गुरुवार, 10 अप्रैल 2014

क्या इस जंग में सिर्फ मोहरा हैं मुसलमान?



मुस्लिम समाज के वास्तविक सवालों से अलग भय फैलाने की राजनीति
-संजय द्विवेदी

  आखिर क्या बात है कि चुनाव के ठीक पहले मुस्लिम वोटों को झपट लेने की राजनीति प्रारंभ होती है और चुनाव होते ही सब उन्हें भूल जाते हैं। क्या मुसलमान सिर्फ एक वोट है या वह इस देश का एक नागरिक भी है। आखिर उसकी चिताएं भी हैं और भविष्य भी। क्या कारण है मुस्लिम समाज के वास्तविक प्रश्नों से अलग उसे भयाक्रांत कर किसी के पक्ष या किसी के विरोध में एकजुट किए जाने की राजनीति ही हर चुनाव में परवान चढ़ती है। देवबंध के विद्वानों से लेकर, शाही इमाम मौलाना बुखारी, उत्तर प्रदेश के एक मंत्री ही नहीं पूरी तथाकथित सेकुलर बिरादरी इस काम में जुट जाती है। मुस्लिम राजनीति के संकट पर बातचीत करते समय या तो हम इतनी संवेदनशीलता और संकोच से भर जाते हैं कि सत्यदूर रह जाता है या फिर उपदेशक की भूमिका अख्तियार कर लेते हैं। हम इन विमर्शों में प्रायः मुस्लिम राजनीति को दिशाहीन, अवसरवादी, कौम की मूल समस्याओं को न समझने वाली आदि-आदि करार दे देते हैं। दरअसल यह प्रवृत्ति किसी भी संकट को अतिसरलीकृत करके देखने से उपजती है।
  मुस्लिम राजनीति के संकट वस्तुतः भारतीय राजनीति और समाज के ही संकट हैं। उनकी चुनौतियां कम या ज्यादा गंभीर हो सकती हैं, पर वे शेष भारतीय समाज के संकटों से जरा भी अलग नहीं है। सही अर्थों में पूरी भारतीय राजनीति का चरित्र ही कमोबेश भावनात्मक एवं तात्कालिक महत्व के मुद्दों के इर्द-गर्द नचाता रहा है। आम जनता का दर्द, उनकी आकांक्षाएं और बेहतरी कभी भारतीय राजनीति के विमर्श के केंद्र में नहीं रही। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की राजनीति का यह सामूहिक चरित्र है, अतएव इसे हिंदू, मुस्लिम या दलित राजनीति के परिप्रेक्ष्य में देखने को कोई अर्थ नहीं है और शायद इसलिए जनता का एजेंडाकिसी की राजनीति का एजेंडा नहीं है। यह अकारण नहीं है कि मंडल और मंदिर के भावनात्मक सवालों पर आंदोलित हो उठने वाला हमारा राजनीतिक समाज बेरोजगारी के भयावह प्रश्न पर एक देशव्यापी आंदोलन चलाने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इसलिए मुस्लिम नेताओं पर यह आरोप तो आसानी से लगाया जा सकता है कि उन्होंने कौम को आर्थिक-सामाजिक रूप से पिछड़ा बनाए रखा, लेकिन क्या यही बात अन्य वर्गों की राजनीति कर रहे लोगों तथा मुख्यधारा की राजनीति करने वालों पर लागू नहीं होती ? बेरोजगारी, अशिक्षा, अंधविश्वास, गंदगी, पेयजल ये समूचे भारतीय समाज के संकट हैं और यह भी सही है कि हमारी राजनीति के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक के ये मुद्दे नहीं है। जीवन के प्रश्नों की राजनीति से इतनी दूरी वस्तुतः एक लोकतांत्रिक परिवेश में आश्चर्यजनक ही है। देश की मुस्लिम राजनीति का एजेंडा भी हमारी मुख्यधारा की राजनीति से ही परिचालित होता है। जाहिर है मूल प्रश्नों से भटकाव और भावनात्मक मुद्दों के इर्द-गिर्द समूची राजनीति का ताना बुना जाता है।
   सही अर्थों में भारतीय मुसलमान अभी भी बंटवारे के भावनात्मक प्रभावों से मुक्त नहीं हो पाए हैं। पड़ोसी देश की हरकतें बराबर उनमें भय और असुरक्षाबोध का भाव भरती रहती हैं। लेकिन आजादी के साढ़े छः दशक बीत जाने के बाद अब उनमें यह भरोसा जगने लगा है कि भारत में रुकने का उनका फैसला जायज था। इसके बावजूद भी कहीं अन्तर्मन में बंटवारे की भयावह त्रासदी के चित्र अंकित हैं। भारत में गैर मुस्लिमों के साथ उनके संबंधों की जो जिन्नावादी असहजताहै, उस पर उन्हें लगातार भारतवादीहोने का मुलम्मा चढ़ाए रखना होता है। दूसरी ओर पाकिस्तान और पाकिस्तानी मुसलमानों से अपने रिश्तों के प्रति लगातार असहजता प्रकट करनी पड़ती है। मुस्लिम राजनीति का यह वैचारिक द्वंद्व बहुत त्रासद है। आप देखें तो हिंदुस्तान के हर मुसलमान नेता को एक ढोंग रचना पड़ता है। एक तरफ तो वह स्वयं को अपने समाज के बीच अपनी कौम और उसके प्रतीकों का रक्षक बताता है, वहीं दूसरी ओर उसे अपने राजनीतिक मंच (पार्टी) पर भारतीय राष्ट्र राज्य के साथ अपनी प्रतिबद्धता का स्वांग रचना पड़ता है। समूचे भारतीय समाज की स्वीकृति पाने के लिए सही अर्थों में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। फिलवक्त की राजनीति में मुस्लिम राजनीति को अभी एक लंबा दौर पार करना है। आज की राजनीति में तो ऐसा संभव नहीं दिखता । भारतीय समाज में ही नहीं, हर समाज में सुधारवादी और परंपरावादियों का संघर्ष चलता रहा है। मुस्लिम समाज में भी ऐसी बहसे चलती रही हैं। इस्लाम के भीतर एक ऐसा तबका पैदा हुआ, जिसे लगता था कि हिंदुत्व के चलते इस्लाम भ्रष्ट और अपवित्र होता जा रहा है। वहीं मीर तकी मीर, नजीर अकबरवादी, अब्दुर्रहीम खानखाना, रसखान की भी परंपरा देखने को मिलती है। हिंदुस्तान का आखिरी बादशाह बहादुरशाह जफर एक शायर था और उसे सारे भारतीय समाज में आदर प्राप्त था। एक तरफ औरंगजेब था तो दूसरी तरफ उसका बड़ा भाई दारा शिकोह भी था, जिसनें उपनिषद्का फारसी में अनुवाद किया। इसलिए यह सोचना कि आज कट्टरता बढ़ी है, संवाद के अवसर घटे हैं-गलत है। आक्रामकता अकबर के समय में भी थी, आज भी है। यही बात हिंदुत्व के संदर्भ में भी उतनी ही सच है।
   वीर सावरकर और गांधी दोनों की उपस्थिति के बावजूद लोग गांधी का नेतृत्व स्वीकार कर लेते हैं। लेकिन इसके विपरीत मुस्लिमों का नेतृत्व मौलाना आजाद के बजाए जिन्ना के हाथ में आ जाता है। इतिहास के ये पृष्ठ हमें सचेत करते हैं। यहां यह बात रेखांकित किए जाने योग्य है कि अल्पसंख्यक अपनी परंपरा एवं विरासत के प्रति बड़े चैतन्य होते हैं। वे चाहते हैं कि कम होने के नाते कहीं उनकी उपेक्षा न हो जाए । यह भयग्रंथि उन्हें एकजुट भी रखती है। अतएव वे भावनात्मक नारेबाजियों से जल्दी प्रभावित होते हैं। सो उनके बीच राजनीति प्रायः इन्हीं आधारों पर होती है। यह अकारण नहीं था कि नमाज न पढ़ने वाले मोहम्मद अली जिन्ना, जो नेहरू से भी ज्यादा अंग्रेज थे, मुस्लिमों के बीच आधार बनाने के लिए कट्टर हो गए । आधुनिक संदर्भ में सैय्यद शहबुद्दीन का उदाहरण ताजा है, जिन्हें एक ईमानदार और उदार अधिकारी जानकार ही अटलबिहारी वाजपेयी ने राजनीति में खींचा । लेकिन जब उन्होंने अपनी मुस्लिम कांस्टिटुएंसीबनानी शुरु की तो वे खुद को कट्टर मुस्लिमप्रोजेक्ट करने लगे । कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद की शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई है, लेकिन एक समय जामिया मिलिया में मचे धमाल में वे कट्टरपंथियों के साथ खड़े दिखे ।
      मुस्लिम राजनीति वास्तव में आज एक खासे द्वंद में हैं, जहां उसके पास नेतृत्व का संकट है । आजादी के बाद 1964 तक पं. नेहरु मुसलमानों के निर्विवादित नेता रहे । सच देखें तो उनके बाद मुसलमान किसी पर भरोसा नहीं कर पाया और जब किया तब ठगा गया । बाबरी मस्जिद काण्ड के बाद मुस्लिम समाज की दिशा काफी बदली है । बड़बोले राजनेताओं को समाज ने हाशिए पर लगा दिया है । मुस्लिम समाज में अब राजनीति के अलावा सामाजिक, आर्थिक, समाज सुधार, शिक्षा जैसे सवालों पर बातचीत शुरु हो गई है । सतह पर दिख रहा मुस्लिम राजनीति का यह ठंडापन एक परिपक्वता का अहसास कराता है । मुस्लिम समाज में वैचारिक बदलाव की यह हवा जितनी ते होगी, समाज उतना ही प्रगति करता दिखेगा । एक सांस्कृतिक आवाजाही, सांस्कृतिक सहजीविता ही इस संकट का अंत है । जाहिर है इसके लिए नेतृत्व का पढ़ा, लिखा और समझदार होना जरुरी है । नए जमाने की हवा से ताल मिलाकर यदि देश का मुस्लिम अपने ही बनाए अंधेरों को चीरकर आगे आ रहा है तो भविष्य उसका स्वागत ही करेगा । वैसे भी धार्मिक और जज्बाती सवालों पर लोगों को भड़काना तथा इस्तेमाल करना आसान होता है । गरीब और आम मुसलमान ही राजनीतिक षडयंत्रों में पिसता तथा तबाह होता है, जबकि उनका इस्तेमाल कर लोग ऊंची कुर्सियां प्राप्त कर लेते हैं और उन्हें भूल जाता हैं । आभिजात्य और जमाने की दौड़ में आगे आ गए मुस्लिम नेता दरअसल अपने कौम की खिदमत और उसे रास्ता बताने के बजाए उन्हें उसी बदहाली में रहने देना चाहते हैं ।इस संदर्भ में प्रख्यात शायर अकबर इलाहाबादी का यह शेर हमारी मुस्लिम राजनीति के ही नहीं, समूची भारतीय राजनीति के चरित्र को बेनकाब करता है-
इस्लाम की अजमत का क्या जिक्र करुं हमदम
काउंसिल में बहुत सैय्यद, मस्जिद में फकत जुम्मन
इसलिए कौम के सैय्यदों (अगड़ों) को जुम्मनों (गरीबों-वंचितों) की चिंता करनी होगी और यही शुरुआत भारतीय मुस्लिम राजनीति को समूचे समाज में स्वीकृति और प्रतिष्ठा दिलाएगी। आज जरूरत इस बात की है कि मौलाना बुखारी, देवबंद के उलेमा हों या आजम खां वे अपनी कौम को एक सही रास्ता बताएं। नरेंद्र मोदी या भाजपा के खिलाफ अभियान चलाने, मुसलमानों को बरगलाने के बजाए वे अपना कार्यक्रम सामने रखें। भाजपा आज जब आगे बढ़कर मुस्लिम समाज से संवाद कर रही है तो मुस्लिम नेतृत्व को भी भरोसा रखते हुए उनकी बात सुननी चाहिए। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का हौव्वा खड़ा कर आरएसएस के लिए प्रलाप किया जा रहा है। यह कहा जा रहा है कि संघ मुस्लिम विरोधी है। जबकि वास्तविकता इसके विपरीत है। आरएसएस के नेताओं ने राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के सहयोग से मुस्लिम समाज से संवाद प्रारंभ किया है। आपातकाल के समय जमाते इस्लामी और आरएसएस के नेता कई जेलों में एक साथ थे। उनके बीच बेहतर रिश्ते भी विकसित हुए थे। इसलिए मुस्लिम वोटों की ठेकेदारी करने के बजाए मुस्लिम समाज को स्वतंत्र रूप से सोचने और अपने फैसले करने का अवसर देना चाहिए। भाजपा भी अब राजनीतिक रूप से अछूत नहीं है। उसकी अटलजी के नेतृत्व वाली सरकार में उमर अब्दुला से लेकर सभी सेकुलर दलों के लोग मंत्री रह चुके हैं। भाजपा की अटल सरकार से लेकर राज्यों में कायम उसकी सरकारों का ट्रैक भी देखने की जरूरत है। क्या ये सरकारें अल्पसंख्यकों के खिलाफ रही हैं? क्या उनके चरित्र में कहीं अल्पसंख्यक विरोधी रवैया ध्वनित होता है? सच्चाई तो यह है कि वाजपेयी सरकार ने न सिर्फ डा. एपीजे कलाम को देश के राष्ट्रपति पद पर प्रतिष्ठित किया वरन अभी के राष्ट्रपति चुनाव में एक ईसाई आदिवासी पीए संगमा को अपना समर्थन दिया। सही तो यह है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी के विरूद्ध अभियान चलाने वाले मुस्लिम वोटों के सौदागर हिंदु-मुस्लिम रिश्तों में सहजता के विरोधी हैं। ऐसे में हिंदुस्तानी मुसलमानों से यह उम्मीद की जानी चाहिए कि वे इस चुनावों में किसी बहकावे, दबाव और भय में न आकर स्वतंत्र होकर अपना प्रतिनिधि चुनें और कटुता तथा सांप्रदायिकता की राजनीति को हाशिए लगाकर बता दें कि वे अपने मत तय करने के लिए स्वविवेक से ही फैसला करते हैं, फतवों और नारों से प्रभावित होकर नहीं।
(लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं)

