शुक्रवार, 14 मई 2010

इस औरत का रास्ता मत रोकिए


ऐसे फतवे से क्या हासिल होगा समाज को
-संजय द्विवेदी


इस बार फिर एक फतवा विवादों में हैं। मुस्लिम समाज की प्रमुख संस्था दारूल उलूम, देवबंद का ने हाल में ही एक फतवा जारी करते हुए मुस्लिम महिलाओं को सलाह दी है कि वे मर्दों के साथ आफिस में काम न करें और अगर उन्हें काम करना भी तो बुर्का भी पहनें और दूरियां बनाकर रखें। जाहिर तौर पर मुस्लिम समाज से ही इस फतवे के विरोध में आवाजें उठनी शुरू हो गयी हैं। देवबंद से जारी इस फतवे का पूरे देश में विरोध हो रहा है। महिला संगठनों ने भी देवबंद के इस फतवे को गलत बताया है।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि समुदाय की बेहतरी के सवालों पर गौर करने के बजाए इस तरह के फतवों से क्या हासिल होना है। वैसे भी मुस्लिम समाज में महिलाओं की स्थिति बेहतर नहीं है। अन्य समाजों के मुकाबले मुस्लिम महिलाएं प्रत्येक क्षेत्र में पिछड़ रही हैं। औरत को कड़े पर्दे में रखने की हिमायत के अलावा तीन तलाक जैसे प्रावधान आखिर क्या संदेश देते हैं ? इस्लाम के जानकार कई विद्वान मानते हैं कि इस्लाम को सही रूप में न जानने और गलत व्यख्याओं के चलते महिलाएं उपेक्षा का शिकार हुई हैं, जबकि इस्लाम में स्त्री को अनेक अधिकार दिए गए हैं। एक इस्लामी विद्वान के मुताबिक ‘वास्तविकता तो यह है कि इस्लाम ने पहली बार यह महसूस किया था कि पुरुष व महिलाएं दोनों ही समाज के महत्वपूर्ण अंग हैं। इस्लाम संभवतः पहला मजहब था, जिसने अरब जगत में महिलाओं को अधिकार प्रदान करने का श्रीगणेश किया।’ यह वास्तविकता है कि मध्य युग में महिलाओं की स्थिति बहुत खराब थी। उन्हें पिता की संपत्ति में कोई अधिकार न था। विवाह के मामले में उनकी इच्छा या स्वीकृति का प्रश्न ही नहीं था। विधवा होने पर पुनर्विवाह की अनुमति नहीं थी। शादी के बाद छुटकारे का अधिकार न था। अपनी सम्पन्नता के आधार पर पुरुष सैकड़ों औरतों को हरम में रखते थे। उलेमा आज जैसी भी व्याख्याएं करें पर औरत के सामने खड़े इन प्रश्नों पर इस्लाम ने सोचा और उसे अधिकार सम्पन्न बनाया। इस्लाम ने समानता की बात कही । कुरान के मुताबिक ‘पुरुषों के लिए भी उस सम्पन्न बनाया। इस्लाम ने समानता की बात कही । कुरान के मुताबिक ‘पुरुषों के लिए भी उस सम्पत्ति में हिस्सा है, जिसे मां-बाप या निकट संबंधी छोड़ जाएं ।’ (अन-निसा 7) । यह निर्देश स्त्री-पुरुष में भेद नहीं करते। आगे कहा गया है ‘मर्दों ने जो कुछ कमाया है, उसके अनुसार उनका हिस्सा है।’(इन-निसा। 32) । पिता की संपत्ति में बेटी के हक की इस्लाम ने व्यवस्था की है। विवाह के मामले में भी इस्लाम ने औरतों को आजादी दी । विधवा का विवाह उसकी सलाह से और कुंवारी का विवाह उसकी रजामंदी के बाद करने का निर्देश दिया। यही नहीं यह भी कहा गया है कि विवाह उसकी रजामंदी के बाद करने का निर्देश दिया । यही नहीं यह भी कहा गया है कि विवाह के बाद यदि लड़की कहे तो शादी उसकी रजामंदी के बगैर हुई है तो निकाह टूट जाता है। लेकिन उलेमा उन्हीं आयतों को सामने लाते हैं, जहां औरत की पिटाई का हक पति को दिया गया है। मगर वे यह नहीं बताते कि पत्नी पर व्याभिचार का आरोप लगाकर पति तभी कार्यवाही कर सकता है, जब कम-से-कम 4 गवाह इस बात की गवाही दें कि पत्नी व्याभिचारिणी है। इसके अलावा तलाक के मामले की मनमानी व्याख्याओं के हालात और बुरे किए हैं। पति द्वारा पीड़ित किए जाने पर पत्नी को तलाक का हक देकर इस्लाम ने औरत को शक्ति दी थी । किंतु आज तलाक पुरुषों के हाथ का हथियार बन गया है । बहुविवाह और इस्लाम को लेकर भी खासे भ्रम और मनमानी व्याख्याएं जारी है।एक मुसलमान को चार शादियां करने का हक है, यह बात जोर से कही जाती है। इस अधिकार को लेकर मुस्लिम खासे संवेदनशील भी हैं, क्योंकि इससे प्रायः मुसलमान चार शादियां तो नहीं करते, लेकिन स्त्री पर मनोवैज्ञानिक दबाव व तनाव बनाए रखते हैं। पत्रकार डॉ. मेंहरुद्दीन खान ने अपने एक लेख में कहा है कि ‘विशेष परिस्थितियों में समाज में संतुलन बनाए रखने के लिए यह व्यवस्था की गई थी। इसमें दो बातें थीं एक तो नवाबों के हरम में असंख्य औरतें थीं, जो नारकीय जीवन बिताती थीं। दो-चार पत्नियां रखने की अनुमति का उद्देश्य हरमों से औरतों की संख्या कम हो गई थी। इस हालात में समाज में संतुलन बनाने के लिए यह उपाय लाजिमी था।’ आज देखा गया है कि विशेष परिस्थितियों में मिली छूट का लाभ उठाकर बूढ़े सम्पन्न लोग भी जवान व कुंवारी लड़कियों से विवाह कर खुद को गौरवान्वित महसूस करते हैं। ऐसे प्रसंग मुस्लिम समाज के समाने एक चुनौती की तरह खड़े हैं। इसी तरह पर्दा प्रथा भी है। इस्लाम ने उच्छृंखल होने, नंगेपन पर रोग लगाई तो उसे उलेमाओं ने औरत के खिलाफ एक और हथियार बना लिया।भारत में दहेज प्रथा अभिशाप बन गई है।
मुस्लिम समाज में इस प्रकार की किसी परंपरा का जिक्र नहीं मिलता, किंतु भारतीय प्रभावों से आज उनमें भी यह बीमारी घर कर गई है। अनेक मुस्लिम औरतों को जलाकर मार डालने की घटनाएं दहेज को लेकर हुई हैं। इसमें मुस्लिम समाज का दोहरापन भी सामने आता है। ‘मेहर’की रकम तय करते समय ये शरीयत की आड़ लेकर महर तय कराना चाहता है। किंतु दहेज लेते समय सब भूल जाते हैं। अरब देशों में कमाने गए लोगों ने भी दहेज को बढ़ावा दिया है। अनाप-शनाप आय से वे पैसा खर्च कर अपना रुतबा जमाना चाहते हैं। वहां ये भूल जाते हैं कि दहेज का प्रचलन न सिर्फ गैर इस्लामी है, बल्कि किसी भी समाज के लिए चाहे वे हिंदू हो या ईसाई, शुभ लक्षण नहीं है।जाहिर है मुस्लिम महिलाओं को अपनी शक्ति और धर्म द्वारा दिए गए अधिकारों के प्रति जागरूकता पैदा कर अपनी लड़ाई को आगे बढ़ाना होगा । सामाजिक चेतना जगाकर ही इस प्रश्न पर सोचने के लिए लॉ बोर्ड संस्थाओं को जगाया जा सकता है । धार्मिक नेताओं को भी चाहिए कि वे इस तरह के फतवे जारी करके अपने आपको हास्यापद न बनाएं। क्योंकि मुस्लिम महिलाएं ही नहीं पूरे भारतीय समाज की महिलाएं हर क्षेत्र में अपना योगदान कर रही हैं और अपनी योग्यता से एक नया अध्याय लिख रही हैं। इस तेजी से आगे बढ़ती औरत को प्रोत्साहन देने की जरूरत है न कि उसका रास्ता रोकने की। ऐसे में बेटियों के हक और हकूक के लिए हमें अपना दिल बड़ा करना पड़ेगा क्योंकि वे हमारा परिवार बना सकती हैं तो हमारे समाज और देश को बनाने की जिम्मेदारी भी उन्हें दी जा सकती है। इंदिरा गांधी से लेकर बेनजीर भुट्टो तक हमारे पास हर समाज में ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जिन्होंने अपने काम से औरत के वजूद को साबित किया है।औरत के हक और हुकूक का सवाल पूरी कौम की बेहतरी से जुड़ा है। यह बात मुस्लिम जगत के रहनुमा जितनी जल्दी समझ जाएंगे, मुस्लिम महिलाएं उतनी ही समर्थ होकर घर-परिवार एवं समाज के लिए अपना सार्थक योगदान दे सकेंगी।

शुक्रवार, 7 मई 2010

झगड़ा क्या है उर्दू और हिंदी का

दोनों इसी जमीन की खुशबू से बनी भाषाएं हैं
- संजय द्विवेदी

ज्ञान की नगरी बनारस से एक अच्छी खबर आयी है। भाषाओं की जंग में फंसे देश में ऐसी खबरें राहत भी देती हैं और समाधान भी सुझाती हैं। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एमए हिंदी के छात्र-छात्राएं अब गालिब की शायरी, मीर तकी मीर जैसे उर्दू के लेखकों को भी पढ़ेंगे। जाहिर तौर इससे हिंदी की ताकत तो बढ़ेगी ही, विद्यार्थी नए अनुभवों से युक्त होंगे और उर्दू के विशाल काव्य संसार से रूबरू होने का उन्हें मौका भी मिलेगा। यह एक अवसर और संदेश दोनों है कि भारतीय भाषाएं अपनी ताकत को पहचानें और साथ मिलकर अंग्रेजी के आतंक के सामने अपनी सार्थकता साबित करें।
सच तो यह है कि देश के बंटवारे ने सिर्फ हिंदुस्तान का भूगोल भर नहीं बदला, उसने इस विशाल भू-भाग पर पलने और धड़कने वाली गंगा-जमुनी संस्कृति को भी चोट पहुंचाई। हमारी संवेदनाओं, भावनाओं, बोलियों और भाषाओं को भी तंगनज़री का शिकार बना दिया । उर्दू 1947 में घटे इस अप्राकृतिक विभाजन का दंश आज तक झेल रही है। जब वह एक सभ्यता को स्वर देने वाली भाषा नहीं रही । बल्कि एक ‘कौम’ की भाषा बनकर रह गई। तब से आज तक वह सियासतदानों के लिए ‘फुटबाल’ बनकर रह गई है।भारतीय उपमहाद्वीप में जन्मी-पली और बढ़ी यह भाषा जो यहां की तहजीब और सभ्यता को स्वर देती रही, विवादों का केंद्र बन गई। गैर भाषाई और गैर सांस्कृतिक सवालों की बिना पर उर्दू को अनेक स्तरों पर विवाद झेलने पड़े और इसमें जहां एक ओर उग्र उर्दू भाषियों की हठधर्मिता रही तो दूसरी ओर उर्दू विरोधियों के संकुचित दृष्टिकोण ने भी उर्दू की उपेक्षा के वातावरण की सृजन किया। हमारे समाज के बदलते रंग-रूप उसकी सभ्यता की विकासयात्रा में उर्दू साहित्य ने कई आयाम जोड़े हैं। अमीर खुसरो, मीर तकी मीर, गालिब की परंपरा से होती हुई जो उर्दू फैज अहमद ‘फैज’, अली सरदार जाफरी, कैफी आजमी या बशीर बद्र तक पहुची है, वह एक दिन की यात्रा नहीं है। एक लंबे कालखंड में एक देश और उसके समाज से सतत संवाद के सिलसिले ने उर्दू को इस मकाम पर पहुंचाया है। इस योगदान के ऊपर अकेले 1947 के विभाजन ने पानी फेर दिया। सामाजिक जनजीवन में भी यही घटना घट रही थी। मुस्लिम मुहल्ले-हिंदू मुहल्ले अलग-अलग सांस ले रहे थे, पूरे अविश्वास के साथ । दोनों वर्गों को जोड़ने वाले चीजें नदारद थीं। भाषा (उर्दू) तो पहले ही ‘शहीद’ हो चुकी थी। ऐसे में जब संवेदनाओं का श्रोत सूख रहा हो। हमने अपने-अपने ‘कठघरे’ बना रखे हों-जहां हम व्यक्तिगत सुख-दुख तक की बातें एक-दूसरे से नहीं बांट पा रहे हों-तो भाषा व लिपि को लेकर समझदारी कहां से आती ?उर्दू को लेकर काम कर रहे लोग भी बंटे दिखे। तंगनजरी का आलम यह कि हिंदू उर्दू, मुस्लिम उर्दू तक के विभाजन साफ नजर आने लगे। दिल्ली व पंजाब के जिन उर्दू अखबारों के मालिक हिंदू थे, जैसे हिंद समाचार, प्रताप, मिलाप आदि उन्हें देख कर ही पता चल जाता था कि यह हिंदू अखबार है। जबकि मुस्लिम मालिक-संपादक के अखबार बता देते हैं कि वह मुस्लिम अखबार है। यह कट्टरपन अब साहित्यिक क्षेत्रों (शायरी व कहानी) में भी देखने लगा है।
जाहिर है ये बातें ‘उर्दू समाज’ बनाने में बाधक हैं। उर्दू के सुनहरे अतीत पर गौर करें तो रघुपति सहाय फिराक, कृश्नचंदर, सआदत हसन मंटो, राजेंद्र सिंह बेदी, प्रेमचंद, कुरतुल एन हैदर, ख्वाजा अहमद अब्बास, अहमद नदीम का सभी ने जो साहित्य रचा है-वह भारतीय समाज के गांवों एवं शहरों की धड़कनों का गवाह है। वहीं उर्दूं शायरी ने अपने महान शायरों की जुबान से जिंदगी के हर शै का बयान किया है। यह परंपरा एक ठहराव का शिकार हो गई है। नए जमाने के साथ तालमेंल मिलाने में उर्दू के साहित्यकार एवं लेखक शायद खुद को असफल पा रहे हैं। उर्दू एक मंझी हुई संस्कृति का नाम है। हालत बताते हैं कि उसे आज सहारा न दिया गया तो वह अतीत की चीज बनकर रह जाएगी। आज अहम सवाल यह है कि किसी मुसलमान या हिंदू को उर्दू सीखकर क्या मिलेगा ? हर चीज रोजगार एवं लाभ के नजरिए से देखी जाने लगी है। ऐसे में उर्दू आंदोलन को सही रास्तों की तलाश करनी होगी। सिर्फ मदरसों एवं कौमी साहित्य की पढ़ाई के बजाए उर्दू को नए जमाने की तकनीक एवं साईंस की भी भाषा बनना होगा। साहित्य में वह अपनी सिद्धता जाहिर कर चुकी है-उसे आगे अभी हिंदुस्तान की कौम का इतिहास लिखना है। ये बातें अब दफन कर दी जानी चाहिए की उर्दू का किसी खास मजहब से कोई रिश्ता है। यदि ऐसा होता तो बंगलादेश- ‘बंगला’ भाषा की बात पर अलग न होता और पाकिस्तान के ही कई इलाकों में उर्दू का विरोध न होता । इसके नाते उर्दू को किसी धर्म के साथ नत्थी करना बेमानी है। उर्दू सही अर्थों में ‘हिन्दुस्तानी कौम’ की जबान है और हिंदुस्तान की सरजमी पर पैदा हुई भाषा है। आज तमाम तरफ से उर्दू को देवरागरी में लिखने की बातें हो रही हैं-और इस पर लंबी बहसें भी चली हैं। लोग मानते हैं कि इससे उर्दू का व्यापक प्रसार होगा और सीखने में लिपि के नाते आने वाली बाधाएं समाप्त होंगी । लेकिन कुछ विद्वान मानते कि रस्मुलखत (लिपि) को बदलना मुमकिन नहीं है । क्योंकि लिपि ही भाषा की रूह होती है। वे मानते हैं कि देवनागरी में उर्दू को लिखना खासा मुश्किल होगा, क्योंकि आप जे, जल, जाय, ज्वाद के लिए भी हिंदी में ‘ज’लिखेंगे । जबकि सीन, से, स्वाद के लिए ‘स’ लिखेंगे। ऐसे में उनका सही उच्चारण (तफज्जुल) मुमकिन न होगा और उर्दू की आत्मा नष्ट हो जाएगी । ऐसे विवादों-बहसों के बीच भी उर्दू की हिंदुस्तानी सरजमीं पर एक खास जगह है । भारत की ढेर-सी भाषाओं एवं उसके विशाल भाषा परिवार की वह बेहद लाडली भाषा है । गीत-संगीत, सिनेमा-साहित्य हर जगह उर्दू का बढ़ता इस्तेमाल बताता है कि उर्दू की जगह और इज्जत अभी और बढ़ेगी है। बनारस ने उर्दू को सलाम भेजा है और वहां के हिंदी विभाग ने उसे जगह दी है। इस तरह के फैसले निश्चय ही हिंदी परिवार की ताकत को बढ़ाने वाले साबित होंगें। आज जब हिंदी की बोलियां भी उसके खिलाफ खड़ी की जा रही हैं तो हिंदी का उर्दू के लिए प्यार और स्वीकार एक नई नजीर बन सकता है।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

