मंगलवार, 15 अक्तूबर 2013

उदार लोकतांत्रिक विचारों का मंच है प्रवक्ता

प्रवक्ता डाट काम के पांच साल पूरे होने पर विशेष लेखः संजय द्विवेदी

  प्रवक्ता डाट काम की सफलता को देखना और अनुभूत करना मेरे जैसे साधारण लेखक के लिए सुख देने वाला है। एक खास विचारधारा से जुड़े लोग इसे चलाते हैं जो अब मेरे मित्र भी हैं। किंतु प्रवक्ता ने संवाद की धारा को एकतरफा नहीं बहने दिया। प्रवक्ता के संचालकगण अपनी सोच और विचारधारा के प्रति खासी प्रतिबद्धता रखते हैं। उनके लेखन, आचरण और संवाद में उनकी इस वैचारिक निष्ठा का हर क्षण प्रमाण मिलता है। संजीव सिन्हा को जानने वाले इस अनुभव करते ही होंगें। किंतु प्रवक्ता एक विमर्श का मंच बना, एक उदार लोकतांत्रिक विचारों का संग्रह आपको यहां दिखता है।
    मुझे याद है कि मैंने एक बार राहुल गांधी की यात्राओं और उस बहाने उनकी देश को जानने की तड़प की चर्चा करते हुए शाहजादे की तारीफ में काफी कुछ लिख दिया। मुझे लगा शायद यह प्रवक्ता में न लग सके, पर यह मेरा नियमित मंच है इसलिए मेल किया और वह लेख बिना संपादित हुए जस का तस प्रकाशित हुआ।http://www.pravakta.com/prince-landed-on-the-road यह  मेरे लिए चौंकाने वाली ही बात थी। किंतु भरोसा कीजिए कि प्रवक्ता में प्रो.जगदीश्वर चतुर्वेदी जैसै वामपंथी, गिरीश पंकज जैसे गांधीवादी चिंतक भी लिखते हैं। सही मायने में यह लेखकों का एक ऐसा मंच है जिसने बाड़ नहीं लगाई, खूंटा नहीं गाड़ा और विचारों को उदार और स्वस्थ मन से जगह दी। इस विचारहीन समय में विचारों के लिए ऐसी उदारता मुख्यधारा के मीडिया में कहां है? कारपोरेट मीडिया में बाजारू विचारों और नारों के लिए खासी जगहें हैं, किंतु गंभीर राजनीतिक-सामाजिक विमर्शों के लिए उनके पास स्थान कहां है? नए मीडिया के प्रवक्ता जैसे अवतार हमें आश्वस्त करते हैं और आम लेखक को मंच भी देते हैं।
प्रवक्ता ने दी पहचानः
  मैं लगभग चौदह साल सक्रिय पत्रकार रहा, पांच सालों से अध्यापन में हूं। किंतु राष्ट्रीय स्तर पर मुझे न्यू मीडिया ने ही पहचान दिलाई। प्रवक्ता डाट काम, भड़ास फार मीडिया डाट काम, हिंदी डाट इन, सृजनगाथा, विस्फोट के माध्यम से मेरा लेखन छत्तीसगढ़ और मप्र की सीमाओं को पार देश के तमाम पाठकों तक पहुंचा। प्रवक्ता का इसमें विशेष योगदान है। मेरे लगभग 140 से अधिक लेख छापकर प्रवक्ता ने मुझे जो सम्मान दिया है, उसे मैं भूल नहीं सकता। मुझे लगता है काश न्यू मीडिया हमारी पूर्व की पीढी को भी मिला होता तो हिंदी के पास न जाने कितने नायक होते। मैं आज भी सोचता हूं हजारों- लाखों पत्रकार आंचलिक पत्रकारिता में अपना चिमटा गाड़े बैठे रहे और उनको देश सुन और पढ़ नहीं सका। किंतु आज हमारे जैसे नाकाबिल और अल्पज्ञानियों को भी देश में एक पहचान मिली क्योंकि न्यू मीडिया हमारे समय में उपस्थित है। न्यू मीडिया के इस जादू ने कितने लेखक और पत्रकार गढ़े यह कहना कठिन है, किंतु न्यू मीडिया के ना होने के दौर में कितनी प्रतिभाओं के परिचय से हिंदुस्तान वंचित रह गया वह सोचने की बात है। क्योंकि उस दौर में क्षेत्रीय और राष्ट्रीय पत्रकारिता की सीमाएं बहुत स्पष्ट थीं। दिल्ली गए बिना, वहां संपादक बने बिना, मोक्ष कहां मिलता था? आप कल्पना करें राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी ने इंदौर से दिल्ली की दौड़ न लगाई होती और धर्मवीर भारती और सर्वेश्वर इलाहाबाद में चिमटा गाड़े रहते तो देश उन्हें क्या इस तरह जानता? किंतु आज देश के किसी भी कोने में बैठा युवा दिल्ली के कान में अपनी आवाज पहुंचा देता है तो इस न्यूमीडिया को सलाम करने को जी चाहता है। हमारे आशीष अंशू की उमर क्या है-पूरे देश उसे जानता है, पंकज झा रायपुर से किसी पर भी तोप मुकाबिल करते हैं और अखबार निकाले बिना। अनिल सौमित्र का वार्षिक आयोजन चौपाल देश भर में चर्चा का केंद्र बन जाता है। गया (दिल्ली) गए बिना फेसबुक ही आपको मोक्ष दिला देता है। जो रचेगा वही बचेगा का नारा अब सच हो रहा है।
सब कुछ छप जाने का समयः