  

बुधवार, 9 अप्रैल 2014

अब मोदी के खिलाफ बुद्धिजीवियों का प्रलाप


मुद्दों पर भारतीय बुद्धिजीवियों का चयनित दृष्टिकोण सबसे बड़ा संकट
-संजय द्विवेदी

     देश के तमाम जाने- माने बुद्धिजीवियों ने एक दिल्ली में 7 अप्रैल को प्रेस क्लब आफ इंडिया की ओर से आयोजित एक कार्यक्रम में न सिर्फ भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को जी-भर कर कोसा वरन एक साझा बयान पर हस्ताक्षर भी किए (जनसत्ता, 8 अप्रैल,2014)। भारतीय बुद्धिजीवियों की यह लीला न पहली है न अंतिम बल्कि इससे पता चलता है कि समाज में चल रहे आलोड़न और अपनी जड़ों से वे कितने उखड़े हुए हैं। हमारे बुद्धिजीवियों का यही शुतुरमुर्गी चरित्र और मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण देश का सबसे बड़ा संकट है।
   सवाल यह उठता है कि पिछले दस सालों में मनमोहन-चिदंबरम-मोंटेंक सिंह अहलूवालिया की आर्थिक कलाबाजियों, निरंतर भ्रष्टाचार के बीच सिसकते हिंदुस्तान के साथ कितनी बार ये हस्ताक्षर करने वाले बुद्धिजीवी नजर आए? यहां तक की अन्ना के आंदोलन में भी देश की पीड़ा के स्वर देने के लिए ये महापुरूष अपने ही बनाए स्वर्गों में अटके रहे। यूआर अनंतमूर्ति, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, के. सच्चिदानंद, प्रभात पटनायक से लेकर इस बयान पर हस्ताक्षर करने वाले लगभग दो दर्जन बुद्धिजीवियों की वीरता तब कहां थी जब मुलायम सिंह यादव के राज में हर महीने एक दंगा हो रहा था। ये महापुरूष कश्मीरी पंडितों के पलायन को लेकर कितनी बार हस्ताक्षर अभियान और गोष्ठियां करते नजर आए? क्या कश्मीर के पाप के लिए आज तक किसी नेता कश्मीरी उलेमा ने माफी मांगी ? सही मायने में यह वे कायर जमातें हैं जो समय के सवालों से मुंह चुराते हुए अपनी सड़ी हुयी वैचारिकी और न समझ में आने वाली भाषा में एकालाप की अभ्यासी हो चुकी है। तीन दशकों तक पश्चिम बंगाल को अपने वैचारिक सुराज से आलोकित करने वाले ये लोग किस मुंह से गुजरात और उसके मुख्यमंत्री की आलोचना के अधिकारी हैं? यू आर अनंतमूर्ति कहते हैं कि मोदी सत्ता में आए तो हम अपने लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार खो बैठेंगें। उन्हें याद करना चाहिए कि एक बार इस देश में श्रीमती इंदिरा गांधी ने आपातकाल लागू कर हमारे लोकतांत्रिक और नागरिक अधिकार छीने थे तो उस संघर्ष की अगुवाई वामपंथियों ने नहीं, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जनसंघ के कार्यकर्ताओं ने की थी। संघ परिवार तो लोकतंत्र की मुक्ति के लिए लड़ने वाला परिवार रहा है जबकि हमारे बुद्धिजीवी संघर्ष की वेला में शुतुरमुर्गी शैली में रेत में सिर छिपा कर लुप्त हो जाते हैं। आज मोदी को कारपोरेट समर्थक बताकर कोसने वालों की नजर में सोनिया गांधी और उनके नामित प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कैसे कारपोरेट विरोधी नजर आने लगे हैं? मनमोहन सिंह ही इस देश में मनुष्य विरोधी आर्थिक नीतियों के प्रेरणाश्रोत और प्रारंभकर्ता हैं। आखिर क्या कारण है जिन मनमोहन सिंह ने खुदरा क्षेत्र में एफडीआई लागू की, उनके खिलाफ ये बुद्धिजीवी कोई बयान देते नजर नहीं आए और जिस नरेंद्र मोदी ने खुदरा में एफडीआई न लाने का वायदा किया है, वो कारपोरेट समर्थक हो गया।
  अफसोस तो यह है कि हमारे बुद्धिजीवियों की अपनी कोई राय है नहीं। वे स्वतंत्र चिंतन के बजाए मोदी फोबिया से ग्रस्त हैं। वे दंगों से भी पीड़ित नहीं हैं। वे मुलायम के दंगों, 84 में सिखों के नरसंहार, भागलपुर, मलियाना से लेकर 1947 से लेकर कितनी बार हुए दंगों से पीड़ित नहीं हैं।  उनके लेखन में भी यह पीड़ा कभी उभरकर नहीं आती वे तो बस मोदी के दंगों से पीड़ित हैं। यह जाने बिना कि आखिर गुजरात का दंगा हुआ क्यों? गुजरात के दंगे गोधरा के भीषण नरमेघ की प्रतिक्रिया में हुए थे। उस घटना के बाद गुजरात जल उठा। आखिर सेकुलर राजनीति चैंपियन मुलायम सिंह के राज में दंगें क्यों हो रहे हैं? क्या कारण है कि मुलायम सिंह दंगों की सीरीज के बावजूद सेकुलर राजनीति के मसीहा बने हुए हैं और मोदी जिनके राज में 2002 के बाद कोई दंगा नहीं हुआ वे सेकुलर बुद्धिजीवियों के निशाने पर हैं?
  सही मायने में हमारे बुद्धिजीवी मोदी के खिलाफ सुपारी किलर्स की तरह व्यवहार कर रहे हैं। आखिर यह सुपारी किसने दी है? वे कौन होते हैं भारत के एक राज्य के तीसरी बार निर्वाचित मुख्यमंत्री के खिलाफ इस प्रकार विष वमन करने वाले और लोगों को गुमराह करने वाले? भारत की जनता की समझ क्या इतनी भोथरी है कि वह सही और गलत का फैसला न कर सके। आखिर क्या कारण है देश के तमाम चुनावों में ये बुद्धिजीवी इतनी रुचि नहीं दिखाते किंतु नरेंद्र मोदी के खिलाफ ये तुरंत एकजुट हो गए। इसमें कहीं न कहीं संदेह उपजता है कि ये बुद्धिजीवी भारतीय लोकतंत्र और उसके नागरिकों के शुभचिंतक नहीं हैं। देश में पिछले दस सालों में क्या कुछ नहीं हुआ। महंगाई, भ्रष्टाचार और कदाचार के प्रतिदिन होते प्रसंगों पर, नक्सलियों के आतंक और आतंकियों की वहशत पर हमारे बुद्धिजीवियों की क्या भूमिका रही है? कहने की आवश्यक्ता नहीं है। आखिर नरेंद्र मोदी अगर देश के प्रधानमंत्री बनते हैं तो इस देश के संविधान की शपथ लेकर और जनसमर्थन के बाद ही बनेंगें। क्या हमें अपने संविधान,संसद, न्याय व्यवस्था पर भरोसा नहीं है? क्या नरेंद्र मोदी ने गुजरात में ऐसा कुछ किया है, जिसके प्रमाण इन बुद्धिजीवियों के पास हैं? सिर्फ अपने राजनीतिक विरोधों और राजनीतिक दुराग्रहों के आधार पर मोदी को लांछित करना ठीक नहीं हैं। बहुत दिन नहीं हुए जब 90 के दशक की राजनीति में लालकृष्ण आडवानी को ऐसे ही सांप्रदायिक फ्रेम में कसा जाता था। आज वे भी सेकुलर नेताओं के दुलारे हैं। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार बनने के पहले ऐसी ही आशंकाएं उनकी सरकार को लेकर भी जतायी जाती थीं। आज भी भाजपा देश के कई राज्यों गुजरात, मप्र, छत्तीसगढ़, गोवा में सत्ता में है, पंजाब में वह सहयोगी दल है। बिहार में जेडीयू की सहयोगी रही है। उप्र, कर्नाटक,महाराष्ट्र में उसकी सरकारें रही हैं। क्या वे सरकारें अल्पसंख्यकों से भेद करती नजर आयीं। क्या वे संविधान को तोड़ती नजर आयीं। जाहिर तौर पर नहीं। भाजपा और उसकी सरकारों का कामकाज कमोबेश अन्य दलों की सरकारों जैसा ही रहा है। कई मायने में बेहतर भी। दिल्ली से लेकर राज्यों तक में भाजपा के साथ सत्ता का अनुभव देश और सहयोगी दलों सबको है। आज देश की राजनीति में भाजपा अश्पृश्य नहीं है। वह देश की एक ऐसी पार्टी है जिसने अपने भौगोलिक और राजनीतिक विस्तार किया है। विविध समाजों और पंथों और क्षेत्रों तक उसकी पहुंच बनी है। वही है जो राष्ट्रपति पद के लिए डा. एपीजे कलाम को चुन सकती है और एक ईसाई आदिवासी पीए संगमा का समर्थन कर सकती है। वही है जो कश्मीर पंडितों की पीड़ा और उनके आर्तनाद में साथ खड़ी हो सकती है। वही है जिसके जिसके लिए अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक की परिभाषाएं बेमानी है। भारतीयता उसके केंद्र में है। इसे वे नहीं समझ सकते जो विदेश विचारों,विदेशी सोच और विदेशी पैसों के बल पर सोचते और बोलते हैं। कोई भी विचारधारा देश से बड़ी नहीं होती। किंतु फिर भी कुछ लोगों के लिए चीन युद्ध के समय चीन के चेयरमैन माओ उनके भी चेयरमैन लगते रहे हैं। रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण उनके लिए राजनीतिक नारा हो सकता है। किंतु जिन्हें देश की, उसके इतिहास की समझ नहीं है, उन्हें तो सरदार पटेल द्वारा सोमनाथ का उद्धार भी एक राजनीति ही लगेगा। देश के बुद्धिजीवियों से देश इसीलिए निराश है। क्योंकि वे राजनीति के आगे चलने वाली मशाल बनने के बजाए खुद राजनीति का हिस्सा बन गए हैं। ऐसी राजनीति का हिस्सा जिसे इस देश के मन की थाह नहीं है। ऐसी राजनीति जो बंटवारे और टुकड़े करने में भरोसा रखती है। उसे नरेंद्र मोदी रास कहां आएंगें? उन्हें तो मनमोहन सिंह, गुजराल, देवगौड़ा या कुछ भी दे दीजिए वे सह लेगें पर वे एक नरेंद्र मोदी को नहीं सह सकते क्योंकि उन्हें पता है कि मोदी का मतलब एक ऐसी विचारधारा है जिसके लिए राष्ट्र सर्वोपरि है जबकि इनकी परिभाषा में भारत एक राष्ट्र है ही नहीं। इनका बस चले तो ये कश्मीर पाकिस्तान को, छ्त्तीसगढ़ माओवादियों को और अरूणाचल चीन को सौंप दें। ऐसे बुद्धिजीवी इस देश को नहीं चाहिए, हम बुद्धिहीन ही सही पर देश नहीं बंटने नहीं देंगें। इसीलिए प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की आवाज जब प्रचार माध्यमों पर गूंजती है- मैं देश नहीं झुकने दूंगा तो इन बुद्धिवादियों को दर्द सबसे ज्यादा होता है, किंतु हर आम हिंदुस्तानी इस पर मंत्र झूम उठता है, झूमता रहेगा।