मीडिया विमर्श का अगला अंक नक्सलवाद पर


भोपाल। देश की प्रतिष्ठित पत्रिका मीडिया विमर्श का अगला अंक नक्सलवाद और मीडिया विषय पर केंद्रित है। इस अंक का प्रकाशन अप्रैल के आखिरी सप्ताह में हो जाएगा। इस महत्वपूर्ण अंक में देश के तमाम दिग्गज पत्रकारों के लेख प्रकाशित किए गए हैं। जिसमें नक्सलवाद की चुनौती से जूझने के प्रयासों पर सार्थक बातचीत की गयी है। इस अंक के महत्वपूर्ण लेखकों में सर्वश्री रमेश नैयर, बसंत कुमार तिवारी, डा. महावीर सिंह, डा. श्रीकांत सिहं, धनंजय चोपड़ा, कनक तिवारी, डा. सुभद्रा राठौर, अनिल विभाकर, उमाशंकर मिश्र, संदीप भट्ट, अबू तोराब, प्रकाश दुबे, डा. शाहिद अली, डा. पवित्र श्रीवास्तव, मीता उज्जैन, लीना और संजय द्विवेदी शामिल हैं। इस अंक का मूल्य 25 रूपए है। इसकी प्रति प्राप्त करने के लिए मीडिया विमर्श के भोपाल कार्यालय- 428, रोहित नगर, फेज-1, ई-8 एक्सटेंशन, भोपाल -39 पर संपर्क किया जा सकता है। यह पत्रिका आप पचीस रूपए की डाक टिकट या मनीआर्डर भेज कर भी प्राप्त कर सकते हैं।

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

अब दलित मुक्ति के सवाल पर सोचिए

सही मायने में बाजारवादी व्यवस्था ही है दलितों की असली
पिछले दिनों 14 अप्रैल को बाबा साहेब आंबेडकर की जयंती पर राहुल गांधी से लेकर मायावती और नितिन गडकरी तक सभी दलों के नेता बाबा साहेब के सपनों के प्रति अपनी आस्था जताते दिखे। किंतु इन सपनों के साथ सही संकल्प कहां हैं। आज देखें तो सिर्फ दलित राजनीति ही नहीं, समूचा देश नेतृत्व के संकट में जूझ रहा है। बौनों के बीच आदमकद तलाशे भी नहीं मिलते, जाहिर है, छुटभैयों की बन आई है। बाबा साहब आंबेडकर के बाद दलितों को सच्चा और स्वस्थ नेतृत्व मिला ही नहीं। चुनावी सफलताओं, कार्यकर्ता आधार के सवाल पर जरूर मायावती जैसे नेता यह दावा कर सकते हैं कि वे बाबासाहब के आंदोलन को आगे ले जा रहे हैं, परंतु सच यह है कि आंबेडकर जैसी वैचारिक तेजस्विता आज दलित राजनीति के समूचे परिवेश में दुर्लभ है। राष्ट्रीय आंदोलन की आंधी में दलित प्रश्न को, छुआछुत, जातिप्रथा के सवालों को जिस तरह से उन्होंने मुद्दा बनाया, वह खासा महत्व का प्रसंग है। पेरियार, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज से लेकर बाबासाहब की वैचारिक धारा से आगे कोई बड़ी लकीर खींच पाने में दलित राजनीति असफल रही । सत्ता के साथ पेंगे भरने का अभ्यास और सत्ता से ही दलितों का भला हो सकता है, इस चिंतन ने समूचे दलित आंदोलन की धार को कुंद कर दिया तथा एक सुविधाभोगी नेतृत्व समाज का सिरमौर बन बैठा। बाबासाहब यदि चाहते तो आजीवन पं. नेहरू के मंत्रिमंडल में मंत्री रह सकते थे, लेकिन वे आंदोलनकारी थे । उन्हें जगजीवनराम बनना कबूल नहीं था । सत्ता के साथ आलोचनात्मक विमर्श के रिश्ते बनाकर उन्होंने व्यक्तिगत राजनीतिक सफलताओं एव सुख की बजाए दलित प्रश्न को सर्वोच्चता दी। उनकी निगाह से राजसत्ता नहीं, औसत दलित के खिलाफ होने वाला जुल्म और अन्याय रोकना ज्यादा महत्वपूर्ण था। यह सारा कुछ करते हुए भी बाबासाहब ने तर्क एवं विचारशक्ति के आधार पर ही आंदोलन को नेतृत्व दिया । सस्ते नारे-भड़ाकाऊ बातें उनकी राजनीति का औजार कभी नहीं बनीं। आजादी के इन 6 दशकों में दलित एक संगठित ताकत के रूप में न सही, किंतु एक शक्ति के रूप में दिखते हैं तो इस एकजुटता को वैचारिक एवं सांगठनिक धरातल देने का काम पेरियार, बाबासाहब जैसे महापुरुषों ने किया । उनके सतत संघर्ष से दक्षिण में आज दलित राजनीति सिरमौर है, महाराष्ट्र में बिखरी होने के बावजूद एक बड़ी ताकत है। उ.प्र. में बहुजन समाज पार्टी के रूप में उसकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में आज दलित की उपेक्षा करने का साहस नहीं है। आरक्षण के प्रश्न पर लगभग राष्ट्रीय सहमति है, वंचितों को सत्ता-संगठन में पद एवं अधिकार देने में मुख्यधारा की राजनीति में ‘स्पेस’ बढ़ा है।
सही अर्थों में दलित राजनीति के लिए यह समय ठहरकर सोचने और विचार करने का है कि इतनी स्वाकार्यता के बावजूद क्या वे समाज, सरकार एवं प्रशासन का मानस दलित प्रश्नों के प्रति संवेदन शील बना पा रहे है। दलित, आदिवासी, गिरिजनों के प्रश्न क्या देश की राजनीति की भूल चिंताओं में शामिल हैं ? सत्ता में हिस्सेदारी के बावजूद क्या हम औसत दलित की जिंदगी का छोड़ा भी अंधेरा, छोड़ी भी तकलीफ कम कर पा रहे हैं ? दक्षिण में करुणानिधि से लेकर उ.प्र. में मायावती जैसों के शासन का धर्म किस प्रकार दलितों के प्रति अन्य शासकों से अलग था या है । क्योंकि यह बात दलित राजनिति को भली प्रकार समझनी होगी कि दलित नौकरशाहों की गिनती, महत्वपूर्ण पदों पर दलितों की नियुक्ति से सामाजिक अन्याय या दमन का सिलसिला रुकने वाला नहीं है। दलित राजनीति के सामने सत्ता में हिस्सेदारी के साथ-साथ दलित मुक्ति का प्रश्न भी खड़ा है। दलित मुक्ति जरा बडा प्रश्न है। यह सही अर्थों में तभी संभव है जब सवर्ण चेतना भी अपनी काराओं तथा कठघरों से बाहर निकले। निश्चय ही यह लक्ष्य सवर्णों को गाली-गलौज कर, उनके महापुरुषों के अपमान से नहीं पाया जा सकता। जातियों का मामला वर्ग संघर्ष से सर्वथा अलग है। वर्ग संघर्ष में आप पूंजीपति के नाश की कामना कर सकते हैं, क्योकिं तभी वर्ग विहीन समाज बन सकता है, जबकि जातिविहीन समाज बनाने के लिए जाति युद्ध का कोई उपयोग नहीं है। दलित आंदोलन के निशाने पर सवर्ण नहीं, सवर्णवाद होना चाहिए। समतायुक्त समाज, जातिविहीन समाज का सपना बाबासाहब आंबेडकर ने देखा था तो उसे साकार करने के अवसर आर बदलते परिवेश ने हमें दिए हैं। दलित राजनीति के प्रमुख राजनेताओं को चाहिए कि वे दलितों, मजलूमों के असली शत्रु की पहचान करें। यह खेदजनक है कि वे ऐसा कर पाने में विफल रहे हैं। दलितों, मजलूमों एवं गरीबों की सबसे बड़ी शत्रु है ताजा दौर की बाजारवादी व्यवस्था । दलित राजनीति के एजेंडे पर बाजारवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस उदारीकरण की आंधी ने पिछले दो दशक में दलितों, कामगारों आम लोगं के सामने रोजी-रोटी, रोजगार, महंगाई का जैसा संकट खड़ा किया है, वह सबके सामने है। सच कहें तो दलित राजनीति वैचारिक तौर पर गहरे अंतर्विरोधों का शिकार है। उसके सामने निश्चित लक्ष्य एवं मंजिलें नहीं हैं। किसी प्रकार सत्ता की ऊंची दुकानों में अपने लिए जगह बनाना दलित राजनीति का केंद्रीय विचार बन गया है। एक बेहतर मानवीय जीवन के लिए संघर्ष, अशिक्षा, बेकारी और अपसंस्कृति के विरुद्ध जेहाद, बाजारवादी शक्तियों से दो-दो हाथ करना एजेंडे में नहीं । इन चुनौतियों के बावजूद दलितों के आत्मसम्मान को बढ़ाने, उनमें ओज भरने, अपनी बात कहने का साहस जरूर इन दलों ने भरा है। यह अकेली बात दलित राजनीति की उपलब्धि मानी जा सकती है। महाराष्ट्र के संदर्भ में दलित साहित्य की भूमिका को भी नहीं नकारा जा सकता है। कई बार तो यह लगता है कि महाराष्ट्र में दलित साहित्य आगे निकल गया, दलित राजनीति पीछे छूट गई है। ऐसा ही आभास दलित आंदोलन के कार्यकर्ता कराते हैं कि कार्यकत्ता आगे निकल गए, नेता पीछे छूट गए । समूचे देश में बिखरी दलित राजनीति की शाक्ति के यदि सामूहिक रूप से जातिवाद, बाजारवाद, बेकारी, अपसंस्कृति, अशिक्षा के खिलाफ संघर्ष में उतारा जाए तो देश का इतिहास एक नई करवट लेगा। आजादी की एक नई जंग की शुरुआत होगी। वह लड़ाई सिर्फ ‘सत्ता संघर्ष’ की नहीं ‘दलित मुक्ति’ की होगी। हर लड़ाई में मजबूत विरोधी, कमजोर प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ता आया है। दलितों की सामूहिक चेतना ने आम लोगों के सवालों को अपने हाथ में लेकर यह लड़ाई लड़ी तो इस जंग में जीत कमजोर की होगी। अब यह बात दलितों के रहनुमाओं पर निर्भर है कि क्या वे इस चुनौती को स्वीकारेंगे। पिछले दिनों 14 अप्रैल को बाबा साहेब आंबेडकर की जयंती पर राहुल गांधी से लेकर मायावती और नितिन गडकरी तक सभी दलों के नेता बाबा साहेब के सपनों के प्रति अपनी आस्था जताते दिखे। किंतु इन सपनों के साथ सही संकल्प कहां हैं। आज देखें तो सिर्फ दलित राजनीति ही नहीं, समूचा देश नेतृत्व के संकट में जूझ रहा है। बौनों के बीच आदमकद तलाशे भी नहीं मिलते, जाहिर है, छुटभैयों की बन आई है। बाबा साहब आंबेडकर के बाद दलितों को सच्चा और स्वस्थ नेतृत्व मिला ही नहीं। चुनावी सफलताओं, कार्यकर्ता आधार के सवाल पर जरूर मायावती जैसे नेता यह दावा कर सकते हैं कि वे बाबासाहब के आंदोलन को आगे ले जा रहे हैं, परंतु सच यह है कि आंबेडकर जैसी वैचारिक तेजस्विता आज दलित राजनीति के समूचे परिवेश में दुर्लभ है। राष्ट्रीय आंदोलन की आंधी में दलित प्रश्न को, छुआछुत, जातिप्रथा के सवालों को जिस तरह से उन्होंने मुद्दा बनाया, वह खासा महत्व का प्रसंग है। पेरियार, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज से लेकर बाबासाहब की वैचारिक धारा से आगे कोई बड़ी लकीर खींच पाने में दलित राजनीति असफल रही । सत्ता के साथ पेंगे भरने का अभ्यास और सत्ता से ही दलितों का भला हो सकता है, इस चिंतन ने समूचे दलित आंदोलन की धार को कुंद कर दिया तथा एक सुविधाभोगी नेतृत्व समाज का सिरमौर बन बैठा। बाबासाहब यदि चाहते तो आजीवन पं. नेहरू के मंत्रिमंडल में मंत्री रह सकते थे, लेकिन वे आंदोलनकारी थे । उन्हें जगजीवनराम बनना कबूल नहीं था । सत्ता के साथ आलोचनात्मक विमर्श के रिश्ते बनाकर उन्होंने व्यक्तिगत राजनीतिक सफलताओं एव सुख की बजाए दलित प्रश्न को सर्वोच्चता दी। उनकी निगाह से राजसत्ता नहीं, औसत दलित के खिलाफ होने वाला जुल्म और अन्याय रोकना ज्यादा महत्वपूर्ण था। यह सारा कुछ करते हुए भी बाबासाहब ने तर्क एवं विचारशक्ति के आधार पर ही आंदोलन को नेतृत्व दिया । सस्ते नारे-भड़ाकाऊ बातें उनकी राजनीति का औजार कभी नहीं बनीं। आजादी के इन 6 दशकों में दलित एक संगठित ताकत के रूप में न सही, किंतु एक शक्ति के रूप में दिखते हैं तो इस एकजुटता को वैचारिक एवं सांगठनिक धरातल देने का काम पेरियार, बाबासाहब जैसे महापुरुषों ने किया । उनके सतत संघर्ष से दक्षिण में आज दलित राजनीति सिरमौर है, महाराष्ट्र में बिखरी होने के बावजूद एक बड़ी ताकत है। उ.प्र. में बहुजन समाज पार्टी के रूप में उसकी महत्वपूर्ण उपस्थिति है। मुख्यधारा के राजनीतिक दलों में आज दलित की उपेक्षा करने का साहस नहीं है। आरक्षण के प्रश्न पर लगभग राष्ट्रीय सहमति है, वंचितों को सत्ता-संगठन में पद एवं अधिकार देने में मुख्यधारा की राजनीति में ‘स्पेस’ बढ़ा है।
सही अर्थों में दलित राजनीति के लिए यह समय ठहरकर सोचने और विचार करने का है कि इतनी स्वाकार्यता के बावजूद क्या वे समाज, सरकार एवं प्रशासन का मानस दलित प्रश्नों के प्रति संवेदन शील बना पा रहे है। दलित, आदिवासी, गिरिजनों के प्रश्न क्या देश की राजनीति की भूल चिंताओं में शामिल हैं ? सत्ता में हिस्सेदारी के बावजूद क्या हम औसत दलित की जिंदगी का छोड़ा भी अंधेरा, छोड़ी भी तकलीफ कम कर पा रहे हैं ? दक्षिण में करुणानिधि से लेकर उ.प्र. में मायावती जैसों के शासन का धर्म किस प्रकार दलितों के प्रति अन्य शासकों से अलग था या है । क्योंकि यह बात दलित राजनिति को भली प्रकार समझनी होगी कि दलित नौकरशाहों की गिनती, महत्वपूर्ण पदों पर दलितों की नियुक्ति से सामाजिक अन्याय या दमन का सिलसिला रुकने वाला नहीं है। दलित राजनीति के सामने सत्ता में हिस्सेदारी के साथ-साथ दलित मुक्ति का प्रश्न भी खड़ा है। दलित मुक्ति जरा बडा प्रश्न है। यह सही अर्थों में तभी संभव है जब सवर्ण चेतना भी अपनी काराओं तथा कठघरों से बाहर निकले। निश्चय ही यह लक्ष्य सवर्णों को गाली-गलौज कर, उनके महापुरुषों के अपमान से नहीं पाया जा सकता। जातियों का मामला वर्ग संघर्ष से सर्वथा अलग है। वर्ग संघर्ष में आप पूंजीपति के नाश की कामना कर सकते हैं, क्योकिं तभी वर्ग विहीन समाज बन सकता है, जबकि जातिविहीन समाज बनाने के लिए जाति युद्ध का कोई उपयोग नहीं है। दलित आंदोलन के निशाने पर सवर्ण नहीं, सवर्णवाद होना चाहिए। समतायुक्त समाज, जातिविहीन समाज का सपना बाबासाहब आंबेडकर ने देखा था तो उसे साकार करने के अवसर आर बदलते परिवेश ने हमें दिए हैं। दलित राजनीति के प्रमुख राजनेताओं को चाहिए कि वे दलितों, मजलूमों के असली शत्रु की पहचान करें। यह खेदजनक है कि वे ऐसा कर पाने में विफल रहे हैं। दलितों, मजलूमों एवं गरीबों की सबसे बड़ी शत्रु है ताजा दौर की बाजारवादी व्यवस्था । दलित राजनीति के एजेंडे पर बाजारवादी ताकतों के खिलाफ संघर्ष को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। इस उदारीकरण की आंधी ने पिछले दो दशक में दलितों, कामगारों आम लोगं के सामने रोजी-रोटी, रोजगार, महंगाई का जैसा संकट खड़ा किया है, वह सबके सामने है। सच कहें तो दलित राजनीति वैचारिक तौर पर गहरे अंतर्विरोधों का शिकार है। उसके सामने निश्चित लक्ष्य एवं मंजिलें नहीं हैं। किसी प्रकार सत्ता की ऊंची दुकानों में अपने लिए जगह बनाना दलित राजनीति का केंद्रीय विचार बन गया है। एक बेहतर मानवीय जीवन के लिए संघर्ष, अशिक्षा, बेकारी और अपसंस्कृति के विरुद्ध जेहाद, बाजारवादी शक्तियों से दो-दो हाथ करना एजेंडे में नहीं । इन चुनौतियों के बावजूद दलितों के आत्मसम्मान को बढ़ाने, उनमें ओज भरने, अपनी बात कहने का साहस जरूर इन दलों ने भरा है। यह अकेली बात दलित राजनीति की उपलब्धि मानी जा सकती है। महाराष्ट्र के संदर्भ में दलित साहित्य की भूमिका को भी नहीं नकारा जा सकता है। कई बार तो यह लगता है कि महाराष्ट्र में दलित साहित्य आगे निकल गया, दलित राजनीति पीछे छूट गई है। ऐसा ही आभास दलित आंदोलन के कार्यकर्ता कराते हैं कि कार्यकत्ता आगे निकल गए, नेता पीछे छूट गए । समूचे देश में बिखरी दलित राजनीति की शाक्ति के यदि सामूहिक रूप से जातिवाद, बाजारवाद, बेकारी, अपसंस्कृति, अशिक्षा के खिलाफ संघर्ष में उतारा जाए तो देश का इतिहास एक नई करवट लेगा। आजादी की एक नई जंग की शुरुआत होगी। वह लड़ाई सिर्फ ‘सत्ता संघर्ष’ की नहीं ‘दलित मुक्ति’ की होगी। हर लड़ाई में मजबूत विरोधी, कमजोर प्रतिद्वंद्वी को पछाड़ता आया है। दलितों की सामूहिक चेतना ने आम लोगों के सवालों को अपने हाथ में लेकर यह लड़ाई लड़ी तो इस जंग में जीत कमजोर की होगी। अब यह बात दलितों के रहनुमाओं पर निर्भर है कि क्या वे इस चुनौती को स्वीकारेंगे।

शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

कायर नक्सली और बहादुर सरकारें


छत्तीसगढ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों द्वारा लगभग 76 जवानों की हत्या के बाद कहने के लिए बचा क्या है। केंद्रीय गृहमंत्री नक्सलियों को कायर कह रहे हैं, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री नक्सलियों की कार्रवाई को कायराना कह रहे हैं पर देश की जनता को भारतीय राज्य की बहादुरी का इंतजार है। 12 जुलाई, 2009 छत्तीसगढ़ में ही राजनांदगांव के पुलिस अधीक्षक सहित 29 पुलिसकर्मियों को नक्सलियों ने ऐसी ही एक घटना में मौत के घाट उतार दिया था। राजनांदगांव, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का गृहजिला भी है। चुनौती के इस अंदाज के बावजूद हमारी सरकारों का हाल वही है। केंद्रीय गृहमंत्री और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री हर घटना के बाद नक्सलियों को इस कदर कोसने लगते हैं जैसे इस जुबानी जमाखर्च से नक्सलियों का ह्रदय परिवर्तन हो जाएगा।
सुरक्षा बलों और आम आदिवासी जनों का जिस तरह नक्सली सामूहिक नरसंहार कर रहे हैं यह सबसे बड़ी त्रासदी है। बावजूद इसके सरकारों का भ्रम कायम है। लोकतंत्र के सामने चुनौती बनकर खड़े नक्सलवाद के खिलाफ भी हमारी राजनीति का भ्रम अचरज में डालता है। क्या कारण है कि हमारी राजनीति इतने खूनी उदाहरणों के बावजूद लोकतंत्र के विरोधियों को ‘अपने बच्चे’ कहने का साहस पात लेती है। क्या ये इतनी आसानी से अर्जित लोकतंत्र है जिसे हम किसी हिंसक विचारधारा की भेंट चढ़ जाने दें। हिंसा से कराह रहे तमाम इलाके हमारे लोकतंत्र के सामने सवाल की तरह खड़े हैं। हमारी राजनीति के पास के विमर्श, बैठकें, आश्वासन और शब्दजाल ही हैं। अपने सुरक्षाबलों को हमने मौत के मुंह में झोंक रखा है जबकि हमें खुद ही नहीं पता कि हम चाहते क्या हैं। हम नक्सलियों को कोसने और उन्हें यह बताने में लगे हैं कि वे कितने अमानवीय हैं। इन शब्दजालों से क्या हासिल होने वाला है। हम नक्सलियों को कायर और अमानवीय बता रहे हैं। अमानवीय तो वे हैं यह साबित है पर कायर हैं यह साबित करने के लिए हमारे राज्य ने कौन से कदम उठाए हैं, जिससे हमारा राज्य बहादुर साबित हो सके। हमें देखना होगा कि हमारी सरकारें एक गहरे भ्रम का शिकार हैं। शक्ति के इस्तेमाल को लेकर एक गहरा भ्रम है।
नक्सलवाद को पूरा खारिज कीजिएः
कुछ रूमानी विचारक अपनी कल्पनाओं में नक्सलियों के महिमामंडन में लगे हैं। जैसे कि नक्सली कोई बहुत महान काम कर रहे हैं। अफसोस कि वे विचारक नक्सलियों के पक्ष में महात्मा गांधी को भी इस्तेमाल कर लेते हैं। भारतीय राज्य के सामने उपस्थित यह चुनौती बहुत विकट है किंतु इसे सही संदर्भ में समझा नहीं जा रहा है। शब्दजाल ऐसे की आज भी तमाम बुद्धिजीवी ‘नक्सली हिंसा’ की आलोचना कर रहे हैं, ‘नक्सलवाद’ की नहीं। आखिर विचार की आलोचना किए बिना, आधी-अधूरी आलोचना से क्या हासिल। सारा संकट इसी बुद्धिवाद का है। अगर हम नक्सलवाद के विचार से जरा सी भी सहानुभूति रखते हैं तो हम अपनी सोच में ईमानदार कैसे कहे जा सकते हैं। नक्सलवाद या माओवाद स्वयं में लोकतंत्र विरोधी विचार है। उसे किसी लोकतंत्र में शुभ कैसे माना जा सकता है। हमें देखना होगा कि रणनीति के मामले में हमारे विभ्रम ने ही हमारा ये हाल किया है। हम बिना सही रणनीति के अपने ही जवानों की बलि ले रहे हैं। ऐसी अधकचरी समझ से हम नक्सलवादियों की सामूहिक और चपल रणनीति से कैसे मुकाबला करेगें। आजतक के उदाहरणों से तो यही साबित होता है और नक्सली हमारी रणनीति को धता बताते आए हैं। राज्य की हिंसा के अरण्यरोदन से घबराई हमारी सरकारें, भारतीय नागरिकों और जवानों की मौत पर सिर्फ स्यापा कर रही हैं। हमारी सरकार कहती हैं कि नक्सली अमानवीय हरकतें कर रहे हैं। आखिर आप उनसे मानवीय गरिमा की अपेक्षा ही क्यों कर रहे हैं। नक्सलवाद कभी कैसा था, इसकी रूमानी कल्पना करना और उससे किसी भी प्रकार की नैतिक अपेक्षाएं पालना अंततः हमें इस समस्या को सही मायने में समझने से रोकना है। वह कैसा भी विचार हो यदि उसकी हमारे लोकतंत्र और संविधान में आस्था नहीं है तो उसका दमन करना किसी भी लोकतांत्रिक विचार की सरकार व जनता की जिम्मेदारी है। जिन देशों में लोकतंत्र नहीं है वे लोकतंत्र को पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं और हम अपने लोकतंत्र को नष्ट करने की साजिशों का महिमामंडन कर रहे हैं।
जवानों के लिए क्यों सूखे आंसूः
देश की महान लेखिका अरूंधती राय ने पिछले दिनों एक महत्वपूर्ण पत्रिका में एक लेख लिखकर अपनी बस्तर यात्रा और नक्सलियों के महान जनयुध्द पर रोचक जानकारियां दी हैं और पुलिस की हिंसा को बार-बार लांछित किया है। महान लेखिका क्या दंतेवाड़ा के शहीदों और उनके परिजनों की पीड़ा को भी स्वर देने का काम करेंगीं। जाहिर वे ऐसा नहीं करेंगीं। हमारे मानवाधिकार संगठन, जरा –जरा सी बातों पर आसमान सिर पर उठा लेते हैं, आज वे कहां हैं। संदीप पाण्डेय, मेधा पाटकर और महाश्वेता देवी की प्रतिक्रियाओं की देश प्रतीक्षा कर रहा है। मारे गए जवान निम्न मध्यवर्ग की पृष्ठभूमि के ही थे, इसी घरती के लाल। लेकिन लाल आतंक ने उन्हें भी डस लिया है। नक्सलवाद या माओवाद का विचार इसीलिए खारिज करने योग्य है कि ऐसे राज में अरूंधती को माओवाद के खिलाफ लिखने की, संदीप पाण्डेय को कथित नक्सलियों के पक्ष में धरना देने की आजादी नहीं होगी। तब राज्य की हिंसा को निंदित नहीं,पुरस्कृत किया जाएगा। ऐसे माओ का राज हमारे जिंदगीं के अंधेरों को कम करने के बजाए बढ़ाएगा ही।
जनतंत्र को असली लोकतंत्र में बदलने की जरूरतः
लोकतंत्र अपने आप में बेहद मोहक विचार है। दुनिया में कायम सभी व्यवस्थाओं में अपनी तमाम कमियों के बावजूद यह बेहद आत्मीय विचार है। हमें जरूरत है कि हम अपने लोकतंत्र को असली जनतंत्र में बदलने का काम करें। उसकी कमियों को कम करने या सुधारने का जतन करें न कि लोकतंत्र को ही खत्म करने मे लगी ताकतों का उत्साहवर्धन करें। लोकतांत्रिक रास्ता ही अंततः नक्सल समस्या का समाधान है। ऐसे तर्क न दिए जाएं कि आखिर इस व्यवस्था में चुनाव कौन लड़ सकता है। पूंजीपतियों, ठेकेदारों, नेताओं और अफसरों का अगर कोई काकस हमें बनता और लोकतंत्र की बुनियाद को खोखला करता दिख रहा है तो इसके खिलाफ लड़ने के लिए सारी सरंजाम इस लोकतंत्र में ही मौजूद हैं। अकेले सूचना के अधिकार के कानून ने लोकतंत्र को मजबूत करने में एक बड़ी भूमिका अदा की है। हमें ऐसी जनधर्मी व्यवस्था को बनाने और अभिव्यक्ति के तमाम माध्यमों से जनचेतना पैदा करने के काम करने चाहिए। सारी जंग आज इसी विचार पर टिकी है कि आपको गणतंत्र चाहिए गनतंत्र। लोकतंत्र चाहिए या माओवाद। जाहिर तौर पर हिंसा पर टिका कोई राज्य जनधर्म नहीं निभा सकता। भारत के खिलाफ माओवादियों की यह जंग किसी जनमुक्ति की लड़ाई नहीं वास्तव में यह लड़ाई हमारे जनतंत्र के खिलाफ है। इस बात को हम जितनी जल्दी समझ जाएं बेहतर, वरना हमारे पास सड़ांध मारती हिंसा और देश को तोड़ने वाले विचारों के अलावा कुछ नहीं बचेगा। उम्मीद है चिंदबरम साहब भी कुछ ऐसा ही सोच रहे होंगें। इतिहास की इस घड़ी में नक्सलप्रभावित सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों की भी जिम्मेदारी है कि वे अपने कर्तव्य के निवर्हन में किंतु-परंतु जैसे विचारों से इस जंग को कमजोर न होने दें।

गुरुवार, 1 अप्रैल 2010

इस पौरूषपूर्ण समय में

-संजय द्विवेदी
नारे हों या प्रतीक, राजनीति उन्हें इस्तेमाल कर निस्तेज होते ही कूड़ेदान में फेंक देती है। ‘राजनीति’ में ‘स्त्री’ का नारा भगवान करे वैसे ही गति को प्राप्त न हो। नारे उजास जगाते हैं, रोशनी की किरण बन जाते हैं लेकिन इस पौरुषपूर्ण समय में वे बलशाली, आक्रामक और हठी लोगों के बंधक बनकर रह जाते हैं।यह देखना कितना विचित्र है कि एक व्यक्ति जो एक घोटाले के आरोप में जेल जाते समय अपनी पत्नी को ‘मुख्यमंत्री’ की कुर्सी पर बिठा जाता है, लेकिन लोकसभा में वह महिला आरक्षण विधेयक के खिलाफ सबसे ज्यादा गला फाड़ता है।
जब स्व. फूलनदेवी को ‘अन्याय का प्रतिकार करने वाली स्त्री’ बताकर राजनीति में लाने वाले मुलायम सिंह यादव भी आरक्षण विधेयक पर अपनी शैली में लाठियां भांजते नजर आते हैं तो बात सिर्फ प्रतीकों से आगे जाती नहीं दिखती-संकट का असल कारण यही है। अधिकार और दुलार उतना ही, जितना पुरुष तय करे या पुरुषवादी तय करें। शायद इसीलिए बहुत पहले श्रीमती इंदिरा गांधी को सिरमाथे बिठाने के बावजूद हम स्त्री के लिए राजनीति को सुरक्षित और अनुकूल क्षेत्र नहीं बना पाए। इंदिरा गांधी हमारे लिए दरअसल एक स्त्री की सफलता का, उसकी जद्दोजहद का प्रतीक नहीं बन पाई । हमने उन्हें विशिष्ट परिवार से आने के कारण, खास दैवी शक्तियों से युक्त मान लिया। जबकि ऐसा मूल्यांकन स्वयं इंदिराजी और देश की महान स्त्रियों का अपमान है।
इस देश की स्त्री के लिए तंग होता दरवाजा इसे और अराजक बनाता गया। आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी ने जिस स्त्री में देशभक्ति,समाज सुधार का जुनून फूंका था, जिसके चलते वह आगे बढ़कर आजादी के आंदोलन का हिस्सा बनी रही, आजादी मिलते ही वापस अपनी काराओं और कठघरों में कैद हो गई। सरोजनी नायडू, सुचेता कृपलानी, विजयलक्ष्मी पंडित, प्रकाशवती पाल, उषा मेंहता, निर्मला देशपांडे, तारकेश्वरी सिन्हा, कैप्टन लक्ष्मी सहगल आदि अनेक नाम थे, जिन्होंने अपना सार्थक योगदान देकर स्त्री की सामर्थ्य को साबित किया। लंबे समय तक पसरे शून्य के बाद पंचायती राय की कल्पना के क्रम में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के मन में स्त्री को उचित प्रतिनिधित्व देने का का विचार आया । यह ताजा महिला आरक्षण विधेयक उसी कल्पना के महल पर खड़ा है। देखते ही देखते स्थानीय सरकारों (नगरपालिका, पंचायतों) का चेहरा बदल गया। बड़ी संख्या में औरतों ने घर से निकलकर लोक प्रशासन की कमान संभाली। इस प्रक्रिया में ‘प्रधान पति’ और ‘सभासद पति’ जैसे अघोषित पद जरूर अस्तित्व में आ गए। परिवारवाद के पसरने की बातें शुरू हुई। लेकिन यह सब बदलाव के एक ही चित्र को देखना है। जब इन पदों पर पुरुष बैठते थे तो भी लाचारियां सामने थीं। यदि पुरुष अहंकार से उपजे मानस की टिप्पणी यह है कि ‘अगर महिलाओं का दखल बढ़ा तो सब कुछ गड़बड़ हो जाएगा’ तो यह भी देखना होगा कि 50-52 सालों में भारत के लोकतंत्र को पुरुषों ने कितना उपयोगी, जनधर्मी और भ्रष्टाचार मुक्त बनाया है ? आज राजनीति का जो ‘काजल की कोठरी’ वाला स्वरूप है, क्या उसकी जिम्मेदारी पुरुष लेना चाहेंगे ? क्या सरकारी प्रशासन में घटती संवेदनहीनता, भ्रष्टाचार और नकारेपन के साथ लगभग ध्वस्त हो चुके मूलभूत ढांचे का श्रेय वे लेना चाहेंगे ? जाहिर है कि ऐसे आरोप मामले को अतिसरलीकृत करके देखने का प्रयास ही कहे जाएंगे । इनसे हटकर शिक्षा, आर्थिक समृद्धि और सत्ता में भागीदारी जैसे तीन मंत्रों से ही स्त्री मजबूत और अपने अधिकारों के प्रति सजग होगी। आज असली सवाल स्त्री को पुरुष बनाने का नहीं, बल्कि उसे पुरुषों के समान अधिकार देने का है। आरक्षण भी इस दिशा में सिर्फ एक कदम है, समस्या का संपूर्ण निदान नहीं है। सही मानस बनाकर स्त्री के शक्तिकरण के प्रयास न हुए तो यह भी चंद स्त्रियों के विकास और सत्ता के गलियारों में उनकी हिस्सेदारी का उपक्रम बनकर रह जाएगा। समग्र समाज को साथ लेकर प्रतीकात्मक कार्यवाइयों को आंदोलन व बदलाव की बुनियाद तक ले जाने का जज्बा न होगा तो ऐसी कार्रवाइयां कोई मतलब नहीं रखतीं, क्योंकि इस्तेमाल होने से बचने के लिए न्यूजतम शक्तियां ही स्त्री के पास हैं। आरक्षण मिलने पर भी मेधा पाटकर, महाश्वेता देवी या जमीनी संघर्ष कर रही ऐसी महिलाओं को भ्रष्ट राजनीतिक तंत्र संसद में लाएगा, इसकी उम्मीद न पालिए। टिकटों के बंटवारे की कुंजी तब भी आमतौर पर पुरुषों के हाथ में ही होगी। 33 प्रतिशत आरक्षण की मजबूरी में वे ‘भाभी-बहुओं’ और ‘मित्रों’ को टिकट जरूर देंगे, ताकि ‘इनके’ जरिए ‘उनका’ शासन चलता रहे। आप ध्यान दें कई बार लोकसभा चुनावों में दागी राजनेताओं का पत्ता कटने पर जिस तरह उनकी बीबियों को मैदान में उतारा गया और ‘दाग’ मिटते ही वे बीबियों को इस्तीफा दिलाकर वापस संसद में लौटने को जिस तरह बेताब हो गए वह इसी मानसिकता का एक उदाहरण है। बिहार में राबड़ी देवी इसका सबसे जीवंत प्रतीक हैं। ऐसे समय में बदलती दुनिया और अवसरों के परिप्रेक्ष्य में औरत के लिए अपनी जगह बनाना बहुत आसान नहीं है।समाज जीवन के तमाम क्षेत्रों में वे बेहतर काम कर रही हैं, किंतु राजनीति का मंच इतना साधारण नहीं है। इस मंच पर जगह पाने की भूख स्त्री में जिस परिमाण में बढ़ी है, समाज और पुरुष में उस रफ्तार से बदलाव नहीं आया है।
नई बाजारवादी व्यवस्था ने औरत की बोली लगानी शुरू की है, उसके भाव बढ़े हैं। सौंदर्य के बाजार कदम-कदम पर सज गए हैं, लेकिन बाजार का यह आमंत्रण, सत्ता के आमंत्रण जैसा नहीं है। दोनों जगहों पर उसकी चुनौतियां अलग हैं। सौंदर्य के बाजार में स्त्री विरोधी परंपराएं और नाजुकता रूप बदलकर बिक रही है, लेकिन सत्ता के मंच पर स्त्री का आमंत्रण उनके दायित्वबोध, नेतृत्वक्षमता और दक्षता का आमंत्रण है। जिस भी नीयत से हो, यह आमंत्रण सार्थक बदलाव की उम्मीद जगाता है। राजनीतिज्ञों के प्रपंचों के बावजूद यदि भारतीय स्त्री ने इस आमंत्रण को स्वीकारा और वे सिर्फ सत्ता के खेल का हाथियार न बनीं तो महिला आरक्षण भारतीय राजनीति का चेहरा-मोहरा बदलकर रख देगा और तब महामानव गौतम बुद्ध द्वारा ढाई हजार साल पहले कही गई यह उक्ति के ‘स्त्री होना ही दुःख है’ शायद अप्रासंगिक हो जाए और फिर शायद किसी पामेंला बोर्डिस को यह कहने की जरूरत न पड़े कि ‘यह समाज अब भी मिट्टी-गारे की बनी झुग्गी में रहता है।’

