गुरुवार, 27 अक्टूबर 2016

यादवी युद्ध में उत्तर प्रदेश

कुनबे की कलह में वास्तविक नेता बनकर उभरे हैं अखिलेश यादव
-संजय द्विवेदी

  उत्तर प्रदेश के यादवी युद्ध में आखिर सबसे ज्यादा फायदे में कौन है? मुख्यमंत्री अखिलेश यादव, नेताजी, अमर सिंह, रामगोपाल या शिवपाल यादव? निश्चित ही इस प्रश्न का तुरंत उत्तर देना संभव नहीं है। किंतु जैसी गोटियां बिछाई गयी हैं, उसमें अखिलेश एक नायक की तरह उभरे हैं। उनकी सरकार की चार साल की नाकामियां अचानक परिदृश्य से गायब हैं और चारों तरफ चाचा से टकराते अखिलेश की चर्चा है। अखिलेश के पास इस वक्त खोने के लिए कुछ नहीं है। वे बहुत उंचाई पर हैं और राजनीति में हार-जीत तो लगी रहती है। अगर परिवार साथ भी था तो कौन सी गारंटी थी कि समाजवादी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिलेगा। अगर परिवार टकरा रहा है तो भी सरकार सपा के नेतृत्व में नहीं बनेगी, इसे भरोसे से कौन कह सकता है।
    मुलायम सिंह यादव उप्र के एकमात्र ऐसे नेता हैं, जिन्हें उत्तर प्रदेश का मन, मिजाज और तेवर पता हैं। वे हर विधानसभा क्षेत्र के चरित्र और उसके स्वभाव को जानते हैं। कल्याण सिंह भी लगभग ऐसी ही जानकारियों से लैस राजनेता हैं, किंतु वे राजस्थान के राजभवन में बिठा दिए गए हैं। ऐसे में मुलायम सिंह इस घटनाचक्र के अगर प्रायोजक न भी हों तो भी उनकी इच्छा के विरूद्ध यह हो रहा है, कहना कठिन है। मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह अपने बेचारेकहे जा रहे बेटे को यह कहकर ताकत दी है कि शिवपाल को मंत्री बनाने का मामला अखिलेश पर छोड़ता हूं उसके बहुत बड़े संदेश हैं। मुलायम सिंह यादव यूं ही नेताजी नहीं हैं, उनमें उप्र की राजनीति की गहरी समझ और स्थितियों को अपने पक्ष में कर लेने की अभूतपूर्व क्षमता है। उनका प्रधानमंत्री बनने का सपना भले ही पूरा न हो पाया हो किंतु वे अपने पुत्र को उत्तर प्रदेश की राजनीति का सबसे नामवर चेहरा बनाने में कामयाब रहे हैं। आज समाजवादी पार्टी में मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव के सिवा क्या बचा है? जो मुलायम के आसपास के नेता हैं, वे सब अपनी चमक खो चुके हैं, या सबकी हालत खराब है। दिल्ली में राज्यसभा के नेता रहे प्रो. रामगोपाल यादव पार्टी से बाहर हैं, बड़बोले अमर सिंह की बोलती बंद है, शिवपाल यादव मंत्रिमंडल से बाहर हैं, आजम खान की चमक भी कम हुयी है, ले-देकर सारा उत्तर प्रदेश अखिलेश यादव की चर्चाओं में व्यस्त है।
   इस पूरे एपीसोड ने अखिलेश यादव की सारी कमजोरियों, नाकामियों और अकुशल प्रबंधन को भुला दिया है। जनता आज अखिलेश को सहानुभूति से देख रही है और मानती है कि अखिलेश को फ्री हैंड दिया जाए तो वह बहुत कुछ कर सकते हैं। यहीं सवाल उठता है कि अखिलेश आखिर इतने दिनों तक आखिर सब कुछ क्यों सहते रहे? क्यों वे पिता द्वारा बार-बार अपमान किए जाने के बाद भी चुप रहे? क्यों वे चाचाओं की चाही-अनचाही इच्छाओं के आगे झुकते रहे? इस तरह अचानक उनके बागी तेवर स्वाभाविक हैं या किसी पूर्व लिखित स्क्रिप्ट के तहत वे ऐसे अंदाज दिखा रहे हैं, जिस पर भरोसा करना कठिन है।
    ठीक चुनाव के पहले वे पिता का घर छोड़कर क्या अपने वयस्क और समझदार होने की सूचना दे रहे हैं? परिवार में कलह किसके नहीं होती, किंतु कलह का अचानक इस तरह चुनाव के ठीक पहले सतह पर आना बहुत कुछ कहता है। बावजूद इसके समाजवादी पार्टी चुनाव जीते या हारे, अखिलेश अपने तेवरों से दल के सबसे बड़े नेता हो गए हैं। मुलायम सिंह से भी बड़े। जनता के बीच उनकी छवि सुधरी है और उन्हें एक किस्म की सहानुभूति भी मिल रही है, जिसके भले ही वे पात्र नहीं हैं। दूसरी सबसे बड़ी बात समाजवादी पार्टी के सभी नेताओं मुलायम, रामगोपाल, शिवपाल, अमर सिंह, आजम खां से अलग अखिलेश के पास अभी लंबी आयु है। लंबी पारी खेलने के लिए समय है। जबकि शेष नेताओं को लंबी आयु के नाते अखिलेश जैसी समय की सुविधा हासिल नहीं है। अखिलेश उत्तर प्रदेश विधानसभा के आसन्न चुनावों में हारें या जीतें, उन्होंने इस युद्ध के बहाने अपना कद बड़ा कर लिया है। अमर सिंह जैसे नेताओं के उपकारों को लेकर मुलायम सिंह यादव भले भावुक होते दिखें, किंतु जनता में अमर सिंह को भला-बुरा कहकर अखिलेश ने अपनी ताकत भी दिखाई है और लोकप्रियता भी बढ़ाई है। यह साधारण नहीं है कि अमर सिंह ने इस पूरे प्रसंग में खामोशी ओढ़ रखी है। वे जानते हैं कि इस वक्त बोलने से उनके लिए चीजें और मुश्किल हो जाएंगीं। यह भी गजब है कि जो लोग पार्टी से निरंतर निकाले जा रहे हैं, वे मुख्यमंत्री के दरबार में भी डटे हैं और मंत्री भी बने हुए हैं। सपा के दो समानांतर सत्ता केंद्र बन चुके हैं। 

  इस पूरी कवायद के बीच यह चर्चा भी आम है कि उत्तर प्रदेश में सपा एक सेकुलर मोर्चा बनाकर मैदान में उतरना चाहती है, जिसमें वह कांग्रेस को भी अपने साथ लेना चाहती है। बिहार के सफल प्रयोग और उत्तर प्रदेश की बदहाली में कांग्रेस और सपा दोनों के लिए यह एक अच्छा अवसर हो सकता है। मुलायम सिंह यादव समय को दूर से पढ़ लेने वाले नेता हैं, इसलिए वे इस समझौते के लिए पहल करते हुए दिखते हैं। कांग्रेस के विधायक जिस तरह लगातार पार्टी छोड़ रहे हैं, उसमें उसके पास विकल्प सीमित हैं। राहुल गांधी भी अखिलेश यादव के प्रति अच्छे भाव रखते हैं, ऐसे में मुलायम एक बार फिर उप्र में सपा की सत्ता के लिए सपने बांध रहे हैं। इस यादवी युद्ध से परिवार को निकाल मुलायम सिंह कैसे अपने पुत्र को राजसत्ता तक पुनः पहुंचाते हैं, इसे देखना रोचक होगा। कुनबे की कलह से समाजवादी पार्टी को कुछ हासिल हो या न हो किंतु नेताजी के बाद एक नेता जरूर हासिल हुआ है जिसका नाम अखिलेश यादव है।