सोमवार, 7 अप्रैल 2014

नरेंद्र मोदी से कौन डरता है?


-संजय द्विवेदी
   लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी खुद एक मुद्दा बने हुए हैं। अपनी पार्टी के भीतर जंग तो उन्होंने जीत ली किंतु विरोधी अभी हार मानने के लिए तैयार नहीं हैं। 2002 के गुजरात दंगों की लंबी छाया उनके पीछे ऐसी पड़ी है, जैसे उसके पहले या बाद देश में दंगे हुए ही न हों। जिन राज्यों में दंगे हर माह हो रहे हैं वे भी मोदी के दंगों से दुखी हैं। ऐसा लगता है कि नरेंद्र मोदी दिल्ली तक आ गए तो क्या गजब हो जाएगा। जिन नीतीश कुमार ने अपने नेता जार्ज फर्नांडिस की दुर्गति और अपमान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, वे भाजपा के बुर्जुग नेताओं के अपमान से बहुत दुखी हैं। किंतु याद कीजिए नीतीश ने जार्ज का टिकट काट दिया था, जबकि मोदी न सिर्फ आडवानी को गुजरात से लड़ने के लिए राजी कर लेते हैं, वरन उनके परचा भरने पर उनके साथ भी दिखते हैं। जबकि मप्र में भोपाल की सीट पर आडवानी जी का इंतजार हो रहा था। जाहिर तौर पर भाजपा के दुख से दुखी अन्य दलों के नेता जब मुद्दों पर चयनित दृष्टिकोण अपनाते हैं तो पता चलता है कि इनके द्वंद किस तरह जनता के सामने प्रकट हो रहे हैं। इस चुनाव में मोदी का दंगा मुद्दा है किंतु उप्र और महाराष्ट्र में हुए दंगें मुद्दा नहीं हैं। मोदी करें तो पाप और मुलायम करें तो लीला। उप्र के दंगों की पृष्ठभूमि शुद्ध प्रशासनिक नाकामी और राजनीतिक नेतृत्व की कायरता कही जाएगी, जबकि गुजरात के दंगे गोधरा के भीषण नरमेघ की प्रतिक्रिया में हुए थे। दोनों की परिस्थितियों और दंगों को नियंत्रित करने की शैली में अंतर साफ नजर आता है। कोई भी सरकार गोधरा जैसी हिंसा के बाद हालात संभालने में कुछ वक्त लेती ही । एक लड़की से हुयी छेड़खानी के मामले को संभाल न पाने वाली उप्र की सरकार गोधरा के काण्ड के बाद की हकीकतों को जाने बिना अपनी सेकुलर छवि पर मुग्ध है। उसके मंत्री दंगाईयों को छोड़ने के लिए फोन कर रहे हैं, यह भी एक चैनल के स्टिंग आपरेशन में उजागर हो चुका है।