शुक्रवार, 26 मार्च 2010

बता दीजिए किसकी है मुंबई

मुंबई देश का सबसे बड़ा शहर ही नहीं है, वह देश की आर्थिक धड़कनों का भी गवाह है। यहां लहराता हुआ समुद्र , अपने अनंत होने की और आपके अनंत हो सकने की संभावना का प्रतीक है। यह चुनौती देता हुआ दिखता है। समुद्र के किनारे घूमते हुए बिंदास युवा एक नई तरह की दुनिया से रूबरू कराते हैं। तेज भागती जिंदगी, लोकल ट्रेनों के समय के साथ तालमेल बिठाती हुई जिंदगी, फुटपाथ किनारे ग्राहक का इंतजार करती हुई महिलाएं, गेटवे पर अपने वैभव के साथ खड़ा होटल ताज और धारावी की लंबी झुग्गियां मुंबई के ऐसे न जाने कितने चित्र हैं, जो आंखों में कौंध जाते हैं। सपनों का शहर कहीं जाने वाली इस मुंबई में कितनों के सपने पूरे होते हैं यह तो नहीं पता, पर न जाने कितनों के सपने रोज दफन हो जाते हैं। यह किस्से हमें सुनने को मिलते रहते हैं। लोकल ट्रेन पर सवार भीड़ भरे डिब्बों से गिरकर रोजाना कितने लोग अपनी जिंदगी की सांस खो बैठते हैं इसका रिकार्ड शायद हमारे पास न हो, किंतु शेयर का उठना-गिरना जरूर दलाल स्ट्रीट पर खड़ी एक इमारत में दर्ज होता रहता है। अब इसी शहर में, देश के हर कोने से अपने सपनों के साथ आते लोग घबराने लगे हैं। उसकी कास्मोपोलिटन रंगत को बिगाड़ने की कोशिशें हमारी राजनीति सायास कर रही है। तब क्या हम भारत के लोगों को खामोश होकर बैठ जाना चाहिए।
चंद पाकिस्तानी नौजवान आकर मुंबई जब आतंकवादी हमला करते हैं तो उनसे तो हमारे बहादुर नौजवान अपनी जान पर खेलकर मुंबई को मुक्त करा सकते हैं पर जब अपने बीच के लोग ही जहर बो रहे है तो रास्ता क्या है। आरएसएस से लेकर राहुल गांधी अगर सब मानते हैं कि शिवसेना और मनसे की राजनीति देशतोड़क, देश विरोधी, समाज विरोधी है तो क्या कारण है ये जहर उगलते लोग सड़कों पर धूम रहे हैं। महाराष्ट्र और देश में क्या कोई सरकार भी है या नहीं इस पर संदेह होने लगा है। आज की राजनीति का ऐसा विकृत चेहरा ही सब समस्याओं की जड़ है। बेहतर होता कि देश की राजनीति में सक्रिय दल और समूह एक होकर ऐसी देशतोड़क राजनीति का विरोध करते। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने जब ऐसी राजनीति को गलत बताया तो आखिर भाजपा को संकोच क्यों। क्या बीजेपी को यह बात साफ नहीं करनी कि उसका राष्ट्रवाद क्या शिवसेना जैसे दलों का बंधक नहीं है कि वे कुछ भी अर्नगल बकते रहें और भाजपा एक सहयोगी के नाते सहमी खड़ी रहे। अब बात राहुल गांधी की वे भी यह कहते आ रहे हैं मुंबई सबकी है। भाई हमें भी ये पता है कि मुंबई सबकी है किंतु आपकी सरकार के रहते ही राज ठाकरे की धृणास्पद राजनीति को विस्तार मिला है। कांग्रेसजन इसी बात से मुग्ध हैं कि भतीजा तो चाचा को निपटा रहा है। समस्या के समाधान या इन बेलगाम लोगों को नियंत्रित करने की गंभीर सरकारी पहल कभी नहीं दिखी। अब देर से ही सही जब आलाकमान जागे हैं तो इसके कुछ शुभ परिणाम भी सामने आने चाहिए। क्योंकि शिवसेना और मनसे जैसे दलों का इलाज मौखिक आलोचना से संभव नहीं। ऐसे लोकतंत्र और संवाद विरोधी दलों के नेताओं की जगह सिर्फ जेल में हैं किंतु हमारी राजनीति न जाने कब इन सफेदपोश गुंडों की गिरफ्त से देश की आर्थिक राजधानी को मुक्त करवाएंगें।
राहुल गांधी की नजर अगर सिर्फ बिहार के चुनावों पर वोट लेने तक केंद्रित नहीं है तो केंद्र सरकार को दुनिया के भीतर भारत और मुंबई की छवि बिगाडने वालों पर कठोर कार्रवाई करनी चाहिए। एक तरफ हम आस्ट्रेलिया में भारतवंशियों पर हो रहे हमलों से व्यथित हैं तो दूसरी ओर हमारे अपने लोग अपने ही देश में नस्ली धृणा का शिकार बन रहे हैं। पिछले दिनों बाल ठाकरे ने आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रहे हमलों की निंदा की थी क्या ऐसा करने का हक उन्हें है। पहले वे अपने गुंडों पर लगाम लगाएं और उत्तर भारतीयों पर हमलों के लिए माफी मांगें तब उन्हें आस्ट्रेलिया के भारतवंशियों की चिंता करने का हक है। किंतु संविधान की शपथ लेकर बैठी हमारी सरकारें आखिर क्या चाहती हैं। क्या एक चुनाव जीतने भर के लिए राज ठाकरे जैसे लोगों को कांग्रेस को पालना चाहिए यह एक बड़ा सवाल है। ठाकरे परिवार सही मायने इस देश की एकता- अखंडता का शत्रु है। उनके कामों से निरीह, रोजी रोटी की तलाश में मुंबई आने वालों का जीना दूभर हो गया है। उनके भीतर निरंतर एक अज्ञात असुरक्षाबोध कायम हुआ है। इस असुरक्षाबोध से लोगों को निकालना सरकार की जिम्मेदारी है। क्या वह ऐसा कर रही है या करती हुई दिख रही है, शायद नहीं। हमें देखना होगा कि हम अपने लोकतंत्र को इस तरह एक मजाक में क्यों बदल रहे हैं। हमारे समय के महान राजनैतिक चिंतक डा. राममनोहर लोहिया ने कहा था ‘ लोकराज लोकलाज से चलता है ‘। क्या आज के संदर्भ में हमारी राजनीति और व्यवस्था ऐसा दावा कर सकती है। एक नई उम्मीद का वाहक होने का दावा करने वाले राहुल गांधी क्या महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री को समझाइश देंगें या हमेशा कि तरह हम भारत के लोग राजनीतिज्ञों के खेल का फुटबाल ही बने रहेंगें। क्योंकि आज हम सब भारतवासी यह पूछने को मजबूर हैं कि आखिर किसकी है मुंबई।

“इश्किया” का गीत किसका गुलजार या सर्वेश्वर का


भाव और शब्द अपहरण तो क्षम्य है किंतु पूरी पंक्ति कैसे निगल सकते हैं
इश्किया फिल्म में गुलजार के लिखे ‘ इब्नबतूता ’ गीत को लेकर छिड़ा विवाद दुखी करता है। कहा जा रहा है कि इसे मूलतः हिंदी के यशस्वी कवि एवं पत्रकार स्व. सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने लिखा है। ऐसे मामलों में नाम जब गुलजार जैसे व्यक्ति का सामने आए तो दुख और बढ़ जाता है। वे देश के सम्मानित गीतकार और संवेदनशील रचनाकार हैं। ऐसे व्यक्ति जिन्हें साहित्य और उसकी संवेदना की समझ भी है। हाल में ही चेतन भगत और आमिर खान के बीच थ्री इटियट्स को लेकर छिड़ी बहस को जाने दें तो भी मायानगरी ऐसे आरोपों की जद में निरंतर आती रही है। सहित्य के महानायकों की रचनाएं लेना और उसे क्रेडिट भी न देना कहीं से उचित नहीं कहा जा सकता। यह सिर्फ गलती नहीं है एक ऐसा अपराध है जिसके लिए कोई क्षमा भी नहीं मांगता। दिल्ली-6 में छत्तीसगढ़ के गांव-गांव में गूंजनेवाला छत्तीसगढ़ी गीत “ सास गारी देवे, देवर जी समझा लेवे “ का उपयोग किया गया। सब जानते हैं इसे रायपुर की जोशी बहनों ने गाया था। किंतु क्रेडिट के नाम पर फोक लिख दिया। फोक क्या हवा में पैदा होता है। छत्तीसगढ़ी फोक लिखकर उस राज्य की संस्कृति को मान्यता देने में हर्ज क्या था पर चोरियों से ज्यादा सीनाजोरियां मुंबई की मायानगरी का चलन बन गयी हैं।
सर्वेश्वर जी हिंदी के एक बहुत सम्मानित कवि और पत्रकार होने के साथ-साथ रंगमंच के क्षेत्र में भी खास पहचान रखते थे। वे बच्चों के लिए भी लिखते रहे और अपने समय की महत्वपूर्ण बालपत्रिका पराग के संपादक रहे। उन्होंने बतूता का जूता और महंगू की टाई नाम से बच्चों के लिए कविताओं की दो पुस्तकें भी लिखी हैं। जिसमें बतूता का जूता (1971) में यह कविता है जिसपर विवाद छिड़ा हुआ है। अपने समय की महत्वपूर्ण पत्रिका दिनमान से जुड़े रहे सर्वेश्वर जी को शायद भान भी नहीं होगा कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी रचनाएं इस तरह उपयोग की जाएंगी और उनके नामोल्लेख से भी पीढ़ियां परहेज करेंगीं। पर ऐसा हो रहा है और हमसब इसे देखने को विवश हैं।
भाव का अपहरण क्षम्य है, शब्द का अपहरण भी क्षम्य है किंतु पूरी की पंक्ति निगल जाना और क्रेडिट न देना कैसे माफ किया जा सकता है। यह रोग जिस तरह पसर रहा है वह दुखद है। फिल्मी दुनिया में नित उठते यह विवाद साबित करते हैं कि इससे किसी ने सबक नहीं लिया है। सर्वेश्वर जी ने अपनी एक कविता में लिखा था-
“और आज छीनने आए हैं वेहमसे हमारी भाषायानी हमसे हमारा रूपजिसे हमारी भाषा ने गढ़ा हैऔर जो इस जंगल मेंइतना विकृत हो चुका हैकि जल्दी पहचान में नहीं आता ।”
सर्वेश्वर कहते हैं कि वस्तुतः हमसे हमारी भाषा का छिन जाना हमारे व्यक्तित्व और अस्तित्व का मिट जाना है । चंद मामूली से शब्दों के द्वारा ही (छीनने आए हैं वे... हमसे हमारा रूप) कवि ने यह अर्थ हमें सौंप दिया है कि भाषा का छिन जाना हमारी जातीय परंपरा, संस्कृति, इतिहास और दर्शन का छिन जाना है। सर्वेश्वर हमारी सांस्कृतिक चेतन पर आए इस संकट को पहचानते हैं । वस्तुतः भाषा के सवाल पर यह संजीदगी सर्वेश्वर को एक जिम्मेदार पत्रकार बनाती है। सर्वेश्वर का पत्रकार इसी प्रेरणा के चलते पाठक में एक चेतना और अर्थवत्ता भरता नजर आता है । सर्वेश्वर की लेखनी से गुजरता पाठक, उनकी लेखनी से निकले प्रत्येक शब्द को अपनी चेतना का अंग बना लेता है । ऐसा इसलिए क्योंकि सर्वेश्वर पूरी ईमानदारी और संवेदना के साथ पाठक की चेतना को सम्प्रेषित करते हैं । सर्वेश्वर ने इसीलिए ऐसी भाषा तलाशी है जो वर्तमान परिवेश में सांस लेने वाले हरेक इन्सान की हैं, हरेक की जानी पहचानी है और हरेक का उससे गहरा और करीबी रिश्ता है। किंतु सर्वेश्वर की यही भाषा और शब्द आज मायानगरी के बाजार में सुनाए तो जा रहे हैं पर किसी और के नाम से। हालांकि इस पूरे मामले पर अभी गीतकार गुलजार की प्रतिक्रिया आना शेष है किंतु प्रथमदृष्ट्या यह मामला माफी के काबिल तो नहीं दिखता। इस तरह के विवाद साहित्य की अस्मिता पर हमला हैं और कलमकारों के लिए अपमानजनक भी किंतु क्या इस विवाद से कोई सबक लेने को तैयार है, शायद नहीं।
इन पंक्तियों के लेखक ने सर्वेश्वर की पत्रकारिता पर शोधकार्य भी किया है जिसे निम्न लिंक पर देखा जा सकता हैः
http://sampadakmahoday.blogspot.com/

