्रो. देवप्रकाश अग्रवाल का कहना है कि सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभावों के मद्देनजर इसके सही इस्तेमाल की जरूरत है ताकि यह बेहद प्रभावकारी माध्यम गलत तत्वों के हाथ में पड़कर सामाजिक अशांति का कारण न बन जाए।
वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में आयोजित माखनलाल चतुर्वेदी स्मृति व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे। रवींद्र भवन में आयोजित व्याख्यान का विषय था ‘सोशल मीडिया और लोकतंत्र’। उन्होंने कहा कि किसी भी माध्यम की मर्यादाएं जरूरी हैं ताकि वह आतंकियों, समाजतोड़कों के हाथ में न पड़ सके। उनका कहना था कि सोशल मीडिया शिक्षा, परिवार, समाज, सरकार सारे सरोकारों को प्रभावित कर रहा है। उसकी यह ताकत लोकतंत्र को मजबूत तो कर रही है पर हमें इसके खतरों का भी ख्याल रखना होगा।
उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया ने आम आदमी को आवाज दी है और परंपरागत माध्यमों से अलग उसने एक नए तरीके से दुतरफा और चौतरफा संवाद को संभव बनाया है। इसने हमारी भाषा और जीवन सबमें एक जगह बनानी शुरू कर दी है। सोशल मीडिया में कोई रोक- टोक न होना और किसी स्तर पर इसका संपादन न होना इसे खतरे की ओर ढकेलता है। आज भी हिंदुस्तान जैसे देश में यह सामूहिक आवाजों का माध्यम नहीं है, क्योंकि बहुत कम लोग इसका इस्तेमाल कर रहे हैं, भले इसकी गूंज बहुत ज्यादा हो। श्री अग्रवाल ने कहा कि युवाओं के सवाल, उनके मुद्दे और भाषा अलग है और यही वर्ग इस माध्यम पर ज्यादा सक्रिय है।
लोकतंत्र देता है फैसलों की ताकतः इसके पूर्व भारतीय प्रबंध संस्थान, इंदौर के निदेशक प्रो. एन.रविचंद्रन ने कहा कि लोकतंत्र हमें फैसले लेने की ताकत देता है। यह आम आदमी को आवाज देता है, ऐसे में सोशल मीडिया का आना इस ताकत को और बढ़ा देता है। मीडिया के चलते ही आज कारगिल युद्ध के बाद सेना के प्रति एक सम्मान का भाव जगा तथा लोग सेना की नौकरी को एक आदर से देखने लगे हैं। इसी तरह भ्रष्टाचार के खिलाफ मीडिया के जागरण का ही परिणाम है कि अन्ना हजारे की तुलना गांधी से की जाने लगी। कामनवेल्थ खेलों से लेकर टूजी घोटाले के सवाल आम आदमी के मुद्दे बने यह मीडिया के चलते ही संभव हुआ। सार्वजनिक जीवन में पारदर्शिता का सवाल आज लोगों तक पहुंचा तो इसके पीछे सोशल मीडिया की एक बड़ी ताकत है। उनका कहना था कि एक जीवंत लोकतंत्र के लिए एक सक्रिय मीडिया जरूरी है।
राय बनाने में अहम रोलः कार्यक्रम के मुख्यअतिथि प्रदेश के पुलिस महानिदेशक नंदन दुबे ने कहा कि मीडिया का लोगों की राय बनाने में एक अहम रोल है। लोकतंत्र शासन चलाने का सबसे बेहतर तरीका है। मीडिया आज बहुत सारी चीजों को बनाने बिगाड़ने में एक बड़ी भूमिका अदा कर रहा है। ऐसे में अगर मीडिया ईमानदार और प्रतिबद्ध हो तो वह लोकतंत्र को मजबूत करने में एक बड़ी भूमिका निभा सकता है।
विचारों का लोकतंत्रः कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि सोशल मीडिया ने वास्तव में वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा को साकार कर दिया है। इससे पार्टनरशिप बन रही है, संवाद बन रहा है और फिर संबंध बन रहे हैं। परंपरागत मीडिया में जहां संवाद नियंत्रित था और कुछ ही लोग यह तय कर रहे थे कि क्या पढ़ना है और किन सवालों पर बात होनी है, वहीं सोशल मीडिया ने आम आदमी को ताकत दी है। इसने जाति, भाषा, भूगोल और सांस्कृतिक बंधनों को तोड़कर एक वैश्विक संवाद की परंपरा की शुरूआत की है। लोकतंत्र चुनावों तक सीमित नहीं है ,यहां विचारों का भी लोकतंत्र होना चाहिए। सोशल मीडिया ने इसे संभव कर दिखाया है। इससे पूरी मानवता एक सूत्र में जुड़ती हुयी दिखने लगी है।