    ऐसे कठिन समय में जब सेकुलर जमातें मोदी को निशाने पर लेते हुए नहीं थक रही हैं, मान लिया मोदी देश के प्रधानमंत्री बन भी गए तो कौन सा वज्रपात आ जाएगा। यह तो तय मानिए कि वे मनमोहन सिंह की सरकार से बुरी सरकार नहीं चलाएंगे। जिनको तमाम सेकुलर ताकतों के साथ सपा और बसपा ने देश का बेड़ा गर्क करने के लिए समर्थन दे रखा है। 2002 के बाद अगर गुजरात में कोई दंगा नहीं हुआ तो भरोसा कीजिए कि देश में दंगों की फसल नहीं लहलहाएगी। यह आश्वासन उस मुलायम सिंह यादव की उत्तर प्रदेश सरकार से ज्यादा भरोसेमंद है, जिनके सरकार में आते ही दंगों की लाइन लग गयी है और उत्तर प्रदेश के दंगापीड़ितों ने सबसे बड़ा विस्थापन और दर्द अखिलेश के राज में ही महसूस किया। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी अगर मुद्दा हैं तो यह भारतीय राजनीति की दयनीयता का ही बखान करती है। देश के राजनीतिक दलों के 10 साल से सत्ता में बैठी कांग्रेस सरकार का कुशासन मुद्दा नहीं है, मुद्दा एक राज्य का मुख्यमंत्री है, जिस पर हाल-फिलहाल कोई ऐसा आरोप नहीं है, जिसके आधार पर उसे घेरा जा सके। 2002 को घसीटकर और उस जख्म की पपड़ियां हटाकर आखिर किसे क्या मिल रहा है, कहा नहीं जा सकता। नरेंद्र मोदी को खलनायक बनाकर किसके हित सध रहे हैं, कहने की आवश्यकता नहीं है। किंतु इतना तो साफ है कि सोनिया गांधी ने मौलाना बुखारी से समर्थन मांग कर यह साबित कर दिया है सबकी निगाहें सिर्फ मुस्लिम वोटों पर हैं। यह धुव्रीकरण की राजनीति आखिर देश को कहां ले जाएगी? राजनीति धारणाओं पर ही चलती है। मोदी को मुस्लिम विरोधी के रूप में स्थापित करने वाले दल क्या इस देश की आवाज सुन पा रहे हैं। आज देश के जन-मन की आवाज को ही महसूस करते हुए रामविलास पासवान, चंद्रबाबू नायडू, उपेंद्र कुशवाहा, उदित राज, रामदास आठवले सरीखे नेता राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन का हिस्सा बन चुके हैं। ऐसे में मोदी पर व्यक्तिगत हमले करके हम ही इस चुनाव को व्यक्ति केंद्रित बना रहे हैं। मुसलमानों में भयग्रंथि पैदा करके हम देश के भविष्य के साथ खेल रहे हैं। दरअसल मोदी की राजनीति इन्हीं छद्मों को संबोधित कर रही हैं। ये देखना कितना आश्चर्यजनक है मोदी धर्म के आधार के पर बंटवारे के खिलाफ बोल रहे हैं और सोनिया गांधी बुखारी की मिजाजपुर्सी में लगी हैं। जाहिर तौर पर मोदी विरोधियों ने पूरे चुनाव को मोदी विरोध और समर्थन में बदल दिया है। यूं लग रहा है जैसे कि ये गुजरात के मुख्यमंत्री का चुनाव है। जबकि चुनाव तो दिल्ली की सरकार के लिए हो रहे हैं। दिल्ली की सरकार और उसके कामकाज, जनता के मौलिक सवालों पर मोदी संवाद कर रहे हैं। मोदी विरोधी सिर्फ मोदी को कोस रहे हैं। क्या मोदी को रोकना किसी भी तरह की जनतांत्रिक राजनीति का एजेंडा हो सकता है। मोदी को रोकने के लिए शायद ये दल मनमोहन सिंह या कांग्रेस की सरकार को पांच साल और ढोने के लिए तैयार हो जाएं। ऐसा ही दावानल भाजपा की दिल्ली की सरकार बनने पर मचाया गया था। आखिर अटलबिहारी वाजपेयी की दिल्ली की सरकार किस मायने में कम सेकुलर थी। इस सरकार में फारूख अब्दुला के बेटे उमर भी मंत्री थे। आज की सेकुलर राजनीति के मसीहा नीतीश कुमार, ममता बनर्जी सब वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके हैं। इतना ही नहीं राष्ट्रपति चुनाव में भी भाजपा ने एक ईसाई आदिवासी संगमा को एनडीए ने अपना समर्थन दिया था। ये हालात बताते हैं राजनीति में कोई सिद्धांत या विचारधारा के आधार पर चलना नहीं चाहता, सब अपनी सत्ता, स्वार्थ या सुविधा के आधार पर फैसले करते हैं। नरेंद्र मोदी इसी तरह की विचारहीनता के खिलाफ एक आवाज हैं। उनका देशीपना, उनके वक्तव्यों से आती माटी की महक, उनका साधारण परिवार और परिवेश से आना, एक कुशल प्रशासक और संगठनकर्ता होने की उनकी पहचान कहीं न कहीं लोगों को आतंकित कर रही है। जिस तरह अपने राजनीतिक विरोधियों को उन्होंने समाप्त किया है, वह भी विरोधियों में दहशत भर रही हैं। लेकिन इतना तो मानना होगा कि नरेंद्र मोदी का भारतीय राजनीति में आविर्भाव कोई साधारण घटना नहीं है। अपने जीवन और कर्म से उन्होंने जो हासिल किया है और जो हासिल करने की ओर बढ़ रहे हैं उसने उनको उनको एक परिघटना में बदल दिया है। वे ही ऐसे हैं जो पहले जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं के दिल में उतरे और बाद में दल ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार धोषित किया। एक मुख्यमंत्री होने के नाते उनकी लोकप्रियता और प्रशासनिक क्षमता ही नहीं हिंदी में कुशल व साधारण संवाद की शैली उन्हें बड़ा बनाती है। भारत जैसे महादेश में उनकी यह लोकछवि आज सब पर भारी है। गुजरात जैसे छोटे राज्य के मुख्यमंत्री होते हुए दिल्ली की ओर यह प्रयाण भी साधारण नहीं है। आप आज उनसे नफरत तो कर सकते हैं पर उन्हें नजरंदाज नहीं कर सकते। मोदी की यही ताकत है और यही उनकी सीमा भी है।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

अवसरवाद और परिवारवाद के बीच जनतंत्र

-संजय द्विवेदी
  भारतीय समाज में हो रहे तमाम सकारात्मक बदलावों के बावजूद हमारी राजनीति और राजनीतिक दल इससे मुक्त दिखते हैं। उनको किसी भी तरह से नैतिक नियमों में बांधना हमें और आपको निराश ही करेगा। वे गिरते हुए ही स्वाभाविक दिखते हैं।यह गिरावट चौतरफा है। एक नयी पार्टी जिसने आम आदमी को उम्मीदों को पंख लगा दिए थे, उसने भी गिरावट में होड़ सी ले ली है, शायद यह कहते हुए कि हम किसी से कम नहीं। टिकट वितरण से लेकर मतदान तक जिस तरह के खेल होंगें, उन्हें कई बार देखा और परखा गया है। यहां विचारधाराएं और वाद ठिठके हुए खड़े हैं। हर दिन एक नायक एक नई धारा का हिस्सा बन जाता है। पिछले दिन कही गयी बातों और आचरण से ठीक विपरीत बात कहता और आचरण करता हुआ। क्या ये भारतीय राजनीति के सबसे बेचारगी भरे दिन नहीं हैं? क्या ये दिन हमें यह नहीं बताते कि अब हमें राजनीति से नैतिक अपेक्षाएं पालना बंद कर देना चाहिए? किसी एक घटना या एक बात से एक आदमी पूरा का पूरा खारिज और एक बेहतर खबर से वह आसमान पर। इस टीवी समय ने मूल्यांकन के ऐसे ही तुरंतवादी रवैये हमें दिए हैं। हम लोटपोट हो जाते हैं या खारिज कर देते हैं। सुनने, सहने, पढ़ने और समझने का अवकाश इतना कम क्यों होता जा रहा है?
  पिछले कुछ महीनों में हर हफ्ते हमारे नायक बदलते रहे हैं। कभी मोदी, कभी केजरीवाल तो कभी राहुल गांधी। टीवी को नाटक चाहिए। उसे ड्रामा चाहिए पर क्या समाज को भी ड्रामा चाहिए? या समाज को उस ड्रामे का हिस्सा होना चाहिए? ऐसे सवाल हम सबको मथ रहे हैं। राजनीति कभी इतनी सच्ची और अच्छी नहीं थी किंतु कुछ मूल्य थे, विचार थे, आंदोलन थे और उन सबके साथ कुछ लोग थे, जिन पर समाज भरोसा कर सकता था। इस भरोसे की डोर से बहुत कुछ टूटने से बचा रहता था। लेकिन देखिए सीटों को लेकर भाजपा के प्रथम पंक्ति के नायकों के बीच कैसा हाहाकार, दैन्य और विलाप नजर आया। वानप्रस्थ में भी सीट न छोड़ने के तैयार लोग भी यह कहते हैं कि पाप किया जो संसद में आया। भाजपा के लौहपुरूष ने तो अपने हाथों ही जो रचा उस पर आप सहानुभूति के अलावा क्या जता सकते हैं। कांग्रेस ही अच्छी थी जिसके प्रधानमंत्री बिना कोई लोकसभा टिकट मांगें और किसी की सीट छीने दस साल राज कर गए। यहां नरेंद्र मोदी जी की सीट ही कई चैनलों के लिए दिन-रात का चना-चबैना बन गयी। राजनीति और लोकतंत्र की चुनौतियों के बजाए आला एंकर भी मोदी की सीट पर ज्वलंत विमर्श कर रहे हैं। इधर केजरीवाल के साथ भोजन करने वाले जनतंत्र के प्रेमियों को नागपुर में सिर्फ दस हजार रूपए प्लेट पर भोजन उपलब्ध था। 
अवसरवाद एक विचारधाराः अवसरवाद राजनीतिक क्षेत्र में सबसे बड़ी विचारधारा के नाते उभरा है। मौका देखकर चौका लगाने वालों की बन आई है। सत्ता मिलने की आस हो तो कोई अछूत नहीं रह जाता। भाजपा के साथ खड़े तमाम चेहरों को देखकर आपको सत्ता फेवीकोल की तरह नजर आएगी। रामविलास पासवान, रामदास आठवले, उदित राज, रामकृपाल यादव,जगदंबिका पाल, भागीरथ प्रसाद, उदयप्रताप राव, बृजभूषण शरण सिंह, वायको और रामदास जैसे तमाम नाम हैं, जिन्हें अचानक भाजपा और उसके नेता मोदी में तमाम सकारात्मक बदलाव नजर आने लगे। इस जूलूस में तमाम पुराने कांग्रेसी, समाजवादी सब शामिल हैं। राजनीति की निर्ममता ही देखिए कि जीवन भर का तप, एक टिकट की बलिबेदी पर चढ़ जाता है। भाजपा की महिला मोर्चा की अध्यक्ष रहीं, अटलजी की भतीजी करूणा शुक्ला की बेबसी देखिए वे बिलासपुर से कांग्रेस के टिकट पर मैदान में हैं। मूल्य इस तरह भी शीर्षासन कर रहे हैं। सफलता का मूल्य है, राजनीति में प्रतिशोध के गहरे भाव हैं। ऐसे ही हिंदुस्तानी राजनीति फल-फूल रही है। लोकतंत्र का पर्व सही मायने में किसी बदलाव की सूरते हाल को बताने वाला होने के बजाए अवसरवादियों की प्रतिष्ठा का मंच बन गया है। यहां अवसरवाद एक विचार बनकर पूरे राजनीतिक परिदृश्य पर छाया हुआ है। बदलाव और परिवर्तन का दम भरने वाली ताकतें भी यहीं आत्मसमर्पण की मुद्रा में हैं। इसलिए चुनाव के बाद कोई क्रांतिकारी परिर्वतन समाज जीवन या राजनीति में देखने को मिलेंगें, सोचना बेमतलब लगता है।