शनिवार, 22 अक्टूबर 2016

गुरू ज्ञान पर भारी है गूगल ज्ञान

अध्यापक-विद्यार्थी संबंधः नए रास्तों की तलाश
-संजय द्विवेदी

    ऐसे समय में जब आधुनिक संचार साधनों ने अध्यापकों को लगभग अप्रासंगिक कर दिया है, हमें सोचना होगा कि आने वाले समय में अध्यापक-विद्यार्थी संबंध क्या आकार लेगें, क्या शक्ल लेगें? यहां यह भी कहना जरूरी है कि ज्ञान का रिप्लेसमेंट असंभव है। लेकिन जिस तरह जीवन सूचनाओं के आधार पर बनाया, सिखाया और चलाया जा रहा है, उसमें ज्ञानी और गुणीजनों का महत्व धीरे-धीरे कम होगा। वैसे भी हमारे देश में समाज विज्ञानों में जिस तरह की शिक्षा पद्धति बनायी और अपनायी जा रही है। उसका असर उनके शोध पर भी दिखता है। तमाम बड़े परिसरों के बाद भी वैश्विक स्तर पर हमारी संस्थाएं बहुत काम की नहीं दिखतीं। उनकी गुणवत्ता पर अभी काफी काम करना शेष है।
   नए विचारों के लिए स्पेस कम होते जाना, नवाचारों के प्रति हिचक हमारी शिक्षा का बड़ा संकट है। साथ ही शिक्षकों द्वारा नयी पीढ़ी में सिर्फ अवगुण ढूंढना, इस नए समय के ऐसे मुद्दे हैं- जिनसे पूरा शिक्षा परिसर आक्रांत है। नई पीढ़ी की जरूरतें अलग हैं और जाहिर तौर पर वे बहुत आज्ञाकारी नहीं हैं। सब कुछ को वे सिर्फ इसलिए स्वीकार नहीं कर सकते, क्योंकि गुरूजी ऐसा कह रहे हैं। फिलवक्त हमारे समय की बहुत उर्जावान और संभावनाशील और जानकार पीढ़ी इस समय शिक्षकों के सामने उपस्थित है। परंपरागत शिक्षण की चुनौतियां अलग हैं और प्रोफेशनल शिक्षा के तल बहुत अलग हैं। यह पीढ़ी जल्दी और ज्यादा पाना चाहती है। उसे सब कुछ तुरंत चाहिए- इंस्टेंट। श्रम, रचनाशीलता और इंतजार उनके लिए एक बेमानी और पुराने हो चुके शब्द हैं। जाहिर तौर पर इस पीढ़ी से, इसी की भाषा में संवाद करना होगा। यह पीढ़ी नए तेवरों के साथ, सूचनाओं के तमाम संजालों के साथ हमारे सामने है। यहां अब विद्यार्थी की नहीं, शिक्षक की परीक्षा है। उसे ही खुद को साबित करना है।
सूचनाओं के बीच शिक्षाः
   हमारा समय सूचनाओं से आक्रांत है। सूचनाओं की बमबारी से भरा-पूरा। क्या लें क्या न लें-तय कर पाना मुश्किल है। आज के विद्यार्थी का संकट यही है कि वह ज्यादा जानता है। हां, यह संभव है कि वह अपने काम की बात कम जानता हो। उसके सामने इतनी तरह की चमकीली चीजें हैं कि उसकी एकाग्रता असंभव सी हो गयी है। वह खुद के चीजों और विषयों पर केंद्रित नहीं कर पा रहा है। क्लास रूम टीचिंग उसे बेमानी लगने लगी है। शिक्षक भी नए ज्ञान के बजाए पुरानी स्लाइड और पावर पाइंट से ज्ञान की आर्कषक प्रस्तुति के लिए जुगतें लगा रहे हैं, फिर भी विफल हो रहे हैं। वह कक्षा में बैठे अपने विद्यार्थी तक भी पहुंच पाने में असफल हैं। विद्यार्थी भी मस्त है कि क्लास में धरा है। टीचर से ज्यादा भरोसा गूगल पर जो है। गूगल भी ज्ञान दान के लिए आतुर है। हर विषय पर कैसी भी आधी-अधूरी जानकारी के साथ।
   इससे किताबों पर भरोसा उठ रहा है। किताबें इंतजार कर रही हैं कि लोग आकर उनसे रूबरू होगें। लेकिन सूचनाओं  से भरे इस समय में पुस्तकालय भी आन लाइन किए जा रहे हैं। यानि इन किताबों के सामने प्रतीक्षा के अलावा विकल्प नहीं हैं। यह प्रतीक्षा कितनी लंबी है कहा नहीं जा सकता।
मुश्किल में एकाग्रताः
  सच कहें तो इस कठिन समय का सबसे संकट है एकाग्रता। आधुनिक संचार साधनों ने सुविधाओं के साथ-साथ जो संकट खड़ा किया है वह है एकाग्रता और एकांत का संकट। आप अकेले कहां हो पाते हैं? यह मोबाइल आपको अकेला कहां छोड़ता है? यहां संवाद निरंतर है और कुछ न कुछ स्क्रीन पर चमक जाता है कि फिर आप वहीं चले जाते हैं, जिससे बचने के उपाय आप करना चाहते हैं। सूचनाएं, ज्यादा बातचीत और रंगीनियों ने हाल बुरा कर दिया है। सेल्फी जैसे राष्ट्रीय रोग की छोड़िए, जिंदगी ऐसे भी बहुत ज्यादा आकर्षणों से भर गयी है। ऐसे आकर्षणों के बीच शिक्षा के लिए समय और एकाग्रता बहुत मुश्किल सी है। बहुत सी सोशल नेटवर्किंग साइट्स का होना हमें कितना सामाजिक बना रहा है, यह सोचने का समय है। सोशल नेटवर्क एक नई तरह की सामाजिकता तो रच रहे हैं तो कई अर्थों में हमें असामाजिक भी बना रहे हैं। इसी के चलते गुरू ज्ञान पर भारी है गूगल ज्ञान। इस नए समय में शिक्षक को नई तरह से पारिभाषित करना प्रारंभ कर दिया है।
चाहिए तैयारी और नयी दृष्टिः
  जाहिर तौर पर शिक्षा और शिक्षकों के सामने नए विचारों को स्वीकारने और जड़ता को तोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। उन्हें परंपरा से हटकर नया ज्ञान, नए तरीके से प्रस्तुत करना होगा। प्रस्तुतिकरण की शैली में परिवर्तन लाना होगा। शिक्षक की सबसे बड़ी चुनौती- अपने विद्यार्थी के मन में ज्ञान की ललक पैदा करना है। उसे ज्ञान प्राप्ति के लिए जिज्ञासु बनाना है। उसकी एकाग्रता के जतन करना है और कक्षा में उसे वापस लाना है। वापसी इस तरह की कि वह कक्षा में सिर्फ शरीर से नहीं, मन से भी उपस्थित रहे। उसे नए संचार माध्यमों की सीमाएं भी बतानी जरूरी हैं और किताबों की ओर लौटाना जरूरी है। उसके मन में यह स्थापित करना होगा कि ज्ञान का विकल्प सूचनाएं नहीं हैं। सिर्फ सतही सूचनाओं से वह ज्ञान हासिल नहीं करता, बल्कि अपने स्थापित भ्रमों को बढ़ाता ही है। उसे यह भी बताना होगा कि उसे चयनित और उपयोगी ज्ञान के प्रति सजगता और ग्रहणशीलता बनानी होगी। 

(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं।)

