गुरुवार, 21 जून 2012

पहले आदिवासी राष्ट्रपति का रायसीना हिल्स पर इंतजार


                       -संजय द्विवेदी
    काफी विमर्शों के बाद अंततः देश के मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ने पीए संगमा को राष्ट्रपति चुनाव में अपना समर्थन देने का फैसला कर लिया। यह एक ऐसा फैसला है, जिसके लिए भाजपा नेता बधाई के पात्र हैं। देश में अगर पहली बार एक आदिवासी समुदाय का कोई व्यक्ति राष्ट्रपति बन जाता है तो क्या ही अच्छा होता। इससे आदिवासी वर्गों में एक आत्मविश्वास का संचार होगा। देश के आदिवासी समाज को जिस तरह से लगातार सत्ता और व्यवस्था द्वारा उपेक्षित किया गया है, उसका यह प्रतीकात्मक प्रायश्चित भी होगा। कब तक हम दिल्ली क्लब के द्वारा संचालित होते रहेंगें। आदिवासी इस देश की 10 प्रतिशत से अधिक आबादी हैं। 65 सालों में उनके लिए हम शेष समाज में स्पेस क्यों नहीं बना पाए यह एक बड़ा सवाल है। पी.ए.संगमा हारे या जीतें किंतु उन्होंने अपने समाज में एक भरोसा जगाने का काम किया है।
    प्रणव मुखर्जी अगर राष्ट्रपति बनते हैं तो कुछ खास नहीं होगा, वे वैसे भी एक आला नेता हैं और खानदानी राजनेता हैं। उनके पिता भी विधायक रहे हैं। वे भद्रलोक के लोग हैंकिंतु पीए संगमा का राष्ट्रपति बनना इस देश का भाग्य होगा। वे उपेक्षित आदिवासी समाज और राजनीतिक उपेक्षा के शिकार पूर्वांचल राज्य से आते हैं। उनकी राष्ट्रपति भवन में मौजूदगी आम आदमी में शक्ति का संचार करेगी। विशाल आदिवासी समाज को सिर्फ कौतुक और कौतुहल से मत देखिए, संगमा आदिवासी आत्मविश्वास के प्रतीक हैं। पद की लालसा कहना ठीक नहीं, संगमा क्यों नहीं उम्मीदवार हो सकते? प्रणव बाबू के ममता से बुरे रिश्ते हैं पर वे अब उन्हें अपनी बहन बता रहे हैं। चुनाव लड़ना सबका हक है और अपने पक्ष में वातावरण बनाना सबका हक है। संगमा यही कर रहे हैं। वैसे भी कांग्रेस ने ऐसा क्या कर दिया है कि उनके प्रत्याशी के लिए मैदान छोड़ दिया जाए। इसी वित्त मंत्री के राज में लोग महंगाई से त्रस्त हैं और कुछ दल उनके लिए रेड कारपेट बिछा रहे हैं। मुद्दा आदिवासी राष्ट्रपति का है, वैसे कोई भी बने क्या फर्क पड़ता है। एक प्रतीक के रूप में भी आदिवासी राष्ट्रपति की उपस्थिति के अपने मायने हैं। बाबा साहब ने जब कोट- टाई पहनी तो वो देश की दलित जनता को एक संदेश देना चाहते थे। पढ़ लिखकर उंची कुर्सी हासिल करने से उनके समाज में एक आत्मविश्वास आया। संगमा की मौजूदगी को इसी तरह से देखा जाना चाहिए। वे हार जाएं चलेगा पर यह संदेश एक वर्ग को जाता है कि उनके बीच का आदमी भी राष्ट्रपति बन सकता है। वे लोकसभा अध्यक्ष रहे हैं। सोनिया जी यदि प्रधानमंत्री नही बन सकीं तो डा. कलाम,संगमा, पवार, मुलायम सिंह, चंद्रशेखर जी की भूमिका को मत भूलिए। ये देश के इतिहास के पृष्ठ हैं।
  आदिवासी समाज को लेकर, उनकी समस्याओं को लेकर, नक्सलवाद के चलते उनकी कठिन जिंदगियों को लेकर विमर्श जरूरी हैं।संगमा आदिवासी हैं, नार्थ इस्ट से आते हैं , उनका राष्ट्रपति  पद का उम्मीदवार बनना इस लोकतंत्र के लिए शुभ है। इससे यह भरोसा जगता है कि एक दिन देश में एक आदिवासी राष्ट्रपति जरूर बनेगा। संगमा ने उसकी शुरूआत कर दी है। लोकतंत्र इसी तरह परिपक्व होता है। दलित राजनीति की तरह आदिवासी राजनीति भी परिपक्व होकर अपना हक जरूर मांगेंगी और सबको देना ही होगा।चुनाव में हार-जीत मायने नहीं रखती। सवाल यह है कि आप अपना पक्ष रख रहे हैं।
  लोकतंत्र में जीतने वाला बड़ा नहीं होता, हारने वाला खत्म नहीं होता। डा. लोहिया फूलपुर से पंडित नेहरू के खिलाफ चुनाव लड़े और हारे।पर इससे पता चलता है कि विपक्ष की गंभीर उपस्थिति भी है और मुद्दों पर संवाद हो रहा है। पंडित जी को घर में चुनौती देकर लोहिया जी प्रतिरोध को सार्थकता देते थे। अभी लगने लगा है कि दोनों मुख्य दलों ने सत्ता आधी-आधी बांट ली है। एक जाएगा तो दूसरा आएगा ही इस विश्वास के साथ। आखिर मनमोहन सिंह की अमरीका परस्त और जनविरोधी सरकार ने ऐसा क्या किया है कि उनका वित्तमंत्री निर्विरोध राष्ट्रपति चुन लिया जाए। विरोध होना चाहिए वह एक वोट का हो या हजारों वोटों का। चुनाव में हार-जीत नहीं, मुद्दे मायने रखते हैं। राष्ट्रपति के चुनाव में मनमोहन सिंह की जनविरोधी और महंगाई परोसने वाली सरकार अगर अपना उम्मीदवार निर्विरोध चुनवा ले जाते तो दुनिया हम पर, हमारे लोकतंत्र पर हंसती कि एक अरब में एक भी मर्द नहीं जो इस भ्रष्ट सरकार के खिलाफ चुनाव तो लड़ सके। मुझे लगता है हार सुनिश्चित हो तो भी मैदान छोड़ना अच्छा नहीं है। याद कीजिए भैरौ सिंह शेखावत को जिन्होंने मैदान में उतर कर चुनौती दी क्या उससे जीतने वाले का सम्मान बढ़ गया और भैरो सिंह का घट गया। यह अकारण नहीं है लोग कलाम साहब को आज भी याद कर रहे हैं।

