शुक्रवार, 25 नवंबर 2011

आखिर देश कहां जा रहा है ?


देश के खुदरा बाजार को विदेशी कंपनियों को सौंपना एक जनविरोधी कदम

- संजय द्विवेदी

या तो हमारी राजनीति बहुत ज्यादा समझदार हो गयी है या बहुत नासमझ हो गयी है। जिस दौर में अमरीकी पूंजीवाद औंधे मुंह गिरा हुआ है और वालमार्ट के खिलाफ दुनिया में आंदोलन की लहर है,यह हमारी सरकार ही हो सकती है ,जो रिटेल में एफडीआई के लिए मंजूरी देने के लिए इतनी आतुर नजर आए। राजनेताओं पर थप्पड़ और जूते बरस रहे हैं पर वे सब कुछ सहकर भी नासमझ बने हुए हैं। पैसे की प्रकट पिपासा क्या इतना अंधा और बहरा बना देती है कि जनता के बीच चल रही हलचलों का भी हमें भान न रह जाए। जनता के बीच पल रहे गुस्से और दुनिया में हो रहे आंदोलनों के कारणों को जानकर भी कैसे हमारी राजनीति उससे मुंह चुराते हुए अपनी मनमानी पर आमादा हैं, यह देखकर आश्चर्य होता है.

महात्मा गांधी का रास्ता सालों पहले छोड़कर पूंजीवाद के अंधानुकरण में लगी सरकारें थप्पड़ खाते ही गांधी की याद करने लगती हैं। क्या इन्हें अब भी गांधी का नाम लेने का हक है? हमारे एक दिग्गज मंत्री दुख से कहते हैं पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?” आप देश को लूटकर खाते रहें और देश की जनता में किसी तरह की प्रतिक्रिया न हो, फिर एक लोकतंत्र में होने के मायने क्या हैं ? अहिंसक प्रतिरोधों से भी सरकारें ओबामा के लोकतंत्र की तरह ही निबट रही हैं। बाबा रामदेव का आंदोलन जिस तरह कुचला गया, वह इसकी वीभत्स मिसाल है। लोकतंत्र में असहमतियों को अगर इस तरह दबाया जा रहा है तो इसकी प्रतिक्रिया के लिए भी लोगों को तैयार रहना चाहिए।

रिटेल में एफडीआई की मंजूरी देकर केंद्र ने यह साबित कर दिया है कि वह पूरी तरह एक मनुष्यविरोधी तंत्र को स्थापित करने पर आमादा है। देश के 30 लाख करोड़ रूपए के रिटेल कारोबार पर विदेशी कंपनियों की नजर है। कुल मिलाकर यह भारतीय खुदरा बाजार और छोटे व्यापारियों को उजाड़ने और बर्बाद करने की साजिश से ज्यादा कुछ नहीं हैं। मंदी की शिकार अर्थव्यवस्थाएं अब भारत के बाजार में लूट के लिए निगाहें गड़ाए हुए हैं। अफसोस यह कि देश की इतनी बड़ी आबादी के लिए रोजगार सृजन के लिए यह एक बहुत बड़ा क्षेत्र है। नौकरियों के लिए सिकुड़ते दरवाजों के बीच सरकार अब निजी उद्यमिता से जी रहे समाज के मुंह से भी निवाला छीन लेना चाहती है। कारपोरेट पर मेहरबान सरकार अगर सामान्य जनों के हाथ से भी काम छीनने पर आमादा है, तो भविष्य में इसके क्या परिणाम होंगें, इसे सोचा जा सकता है।

खुदरा व्यापार से जी रहे लाखों लोग क्या इस सरकार और लोकतंत्र के लिए दुआ करेंगें ? लोगों की रोजी-रोटी छीनने के लिए एक लोकतंत्र इतना आतुर कैसे हो सकता है ? देश की सरकार क्या सच में अंधी-बहरी हो गयी है? सरकार परचून की दुकान पर भी पूंजीवाद को स्थापित करना चाहती है, तो इसके मायने बहुत साफ हैं कि यह जनता के वोटों से चुनी गयी सरकार भले है, किंतु विदेशी हितों के लिए काम करती है। क्या दिल्ली जाते ही हमारा दिल और दिमाग बदल जाता है, क्या दिल्ली हमें अमरीका का चाकर बना देती है कि हम जनता के एजेंडे को भुला बैठते हैं। कांग्रेस की छोड़िए दिल्ली में जब भाजपा की सरकार आयी तो उसने प्रिंट मीडिया में विदेशी निवेश के लिए दरवाजे खोल दिए। क्या हमारी राजनीति में अब सिर्फ झंडों का फर्क रह गया है। हम चाहकर अपने लोकतंत्र की इस त्रासदी पर विवश खड़े हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना शायद इसीलिए लिखते है-