सत्र का संचालन प्रो. आशीष जोशी और आभार प्रदर्शन प्रो. रामदेव भारद्वाज ने किया। कार्यक्रम में पत्रकार रमेश शर्मा, रामभुवन सिंह कुशवाह, कैलाश चंद्र पंत, सुरेश शर्मा, दीपक शर्मा, इंडिया टुडे के पूर्व कार्यकारी संपादक जगदीश उपासने, डा. रामजी त्रिपाठी, प्रो.बीएस निगम, संदीप भट्ट, डा. अरूण भगत, रजनी नागपाल, सूर्यप्रकाश, प्रो. सीपी अग्रवाल, रजिस्ट्रार चंदर सोनाने सहित अनेक लोग उपस्थित रहे।
पूर्व छात्रों सम्मेलन में विविध मुद्दों पर चर्चाः कार्यक्रम के दूसरे सत्र में आयोजित पूर्व छात्र मिलन में मीडिया, जनसंचार और आईटी से जुड़े पूर्व छात्रों ने अपने अनुभव सुनाए और कई सुझाव भी दिए। इस सत्र में वरिष्ठ पत्रकार दीपक तिवारी, अजयप्रकाश उपाध्याय, सिद्धार्थ मुखर्जी, जाली जैन, अजीत सिंह, चंदन गोयल, धर्मेंद्र सिंह भदौरिया, अभय प्रधान, सत्यप्रकाश, प्रियंका दुबे, आलोक मिश्र, गणेश मालवीय, राजकमल, मनीष सिंह, श्रीकांत त्रिवेदी ने भी अपने विचार व्यक्त किए।
सायं के सत्र में विद्याथियों ने सांस्कृतिक प्रस्तुतियां दीं तथा प्रतिभा के वार्षिक आयोजन में विजेता छात्र-छात्राओं को पुरस्कृत भी किया गया।
संवेदना के बिना पत्रकारिता संभव नहीं- उपाध्याय
भोपाल, 16 अप्रैल। वरिष्ठ पत्रकार उमेश उपाध्याय का कहना है कि संवेदनशीलता के बिना पत्रकारिता संभव नहीं है। एक पत्रकार की दृष्टि संपन्नता और संवेदनशीलता ही उसको प्रामणिकता प्रदान करती है। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के इलेक्ट्रानिक मीडिया विभाग द्वारा आयोजित व्याख्यान को संबोधित कर रहे थे।
श्री उपाध्याय ने कहा कि नए पत्रकारों को घटनाओं को देखने और बरतने का तरीका बदलना होगा। आज जब दुनिया में पत्रकारिता के अंत की बातें हो रही हैं तो हमें अपनी मीडिया को ज्यादा सरोकारी और जवाबदेह बनाना होगा। संवेदना, वैल्यू एडीशन और नजरिया ही किसी भी पत्रकारीय लेखन की सफलता है। उन्होंने दुख जताते हुए कहा कि मीडिया को आज लोग सत्ता प्रतिष्ठान का हिस्सा मानने लगे हैं, यह धारणा बदलने की जरूरत है। टेलीविजन में नकारात्मक संवेदनाएं बेचने पर जोर है, जिससे इस माध्यम को लोग गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। उनका कहना था कि पत्रकारिता 20-20 का मैच नहीं है, यह दरअसल टेस्ट मैच है, जिसमें आपको लंबा खेलना होता है। धैर्य, समर्पण और सतत लगे रहने से ही एक पत्रकार अपना मुकाम हासिल करता है। आज इस दौर में जब शब्द महत्व खो रहे हैं तो हमें शब्दों की बादशाहत बनाए रखने के लिए प्रयास करने होंगें। कार्यक्रम के प्रारंभ में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी और डा. मोनिका वर्मा ने श्री उपाध्याय का स्वागत किया। संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया।
शुक्रवार, 16 मार्च 2012
मेरी नई किताब 'कुछ भी उल्खेनीय नहीं' की भूमिका

भूमिका
कुछ कहना था इसलिए....