कितना भी लिखो सारा कुछ छपने का यह समय है। कचरा भी, अब कचरा नहीं रहा, वरना पहले तो अपने लेखों की हस्तलिखित पांडुलिपियों को देखते हुए ही लोग बुढ़ा जाते थे। आज वे ब्लाग पर अपने लिखे चमकीले अक्षरों को कम्प्यूटर स्क्रीन पर देखकर मुग्ध होते हैं। एकाध लाइक, कमेंट पाकर निहाल होते रहते हैं। भाई जिंदगी को जीने के लिए और क्या चाहिए। न्यू मीडिया ने चाहे-अनचाहे हमें मुगालते ही नहीं दिए हैं, हमारी दुनिया भी बहुत बड़ी कर दी है।आज हर लेखक अंतर्राष्ट्रीय हो सकने की संभावना से भरा है। ऐसे तमाम लेखकों को संजीव सिन्हा, भारतभूषण और उनकी टीम ने एक मंच दिया है। आकाश दिया है। मैं अपने को भी उन्हीं लेखकों की सूची में रखता हूं जो न्यू मीडिया के चलते अखिलभारतीय हैं। क्योंकि दिल्ली शहर से मेरी सक्रिय पत्रकारिता की जिंदगी में कुल तीन-चार मुलाकातें हुयी हैं एक (सन् 2000 में) सुधीर अग्रवाल से उनके सैनिक फार्म हाउस के मकान में भास्कर की नौकरी मांगते वक्त, दो (सन् 2002) भारतीय विद्या भवन के दीक्षांत समारोह के समय डा. नामवर सिंह के सुखद सानिध्य में बैठकर व्याख्यान देते हुए और तीन पिछले दिनों गुरूदेव स्व. डा.सुरेश अवस्थी की बेटी श्रुति की शादी के वक्त। चौथी बार प्रवक्ता के आयोजन में शामिल होने 18 अक्टूबर ,2013 को दिल्ली आ रहा हूं। मैंने दोस्तों के बीच में अपना यह जुमला दुहराना भी अब बंद कर दिया है कि संजय द्विवेदी और बाल ठाकरे दिल्ली नहीं जाते। आदरणीय ठाकरे जी अब रहे नहीं, अब अकेला ही मैं इस संकल्प को कितना ढो सकूंगा? वैसे भी प्रवक्ता के 18 अक्टूबर के आयोजन में मेरा आना साधारण नहीं है,यह एक आभार भी है उस मंच का जिसने मुझे मेरे कद,पद और लेखन से ज्यादा जगह दी, प्यार दिया । इस प्यार की डोर ही दिल्ली से डरने वाले, दिल्ली जाने में संकोच से भरे एक इंसान को दिल्ली ला रही है- आमीन!

मंगलवार, 10 सितंबर 2013

अंतिम व्यक्ति को न भूलना ही महानताः दिग्विजय सिंह

     