दिल्ली हमका चाकर कीन्ह,

दिल-दिमाग भूसा भर दीन्ह।

याद कीजिए वे दिन जब हिंदुस्तान के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह अमरीका से परमाणु करार के लिए अपनी सरकार गिराने की हद तक आमादा थे। किंतु उनका वह पुरूषार्थ, जनता के महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे सवालों पर हवा हो जाता है। सही मायने में उसी समय मनमोहन सिंह पहली और अंतिम बार एक वीरोचित भाव में दिखे थे क्योंकि उनके लिए अमरीकी सरकार के हित, हमारी जनता के हित से बड़े हैं। यह गजब का लोकतंत्र है कि हमारे वोटों से बनी सरकारें विदेशी ताकतों के इशारों पर काम करती हैं।

राहुल गांधी की गरीब समर्थक छवियां क्या उनकी सरकार की ऐसी हरकतों से मेल खाती हैं। देश के खुदरा व्यापार को उजाड़ कर वे किस कलावती का दर्द कम करना चाहते हैं, यह समझ से परे है। देश के विपक्षी दल भी इन मामलों में वाचिक हमलों से आगे नहीं बढ़ते। सरकार जनविरोधी कामों के पहाड़ खड़े कर रही है और संसद चलाने के लिए हम मरे जा रहे हैं। जिस संसद में जनता के विरूद्ध ही साजिशें रची जा रही हों, लोगों के मुंह का निवाला छीनने की कुटिल चालें चली जा रही हों, वह चले या न चले इसके मायने क्या हैं ? संसद में बैठे लोगों को सोचना चाहिए कि क्या वे जनाकांक्षाओं का प्रकटीकरण कर रहे हैं ? क्या उनके द्वारा देश की आम जनता के भले की नीतियां बनाई जा रही हैं? गांधी को याद करती राजनीति को क्या गांधी का दिया वह मंत्र भी याद है कि जब आप कोई भी कदम उठाओ तो यह सोचो कि इसका देश के आखिरी आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? सही मायने में देश की राजनीति गांधी का रास्ता भूल गई है, किंतु जब जनप्रतिरोध हिंसक हो उठते हैं तो वह गांधी और अहिंसा का मंत्र जाप करने लगती है। देश की राजनीति के लिए यह सोचने का समय है कि कि देश की विशाल जनसंख्या की समस्याओं के लिए उनके पास समाधान क्या है? क्या वे देश को सिर्फ पांच साल का सवाल मानते हैं, या देश उनके लिए उससे भी बड़ा है? अपनी झोली भरने के लिए सरकार अगर लोगों के मुंह से निवाला छीनने वाली नीतियां बनाती है तो हमें डा. लोहिया की याद आती है, वे कहते थे- जिंदा कौमें पांच तक इंतजार नहीं करती। सरकार की नीतियां हमें किस ओर ले जा रही हैं, यह हमें सोचना होगा। अगर हम इस सवाल का उत्तर तलाश पाएं तो शायद प्रणव बाबू को यह न कहने पड़े कि पता नहीं आखिर देश कहां जा रहा है ?”