सोमवार, 10 अक्टूबर 2016

भारतीय मूल्यों पर आधारित हो शिक्षा

जरूरी है स्वायत्तता, सम्मान और विश्वास
-संजय द्विवेदी

       किसी देश या समाज की सफलता दरअसल उसकी शिक्षा में छिपी होती है। भारत जैसे देश का दुनिया में लंबे अरसे तक डंका बजता रहा तो इसका कारण यहां की ज्ञान परंपरा ही रही है। आज हमारी शिक्षा व्यवस्था पर चौतरफा दबाव हैं। हम सब अभिभावक, शिक्षक और प्रशासन तीनों भूमिकाओं में खुद को विफल पा रहे हैं। देश के बुद्धिजीवी इन सवालों को उठाते तो हैं पर समाधान नहीं सुझाते। बाजार का रथ लगता है, पूरी शिक्षा को जल्दी अपने अश्वमेघ का हिस्सा बना लेगा। ज्ञान, विज्ञान और चरित्र हमारे जीवन दर्शन में शिक्षा का आधार रहा है। हमारी भारतीय ज्ञान परंपरा, समग्र ज्ञान से बने जीवन दर्शन पर आधारित है। लेकिन हम देख रहे हैं कि हमारी पीढियां फैक्ट्री जैसी शिक्षा पाने के लिए विवश हैं। आज उन्हें कीमत तो पता है पर मूल्य को वे नहीं जानते।
        हमारे देश का आदर्श ग्लोबलाइजेशन नहीं हो सकता। वसुधैव कुटुम्बकम् ही हमारी वास्तविक सोच और वैश्विक सोच को प्रगट करता है। हम अपनी ज्ञान परंपरा में सिर्फ स्वयं का नहीं बल्कि समूचे लोक का विचार करते हैं। शिक्षा से मुनाफा कमाने की होड़ के समय में हमारे सारे मूल्य धराशाही हो चुके हैं। पहले भी शिक्षा का व्यवसायिक चरित्र था किंतु आज शिक्षा का व्यापारीकरण हो रहा है। एक दुकान या फैक्ट्री खोलने की तरह एक स्कूल डाल लेने का चलन बढ़ रहा है, जबकि यह खतरनाक प्रवृत्ति है।
     वैसे भी जो समाज व्यापार के बजाए शिक्षा से मुनाफा कमाने लगे उसका तो राम ही मालिक है। हमारे ऋषियों-मुनियों ने जिस तरह की जिजीविषा से शिक्षा को सेवा और स्वाध्याय से जोड़ा था वह तत्व बहुलतः शिक्षा व्यवस्था और तंत्र से गायब होता जा रहा है। इस ऐतिहासिक फेरबदल ने हमारे शिक्षा जगत से चिंतन, शोध और अनुसंधान बंद कर दिया है। पश्चिम के दर्शन और तौर-तरीकों को स्वीकार करते हुए अपनी जड़ें खोद डालीं। आज हम न तो पश्चिम की तरह बन पाए, न पूरब का सत्व और तेज बचा पाए। इसका परिणाम है कि हमारे पास इस शिक्षा से जानकारी और ज्ञान तो आ गई पर उसके अनुरूप आचरण नहीं है। जीवन में आचरण की गिरावट और फिसलन का जो दौर है वह जारी है। यह कहां जाकर रूकेगा कहा नहीं जा सकता। भारतीय जीवन मूल्य और जीवन दर्शन अब किताबी बातें लगती हैं। उन्हें अपनाने और जीवन में उतारने की कोशिशों बेमानी साबित हो रही हैं।
     सामाजिक क्षेत्र में काम करने वाले संगठनों के कई प्रवक्ता कहते हैं परमवैभव ही हमारा विजन है। किंतु इसके लिए हमारी कोशिशें क्या हैं। विश्व में जो श्रेष्ठ है, सर्वश्रेष्ठ है-विश्व मानवता को उसे मिलना ही चाहिए। एक नए भारत का निर्माण ही इसका रास्ता है। वह कैसे संभव है जाहिर तौर पर शिक्षा के द्वारा। इंडिया को भारत बनाने की कठिन यात्रा हमें आज ही शुरू करनी होगी। जनमानस जाग चुका है। जगाने की जरूरत नहीं है। नई पीढ़ी भी अंगड़ाई लेकर उठ चुकी है। वह संकल्पबद्ध है। अधीर है, अपने सामने एक नया भारत गढ़ना और देखना चाहती है। वह एक ऐसे भारत का निर्माण करना चाहती है, जिसमें वह स्वाभिमान के साथ अपना विकास कर सके। सवाल उठता है कि फिर बाधक कौन है। जाहिर तौर हम, हमारी परंपरागत व्यवस्थाएं, गुलामी के अवशेष, पुरानी पीढ़ी की सोच, धारणाएं, विचारधाराएं इस परिवर्तन की बाधक हैं। आजादी के पहले जो कुछ हुआ उसके लिए हम लार्ड मैकाले को कोसते रहते हैं किंतु इन सात दशकों में जो घटा है उसका दोष किस पर देगें? एक स्वाभिमानयुक्त भारत और भारतीयों का निर्माण करने के बजाए हमने आत्मदैन्य से युक्त और परजीवी भारतीयों का निर्माण किया है। इन सात दशकों के पाप की जिम्मेदारी तो हमें ही लेनी होगी। सच्चाई तो यह है कि हमारे आईटीआई और आईआईएम जैसे महान प्रयोग भी विदेशों को मानव संसाधन देने वाले संस्थान ही साबित हुए। बाकी चर्चा तो व्यर्थ है।

  किंतु समाज आज एक नई करवट ले रहा है। उसे लगने लगा है कि कहीं कुछ चूक हुयी है। सर्वश्रेष्ठ हमारे पास है, हम सर्वश्रेष्ठ हैं। किंतु अचानक क्या हुआ? वेद, नाट्यशास्त्र, न्यायशास्त्र, ज्योतिष और खगोल गणनाएं हमारी ज्ञान परंपरा की अन्यतम उपलब्धियां हैं पर फिर भी हम आत्म दैन्य से क्यों भरे हैं? देश में स्वतंत्र बुद्धिजीवियों का अकाल क्यों पड़ गया? एक समय कुलपति कहता था तो राजा उसकी मानता। कुलगुरू की महिमा अनंत थी। आज दरबारों में सिर्फ दरबारियों की जगह है। शिक्षा शास्त्रियों को विचार करना होगा कि उनकी जगह क्यों कम हुयी? साथ ही उन्हें गरिमा की पुर्नस्थापना के सचेतन प्रयास करने होगें। विश्वविद्यालय जो ज्ञान के केंद्र हैं और होने चाहिए। वे आज सिर्फ परीक्षा केंद्र बनकर क्यों रह गए हैं? अपने परिसरों को ज्ञान,शोध और परामर्श का केंद्र हम कब बनाएंगे? विश्वविद्यालय परिसरों की स्वायत्तता का दिन प्रतिदिन होता क्षरण, बढ़ता राजनीतिकरण इसके लिए जिम्मेदार है। स्वायत्तता और सम्म्मान दोनों न हो तो शिक्षा क्षेत्र में होने के मायने भी क्या हैं? कोई भी विश्वविद्यालय या परिसर स्वायत्तता, सम्मान और विश्वास से ही बनता है। क्या ऐसा बनाने की रूचि शिक्षाविदों और ऐसे बनने देने की इच्छाशक्ति हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक तंत्र में है।