     वरिष्ठ पत्रकार और राजनेता बी.आर.यादव पर एकाग्र पुस्तक ‘कर्मपथ का लोकार्पण
बिलासपुर। 7 सितंबर। मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अखिलभारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव दिग्विजय सिंह का कहना है कि पद पर रहते हुए अंतिम व्यक्ति को न भूलना ही राजनीतिज्ञ की महानता होती है। वे यहां मप्र शासन में मंत्री रहे वरिष्ठ पत्रकार श्री बी.आर.यादव के लोक अभिनंदन और उन पर एकाग्र पुस्तक 'कर्मपथ'  का विमोचन समारोह को संबोधित कर रहे थे। पुस्तक का संपादन माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया है।
   मीडिया विमर्श पत्रिका द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम के मुख्यअतिथि की आसंदी से संबोधित करते हुए श्री दिग्विजय सिंह ने कहा कि श्री बीआर यादव से उनका संबंध 1977 से है पर उन्होंने भूल से भी किसी की कभी बुराई नहीं की। यादव एक नेता होने से ज्यादा समाजवादी हैं। पद पर रहते हुए भी उन्हें राज्य के अंतिम व्यक्ति की चिंता रहती थी। उनकी राजनीतिक सूझबूझ के सिर्फ वे ही नहीं, दूसरे नेता भी कायल रहे हैं। यही वजह कि मैं अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में हमेशा उनसे सलाह करके ही कोई कदम उठाता था।
  कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे छत्तीसगढ़ विधानसभा के अध्यक्ष धरमलाल कौशिक ने कहा कि श्री बी.आर. यादव का समूचा जीवन सादा जीवन और उच्च विचार का उदाहरण है। अपने कार्यकाल में वे एक अच्छे राजनीतिज्ञ रहे जो पक्ष-विपक्ष दोनों से तालमेल बिठाकर चलते थे। इसलिए वे सभी के चहेते हैं। उनका कोई विरोधी नहीं है। राजनीति के क्षेत्र में जो उचाईयां पहले थीं आज नहीं रह गयी हैं। किंतु श्री यादव जैसे नेताओं का अनुसरण करके आगे वह दौर वापस लाया जा सकता है।
  केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री डा. चरणदास महंत ने कहा कि बीआर यादव उन नेताओं में हैं जिन्होंने छत्तीसगढ़ राज्य के गठन में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया के नारे को भी उन्होंने जीवंत बनाया।
अजातशत्रु हैं बी.आर.यादवः  
   छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री अमर अग्रवाल ने कहा कि यादवजी राजनीति के अजातशत्रु हैं। वे ऐसे व्यक्तित्व हैं, जिनका न तो कोई पहले शत्रु था न आज है। राजनीति में उनका नाम ऐसे नेताओं में शामिल है, जिसकी प्रशंसा सभी करते हैं। इस अवसर पर छत्तीसगढ़ विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रवींद्र चौबे, विधायक धर्मजीत सिंह, समाजवादी चिंतक रघु ठाकुर, पत्रकार पं.श्यामलाल चतुर्वेदी, गोविंदलाल वोरा, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर, मप्र लोकसेवा आयोग के पूर्व अध्यक्ष विनयशंकर दुबे ने भी आयोजन को संबोधित किया। इस अवसर पर नगर की अनेक संस्थाओं ने श्री बीआर यादव को शाल-श्रीफल देकर सम्मान किया।
संजय द्विवेदी का सम्मानः
 इस अवसर पर मुख्यअतिथि दिग्विजय सिंह ने कर्मपथ के संपादक संजय द्विवेदी को शाल-श्रीफल और प्रतीक चिन्ह देकर सम्मानित किया। उन्होंने कहा पुस्तक का संपादन कर संजय द्विवेदी ने एक ऐतिहासिक काम किया है। क्योंकि इससे राजनीतिक इतिहास का एक संदर्भ बनेगा जिससे आने वाली पीढियां इस दौर के नायक बीआर यादव को जान-समझ सकेंगीं।

क्या है पुस्तक मेः
    श्री बी.आर. यादव पर केंद्रित पुस्तक कर्मपथ में मप्र और छत्तीसगढ़ के अनेक प्रमुख राजनेताओं, पत्रकारों एवं साहित्यकारों के लेख हैं। इस किताब के बहाने 1970 के बाद और छत्तीसगढ़ गठन के पूर्व की राजनीति और सामाजिक स्थितियों का आकलन किया गया है। श्री बीआर यादव के बहाने यह किताब सही मायने में एक विशेष समय की पड़ताल भी है।  पुस्तक में सर्वश्री मोतीलाल वोरा,दिग्विजय सिंह,कमलनाथ, बाबूलाल गौर, डा. रमन सिंह, चरणदास महंत, बृजमोहन अग्रवाल, चंद्रशेखर साहू, सत्यनारायण शर्मा, अमर अग्रवाल, अजय सिंह राहुल, रधु ठाकुर, मूलचंद खंडेलवाल, पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, स्व. नंदकुमार पटेल, पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर, रमेश वल्यानी, गिरीश पंकज,अरूण पटेल, उमेश त्रिवेदी, बसंत कुमार तिवारी, रमेश नैयर, धरमलाल कौशिक, धीरेंद्र कुमार सिंह, प्रो. कमल दीक्षित, स्वराज पुरी, सतीश जायसवाल, आनंद मिश्रा, बजंरग केडिया, राधेश्याम शुक्ला, परितोष चक्रवर्ती, डा. सुशील त्रिवेदी, हरीश केडिया, बबन प्रसाद मिश्र, डा. सुधीर सक्सेना, डा. सच्चिदानंद जोशी, आर.एल.एस.यादव, चंद्रप्रकाश वाजपेयी, बल्लू दुबे, प्रवीण शुक्ला, रूद्र अवस्थी, बेनीप्रसाद गुप्ता, डा. कालीचरण यादव, डा. रमेश अनुपम, विनयशंकर दुबे, उमाशंकर शुक्ल, मनोज कुमार, डा.श्रीकांत सिंह, डा.सोमनाथ यादव, बुधराम यादव आदि के लेख शामिल हैं।


पुस्तक का नामः कर्मपथ 
मूल्यः 300 रूपए (सजिल्द), 150 रूपए( पेपरबैक)
प्रकाशकः मीडिया विमर्श,428-रोहित नगर, फेज-1, भोपाल-39

रविवार, 25 अगस्त 2013

इतनी बेरहम कैसे हो गयी ये मुंबई मेरी जान ?