बुधवार, 23 नवंबर 2011

सीबीआई की तरह ‘अच्छा बच्चा’ नहीं है कैग

-संजय द्विवेदी
राजसत्ता का एक खास चरित्र होता है कि वह असहमतियों को बर्दाश्त नहीं कर सकती। हमने इस पैंसठ सालों में जैसा लोकतंत्र विकसित किया है, उसमें जनतंत्र के मूल्य ही तिरोहित हुए हैं। सरकार में आने वाला हर दल और उसके नेता हमारी लोकतांत्रिक संस्थाओं को भोथरा बनाने के सारे यत्न करते हैं। आज कैग और विनोद राय अगर सत्तारूढ़ दल निशाने पर हैं तो इसीलिए क्योंकि वे सीबीआई की तरह ‘अच्छे बच्चे’ नहीं हैं।
न्यायपालिका भी सत्ता की आंखों में चुभ रही है और चोर दरवाजे से सरकार मीडिया के भी काम उमेठना चाहती है। कैग, सरकार और कांग्रेस के निशाने पर इसलिए है क्योंकि उसकी रिपोर्ट्स के चलते सरकार के ‘पाप’ सामने आ रहे हैं। सरकार को बराबर संकटों का सामना करना पड़ रहा है। यही कारण है कि सरकार और उससे जुड़े दिग्विजय सिंह,मनीष तिवारी जैसे नेता कैग की नीयत पर ही शक कर रहे हैं। उसकी रिपोटर्स को अविश्सनीय बता रहे हैं। किंतु सरकार से जुड़ी संवैधानिक संस्थाएं अगर सत्ता से जुड़े तंत्र की मिजाजपुर्सी में लग जाएंगी हैं तो आखिर जनतंत्र कैसे बचेगा। सीबीआई ने जिस तरह की भूमिका अख्तियार कर रखी है, उससे उसकी छवि पर ग्रहण लग चुके हैं। आज उसे उपहास के नाते कांग्रेस ब्यूरो आफ इन्वेस्टीगेशन कहा जाने लगा है। क्या कैग को भी सीबीआई की तरह की सरकार की मनचाही करनी चाहिए, यह एक बड़ा सवाल है। हमारे लोकतंत्र में जिस तरह के चेक और बैलेंस रखे गए वह हमारे शासन को ज्यादा पारदर्शी और जनहितकारी बनाने की दिशा में काम आते हैं। इसलिए किसी भी तंत्र को खुला नहीं छोड़ा जा सकता।
न्यायपालिका, कार्यपालिका और विधायिका में शक्तियों के बंटवारे के साथ-साथ, संसद के भीतर भी लोकलेखा समिति और तमाम समितियों में विपक्ष को आदर इसी भावना से दिया गया है। विरोधी विचारों का आदर और उनके विचारों का शासन संचालन में उपयोग यह संविधान निर्माताओं की भावना रही है। सब मिलकर देश को आगे ले जाने का काम करें यही एक भाव रहा है। तमाम संवैधानिक संस्थाएं और आयोग इसी भावना से काम करते हैं। वे सरकार के समानांतर, प्रतिद्वंदी या विरोधी नहीं हैं किंतु वे लोकतंत्र को मजबूत करने वाले और सरकार को सचेत करने वाले संगठन हैं। कैग भी एक ऐसा ही संगठन है। जिसका काम सरकारी क्षेत्र में हो रहे कदाचार को रोकने के लिए काम करना है। सीबीआई से भी ऐसी ही भूमिका की अपेक्षा की जाती है, किंतु वह इस परीक्षा में फेल रही है-इसीलिए आज यह मांग उठने लगी है कि सीबीआई को लोकपाल के तहत लाया जाए। निश्चय ही हम अपनी संवैधानिक संस्थाओं, आयोगों और विविध एजेंसियों को उनके चरित्र के अनुरूप काम नहीं करने देंगें तो लोकतंत्र कमजोर ही होगा। लोकतंत्र की बेहतरी इसी में है कि हम अपने संगठनों पर संदेह करने के बजाए उन्हें ज्यादा स्वायत्त और ताकतवर बनाएं। सरकार में होने का दंभ, पांच सालों का है किंतु विपक्ष की पार्टियां भी जब सत्ता में आती हैं तो वे भी मनमाना दुरूपयोग करती हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि देश के सबसे बड़े दल और लंबे समय तक राज करने वाली पार्टी ने ऐसी परंपराएं बना दी हैं, जिसमें संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग तो दिखता ही है। संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने भी अपने पद की मर्यादा भुलाकर आचरण किया है। खासकर कांग्रेस के राज्यपालों के तमाम उदाहरण हमें ऐसे मिलेगें, जहां वे पद की गरिमा को गंवाते नजर आए। कैग ने अपनी थोड़ी-बहुत विश्वसनीयता बनाई है, चुनाव आयोग ने एक भरोसा जगाया है, कुछ राज्यों में सूचना आयोग भी बेहतर काम कर रहे हैं, हमें इन्हें संबल देना चाहिए। भ्रष्टाचार के खिलाफ न्यायपालिका की सक्रियता का स्वागत करना चाहिए। मीडिया की पहल को भी सराहना चाहिए न कि हमें इन संस्थाओं को शत्रु समझकर इनकी छवि खराब करने या इन्हें लांछित-नियंत्रित करने का प्रयास करने चाहिए।
सत्ता में बैठे लोगों को बराबर यह लगता है कि उन्हें जनादेश मिल चुका है और अब पांच सालों तक देश के भाग्यविधाता वे ही हैं। उनके राज करने के तरीके में सवाल उठाने का हक न हमारी संवैधानिक संस्थाओं को है, न मीडिया को, न ही अन्ना हजारे या रामदेव जैसे जनता के प्रतीकों को। जाहिर तौर पर जनतंत्र की यह विडंबना हम भुगत रहे हैं और इसके अतिरेक में ही हम देश में एक आपातकाल भी झेल चुके हैं। सत्ता को भोगने की यह सनक ही हमारे दिमागों पर इस तरह कायम है कि हमें उचित-अनुचित का विचार भी नहीं रहता।
आज की राजनीति सवालों के वाजिब समाधान नहीं खोजती वह विषय को और उलझाकर विषय का विस्तार कर देती है। जैसे आप देखें तो अन्ना हजारे और रामदेव की मंडली के द्वारा उठाए गए सवालों के हल तलाशने के बजाए सरकार और उनकी एजेंसियां इनसे जुड़े लोगों के ही चरित्र चित्रण में लग गयीं। अब टूजी स्पेट्रक्ट्रम का सवाल गहराया तो सरकार अपने लोगों को दागदार होता देखकर राजग के कार्यकाल के समय के स्पेक्ट्रम आबंटन पर एफआईआर करवा रही है। इससे पता चलता है सवालों के समाधान खोजने के बजाए इस पर जोर है कि आप भी दूध के धुले नहीं हो। कुल मिलाकर आडवाणी की भ्रष्टाचार विरोधी रैली और संसद के सत्र में विपक्ष के हमलों को भोथरा करने की यह सोची समझी चाल है। कैग जैसे संगठन अगर इसका शिकार बन रहे हैं तो यह राजनीति का ऐसा चरित्र है जिसकी आलोचना होनी चाहिए।