सोमवार, 3 अक्टूबर 2016

अरसे बाद मुस्कराया देश

-संजय द्विवेदी
  उड़ी हमले के 11 दिन बाद पाक अधिकृत कश्मीर में भारतीय सेना की कार्रवाई सही मायने में हिंदुस्तानी आवाम के जख्मों पर राहत का मलहम सरीखी ही है। लगातार जख्मी किए जा रहे देश को अरसे बाद मुस्कराने का मौका मिला है। भारत एक युद्धकामी देश नहीं है। किंतु उसके पड़ोसी देश की हरकतों ने भारतीय मानस को इतना चोटिल किया है कि पाकिस्तान का नाम भी अब उसके नाम के सुंदर अर्थ के बजाए एक विपरीत अर्थ देता है। पाक के साथ नापाक शब्द अक्सर अखबारों की सुर्खियों में रहता है। कैसे एक देश अपने कुटिल कर्मों से अपने वास्तविक नाम का अर्थ भी खो बैठता है, पाकिस्तान इसका उदाहरण है।
   भारत-पाकिस्तान एक भूगोल, एक इतिहास, एक विरासत और अपनी आजादी के लिए एक साथ जंग लड़ने वाले देश हैं। लेकिन इतिहास किस तरह साझी विरासतों को भी बांटता है कि आज दोनों तरफ आग उगलते दरिया मौजूद हैं। नफरतें, कड़वाहटें और संवादहीनता हमारे समय का सच बन गयी हैं। भारत के लिए अच्छी राय रखना पाकिस्तान में मुश्किल है, तो पाकिस्तान के लिए अच्छे विचार हमारे देश में बुरी बात है। हमने अपनी साझी विरासतों के बजाए साझी नफरतों के सहारे ही ये बीते सात दशक काटे हैं। ये नफरतों के जंगल आज दोनों ओर लहलहा रहे हैं। इन्हें काटने वाले हाथ दिखते नहीं हैं।
एक मानसिक अवस्था है पाकिस्तानः
 पाकिस्तान दरअसल एक मुल्क नहीं, भारत विरोधी विचारों से लबरेज मनोदशा वाले लोगों का समूह है। भारत न हो, तो शायद पाकिस्तान को अपना वजूद बचाना मुश्किल हो जाए। भारत का भय और भारत का प्रेत उसकी राजनीति का प्राणवायु है। जेहादी आतंकवाद ने उसके इस भय को और गहरा किया है। पाकिस्तान एक ऐसा देश बन चुका है, जिसके हाथ अपने मासूम बच्चों को कंधा देते हुए नहीं कांपते। वह आत्मघाती युवाओं की फौज तैयार कर अपने नापाक सपनों को जिलाए रखना चाहता है। जाहिर तौर पर इस पाकिस्तान से जीता नहीं जा सकता। वह एक ऐसा पाकिस्तान बन गया है, जिसने खुद की बरबादी पर दुखी होना छोड़ दिया है, वह भारत के दुखों से खुश होता है। उसे अपने देश में लगी आग नहीं दिखती, वह इस बात पर प्रसन्न है कि कश्मीर भी जल रहा है। उसके अपने लोग कैसी जिंदगी जी रहे हैं, इसकी परवाह किए बिना आईएसआई भारत में आतंकी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च कर रही है। पाकिस्तान दरअसल एक प्रतिहिंसा में जलता हुआ मुल्क है, जिसे अपनी बेहतरी नहीं भारत की बर्बादी के सपने सुख देते हैं। इस मानसिक अवस्था से उसे निकालना संभव कहां है?
भारत के पास सीमित हैं विकल्पः
भारत के पास पाकिस्तान से लड़ने का विकल्प है पर यह विकल्प भी वह कई बार आजमा चुका है। युद्ध के बजाए पाक को हजार जगह से घाव देना ज्यादा उचित है। कभी यही वाक्य जिया उल हक ने भारत के लिए कहा था कि भारत को हजार जगह घाव दो। आज भारत के पास यही एक विकल्प है कि वह सठे साठ्यं समाचरेत् का पालन करे। दुष्ट के साथ सद् व्यवहार से आप कुछ हासिल नहीं कर सकते। पाकिस्तान का संकट दरअसल उसके निर्माण से जुड़ा हुआ है। वह एक लक्ष्यहीन और ध्येयहीन राष्ट्र है। उसका ध्येय सिर्फ भारत धृणा है। सिर्फ नफरत है। नफरतों के आधार पर देश बन तो जाते हैं, पर चलाए नहीं जा सकते। इसका उदाहरण बंगलादेश है, जिसने पाकिस्तान से मुक्ति ली और आज अपनी किस्मत खुद लिख रहा है। 1947 में भारत और पाकिस्तान ने एक साथ सफर प्रारंभ किया, दोनों देशों की यात्रा का आकलन हमें सत्य के करीब ले जाएगा। पाकिस्तान इतनी विदेशी मदद के बाद भी कहां है और भारत अपने विशाल आकार-प्रकार और भारी आबादी के बाद भी कहां पहुंचा है? भारत ने अपना अलग रास्ता चुना। लोकतंत्र को स्वीकारा और मन से लागू किया। पाकिस्तान आज भी एक नकली लोकतंत्र के तले जी रहा है, जहां फौज राजनैतिक नेतृत्व को नियंत्रित करती हुयी दिखती है।
कश्मीर का क्या करोगेः
   पाकिस्तान की दुखती रग है कश्मीर। क्योंकि कश्मीर द्विराष्ट्रवाद के सिद्धांत को बेमानी साबित करता है। ज्यादा मुस्लिम आबादी का क्षेत्र होकर भी भारत के साथ उसका होना पाकिस्तान को सहन नहीं हो रहा है। जबकि सच तो यह है कि द्विराष्ट्रवाद का खोखलापन तो बांगलादेश के निर्माण के साथ ही साबित हो चुका है। भारत को जख्म देकर पाकिस्तान खुद भी पूरी दुनिया में बदनाम हो चुका है। आज समूची दुनिया पाकिस्तान के असली चेहरे को समझ चुकी है। अफगानिस्तान और बांग्लादेश जैसे पड़ोसी अगर भारत के पक्ष में है तो पाकिस्तान को यह बात समझ में आ जानी चाहिए कि आंखों का भी पानी होता है। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में सिर्फ धर्म के आधार पर समर्थन नहीं बटोरा जा सकता है। जिहादी आतंकवाद से त्रस्त दुनिया सिर्फ हिंदुओं या ईसाईयों की नहीं है, बल्कि बड़ी संख्या में इस्लामी देश भी इसके शिकार है। एक तटस्थ विश्लेषक की तरह सोचे तो रोजाना किसका खून धरती पर गिर रहा है। सोचेगें तो सच सामने आएगा। इस आतंक की शिकार सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी ही है। जेहादी आतंकवाद मुसलमानों को ही निगल रहा है। पूरी दुनिया का इस्लाम के प्रति नजरिया बदल रहा है। लोग इस्लाम को आतंक से जुड़ा मानने लगे हैं। इस तस्वीर को बदलना दरअसल मुस्लिम समुदाय, मुस्लिम देशों और मुस्लिम विद्वानों की जिम्मेदारी है। हमारा मजहब शांति का मजहब है, यह कहकर नहीं बल्कि करके दिखाना होगा। आतंकवाद के किसी भी स्वरूप का खंडन करना, उसके विरूद्ध विश्व जनमत को खड़ा करना ही विकल्प है।
    पाकिस्तान का एक देश के नाते अनेक क्षेत्रीय अस्मिताओं और राष्ट्रीयताओं से मुकाबला है। बलूचिस्तान और सिंध उनमें से चर्चित हैं। धर्म भी पाक को जोड़ने वाली शक्ति साबित नहीं हो पा रहा है, क्योंकि क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति को पाकिस्तान ठीक से संबोधित नहीं कर पाया। पाक अधिकृत कश्मीर के हालात और भी खराब हैं। भारत के साथ कश्मीर का जो हिस्सा है, उससे तो पीओके की तुलना ही नहीं का जा सकती। पाकिस्तान से अपना मुल्क नहीं संभल रहा है और वह कश्मीर के सपने देख रहा है। जबकि सच तो यह है कि कश्मीर को पाकिस्तान कभी लड़कर हासिल नहीं कर सकता। इस जंग में पाकिस्तान की हार तय है। वह अपने हाथ जला सकता है। खुद की तबाही के इंतजाम कर सकता है। सिर्फ अपनी आंतरिक राजनीति को संभालने के लिए वह जरूर कश्मीर का इस्तेमाल कर सकता है।

    आज विश्व मानवता के सामने शांति और सुख से रहने के सवाल अहम हैं। देशों की जंग में आम आवाम ही हारता है। इसलिए भारतीय उपमहाद्वीप को युद्ध से रोकना हर जिम्मेदार पाकिस्तानी और हिंदुस्तानी की जिम्मेदारी है। जंग से तबाही, मौतों और आर्तनाद के सिवा हमें क्या मिलेगा, यह हम भी जानते हैं। पाकिस्तान को एक रहना है, तो उसे अपने भस्मासुरों पर लगाम लगानी ही पड़ेगी अन्यथा अपने आंतरिक और बाह्य संकटों के चलते उसके टुकड़े-टुकड़े होने में अब ज्यादा देर नहीं है।

शनिवार, 24 सितंबर 2016

नेटिजन या सिटिजन क्या बनेंगे आप ?