अपने समय, परिवेश, देश और भोगे जा रहे समय पर कोई तटस्थ कैसे रह सकता है ? बहुत से दुख जो खुद नहीं भोगे गए, उन्हें किसी और ने भोगा होगा, संकट जो मुझ पर नहीं आए किसी और पर आए होंगें। मौतें, विभीषिकाएं, गरीबी, बेरोजगारी जैसे दुखों से मेरा नहीं पर तमाम लोगों का सामना होता है। अब सवाल यह उठता है कि दूसरों के दर्द अपने कब लगने लगते हैं ? दूसरों के लिए आवाज देने में सुख क्यों आने लगता है ? मेरे लिखे हुए में, पूरी विनम्रता के साथ यही परदुखकातरता मौजूद है।
मेरे पास अपने निजी दुख नहीं हैं, संघर्ष की कथाएं भी नहीं हैं, थका देने वाली मेहनत के बाद मिलने वाली रोटी जैसी जिंदगी भी नहीं है। इसका मतलब यह नहीं कि मैं बहुत चैन से हूं। मैं भी दुखी हूं कि क्योंकि मेरे आसपास बहुत से लोग दुखी हैं। मेरे लेखन की मनोभूमि यही है। मुझे यह बात चौंकाती है कि उपभोग की सीमा तय क्यों नहीं है? हमारे समय के एक बड़े राजनेता स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह ने कभी कहा था कि ‘गरीबी के साथ अमीरी की भी रेखा तय होनी चाहिए।’ वे यह कहते हुए कितने गंभीर थे, मुझे नहीं पता, किंतु मुझे लगता है कि हमारे समय के सबसे बड़े संकट पर जाने-अनजाने वे एक बड़ी बात कह गए थे।
इस देश के पास दुखों का एक पहाड़ सा है। इन दुख के टापुओं के बीच सारी चमकीली प्रगति पासंग सी दिखने लगती है। मोबाइल, माल, मीडिया और मनी ने हमें कितना बनाया है, इसका आंकलन लोग करेंगें किंतु जीवन की सहजता का इन सबने मिलकर अपहरण कर लिया है, इसमें दो राय नहीं है। एक नई तरह की सामाजिक संरचना के बीच अलग-अलग बनते हुए हिंदुस्तान, अलग-अलग सांस लेते हिंदुस्तान, अलग- अलग शिक्षा पाते हिंदुस्तान और अलग-अलग तरह से बरते जाते हिंदुस्तान, एक क्षोभ जगाते हैं। राजनीति को कोसने के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं, क्योंकि समाज की परिवर्तनकामी ताकतें और बुद्धिजीवी खुद मौकापरस्ती के इतिहास रच रहे हैं। आंदोलन, समर्पण कर रहे हैं और अराजनैतिक ताकतों का राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ रहा है। राजनीति जनता के लिए जवाबदेह नहीं, कारपोरेट- ठेकेदारों और हर तरह कानून तोड़ने वालों की बंधक बन रही है। कई बार लगता है कि हर समय, इतना ही कठिन रहा होगा। यह हिंदुस्तान की जिजीविषा है कि वह शासक वर्गों की इतनी उपेक्षाओं के बावजूद, गुलामियों के लंबे दौर-दौरे के बावजूद धड़कता रहा। इसी हिंदुस्तान की रूकती हुई सांसों, उसकी गुलाम होती भाषा, उसकी बदलती रूचियां और अपने परिवेश को हिकारत से देखने की दृष्टि, मुझे चिंता में डालती है।
आज का समय बीती हुई तमाम सदियों के सबसे कठिन समयों में से एक है। जहाँ मनुष्य की सनातन परंपराएँ, उसके मूल्य और उसका अपना जीवन ऐसे संघर्षों के बीच घिरा है, जहाँ से निकल पाने की कोई राह आसान नहीं दिखती। भारत जैसे बेहद परंपरावादी, सांस्कृतिक वैभव से भरे-पूरे और जीवंत समाज के सामने भी आज का यह समय बहुत कठिन चुनौतियों के साथ खड़ा है। आज के समय में शत्रु और मित्र पकड़ में नहीं आते। बहुत चमकती हुई चीज़ें सिर्फ धोखा साबित होती हैं। बाजार और उसके उपादानों ने मनुष्य के शाश्वत विवेक का अपहरण कर लिया है। जीवन कभी जो बहुत सहज हुआ करता था, आज के समय में अगर बहुत जटिल नज़र आ रहा है, तो इसके पीछे आज के युग का बदला हुआ दर्शन है।