          अगर मुंबई में भी महफूज नहीं तो कहां जाएं लड़कियां?
                           -संजय द्विवेदी
  मुंबई जो कभी मेरा शहर रहा है। इस शहर में जीवन के तीन बेहद खुशनुमा, बिंदास, दोस्ताना, बेधड़क और जिंदादिल साल मैंने गुजारे हैं।सपने देखे हैं, उनकी तरफ दौड़ लगाई है। अखबारों और वेबसाइट्स की नौकरियां करते हुए इन सालों में कभी नहीं लगा कि मुंबई किसी औरत के लिए इतनी खतरनाक हो सकती है। मुंबई की एक महिला पत्रकार के हुयी सामूहिक बलात्कार की घटना ने पूरे हिलाकर रख दिया है। ऐसा इसलिए क्योंकि मुंबई इस देश की सामूहिक आकांक्षाओं, सामूहिक सपनों का प्रतिनिधि शहर है।
    बीते दिनों की सोचता हूं तो देर रात अखबार के दफ्तर से लौटते वक्त, बहुत कम पर कई बार अलसुबह भी किसी खास काम से निकले तो भी देखा कि औरतों के लिए यह शहर हमेशा ही सुरक्षित और सम्मान देने वाला रहा है। औरतों के खिलाफ होने वाले अत्याचार निजी जीवन में होंगें पर इस तरह हिला देने वाली सामूहिक दुराचार की घटनाएं कम सुनी थीं। इस शहर में रहते हुए मुझे कभी नहीं लगा कि एक लड़की को यहां कोई खतरा हो सकता है। लड़कियां और महिलाएं पुरूषों की तरह ही कभी और किसी भी समय मुझे आती-जाती दिख जाती हैं। कई बार जब अन्य महानगरों की कार्य स्थितियों की तुलना होती है तो मुंबई तमाम मामलों में अन्य शहरों से बेहतर नजर आती है। बेतरह भीड़ के बावजूद एक अनुशासन, एक साथ रहना और अपने सपनों के लिए जीना- यह शहर आपको जरूर सिखाता है। इस शहर के किनारों पर विशाल जलराशि से भरे लहराते समुद्र हममें अपनी ही तरह विशाल होने का साहस भी भरते हैं। उनकी उठती- गिरती लहरें हमें जीवन के उतार-चढ़ाव का भान कराती हैं।
   लेकिन क्या समय बदल गया है या मुंबई भी अब शेष शहरों की तरह एक भीड़ भरी अराजक नगरी में बदल रही है? इसका कास्मो चरित्र कुछ ढीला पड़ रहा है? एक स्त्री के साथ ऐसी अमानवीय बर्बरता सभ्य समाज में कहीं से शोभा नहीं देतीं। दिल्ली-मुंबई जैसे शहर जो हमारे देश के बड़े शहर तो हैं ही हमारे देश का अंतरराष्ट्रीय चेहरा भी हैं। दिल्ली और मुंबई में ऐसी घटनाएं हमें बताती हैं कि कानून का राज ढीला पड़ा है और अपराधियों में अब भय नहीं रहा। मीडिया रिर्पोट्स ही बताती हैं कि मुंबई का आधा पुलिस बल वीआईपी ड्यूटी में लगा है। ऐसे में जनता को किसके हाल पर छोड़ दिया गया है।
   मुंबई शहर जो देश की भर की युवा प्रतिभाओं, लड़के-लड़कियों को इस लिए आकर्षित करता है कि यहां आकर आकर वे अपनी प्रतिभा आजमा सकते हैं और अपने सपनों में रंग भर सकते हैं। आखिर इस शहर को हुआ क्या है कि अपने कर्तव्य को अंजाम देती एक लड़की के रास्ते में वहशी दरिंदे आ जाते हैं। मैं जिस मुंबई को जानता हूं वह प्रतिभाओं को आदर देने वाली, आदमी की काबलियत और उसके हुनर की कद्र करने वाली है। ये देश का वो शहर है जहां आम आदमी के सपने सच होते हैं। भारत के छोटे शहरों-गावों में देखे गए सपने, आकांक्षाओं को आकाश देने वाले इस शहर का दिल आखिर इतना छोटा कैसे हो गया, उसका कलेजा इतना कड़ा कैसे हो गया कि एक लड़की की चीख और उसका आर्तनाद अब इसे विकल नहीं करता? यह वो शहर है जो जिंदगी, जोश और जज्बे को सलाम करता है। यह कभी न रूकने वाली, कभी न ठहरने वाली मुंबई अचानक इतनी संवेदनहीन कैसे हो सकती है? सही मायने में इस घटना ने एक बदलती हुयी मुंबई की तस्वीर पेश की है। जो बर्बर है, और हिंसक भी। वह हिंसा भी औरत के खिलाफ। एक महिला पत्रकार के खिलाफ हुयी यह घटना अब सबक बनना चाहिए कि यह कतई दुहराई न जाए। यह जिम्मेदारी हर मुंबईकर की है और समाज को चलाने वाले लोगों की भी है। आरोपियों को कड़ी सजा के साथ-साथ हमें औरत के प्रति, बच्चियों के प्रति सम्मान जगाने, उनकी सुरक्षा को पुख्ता करने के इंतजाम करने होंगें। हमें सोचना होगा कि मुंबई जैसे शहर में भी अगर लड़कियां सुरक्षित नहीं तो आखिरकार वे कहां जाएं। मुंबई का कास्मो चरित्र, यहां की पुलिस और शेष समाज मिलकर एक ऐसी दुनिया बनाते हैं जहां औरत के लिए जगह भी है और सम्मान भी। किंतु क्या कुछ सिरफिरे और मनोविकारी लोग इस शहर का यह चरित्र हर लेंगें? इस पर गंभीरता से सोचने की जरूरत है। मुंबई की जीवन शैली और उसमें छलकता हुआ जीवन इसकी एक खास पहचान है। अगर इस शहर ने औरतों को असुरक्षित बनाने, उनकी आजादी और अवसर छीनने की कोशिशें कीं तो मुंबई, मुंबई नहीं रह जाएगी। इसलिए मुंबई के लोगों का यह दायित्व है कि वे जागरूक नागरिकता का परिचय देते हुए अपने शहर की इस खास पहचान को नष्ट न होने दें।
     मुंबई पुलिस, प्रशासन और शेष समाज की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे सपनों में रंग भरने वाले इस शहर का सिर नीचा न होने दें। मुंबई एक सभ्यता का नाम है, एक संस्कृति का नाम है, एक अवसर का नाम है, वह सपनों की एक ऐसी दुनिया है जिसमें हर कोई आकर अपने झंडे गाड़ना चाहता है, व्यापार, फिल्म, फैशन, शेयर, साहित्य, रंगमंच, कला, मीडिया, प्रदर्शन कलाओं से लेकर किसी विधा का भी आदमी आकर एक बार इस शहर पर छा जाना चाहता है। अगर यह मुंबई का नया बनता वहशी चेहरा हमने ठीक न किया तो यह तमाम कलाओं के साथ बड़ा अपराध होगा। औरतों से ही दुनिया संपूर्ण और खूबसूरत होती है। इन तमाम विधाओं में आ रही औरतों डरकर या शहर में असुरक्षाबोध के साथ काम करेगीं तो मुंबई अपनी पहचान खो देगी।
  इस घटना पर जिस तरह सभी समाजों, कलाकारों, राजनीतिक दलों ने अपनी संवेदनशीलता का परिचय देते हुए प्रतिक्रिया दी है उसे सराहा जाना चाहिए। मुंबई पुलिस ने भी अपनी तत्परता का परिचय दिया है। आरोपियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने की तरफ हमें बढ़ना चाहिए और उससे जरूरी यह है कि हम अपनी मुंबई को दोबारा शर्मशार न होने दें, ऐसा संकल्प लें। तभी देशवासी गर्व से कह सकेंगें ये मुंबई है मेरी जान!’