बुधवार, 20 जून 2012

जनजाति समाज का मूल्यबोध कायमः जुएल उरांव


जनजातीय समाज के विविध मुद्दों तीन दिवसीय विमर्श का समापन
भोपाल, 20 जून। आदिवासी नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जुएल उरांव का कहना है कि जनजाति समाज में आज भी पारंपरिक भारतीय मूल्यबोध कायम है, जबकि विकसित कहे जाने वाले वर्गों में यह तेजी से कम हो रहा है। आज जरूरत इस बात की है कि जनजाति समाज को समर्थ बनाने के लिए ईमानदार प्रयास किए जाएं, इसके बाद हम अपने सवालों के हल खुद तलाश लेंगें। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, वन्या,आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान और वन साहित्य अकादमी की ओर से जनजाति समाज एवं जनसंचार माध्यमः प्रतिमा और वास्तविकता विषय पर रवींद्र भवन में आयोजित तीन दिवसीय संगोष्ठी के समापन सत्र में मुख्यवक्ता की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में 22 प्रांतों से आए जनजातीय समाज के लगभग 140 लोग सहभागी हैं। जिनमें लगभग 45 जनजातियों के प्रतिनिधि शामिल हैं।
 देश के पहले अनुसूचित जनजाति मंत्री रहे उरांव ने कहा कि आखिर ये आधुनिक विकास और मुख्यधारा से जोड़ने की बातें हमें कहां ले जाएंगीं। आज का सबसे बड़ा सवाल हमारी पहचान और मूल्यों को बचाने का है। जिस तरह जनजातीय समाज को भारतीयता से काटने के प्रयास चल रहे हैं वह खतरनाक हैं। उनका कहना था कि नक्सली आतंकवाद में जनजातियों के लोग दोनों तरफ से पिस रहे हैं। बावजूद इसके हमें अपनी एकता और संगठन शक्ति पर भरोसा कर एक होना होगा। तेजी से सकारात्मक परिवर्तन होते दिख रहे हैं। एक नई सामाजिक पुर्नरचना खड़ी होती दिखने लगी है।
  अनूसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष दिलीप सिंह भूरिया ने कहा कि इस विमर्श ने जनजातियों के सवालों को चर्चा के केंद्र में ला दिया है। विस्थापन, जीवन, सांस्कृतिक मूल्यबोध, पहचान और नक्सलवाद के प्रश्नों से जनजाति समाज घिरा है हमें इनके हल ढूंढने होंगें। उन्होंने सवाल किया कि आखिर अंग्रेजों से हमारी लड़ाई क्या थी यही कि वे हमारी पहचान को नष्ट करने के लिए एक अलग संस्कृति-पंथ, हमारी भाषाओं की जगह दूसरी भाषा ला रहे थे और शोषण कर रहे थे। यही हालात आज फिर से पैदा हो गए हैं। इसीलिए जंगल फिर से अशांत हो उठे हैं। उन्होंने कहा कि वनवासियों ने मातृशक्ति का आदर करते हुए बेटियों को बचाया है ,इसलिए शेष समाज से यहां बेटियां ज्यादा हैं और सुरक्षित हैं।
  कार्यक्रम के मुख्यअतिथि प्रदेश के उच्चशिक्षा एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा ने कहा कि विश्वविद्यालयों के द्वारा ऐसे विमर्शों के आयोजन से एक नई चेतना और समझ का विकास हो रहा है। जनजातीय समाज के समग्र विकास के लिए सामूहिक एवं ईमानदार प्रयासों की जरूरत है। उनका कहना था कि जनजातीय समाज के नेतृत्व और समाज के जागरूक लोगों को यह प्रयास करना होगा कि योजनाओं का वास्तविक लाभ कैसे आम लोगों तक पहुंचे। विकास की चाबी जिनके पास है उनकी ईमानदारी सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने बताया कि राज्य शासन जनजातीय समाज की पहचान को संरक्षित करने के लिए भोपाल में एक जनजातीय संग्रहालय की स्थापना कर रहा है जिसमें देश भर की वनवासी संस्कृति के अक्स देखने को मिलेगें।
  कार्यक्रम का विषय प्रवर्तन करते हुए कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने कहा कि एक बेहद समृद्ध मानव संस्कृति के विषय में शिक्षा परिसरों में तथा पाठ्यपुस्तकों में जो भ्रम फैलाया जा रहा है यह उसे तोड़ने का समय है। उन्होंने कहा कि जनजाति समाज में होने वाली त्रासदी से ही खबरें बनती हैं। जबकि जनजातियों के सही प्रश्न मीडिया में जगह नहीं पाते। उनका कहना था कि मीडिया ने अनेक अवसरों पर सार्थक अभियान हाथ में लिए है, यह समय है कि उसे जनजातियों के सवालों को जोरदार तरीके से अभिव्यक्ति देनी चाहिए। क्योंकि देश की इतनी बड़ी आबादी की उपेक्षा कर हम भारत को विश्वशक्ति नहीं बना सकते। मीडिया का दायित्व है कि वह जनजातियों की वास्तविक आकांक्षाओं के प्रगटीकरण का माध्यम बने।
    सत्र की अध्यक्षता करे हिमाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल न्यायमूर्ति विष्णु सदाशिव कोकजे ने कहा कि समाज के बीच संवाद से सारी समस्याएं हल हो जाएंगी, क्योंकि ये सारे संकट संवादहीनता के चलते ही पैदा हुए हैं। उनका कहना था कि जनसंचार माध्यम इस दिशा में एक बड़ी भूमिका निभा सकते हैं। जनजातियों की वर्तमान स्थिति और आवश्यकता का चिंतन जरूरी है और उसके अनुरूप योजनाएं बनाने की आवश्यक्ता है। कार्यक्रम में राज्य अनूसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामलाल रौतेल, वन्या के संचालक श्रीराम तिवारी, वन साहित्य अकादमी के समन्वयक हर्ष चौहान ने भी अपने विचार व्यक्त किए। संचालन वरिष्ठ पत्रकार जगदीश उपासने ने किया। इसके पूर्व आर्यद्रविड़ संघर्ष और जीनोटोमी, जनजाति वैश्विक परिदृश्यःमूल निवासी एवं भारत, संविधान-न्यायिक निर्णय एवं जनगणना के सत्रों में सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता भूपेंद्र यादव, डा. जितेंद्र बजाज,श्याम परांडे, जलेश्वर ब्रम्ह, विराग पाचपोर, कल्याण भट्टाचार्य, अशोक घाटगे, लक्ष्मीनारायण पयोधि आदि ने अपने विचार व्यक्त किए। सत्रों का संचालन दीपक शर्मा, डा. आरती सारंग एवं डा. पी. शशिकला ने किया।