परिवारवाद बना शक्तिः नई पीढ़ी परिवारों से आ रही है। सुविधाओं की कोख से आ रही है और जनसंर्घषों को घता बताकर आ रही है। राजपुत्रों की पूरी एक पीढ़ी पिछले सदन में लोकसभा पहुंची और इस बार भी उसकी बड़ी संख्या में आमद संभावित है। राजनीति का इस तरह घरानों में कैद हो जाना बताता है कि सारा कुछ बहुत सहज नहीं है। देश के लाखों-करोड़ों राजनीतिक कार्यकर्ताओं के संघर्ष को घता बताकर जब कोई राजपुत्र सत्ता की देहरी पर चढ़ जाता है तो दिल टूटते हैं। किंतु एक समय में कार्यकर्ताओं को परखकर उनका निर्माण करने वाली राजनीतिक परंपराएं भी अपने घरों में से ही उत्तराधिकारी खोज रही हैं। परिवार से बाहर न निकलने वाली राजनीति, आखिर कैसे जनधर्मी हो सकती है ? कैसे वह सरोकारों से जुड़ सकती है? ऐसे में हमारी नयी राजनीतिक जमात के पास जमीन के अनुभव और संघर्ष की कथाएं अनुपस्थित हैं। वे अपने पिता की लंबी छाया में स्थापित जरूर हो जाते हैं किंतु जनता से रिश्ता नहीं बना पाते। परिवारवाद की इस बीमारी से अब सारे दल ग्रस्त हैं। किसी भी दल को यह कहने का अधिकार नहीं बचा है कि वह जनता के बीच से नेतृत्व को विकसित कर रहा है। इसके साथ ही दलों की विचारधारात्मक दूरी समाप्त हो चुकी है। विचारधारा के अंत की भविष्यवाणियों के बीच राजनीतिक दल इसके जीवंत प्रतीक दिखते हैं। दलों की पहचान करने वाले विचार अब नहीं बचे हैं, सिर्फ झंडे बचे हैं जिनसे दलों को अलग किया जा सकता है। ऐसे कठिन समय में आत्मविश्वास से भरे एक राजनेता की तलाश पूरा हिंदुस्तान कर रहा है। जिसका जीवन निष्कलंक हो और उसके मन में एक आग हो। बदलाव और परिर्वतन की वह आग ही इस देश के राजनीतिक और सामाजिक चरित्र को बदल सकती है। भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी इस बदलाव का प्रतीक बनकर उभरे हैं। उनकी सोच और काम करने के तरीके की प्रस्तुति अहंकारजन्य भले दिखती हो किंतु वे युवा भारत की आकांक्षाओं का प्रतीक बन सकते हैं। अरविंद केजरीवाल भी एक ऐसे ही प्रतीक बन सकते थे किंतु चीजों का गलत आकलन और सत्ता पाने की हड़बड़ी ने उन पर अविश्वास गहरा किया है। राहुल गांधी एक ऐसी पार्टी के नायक हैं, जिसने पिछले 10 सालों में देश को खासा निराश किया है। ऐसे में उन अकेले के भरोसे हिंदुस्तानी मतदाता छले जाने के लिए तैयार नहीं हैं। इस कठिन समय में मतदाताओं को इस चुनाव में अपने विवेक का सही इस्तेमाल करते हुए एक ऐसी सरकार चुननी है जो भारत की आकांक्षाओं, उसके सपनों को उसके नजरिए से देख और पूरा कर सके। जनता का विवेक एक बार फिर कसौटी पर है। लोकतंत्र की परिपक्वता के लिए यह जरूरी भी है कि जनता इस इम्तहान में दिल से ज्यादा दिमाग से काम ले।

बुधवार, 12 मार्च 2014

इस लहूलुहान लोकतंत्र में!

माओवादी आतंक के सामने सरकारों के घुटनाटेक रवैये से बढ़ा खतरा
-संजय द्विवेदी


वो काली तारीख भूली नही हैं अभी, 25 मई,2013 की शाम जब जीरम घाटी खून से नहा उठी थी। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं सहित 30 लोगों की निर्मम हत्या के जख्म अभी भरे नहीं थे कि जीरम घाटी एक बार फिर खून से लथपथ है। 11 मार्च,2014 की तारीख फिर एक काली तारीख के रूप में दर्ज हो गयी, जहां 16 जवानों की निर्मम हत्या कर नक्सली नरभक्षी अपनी जनक्रांति का उत्सव मनाने जंगलों में लौट गए। आखिर ये सिलसिला कब रूकेगा।
    माओवादी आतंकवाद के सामने हमारी बेबसी की हकीकत क्या है? साथ ही एक सवाल यह भी क्या भारतीय राज्य माओवादियों से लड़ना चाहता है? वह इस समस्या का समाधान चाहता है? खून बहाती जमातों से शांति प्रवचन की भाषा, संवाद की कोशिशें तो ठीक हैं किंतु खून का बहना कैसे रूकेगा? किसके भरोसे आपने एक बड़े इलाके की जनता और वहां तैनात सुरक्षा बलों को छोड़ रखा है। माओवाद से लड़ने की जब हमारी कोई नीति ही नहीं है तो कम वेतन पर काम करने वाले सुरक्षाकर्मियों और पुलिसकर्मियों को हमने इन इलाकों में मरने के लिए क्यों छोड़ रखा है? उनकी गिरती लाशों से सरकारों को फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि वे किन्हीं और कामों में लगी हैं। राजनीति और नेताओं  के पास पांच साल की ठेकेदारी के सपनों के अलावा सोचने के लिए वक्त कहां हैं? वे चुनाव से आगे की नहीं सोचते। चुनाव नक्सली जिता दें या बंग्लादेशी घुसपैठिए उन्हें फर्क नहीं पड़ता। ऐसे खतरनाक समय में भारतीय लोकतंत्र के खिलाफ घोषित युद्ध लड़ रहे माओवादी विचारकों के प्रति सद्भावना रखने वाले विचारकों की भी कमी नहीं है। उन्हें बहता हुआ खून नहीं दिखता क्योंकि वे विचारधारा के बंधुआ हैं। उन्हें लाल होती जमीन के पक्ष में कुतर्क की आदत है। इसलिए वे नरसंहारों के जस्टीफाई करने से भी नहीं चूकते। जबकि यह बात गले से उतरने वाली नहीं है कि माओवादी जनता के साथ हैं। ताजा मामले में भी हुयी घटना विकास के कामों को रोकने के लिए अंजाम दी गयी है।
   माओवादी नहीं चाहते कि भारतीय राज्य, राजनीति, राजनीतिक दलों की उपस्थिति उनके इलाकों में हो। वे किसी भी तरह की सामाजिक-राजनीतिक और विकास की गतिविधि से डरते हैं। वे अंधेरा बनाने और अंधेरा बांटने में ही यकीन रखते हैं और सही मायने में भय के व्यापारी हैं। इसमें दो राय नहीं कि उन्होंने जंगलों में अपनी सक्रियता से एक बड़े समाज को भारतीय राज्य के विरूद्ध कर दिया है। जो बंदूकें लेकर हमारे सामने खड़े हैं। किंतु उनकी इस साजिश के खिलाफ हमारी विफलताओं का पाप कहीं बड़ा है। यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता ही है कि माओवादी हमारे बीच इतने शक्तिवान होते जा रहे हैं। हम न तो उनके सामाजिक आधार को कम कर पा रहे हैं न ही भौगोलिक आधार को। यह बात चिंता में डालने वाली है कि जो माओवादी निरंतर भारतीय राज्य को चुनौती देते हुए हमले कर रहे हैं उसके प्रतिकार के लिए हम क्या कर रहे हैं? अकेले छत्तीसगढ़ को लें तो वे 6 अप्रैल,2010 को दंतेवाड़ा में सीआरपीएफ के 75 जवानों सहित 76 लोगों को मौत के घाट उतार देते हैं। 25 मई,2013 को उनका दुस्साहस देखिए वे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं विद्याचरण शुक्ल, महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल, उदय मुद्लियार सहित 30 लोगों की घेरकर निर्मम हत्या कर देते हैं और उसके बाद भी हम चेतते नहीं हैं। देश के 9 राज्य और 88 जिले आज माओवादी हिंसा से प्रभावित हैं। वर्ष 2013 में 1136 माओवादी आतंक की घटनाएं हो चुकी हैं। जाहिर तौर पर हमारी सरकारों का रवैया घुटनाटेक ही रहा है। इससे माओवादियों के मनोबल में वृद्धि हुयी है और वे ज्यादा आक्रामक तरीके से सामने आ रहे हैं। यह भी गजब है राजनीति ऐसे तत्वों और अभियानों से लड़ने के बजाए उनको पाल रही है। माओवादियों को सूचना, हथियार और मदद देने वालों में राजनीतिक दलों के लोग शामिल रहे हैं। कई ने तो चुनावों में उनका इस्तेमाल भी किया है। किंतु सवाल यह उठता है जो काम हम पंजाब में कर चुके हैं। आंध्र में कर चुके हैं, पश्चिम बंगाल में ममता कर चुकी हैं, उसे करने में छत्तीसगढ़ में परेशानी क्या है। क्या कारण है सशस्त्र बलों की क्षमता बढ़ाने पर हमारा जोर नहीं है। अब तक सैनिक मरते थे तो सरकारें लापरवाह दिखती थीं। अब जब हमारे बड़े राजनेताओं तक भी माओवादी आतंक पहुंच रहा है, तब राजनीति की निष्क्रियता आशंकित करती है। भारतीय राज्य की दिशाहीनता और कायरता ने ये दृश्य रचे हैं। इसे कहने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए कि जब कोई राज्य अपने लोगों की रक्षा न कर सके तो उसके होने के मायने क्या हैं।