शनिवार, 8 जून 2013

एक रिर्पोटर नरेश मिश्रा जैसा !




बस्तर इलाके में चल रहे खूनी खेल को कवर करने वाला हीरो
-संजय द्विवेदी
  छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका इन दिनों माओवादी आतंकवादियों के खूनी खेल से नहाया हुआ दिखता है। पिछली 25 मई,2013 को कांग्रेस की परिर्वतन यात्रा पर हुए माओवादी हमले में कांग्रेस के दिग्गज नेता महेंद्र कर्मा, छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष नंदकुमार पटेल, पूर्व विधायक उदय मुदलियार और उनके तमाम साथियों की बर्बर हत्या कर दी गयी। ऐसे हत्याकांड अब बस्तर में आम हैं और वहां रह रहे संवाददाताओं और पत्रकारों के माध्यम से ही हम उस इलाके में हो रही घटनाओं को जानते हैं। इनमें से ही एक टीवी पत्रकार हैं नरेश मिश्रा। 25 मई की घटना को भी नरेश मिश्र और उनके कैमरामैन साथियों की नजर से सबसे पहले पूरी दुनिया ने देखा। घटनास्थल पर सबसे पहले पहुंचकर घायल नेताओं को राहत देने और खबर देने वाले नरेश मिश्रा ही थे। श्री विद्याचरण शुक्ल को भी नरेश ने ही सहारा दिया और जगदलपुर लाने की व्यवस्था बनाई। जबकि हमारा प्रशासन घटना के पांच घंटे बाद वहां पहुंचा।
   नरेश मिश्रा को मैंने पहली बार 2008 में देखा था, हम उस समय जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ ( अब आईबीसी 24) नाम के टीवी चैनल की लांचिंग की तैयारियों में थे और अपनी टीम बना रहे थे। नरेश उन दिनों ईटीवी से जुड़े थे। बस्तर इलाके को लंबे समय से कवर कर रहे थे। जो भी हुआ, उनका चयन हुआ और वे इस चैनल के जगदलपुर के ब्यूरो चीफ बना दिए गए। उसके बाद से आजतक उन्हें इसी चैनल से जुड़कर जैसी खतरनाक और हैरंतगेज कवरेज की है कि देखकर ही दिल दहल जाता है। उनका चैनल जो अब आईबीसी 24 के नाम से चल रहा है नक्सली मामलों के कवरेज में अपने इस एक संवाददाता के बल पर सबसे आगे चलता है। उनकी जांबांजी ही मानिए कि परिर्वतन यात्रा पर हुए हमले को सभी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय चैनलों ने आईबीसी 24 के माध्यम से फीड काटकर दिखाया। घटना के बाद सबसे पहले पहुंचना और मौके से सधे अंदाज में रिर्पोंटिंग का जो नरेश का तरीका है, वह प्रभावित करता है।
   एक रिर्पोटर होने के नाते सिर्फ खबरें नहीं वे मानवता को आगे रखते हैं। घायलों की मदद और उन्हें राहत दिलाने के प्रयास पहले शुरू करते हैं। यह बहस मीडिया में काफी गहरी है कि एक रिर्पोटर पहले खबरें दे कि लोगों की मदद करे। नरेश ने एक साथ दोनों को साधा है। चैनल तो अव्वल और आगे है ही, वे मदद का हाथ बढ़ाने में भी संकोच नहीं करते। नरेश ने पिछले आठ सालों में माओवादी आतंकवाद की रिर्पोटिंग को जिस अंदाज में प्रस्तुत किया है वह पूरे देश के लोगों के दिलों को हिलाकर रख देता है। खबरों के लिहाज से देखें तो माओवादी आतंक की घटनाओं के बाद नरेश अपने ही नहीं, पूरे देश के चैनलों के चहेते बन जाते हैं क्योंकि घटना की पहली खबर और फीड उनके पास ही होती है। अनेक घटनाओं के होने और उसके आगे-पीछे नरेश ने माओवादी आतंक पर अलग-अलग दृष्टिकोण सामने रखे हैं। उनकी कवरेज में गंभीरता है, हल्लाबोल और शोर-शराबा नहीं है। एंकर की उत्तेजना के बावजूद उनके संवाद में एक सादगी है। वे सहजता से संवाद करते हैं। उसमें खबर अपने वीभत्स रूप के बावजूद सहज लगती है।