शिक्षा परिसरों को तो बख्श दीजिए

-संजय द्विवेदी
हमारे शिक्षा परिसर राजनीति के केंद्र बन गए हैं, इससे इनकार नहीं किया जा सकता। छात्र राजनीति कभी मूल्यों के आधार पर होती है। शेष समाज की तरह उसका भी बुरा हाल हुआ है। छात्र राजनीति से निकले तमाम नेता आज देश के बड़े पदों पर हैं, छात्र राजनीति का एक सृजनात्मक रूप भी तब दिखता था। आज हालात बदल गए हैं। छात्र संगठन राजनीति दलों की चेरी की तरह हैं। वे उनके इशारे पर काम करते हैं। जिंदाबाद –मुर्दाबाद तक आकर उनकी राजनीति सिमट जाती है।
राजनीतिक प्रशिक्षण की परंपरा लगभग लुप्त है। लोग कैसे और क्यों राजनीति में आ रहे हैं कहा नहीं जा सकता। इंदौर में पिछले दिनों अहिल्यादेवी विश्वविद्यालय में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी के प्रवास ने काफी हलचल मचा दी। मप्र की सरकार ने इस मामले पर विश्वविद्यालय को नोटिस जारी कर दिया। राहुल गांधी का परिसर में जाना गलत है या सही इसका कोई सीधा जवाब नहीं हो सकता। अपनी बात कहने के लिए लोकतंत्र में सबको हक है, राहुल गांघी को भी है। परिसरों में विमर्श का वातावरण, संवाद बहाल हो, मुद्दों पर बात हो यह बहुत अच्छी बात है पर यह किसी दल के आधार पर नहीं हो। परिसरों में छात्र संगठन अपनी गतिविधियां चलाते रहे हैं और उन्हें इसका हक भी है पर मैं दलीय राजनीति को परिसर में जड़ें जमाने देने के खिलाफ हूं। वे परिसर में आएंगें तो अपने दल का एजेंडा और झंडा भी साथ लाएंगें। दलीय राजनीति अंततः उन्हीं अंधेरी गलियों में भटक जाती है और छात्र ठगा हुआ रह जाता है।
परिसर अंततः छात्रों की प्रतिभा के सर्वांगीण विकास का मंच हैं। उन्हें विकसित और संस्कारित होने के साथ लोकतांत्रिक प्रशिक्षण देना भी परिसरों की जिम्मेदारी है ताकि वे जिम्मेदार नागरिक व भारतीय भी बन सकें। परिसरों का सबसे बड़ा संकट यही है वहां अब संवाद नदारद हैं, बहसें नहीं हो रहीं हैं, सवाल नहीं पूछे जा रहे हैं। हर व्यवस्था को ऐसे खामोश परिसर रास आते हैं- जहां फ्रेशर्स पार्टियां हों, फेयरवेल पार्टियां हों, फैशन शो हों, मेले-ठेले लगें, उत्सव और रंगारंग कार्यक्रम हों, फूहड़ गानों पर नौजवान थिरकें, पर उन्हें सवाल पूछते, बहस करते नौजवान नहीं चाहिए। सही मायने में हमारे परिसर एक खामोश मौत मर रहे हैं। राजनीति और व्यवस्था उन्हें ऐसा ही रखना चाहती है। क्या आप उम्मीद कर सकते हैं आज के नौजवान दुबारा किसी जयप्रकाश के आह्वान पर दिल्ली की कुर्सी पर बैठी मदांध सत्ता को सबक सिखा सकते हैं। आज के दौर में कल्पना करना मुश्किल है कि कैसे गुजरात के एक मेस में जली हुयी रोटी वहां की तत्काल सत्ता के खिलाफ नारे में बदल जाती है और वह आंदोलन पटना के गांधी मैदान से होता हुआ संपूर्ण क्रांति के नारे में बदल जाता है। आजादी के आंदोलन में भी हमारे परिसरों की एक बड़ी भूमिका थी। नौजवान आगे बढ़कर अपनी जिम्मेदारियां निभाने ही नहीं अपनी जान को हथेली पर रखकर सर्वस्व निछावर करने को तैयार था। याद करें परिसरों के वे दिन जब इलाहाबाद, बनारस, लखनऊ, दिल्ली, जयपुर, पटना के नौजवान हिंदी आंदोलन के लिए एक होकर साथ निकले थे। वे दृश्य आज क्या संभव हैं। इसका कारण यह है कि राजनीतिक दलों ने इन सालों सिर्फ बांटने का काम किया है। राजनीतिक दलों ने नौजवानों और छात्रों को भी एक सामूहिक शक्ति के बजाए टुकड़ों-टुकड़ों में बांट दिया है। सो वे अपनी पार्टी के बाहर देखने, बहस करने और सच्चाई के साथ खड़े होने का साहस नहीं जुटा पाते। जनसंगठनों में जरूर तमाम नौजवान दिखते हैं, उनकी आग भी दिखती है किंतु हमारे परिसर नौकरी करने और ज्यादा पैसा कमाने के लिए प्रेरित करने के अलावा क्या कर पा रहे हैं। एक लोकतंत्र में यह खामोशी खतरनाक है। परिसर में राहुल गांधी का आना किसी जयप्रकाश नारायण का आना नहीं हैं, मैं इस सूचना पर मुग्ध नहीं हो सकता। मैं मुग्ध तभी हो पाउंगा जब परिसरों में दलीय राजनीति के बजाए छात्रों का स्वविवेक, उनके अपने मुद्दे- शिक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, भाषा के सवाल, देश की सुरक्षा के सवाल एक बार फिर उनके बीच होंगें। छात्र राजनीति के वे सुनहरे दिन लौटें। परिसरों से निकलने वाली आवाज ललकार बने, तभी देश का भविष्य बनेगा। देश के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम इसी भरोसे के साथ परिसरों में जा रहे हैं कि देश का भविष्य बदलने और बनाने की ताकत इन्हीं परिसरों में है। क्या हमारी राजनीति, सत्ता और व्यवस्था के पास नौजवानों के सपनों की समझ है कि वह उनसे संवाद बना पाए। देश का औसत नौजवान आज भी ईमानदार, नैतिक, मेहनती और बड़े सपनों को सच करने के संधर्ष में लगा है क्या हम उसके लिए यह वातावरण उपलब्ध कराने की स्थिति में हैं। हमें सोचना होगा कि ये भारत के लोग जो नागरिक बनना चाहते हैं उन्हें व्यवस्था सिर्फ वोटर और उपभोक्ता क्यों बनाना चाहती है। राहुल गांधी का परिसरों में जाना बुरा नहीं पर खतरा यह है कि वे अकेले नहीं जाएंगें उनके साथ वह राजनीतिक संस्कृति भी जाएगी जिससे शायद हम भारतवासी सबसे ज्यादा भयभीत हैं।

गुरुवार, 25 मार्च 2010

सामाजिक सवाल है शादी बिना साथ रहना

परिवार नाम की संस्था को बचाने आगे आएं नौजवान
-संजय द्विवेदी
भारत और उसकी परिवार व्यवस्था की ओर पश्चिम भौंचक होकर देख रहा है। भारतीय जीवन की यह एक विशेषता उसकी तमाम कमियों पर भारी है। इसने समाज जीवन में संतुलन के साथ-साथ मर्यादा और अनुशासन का जो पाठ हमें पढ़ाया है उससे लंबे समय तक हमारा समाज तमाम विकृतियों को उजागर रूप से करने का साहस नहीं पाल पाया। आज का समय वर्जनाओं के टूटने का समय है। सो परिवार व्यवस्था भी निशाने पर है। सुप्रीम कोर्ट ने हाल में ही एक विचार दिया है जिसमें कहा गया है कि शादी से पहले संबंध बनाना अपराध नहीं है। 24 मार्च के अखबारों में यह जैसी और जितनी खबर छपी है उसके आधार पर कहा जा सकता है कि सुप्रीम कोर्ट कुछ नहीं कह रही है। क्योंकि दो बालिग लोगों को साथ रहने पर सवाल उठाने वाले हम कौन होते हैं। कानून भी उनका कुछ नहीं कर सकता। प्रथमदृष्ट्या तो इसमें कोई हर्ज नहीं कि कोई दो वयस्क साथ रहते हैं तो इसमें क्या किया जा सकता है।
भारतीय समाज भी अब ऐसी लीलाओं का अभ्यस्त हो रहा है। हमारे बड़े शहरों ने सहजीवन की नई परंपरा को बहुत सहजता से स्वीकार कर लिया है। सहजीवन का यह विस्तार शायद आने वाले दिनों में उन शहरों और कस्बों तक भी हो जहां ये बातें बहुत स्वीकार्य नहीं मानी जातीं। किंतु क्या हम अपने समाज की इस विकृति को स्वीकृति देकर भारतीय समाज के मूल चरित्र को बदलने का प्रयास नहीं कर रहे हैं। क्या इससे परिवार नाम की संस्था को खोखला करने का काम हम नहीं करेंगें। अदालत ने जो बात कही है वह कानूनी पहलू के मद्देनजर कही है। जाहिर है अदालत को अपनी सीमाएं पता हैं। वे किसी भी बिंदु के कानूनी पहले के मद्देनजर ही अपनी बात कहते हैं। किंतु यह सवाल कानूनी से ज्यादा सामाजिक है। इसपर इसी नजर से विचार करना होगा। यह भी सोचना होगा कि इसके सामाजिक प्रभाव क्या होंगें और यदि भारतीय समाज में यह फैशन आमचलन बन गया तो इसके क्या परिणाम हमें भोगने होंगें। भारतीय समाज दरअसल एक परंपरावादी समाज है। उसने लंबे समय तक अपनी परंपराओं और मान्यताओं के साथ जीने की अभ्यास किया है। समाज जीवन पूरी तरह शुद्ध है तथा उसमें किसी तरह की विकृति नहीं थी ऐसा तो नहीं है किंतु समाज में अच्छे को आदर देने और विकृति को तिरस्कृत करने की भावना थी। किंतु नई समाज रचना में व्यक्ति के सदगुणों का स्थान धन ने ले लिया है। पैसे वालों को किसी की परवाह नहीं रहती। वे अपने धन से सम्मान खरीद लेते हैं या प्राप्त कर लेते हैं। कानून ने तो सहजीवन को मान्यता देकर इस विकृति का निदान खोज लिया है किंतु भारत जैसे समाज में इसके कितने तरह के प्रभाव पड़ेंगें इसका आकलन अभी शेष है। स्त्री मुक्ति के प्रश्न भी इससे जुड़े हैं। सामाजिक मान्यता के प्रश्न तो हैं ही। आज जिस तरह समाज बदला है, उसकी मान्यताएं भी बदली हैं। एक बराबरी का रिश्ता चलाने की चाहना भी पैदा हुयी है। विवाह नाम की संस्था शायद इसीलिए कुछ लोगों को अप्रासंगिक दिख रही होगी किंतु वह भारतीय समाज जीवन का सौंदर्य है। ऐसे में इस तरह के विचार निश्चय ही युवा पीढ़ी को प्रेरित करते हैं। युवा स्वभाव से ही अग्रगामी होता है। कोई भी नया विचार उसे आकर्षित करता है। सहजीवन भी एक नया विचार है। युवा पीढ़ी इस तरफ झुक सकती है।
आप देखें तो इस पूरी प्रकिया को मीडिया भी लोकप्रिय बनाने में लगा है। महानगरों में लोगों की सेक्स हैबिट्स को लेकर भी मुद्रित माध्यमों में सर्वेक्षण छापने की होड़ है । वे छापते हैं 80 प्रतिशत महिलाएं शादी के पूर्व सेक्स के लिए सहमत हैं । दरअसल यह छापा गया सबसे बड़ा झूठ हैं । ये पत्र-पत्रिकाओं के व्यापार और पूंजी गांठने का एक नापाक गठजोड़ और तंत्र है । सेक्स को बार-बार कवर स्टोरी का विषय बनाकर ये उसे रोजमर्रा की चीज बना देना चाहते हैं । इस षड़यंत्र में शामिल मीडिया बाजार की बाधाएं हटा रहा है। फिल्मों की जो गंदगी कही जाती थी वह शायद अचानक नुकसान न कर पाए जैसा धमाल इन दिनों मुद्रित माध्यम मचा रहे हैं । कामोत्तेजक वातावरण को बनाने और बेचने की यह होड़ कम होती नहीं दिखती । मीडिया का हर माध्यम एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में है। यह होड़ है नंगई की । उसका विमर्श है-देह ‘जहर’ ‘मर्डर’ ‘कलियुग’ ‘गैगस्टर’ ‘ख्वाहिश’, ‘जिस्म’ जैसी तमाम फिल्मों ने बाज़ार में एक नई हिंदुस्तानी औरत उतार दी है । जिसे देखकर समाज चमत्कृत है। कपड़े उतारने पर आमादा इस स्त्री के दर्शन के दर्शन ने मीडिया प्रबंधकों के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है। एड्स की बीमारी ने पूंजी के ताकतों के लक्ष्य संधान को और आसान कर दिया है । अब सवाल रिश्तों की शुचिता का नहीं, विश्वास का नहीं, साथी से वफादारी का नहीं- कंडोम का डै । कंडोम ने असुरक्षित यौन के खतरे को एक ऐसे खतरनाक विमर्श में बदल दिया है जहाँ व्यवसायिकता की हदें शुरू हो जाती है।
अस्सी के दशक में दुपट्टे को परचम की तरह लहराती पीढ़ी आयी, फिर नब्बे का दशक बिकनी का आया और अब सारी हदें पार कर चुकी हमारी फिल्मों तथा मीडिया एक ऐसे देह राग में डूबे हैं जहां सेक्स एकतरफा विमर्श और विनिमय पर आमादा है। उसके केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं । भारतीय स्त्री के सौंदर्य पर विश्व का अचानक मुग्ध हो जाना, देश में मिस युनीवर्स, मिस वर्ल्ड की कतार लग जाना-खतरे का संकेतक ही था। हम उस षड़यंत्र को भांप नहीं पाए । अमरीकी बाजार का यह अश्वमेघ, दिग्विजय करता हुआ हमारी अस्मिता का अपहरण कर ले गया । इतिहास की इस घड़ी में हमारे पास साइबर कैफे हैं, जो इलेक्ट्रानिक चकलाघरों में बदल रहे हैं । हमारे बेटे-बेटियों के साइबर फ्रेंड से अश्लील चर्चाओं में मशगूल हैं । कंडोम के रास्ते गुजर कर आता हुआ प्रेम है । अब सुंदरता परिधानों में नहीं नहीं उन्हें उतारने में है। कुछ साल पहले स्त्री को सबके सामने छूते हाथ कांपते थे अब उसे चूमें बिना बात नहीं बनती । कैटवाक करते कपड़े गिरे हों, या कैमरों में दर्ज चुंबन क्रियाएं, ये कलंक पब्लिसिटी के काम आते हैं । लांछन अब इस दौर में उपलब्धियों में बदल रहे हैं । ‘भोगो और मुक्त हो,’ यही इस युग का सत्य है। कैसे सुंदर दिखें और कैसे ‘मर्द’ की आंख का आकर्षण बनें यही महिला पत्रकारिता का मूल विमर्श है । जीवन शैली अब ‘लाइफ स्टाइल’ में बदल गया है । बाजारवाद के मुख्य हथियार ‘विज्ञापन’ अब नए-नए रूप धरकर हमें लुभा रहे हैं । नग्नता ही स्त्री स्वातंत्र्य का पर्याय बन गयी है। जाहिर तौर समाज के सामने चुनौती कठिन है। उसे इन सवालों के बीच ही अपनी परंपराएं, परिवार नाम की संस्था दोनों को बचाना है। क्योंकि भारत की आत्मा तो इसी परंपरागत परिवार में रहती है उसे और किसी विकल्प में खोजना शायद बेमानी होगा।
( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