बिरथ आडवाणी की बेबसी !



एक अनथक यात्री के हौसलों को सलाम कीजिए
-संजय द्विवेदी


जिस आयु में लोग डाक्टरों की सलाहों और अस्पताल की निगरानी में ज्यादा वक्त काटना चाहते हैं, उस दौर में लालकृष्ण आडवानी ही हिंदुस्तान की सड़कों पर सातवीं बार देश को मथने-झकझोरने-ललकारने के लिए निकल सकते हैं। वे इस बार भी निकले और पूरे युवकोचित उत्साह के साथ निकले। परिवार और पार्टी की सलाहों, मीडिया की फुसफुसाहटों को छोड़िए, उस हौसले को सलाम कीजिए, जो इन विमर्शों को काफी पीछे छोड़ आया है।
प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के बीच उनका नाम वैसे भी सर्वोच्च है, यह यात्रा एक राजनीतिक प्रसंग है, जिसे ऐसी बातों से हल्का न कीजिए। बस यह देखिए कि अन्ना हजारे, रामदेव और श्रीश्री रविशंकर के अराजनीतिक हस्तक्षेपों के बीच भ्रष्टाचार के खिलाफ के यह अकेली सबसे प्रखर राजनीतिक आवाज है। यह उस पार्टी के लिए भी एक पाठ है जो भावनात्मक सवालों के इर्द-गिर्द ही अपना जनाधार खोजती है। आडवानी की यह सातवीं यात्रा थी, जिसमें वे देश के सबसे ज्वलंत प्रश्न पर बात कर रहे थे। यह इसलिए भी क्योंकि इस सवाल पर उनकी खुद की पार्टी भी बहुत सहज नहीं है। उनकी इस यात्रा को प्रारंभ से झटके लगने शुरू हो गए, क्योंकि एक राजनीतिक वर्ग और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा उनके इस प्रयास को 7- रेसकोर्स की तैयारी के रूप में देख रहा था। इससे यात्रा के प्रभाव को कम करने और आडवाणी के कद के नापने की कोशिशें हुयीं। जो निश्चय ही इस यात्रा के आभामंडल को कम करने वाले साबित हुए। आडवाणी जी अब जबकि 40 दिनों में 22 राज्यों की यात्रा कर लौट आए हैं तब सवाल यह उठता है कि आखिर इस यात्रा से इतनी घबराहटें क्यों थीं? क्या यात्रा के लिए जो समय, स्थान और विषय चुने गए वह ठीक नहीं थे? क्या अराजनीतिक क्षेत्र को भ्रष्टाचार के खिलाफ पूरी पहल सौंप देना और मुख्य विपक्षी दल के नाते भाजपा का कोई हस्तक्षेप न करना उचित होता ?
एक राजनीतिक दल के सर्वोच्च नेता होने के नाते आडवाणी ने जो किया, वह वास्तव में साहसिक और सुनियोजित यत्न था। किंतु अनेक तरीके से उनकी यात्रा से उपजे सवालों के बजाए, वही सवाल उठाए गए, जिसमें मीडिया रस ले सकता था, या भाजपा की अंतर्कलह को स्थापित की जा सकती थी। भाजपा में लालकृष्ण आडवानी का जो कद और प्रतिष्ठा है उसके मुकाबले वास्तव में कोई नेता नहीं हैं, क्योंकि आडवानी ही इस नई भाजपा के शिल्पकार हैं। उनके प्रयत्नों ने ही देश की एक सामान्य सी पार्टी को सर्वाधिक जनाधारवाली पार्टी में तब्दील कर दिया। भाजपा का भौगोलिक और वैचारिक विस्तार भी उनके ही प्रयत्नों की देन है। अटलबिहारी वाजपेयी के रूप में जहां भाजपा के पास एक ऐसा नेता मौजूद था, जिसने संसद के अंदर-बाहर पार्टी को व्यापकता और स्वीकृति दिलाई, वहीं आडवाणी ने इस जनाधार में काडर खोजने व खड़ा करने का काम किया। अटल जी की व्यापक लोकस्वीकृति और आडवाणी का संगठन कौशल मिलकर जहां भाजपा को शिखर तक ले जानेवाले साबित हुए वहीं केंद्र में उसकी सरकार बनने से वह सत्ता का दल भी बन सकी। भाजपा का केंद्रीय सत्ता में आना एक ऐसा सपना था जिसका इंतजार उसका काडर सालों से कर रहा था। 1984 के चुनाव में मात्र दो लोकसभा सदस्यों के साथ संसद में प्रवेश करनी वाली भाजपा अगर आज देश का मुख्य विपक्षी दल है तो इसकी कल्पना आप आडवाणी को माइनस करके नहीं कर सकते।
रामरथ यात्रा के माध्यम से पहली बार देश की जनता के बीच गए लालकृष्ण आडवाणी की, देश को झकझोरने की यह कोशिशें तब से जारी हैं। 1990 की राम रथ यात्रा का यह यात्री लगातार देश को मथ रहा है। उसके बाद जनादेश यात्रा, सुराज यात्रा, स्वर्णजयंती यात्रा, भारत उदय यात्रा, भारत सुरक्षा यात्रा, जनचेतना यात्रा की पहल बताती है कि आडवाणी अपने दल के विचार को जनता के बीच ले जाने के लिए किस तरह की वैचारिक छटपटाहट के शिकार हैं। वे जनप्रबोधन का कोई अवसर नहीं छोड़ते। राममंदिर के बहाने छद्मधर्मनिरपेक्षता पर उनके द्वारा किए जाने वाले वाचिक हमलों को याद कीजिए और यह भी सोचिए कि वे किस तरह देश को अपनी बात से सहमत करते हुए सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का पाठ पढ़ाते हैं। वे जनता के साथ सीधे संवाद में अटलबिहारी वाजपेयी की तरह शब्दों के जादूगर भले न हों किंतु उनकी बात नीचे तक पहुंची और स्वीकारी गयी। क्योंकि वाणी और कर्म का साम्य उनमें बेतरह झलकता है। इसलिए जब वे कुछ कहते हैं, तो सामान्य प्रबोधन की शैली के बावजूद उनको ध्यान से सुना जाता है। वे लापरवाही से सुने जा सकने वाले नेता नहीं हैं। वे प्रबोधन के कलाकार हैं। वे विचार का पाठ पढ़ाते हैं और देश को अपने साथ लेना चाहते हैं। उनके पाठ इसलिए मन में उतरते हैं और जगह बनाते हैं।