   माओवादी घटनाओं के वक्त टीवी चैनलों पर अलग-अलग रंग के विशेषज्ञ जो ज्ञान बिखेरते हैं, वह अद्भुत है। यह भी देखना अद्भुत है जिन्होंने छत्तीसगढ़ और उसके दर्द को नहीं देखा, जगदलपुर को नहीं देखा वे कितनी गंभीरता का बाना ओढ़कर ताड़मेटला और चिंतलनार का दर्द बयां करते हैं। नरेश के पास भोगा, देखा और दैनिक सामने उपस्थित यर्थाथ है। वे इसीलिए अपनी रिर्पोटिंग में इतने वस्तुनिष्ट हैं। वे रिपोर्ट करते हुए डराते नहीं बल्कि वहां कठिन हो आई जिंदगी का चेहरा दिखाते हैं। माओवादी हमलों को इतनी जांबाजी से कवर करने वाले नरेश मिश्र को छत्तीसगढ़ में आज भी ज्यादातर लोग इसलिए पहचानते हैं कि वे टीवी में हैं। किंतु आजतक उनके हिस्से कोई प्रसिद्धि, पुरस्कार और सम्मान नहीं आया। हां, उनके अपने लोग ही उनके लिए माओवादियों से उनकी सेटिंग के जुमले जरूर छोड़ते हैं। लोग यह भूल जाते हैं ऐसे हमलों में नरेश ने कितनों की जान बचाई है। नेतनार की कवरेज में मुठभेड़ में घायल पुलिस जवान नरेश से कहता है कि मेरी गोली खत्म हो गयी है मदद करो नहीं तो नक्सली मुझे मार देगें। वहीं ताड़मेटला में माओवादियों द्वारा अगवा कलेक्टर अलेक्स पाल मेनन को जंगल से लेकर चिंतलनार तक सबसे लेकर पहुंचने वाले नरेश को उनके चैनल के अलावा किसी सरकार या किसी सामाजिक संस्था ने भी सम्मानित नहीं किया। नरेश से बात करें तो उनके लिए यह एक जूनून और नशा है। वे कहते हैं सर,सैलरी से समय से मिल जाती है इतना क्या कम है। आप कल्पना करें दिल्ली के राष्ट्रीय चैनलों में बैठे किसी पत्रकार ने ऐसे हौलनाक इलाकों की निरंतर इतनी कवरेज की होती तो उसे सम्मानों की झड़ी लग जाती है। बहादुरी के तमाम तमगे दिए जाते किंतु नरेश के पास कुछ फोन काल्स हैं, जिन पर चैनलों में बैठने वाले कुछ टीवी बहसबाज उनसे कुछ जमीनी जानकारी चाहते हैं ताकि शाम होने पर वे अपने उधार लिए ज्ञान से चैनलों पर परमहंस बन सकें। किंतु नरेश के हिस्से आती हैं कवरेज की जांच, माओवादियों से रिश्तों के आरोप।
    माओवादी हमलों के बाद अब सारा कुछ भूलकर आज नरेश फिर खड़े हैं जगलपुर नगर निगम के दफ्तर के सामने, उन्हें उनके चैनल ने आज शहर की पानी समस्या पर स्टोरी के लिए असाइन किया है। वे उसे भी उसी मनोयोग से कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें रोज तीन स्टोरी देनी है और इसलिए भी क्योंकि वे एक साधारण रिर्पोटर हैं, माओवादी मामलो के जानकार नहीं। ऐसा इसलिए भी क्योंकि बस्तर और वहां हो रही घटनाएं नरेश की रोजी और रोजा दोनों हैं और उनकी चुनौतियां विकिपीडिया व गूगल सर्च से टीवी चैनलों पर ज्ञान दे रही पत्रकारीय जमातों से बहुत बड़ी हैं। माओवादी आतंक से त्रस्त इलाकों पर बहुत कुछ कहा और लिखा गया है किंतु वहां काम कर रहे पत्रकारों और संवाद के संवाहकों से संवाद कौन बनाएगा ?
(लेखक माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल में जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)



गुरुवार, 30 मई 2013

अब क्या होगा छत्तीसगढ़ कांग्रेस का ?