कानू सान्यालः विकल्प के अभाव की पीड़ा



- संजय द्विवेदी
कुछ ही साल तो बीते हैं कानू सान्याल रायपुर आए थे। उनकी पार्टी भाकपा (माले) का अधिवेशन था। भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार मनोहर चौरे ने मुझे कहा तुम रायपुर में हो, कानू सान्याल से बातचीत करके एक रिपोर्ट लिखो। खैर मैंने कानू से बात की वह खबर भी लिखी। किंतु उस वक्त भी ऐसा कहां लगा था कि यह आदमी जो नक्सलवादी आंदोलन के प्रेरकों में रहा है कभी इस तरह हारकर आत्महत्या के लिए मजबूर हो जाएगा। जब मैं रायपुर से उनसे मिला तो भी वे बस्तर ही नहीं देश में नक्सलियों द्वारा की जा रही हिंसा और काम करने के तरीके पर खासे असंतुष्ट थे। हिंसा के द्वारा किसी बदलाव की बात को उन्होंने खारिज किया था। मार्क्सवाद-लेलिनवाद-माओवाद ये शब्द आज भी देश के तमाम लोगों के लिए आशा की वैकल्पिक किरण माने जाते हैं। इससे प्रभावित युवा एक समय में तमाम जमीनी आंदोलनों में जुटे। नक्सलबाड़ी का आंदोलन भी उनमें एक था। जिस नक्सलबाड़ी से इस रक्तक्रांति की शुरूआत हुई उसकी संस्थापक त्रिमर्ति के एक नायक कानू सान्याल की आत्महत्या की सूचना एक हिला देने वाली सूचना है, उनके लिए भी जो कानू से मिले नहीं, सिर्फ उनके काम से उन्हें जानते थे। कानू की जिंदगी एक विचार के लिए जीने वाले एक ऐसे सेनानी की कहानी है जो जिंदगी भर लड़ता रहा उन विचारों से भी जो कभी उनके लिए बदलाव की प्रेरणा हुआ करते थे। जिंदगी के आखिरी दिनों में कानू बहुत विचलित थे। यह आत्महत्या (जिसपर भरोसा करने को जी नहीं चाहता) यह कहती है कि उनकी पीड़ा बहुत घनीभूत हो गयी होगी, जिसके चलते उन्होंने ऐसा किया होगा।
नक्सलबाड़ी आंदोलन की सभी तीन नायकों का अंत दुखी करता है। जंगल संथाल,मुठभेड़ में मारे गए थे। चारू मजूमदार, पुलिस की हिरासत में घुलते हुए मौत के पास गए। कानू एक ऐसे नायक हैं जिन्होंने एक लंबी आयु पायी और अपने विचारों व आंदोलन को बहकते हुए देखा। शायद इसीलिए कानू को नक्सलवाद शब्द से चिढ़ थी। वे इस शब्द का प्रयोग कभी नहीं करते थे। उनकी आंखें कहीं कुछ खोज रही थीं। एक बातचीत में उन्होंने कहा था कि मुझे अफसोस इस बात का है कि I could not produce a communist party although I am honest from the beginning.यह सच्चाई कितने लोग कह पाते हैं। वे नौकरी छोड़कर 1950 में पार्टी में निकले थे। पर उन्हें जिस विकल्प की तलाश थी वह आखिरी तक न मिला। आज जब नक्सल आंदोलन एक अंधे मोड़पर है जहां पर वह डकैती, हत्या, फिरौती और आतंक के एक मिलेजुले मार्ग पर खून-खराबे में रोमांटिक आंनद लेने वाले बुध्दिवादियों का लीलालोक बन चुका है, कानू की याद बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है। कानू साफ कहते थे कि “किसी व्यक्ति को खत्म करने से व्यवस्था नहीं बदलती। उनकी राय में भारत में जो सशस्त्र आंदोलन चल रहा है, उसमें एक तरह का रुमानीपन है। उनका कहना है कि रुमानीपन के कारण ही नौजवान इसमें आ रहे हैं लेकिन कुछ दिन में वे जंगल से बाहर आ जाते हैं।”
देश का नक्सल आंदोलन भी इस वक्त एक गहरे द्वंद का शिकार है। 1967 के मई महीने में जब नक्सलवाड़ी जन-उभार खड़ा हुआ तबसे इस आंदोलन ने एक लंबा समय देखा है। टूटने-बिखरने, वार्ताएं करने, फिर जनयुद्ध में कूदने जाने की कवायदें एक लंबा इतिहास हैं। संकट यह है कि इस समस्या ने अब जो रूप धर लिया है वहां विचार की जगह सिर्फ आतंक,लूट और हत्याओं की ही जगह बची है। आतंक का राज फैलाकर आमजनता पर हिंसक कार्रवाई या व्यापारियों, ठेकेदारों, अधिकारियों, नेताओं से पैसों की वसूली यही नक्सलवाद का आज का चेहरा है। कड़े शब्दों में कहें तो यह आंदोलन पूरी तरह एक संगठित अपराधियों के एक गिरोह में बदल गया है। भारत जैसे महादेश में ऐसे हिंसक प्रयोग कैसे अपनी जगह बना पाएंगें यह सोचने का विषय हैं। नक्सलियों को यह मान लेना चाहिए कि भारत जैसे बड़े देश में सशस्त्र क्रांति के मंसूबे पूरे नहीं हो सकते। साथ में वर्तमान व्यवस्था में अचानक आम आदमी को न्याय और प्रशासन का संवेदनशील हो जाना भी संभव नहीं दिखता। जाहिर तौर पर किसी भी हिंसक आंदोलन की एक सीमा होती है। यही वह बिंदु है जहां नेतृत्व को यह सोचना होता है कि राजनैतिक सत्ता के हस्तक्षेप के बिना चीजें नहीं बदल सकतीं क्योंकि इतिहास की रचना एके-47 या दलम से नहीं होती उसकी कुंजी जिंदगी की जद्दोजहद में लगी आम जनता के पास होती है।
कानू की बात आज के हो-हल्ले में अनसुनी भले कर दी गयी पर कानू दा कहीं न कहीं नक्सलियों के रास्ते से दुखी थे। वे भटके हुए आंदोलन का आखिरी प्रतीक थे किंतु उनके मन और कर्म में विकल्पों को लेकर लगातार एक कोशिश जारी रही। भाकपा(माले) के माध्यम से वे एक विकल्प देने की कोशिश कर रहे थे। कानू साफ कहते थे चारू मजूमदार से शुरू से उनकी असहमतियां सिर्फ निरर्थक हिंसा को लेकर ही थीं। आप देखें तो आखिरी दिनों तक वे सक्रिय दिखते हैं, सिंगुर में भूमि आंदोलन शुरू हुआ तो वे आंदोलनकारियों से मिलने जा पहुंचते हैं। जिस तरह के हालत आज देखे जा रहे हैं कनु दा के पास देखने को क्या बचा था। छत्रधर महतो और वामदलों की जंग के बीच जैसे हालात थे। उसे देखते हुए भी कुछ न कर पाने की पीड़ा शायद उन्हें कचोटती होगी। अब आपरेशन ग्रीन हंट की शुरूआत हो चुकी है। नक्सलवाद का विकृत होता चेहरा लोकतंत्र के सामने एक चुनौती की तरह खड़ा है कानू सान्याल का जाना विकल्प के अभाव की पीड़ा की भी अभिव्यक्ति है। इसे वृहत्तर संबंध में देखें तो देश के भीतर जैसी बेचैनी और बेकली देखी जा रही है वह आतंकित करने वाली हैं। आज जबकि बाजार और अमरीकी उपनिवेशवादी तंत्र की तेज आंधी में हम लगभग आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं तब कानू की याद हमें लड़ने और डटे रहने का हौसला तो दे ही सकती है। इस मौके पर कानू का जाना एक बड़ा शून्य रच रहा है जिसे भरने के लिए कोई नायक नजर नहीं आता।
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक है)

बुधवार, 24 मार्च 2010

आरएसएस से कौन डरता है ?


दिमाग से नहीं दिल से समझिए आरएसएस को
-संजय द्विवेदी
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में ऐसा क्या है कि वह देश के तमाम बुद्धिजीवियों की आलोचना के केंद्र में रहता है। ऐसा क्या कारण है कि मीडिया का एक बड़ा वर्ग भी उसे संदेह की नजर से देखता है। बिना यह जाने कि आखिर उसका मूल विचार क्या है। आरएसएस को न जानने वाले और जानकर भी उसकी गलत व्याख्या करनेवालों की तादाद इतनी है कि पूरा सच सामने नहीं आ पाता। आरएसएस के बारे में बहुत से भ्रम हैं कुछ तो विरोधियों द्वारा प्रचारित हैं तो कुछ ऐसे हैं जिनकी गलत व्याख्या कर विज्ञापित किया गया है। आरएसएस की काम करने की प्रक्रिया ऐसी है कि वह काम तो करता है प्रचार नहीं करता। इसलिए वह कही बातों का खंडन करने भी आगे नहीं आता। ऐसा संगठन जो प्रचार के काम में भरोसा नहीं करता और उसके कैडर को सतत प्रसिध्दि से दूर रहने का पाठ ही पढ़ाया गया है वह अपनी अच्छाइयों को बताने के आगे नहीं आता, न ही गलत छप रही बातों का खंडन करने का अभ्यासी है। ऐसे में यह जानना जरूरी है कि आरएसएस के बारे में जो कहा जाता है, वह कितना सच है।
जैसे कि आरएसएस के बारे में यह कहा जाता है कि वह मुस्लिम विरोधी है। जबकि सच्चाई यह है कि राष्ट्रवादी मुस्लिम मंच नामक संगठन बनाकर मुस्लिम समाज के बीच काम कर रहा है। संघ का मानना है कि यह देश तभी प्रगति कर सकता है जब उसके सभी नागरिक राष्ट्रजीवन में सामूहिक योगदान दें। संघ के एक अत्यंत वरिष्ठ प्रचारक इंद्रेश कुमार मुस्लिम समाज को जोड़ने के इस काम में लगे हैं। संघ का मानना है कि पूजा-पद्धति में बदलाव से राष्ट्र के प्रति किसी समाज की निष्ठा कम नहीं होती। हमारे पूर्वज एक हैं इसलिए हम सब एक हैं। संघ किसी पूजा उपासना पद्धति के खिलाफ नहीं है, वह तो राष्ट्रमंदिर का पुजारी है। उसकी सोच है कि देश सर्वोपरि है, उसके बाद सब हैं। ईसाई मिशनरियों से भी संघ का संघर्ष किसी द्वेष भावना के चलते नहीं है, धर्मपरिवर्तन के उनके प्रयासों के कारण है। संघ का मानना है प्रलोभन देकर कराया जा रहा धर्मांतरण उचित नहीं है। शायद इसीलिए दुनिया भर में मीडिया का उपयोग कर संघ की छवि बिगाड़ी गयी। वनवासी क्षेत्रों में लोभ के आधार पर कराया जा रहा धर्मांतरण संघर्ष की एक बड़ी वजह बना हुआ है।
आरएसएस के बारे में प्रचार किया जाता है कि वह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के विचारों का विरोधी है। सच्चाई यह है कि आरएसएस के प्रातः स्मरण में महात्मा गांधी का जिक्र अन्य स्मरीय महापुरूषों के साथ किया गया है। स्वदेशी और स्वालंबन की गांधी की नीति का संघ कट्टर समर्थक है। वह मानता है कि गांधी के रास्ते से भटकाव के चलते ही उनके अनुयायियों ने देश का कबाड़ा किया। ध्यान दें केंद्र में वाजपेयी सरकार के समय भी आर्थिक नीतियों पर संघ के मतभेद सामने आए थे उसके पीछे स्वदेशी की प्रेरणा ही थी। कहने की जरूरत नहीं कि संघ पर गांधी जी हत्या का आरोप भी झूठा था जिसे अदालत ने भी माना। गांधी जी स्वयं अपने जीवन काल में संघ की शाखा में गए और वहां के अनुशासन, सामाजिक एकता और साथ मिलकर भोजन करने की भावना को सराहा। वे इस बात से खासे प्रभावित हुए कि यहां जांत-पांत का असर नहीं है।
संघ की राजनीति में बहुत सीमित रूचि है। राजनीति में अच्छे लोग जाएं और राष्ट्रवादी सोच के तहत काम करें संघ की इतनी ही मान्यता है। वह किसी दल के साथ अच्छी या बुरी सोच नहीं रखता बल्कि उस दल के आचरण के आधार पर अपनी सोच बनाता है। जैसे कि श्रीमती इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की भी कुछ प्रसंगों पर संघ ने सराहना की। सरदार वल्लभभाई पटेल को भी उसने आदर दिया। जबकि ये कांग्रेस पार्टी से जुड़े हुए थे। संघ की राजनीति दरअसल चुनावी और वोट बैंक की सोच से उपर की है, उसने सदैव देश और देश की जनता के हित को सिर माथे लिया है। हम देखें तो संघ की समस्त राष्ट्रीय चिंताएं आज सामने प्रकट रूप में खड़ी हैं। संघ ने नेहरू की काश्मीर नीति की आलोचना की तो आज उसका सच सामने है। हजारों कश्मीरी पंडितों को अपने ही देश में शरणार्थी बनने के लिए विवश होना पड़ा। बांग्लादेशी घुसपैठ को मुद्दा बनाया तो आज पूर्वांचल और बंगाल ही नहीं पूरे देश में हमारी सुरक्षा को लेकर बड़ा संकट खड़ा हो गया है। जिसका सबसे ज्यादा असर आज असम में देखा जा रहा है। संघ ने अपनी प्रतिनिधि सभा की बैठकों में 1980 में सबसे पहले यह मुद्दा उठाया।1982,1984,1991 की संघ की प्रतिनिधि सभा के बैठकों के प्रस्ताव देखें तो हमारी आंखें खुल जाएंगीं। इस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर संघ की चिंताएं ही आज भारतीय राज्य की सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई हैं। 1990 में संघ की प्रतिनिधि सभा ने आतंकवादी उभार पर अपनी बैठक में प्रस्ताव पास किया। आज 2010 में वह हमारी सबसे बड़ी चिंता बन गया है। इसी तरह अखिलभारतीय कार्यकारी मंडल की बैठक में 1990 में ही हैदराबाद में आरएसएम ने आतंकवाद पर सरकार की ढुलमुल नीति को निशाने पर लेते हुए प्रस्ताव पास किया। इस प्रस्ताव में वह आतंकवाद और नक्सलवाद के दोनों मोर्चों पर विचार करते हुए बात कही गयी थी। इस तरह देखें तो आरएसएस की चिंता में देश सबसे पहले है और देश की लापरवाह राजनीति को जगाने और झकझोरने का काम वह अपने तरीके से करता रहता है।
आरएसएस को उसके आलोचक कुछ भी कहें पर उसका सबसे बड़ा जोर सामाजिक और सामुदायिक एकता पर है। आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्गों को जोड़ने और वृहत्तर हिंदू समाज की एकता और शक्ति को जगाने के उसके प्रयास किसी से छिपे नहीं हैं। वनवासी कल्याण आश्रम, सेवा भारती जैसे संगठन संघ की प्रेरणा से ही सेवा के क्षेत्र में सक्रिय हैं। शायद इसीलिए ईसाई मिशनरियों के साथ उसका संधर्ष देखने को मिलता है। आरएसएस के कार्यकर्ताओं के लिए सेवा का क्षेत्र बेहद महत्व का है। अपने स्कूल, कालेजों, अस्पतालों के माध्यमों से कम साधनों के बावजूद उन्होंने जनमानस के बीच अपनी पैठ बनाई है। देश पर पड़ी आपदाओं के समय हमेशा संघ के स्वयंसेवक सेवा के लिए तत्पर रहे। 1950 में संघ के तत्कालीन संघ चालक श्रीगुरू जी ने पूर्वी पाकिस्तान से आने वाले शरणार्थियों की मदद के लिए आह्वान किया। 1965 में पाक आक्रमण के पीड़ितों की सहायता का काम किया,1967 में अकाल पीड़ितों की मदद के लिए संघ आगे आया, 1978 के नवंबर माह में दक्षिण के प्रांतों में आए चक्रवाती तूफान में संघ आगे आया। इसी तरह 1983 में बाढ़पीडितों की सहायता, 1991 में कश्मीरी विस्थापितों की मदद के अलावा तमाम ऐसे उदाहरण हैं जहां पीड़ित मानवता की मदद के लिए संघ खड़ा दिखा। इस तरह आरएसएस का चेहरा वही नहीं है जो दिखाया जाता है। संकट यह है कि आरएसएस का मार्ग ऐसा है कि आज की राजनीतिक शैली और राजनीतिक दलों को वह नहीं सुहाता। वह देशप्रेम, व्यक्ति निर्माण के फलसफे पर काम करता है। वह सार्वजनिक जीवन में शुचिता का पक्षधर है। वह देश में सभी नागरिकों के समान अधिकारों और कर्तव्यों की बात करता है। उसे पीड़ा है अपने ही देश में कोई शरणार्थी क्यों है। आज की राजनीति चुभते हुए सवालों से मुंह चुराती है। संघ उससे टकराता है और उनके समाधान के रास्ते भी बताता है। संकट यही है कि आज की राजनीति के पास न तो देश की चुनौतियों से लड़ने का माद्दा है न ही समाधान निकालने की इच्छाशक्ति। आरएसएस से इसलिए इस देश की राजनीति डरती है। वे लोग डरते हैं जिनकी निष्ठाएं और सोच कहीं और गिरवी पड़ी हैं। संघ अपने साधनों से, स्वदेशी संकल्पों से, स्वदेशी सपनों से खड़ा होता स्वालंबी देश चाहता है,जबकि हमारी राजनीति विदेशी पैसे और विदेशी राष्ट्रों की गुलामी में ही अपनी मुक्ति खोज रही है। जाहिर तौर पर ऐसे मिजाज से आरएसएस को समझा नहीं जा सकता। आरएसएस को समझने के लिए दिमाग से ज्यादा दिल की जरूरत है। क्या वो आपके पास है ?
( लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

मंगलवार, 8 दिसंबर 2009

प्रभाष जोशी स्मृति अंक हेतु लेख आमंत्रित

प्रभाष जोशी होने के मायने

त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श द्वारा प्रभाष जोशी स्मृति अंक का प्रकाशन किया जा रहा है। हिंदी पत्रकारिता को पहचान देने वालों में श्री प्रभाष जोशी सबसे महत्वपूर्ण हस्ताक्षर हैं। वे पत्रकारिता में प्रयोगधर्मिता एवं सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता के लिए जीवनभर प्रयत्नशील रहे। जनसंचार के सरोकारों पर केंद्रित देश की अग्रणी त्रैमासिक पत्रिका मीडिया विमर्श द्वारा प्रभाष जोशी के योगदान का मूल्यांकन करने का प्रयत्न स्मृति अंक में किया जा रहा है। इस अंक के लिए लेखकगण अपने आलेख, विश्लेषण, यादें, विशेष पत्र और फोटोग्राफ्स भेज सकते हैं। सामग्री भेजने की अंतिम तारीख है 30 दिसंबर 2009। लेखों को इस पते पर भेजिएः संपादक, मीडिया विमर्श, 428, रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-462039 (मध्यप्रदेश)। आप अपने लेख mediavimarsh@gmail.com पर मेल भी कर सकते हैं। लेखक अपने बारे में पूरा परिचय जरूर लिखें। मीडिया विमर्श का वेब संस्करण पढ़ने के लिए www.mediavimarsh.com पर विजिट कीजिए।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

अराजक राजनीति से जूझने का समय

लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर पाबंदी जरूरी


मुंबई में एक टीवी चैनल के कार्यालय पर शिवसेना का हमला एक ऐसी घटना है जिसकी निंदा से आगे बढ़कर इस सिलसिले को रोकने के लिए पहल करने की जरूरत है। शिवसेना ने कुछ नया नहीं किया। वही किया जो वे अरसे से करते आ रहे हैं। टीवी चैनलों ने सारा कुछ इतना तुरंत और जीवंत बना दिया है कि ये चीजें अब दर्ज होने लगी हैं। शिवसेना के रास्ते पर ही चलकर महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना और उसके मदांध नेता राज ठाकरे अपने परिवार की विरासत को आगे बढ़ा रहे हैं। यानी कि बाजार में अब दो गुंडे हैं।