अपनी वैचारिक दृढ़ता के नाते वे भाजपा के सबसे कद्दावर नेता ही नहीं, आरएसएस के भी लंबे समय तक चहेते बने रहे। क्योंकि वे स्वयं भाजपा का सबसे प्रामाणिक और वैचारिक पाठ थे। वे दल की विचारधारा और संगठन की मूल वृत्ति के प्रतिनिधि थे। अटलबिहारी वाजपेयी जहां अपनी व्यापक लोकछवि के चलते पार्टी का सबसे जनाधार वाला चेहरा बने वहीं, आडवानी विचार के प्रति निष्ठा के नाते दल का संगठनात्मक चेहरा बन गए, विचार पुरूष बन गए। पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जो कुछ उन्होंने लिखा और कहा, कल्पना कीजिए यह काम अटलबिहारी वाजपेयी ने किया होता तो क्या इसकी इस तरह चर्चा होती। शायद नहीं, क्योंकि उनकी छवि एक ऐसे भावुक-संवेदनशील नेता की थी जिसके लिए अपनी भावनाओं के उद्वेग को रोक पाना संभव नहीं होता था। किंतु आडवानी में संघ परिवार एक सावधान स्वयंसेवक, नपा-तुला बोलने वाला,पार्टी की वैचारिक लाईन को आगे बढ़ाने वाला, उस पर डटकर खड़ा होने वाले व्यक्ति की छवि देखता था। किंतु पाकिस्तान यात्रा ने कई भ्रम खड़े कर दिए। आडवानी का पारंपरिक आभामंडल दरक चुका था। वे आंखों के तारे नहीं रहे। यह क्यों हुआ, यह एक लंबी कहानी है। किंतु समय ने साबित किया कि किस तरह एक विचारपुरूष और संगठन पुरूष स्वयं अपने बनाए मानकों का ही शिकार हो जाता है। विचार के प्रति दृढ़ता और विचारधारा के प्रति आग्रह आडवानी ने ही अपने दल को सिखाया था, पाकिस्तान से लौटे तो यह फार्मूला उन पर ही आजमाया गया, उन्हें पद छोड़ना पड़ा। किंतु आडवानी की जिजीविषा और दल के लिए उनका समर्पण बार-बार उन्हें मुख्यधारा में ले आता है। वे पार्टी की तरफ से 2009 में प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए गए। पार्टी चुनाव हारी। चुनाव में हार-जीत बड़ी बात नहीं किंतु यह दूसरी हार(2004 और 2009) भाजपा पचा नहीं पायी। इसने पूरे दल के आत्मविश्वास को हिलाकर रख दिया। दिल्ली के स्तर पर परिवर्तन हुए, एक नई युवा भाजपा बनाने की कोशिशें भी हुयीं। किंतु आडवाणी की लंबी छाया से पार्टी का मुक्त होना संभव कहां था। सो उनकी छाया से मुक्त होने के प्रयासों ने विग्रहों को और बल दिया। आडवाणी मुख्यधारा में रहे हैं, नेपथ्य में रहना उन्हें नहीं आता। बस संकट यह है कि अटलबिहारी वाजपेयी के पास लालकृष्ण आडवानी थे किंतु जब आडवानी मैदान में थे तो उनके पास और पीछे कोई नहीं था। यह आडवानी की बेबसी भी है और पार्टी की भी। इसी बेबसी ने भाजपा और उसके रथयात्री को सत्ता के रथ से विरथ किया। किंतु आडवानी इस राजनीतिक बियाबान में भी अपनी कहने और सुनाने के लिए निकल पड़ते हैं,पार्टी पीछे से आती है, परिवार भी पीछे से आता है। किंतु कल्पना कीजिए इस यात्रा में अगर आडवाणी सरीखा उत्साह पूरा दल और संघ परिवार दिखा पाता तो क्या यह अकेली यात्रा पूरी सरकार पर भारी नहीं पड़ती। अन्ना और रामदेव के आंदोलनों को परोक्ष मदद देने के आरोपों से घिरा परिवार अगर आडवाणी की इस यात्रा में प्रत्यक्ष आकर वातावरण बनाता तो जाहिर तौर पर मीडिया को इस यात्रा से उपजे सवालों को नजरंदाज करने का अवकाश नहीं मिलता। किंतु विग्रह की खबरों के बीच इस यात्रा में उठाए जा रहे बड़े सवाल हवा हो गए। आडवाणी रथ पर थे, जनता भी साथ थी किंतु उनके द्वारा उठाए गए मुद्दों के बजाए मोदी-आडवानी की दूरियां सुर्खियां बनीं। एक बेहद महत्वाकांक्षी राजनीतिक अभियान की यह बेबसी वास्तव में त्रासद है, किंतु लालकृष्ण आडवानी की इस बात के लिए तारीफ की जानी चाहिए वे अपनी बात कहने-सुनाने के लिए इस गगनविहारी और फाइवस्टारी राजनीति के दौर में भी सड़क के रास्ते जनता के पास जाने का हौसला रखते हैं। किसी गांव में जाने पर राहुल गांधी पर बलिहारी हो जाने वाले मीडिया को इस अनथक यात्री को हौसलों पर कुछ रौशनी जरूर डालनी चाहिए। यह भी सवाल उठाना चाहिए कि क्या आने वाले समय में हमारे राजनेता ऐसी कठिन यात्राओं के लिए हिम्मत जुटा पाएंगें?
(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं)