-संजय द्विवेदी

  उपराष्ट्रपति डा.हामिद अंसारी की नई किताब सिटिजन एंड सोसाइटी के विमोचन के मौके पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कहा कि प्रौद्योगिकी के कारण लोग नेट पर आश्रित हो गए हैं, और पारंपरिक सीमाएं विलोपित हो रही हैं। बावजूद इसके परिवार देश की सबसे बड़ी ताकत है। निश्चय ही प्रधानमंत्री हमारे समय के एक बड़े सामाजिक प्रश्न पर संवाद कर रहे थे।
    आज यह तय करना मुश्किल होता जा रहा है कि हम पहले सिटिजन(नागरिक) हैं या नेटिजन(इंटरनेट पर आश्रित व्यक्ति)। नेटिजन होना जरूरत है, आदत है या स्टेटस सिंबल? ऐसे में क्या नागरिक धर्म, पारिवारिक दायित्वबोध पीछे छूट गए हैं? देशभक्ति ,राजनीति से लेकर समाजसेवा सब नेट पर ही संभव हो गयी है तो लोगों से क्यों प्रत्यक्ष मिलना? क्यों समाज में जाना और संवाद करना? नेटिजन होना दरअसल एकांत में होना भी है। क्योंकि नेट आपको आपके परिवेश से काटता भी और एकांत भी मांगता है। यह संभव नहीं कि आप नेट पर चैट भी करते रहें और सामने बैठे मनुष्य से संवाद भी। यह भी गजब है कि भरे-पूरे परिवार और महफिलों में भी हमारी उंगलियां स्मार्ट फोन पर होती हैं और संवाद वहां निरंतर है, किंतु हमारे अपने उपेक्षित हैं। महफिलों, सभाओं, विधानसभाओं, कक्षाओं, अंतिम संस्कार स्थल से लेकर भोजन की मेजों पर भी मोबाइल में लगे लोग दिख जाएंगे। मनुष्य ने अपना एकांत रच लिया है, और इस एकांत में भी वह अधीर है। पल-पल स्टेटस चेक करता है कि क्या-कहां से आ गया होगा। यह गजब समय है, जहां एकांत भी कोलाहल से भरे हैं। स्क्रीन चमकीली चीजों और रोशनियों से भरा पड़ा है। इसके चलते हमारे आसपास का सौंदर्य और प्रकृति की नैसर्गिक सुंदरता बेईमानी हो चली है। हमारे अपने प्रतीक्षा में हैं कि हम कुछ कहें, बोलें, बतियाएं पर हमें चैटिंग से फुरसत नहीं है। हम आभासी दुनिया के चमकते चेहरों पर निहाल हैं, कोई इस प्रतीक्षा में है, हम उसे भी निहारेगें। यह अजब सी दुनिया है, नेटिजन होने की सनक से भरी दुनिया, जिसने हमारे लिए अंधेरे रचे हैं और परिवेश से हमें काट दिया है। प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल करना और प्रौद्योगिकी के लिए इस्तेमाल होना दोनों दो चीजें हैं, पर हम इसका अंतर करने में विफल हैं।
 हालात यह हैं कि भरे-पूरे परिवार में संवाद की कहीं जगह बची ही नहीं है। माता-पिता और संतति सब नेटिजन बन चुके हैं। उनमें संवाद बंद है, सब के पास चमकती हुयी स्क्रीन है और उससे उपजी व्यस्तताएं। शिक्षा मंदिरों का हाल और बुरा है। कक्षा में उपस्थित शिक्षक अपने विद्यार्थियों तक नहीं पहुंच पा रहा है, मोबाइल यहां भी बाधा बना है। शिक्षक की भरी-पूरी तैयारी के बाद भी उसके विद्यार्थी ज्ञान गूगल गुरू से ही लेना चाहते हैं। शिक्षक भौंचक है। उसके विद्यार्थियों में एकाग्रता का संकट सामने है। वे कंधे उचकाकर फिर स्क्रीन पर चेक करते हैं, नए नोटिफिकेशन से बाक्स भर गया है। बहुत से चित्र, संवाद और बहुत सी अन्य चीजें उनकी प्रतीक्षा में हैं। एकाग्रता, तन्मयता, दत्तचित्तता जैसे शब्द इस विद्यार्थी के लिए अप्रासंगिक हैं। वह किताबों से भाग रहा है, वे भारी हैं और भटका रही हैं। उसे फोकस्ड और पिन पाइंट ज्ञान चाहिए। गूगल तैयार है। गुरू गूगल ने ज्यादातर अध्यापक को अप्रासंगिक कर दिया है। ज्ञान की तलाश किसे है, पहले हम सूचनाओं से तो पार पा लें। आज डिजीटल इंडिया के शिल्पकार प्रधानमंत्री अगर यह कह रहे हैं कि परिवार हमारी सबसे बड़ी ताकत है, तो हमें रूककर सोचना होगा कि प्रौद्योगिकी की जिंदगी में क्या सीमा होनी चाहिए। क्या प्रौद्योगिकी का हम प्रयोग करेंगे या वह हमारा इस्तेमाल करेगी। नेटिजन और सिटिजन क्या समन्वय बनाकर एक साथ चल सकते हैं, इस पर भी सोचना जरूरी है।

    भारत जैसे विविधता और बहुलता से भरे देश में डिजीटल इंडिया के प्रयोग एक डिजीटल डिवाइड भी पैदा कर रहे हैं। एक बड़ा समाज इन चमकीली सूचनाओं से दूर है और उस तक चीजें पहुंचने में वक्त लगेगा। सूचनाएं और संवाद किसी भी समाज की शक्ति होती हैं। वह उसकी ताकत को बढ़ाती हैं। लेकिन नाहक, प्रायोजित और संपादित सूचनाएं कई तरह के खतरे भी पैदा करती हैं। क्या हमें हमारे देश की वास्तविक सूचनाएं देने के जतन हो रहे हैं? क्या हम इस देश को उस तरह से चीन्हते हैं जैसा यह है? 128 करोड़ आबादी, 122 भाषाएं और 1800 बोलियों वाले 33 लाख वर्ग किलोमीटर में फैले देश की आकांक्षाएं, उसके सपने, उसके दुख-सुख-आर्तनाद क्या हमें पता हैं? क्या हमें पता है कि एक वनवासी कैसे बस्तर या अबूझमाड़ के जंगलों में हमारे लोकतंत्र की प्रतीक्षा में सात दशक गवां चुका है? गांव, गरीब, किसान की बातें करते-करते थक चुकी हमारी सरकारें और संवेदनहीन प्रशासनिक तंत्र क्या इस चमकीले डिजीटल इंडिया के सहारे भी हाशिए पर पड़े लोगों के लिए कोई स्पेस ढूंढ पाएगा। समर्थों की चाकरी में जुटी सारी नौकरशाही क्या लोकसेवक होने के वास्तविक अहसास से भर पाएगा। कहते हैं लोकतंत्र सौ साल में साकार होता है। सत्तर साल पूरे कर चुके इस देश में 70 प्रतिशत तो लोकतंत्र आ जाना चाहिए था, किंतु देश के बड़े बुद्धिजीवी रामचंद्र गुहा 2016 में भी हमारे लोकतंत्र को 50-50 बता रहे हैं। ऐसे में नागरिक बोध और नागरिक चेतना से लैस मनुष्यों के निर्माण में हमारी चूक साफ नजर आ रही है।  लोकतंत्र कुछ समर्थ लोगों और प्रभु वर्गों की ताबेदारी बनकर सहमा हुआ सा नजर आता है। परिवार हमारी शक्ति है और समाज हमारी सामूहिक शक्ति। व्यवस्था के काले हाथ परिवार और समाज दोनों की सामूहिक शक्ति को नष्ट करने पर आमादा हैं। समाज की शक्ति को तोड़कर, उन्हें गुटों में बांटकर राजनीति अपने लक्ष्य संधान तो कर रही है पर देश हार रहा है। समाज को सामाजिक दंड शक्ति के रूप में करना था किंतु वह राजनीतिक के हाथों तोड़ा जा रहा है, रोज और सुबह-शाम। आज समाज नहीं राजनीति पंच बन बैठी है, वह हमें हमारा होना और जीना सिखा रही है। राजरंग और भोग में डूबा हुआ समाज बनाती व्यवस्था को सवाल रास कहां आते हैं। इसलिए सवाल उठाता सोशल मीडिया भी नागवार गुजरता है। सवाल उठाते नौजवान भी आंख में चुभते हैं। सवाल उठाता मीडिया भी रास नहीं आता। सवाल उठाने वाले बेमौत मारे जाते हैं, ताकि समाज सहम जाए, चुप हो जाए। नेटिजन से पहले सिटिजन और उससे पहले मनुष्य बनना, खुद की और समाज की मुक्ति के लिए संघर्ष किसी भी जीवित इंसान की पहली शर्त है। लोग नेट पर आश्रित भले हो गए हों, किंतु उन्हें लौटना उसी परिवार के पास है जहां संवेदना है, आंसू हैं, भरोसा है, धड़कता दिल है और ढेर सारा प्यार है।

सोमवार, 19 सितंबर 2016

एक विफल देश का शोक गीत !