   आवश्यकता इस बात की है कि हम कैसे भी हिंसक गतिविधियों को रोकें और अपने लोगों को मौत के मुंह में जाने से बचाएं। जनजातीय समाज इस पूरे युद्ध का सबसे बड़ा शिकार है। वे दोनों ओर से शोषण के शिकार हो रहे हैं। सही मायने में यह भारतीय लोकतंत्र की विफलता है कि हमने प्रकृति से आच्छादित सुंदर क्षेत्रों को रणक्षेत्र बना रखा है। ये इलाके जहां नीरव शांति, प्रेम, सहजता और सरल संस्कृति के प्रतीक थे आज अविश्वास,छल और मरने-मारने के खेल का हिस्सा बन गए हैं। सच तो यह है कि हमारी सरकारें माओवादी आतंकवाद के प्रति गंभीर नहीं है वे घटना होने के बयानबाजी के बाद फिर अपने नित्यकर्मों में लग जाती हैं। सही मायने में वे आतंकवाद से लड़ना नहीं चाहती हैं। उनमें इतना आत्मविश्वास नहीं बचा है कि वे देश के सामने उपस्थित ज्वलंत सवालों पर बात कर सकें। सरकारों का खुफिया तंत्र ध्वस्त है और पुलिस बल हताश। ऐसे में बस्तर जैसे इलाके एक खामोश मौत मर रहे हैं। यहां दिन-प्रतिदिन कठिन होती जिंदगी बताती है, ये युद्ध रूकने के आसार नहीं हैं। हिंसा और आतंक के खिलाफ खड़े हुए सलवा जूडुम जैसे आंदोलन भी अब खामोश हैं। माओवादी आतंक के खिलाफ एक प्रखर आवाज महेंद्र कर्मा अब जीवित नहीं हैं। माओवाद के खिलाफ इस इलाके में बोलना गुनाह है। कहीं कोई भी दादा लोगों (माओवादियों) का आदमी हो सकता है। पुलिस के काम करने के अपने अजीब तरीके हैं जिसमें निर्दोष ही गिरफ्त में आता है। न जाने कितने निर्दोष माओवादियों के नाम पर जेलों में हैं लेकिन माओवादी आंदोलन बढ़ रहा है क्योंकि सरकारें मान चुकी हैं यह युद्ध जीता नहीं जा सकता है। किंतु इस न जीते जाने युद्ध के चलने तक सरकार कितनी लाशों, कितनी मौतों, कितने जन-धन और सार्वजनिक संपत्ति के नुकसान के बाद मैदान में उतरेगी, कहना कठिन है।

सोमवार, 10 मार्च 2014

चुनावी समर में भाजपा की सोशल इंजीनिरिंग

-संजय द्विवेदी
 देश की हर पार्टी को यह हक है कि वह अपने सामाजिक और भौगोलिक विस्तार के न सिर्फ सपने देखे, बल्कि उसे हकीकत में बदलने के जतन भी करे। राष्ट्रीय रंगमंच पर जैसे-जैसे चुनावी गतिविधियां तेज हो रही हैं, भाजपा में अपने सामाजिक आधार के विस्तार की तड़प साफ दिख रही है। लगभग आधे भारत में अनुपस्थित भाजपा की समस्या यह है कि वृहत्तर हिंदू समाज की रहनुमाई का दम भरने वाली इस पार्टी के छाते के नीचे अभी भी एक बड़ा समाज नहीं है। खासकर दलितों ,आदिवासियों और पिछड़ों के बीच इसे अपनी स्थाई जगह अभी बनानी है। शायद इसी को भांपते हुए पार्टी ने ताबड़तोड़ ऐसे फैसले लिए हैं जिससे एक वातावरण बने कि भाजपा के छाते के नीचे वृहत्तर हिंदू समाज एकत्र तो हो ही रहा है और बड़ी संख्या में अल्पसंख्यक भी उसके छाते के नीचे आ रहे हैं। पार्टी के अध्यक्ष राजनाथ सिंह के मुसलमानों से माफी मांगने के बयान को इस रोशनी में देखा जा सकता है।
दलितों की जगहः भाजपा और संघ परिवार की लाख कोशिशों के बावजूद दलित नेतृत्व का अभाव पार्टी को हमेशा महसूस होता रहा है। सूरजभान, बंगारू लक्ष्मण सरीखे एकाध नेताओं को छोड़ दें तो भाजपा के दलित नेता राष्ट्रीय रंगमंच पर अपनी जगह नहीं बना पाए। वहीं दूसरे दलों से आए संघप्रिय गौतम जैसे नेता भी भाजपा में उस तरह रच-बस नहीं पाए कि वे दल को कोई शक्ति दे पाते। अब भाजपा ने इसकी तोड़ के लिए एक बार फिर जतन शुरू किए हैं। इंडियन जस्टिस पार्टी के नेता उदित राज को भाजपा में शामिल कर इस ओर एक बड़ा कदम उठाया है। संजय पासवान जैसे बिहार भाजपा के दलित नेता इस दिशा में निरंतर प्रयास कर रहे हैं। वे बाबा साहेब अंबेडकर से लेकर कांशीराम और जगजीवन राम के चित्र अपने कार्यालय में लगाकर यह संदेश देने की कोशिश कर रहे हैं कि भाजपा दलितों के सवालों पर गंभीर है। यहां बौद्ध और हिंदु एकता के प्रयास भी देखे जा रहे हैं। जैसे भाजपा शासित मध्यप्रदेश में बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना कर वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने एक बड़ा कदम उठाया है। जिससे दुनिया भर के बौद्ध धर्मावलंबी देश आकर्षित हुए हैं। बौद्ध विश्वविद्यालय की स्थापना सांची(मप्र) में करने का एक प्रतीकात्मक महत्व भी है। उदित राज भी एक ऐसे नेता हैं जो हिंदु समाज की तमाम रीति-नीति पर सवाल खड़े करते हुए बौद्ध बन गए थे। उनका भाजपा में आना एक संकेत जरूर है कि राजनीति में बदलाव आ रहा है। भाजपा का दिल भी बड़ा हो रहा है और उसमें अन्य विचारों के लिए भी जगह बन रही है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में रिपब्लिकन पार्टी आफ इंडिया के नेता रामदास आठवले आज राजग गठबंधन के एक बड़े नायक बन चुके हैं। भाजपा ने अपने राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रकाश जावडेकर के स्थान पर उन्हें समर्थन देकर राज्यसभा में भेजा है। जाहिर तौर पर भाजपा की यह उदारता अकारण नहीं है। वह अपने सामाजिक विस्तार की पीड़ा में बहुत से कदम उठाते हुए, ज्यादा सरोकारी और ज्यादा व्यापक बनने की कोशिशों में लगी है। इसी तरह रामविलास पासवान की पार्टी को सप्रयास राजग में लाना साधारण नहीं है। इस फैसले से बिहार के राजनीतिक समीकरणों में अकेली पड़ी भाजपा को जहां राहत मिलेगी, वहीं दलितों के बीच एक राष्ट्रीय अपील भी बनेगी। इसमें दो राय नहीं कि देश में मायावती, रामविलास पासवान, रामदास आठवले और उदितराज ऐसे नाम हैं, जिन्हें दलित नेता के नाते जाना-पहचाना जाता है। इनमें मायावती को छोड़कर तीनों आज राजग और भाजपा के मंच पर हैं।हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भजनलाल के बेटे कुलदीप विश्नोई के साथ गठबंधन बना हुआ है। इसी तरह तमिलनाडु में वायको का साथ आना भी भाजपा की राजनीति को सफल बनाता है। जयललिता के तीसरे मोर्चे के मंच पर जाने से भाजपा का अकेलापन तमिलनाडु में वायको निश्चित ही भरने में सफल होंगें। वैसे भी वे वाजपेयी सरकार में मंत्री रह चुके हैं।

पिछड़े वर्ग के प्रधानमंत्री का नाराः भाजपा लंबे समय तक पिछड़ों में लोकप्रिय रही है। किंतु 1990 के बाद हुए सामाजिक बदलावों ने भाजपा को काफी पीछे छोड़ दिया। पूरा उत्तर भारत सामाजिक न्याय की शक्तियों की लीलाभूमि बन गया, जिसमें समाजवादी विचारधारा से आने वाले पिछड़े वर्गों के अनेक नेता प्रभावी हो गए।  वहीं रही सही कसर भाजपा के कल्याण सिंह, उमा भारती जैसे नेताओं की नाराजगी ने पूरी कर दी। इससे सबक लेकर भाजपा ने पहले अपने नाराज नेताओं को मनाया और आज कल्याण सिंह व उमा भारती दोनों पार्टी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में पुनः दल में शामिल हो चुके हैं। वहीं उप्र में स्व.सोनेलाल पटेल जो अपना दल बनाकर कुर्मियों में खास आधार रखते थे, की बेटी अनुप्रिया पटेल का समर्थन भाजपा ने हासिल कर लिया है। बिहार में कुशवाहा समाज के प्रमुख नेता  उपेंद्र कुशवाहा का तालमेल भी भाजपा से हो चुका है।इसके साथ गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के पिछड़ा वर्ग से आने के कारण मिलने वाले लाभ पर भी भाजपा की नजर है। मोदी अपने भाषणों में अपनी जाति और काम (चाय बेचना) दोनों की याद दिलाना नहीं भूलते हैं। निश्चित ही इसके अपने अर्थ हैं और यह नाहक कही जा रही बात तो कतई नहीं है। पिछले चुनाव में भी भाजपा ने उप्र में अजीत सिंह के साथ तालमेल किया था, किंतु सत्ता आते ही वे कांग्रेस के गठबंधन में शामिल हो गए। इस बार भाजपा अपने साथियों के चुनाव में सर्तकता तो बरत रही है किंतु वह इस चुनाव को लेकर खासी गंभीर भी है। दो चुनावों की हार ने उसके आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया है, यही कारण है उप्र के पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह, मप्र की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती,कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री वीएस येदुरप्पा, गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशूभाई पटेल जैसे तमाम नेताओं को साथ लेकर वह परिवार की एकता और पिछड़ा वर्गों के नेतृत्व की एकजुटता का संदेश देना चाहती है। आज देश में उसके पास कर्ई पिछड़ा वर्ग के नेता हैं जो उसका आधार बढ़ाने में सहायक हैं। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, बिहार के नेता प्रतिपक्ष सुशील कुमार मोदी जैसे चेहरे भाजपा को राहत देते नजर आते हैं। भाजपा की इस सोशल इंजिनियरिंग में अकेले झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी शेष हैं। बाकी अपने सारे बागियों को भाजपा अपने मंच पर वापस ला चुकी है। यह साधारण नहीं है कि भाजपा से बगावत करने वाले ज्यादातर बड़े नेताओं में आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग के नेता ही शामिल थे। इस पर भाजपा को विश्लेषण करने की जरूरत है कि आखिर वह क्या कारण है कि पार्टी इन वर्गों के नेताओं की शक्ति और जनाधार का सही उपयोग नहीं कर पाती और वे बगावत की सीमा तक चले जाते हैं। कल्याण सिंह, उमा भारती, बाबूलाल मरांडी, प्रहलाद पटेल, वीएस येदुरप्पा, शंकर सिंह बाधेला, केशूभाई पटेल जैसे तमाम नाम इसी परंपरा में आते हैं। भाजपा में मोदी युग का आरंभ होने के बाद एक बार फिर बिखरा भाजपा परिवार एक हो रहा है। देखना है कि यह एकता और नए समीकरण चुनाव को किस तरह प्रभावित करते हैं।