मंगलवार, 19 जून 2012

वेदों की संस्कृति को जीता है जनजाति समाजः नंदकुमार साय

भोपाल, 19 जून। भारतीय जनता पार्टी-मप्र और छत्तीसगढ़ के प्रदेश अध्यक्ष रहे दिग्गज आदिवासी नेता और सांसद नंदकुमार साय का कहना है कि जनजाति समाज के लोग ही भारत की मूल संस्कृति, परंपराओं और धर्म के वाहक हैं। जनजाति समाज आज भी वेदों में वर्णित संस्कृति को ही जी रहा है। इसलिए यह कहना गलत है कि वे भारतीय परंपराओं से किसी भी प्रकार अलग हैं। वे यहां माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, वन्या,आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान और वन साहित्य अकादमी की ओर से “जनजाति समाज एवं जनसंचार माध्यमः प्रतिमा और वास्तविकता” विषय पर रवींद्र भवन में आयोजित तीन दिवसीय संगोष्ठी के खुला सत्र में अध्यक्ष की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में 22 प्रांतों से आए जनजातीय समाज के लगभग 140 लोग सहभागी हैं तथा विविध विषयों पर संगोष्ठी में लगभग 105 शोध पत्र पढ़े जाएंगे।
      उन्होंने कहा कि राम के साथ वनवासी समाज ही था, जिसने रावण के आतंक से दण्डकारण्य को मुक्त कराया। देश के सभी स्वातंत्र्य समर में वनवासी बंधु ही आगे रहे। वनवासी सही मायने में सरल, भोले और वीर हैं। वे इस माटी के वरद पुत्र हैं और अपने कर्तव्य निर्वहन के लिए सदा प्राणों की आहुति देते आए हैं। उनका कहना था हमें अपने समाज से शराबखोरी जैसी की कमियों को दूर कर एकजुट होना होगा। क्योंकि इस देश की संस्कृति, सभ्यता और धर्म को बचाने की जिम्मेदारी हमारी ही है। श्री साय ने कहा कि देश के तमाम वनवासी क्षेत्र नक्सलवाद की चुनौती से जूझ रहे हैं, अगर वनवासी समाज के साथ मिलकर योजना बनाई जाए तो कुछ महीनों में ही इस संकट से निजात पाई जा सकती है। उन्होंने कहा कि नक्सलवाद एक संगठित आतंकवाद है इससे जंग जीतकर ही हम भारत को महान राष्ट्र बना सकते हैं। इस सत्र में प्रमुख रूप से शंभूनाथ कश्यप, संगीत वर्मा, इदै कौतुम, मधुकर मंडावी, कविराज मलिक ने अपने विचार व्यक्त किए। सत्र का संचालन विष्णुकांत ने किया।
      इसके पूर्व “जनजातियां, जीवन दर्शन, आस्थाएं, देवी देवता, जन्म से मृत्यु के संस्कार और सृष्टि की उत्पत्ति” के सत्र में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सहसरकार्यवाह डा. कृष्णगोपाल (गुवाहाटी) ने अपने संबोधन में कहा कि उत्तर पूर्व राज्यों में करीब 220 जनजातियां हैं। कभी किसी ने एक दूसरे की आस्था व परंपराओं का अतिक्रमण नहीं किया। जनजातियों की प्रकृति पूजा, सनातन धर्म का ही रूप है। अंग्रेजी लेखकों व इतिहासकारों ने इनको भारतीयता से काटने के लिए सारे भ्रम फैलाए। भारतीय जनजातियां सनातन धर्म की प्राचीन वाहक हैं, उनमें सबको स्वीकारने का भाव है। उनके इस पारंपरिक जुड़ाव को तोड़ने के लिए सचेतन प्रयास किए जा रहे हैं जिसे रोकना होगा। इस सत्र में डा. राजकिशोर हंसदा, सेर्लीन तरोन्पी, थुन्बुई जेलियाड, डपछिरिंड् लेपचा, डा.श्रीराम परिहार, आशुतोष मंडावी, डा. आजाद भगत, डा. नारायण लाल निनामा ने भी अपने पर्चे पढ़े। सत्र की अध्यक्षता डा. मनरुप मीणा ने की। जनजाति समाज और मीडिया पर केंद्रित सत्र में मीडिया और वनवासी समाज के रिश्तों पर चर्चा हुयी। इस सत्र की अध्यक्षता कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने की। अपने संबोधन में श्री कुठियाला ने कहा कि मीडिया हर जगह राजनीति की तलाश करता है। जीवनदर्शन, विस्थापन, समस्याएं आज इसके विषय नहीं बन रहे हैं। मीडिया के काम में समाज का सक्रिय हस्तक्षेप होना चाहिए क्योंकि इस हस्तक्षेप से ही उसमें जवाबदेही का विकास होगा। एक सक्रिय पाठक और दर्शक ही जिम्मेदार मीडिया का निर्माण कर सकते हैं। वरिष्ठ पत्रकार और नवदुनिया के संपादक गिरीश उपाध्याय ने कहा कि मीडिया नगरकेंद्रित होता जा रहा है और वह उपभोक्ताओं की तलाश में है। बावजूद इसके उसमें काफी कुछ बेहतर करने की संभावनाएं और शक्ति छिपी हुयी है। दिल्ली से आए वरिष्ठ पत्रकार राजकुमार भारद्वाज ने कहा कि किसानों और वनवासी खबरों में तब आते हैं जब वे आत्महत्या करें या भूख से मर जाएं। जनजातियों की रिपोर्टिंग को लेकर ज्यादा सजगता और अध्ययन की जरूरत है। डा. पवित्र श्रीवास्तव ने कहा कि जनजातियों के बारे में जो भी जैसी धारणा बनी है वह मीडिया के चलते ही बनी है। मीडिया ही इस भ्रम को दूर कर सकता है। सत्र का संचालन प्रो. आशीष जोशी ने किया।
संगोष्ठी का समापन आजः संगोष्ठी के समापन समारोह में बिहार के पूर्व राज्यपाल व न्यायमूर्ति विष्णु सदाशिव कोकजे अध्यक्षता करेंगे व लक्ष्मीकांत शर्मा, मंत्री, उच्च शिक्षा व जनसम्पर्क, मध्यप्रदेश शासन मुख्य अतिथि रहेंगे। समापन में मुख्य वक्तव्य जुएल उराव, पूर्व केन्द्रीय मंत्री अनुसूचित जनजाति देंगे। इस समारोह में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष दिलीप सिंह भूरिया एवं मध्यप्रदेश राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामलाल रौतेल भी विशिष्ठ अतिथि के रूप में उपस्थित रहेंगे।