क्या चरणदास महंत को मिलेगी चुनावी अभियान की कमान
-संजय द्विवेदी
   माओवादी आतंकवाद के निशाने पर आई छत्तीसगढ़ कांग्रेस के तीन दिग्गज नेताओं महेंद्र कर्मा, नंदकुमार पटेल और उदय मुदलियार की मौत ने पार्टी के आत्मविश्वास व संगठन को हिलाकर रख दिया है। एक प्रखर राजनीतिक अभियान पर यह पहली सबसे मर्मांतक चोट है, जिसे कई सालों तक भुलाया नहीं जा सकेगा। ऐसे में सवाल यह उठता है कि आखिर इन हालात में पार्टी किस नेता पर दांव लगाएगी जो उसे इस संकट से उबारकर आगामी चुनाव में सत्ता तक पहुंचा सके।
आदिवासी क्षेत्रों में कड़ी चुनौतीः बस्तर में महेंद्र कर्मा कांग्रेस के एकमात्र ऐसे नेता थे जिनकी अखिलभारतीय पहचान थी और माओवाद के खिलाफ उनका संघर्ष उन्हें चर्चाओं में बनाए रखता है। सही मायने में पिछले लंबे समय तक कांग्रेस में महेंद्र कर्मा और भारतीय जनता पार्टी के सांसद रहे बलिराम कश्यप ही इस क्षेत्र की राजनीति के दो केंद्र बिंदु बने रहे। यह दुर्भाग्य ही है कि जब बस्तर अपने इतिहास और वर्तमान के सबसे बड़े संकट के सामने है तो ये नेता हमारे बीच नहीं हैं। भाजपा ने पिछले दो विधानसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन करते हुए इस इलाके में अपनी पैठ साबित की है किंतु कांग्रेस के लिए संकट काफी गहरा है। एक तो बस्तर की 12 में से 11 विधानसभा सीटों पर भाजपा का कब्जा है साथ ही कांग्रेस के सामने नेतृत्व का भी संकट खड़ा हुआ है।
   बस्तर इलाके में पिछले विधानसभा चुनावों में अकेले कवासी लखमा कोंटा क्षेत्र से चुनाव जीत सके थे। स्वयं महेंद्र कर्मा को दंतेवाड़ा विधानसभा क्षेत्र से पराजय मिली थी। ऐसे में कांग्रेस के सामने यह संकट है कि वह इस इलाके में अपनी खोयी हुयी हैसियत फिर से कैसे प्राप्त करे। श्री नंदकुमार पटेल के अध्यक्ष बनने के बाद बस्तर और प्रदेश के अन्य आदिवासी इलाकों में कांग्रेस ने अपनी गतिविधियां प्रारंभ कीं। लगातार कार्यकर्ता सम्मेलनों के बहाने इस इलाके में कांग्रेस को झकझोरकर जगाने के काम में पटेल लगे थे। उनकी दुखद हत्या भी ऐसे ही एक राजनीतिक अभियान में हो गयी। अब सवाल यह उठता है कि कांग्रेस जो नुकसान हुआ है उसकी भरपाई करने और उठकर संभलने में उसे कितना वक्त लगेगा। माओवादियों के निशाने पर शायद इसलिए नंदकुमार पटेल थे क्योंकि वे एक ऐसे इलाके में राजनीतिक शून्य को भरने की कोशिश कर रहे थे, जहां नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही थी। जाहिर तौर पर किसी सियासी या सरकारी गतिविधि को चलता देखकर माओवादी विचलित हो उठते हैं। वह चाहे विकास के काम हों, सरकारी तंत्र की सक्रियता हो या राजनीतिक दलों की सक्रियता और उनके आंदोलन। माओवादी नहीं चाहते कि उनके रचे इस स्वर्ग या नरक में कोई बाहरी शक्ति आए और उनके समर्थन आधार पर किसी तरह का फर्क पड़े। ऐसे में कांग्रेस के लिए संकट यह है कि वह इन इलाकों किसके भरोसे वापस जनता का भरोसा पा सकती है।
दिग्गजों के बिनाः हमले में शहीद हुए नेता महेंद्र कर्मा जहां बस्तर इलाके में एक खास पहचान रखते थे, वहीं रायगढ़ क्षेत्र में नहीं बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में पिछड़ा वर्ग और अधरिया समाज के बीच नंदकुमार पटेल एक महत्वपूर्ण नाम बन चुके थे। लंबे समय तक मप्र और छत्तीसगढ़ में गृहमंत्री रहने के नाते वे समाज के अन्य वर्गों में भी लोकप्रिय थे। मेहनती और निरंतर दौरा करने वाले नेता के नाते वे कम समय में कार्यकर्ताओं के बीच खासे लोकप्रिय हो चुके थे। यह साधारण नहीं है उनके प्रयत्नों से ही राज्य में पस्त पड़ी कांग्रेस राज्य में सत्ता के स्वप्न देखने लगी थी। इसके साथ ही इस हौलनाक