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

अंगड़ाई लेता तीसरा मोर्चा

-संजय द्विवेदी


    तीसरा मोर्चा भारतीय राजनीति का एक अजूबा है किंतु वह है और हर चुनाव के पहले अपनी अहमियत जताने के लिए प्रकट हो ही जाता है। तीसरे मोर्चे के अलग-अलग शिल्पकार हर बार उसे खड़ा कर ही देते हैं और मंच पर उसके दिग्गजों की एकता बताती है कि सारा कुछ बदलने ही वाला है। इस बार इस एकता के सूत्रधार हैं माकपा नेता प्रकाश कारात। अब तक इस मोर्चे में लगभग 11 पार्टियां शामिल हो चुकी हैं जिनमें वाममोर्चा( सीपीआई, सीपीएम, आरएसपी, फारवर्ड ब्लाक), जेडी(एस), जेडी(यू), सपा, बीजेडी, झारखंड विकास मोर्चा और अन्नाद्रमुक शामिल हैं।
   जाहिर तौर पर ऐन चुनाव के वक्त इस कवायद के मायने बहुत स्पष्ट हैं। कांग्रेस की पलती हालत और भाजपा को सत्ता से रोकने की चाह में एकत्र ये दल एक सपने के तहत एकजुट हैं। किंतु संकट यह है कि इस मोर्चॆ में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार भी कई हैं। वहीं एक व्यापक मोर्चा बनने में भी इसमें खासी बाधाएं हैं। जैसे की मुलायम सिंह यादव के नाते मायावती इस मोर्चे के साथ नहीं आ सकतीं तो वहीं वाममोर्चा के नाते ममता बनर्जी भी इससे दूर हैं। ऐसे में तीसरे मोर्चे के दलों में व्यापक आम सहमति के आसार नजर नहीं आते हैं। हां उनकी उम्मीदें इस बात पर जरूर हैं कि अगर कांग्रेस सत्ता की दौड़ से बाहर होती है और 100 से 150 सीटों पर  सिमटती है ,तो तीसरे मोर्चे को समर्थन देकर वह भाजपा और मोदी का रथ रोक सकती है। यह एक ऐसी कल्पना है जिसके आधार पर ही यह एकजुटता व्यापक होती हुयी दिखती है। यह एकता दलअसल मुद्दों के आधार पर नहीं एक संभावित अवसर के नाम पर हैं।
  तीसरे मोर्चे में शामिल पार्टियों में सबसे बड़ी उम्मीद तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता हैं। उन्हें नरेंद्र मोदी के खेमे में माना जा रहा था। यह लगभग तय था कि वे राजग की सरकार बनने पर मोदी का समर्थन करेंगीं। किंतु प्रकाश करात की यह बड़ी सफलता है कि वे जयललिता को राजग की ओर जाने से खींच लाए। अब हालात यह हैं कि जयललिता की आंखों में प्रधानमंत्री का सपना तैरने लगा है। अपने खासे जनाधार और द्रमुक नेता करूणानिधि के परिवार में पड़ी फूट ने उनको एक अवसर दिया है कि वे इस तरह के सपने देख सकें। तमिलनाडु की 65 वर्षीय इस मुख्यमंत्री की पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव में 9 सीटें जीती थीं। अब माहौल के मद्देनजर वे राज्य की चालीस लोकसभा सीटों में ज्यादातर पर जीत के सपने देख रही हैं। तीसरे मोर्चे में शामिल सभी दलों में सबसे बड़े दल के रूप में उभरने पर जयललिता अपने सपनों को हकीकत में बदलता देख सकती हैं। आज हालात यह हैं कि पूरे तमिलनाडु में जयललिता की पार्टी उनको प्रधानमंत्री बनाने का अभियान चला रही है। पार्टी का एक ही नारा है तमिलनाडु और पांडिचेरी का सारी सीटें जीतकर लोकसभा में अपनी नेता को स्थापित करना।
  इसी तरह मोर्चे में शामिल मुलायम सिंह यादव के समर्थक भी उत्तर प्रदेश में भारी जीत दर्ज कराकर दिल्ली के सपने देख रहे हैं। 74 साल के हो चुके मुलायम सिंह यादव के लिए यह एक तरह से आखिरी पारी भी है। उप्र के मुख्यमंत्री और देश के रक्षामंत्री रह चुके मुलायम सिंह के लिए अब सिर्फ प्रधानमंत्री का पद ही बचा है। पिछले लोकसभा चुनावों में उनके दल को उप्र में 23 लोकसभा सीटें मिली थी। अब नेता जी चाहते हैं कि उप्र से ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतें ताकि तीसरे मोर्चे के प्रधानमंत्री के लिए वे सबसे आगे हों। बावजूद इसके उप्र में उनके बेटे अखिलेश यादव की सरकार की असफलताएं और दंगों के दाग शायद बड़ी जीत दिला पाएं। किंतु उनकी हर सभा में नेता जी को प्रधानमंत्री बनाने के गीत गाए जा रहे हैं। 80 लोकसभा सीटों वाले इस प्रदेश में मायावती के बाद अब भाजपा भी जोर बांध रही है। मोदी की लहर वहां एक भाजपा के लिए एक बड़ा अवसर बन सकती है।
 क्षेत्रीय दलों की बढ़ती हसरतें इसलिए भी उफान पर हैं क्योंकि लोगों को लग रहा है कि कांग्रेस और भाजपा के नेतृत्व वाले गठबंधन बड़ी सफलताएं पाते हुए नहीं दिख रहे हैं। कांग्रेस जहां डूबता हुआ जहाज दिख रहा है वहीं भाजपा की बढ़त भी सीमित दिख रही है। फिर भाजपा देश के तमाम इलाकों से अभी भी अनुपस्थित है। ऐसे में तीसरे मोर्चे का उत्साह चरम पर है। वामपंथी नेताओं की सबसे बड़ी चिंता सिर्फ मोदी के रथ को रोकने की है किंतु संकट यह है कि वाममोर्चा तो अपने गढ़ पश्चिम बंगाल में ही बेहाल है। ममता बनर्जी के तेवरों के चलते वाममोर्चा को लोकसभा चुनावों में भी बहुत बड़ी सफलता मिलने की उम्मीद नहीं दिखती। दूसरी ओर क्षेत्रीय दलों इस संभावना से भरे- पूरे हैं कि वे अवसर आने पर राजग की राह पकड़ सकते हैं। शायद इसके चलते प्रकाश कारात अभी से उनको गठबंधनों के साथ बांधना चाहते हैं। इस बंधन से शायद नरेंद्र मोदी को समर्थन देने को लेकर दलों में हिचक पैदा हो। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के अटलबिहारी वाजपेयी प्रयोग की सफलता से भी राजग को लेकर क्षेत्रीय दलों में एक स्वाभाविक आकर्षण है किंतु तीसरे मोर्चे के आगाज से तमाम दल अब अलग राह पकड़ रहे हैं। तीसरे मोर्चे की शक्ति ही उसकी सीमा है। एक तो यह मोर्चा किसी राजनैतिक प्रतिबद्धता के कारण नहीं कांग्रेस-भाजपा विरोध के बीच एक तीसरी तान छेड़ने का वाहक है। दूसरा इसके नेताओं का आपसी समन्वय भी गायब है।
 प्रधानमंत्री पद को लेकर भी राजनेताओं की महत्वाकांक्षाएं आपस में टकरा सकती हैं। एक समय में स्व. हरिकिशन सिंह सुरजीत तीसरे मोर्चे के नायक बने थे और तमाम क्षेत्रीय आकांक्षाओं का साधने का काम उन्होंने किया था। आने वाले समय में प्रकाश करात इस भूमिका में कितने प्रभावशाली साबित होते हैं कह पाना कठिन है। नेताओं के आपसी द्वंद, उनकी क्षेत्रीय अपील, राज्यों के मुद्दे और केंद्रीय राजनीति में एक प्रभावशाली हस्तक्षेप जैसे सवाल इससे जुड़े हैं। तीसरे मोर्चे की सरकारों को देखें तो वे प्रायः किसी राष्ट्रीय नेता के आभामंडल के इर्द-गिर्द बनती नजर आयी हैं। वीपी सिंह, चंद्रशेखर, इंद्रकुमार गुजराल ऐसे ही राजनेता थे। इनमें अकेले देवगौड़ा ऐसे थे जिन्हें क्षेत्रीय नेता कहा जा सकता है। दूसरी ओर इन दलों का संकट यह है कि वे भाजपा के खिलाफ सब एकजुट नहीं होगें। क्योंकि उनमें आपसी मतभेद बहुत गहरे हैं। उप्र में मुलायम और मायावती, प.बंगाल में वाममोर्चा और ममता बनर्जी, बिहार में लालू प्रसाद यादव और नीतिश कुमार के मतभेद बेहद गहरे हैं। ऐसे में वाममोर्चा नेताओं की कोशिशों के बावजूद तीसरा मोर्चा बहुत व्यापक आकार नहीं ले सकता।

   सत्ता कैसे विचारों को बदलती है उसे देखना हो तो वाजपेयी सरकार की याद कीजिए। सेकुलरिज्म और भाजपा विरोध के नारों की असलियत भी उस समय खुल गई जब भाजपा की गठबंधन की सरकार को उमर अब्दुल्ला से लेकर रामविलास पासवान, नीतिश कुमार, जार्ज फर्नांडीस, जलललिता, ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू की पार्टियां समर्थन देती नजर आईं। ऐसे में तीसरा मोर्चा एक सपना है जिसके सच चुनाव परिणामों के बाद ही सामने आएंगें। तीसरे मोर्चे की सारी कोशिश मोदी की रफ्तार और गति को थामने की है। राजग की ओर दलों को जाने से रोकने के लिए प्रकाश करात ने यह सारा कुछ रचा है, जिसके परिणाम अभी बहुत जाहिर नहीं हैं। अब जबकि चुनावी महाभारत का शंखनाद हो चुका है। सारे सेनानी मैदान में उतर चुके हैं तो यह देखना रोचक होगा कि कांग्रेस, भाजपा, आप के बीच एक चौथा कोण कौन सी लहरें पैदा करता है। अपने दिग्गज नायकों की मैदानी सफलताओं से भी तीसरे मोर्चे का भविष्य लिखा जाएगा, लेकिन क्या भरोसा कब कौन नेता अपनी फौज के साथ तीसरे मोर्चे को छोड़कर किसी दूसरे मोर्चे में खड़ा दिखा। यही एक बात तीसरे मोर्चे की विश्वसनीयता पर सबसे बड़ा सवाल है। डा. राममनोहर लोहिया कहा करते थे जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करती। शायद इसीलिए दिल्ली में बनी तीसरे मोर्चे की कोई सरकार पांच साल नहीं चली। प्रकाश करात की कोशिशों को सलाम कीजिए कि उन्होंने फिर से तीसरे मोर्चे को जिंदा कर दिया है और भारतीय राजनीति फिर एक रोचक मोड़ पर खड़ी हो गयी है।

रविवार, 16 फ़रवरी 2014

केजरीवालः पलायन या नई मंजिल की तलाश ?