सोमवार, 18 जून 2012

जनजातियों की उपेक्षा कर विश्वशक्ति कैसे बनेगा भारतः प्रो. कुठियाला


जनजातियों के सामने अस्मिता व पहचान के सवाल सबसे अहम
भोपाल,18 जून। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला का कहना है कि देश की लगभग 10 करोड़ जनसंख्या वाला जनजातीय समाज भारत में स्वतंत्रता से पूर्व से उपेक्षित रहा है। परन्तु पिछले 65 वर्षों में भी इस समाज को मुख्यधारा से समरस करने में सफलता प्राप्त नहीं हुई है। वे यहां पत्रकारिता विश्वविद्यालय, वन्या,आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान और वन साहित्य अकादमी की ओर से जनजाति समाज एवं जनसंचार माध्यमः प्रतिमा और वास्तविकता विषय पर रवींद्र भवन में आयोजित तीन दिवसीय संगोष्ठी में अध्यक्ष की आसंदी से बोल रहे थे। इस आयोजन में 22 प्रांतों से आए जनजातीय समाज के लगभग 140 लोग सहभागी हैं तथा विविध विषयों पर संगोष्ठी में लगभग 105 शोध पत्र पढ़े जाएंगें। उन्होंने सवाल किया कि क्या भारत इस 10 प्रतिशत जनसंख्या की उपेक्षा करके विश्वशक्ति बन सकता है?
 प्रो. कुठियाला ने कहा कि पूरी दुनिया को एक रंग में रंग देने की अधिनायकवादी मानसिकता रखने वाली विचारधारा ने ही यह स्थापित करने का प्रयास किया कि धर्म वही है जो उनका धर्म है। विश्वास वही है जो उनका विश्वास है। इसी अवधारणा से उन्होंने अपनी आस्था से पहले व्यापारिक शक्ति बढ़ाई फिर राजनीतिक और प्रशासनिक शक्ति हासिल की। यह एक ऐसा षडयंत्र था जिसका पर्दाफाश होना जरूरी है। हमें अपनी संस्कृति को देखने के लिए पश्चिम की आंखें नहीं चाहिए बल्कि अपनी आंखों से हमें अपने गौरवशाली इतिहास को देखना होगा। जनजातीय समाज की जैसी छवि पश्चिम के बुद्धिजीवियों द्वारा बनाई गयी वह एक विकृत छवि है। जबकि हमें जनजातियों से शेष समाज के रिश्तों को पुनः पारिभाषित करने की जरूरत है। जब संवाद बनेगा तो बहुत सारे संकट स्वतः हल होते नजर आएंगें। उन्होंने कहा कि जनजातीय समाज को लेकर मीडिया को एक अभियान चलाना चाहिए जिसमें जनजातीय समाज के प्रश्नों पर सार्थक संवाद हो सके और उनकी समस्याओं व विशेषताओं पर विमर्श हो। उन्होंने कहा कि प्राचीन  भारतीय समाज में जनजातीय समाज का बहुत आदर था, सहसंबंध थे, सुसंवाद था और वे शेष समाज से सदा समरस रहे हैं, लेकिन आधुनिक ज्ञान-विज्ञान व विदेशी विचारों ने हमें भटकाव भरे रास्ते पर डाल दिया है।
  कार्यक्रम के मुख्यअतिथि लेखक एवं मुख्यमंत्रीःमप्र सरकार के विशेष सचिव मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि हमें यह याद करने की जरूरत है कि आजादी की पहली लड़ाईयां तो आदिवासी संतों ने लड़ीं। यह लड़ाईयां सही मायने में स्वाभिमान, पहचान, और आत्मछवि के लिए लड़ी गयीं। एक शांतिप्रिय समाज अपनी स्वायत्तता और पहचान के बचाए और बनाए रखने के लिए ही विद्रोह करता है। मिशनरियों द्वारा थोपे जा रहे विचारों के प्रतिरोध में ये सारे संधर्ष हुए। हम ध्यान से देखें तो पूरा उपनिवेशवाद मतांतरण की एक प्रक्रिया ही था जिसके नाते जगह-जगह आदिवासी संतों ने प्रतिरोध किया। क्योंकि उन्हें यह बताने की कोशिशें हो रहीं थीं कि तुम्हारा कोई धर्म नहीं है। भारत की विशेषता रही विविधताओं को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा किया गया और उनमें संघर्ष खड़ा करने की कोशिशें हुयीं। उनका कहना था कि हम संघर्ष के सबक व जरूरी पाठ भूल गए हैं। मनोज श्रीवास्तव ने कहा कि आज की मीडिया कवरेज से जनजातियां बाहर हैं, अगर हैं तो उन्हें कौतुक व कौतुहल जगाने के लिए ही दिखाया व बताया जाता है। सही मायने में वे हमारी प्राथमिकताओं से भी बाहर हैं क्योंकि मीडिया एक  नया जनजातिवाद रच रहा है जिसमें वास्तविक आदिवासी लगभग निर्वासित हो चुके हैं।
  कार्यक्रम के मुख्यवक्ता वनवासी कल्याण आश्रम के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष जगदेव राम उरांव ने कहा कि पुराने संदर्भों के आधार पर धारणाएं बनी हैं।  भारतीय समाज आपस में जुड़ा हुआ है, उसकी एकांतिक पहचान नहीं बन सकती। संवाद व सहकार की धाराएं आपस में बनी हुयी हैं। जड़ों से कटना कठिन है। यही अस्मिताबोध है। बांटने की कोशिशों के खिलाफ खड़ा होना होगा। मुक्तिवादी चिंतन ठीक नहीं है, हम कहां-कहां तक मुक्त होंगें। उनका कहना था विविधताएं ही हमारी संस्कृति का आकर्षण हैं, इसे अलगाव मानना भारी भूल है।
  कार्यक्रम का विषय प्रवर्तन करते हुए सामाजिक कार्यकर्ता विष्णुकांत ने कहा कि जनजातियों की स्थापित छवि को बदलने की जरूरत है। मीडिया को उनकी वास्तविक छवि और समस्याओं को उठाना चाहिए। छवि निर्माण क्योंकि मीडिया का काम है इसलिए उसे जनजातियों की श्रेष्ठ परंपराओं, प्रकृति-पर्यावरण के साथ उनके रिश्तों को बताना चाहिए। जनजातियों को लेकर पुर्नलेखन,पुर्नव्याख्या, पुर्नमूल्यांकन की जरूरत है जो जनजातीय समाज के लोगों के साथ मिलकर होना चाहिए। हमें ध्यान देना होगा कि आज जनजातियों के सामने उनकी अस्मिता व पहचान के सवाल ही महत्वपूर्ण हैं।
   संचालन प्रो.रामदेव भारद्वाज ने किया तथा आभार दीपक शर्मा ने व्यक्त किया। कार्यक्रम के आरंभ में श्रीराम तिवारी,लक्ष्मीनारायण पयोधि ने अतिथियों का स्वागत किया। कार्यक्रम में हिमाचल प्रदेश के पूर्व राज्यपाल न्यायमूर्ति विष्णु सदाशिव कोकजे, अनुसूचित जाति एवं अनूसूचित जनजाति आयोग के पूर्व अध्यक्ष दिलीप सिंह भूरिया, मप्र भाजपा के पूर्व अध्यक्ष एवं राज्यसभा के सदस्य नंदकुमार साय, विवेकानंद केंद्र, कन्याकुमारी की उपाध्यक्ष निवेदिता भिड़े, पत्रकार जगदीश उपासने, राजकुमार भारद्वाज सहित अनेक प्रमुख लोग सहभागी हैं। आयोजन का समापन 20 जून को दोपहर 2.30 बजे होगा। समापन समारोह के मुख्यअतिथि प्रदेश के उच्चशिक्षा एवं जनसंपर्क मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा होंगें तथा मुख्यवक्ता के रूप में पूर्व केंद्रीय मंत्री जुएल उरांव उपस्थित रहेंगें।