-संजय द्विवेदी

   पाकिस्तान प्रायोजित हमलों से तबाह भारत आज दुखी है, संतप्त है और क्षोभ से भरा हुआ है। उसकी जंग एक ऐसे देश से है जो असफल हो चुका है, नष्ट हो चुका है और जिसके पास खुद को संयुक्त रखने का एक ही उपाय है कि भारत के साथ युद्ध के हालात बने रहें। भारत का भय ही अब पाकिस्तान के एक रहने का गारंटी है।
   पाकिस्तान जैसा पड़ोसी पाकर कोई भी देश सिर्फ दुखी रह सकता है। क्योंकि पाकिस्तान में सरकार जैसी कोई चीज है नहीं, और है भी तो, सेना तथा आतंकी समूहों पर उसका कोई जोर नहीं है। ऐसे में भारत किसके साथ संवाद करना चाह रहा है, किससे रिश्ते सुधारना चाह रहा है? और इस उम्मीद में कि पड़ोसी सुधर जाएगा सात दशक बीत चुके हैं, कश्मीर से लेकर देश की आंतरिक सुरक्षा को बिगाड़ने के लिए पाकिस्तान ने कितने षडयंत्र किए यह किसी से छिपी बात नहीं है। किंतु यह सिलसिला जारी है और इसके रूकने की उम्मीद कम है। अच्छा आतंकवाद और बुरा आतंकवाद की थ्योरी पर काम कर रहे पाकिस्तान को पता है कि चीजें उसके हाथ से भी निकल चुकी हैं। वह अपने ही बनाए जाल में इस तरह फंस चुका है कि उसका सत्ता प्रतिष्ठान भी अब चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता। आतंकी संगठन और मौलाना वहां की सत्ता को इस तरह निर्देशित कर रहे हैं कि सत्ता अपने मायने खो बैठी है।
   कश्मीर की जंग को भी दरअसल जमीन पर लड़ते हुए पाकिस्तान थक चुका है। इसलिए उसने सीधी कार्रवाई के बजाए कश्मीर के युवाओं को आगे किया है। यह पत्थर फेंकने वाला गिरोह दरअसल पाकिस्तान प्रेरित गुमराह युवा हैं, जिन्हें पाकिस्तान रूपी जन्नत की हकीकत अभी पता नहीं हैं। वे आजादी के मायने में नहीं जानते वरना उन्हें पाक अधिकृत कश्मीर के हालात देखने चाहिए,जो उनसे ज्यादा दूर नहीं है। पाकिस्तान की इस आत्मघाती मानसिकता के निर्माण के पीछे दरअसल उसके जन्म की कथा को भी देखना चाहिए। वह एक ऐसा राष्ट्र है, जिसका कोई सपना नहीं है। वह हर तरह से भारत के विरोध से उपजा हुआ एक देश है। जिसने जिद करके एक भूगोल पाया है।
   पाकिस्तान की रगों में भारत-घृणा का खून है। वह एक बैचेन देश है, जिसने अपने सपने तो पूरे किए नहीं और न खुद की एकता कायम रख सका। अपने लोगों पर दमन-अत्याचार की कहानी उसने बंटवारे के बाद फिर दोहराई जिसका परिणाम बंगलादेश के रूप में सामने आया। आज भी वह बलूचिस्तान, गिलगित और पीओके में यही कर रहा है। जम्मू और कश्मीर में भी उसे शांति सहन नहीं होती। भारत में रहकर प्रगति कर रहे इलाके उसे रास नहीं आते। यहां हो रही चौतरफा समृद्धि से उसे डाह होती है। बाकी देशों की तुलना में पाकिस्तान की जलन और कुढ़न ज्यादा है, क्योंकि वह भारत से अलग होकर बना देश है। भारत विरोध उसके डीएनए में है। खुद को बनाने, विकसित करने और अपनी ज्यादातर आबादी की खुशी के बजाए उसका सारा ध्यान भारत को नष्ट करने, उसे तबाह करने में है।
    एक नष्ट हो चुका देश, अपने लोगों को न्याय दिलाने के बजाए बंदूकों और तोपों से बलूचिस्तान को रौंद रहा है। ऐसे देश से मानवीय पहल की उम्मीदें व्यर्थ हैं। उनसे यह उम्मीद करना व्यर्थ है कि वे लोगों की मौतों और आर्तनाद पर कोई संवेदना भरी प्रतिक्रिया देगें। भारत जैसे देश ने पिछले सालों में आतंकवाद के नाम पर काफी कुछ सहा है, भोगा है। यह एक अंतहीन  पीड़ा है जिससे देश अब निजात चाहता है। अपने लोगों की मौत पर उन्हें कंधा देते-देते भारत का मन दुखी है। वह एक विफल देश द्वारा दिए जा रहे जख्मों को अब और नहीं सह सकता। पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान को यह सोचना होगा कि भारत से तीन युद्ध लड़कर उसे क्या मिला?  एक देश अलग हो गया- जिसका नाम बंगलादेश है। पाकिस्तान अब एक छद्म युद्ध लड़ रहा है और भारत को उलझाए रखना चाहता है। एक विफल देश इससे ज्यादा कर भी क्या सकता है। किंतु भारत के पास अब धीरज खो देने के अलावा क्या विकल्प हैं। निश्चित ही भारत अमरीका नहीं है। वह रूस भी नहीं है, लेकिन भारत एक स्वाभिमानी राष्ट्र जरूर है। उसे पता है अपने मुकुट मणि जम्मू-कश्मीर को दिए जा रहे धावों का कैसा जवाब पाकिस्तान को देना है।

   पाकिस्तानी दरअसल एक बदहवासी में डूबा देश बन चुका है। जहां तर्क गायब हैं। जहां बुद्धिजीवियों, पढ़े-लिखे तबकों की जुबानें बंद हैं। जहां भावना के आधार पर पंथिक तकरीरें करने वाले लोग वहां का मिजाज बना रहे हैं। पाकिस्तान ने एक देश के रूप में अपने आप पर भरोसा खो दिया है। वहां पर नान स्टेट एक्टर्स ज्यादा प्रभावी भूमिका में दिखते हैं। ऐसे में इस पाकिस्तान का कायम रहना मानवता के लिए एक बड़ा संकट है। समूची दुनिया इस खतरे को देख रही है, महसूस कर रही है। भारत के जख्म भी अब नासूर बन चुके हैं। आज पाकिस्तान का सत्ता प्रतिष्ठान चाहकर भी विश्व समुदाय से कोई वादा करने की स्थिति में नहीं है। वह आतंकी समूहों के प्रति मौन रहने के लिए मजबूर है। जिन्ना का पाकिस्तान सच में बिखर चुका है। वह मानसिक,वैचारिक, सांगठनिक तीनों घरातल पर एक टूटा हुआ देश है। बहुत सी क्षेत्रीय अस्मिताएं वहां इस पाकिस्तान से मुक्ति के लिए चिंतित और प्रयासरत हैं। एक विफल देश के साथ हर कोई अपनी किस्मत नहीं जोड़ना चाहता। हर सुबह काम पर जाते पाकिस्तानी शाम को घर सुरक्षित आने की दुआएं करते हुए निकलते हैं। कराची से लेकर मुजफ्फराबाद तक यह आग फैली हुयी है। विश्व शांति के लिए खतरा बन चुके पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान से मुक्ति ही इस संकट का समाधान है। ताकि इस उपमहाद्वीप के लोग फिर से एक खूबसूरत-शांति प्रिय समाज और जमीन का सपना देख सकें। क्या एक विफल हो चुके देश से मुक्ति अब विश्व मानवता का सपना नहीं होना चाहिए? लोगों के सुख-चैन और एक बेहतर दुनिया के लिए आप कितना बर्दाश्त करेगें? भारत को तोड़ने का सपना देखने वाले अब इंतिहा कर चुके हैं। सब्र का प्याला भी भर चुका है। ऐसे समय में विश्व समुदाय को पाकिस्तान संकट का स्थार्ई हल निकालने के लिए तुरंत आगे आना चाहिए, ताकि एक सुंदर दुनिया का सपने देखने की चाहत रखने वाली आंखें थक न जाएं। 