भारतीय परंपराएं आज के समय में बेहद सकुचाई हुई सी नज़र आती हैं। हमारी उज्ज्वल परंपरा, जीवन मूल्य, विविध विषयों पर लिखा गया बेहद श्रेष्ठ साहित्य, आदर्श, सब कुछ होने के बावजूद हम अपने आपको कहीं न कहीं कमजोर पाते हैं। यह समय हमारी आत्मविश्वासहीनता का भी समय है। इस समय ने हमें प्रगति के अनेक अवसर दिए हैं, अनेक ग्रहों को नापतीं मनुष्य की आकांक्षाएं, चाँद पर घर बसाने की उम्मीदें, विशाल होते भवन, कारों के नए माडल -ये सारी चीज़ें मिलकर भी हमें कोई ताकत नहीं दे पातीं।
विकास के पथ पर दौड़ती नई पीढ़ी मानो जड़ों से उखड़ती जा रही है। इक्कीसवीं सदी में घुस आई यह पीढ़ी जल्दी और ज़्यादा पाना चाहती है और इसके लिए उसे किसी भी मूल्य को शीर्षासन कराना पड़े, तो कोई हिचक नहीं । यह समय इसीलिए मूल्यहीनता के सबसे बेहतर समय के लिए जाना जाएगा। यह समय सपनों के टूटने और बिखरने का भी समय है। यह समय उन सपनों के गढऩे का समय है, जो सपने पूरे तो होते हैं, लेकिन उसके पीछे तमाम लोगों के सपने दफ़्न हो जाते हैं। ये समय सेज का समय है, निवेश का समय है, लोगों को उनके गाँवों, जंगलों, घरों और पहाड़ों से भगाने का समय है। ये भागे हुए लोग शहर आकर नौकर बन जाते हैं। इनकी अपनी दुनिया जहाँ ये ‘मालिक’ की तरह रहते थे, आज के समय को रास नहीं आती। ये समय उजड़ते लोगों का समय है। गाँव के गाँव लुप्त हो जाने का समय है। ये समय ऐसा समय है, जिसने बांधों के बनते समय हजारों गाँवों को डूब में जाते हुए देखा है। यह समय ‘हरसूद’ को रचने का समय है । खाली होते गाँव,ठूँठ होते पेड़, उदास होती चिड़िया, पालीथिन के ग्रास खाती गाय, फार्म हाउस में बदलते खेत, बिकती हुई नदी, धुँआ उगलती चिमनियाँ, काला होता धान ये कुछ ऐसे प्रतीक हैं, जो हमें इसी समय ने दिए हैं। यह समय इसीलिए बहुत बर्बर है। बहुत निर्मम और कई अर्थों में बहुत असभ्य भी।
यह समय आँसुओं के सूख जाने का समय है । यह समय पड़ोसी से रूठ जाने का समय है। यह समय परमाणु बम बनाने का समय है। यह समय हिरोशिमा और नागासाकी रचने का समय है। यह समय गांधी को भूल जाने का समय है। यह समय राम को भूल जाने का समय है। यह समय रामसेतु को तोड़ने का समय है। उन प्रतीकों से मुँह मोड़ लेने का समय है, जो हमें हमारी जड़ों से जोड़ते हैं। यह जड़ों से उखड़े लोगों का समय है और हमारे सरोकारों को भोथरा बना देने का समय है। यह समय प्रेमपत्र लिखने का नहीं, चैटिंग करने का समय है। इस समय ने हमें प्रेम के पाठ नहीं, वेलेंटाइन के मंत्र दिए हैं। यह समय मेगा मॉल्स में अपनी गाढ़ी कमाई को फूँक देने का समय है। यह समय पी-कर परमहंस होने का समय है।