रविवार, 17 जून 2012

जनजाति समाज और जनसंचार माध्यम पर तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी 18से


देश भर से जुटेंगें आदिवासी चिंतक, विचारक और सामाजिक कार्यकर्ता
भोपाल,17 जून। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय की ओर से 18 जून से तीन दिवसीय राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया है। 18 से 20 जून तक भोपाल स्थित रवींद्र भवन में चलने वाली इस संगोष्ठी का विषय है –“जनजाति समाज एवं जनसंचार माध्यमः प्रतिमा और वास्तविकताकार्यक्रम पत्रकारिता विश्वविद्यालय के अलावा वन्या, आदिम जाति अनुसंधान एवं विकास संस्थान, वन साहित्य अकादमी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित है।संगोष्ठी का शुभारंभ 18 जून को प्रातः 10.30 बजे मप्र के विधानसभा अध्यक्ष ईश्वरदास रोहाणी करेंगें। इस सत्र के मुख्यवक्ता वनसाहित्य अकादमी के संरक्षक जगदेवराम उरांव होंगें तता विशिष्ट अतिथि के रूप में प्रदेश के आदिम जाति कल्याण मंत्री कुंवर विजय शाह, बिहार के अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष बाबूलाल टुडु और आदिम जाति शोध संस्थान, भोपाल के निदेशक के. सुरेश उपस्थित होंगें।
विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने बताया कि लगभग 10 करोड़ जनसंख्या वाला जनजातीय समाज भारत में स्वतंत्रता से पूर्व से उपेक्षित रहा है। परन्तु पिछले 65 वर्षों में भी इस समाज को मुख्य धारा से समरस करने में सफलता प्राप्त नहीं हुई है। इस सम्मेलन में जनजातीय समाज की समस्याओं और समाधान पर मीडिया की भूमिका पर विस्तृत चर्चा होगी।कुलपति प्रो. बृज किशोर कुठियाला के मुताबिक लगभग 22 प्रान्तों से 35 से अधिक जनजातीय समाज का प्रतिनिधित्व इस संगोष्ठी में होगा। तीन दिवसीय संगोष्ठी में 10 चर्चा सत्र होंगे, जिसमें जनजाति समाज की विशेषताओं और समस्याओं पर 90 के लगभग शोध-पत्र प्रस्तुत होंगे। सम्मेलन का केन्द्र बिन्दु जनजाति समाज को भारत के विकास में सक्रिय सहभागी बनाना रहेगा। संगोष्ठी में जनजातीय समाज की भाषाओं व बोलियों की समानताओं और विभिन्नताओं पर विस्तार से चर्चा होगी। इसके साथ-साथ देश के स्वतंत्रता संग्राम में जनजाति समाज ने समय-समय पर जो संघर्ष किये उन पर भी प्रकाश डाला जायेगा। इसके साथ ही विभिन्न क्षेत्रों में जनजाति समाज के पर्व, त्योहारों, जीवन शैली, रीति-रिवाजों, परम्पराओं, जीवन-दर्शन व आस्थाओं पर संवाद आयोजित होगा। हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक खोज सामने लाई है कि पूरे भारत का जीनोटाइप 99 प्रतिशत समान है इसमें जनजाति समाज की जीनोटाइप की स्थितियों पर भी शोध-पत्र प्रस्तुत होंगे।  प्रो. कुठियाला ने कहा कि आज आवश्यकता यह है कि मीडिया जनजातीय समाज के विभिन्न विषयों को लेकर अभियान के रूप में एक संवाद बनाये जिसमें जनजातीय समाज का स्वर मुख्य रूप से उभरकर आये जिससे कि शेष समाज की समझ बने कि जनजातीय समाज की अपेक्षाएं और समस्याएं क्या हैं। इस संवाद की निरंतरता अगर बनी रहेगी तो देश की बड़ी जनसंख्या को जनजातीय समाज से समरस करने में सफलता प्राप्त होगी।  संगोष्ठी के समापन समारोह में बिहार के पूर्व राज्यपाल व न्यायमूर्ति विष्णु सदाशिव कोकजे अध्यक्षता करेंगे व लक्ष्मीकांत शर्मा, मंत्री, उच्च शिक्षा व जनसम्पर्क, मध्यप्रदेश शासन मुख्य अतिथि रहेंगे। समापन में मुख्य वक्तव्य जुएल उराव, पूर्व केन्द्रीय मंत्री अनुसूचित जनजाति देंगे। इस समारोह में अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष दिलीप सिंह भूरिया एवं मध्यप्रदेश राज्य अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष रामलाल रौतेल भी विशिष्ठ अतिथि के रूप में उपस्थित रहेंगे। संगोष्ठी के संयोजक विश्वविद्यालय के कुलाधिसचिव प्रो. रामदेव भारद्वाज हैं।