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

लोकजीवन का चितेरा पत्रकार

-संजय द्विवेदी

   पं.श्यामलाल चतुर्वेदी और उनकी पत्रकारिता सही मायने में लोक से जुड़ी हुई है। वे लोकमन, लोकजीवन और ग्राम्य जीवन के वास्तविक प्रवक्ता हैं। वे मूलतः एक आंचलिक पत्रकार हैं, जिनका मन लोक में ही रमता है। वे गांव,गरीब, किसान और लोक अंचल की प्रदर्शन कलाओं को मुग्ध होकर निहारते हैं, उन पर निहाल हैं और उनके आसपास ही उनकी समूची पत्रकारिता ठहर सी गई है। उनकी पत्रकारिता में लोकतत्व अनिवार्य है। विकास की चाह, लोकमन की आकांक्षाएं, उनके सपने, उनके आर्तनाद और पीड़ा ही दरअसल श्यामलाल जी पत्रकारिता को लोकमंगल की पत्रकारिता से जोड़ते हैं। उनकी समूची पत्रकारिता न्याय के लिए प्रतीक्षारत समाज की इच्छाओं का प्रकटीकरण है।
  लोक में रचा-बसा उनका समग्र जीवन हमें बताता है कि पत्रकारिता ऐसे भी की जा सकती है। वे अध्यापक रहे हैं, और पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं। नई दुनिया और युगधर्म जैसे अखबारों से जुड़े रहकर उन्होंने अपने परिवेश, समुदाय और क्षेत्र के हितों को निरंतर अभिव्यक्ति दी है। मूलतः संवाददाता होने के नाते उनके विपुल लेखन का आकलन संभव नहीं है, क्योंकि संवाददाता खबरें या समाचार लिखता है जो तुरंत ही पुरानी पड़ जाती हैं। जबकि विचार लिखने वाले, लेखमालाएं लिखने वाले पत्रकारों को थोड़ा समय जरूर मिलता है। श्यामलाल जी ने अपने पत्रकारीय जीवन के दौरान कितनी खबरें लिखीं और उनसे क्या मुद्दे उठे क्या समाधान निकले इसके लिए एक विस्तृत शोध की जरूरत है। उनसे चर्चा कर उनके इस अवदान को रेखांकित किया जाना चाहिए। उनकी यायावरी और निरंतर लेखन ने एक पूरे समय को चिन्हित और रेखांकित किया है, इसमें दो राय नहीं है। अपने कुछ सामयिक लेखों से भी हमारे समय में हस्तक्षेप करते रहे हैं।
गुणों के पारखी-विकास के चितेरेः
श्यामलाल जी पत्रकारिता में सकारात्मकता के तत्व विद्यमान हैं। वे पत्रकारिता से प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने की अपेक्षा तो रखते हैं किंतु गुणों के पारखी भी हैं। उन्होंने अपनी पूरी जीवन यात्रा में सिर्फ खबर बनाने के लिए नकारात्मकता को प्रश्रय नहीं दिया। वे मानते हैं कि पत्रकारिता का काम साहित्य की तरह ही उजाला फैलाना है, दिशा दिखाना है और वह दिशा है विकास की, समृद्धि की, न्याय की। अपने लोगों और अपने छत्तीसगढ़ अंचल को न्याय दिलाने की गूंज उनकी समूची पत्रकारिता में दिखती है। वे बोलते, लिखते और जीते हुए एक आम-आदमी की आवाज को उठाते, पहुंचाते और बताते हैं। सही मायने में एक संपूर्ण संचारकर्ता हैं। वे एक बेहतर कम्युनिकेटर हैं, जो लिखकर और बोलकर दोनों ही भूमिकाओं से न्याय करता है। अपने गांव कोटमी सोनार से आकर बिलासपुर में भी वे अपने गांव, उसकी माटी की सोंधी महक को नहीं भूलते। वे भोपाल, दिल्ली और रायपुर में सत्ताधीशों के बीच भी अपनी वाणी, माटी के दर्द और उसकी पीड़ा के ही वाहक होते हैं। वे भूलते कुछ भी नहीं बल्कि लोगों को भी याद दिलाते हैं कि हमारी जड़ें कहां हैं और हमारे लोग किस हाल में हैं। व्यंग्य में कही उनकी बातें अंदर तक चुभ जाती हैं और हमें आत्मवलोकन के लिए मजबूर करती हैं।
श्रेष्ठ संचारक-योग्य पत्रकारः
 श्यामलाल जी एक योग्य पत्रकार हैं किंतु उससे बड़े संचारक या संप्रेषक हैं। उनकी संवाद कला अप्रतिम है। वे लिख रहे हों या बोल रहे हों। दोनों तरह से आप उनके मुरीद हो जाते हैं। कम्युनिकेशन या संचार की यह कला उन्हें विरासत में मिली है और लोकतत्व ने उसे और पैना बनाया है। वे जीवन की भाषा बोलते हैं और उसे ही लिखते हैं। ऐसे में उनका संचार प्रभावी हो जाता है। वे सरलता से बड़ी से बड़ी बात कह जाते हैं और उसका प्रभाव देखते ही बनता है। आज जब कम्युनिकेशन को पढ़ाने और सिखाने के तमाम प्रशिक्षण और कोर्स उपलब्ध हैं, श्यामलाल जी हमें सिखाते हैं कि कैसे लोक किसी व्यक्ति को बनाता है। श्यामलाल जी इस मायने में विलक्षण हैं। एक संवाददाता होने के नाते लोकजीवन से लेकर राजपुरूषों तक उनकी उपस्थिति रही है। किंतु वे दरबारों में भी अपनी जड़ों को नहीं भूलते। वे खरी-खरी कहते हैं और अपने लोगों के पक्ष में हमेशा एक प्रवक्ता की तरह खड़े दिखते हैं। हमारे समय में श्यामलाल जी का होना दरअसल इस कठिन में मूल्याधारित पत्रकारिता की एक मशाल और मिसाल दोनों है। जबकि बाजार की हवाओं ने लोक तत्व को ही नहीं बल्कि ग्राम्य जीवन को ही मीडिया से बहिष्कृत कर दिया है। तब भी श्यामलाल जी जैसे लोग यह याद दिलाते हैं कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है।
वेदों से पुरानी है लोक चेतनाः
   श्यामलाल जी जैसे साधक हमें बताते हैं अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। इस समय की चुनौती यह है कि हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है, जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविराय कहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोक को नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की बो नाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोक की उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है। श्यामलाल जी दरअसल इसी भावभूमि पर अरसे से काम कर रहे हैं। उनकी पत्रकारिता में यह दरअसल इसी लोकभूमि से बनी और विकसित हुई है।

    हम सबके बीच श्यामलाल जी की उपस्थिति सही मायने में एक ऐसे यात्री की उपस्थिति है, जिसकी बैचेनियां अभी खत्म नहीं हुई हैं। उनकी आंखों में वही चमक, वाणी में वही ओज और जोश मौजूद है जिसका सपना उन्होंने अपनी युवा अवस्था में देखा होगा। आज भी अखबारों या पत्रिकाओं में कुछ अच्छा पढ़कर अपनी नई पीढ़ी की पीठ ठोंकना उन्हें आता है। वे निराश नहीं हैं, हताश तो बिल्कुल नहीं। वे उम्मीदों से भरे हुए हैं, उनका इंतजार जारी है। एक उजले समय के लिए... एक उजली पत्रकारिता के लिए.. एक सुखी-समृद्ध छत्तीसगढ़ के लिए...आत्मनिर्भर गांवों के लिए.. एक समृध्द लोकजीवन के लिए। 

बुधवार, 14 सितंबर 2016

युवा ही लाएंगे हिंदी समय !