हमले में शहीद हुए उदय मुदलियार कांग्रेस संगठन के एक महत्वपूर्ण नाम थे। वे मुख्यमंत्री रमन सिंह से पिछला चुनाव राजनांदगांव से हार गए थे। यह उनकी हार कम मुख्यमंत्री की जीत ज्यादा थी। इसके साथ ही जीवन और मृत्यु से जूझ रहे छत्तीसगढ़ कांग्रेस के सबसे आदरणीय अनुभवी और बुर्जुग नेता विद्याचरण शुक्ल जो 84 साल की आयु में भी अपनी सक्रियता में नौजवानों से होड़ लेते थे, मेंदांता अस्पताल में भरती हैं। कुल मिलाकर राज्य के इन दिग्गजों की चुनाव अभियान में अनुपस्थिति से कांग्रेस अपने आपको कैसे उबारेगी इसे देखना होगा।
आलाकमान का तुरूप कौनः ले-देकर उम्मीद की किरणें उठती हैं केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री चरणदास महंत पर। वे राज्य से अकेले लोकसभा सदस्य होने के साथ-साथ मोतीलाल वोरा, दिग्विजय सिंह के निकट भी हैं। राहुल गांधी जब से कांग्रेस में निर्णायक बने हैं वे अपनी एक नई टीम हर राज्य में खडी करने की कोशिशें कर रहे हैं। मप्र में कांतिलाल भूरिया और नेता प्रतिपक्ष राहुल सिंह को इसी नजरिए से देखा जा सकता है। छत्तीसगढ़ में नेता प्रतिपक्ष के रूप में रवींद्ग चौबे और प्रदेश अध्यक्ष के नाते नंदकुमार पटेल की नियुक्ति एक पीढ़ीगत बदलाव ही थी। जबकि सदन में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी विधायक के नाते मौजूद थे। राजनीतिक क्षेत्रों में यह चर्चा है कि कांग्रेस ताजा संकट से उबरने के लिए चरणदास महंत को राज्य की जिम्मेदारी दे सकती है। चरणदास महंत कांग्रेस के कद्दावर नेता स्व.बिसाहूदास महंत के सुपुत्र हैं। श्री बिसाहूदास महंत को कांग्रेस की राजनीति में खासा सम्मान प्राप्त था। वे समूचे मप्र में पिछड़ा वर्ग के बडे नेताओं में जाने जाते थे। श्री अर्जुन सिंह से उनकी निकटता किसी से छिपी नहीं थी।
   एक महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवार की विरासत महंत का एक बड़ा संबल है। इसके साथ ही वे मप्र सरकार में मंत्री रहे हैं। विधानसभा और लोकसभा दोनों के चुनावों का अनुभव और लंबा समय उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में बिताया है। यह संयोग भी होगा कि प्रदेश की कमान फिर बिलासपुर संभाग के ही हाथ होगी। नंदकुमार पटेल भी इसी इलाके के खरसिया क्षेत्र से विधायक थे। महंत का कार्यक्षेत्र और चुनाव क्षेत्र कोरबा—जांजगीर भी इसी क्षेत्र में हैं। बावजूद इसके बस्तर और सरगुजा जैसे इलाकों में कांग्रेस को अपना खोया जनाधार पाने की चुनौती शेष रहेगी। पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी अपने जनाधार के बावजूद कांग्रेस के सभी गुटों और नेताओं में अपनी स्वीकार्यता नहीं बना पा रहे हैं। उनकी भूमिका चुनावों में क्या होती है यह भी एक बड़ा सवाल है। अपने तीन दिग्गजों को खोकर कांग्रेस एक बड़े संकट के सामने है। अब वह अपनी दूसरी पंक्ति के नेताओं रवींद्र चौबे, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू, भूपेश बधेल के सहारे है, जिसमें चौबे को छोड़कर पिछले विधानसभा चुनावों में तीनों नेता अपनी सीट भी नहीं बचा पाए हैं। देखना है कि कांग्रेस आलाकमान किस नेता पर भरोसा करते हुए राज्य की कमान सौंपता है। क्योंकि आने वाले समय में कांग्रेस को एक ऐसा नायक चाहिए जो राज्य के बिखरे कांग्रेसियों को एक करते हुए नंदकुमार पटेल के अधूरे काम को पूरा कर सके। पार्टी में एकता और आत्मविश्वास फूंक सकने वाला नेतृत्व ही राज्य भाजपा की मजबूत सांगठनिक ताकत व सरकार की शक्ति का मुकाबला कर पाएगा। देखना है कांग्रेस किस राजनेता पर अपना दांव लगाकर उसे छत्तीसगढ़ के मैदान में उतरती है।
(लेखक राजनीतिक विश्वेषक हैं)