मंगलवार, 1 नवंबर 2011

अब सिर्फ गेंदा फूल भर नहीं है रायपुर


राज्योत्सव के प्रसंग पर विशेष

-संजय द्विवेदी

अभिषेक बच्चन की पिछले दिनों आई फिल्म दिल्ली-6 के गाने-सास गारी देवे, देवर जी समझा लेवे, ससुराल गेंदा फूल.... में रायपुर का भी जिक्र आता है। इस गाने के बोल छत्तीसगढ़ी भाषा में हैं, जिसे पहली बार रायपुर की ही प्रसिद्ध जोशी बहनों ने गाया है। हालांकि अब जोशी बहनों को दुख है कि इस गीत के लिए फिल्मकार ने छत्तीसगढ़ को क्रेडिट नहीं दिया है। वे दर्द से कहती हैं हमें रूपया नहीं चाहिए बस इतना तो हो कि हमारे शहर या राज्य छत्तीसगढ़ का उल्लेख हो जाए। जोशी बहनें ठीक ही कह रहीं हैं, लेकिन रायपुर अब किसी सिनेमा के गाने में नाम आने से कहीं अधिक बड़ा है। यह भारतीय गणराज्य के तीन सबसे नए राज्यों में एक की राजधानी भी बन चुका है। जाहिर है, उसकी अपनी साख कायम हो चुकी है। राजधानी ने उसे मंत्रालय का शक्ति केंद्र दिया है, जहां छत्तीसगढ़ के दो करोड़, दस लाख लोगों के भाग्य का फैसला करने वाली सरकार बैठती है। अब इस शहर को नई राजधानी का भी इंतजार है, जिससे यह शहर अचानक बढ़ आयी भीड़ का इलाज पा सके। कोई शहर जब राजधानी बनता है तो वह किस तरह खुद को रूपांतरित करता है यह देखना बहुत रोचक है।