शिवसेना हो या महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना दोनों का डीएनए एक है। दोनों लोकतंत्र और संविधान को न मानने वाले दल हैं। हमारे लोकतंत्र की खामियों का फायदा उठाकर वे विधानसभा और संसद तक भले पहुंच जाएं पर वे कार्य और व्यवहार दोनो से अलोकतांत्रिक हैं। बाल ठाकरे के लोग सालों से पत्रकारों और अपने विरोधी विचारों से इसी तरह निपटते आए हैं। क्योंकि लोकतंत्र में भरोसा होता तो ये पार्टी या राजनीतिक दल बनाते, सेना नहीं। सही मायने में ये लोकतंत्र में बाहुबल और शक्ति को प्रतिष्ठित करने के लिए आए हैं। इन्हें तर्क, संवाद और बातचीत में आस्था नहीं है। ये तो शक्ति के आराधक हैं जो शिवाजी महाराज का नाम भी लेते हैं और महिलाओं पर भी हाथ उठाने से इन्हें गुरेज नहीं है। मराठा संस्कृति को आज ये जैसी पहचान दे रहे हैं उससे वह कलंकित ही हो रही है। सही मायने में यह हमारे राजनीतिक तंत्र की विफलता है कि हम ऐसे तत्वों पर लगाम लगाने में खुद को विफल पा रहे हैं। शिवसेना सही मायने में एक ऐसा दल है जिसके पास कोई वैचारिक और राजनीतिक दर्शन नहीं है। वह शिवाजी महाराज का नाम लेकर एक भावुक अपील पैदा करने की कोशिश तो करता है पर शिवाजी के आर्दशों से उसका कोई लेना देना नहीं है। आम मजदूर और मेहनतकश आदमी के खिलाफ अपनी ताकत दिखाने वाली शिवसेना और मनसे जैसे दल पूंजीपतियों से हफ्ता वसूली करके अपनी राजनीति को आधार देते रहे हैं। पैसा वसूली और भयादोहन के आधार पर अपनी राजनीति को चलाने वाले ये लोग बेहद डरे और धबराए हुए लोग हैं इसीलिए संवाद के बजाए ये हमेशा जोर आजमाइश पर उतर आते हैं।

कांग्रेस और भाजपा जैसे दलों की विफलता यही है कि वे ऐसी अराजक क्षेत्रीय ताकत के साथ खड़े नजर आते हैं। भाजपा जहां शिवसेना की साझीदार है वहीं कांग्रेस के ऊपर शिवसेना और अब मनसे को फलने- फूलने के अवसर देने के आरोप हैं। कभी कांग्रेस की राजनीति में कद्दावर रहे तमाम नेताओं के साथ शिवसेना प्रमुख के रिश्तों के चलते ही उसे महाराष्ट्र की राजनीति में बढ़त मिली। आज आरोप यह है कि कांग्रेस की सरकार के ढीलेपन के चलते ही महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना अपनी गुंडागर्दी जारी रखे हुए है। उनकी हिम्मत यह है कि वे विधानसभा में भी हाथापाई कर रहे हैं और विधायकों को पत्र लिखकर धमका भी रहे हैं। अब मनसे स्टेट बैंक आफ इंडिया के अफसरों और उसके परीक्षार्थियों को धमकाने का काम कर रहा है। राज्य की यह कमजोरी ही गांवों से लेकर शहर और जंगलों तक एक अशांति का वातावरण बनाने में मदद कर रही है। क्या हमारे शासक इतने कमजोर हैं कि कोई व्यक्ति कानून और संविधान को चुनौती देता हुआ कभी विधानसभा, कभी मीडिया के दफ्तरों और कभी सड़कों पर आतंक मचाता फिरे और हम अपनी वाचिक कुशलता से ही काम चला लें। क्या ये मामले सिर्फ निंदा या कड़ी भत्सर्ना से ही बंद हो सकते हैं। इन्हें भड़काने वाले लोंगों की जगह क्या जेल में नहीं है। बाल ठाकरे और राज ठाकरे जैसे लोग सही मायनों में इस देश के लोकतंत्र के लिए एक बड़ा खतरा हैं। उनसे कड़ाई से निपटना हमारे राष्ट्र-राज्य की जिम्मेदारी है। पर हमारी सरकारें निरूपाय दिखती हैं। बलवा करने वाले और करवाने वाले दोनों को दंडित करने का साहस हम क्यों नहीं पाल पा रहे हैं। मुंबई जैसा शहर यदि ऐसी अराजकता का केंद्र बना रहा तो हम क्या मुंह लेकर दुनिया के सामने जाएंगें। मुंबई में 26.11.2008 जैसी घटनाएं हो जाती हैं तो हम यह कहते हैं कि पड़ोसी देश ने साजिश की, यह जो सड़कों पर नंगा नाच हमारे अपने लोग ही भारतीय नागरिकों के खिलाफ कर रहे हैं उसका क्या। आस्ट्रेलिया में भारतवंशी छात्रों के उत्पीड़न पर हम रोज चिंता जता रहे हैं, आस्ट्रेलिया की सरकार को लांछित कर रहे हैं। यहां अपने ही देश में प्रतियोगी परिक्षाएं दे रहे छात्रों को लोग मारते हैं तो हम क्या कर पा रहे हैं। सही मायने में भारतीय राज्य अपने नागरिकों की रक्षा और उनके शांतिपूर्ण जीवन-यापन की स्थितियां भी पैदा नहीं कर पा रहा है। कुछ मुट्टी भर लोग कभी शिवसैनिक बनकर, कभी आतंकवादी बनकर, कभी नक्सलवादी बनकर, कभी मनसे कार्यकर्ता बनकर भारतीय जनता पर अत्याचार करते रहेगें और हम इसे देखते रहने को मजबूर हैं।

मीडिया को भी इन स्थितियों के खिलाफ सामने आना होगा। ये सारी चुनौतियां दरअसल हमारे लोकतंत्र के खिलाफ हैं। सो हमें लोकतंत्र और देश को बचाना है तो सारे विवाद भूलकर ऐसी ताकतों के खिलाफ एकजुट होना होगा जो संवाद के बजाए बाहुबल या बंदूकों से फैसला करना चाहती हैं। अभी जब महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के परिणाम आए थे तो यही मीडिया विधानसभा की तेरह सीटें जीतने वाले राज को हीरो बना रहा था। उन पर विशेष कार्यक्रम दिखाए जा रहे थे। आखिर ऐसी अराजक प्रवृत्तियों का महिमामंडन करने से हम कब बाज आएंगें। कारण यही है इनके बेलगाम हाथ अब मीडिया के गिरेबान तक जा पहुंचे हैं। आज हमें बहुत दर्द हो रहा है। लोकतंत्र का चौथा खंभा अब हिलने लगा है। गुंडों और अराजक राजनीति को महत्वपूर्ण बनाने का जो काम मीडिया और खासकर टीवी मीडिया जिस अंदाज में कर रहा है उसपर भी सोचने की जरूरत है। मीडिया को भी ऐसे अराजक तत्वों के महिमामंडन से बाज आना होगा क्योंकि इससे इनकी धृणा की राजनीति को ही विस्तार व समर्थन मिलता है। सही मायनों में हमें अपने लोकतंत्र को बचाना है तो शिवसेना और मनसे जैसे दलों पर तुरंत पाबंदी लगाई जानी चाहिए और इसके नेताओं को तुरंत राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में डाल देना चाहिए। इससे इस घातक प्रवृत्ति का विस्तार रोका जा सकेगा वरना भारतीय राज्य और लोकतंत्र दोनों को चुनौती देने वाली ऐसी ताकतें कई राज्यों में सिर उठा सकती हैं। क्योंकि क्षेत्रीयता और भाषा की गंदी राजनीति से देश वैसे भी काफी नुकसान उठा चुका है। हम आज भी नहीं चेते तो कल बहुत देर हो जाएगी।


झारखंड के दर्द को समझिए

राज्य को राजनीतिक स्थायित्व का इंतजार

एक ऐसा भूभाग जो अंतहीन उपेक्षा का शिकार है। बिहार के साथ रहते हुए उसे लगता रहा कि हमें न्याय नहीं मिलेगा। पृथक राज्य के लिए यह इलाका लंबे समय तक संधर्ष करता रहा और अब जबकि उसके राज्य बने नौ साल पूरे हो रहे हैं तो यह सवाल वहीं का वहीं खड़ा है कि आखिर उसे मिला क्या। वहां की बहुसंख्यक आदिवासी आबादी को इंतजार था एक भागीरथ का जो आए और उन्हें पिछड़ेपन, नक्सलवाद और गरीबी से मुक्त कराए। पर नजर आते हैं मधु कौड़ा, जो हजारों करोड़ के मालिक तो बन गए पर राज्य वहीं का वहीं खड़ा है। झारखंड राज्य का निर्माण एक त्रासदी बन गया है। पृथक राज्य के आंदोलन से जुड़े रहे शिबू सोरेन, बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, करिया मुंडा, इंदरसिंह नामधारी क्या सब अपनी आभा खो चुके हैं ? क्या होगा इस राज्य का ? यह सवाल चुनाव के मैदान में उतरे हर नेता से वहां की प्रायः खामोश रहने वाली जनता का है।

झारखंड में विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। सवाल बहुत हैं पर उनके उत्तर नदारद हैं। जनता के सामने भरोसा जताने और जीतने लायक कोई चेहरा नहीं दिखाता। यही अविश्वास वहां त्रिशंकु विधानसभा बनवाता रहा है। कभी भाजपा के दिग्गज नेता रहे और पहले मुख्यमंत्री बने बाबूलाल मरांडी अपनी साफ छवि के बावजूद अकेले दम पर सरकार बनाने का माद्दा नहीं रखते सो कांग्रेस ने उन्हें अपने पाले में कर लिया है। वे कांग्रेस के साथ मिलकर मैदान में हैं। भाजपा पिछले लोकसभा चुनावों में अपनी जीत से उत्साहित है और उसे लगता है झारखंड पर असली अधिकार उसी है। सो मैदान तो इन्हीं दो ताकतों के बीच बंटा हुआ लगता है। जिसमें त्रिशंकु विधानसभा बनने पर छोटे दलों की भी भूमिका हो सकती है। किंतु झारखंड के सवाल इस चुनाव से बड़े हैं क्योंकि पिछली सरकारें और उनके चार मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी, अर्जुन मुंडा, शिबू सोरेन और मधु कौड़ा उनसे टकराने का साहस भी नहीं पाल पाए हैं। सो जनता को पास वोट देने की मजबूरी तो है पर वह उम्मीद से खाली है। सुबोधकांत सहाय और यशवंत सिन्हा जैसे बड़े नेताओं की मौजूदगी के बावजूद वहां की राजनीति की सीमाएं बेहद तंग हैं। पैसे को लेकर जैसी प्रकट पिपासा झारखंड की राजनीति में दिख रही है वह चिंतन का विषय है। एक नवसृजित राज्य यदि अपनी यात्रा के प्रारंभ में ही इतना बेचारा और लाचार हो जाएगा तो वह भविष्य की सुंदर रचना के स्वप्न भी नहीं देख सकता।

झारखंड के सामने नक्सलवाद, भ्रष्टाचार राजनीतिक स्थायित्व आज सबसे बड़े प्रश्न हैं। एक ऐसा राज्य जो प्राकृतिक संसाधनों और वन संपदा से समृद्ध है क्या लोगों की लूट का इलाका बनकर रह जाएगा ? क्या यहां के निवासी जो आज भी अपनी जिंदगी को बहुत मुश्किलों से चला रहे हैं के सामने राजनीति और प्रशासन का कोई संवेदनशील चेहरा कभी सामने आएगा ? गरीब आदिवासियों का पलायन रोकने में सरकार विफल रही है। घरेलू दाई बनाकर महानगरों में भेजी जाती रही महिलाओं-युवतियों का शोषण बदस्तूर जारी है। इससे दलालों का मन बढा है। अब, वह खुल्लम-खुला मानव व्यापार करने लगे हैं। झारखंड के निवासियों का यह दर्द आज समझने की जरूरत है। प्रशासन की संवेदनशीलता, राजनीतिज्ञों की नैतिकता, आम लोगों की राज्य के विकास में हिस्सेदारी कुछ ऐसे सवाल है जो झारखंड की आम जनता को मथ रहे हैं। दूरदराज अंचलों में पेयजल, स्वास्थ्य, शिक्षा और विकास के रोशनी का आज भी इंतजार हो रहा है। शोषण और देश के विभिन्न क्षेत्रों में पलायन कर रोजी रोटी कमाने के लिए मजबूर राज्य के गरीब आदमी की चिंता आखिर कौन करेगा। 22 जिलों में बसे दो करोड़, 70 लाख लोगों के भविष्य का सवाल भी अगर झारखंड राज्य के गठन के बाद भी यहां की राजनीति के केंद्र में नहीं है तो हमें सोचना होगा कि आखिर इस जनतंत्र का मतलब क्या है।

यह झारखंड की राजनीति की त्रासदी ही कही जाएगी कि शिबू सोरेन जैसे क्रांतिकारी पृष्टभूमि के नेता का पतन होते हुए हमने देखा। बाबूलाल मरांडी जैसे नेता की विफलता देखी। इन दो नेताओं की सीमाओं और असफलताओं ने राज्य को ऐसे मोड़ पर खड़ाकर दिया है जिससे निजात तो असंभव दिखती है। झारखंड के साथ बने छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड जैसे राज्य कई मोर्चों पर बेहतर काम करते दिख रहे हैं पर राजनीतिक अस्थिरता ने झारखंड के पैरों में बेड़ियां बांध दी हैं। आज हालात यह हैं कि बिहार जैसा राज्य भी विकास की एक नई यात्रा शुरू कर अपनी गलतियों को सुधारने के लिए आतुर दिखता है किंतु झारखंड इस उम्मीद से भी खाली दिख रहा है। राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों के परिणामों का इंतजार पूरा देश कर रहा है। उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य को एक स्थिर सरकार मिलेगी और झारखंड अपने सपनों में रंग भर सकेगा। विकास के मोर्चे पर तेजी से बढ़ते राज्य के रूप में अपनी पहचान बना सकेगा। नक्सलवाद की गंभीर चुनौती से जूझने का साहस जुटा सकेगा और अपनी जनता को निराशा और अवसाद से मुक्त कर सकेगा।

भाजपा तय करे शिवसेना चाहिए या राष्ट्रवाद ?

महाराष्ट्र विधानसभा के चुनावों में अपनी भारी पराजय के बाद शिवसेना की बदहवाशी तो समझी जा सकती है लेकिन भाजपा को हुआ क्या है ? उसे यह तय करने का यह सबसे बेहतर समय है कि वह राष्ट्रवाद के अपने मूलविचार के साथ खड़ी है या समाज को तोड़ने में लगी शिवसेना के साथ।

विचारधारा को लेकर भ्रम से गुजर रही भारतीय जनता पार्टी से लोग यह जानना चाहते हैं कि वह शिवसेना के साथ खड़ी है तो इसका कारण क्या है ? क्या भाजपा के लिए उसका सांस्कृतिक राष्ट्रवाद अब बेमानी हो गया है ? जिसके कारण वह शिवसेना जैसे दल से अपने रिश्तों को पारिभाषित नहीं कर पा रही है। क्या वृहत्तर हिंदू समाज और अन्य धार्मिक समूहों के साथ उसका संवाद शिवसेना जैसे प्रतिगामी दलों के चलते प्रभावित नहीं हो रहा है ? सही मायने में भाजपा को शिवसेना जैसे दलों से हर तरह के रिश्ते तोड़ लेने चाहिए क्योंकि शिवसेना की राजनीति का आज के भारत में कोई भविष्य नहीं है। सो उसके साथ रहकर भाजपा भी बहुत से समुदायों और समाजों के लिए खुद को अश्पृश्य ही बना रही है। शिवसेना और उसकी गर्भनाल से निकली जिस तरह का व्यवहार कर रहे हैं वह भारतीय लोकतंत्र के माथे पर कलंक का टीका ही है।

सही मायने में शिवसेना एक अलोकतांत्रिक विचार को पोषित करने वाला दल है जिसका भारत के संविधान और कानून में भरोसा नहीं है। लंपट और अराजक तत्वों का यह गिरोह जैसी राजनीति को प्रतिष्ठा दिला रहा है वह हैरतंगेज है। हमारे राज्य की कमजोरियों का फायदा उठाकर फलफूल रहे ये लोग सही मायनों में एक सभ्य समाज में रहने लायक नहीं है। ये वे लोग हैं जो मुंबई जैसे कास्मोपोलेटिन चरित्र के शहर को भी असभ्यों की नगरी सरीखा बनाने में लगे हैं। भाजपा के बड़े नेता आज यह कह रहे हैं कि कांग्रेस ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के खिलाफ कार्रवाई नहीं की। माना कि कांग्रेस ने अपनी राजनीति को बढ़ाने के लिए फूट डालो और राज करो की रणनीति पर चलना उचित माना, जिसका लाभ भी उसे साफ तौर पर मिला। किंतु क्या इससे भाजपा का पाप कम हो जाता है। भाजपा नेतृत्व को दिल पर हाथ रखकर ये सोचना होगा कि क्या किसी उत्तरभारतीय ने शिवसेना से बीजेपी के रिश्तों को देखते हुए मुंबई में बीजेपी को वोट दिया होगा? यह बात अपने आप में बहुत महत्व की है। एक राष्ट्रीय दल होने के बावजूद उसके शिवसेना जैसे साथियों के चलते भाजपा की विश्वसनीयता कम हुयी है। शिवसेना और मनसे आपसी प्रतिस्पर्धा में अभी हिंदी भाषियों और उत्तरभारतीयों के खिलाफ और विषवमन करेंगें तो क्या भाजपा, कांग्रेस की तरह इस पूरे तमाशे का आनंद ले सकती है। कांग्रेस इस पूरे तमाशे में सर्वाधिक सुविधा में है। दुविधा तो दरअसल बीजेपी की है। सो बीजेपी को शिवसेना नेतृत्व से बहुत साफ शब्दों में बात करनी चाहिए कि उसे अपना हिंदी भाषियों के खिलाफ द्वेष छोड़ना ही होगा। यदि भाजपा एक राष्ट्रीय और राष्ट्रवादी दल होने के नाते अपनी विश्वसनीयता चाहती है उसे अराजक राजनीति के विषधरों से अपनी दूरी बनानी ही होगी। क्योंकि एक राष्ट्रीय दल होने के नाते उसकी जिम्मेदारियां बहुत अलग हैं। सो उसे अपने राष्ट्रीय चरित्र के साथ खड़ा होना होगा भले ही इसके लिए राजनीतिक तौर पर उसे थोड़ा नुकसान भले ही उठाना पड़े। विचारधारा से समझौतों ने भाजपा की विश्वसनीयता को प्रभावित किया है। सो भाजपा को हिंदी और हिंदी भाषियों के सवाल पर महाराष्ट्र के संदर्भ में अपना रूख स्पष्ट करना ही चाहिए। यह बात वाचिक आलोचना से आगे बढ़कर होनी चाहिए।

देखा जाए तो भाजपा और शिवसेना का रिश्ता इसलिए संभव हो पाया कि शिवसेना ने अपनी उग्र क्षेत्रवाद की राजनीति का विस्तार करते हुए हिंदू एकता की बात शुऱू की थी। हिंदुत्व भाजपा और शिवसेना की दोस्ती का आधार रहा है। राममंदिर के आंदोलन में दोनों दलों की वैचारिक एकता ने इस दोस्ती को परवान चढ़ाया था। भाजपा के नेता स्व. प्रमोद महाजन ने इस एकता के लिए काफी काम किया। महाजन में यह क्षमता थी वो बाल ठाकरे को सही रास्ते पर ले आते थे। अब किसी भाजपा नेता में यह क्षमता नहीं कि वह ठाकरे का जहर निकालकर उन्हें हिंदुत्व के ब्राडगेज पर ला सके। राज ठाकरे की पार्टी से गहरी प्रतिद्वंदिता के चलते शिवसेना को अपने तेवर लगातार उग्र ही रखने हैं। अब जबकि शिवसेना पुनः अपने क्षेत्रवादी, हिंदी विरोधी अपने संकीर्ण एजेंडे पर लौट आयी है तो फैसला भाजपा को करना है कि वह ऐसी ताकत के साथ खड़ी दिखकर किस तरह वृहत्तर हिंदू समाज की हितैषी होने का दावा कर सकती है। अगर वह ऐसा दावा करती है तो वह कितना विश्वसनीय है ?