इस समय ने हमें ऐसे युवा के दर्शन कराए हैं, जो बदहवास है। वह एक ऐसी दौड़ में है, जिसकी कोई मंज़िल नहीं है। उसकी प्रेरणा और आदर्श बदल गए हैं। नए ज़माने के धनपतियों और धनकुबेरों ने यह जगह ले ली है। शिकागो के विवेकानंद, दक्षिण अफ्रीका के महात्मा गांधी अब उनकी प्रेरणा नहीं रहे। उनकी जगह बिल गेट्स, लक्ष्मीनिवास मित्तल और अनिल अंबानी ने ले ली है। समय ने अपने नायकों को कभी इतना बेबस नहीं देखा। नायक प्रेरणा भरते थे और ज़माना उनके पीछे चलता था। आज का समय नायकविहीनता का समय है। डिस्को थेक, पब, साइबर कैफ़े में मौजूद नौजवानी के लक्ष्य पकड़ में नहीं आते । उनकी दिशा भी पहचानी नहीं जाती । यह रास्ता आज के समय से और बदतर समय की तरफ जाता है। बेहतर करने की आकांक्षाएं इस चमकीली दुनिया में दम तोड़ देती हैं। ‘हर चमकती चीज़ सोना नहीं’ होती लेकिन दौड़ इस चमकीली चीज़ तक पहुँचने की है।
आज की शिक्षा ने नई पीढ़ी को सरोकार, संस्कार और समय, किसी की समझ नहीं दी है। यह शिक्षा मूल्यहीनता को बढ़ाने वाली साबित हुई है। अपनी चीज़ों को कमतर कर देखना और बाहर सुखों की तलाश करना इस समय को और विकृत करता है। परिवार और उसके दायित्व से टूटता सरोकार भी आज के ही समय का मूल्य है। सामूहिक परिवारों की ध्वस्त होती अवधारणा, फ्लैट्स में सिकुड़ते परिवार, प्यार को तरसते बच्चे, अनाथ माता-पिता, नौकरों, बाइयों और ड्राइवरों के सहारे जवान होती नई पीढ़ी । यह समय बिखरते परिवारों का भी समय है। इस समय ने अपनी नई पीढ़ी को अकेला होते और बुजुर्गों को अकेला करते भी देखा। यह ऐसा जादूगर समय है, जो सबको अकेला करता है। यह समय ‘साइबर फ्रेंड’ बनाने का समय है। यह समय व्यक्ति को समाज से तोड़ने, सरोकारों से अलग करने और ‘विश्व मानव’ बनाने का समय है।
यह समय भाषाओं और बोलियों की मृत्यु का समय है। दुनिया को एक रंग में रंग देने का समय है। यह समय अपनी भाषा को अँग्रेज़ी में बोलने का समय है। यह समय पिताओं से मुक्ति का समय है। यह समय माताओं से मुक्ति का समय है। इस समय ने हजारों हजार शब्द, हजारों हजार बोलियाँ निगल जाने की ठानी है। यह समय भाषाओं को एक भाषा में मिला देने का समय है। यह समय चमकीले विज्ञापनों का समय है। इस समय ने हमारे साहित्य को, हमारी कविताओं को, हमारे धार्मिक ग्रंथों को पुस्तकालयों में अकेला छोड़ दिया है, जहाँ ये किताबें अपने पाठकों के इंतजार में समय को कोस रही हैं। इस समय ने साहित्य की चर्चा को, रंगमंच के नाद को, संगीत की सरसता को, धर्म की सहिष्णुता को निगल लेने की ठानी है।
यह समय शायद इसलिए भी अब तक देखे गए सभी समयों में सबसे कठिन है, क्योंकि शब्द किसी भी दौर में इतने बेचारे नहीं हुए नहीं थे। शब्द की हत्या इस समय का एक सबसे बड़ा सच है। यह समय शब्द को सत्ता की हिंसा से बचाने का भी समय है। यदि शब्द नहीं बचेंगे, तो मनुष्य की मुक्ति कैसे होगी ? उसका आर्तनाद, उसकी संवेदनाएं, उसका विलाप, उसका संघर्ष उसका दैन्य, उसके जीवन की विद्रूपदाएं, उसकी खुशियाँ, उसकी हँसी, उसका गान, उसका सौंदर्यबोध कौन व्यक्त करेगा। शायद इसीलिए हमें इस समय की चुनौती को स्वीकारना होगा। यह समय हमारी मनुष्यता को पराजित करने के लिए आया है।