राजधानी बनता एक शहरः रायपुर शहर का छत्तीसगढ़ प्रदेश की राजधानी बन जाना एक ऐसी घटना है जिसने एक बड़े गांव को महानगर बनने का रास्ता दे दिया है। तेलीबांधा से आगे महासमुंद रोड की ओर बढ़िए तो आपको माल नज़र आएगा जहां से रायपुर पहली बार मॉल संस्कृति से परिचित होता दिखता है। आईनाक्स में सिनेमा देखने का एक सुख है जो रायपुर के सिनेमाघरों से अलग है। अब इसी रोड पर एक और मॉल बन गया है तो पंडरी में भी एक और मॉल की धूम है। एडलैब्स का सिनेमाघर भी समता कालोनी में आ गया है। लालगंगा शापिंग मॉल से लेकर बिग बाजार, सालासर ही नहीं हर तरह के ब्रांड के शोरूम यहां की फिजां में रंग भर रहे हैं। लगभग हर बैंक ने अपनी शाखाएं राजधानी बनने के बाद यहां खोली हैं जिनमें तमाम ऐसे भी बैंक हैं जो सामान्य शहरों में नजर नहीं आते। रायपुर वैसे भी एक व्यापारिक शहर रहा है। पड़ोसी राज्यों मप्र, उड़ीसा, महाराष्ट्र से लगे जिले, इसके व्यापारिक वृत को विस्तार देते नज़र आते हैं। भिलाई के पास होने के नाते रायपुर ने औद्योगिक क्षेत्र में नई उड़ान ली है। बिलासपुर से आते समय आप देख सकते हैं किस तरह सड़क के दोनों किनारों पर धुंआ उगलती चिमनियां दिखती हैं। ये तमाम स्पंज आयरन और अन्यान्य उद्योगों के चलते आसमान तो काला हो ही रही है, किसानों की भी शिकायत है कि यह प्रदूषण अब उनकी धान की फसल को काला कर रहा है। रायपुर शहर वैसे भी धूल की समस्या से ग्रस्त है और तीन साल पहले उसे सर्वाधिक प्रदूषित शहर का दर्जा भी मिल चुका है।


राजपथ पर चलने के सुखः जीई रोड का मुख्यमार्ग अब राजपथ में बदल गया है जिसे सरकार ने गौरव पथ का नाम दिया है। चौड़ी होती सड़कें, सड़कों के किनारे आदिवासी शिल्प और संस्कृति से जुड़ते दिखने की सरकारी कोशिशें साफ नजर आती हैं। कलेक्ट्रेट से रेलवे स्टेशन जाने वाली सड़क भी अब काफी चौड़ी सी लगती है। इसी सड़क पर वह बहुचर्चित जेल भी है जहां मानवाधिकार कार्यकर्ता डा विनायक सेन लंबे समय तक कैद रहे । उन पर कथित तौर पर नक्सलियों से रिश्ते रखने का आरोप है। यहां कलेक्टर रहे आरपी मंडल ने जब शहर का कायाकल्प करना शुरू किया तो पहले कलेक्ट्रेट की बुढ़िया बिल्डिंग को चमकाया और उससे लगे पार्क को भी। यह ऐसा कि बाहर से तो कलेक्ट्रेट का परिसर और प्रांगण मंत्रालय से बेहतर नजर आता है। तोड़फोड़ और विस्तार का क्रम लगातार जारी है। मोतीबाग जहां प्रेस क्लब है के आसपास की दुकानें अब नजर नहीं आतीं। सब कुछ तोड़ू दस्ते की भेंट चढ़ चुका है। शहर के मुख्य चौराहे अब भी भीड़ की भांय-भांय से आक्रांत हैं। ट्रैफिक की व्यवस्था आम हिदुस्तानी शहरों की तरह ही बेहाल है। ऐसे में एक शहर में कई शहरों के सांस लेने जैसा ही प्रतीत होता है।