रविवार, 10 जून 2012

अर्थव्यवस्था को तबाह कर देगा खुदरा क्षेत्र में एफडीआईः द्विवेदी


एफडीआई एवं खाद्य सुरक्षा अधिनियम का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव विषय पर परिचर्चा सम्पन्न
भोपाल, 10 जून। वरिष्ट पत्रकार एवं लेखक संजय द्विवेदी का कहना है केन्द्र सरकार अमरीका की अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए भारतीय अर्थव्वस्था को डूबोने वाले कानून बना रही है। अमरीकी आर्थिक सल्तनत को जीवित रखने के लिये भारतीय खुदरा बाजार को दांव पर लगाया जा रहा है। वे यहां अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत द्वारा स्वराज भवन सभाग्रह, रवीन्द्र भवन परिसर में एफडीआई एवं खाद्य सुरक्षा अधिनियम का भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रभाव विषय पर आयोजित परिचर्चा में मुख्यअतिथि की आसंदी से बोल रहे थे। उनका कहना था कि भारत में अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के नाम का हौवा बनाया गया, लेकिन इन्हीं ईमानदार प्रधानमंत्री के नेतृत्व में लाखों करोड़ों के घपले हो रहे हैं। उनकी ईमानदारी और अर्थशास्त्र दोनों औंधे मुंह गिरे हुए हैं। रूपया डूब रहा है, डालर को ओर उंचाई पर पहुंचाने वाले कानूनों को लागू करने की तैयारी हो चुकी है। देश  के खुदरा व्यवसाय में एफडीआई और खाद्य सुरक्षा कानूनों के नाम करोड़ों का रोजगार छीनने की तैयारी की जा रही है।
    श्री द्विवेदी ने कहा कि भारतीय अर्थव्यवस्था को विदेशी कंपनियों पर आश्रित करने की योजना इन कानूनों के रूप में सामने आ रही है। यह विदेशी शक्तियों का षडयंत्र कहें या भारत सरकार का अमेरीका के हाथों कठपुतली बनना। उनका कहना था कि हमें इन कानूनों को लागू होने से रोकने के लिये जागृत जनमत चाहिये। उन्होंने कहा कि देश  में जब साहूकार प्रथा थी तो भी कभी किसानों ने आत्महत्या नहीं कीलेकिन बदलती आर्थिक नीतियों के चलते किसान आत्महत्या को मजबूर हैं। खाद्य सुरक्षा कानून और एफ.डी.आई. आने पर यही हालात में छोटे व्यापारी भी आत्महत्या के मजबूर हो जाएंगें।
            कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे अखिल भारतीय ग्राहक पंचायत राष्ट्रीय सचिव अशोक त्रिवेदी ने कहा कि ग्राहक के बिना कोई अर्थव्यवस्था नहीं चल सकती। ग्राहक नहीं तो अर्थव्यवस्था नहीं। स्वस्थ अर्थव्यव्यवस्था और बाजार व्यवस्था सुचारू चलाने के लिये ग्राहक का सहभाग आवश्यक है। अतः ग्राहकों को अधिकार सम्पन्न एवं जागरूक बनाना होगा। वर्तमान में यही ग्राहक विश्व की बड़ी कम्पनियों के निशाने पर हैं। उनकी लार भारतीय ग्राहकों पर टपक रही है और उनके इशारे पर केन्द्र सरकार ने भारतीय बाजार विदेशी कम्पनियों के लिये खौल दिये हैं। विश्व में जिन देशों में एफडीआई लागू हुआ, वहां अर्थव्यवस्था पर विदेशियों का कब्जा हो गया। स्थानीय उद्योग धन्धे चौपट हो गये, लोग बेरोजगार हुए। जब यह माल संस्कृति असफल हो गई तो उन्होंने भारतीय बाजारों को कब्जाने के लिए भारत सरकार को मोहरा बनाया। इसलिये इसका व्यापक विरोध होना चाहिये और उसका एक ही तरीका हो सकता है विदेशी कंपनियों का बहिष्कार। उनका कहना था कि खाद्य सुरक्षा कानून का सरलीकरण होना चाहिये और जुर्माना कम होना चाहिये।
            कार्यक्रम के संयोजक एवं कनफेडरेशन आफ आल इंडिया ट्रेड्स (केट) के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष राधेश्याम माहेश्वरी ने कहा कि खाद्य सुरक्षा कानून भारतीय व्यापार की रीढ़ तोड़ने वाला कानून है। इसमें केन्द्र सरकार विदेशी कंपनियों का मुखौटा बनकर काम कर रही है। इस आयोजन में सराफा एसोशिएन के नवनीत अग्रवाल, विवेक गुप्ता, मोहन शर्मा, कैलाश मिश्रा, सैय्यद फरहान, अनुपम अग्रवाल, पारूल मिश्रा, हरिनारायण माली, चंद्रमोहन अग्रवाल, मुकेश गुप्ता, सूर्यप्रकाश मिश्र ने भी अपने विचार व्यक्त किए। इस अवसर पर अनेक व्यापारी संगठनों के प्रतिनिधियों सहित ग्राहक पंचायत के पदाधिकारी मौजूद रहे। कार्यक्रम का संचालन हितेश शुक्ल ने किया एवं आभार प्रदर्शन सुधांशु अग्रवाल ने किया।
                                                                                               

गुरुवार, 7 जून 2012

“वो जो बाजार के खिलाड़ी हैं तेरा हर ख्वाब बेच डालेंगें”