-संजय द्विवेदी
    दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह का वातावरण बनाकर अपनी सरकार को शहीद किया, ऐसे दृश्य भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में नहीं देखे गए। सच कहें तो वे एक ऐसे नायक की तरह सामने आए जो अपनी ही सरकार से मुक्ति चाहता था। ऐसा करके अरविंद को क्या हासिल होगा, अभी इसका आकलन होना शेष है किंतु यह तो तय है कि यदि वे चाहते तो सरकार बनी रह सकती थी। कांग्रेस के जिन नेताओं ने इस सरकार को समर्थन दिया था उनको भी कल्पना नहीं रही होगी यह सरकार इतनी जल्दी गिर जाएगी।
   दो महीने से भी कम समय में अरविंद केजरीवाल ने जिस तरह से काम किया उसने कोई उम्मीद नहीं जगाई पर इतना तो साबित कर ही दिया कि उन पर अराजकतावादी होने का आरोप बहुत नाजायज नहीं है। सत्ता में होकर जिस अपेक्षित धैर्य, गंभीरता और सबको साथ लेकर चलने के औदार्य की जरूरत है, वह अरविंद और उनके साथियों में पहले दिन से नदारद है। देश सेवा के अहंकार से भरी देहभाषा और न जाने किस भ्रष्टाचार से जूझने की कसमें खाते अरविंद की विदाई ने सही मायने में देश को निराश किया है। जिस दौर में गठबंधन एक राजनीतिक मजबूरी हो चुके हों उसमें यह जिद कि पूरा बहुमत मिलने पर ही सरकार चलाएंगें एक तरह का बाल हठ ही है और राजनीतिक नासमझी भी है। 1990 के बाद देश की राजनीति और उसका विमर्श पूरी तरह बदल गया है। खासकर विचारधारा के स्तर पर विविध विरोधी विचारधाराओं के दल भी साथ आकर सरकार चला रहे हैं। आप देखें तो पहले  गठबंधन को लेकर कांग्रेस रवैया खासा अलग रहा है। एक अखिलभारतीय पार्टी होने के नाते वह गठबंधन की सरकारों को समर्थन तो देती रही पर खुद गठबंधनों का नेतृत्व करने से केंद्रीय स्तर पर परहेज करती रही। किंतु राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के रूप में अटलबिहारी वाजपेयी सरकार के प्रयोग के बाद कांग्रेस की हिचक दूर हुयी और वह सत्ता में पिछले दस सालों से बनी हुयी है। यानि कि विरोधी विचारों के दलों के साथ मिलकर सरकार चलाने की मजबूरी को दोनों प्रमुख दल भाजपा और कांग्रेस भी समझते हैं। किंतु दिल्ली की सरकार के नायक केजरीवाल इस बात को नहीं समझ सके। अगर पूर्ण बहुमत मिलने पर ही सरकार बनाना था तो उसी समय आप को सत्ता से दूर हो जाना था जब वह जनता के पास जाकर सत्ता में जाने की अनुमति मांग रहे थे। पर यह कितना विरोधाभास है कि जो पार्टी सत्ता को लेकर संकोच से इतनी भरी हो कि वह दिल्ली की जनता के बीच जाकर रायशुमारी करती रही। वही सत्ता छोड़ने के वक्त अपने नेता की सनक पर सत्ता से बाहर हो जाती है और दिल्ली के लोगों की राय उसके लिए बेमानी हो जाती है। यानि यह अरविंद और उनके साथियों की मरजी है कि वे कब किस सवाल पर जनता से राय पूछें और कब न पूछें।
       तमाम अप्रिय प्रसंगों के बीच अरविंद और उनके साथी अब सत्ता मुक्त हैं। यानि अब वे अपनी करने के लिए स्वतंत्र और स्वच्छंद भी हैं। लेकिन दिल्ली के बहुत कम दिनों के सत्ता प्रसंग ने उनके द्वंद्वों को उजागर ही किया है। सत्ता ने उनके विचारों और व्यवहारों को दूरी को तो उजागर किया ही है, अहंकार और अहमन्यता से भरी देहभाषा ने उनकी सनकों का भी लोकव्यापीकरण किया है। खुद को उजली परंपरा का उत्तराधिकारी मानना और दूसरों को कीचड़ में लिपटा हुआ कहने की उनको आजादी है किंतु आंदोलनों की उजास और संषर्घ की आंच को उन सबने धीमा किया है ,इसमें दो राय नहीं है। उनका सत्ता छोड़कर भागना बताता है कि वे सत्ता तो चाहते हैं पर अपनी शर्तों पर चाहते हैं। वे यह मानने को तैयार नही हैं कि दिल्ली विधानसभा की 70 में वे सिर्फ 28 सीटें वे जीते हैं और शेष दिल्ली ने जनादेश दूसरे दलों को दिया है। ऐसे में शेष जनादेश प्राप्त दलों को हाशिए पर रखकर, उनकी आवाज न सुनकर वे एक अधिनायकत्व से भरी पारी खेलना चाहते हैं। जाहिर है लोकतंत्र में इस तरह के हठों के लिए जगह कहां है। समन्वय,संवाद और लोकतांत्रिक विमर्श में उनका यकीन ही नहीं दिखता। वे संवाद को सिर्फ सौदा समझते हैं। जबकि संवाद, लोकतंत्र की बुनियाद बनाता है। अगर संवाद न होगा तो लोकतंत्र के मायने क्या रह जाएंगें? आरोप- आरोप और आरोप की राजनीति इस देश को कहीं नहीं ले जाएगी, हमें यह समझने की जरूरत है।
    एक मुख्यमंत्री के नाते वे जनता का बहुत भला कर सकते थे। लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी के दर्द को कम कर सकते थे। किंतु वे भाग गए, इस पलायन में भी वे अवसर ढूंढ सकते हैं। किंतु इसे कहा तो पलायन ही जाएगा। एक ऐसी चीज के लिए जिद जो हो नहीं सकती ,वह बताती है कि अरविंद किस कदर सरकार गिराने पर आमादा थे और सरकार की शहादत के नाम पर आगामी लोकसभा चुनाव में अपने दल का विस्तार चाहते थे। उनकी घबराहट और पलायन दोनों के संदेश साफ हैं कि वे सत्ता के साथ सहज नहीं थे। उन पर पड़ने वाले दबावों को वे झेल सकने की स्थिति में नहीं थे। उनका राजनीतिक डीएनए एक विद्गोही का है, सो सत्ता में रहते हुए वे उस तरह के आचरण करने पर आलोचना की जद में आ रहे थे (याद कीजिए उनका दिल्ली के सीएम के रूप में दिया गया घरना)। आप देखें तो पूरी राजनीतिक प्रक्रिया और तंत्र को लांछित करते अरविंद और उनके साथी मीडिया के द्वारा जरा सी आलोचना पर किस कदर बौखला पड़ते हैं। भाषा और उसके संयम का तो खैर जाने ही दीजिए। अरविंद और उनके साथियों ने सही मायने में देश की जनता और दिल्ली के लोगों से छल किया है। उन्होंने उन लोगों की उम्मीदों के साथ छल किया है, जो उनकी तरफ बहुत आशा से देख रहे थे। दिल्ली की सरकार को पूरी तनदेही और जवाबदेही से चलाते हुए वे एक जनपक्षधर राजनेता की तरह उभर सकते थे।

   अब सवाल यह है कि जिनसे एक छोटा सा राज्य दिल्ली और दो दलों का गठबंधन नहीं संभलता वे केंद्रीय राजनीति में आकर क्या करना चाहते हैं? यहां उन्हें कैसे और कब पूर्ण बहुमत मिलेगा और कब वे सत्ता के लिए तैयार होंगें, कहा नहीं जा सकता। अरविंद अपनी अपनी तमाम खूबियों के बावजूद अंततः एक आंदोलनकारी हैं। यही उनकी शक्ति और सीमा दोनों है। जबकि देश को एक मजबूत, कद्दावर प्रशासक का इंतजार है। जो देश को उसकी तमाम राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, व क्षेत्रीय आकांक्षाओं के साथ साध सके। दिल्ली में गठबंधन की ही सही, पर एक मजबूत सरकार दे सके। जो देश के सवालों से टकरा सके न कि उनका सामना होते ही पलायन कर जाए। आम आदमी पार्टी ने देश के लोगों की तमाम सदिच्छाओं के बावजूद जिस तरह निराश किया है, उसमें यही लगता है यह दल भी कुछ विद्रोही युवाओं का संगठन बनकर रह जाएगा। भारत जैसे महादेश के प्रश्नों और उसके मर्म तक पहुंचकर उसके प्रश्नों से जूझने की शक्ति तो फिलहाल आप में नहीं दिखती। उसके साथ जुड़े तमाम बुद्धिजीवी, रचनाकारों और पत्रकारों को चाहिए वे एक लंबी और सुदीर्ध तैयारी के साथ लोगों के बीच प्रकट हों, तभी यह देश आप जैसे प्रयोगों पर भरोसा कर पाएगा। लोगों की भावनाओं से खेलने ,उन्हें उद्वेलित करने और उनका इस्तेमाल करने से इस तरह के तमाम भावी प्रयोग और आंदोलन भी शक के घेरे में आएंगें कृपया ऐसा मत कीजिए। उम्मीद है कि कि आम आदमी पार्टी अपने भावी कदमों में अपेक्षित परिपक्वता का परिचय देगी और देश की जनाकांक्षाओं को सही संदर्भ में समझकर आचरण करेगी।