बुधवार, 4 नवंबर 2009

आर्थिक पत्रकारिता: पहचान बनाने की जद्दोजहद

वैश्वीकरण के इस दौर में ‘माया’ अब ‘महागठिनी’ नहीं रही। ऐसे में पूंजी, बाजार, व्यवसाय, शेयर मार्केट से लेकर कारपोरेट की विस्तार पाती दुनिया अब मीडिया में बड़ी जगह घेर रही है। हिन्दी के अखबार और न्यूज चैनल भी इन चीजों की अहमियत समझ रहे हैं। दुनिया के एक बड़े बाजार को जीतने की जंग में आर्थिक पत्रकारिता एक साधन बनी है। इससे जहां बाजार में उत्साह है वहीं उसके उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना की संचार हुआ है। आम भारतीय में आर्थिक गतिविधियों के प्रति उदासीनता के भाव बहुत गहरे रहे हैं। देश के गुजराती समाज को इस दृष्टि से अलग करके देखा जा सकता है क्योंकि वे आर्थिक संदर्भों में गहरी रूचि लेते हैं। बाकी समुदाय अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के बावजूद परंपरागत व्यवसायों में ही रहे हैं। ये चीजें अब बदलती दिख रही हैं। शायद यही कारण है कि आर्थिक संदर्भों पर सामग्री के लिए हम आज भी आर्थिक मुद्दों तथा बाजार की सूचनाओं को बहुत महत्व देते हैं। हिन्दी क्षेत्र में अभी यह क्रांति अब शुरू हो गयी है।

‘अमर उजाला’ समूह के ‘कारोबार’ तथा ‘नई दुनिया’ समूह के ‘भाव-ताव’ जैसे समाचार पत्रों की अकाल मृत्यु ने हिन्दी में आर्थिक पत्रों के भविष्य पर ग्रहण लगा दिए थे किंतु अब समय बदल रहा है इकोनामिक टाइम्स, बिजनेस स्टैंडर्ड और बिजनेस भास्कर का हिंदी में प्रकाशन यह साबित करता हैं कि हिंदी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता का एक नया युग प्रारंभ हो रहा है। जाहिर है हमारी निर्भरता अंग्रेजी के इकानामिक टाइम्स, बिजनेस लाइन, बिजनेस स्टैंडर्ड, फाइनेंसियल एक्सप्रेस जैसे अखबारों तथा बड़े पत्र समूहों द्वारा निकाली जा रही बिजनेस टुडे और मनी जैसे पत्रिकाओं पर उतनी नहीं रहेगी। देखें तो हिन्दी समाज आरंभ से ही अपने आर्थिक संदर्भों की पाठकीयता के मामले में अंग्रेजी पत्रों पर ही निर्भर रहा है, पर नया समय अच्छी खबरें लेकर आ रहा।

भारत में आर्थिक पत्रकारिता का आरंभ ब्रिटिश मैनेजिंग एजेंसियों की प्रेरणा से ही हुआ है। देश में पहली आर्थिक संदर्भों की पत्रिका ‘कैपिटल’ नाम से 1886 में कोलकाता से निकली। इसके बाद लगभग 50 वर्षों के अंतराल में मुंबई तेजी से आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र बना। इस दौर में मुंबई से निकले ‘कामर्स’ साप्ताहिक ने अपनी खास पहचान बनाई। इस पत्रिका का 1910 में प्रकाशन कोलकाता से भी प्रारंभ हुआ। 1928 में कोलकाता से ‘इंडियन फाइनेंस’ का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। दिल्ली से 1943 में इस्टर्न इकानामिक्स और फाइनेंसियल एक्सप्रेस का प्रकाशन हुआ। आजादी के बाद भी गुजराती भाषा को छोड़कर हिंदी सहित अन्य भारतीय भाषाओं में आर्थिक पत्रकारिता के क्षेत्र में कोई बहुत महत्वपूर्ण प्रयास नहीं हुए। गुजराती में ‘व्यापार’ का प्रकाशन 1949 में मासिक पत्रिका के रूप में प्रारंभ हुआ। आज यह पत्र प्रादेशिक भाषा में छपने के बावजूद देश के आर्थिक जगत की समग्र गतिविधियों का आइना बना हुआ है। फिलहाल इसका संस्करण हिन्दी में भी साप्ताहिक के रूप में प्रकाशित हो रहा है। इसके साथ ही सभी प्रमुख चैनलों में अनिवार्यतः बिजनेस की खबरें तथा कार्यक्रम प्रस्तुत किए जा रहे हैं। इतना ही नहीं लगभग दर्जन भर बिजनेस चैनलों की शुरूआत को भी एक नई नजर से देखा जाना चाहिए। जी बिजनेस, सीएनबीसी आवाज, एनडीटीवी प्राफिट आदि।

वैश्वीकरण और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगमन से पैदा हुई स्पर्धा ने इस क्षेत्र में क्रांति-सी ला दी है। बड़े महानगरों में बिजनेस रिपोर्टर को बहुत सम्मान के साथ देखा जाता है। इसकी तरह हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं में वेबसाइट पर काफी सामग्री उपलब्ध है। अंग्रेजी में तमाम समृद्ध वेबसाइट्स हैं, जिनमें सिर्फ आर्थिक विषयों की इफरात सामग्री उपलब्ध हैं। हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की दयनीय स्थिति को देखकर ही वरिष्ट पत्रकार वासुदेव झा ने कभी कहा था कि हिन्दी पत्रों के आर्थिक पृष्ठ ‘हरिजन वर्गीय पृष्ट’ हैं। उनके शब्दों में - ‘भारतीय पत्रों के इस हरिजन वर्गीय पृष्ठ को अभी लंबा सफर तय करना है। हमारे बड़े-बड़े पत्र वाणिज्य समाचारों के बारे में एक प्रकार की हीन भावना से ग्रस्त दिखते हैं, अंग्रेजी पत्रों में पिछलग्गू होने के कारण हिन्दी पत्रों की मानसिकता दयनीय है। श्री झा की पीड़ा को समझा जा सकता है, लेकिन हालात अब बदल रहे हैं। बिजनेस रिपोर्टर तथा बिजनेस एडीटर की मान्यता और सम्मान हर पत्र में बढ़ा है। उन्हें बेहद सम्मान के साथ देखा जा रहा है। पत्र की व्यावसायिक गतिविधियों में भी उन्हें सहयोगी के रूप में स्वीकारा जा रहा है। समाचार पत्रों में जिस तरह पूंजी की आवश्यकता बढ़ी है, आर्थिक पत्रकारिता का प्रभाव भी बढ़ रहा है। व्यापारी वर्ग में ही नहीं समाज जीवन में आर्थिक मुद्दों पर जागरूकता बढ़ी है। खासकर शेयर मार्केट तथा निवेश संबंधी जानकारियों को लेकर लोगों में एक खास उत्सुकता रहती है।

ऐसे में हिन्दी क्षेत्र में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी बहुत बढ़ जाती है, उसे न सिर्फ व्यापारिक नजरिए को पेश करना है, बल्कि विशाल उपभोक्ता वर्ग में भी चेतना जगानी है। उनके सामने बाजार के संदर्भों की सूचनाएं सही रूप में प्रस्तुत करने की चुनौती है। ताकि उपभोक्ता और व्यापारी वर्ग तमाम प्रलोभनों और आकर्षणों के बीच सही चुनाव कर सके। आर्थिक पत्रकारिता का एक सिरा सत्ता, प्रशासन और उत्पादक से जुड़ा है तो दूसरा विक्रेता और ग्राहक से। ऐसे में आर्थिक पत्रकारिता की जिम्मेदारी तथा दायरा बहुत बढ़ गया है। हिन्दी क्षेत्र में एक स्वस्थ औद्योगिक वातावरण, व्यावसायिक विमर्श, प्रकाशनिक सहकार और उपभोक्ता जागृति का माहौल बने तभी उसकी सार्थकता है। हिन्दी ज्ञान विज्ञान के हर अनुशासन के साथ व्यापार, वाणिज्य और कारर्पोरेट की भी भाषा बने। यह चुनौती आर्थिक क्षेत्र के पत्रकारों और चिंतकों को स्वीकारनी होगी। इससे भी भाषायी आर्थिक पत्रकारिता को मान-सम्मान और व्यापक पाठकीय समर्थन मिलेगा।

बुधवार, 14 अक्टूबर 2009

इलेक्ट्रानिक मीडिया को धंधेबाजों से बचाइए





मीडिया में आकर, कुछ पैसे लगाकर अपना रूतबा जमाने का शौक काफी पुराना है किंतु पिछले कुछ समय से टीवी चैनल खोलने का चलन जिस तरह चला है उसने एक अराजकता की स्थिति पैदा कर दी है। हर वह आदमी जिसके पास नाजायज तरीके से कुछ पैसे आ गए हैं वह टीवी चैनल खोलने या किसी बड़े टीवी चैनल की फ्रेंचाइजी लेने को आतुर है। पिछले कुछ महीनों में इन शौकीनों के चैनलों की जैसी गति हुयी है और उसके कर्मचारी- पत्रकार जैसी यातना भोगने को विवश हुए हैं, उससे सरकार ही नहीं सारा मीडिया जगत हैरत में है। एक टीवी चैनल में लगने वाली पूंजी और ताकत साधारण नहीं होती किंतु मीडिया में घुसने के आतुर नए सेठ कुछ भी करने को आमादा दिखते हैं।


अब इनकी हरकतों की पोल एक-एक कर खुल रही है। रंगीन चैनलों की काली कथाएं और करतूतें लोगों के सामने हैं, उनके कर्मचारी सड़क पर हैं। भारतीय टेलीविजन बाजार का यह अचानक उठाव कई तरह की चिंताएं साथ लिए आया है। जिसमें मीडिया की प्रामणिकता, विश्वसनीयता की चिंताएं तो हैं ही साथ ही उन पत्रकारों का जीवन भी एक अहम मुद्दा है जो अपना कैरियर इन नए-नवेले चैनलों के लिए दांव पर लगा देते हैं। चैनलों की बाढ़ ने न सिर्फ उनकी साख गिरायी है वरन मीडिया के क्षेत्र को एक अराजक कुरूक्षेत्र में बदल दिया है। ऐसे समय में केंद्र सरकार की यह चिंता बहुत स्वाभाविक है कि कैसे इस क्षेत्र में मचे धमाल को रोका जाए। दिसंबर,2008 तक देश में कुल 417 चैनल थे जिसमें 197 न्यूज चैनल काम कर रहे थे। सितंबर,2009 तक सरकार 498 चैनलों के लिए अनुमति दे चुकी है और 150 चैनलों के नए आवेदन विचाराधीन हैं। टीवी मीडिया के क्षेत्र में जाहिर तौर पर यह एक बड़ी छलांग है। कितु क्या इस देश को इतने सेटलाइट चैनलों की जरूरत है। क्या ये सिर्फ धाक बनाने और निहित स्वार्थों के चलते खड़ी हो रही भीड़ नहीं है। जिसका पत्रकार नाम के प्राणी के जीवन और पत्रकारिता के मूल्यों से कोई लेना-देना नहीं है। जिस दौर में दिल्ली जैसी जगह में हजारों पत्रकार अकारण बेरोजगार बना दिए गए हों और तमाम चैनलों में लोग अपनी तनख्वाह का इंतजार कर रहे हों इस अराजकता पर रोक लगनी ही चाहिए।


यह बहुत बेहतर है कि सरकार इस दिशा में कुछ नियमन करने के लिए सोच रही है। चैनल अनुमति नीति में बदलाव बहुत जरूरी हैं। यह सामयिक है कि सरकार अपने अनुमति देने के नियमों की समीक्षा करे और कड़े नियम बनाए जिसमें कर्मचारी का हित प्रधान हो। ताकि लूट-खसोट के इरादे से आ रहे चैनलों को हतोत्साहित किया जा सके। सरकार ने ट्राइ को लिखा है कि वह उसे इसके लिए सुझाव दे कि और कितने चैनलों की गुंजाइश इस देश में है और चैनलों की बढ़ती संख्या पर अंकुश कैसे लगाया जा सकता है। अपने पत्र में मंत्रालय की चिंता वास्तव में देश की भी चिंता है। पत्र में इस बात पर भी चिंता जताई गई है कि नए चैनल शुरू करने वालों में बिल्डर,ठेकेदार, शिक्षा क्षेत्र में व्यापार करने वाले, स्टील व्यापारी समेत तमाम ऐसे लोग हैं जिनका मीडिया उद्योग से कोई लेना देना या पूर्व अनुभव नहीं है। सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को यह भी शिकायत मिली है चैनल शुरू करवाने को लेकर दलाली का एक पूरा कारोबार जोर पकड़ चुका है। उल्लेखनीय है कि चैनल शुरू करने के लिए सूचना प्रसारण मंत्रालय के अलावा गृह मंत्रालय, विदेश मंत्रालय, वित्त मंत्रालय की अनुमति भी लेनी होती है।


हालांकि कुछ आलोचक यह कह कर इन कदमों की आलोचना कर सकते हैं कि यह कदम लोकतंत्र विरोधी होगा कि नए चैनल आने में अड़चनें लगाई जाएं। किंतु जिस तरह के हालात हैं और पत्रकारों व कर्मियों को मुसीबतों का सामना करना पड़ा रहा है उसमें नियमन जरूरी है। चैनल का लाइसेंस पाकर कभी भी चैनल पर ताला डालने का प्रवृत्ति से आम पत्रकारों को गहरा झटका लगता है। उनके परिवार सड़क पर आ जाते हैं। नौकरियों को लेकर कोई सुरक्षा न होना और पत्रकारों से अपने संपर्कों के आधार पर पैसै या व्यावसायिक मदद लेने की प्रवृत्ति भी उफान पर है। चैनल खोलने के शौकीनों से सरकार को यह जानने का हक है कि आखिर वे ऐसा क्या प्रमाण दे रहे हैं कि जिसके आधार पर यह माना जा सके कि आपके पास तीन या पांच साल तक चैनल चलाने की पूंजी मौजूद है। वित्तीय क्षमता के अभाव या मीडिया के दुरूपयोग से पैसे कमाने की रूचि से आने वालों को निश्चित ही रोका जाना चाहिए। चैनल में नियुक्त कर्मियों के रोजगार गारंटी के लिए कड़े नियमों के आघार पर ही नए नियोक्ताओं को इस क्षेत्र में आने की अनुमति मिलनी चाहिए। मीडिया जिस तरह के उद्योग में बदल रहा है उसे नियमों से बांधे बिना कर्मियों के हितों की रक्षा असंभव है। पैसे लेकर खबरें छापने या दिखाने के कलंकों के बाद अब मीडिया को और छूट नहीं मिलनी चाहिए। क्योंकि हर तरह की छूट दरअसल पत्रकारिता या मीडिया के लिए नहीं होती, ना ही वह उसके कर्मचारियों के लिए होती है, यह सारी छूट होती है मालिकों के लिए। सो नियम ऐसे हों जिससे मीडिया कर्मी निर्भय होकर, प्रतिबद्धता के साथ अपना काम कर सकें। केंद्र सरकार अगर चैनलों की भीड़ रोकने और उन्हें नियमों में बांधने के लिए आगे आ रही है तो उसका स्वागत होना चाहिए। ध्यान रहे यह मामला सेंसरशिप का नहीं हैं। पत्रकारों के कल्याण, उनके जीवन से भी जुड़ा है, सो इस मुद्दे पर एलर्जिक होना ठीक नहीं है।


( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)