हर दौर में हर समय से मनुष्यता जीतती आई है। हर समय ने अपने नायक तलाशे हैं और उन नायकों ने हमारी मानवता को मुक्ति दिलाई है। यह समय भी अपने नायक से पराजित होगा। यह समय भी मनुष्य की मुक्ति में अवरोधक नहीं बन सकता। हमारे आसपास खड़े बौने, आदमकद की तलाश को रोक नहीं सकते। वह आदमकद कौन होगा वह विचार भी हो सकता है और विचारों का अनुगामी कोई व्यक्ति भी। कोई भी समाज अपने समय के सवालों से मुठभेड़ करता हुआ ही आगे बढ़ता है। सवालों से मुँह चुराने वाला समाज कभी भी मुक्तिकामी नहीं हो सकता। यह समय हमें चुनौती दे रहा है कि हम अपनी जड़ों पर खड़े होकर एक बार फिर भारत को विश्वगुरू बनाने का स्वप्न देखें। हमारे युवा एक बार फिर विवेकानंद के संकल्पों को साध लेने की हिम्मत जुटाएं। भारतीयता के पास आज भी आज के समय के सभी सवालों का जवाब हम इस कठिन सदी के, कठिन समय की हर पीड़ा का समाधान पा सकते हैं, बशर्तें आत्मविश्वास से भरकर हमें उन बीते हुए समयों की तरफ देखना होगा जब भारतीयता ने पूरे विश्व को अपने दर्शन से एक नई चेतना दी थी। वह चेतना भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर एक नया समाज गढ़ने की चेतना है । वह भारतीय मनीषा के महान चिंतकों, संतों और साधकों के जीवन का निकष है। वह चेतना हर समय में मनुष्य को जीवंत रखने, हौसला न हारने, नए-नए अवसरों को प्राप्त करने, आधुनिकता के साथ परंपरा के तालमेल की एक ऐसी विधा है, जिसके आधार पर हम अपने देश का भविष्य गढ़ सकते हैं।
आज का विश्वग्राम, भारतीय परंपरा के वसुधैव कुटुंबकम् का विकल्प नहीं है। आज का विश्वग्राम पूरे विश्व को एक बाजार में बदलने की पूँजीवादी कवायद है, तो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का मंत्र पूरे विश्व को एक परिवार मानने की भारतीय मनीषा की उपज है। दोनों के लक्ष्य और संधान अलग-अलग हैं। भारतीय मनीषा हमारे समय को सहज बनाकर हमारी जीवनशैली को सहज बनाते हुए मुक्ति के लिए प्रेरित करती है, जबकि पाश्चात्य की चेतना मनुष्य को देने की बजाय उलझाती ज़्यादा है। ‘देह और भोग’ के सिद्धांतों पर चलकर मुक्ति की तलाश भी बेमानी है। भारतीय चेतना में मनुष्य अपने समय से संवाद करता हुआ आने वाले समय को बेहतर बनाने की चेष्टा करता है। वह पीढ़ियों का चिंतन करता है, आने वाले समय को बेहतर बनाने के लिए सचेतन प्रयास करता है। जबकि बाजार का चिंतन सिर्फ आज का विचार करता है। इसके चलते आने वाला समय बेहद कठिन और दुरूह नज़र आने लगता है। कोई भी समाज अपने समय के सरोकारों के साथ ही जीवंत होता है। भारतीय मनीषा इसी चेतना का नाम है, जो हमें अपने समाज से सरोकारी बनाते हुए हमारे समय को सहज बनाती है। क्या आप और हम इसके लिए तैयार हैं ? यह एक बड़ा सवाल है।
अपने तमाम लेखों को एक किताब की शक्ल पाते हुए देखना हर लेखक को सुख देता है। इन कच्चे-पक्के लेखों को आपको इस तरह सौंपते हुए मुझे संकोच तो है किंतु यह खुशी भी कि ये अधपके विचार अब मेरे बंधक नहीं रहे, इनमें आपकी हिस्सेदारी इसे परिपक्व बना देगी। मुझे उम्मीद है कि किताब आपका प्यार पाएगी।
- संजय द्विवेदी