पत्रकारिता विश्वविद्यालय में गूंजी तहसीन मुनव्वर की शायरी
 
भोपाल, 7 जून। देश के जाने माने शायर, वरिष्ठ पत्रकार एवं एंकर तहसीन मुनव्वर गुरूवार को माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय में सुने गए। इस अवसर पर कुलपति प्रो. बृजकिशोर कुठियाला ने तहसीन मुनव्वर को शाल-श्रीफल देकर उनका सम्मान भी किया। अपने अंदाजे बयां, शेरो-शायरी और गजलों से तहसीन ने ऐसा समां बांधा कि लोग वाह- वाह कर उठे। तहसीन मुनव्वर ने वर्तमान समय पर कुछ इस तरह टिप्पणी की-
वो जो बाजार के खिलाड़ी हैं
तेरा हर ख्वाब बेच डालेंगें।
उन्होंने एक अन्य टिप्पणी इस तरह की-
ये किसने आग सी भर दी है मेरे सीने में
मैं कुछ भी लिखता हूं तहरीर जलने लगती है।
अपनी रचना प्रक्रिया और लेखन के प्रति अपने नजरिये को जाहिर करते हुए उन्होंने पढ़ा-
लोग तो सेब से गालों पे गजल लिखते हैं
और हम सूखे निवालों पे गजल कहते हैं।
  इस अवसर पर उन्होंने युवा मन के प्रेम, मां, कृष्ण, देशभक्ति पर भी रोचक पंक्तियां पढ़कर श्रोताओं की दाद ली। अखबार और समाज से उसके रिश्तों पर उन्होंने कहा-
अब क्या खबरें रोकेगा
अब खुद ही अखबार हैं लोग।
   इस अवसर साहित्यकार डा. विजयबहादुर सिंह ने तहसीन की रचना प्रक्रिया पर टिप्पणी करते हुए कहा कि कोई भी शायर जाति, मजहब या किसी भी राजनीति से प्रेरित हो वह हमेशा मनुष्यता की बात करता है। उसकी शायरी लोगों के दर्द और इंसानियत के साथ खड़ी मिलती है। उनका कहना था आज संघर्ष आदमियत और राजनीति के बीच में है, जहां तहसीन की शायरी आम आदमी के साथ खडी दिखती है। उनकी शायरी में सादगी और गहराई है जो आदमी को आदमी के करीब लाती है। कार्यक्रम की अध्यक्षता विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला ने की। आयोजन में मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के रीडर एहतेशाम अहमद, भारतीय जनसंचार संस्थान के पूर्व रजिस्ट्रार जेड् यू हक, वरिष्ठ पत्रकार रमेश शर्मा, रामभुवन सिंह कुशवाह, सुरेश शर्मा, डा. महेश परिमल, अजय त्रिपाठी, मनोज कुमार, अक्षत शर्मा, विजयमनोहर तिवारी, डा. मेहताब आलम, वेदव्रत गिरी, अजीत सिंह, राजू कुमार, अतुल पाठक, कला समीक्षक विनय उपाध्याय, सीके सरदाना, प्रकाश साकल्ले, जीके छिब्बर सहित पत्रकारिता विश्वविद्यालय के प्राध्यापक एवं विद्यार्थी मौजूद थे। अतिथियों का स्वागत रजिस्ट्रार डा. चंदर सोनाने ने किया। संचालन जनसंचार विभाग के अध्यक्ष संजय द्विवेदी ने किया।