अब लडाई अंग्रेजी को हटाने की नहीं हिंदी को बचाने की है
-संजय द्विवेदी

  सरकारों के भरोसे हिंदी का विकास और विस्तार सोचने वालों को अब मान लेना चाहिए कि राजनीति और सत्ता से हिंदी का भला नहीं हो सकता। हिंदी एक ऐसी सूली पर चढ़ा दी गयी है, जहां उसे रहना तो अंग्रेजी की अनुगामी ही है। आत्मदैन्य से घिरा हिंदी समाज खुद ही भाषा की दुर्गति के लिए जिम्मेदार है। हिंदी को लेकर न सिर्फ हमारा भरोसा टूटा है बल्कि आत्मविश्वास भी खत्म हो चुका है। यह आत्मविश्वास कई स्तरों पर खंडित हुआ है। हमें और हमारी आने वाली पीढियों को यह बता दिया गया है कि अंग्रेजी के बिना उनका कोई भविष्य नहीं है। हमारी सबसे बड़ी अदालत भी इस देश के जन की भाषा को न तो समझती है, न ही बोलती है। ऐसे में सिर्फ मनोरंजन और वोट मांगने की भाषा भर रह गयी हिंदी से आप क्या उम्मीद कर सकते हैं।
      सरकारों का संकट यह है कि वे चीन, जापान, रूस जैसे तमाम देशों के भाषा प्रेम और विकास से अवगत हैं किंतु वे नई पीढ़ी को ऐसे आत्मदैन्य से भर चुके हैं कि हिंदी और भारतीय भाषाओं को लेकर उनका आत्मविश्वास और गौरव दोनों चकनाचूर हो चुका है। आप कुछ भी कहें हिंदी की दीनता जारी रहने वाली है और यह विलाप का विषय नहीं है। महात्मा गांधी के राष्ट्रभाषा प्रेम के बाद भी हमने जैसी भाषा नीति बनाई वह सामने है। वे गलतियां आज भी जारी हैं और इस सिलसिले की रुकने की उम्मीदें कम ही हैं। संसद से लेकर अदालत तक, इंटरव्यू से लेकर नौकरी तक, सब अंग्रेजी से होगा तो हिंदी प्रतिष्ठित कैसे होगी? आजादी के सत्तर साल बाद अंग्रेजी को हटाना तो दूर हम हिंदी को उसकी जगह भी नहीं दिलवा पाए हैं। समूचा राजनीतिक, प्रशासनिक, न्यायिक तंत्र अंग्रेजी में ही सोचता, बोलता और व्यवहार करता है। ऐसे तंत्र में हमारे भाषाई समाज के प्रति संवेदना कैसे हो सकती है। उनकी नजर में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएं एक वर्नाक्यूलर भाषाएं हैं। ये राज काज की भाषा नहीं है। कितना आश्चर्य है कि जिन भाषाओं के सहारे हमने अपनी आजादी की जंग लड़ी, स्वराज और सुराज के सपने बुने, जो केवल हमारे सपनों एवं अपनों ही नहीं अपितु आकांक्षाओं से लेकर आर्तनाद की भाषाएं हैं, उन्हें हम भुलाकर अंग्रेजी के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं।
     हिंदी दिवस मनाता समाज यह बता रहा है कि हम कहां हैं? यह बात बताती है कि दरअसल हिंदी के लिए बस यही एक ही दिन बचा है, बाकी 364 दिन अंग्रेजी के ही हैं। यह ढोंग और पाखंड हमारी खूबी है कि हम जिसे जी नहीं सकते, उसके उत्सव मनाते हैं। घरों से निष्काषित हो रही, शिक्षा से हकाली जा रही हिंदी अब दिनों, सप्ताहों और पखवाड़ों की चीज है। यह पाखंड पर्व निरंतर है और इससे हिंदी का कोई भला नहीं हो रहा है। राजनीति, जिससे उम्मीदें वह भी पराजित हो चुकी है।
     समाजवादियों से लेकर राष्ट्रवादियों तक ने भाषा के सवाल पर अपने मूल्यों से शीर्षासन कर लिया है। अब उम्मीद किससे की जाए?  इस घने अंधेरे में महात्मा गांधी, डा. राममनोहर लोहिया, पुरूषोत्तमदास टंडन जैसे राजनेता और मार्गदर्शक हमारे बीच नहीं हैं। जो हैं भी वे सब के सब आत्मसमर्पणकारी मुद्रा में हैं। कभी लगता था कि कोई अहिंदी भाषी देश का प्रधानमंत्री बनेगा तो हिंदी के दिन बहुरेगें। लेकिन लगता है वह उम्मीद भी अब हवा हो चुकी है। राजनेताओं ने जिस तरह से अंग्रेजी के आतंक के सामने आत्मसमर्पण किया है, वह एक अद्भुत कथा है। वहीं हिंदी समाज भी लगभग इसी मुद्रा में है। इसलिए राजनीति और उसके सितारों से हिंदी को कोई उम्मीद नहीं पालनी चाहिए। नया दौर इस अंग्रेजी और अंग्रेजियत को पालने-पोसने वाला ही साबित हुआ है। हमारे समय के एक बड़े कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना लिखते हैं- दिल्ली हमका चाकर कीन्ह, दिल दिमाग भूसा भर दीन्ह।
हिंदी में वोट मांगते और हिंदी के सहारे राजसत्ता पाने वाले ही, दिल्ली पहुंचकर सबसे पहले देश की भाषा को भूलते हैं और उन्हें प्रशासनिक तंत्र के वही तर्क रास आने लगते हैं, जिसकी पूर्व में उन्होंने सर्वाधिक आलोचना की हुई होती है। दिल्ली उन्हें अपने जैसा बना लेती है। अनेक हिंदी भक्त प्रधानमंत्री के पद तक पहुंचे पर हिंदी तो वहीं की वहीं है, अंग्रेजी का विस्तार और प्रभाव कई गुना बढ़ गया। लार्ड मैकाले जो नहीं कर पाए, वह हमारे भूमि पुत्रों ने कर दिया और गांव-गांव तक अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खुल गए। अंग्रेजी सिखाना एक उद्योग में बदल गया। अंग्रेजी न जानने के कारण आत्मविश्वास खोकर इस देश की नौजवानी आत्महत्या तक करती रही, लेकिन सत्ता अपनी चाल में मस्त है।
  ऐसे में भरोसा फिर उन्हीं नौजवानों का करना होगा जो एक नए भारत के निर्माण के लिए जुटी है। जो अपनी जड़ों की ओर लौटना चाहती है। जो जड़ों में मुक्ति खोज रही है। भरोसे और आत्मविश्वास से दमकते तमाम चेहरों का इंतजार भारत कर रहा है। ऐसे चेहरे जो भारत की बात भारत की भाषाओं में करेंगे। जो अंग्रेजी में दक्ष होंगे, किंतु अपनी भाषाओं को लेकर गर्व से भरे होंगे। उनमें हिंदी मीडियम टाइप (एचएमटी) या वर्नाकुलर पर्सन कहे जाने पर दीनता पैदा नहीं होगी बल्कि वे अपने काम से लोगों का, दुनिया का भरोसा जीतेंगे। हिंदी और भारतीय भाषाओं की विदाई के इस कठिन समय में देश ऐसे युवाओं का इंतजार कर है जो अपनी भारतीयता को उसकी भाषा, उसकी परंपरा, उसकी संस्कृति के साथ समग्रता में स्वीकार करेंगे। जिनके लिए परम्परा और संस्कृति एक बोझ नहीं बल्कि गौरव का कारण होगी।

   एक युवा क्रांति देश में प्रतीक्षित है। यह नौजवानी आज कई क्षेत्रों में सक्रिय दिखती है। खासकर सूचना-प्रौद्योगिकी की दुनिया में। जिन्होंने इस भ्रम को तोड़ दिया कि आई टी की दुनिया में बिना अंग्रेजी के गुजारा नहीं है। ये लोग ही भरोसा जगा रहे हैं। ये भारत को भी जगा रहे हैं। एक गुजराती भाषी अपनी राष्ट्रभाषा में ही इस देश को संबोधित कर प्रधानमंत्री बना है। भरोसा जगाते ऐसे कई दृश्य हैं अमिताभ बच्चन हैं, प्रसून जोशी हैं, बाबा रामदेव, नरेंद्र कोहली हैं, लता मंगेश्कर हैं। जिनके श्रीमुख और कलम से मुखरित-व्यक्त होती हिंदी ही तो देश की ताकत है। आजादी के सात दशक के बाद हिंदी दिवस मनाने के बजाए हम हिंदी को उसका वास्तविक स्थान दिलाने, घरों और नई पीढ़ी तक हिंदी और भारतीय भाषाओं को पहुंचाने का काम करें तो ही अंग्रेजी के विस्तारवाद से लड़ सकेंगे। अब लड़ाई अंग्रेजी को हटाने की नहीं, हिंदी और भारतीय भाषाओं को बचाने की है, अपने घर से बेधर न हो जाने की है।