शनिवार, 19 मई 2012

घर में ही बेगानी उर्दू और उसकी पत्रकारिता


-संजय द्विवेदी

   हिंदुस्तान में रहते हुए हम किसी भी इलाके में जाएं उर्दू हमारा साथ नहीं छोड़ती। वह हिंदी की ही तरह राष्ट्रभाषा है, जिसकी जमीन बहुत व्यापक और जड़ें बहुत गहरी हैं। पाकिस्तान के निर्माण ने उर्दू की इस रफ्तार को रोक दिया। उर्दू एक खास तबके की भाषा बनकर रह गयी। वह हिंदुस्तानी जबान से एक कौम की जबान बन गयी या बना दी गयी। ऐसे समय में उर्दू सहाफत (पत्रकारिता) पर बात करना सच में अतीत के उन सुनहरे पन्नों को टटोलने की कोशिश है, जब जंगे आजादी की लड़ाई में उर्दू अखबारों ने सबसे कड़े शब्दों में अंग्रेजी सत्ता का प्रतिकार किया था।
   उर्दू भी अन्य भारतीय भाषाओं की तरह अपनी पत्रकारिता, साहित्य और अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों से हिंदुस्तान की आजादी की मांग कर रही थी। आजादी मिलने और पाकिस्तान बनने के सिलसिले ने इस भाषा को जिस तरह से तंगनजरी का शिकार बनाया उसका उदाहरण ढूंढने से भी नहीं मिलेगा। भाषा दिलों को जोड़ती है, वह संवाद का माध्यम है। उसमें हमारी भावनाएं, संवेदनाएं, सुख-दुख, प्यार, इबादत, रूसवाई सब कुछ शामिल होते हैं। सारी संवेदनाओं को अभिव्यक्ति देने में सक्षम भाषाएं ही विस्तार पाती हैं और लोगों का प्यार पाती हैं। उर्दू के पास भी सारा कुछ था। विपुल साहित्य, शेरो-शायरी की दुनिया और संवेदनाओं को बहुत बेहतर तरीके से व्यक्त करने का साहस और सलीका। लेकिन क्या हुआ कि उर्दू अपने घर में ही बेगानी हो गयी? वह हमारी जबान नहीं रही। वह किसी गैर मुल्क की जबान बन गयी। जबकि सच यह है कि पूरा पाकिस्तान भी उर्दू को नहीं स्वीकारता, बांग्लादेश के अलग होने की कहानी में भाषा भी एक बड़ा सवाल था। बंटवारे ने उर्दू को जो जख्म दिए उसमें वह पाकिस्तान की भाषा तो बन नहीं पाई और हिंदुस्तान के बड़े हिस्से में भी उसे रूसवाईयां झेलनी पड़ीं। राजनीतिक कारणों से उसे कुछ राज्यों ने दूसरी राजभाषा का दर्जा जरूर दे दिया है किंतु उसकी उपेक्षा साफ दिखती है।
    उर्दू पत्रकारिता के पास भी आज पाठक नहीं है। इसका सबसे बडा कारण यह है कि उर्दू की कोई एक जमीन नहीं है, एक प्रदेश नहीं है, एक इलाका नहीं है। उसके पाठक बिखरे हुए हैं और किसी भी राज्य में पहली लोकप्रिय भाषा के तौर पर प्रचलित नहीं है। जैसे बांगला के पास पश्चिम बंगाल, मराठी के पास महाराष्ट्र, मलयालम के पास केरल जैसे उदाहरणों से हमें समझना होगा कि किसी राज्य की प्रथम भाषा न होने के कारण उर्दू की कोई खालिश जमीन नहीं है। पूरा वतन ही उसकी जमीन है।वह समूचे देश में पढ़ी और समझी जाती है पर उसके पाठक बिखरे हुए हैं। जबकि आज के मीडिया को बाजार चाहिए, पाठक चाहिए और खरीददार चाहिए। बिखरी हुयी जमीन के कारण कोई दैनिक अखबार उर्दू के पास ऐसा नहीं है जो हिंदुस्तान के दस या बीस बड़े अखबारों में अपनी जगह बना सके। उर्दू अखबार नई तकनीकों के इस्तेमाल, बेहतर छाप-छपाई के बावजूद नहीं पढ़े जा रहे हैं क्योंकि उसके पास पाठक या तो नहीं हैं या बिखरे हुए हैं। इसके चलते उर्दू अखबारों की माली हालत भी खराब रहती है। उन्हें सरकार के उपर ही निर्भर रहना पड़ता है। फिर उर्दू अखबारों ने अपने पाठक के हिसाब से ही अपना कटेंट निश्चित किया है और वे इस्लामी दुनिया में ज्यादा दिलचस्पी दिखाते हैं। ऐसे में एक बड़ा पाठक वर्ग उनसे जुड़ नहीं पाता।
   भारत के तमाम बड़े शहरों मुंबई, हैदराबाद, लखनऊ, भोपाल, दिल्ली, चंड़ीगढ़ या पंजाब के तमाम शहर उर्दू अखबारों के कद्रदान हैं किंतु उर्दू का अपना भूगोल न होना या बहुत विस्तारित होना एक बड़ी समस्या है। सरकारी निर्भरता से अलग उर्दू के अखबार अपना आर्थिक माडल खड़ा नहीं कर पा रहे हैं। यह प्रसन्नता की बात है राष्ट्रीय सहारा के उर्दू रोजनामा और दैनिक जागरण समूह के इंकलाब के आने के बाद एक नई तरह की पत्रकारिता का विकास उर्दू में भी देखने को मिल रहा है। इसी तरह उर्दू के चैनल भी आज अच्छा काम कर रहे हैं। उर्दू के धार्मिक, समाचार और मनोरंजन चैनलों की जगह भी बन रही है। उनके कार्यक्रम पसंद किए जा रहे हैं। इससे जाहिर तौर पर उर्दू भी अब अपना बाजार तलाश रही है। फिल्मी गीतों में उसकी जगह महत्वपूर्ण है ही। अनुवाद के माध्यम से अनेक बडे शायर और लेखक बाकी भाषाओं में पढ़े और सराहे जा रहे हैं। ऐसे में एक भाषा के तौर पर उर्दू के विस्तार और लोकप्रियता की संभावनाएं मरी नहीं हैं। उर्दू की पत्रकारिता पर विमर्श के अवसर भी हैं और आत्मपरीक्षण के भी। उर्दू सबको लेकर चल सकती है और अपनी नैसर्गिक मिठास से वह हिंदुस्तान की सरजमीं पर फिर से चहक सकती है। इसमें समाज और मीडिया दोनों को अपनी जिम्मेदारियां निभानी होंगीं। एक भाषा के तौर पर उर्दू को बचाना ही होगा क्योंकि उर्दू इस देश की जमीन की भाषा है, उसमें हिंस्दुस्तान का इतिहास, उसकी सांसें और संघर्ष धड़कते हैं। वह जाने कितने शायरों, दानिशमंदों की जुबां से निकलकर लोगों की रूहों को छू लेने की क्षमता रखने वाली भाषा है। हिंदुस्तानी कौम का इतिहास उर्दू के बिना पूरा नहीं होगा। उसकी आत्मीयता, उसकी प्रांजलता, सरलता और प्रवाह उसके साहित्य और पत्रकारिता दोनों में दिखता है।
   आज की उर्दू पत्रकारिता के मुद्दे देश की भाषाई पत्रकारिता के मुद्दों से अलग नहीं हैं. समूची भारतीय भाषाओं के सामने आज अंग्रेजी और उसके साम्राज्यवाद का खतरा मंडरा रहा है। कई भाषाओं में संवाद करता हिंदुस्तान दुनिया और बाजार की ताकतों को चुभ रहा है। उसकी संस्कृति को नष्ट करने के लिए पूरे हिंदुस्तान को एक भाषा (अंग्रेजी) में बोलने के लिए विवश करने के प्रयास चल रहे हैं। अपनी मातृभाषाओं को भूल कर अंग्रेजी में गपियाने वाली जमातें तैयार की जा रही हैं,जिनकी भाषा, सोच और सपने सब विदेशी हैं। अमरीकी और पश्चिमी देशों की तरफ उड़ान भरने को तैयार ये पीढ़ी अपनी जड़ों को भूल रही है। उसे गालिब, रहीम, रसखान, सूर, कबीर, तुलसी, मीरा, मलिक मोहम्मद जायसी के बजाए पश्चिमी धुनों पर थिरकाया जा रहा है।
   जड़ों से विस्मृत होती इस पीढ़ी को मीडिया की ताकत से बचाया जा सकता है। अपनी भाषाओं, जमीन और संस्कृति से प्यार पैदा करके ही देशप्रेम और राष्ट्रवाद से भरी पीढ़ी तैयार की जा सकती है। उर्दू पत्रकारिता की बुनियाद भी इन्हीं संस्कारों से जुड़ी है। वह भी भारतीयता का एक अद्भुत पाठ है। उर्दू पत्रकारिता पर केंद्रित इस किताब के बहाने हमें एक बार फिर उस देश की सोचने की जरूरत है, जिसे हम काफी पीछे छोड़ आएं हैं। यह किताब देवनागरी में प्रकाशित की जा रही है ताकि हिंदी भाषी पाठक भी उर्दू पत्रकारिता के स्वर्णिम अतीत और वर्तमान में उसके संधर्ष का आकलन कर सकें। उर्दू और उसकी पत्रकारिता को बचाना दरअसल एक भाषा भर को बचाने का मामला नहीं है, वह प्रतिरोध है बाजारवाद के खिलाफ, प्रतिरोध है उस अधिनायकवादी मानसिकता के खिलाफ जो विविधताओं को, बहुलताओं को, स्वीकार करने को स्वीकारने और आदर देने के लिए तैयार नहीं है। यह प्रतिरोध है हिंदुस्तान की सभी मातृभाषाओं का, जो मरने के लिए तैयार नहीं हैं। वे अंग्रेजी के साम्राज्यवाद के खिलाफ डटकर खड़ी हैं और खड़ी रहेंगीं।