जिन गलियों में धड़कता है रायपुरः रायपुर दरअसल रिक्शों का भी शहर है, यहां उड़ीसा से काम की तलाश आए ज्यादतर लोग इसी पर अपनी जिंदगी बसर करते हैं। अब रिक्शा तो नहीं लेकिन अन्य छोटे-मोटे कामकाज की तलाश में बिहार, उत्तरप्रदेश के लोग भी रायपुर में पांव पसारने लगे हैं, जिन्हें गली मोहल्लों में सब्जी-भाजी बेचते पहचाना जा सकता है। कहने को तो यहां दो साल से लम्बी काया वाली सिटी बस भी चलने लगी है किंतु उसे चलते हुए कहना ठीक नहीं, अपितु रेंगती है। रायपुर की सड़कों पर प्रायः काम के सुबह-शाम स्पीड आठ किलोमीटर प्रति घंटा भी हो जाती है। रामसागरपारा, सदर बाजार, पुरानी बस्ती, ब्राम्हणपारा, मौदहापारा जैसी बस्तियां दरअसल पुराने रायपुर की घड़कनों की असल गवाह हैं। इनकी गलियों में ही असल रायपुर धड़कता है। रायपुर को महसूस करने के लिए दरअसल आपको इन्हीं तंग गलियों से गुजरना होगा। राज्य के पारंपरिक व्यंजन, तीज-त्योहार भी इन्हीं गलियों में दिखते हैं। अब राजभाषा का दर्जा पा चुकी छत्तीसगढ़ी की महक और खनक भी रायपुर के पुराने मुहल्लों में सुनाई देती है। छ्त्तीसगढ़ी भाषा का पहला अखबार निकालने वाले जागेश्वर प्रसाद राहत महसूस कर सकते हैं। उनका अखबार बंद भले हो गया पर भाषा पर सरकारी मोहर लग चुकी है। जागेश्वर की अपनी एक पार्टी भी जिसका नाम है छत्तीसगढ विकास पार्टी है।

इतिहास को समेटे एक शहरः रायपुर के बूढ़ापारा में मप्र के प्रथम मुख्यमंत्री पंडित रविशंकर शुक्ल का आवास आज भी एक इतिहास को समेटे हुए दिखता है। इस परिवार से निकले पंडित शुक्ल के बेटों पंडित श्यामाचरण शुक्ल और विद्याचरण शुक्ल के उल्लेख के बिना रायपुर ही नहीं संयुक्त मध्यप्रदेश का इतिहास भी अधूरा रह जाएगा। अब इस परिवार की तीसरी पीढ़ी के प्रतिनिधि के रूप में अमितेश शुक्ल राजिम से विधायक के रूप में दुबारा चुने गए हैं। वे छत्तीसगढ़ की पहली सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। रायपुर की राजनीतिक चेतना को यहां के दिग्गज नेताओं ने लगातार प्रखर बनाया है। शुक्ल परिवार के अलावा संत पवन दीवान का एक चेहरा ऐसा है जिसने लगातार छत्तीसगढ़ और उसकी अस्मिता से जुड़े सवालों को उठाया है। हालांकि बार- बार पार्टियां बदलकर दीवान अपनी राजनैतिक आभा तो खो चुके हैं किंतु एक संत के नाते उनके सादगीपूर्ण जीवन से लोगों में आज भी उनके प्रति आस्था शेष है।

भाजपा का रायपुरः आज के रायपुर में भाजपा की एक खास जगह बन चुकी है जिसकी खास वजह रमेश बैस, बृजमोहन अग्रवाल जैसे नई पीढ़ी के नेताओं को माना जा सकता है, जिन्होंने अपने दल के लिए निरंतर काम करते हुए यहां के समाज जीवन में एक खास जगह बना ली है। रायपुर से सांसद रमेश बैस एक ऐसे नेता हैं जिन्होंने विद्याचरण और श्यामाचरण शुक्ल दोनों को चुनाव मैदान में पराजित किया। रायपुर से दो बार सांसद रहे केयूर भूषण भी आज की राजनीति के एक उदाहरण हो सकते हैं जो आज भी अपनी आयु के सात दशक पूरे करने के बावजूद साइकिल से ही चलते हैं। रायपुर जैसे व्यापारिक शहर का दो बार सांसद रहे इस गांधीवादी नायक की सादगी प्रेरणा का विषय है। आज जबकि रायपुर राजधानी बन चुका है सो राजपुत्रों से इसका दैनिक वास्ता है बावजूद इसके कि चंद्रशेखर साहू, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू राजेश मूणत, राजकमल सिंहानिया जैसे नेता रायपुर ही नहीं पूरे प्रदेश में अपना प्रभाव रखते हैं। मूणत और साहू तो इस समय रमन मंत्रिमंडल के प्रभावी मंत्री भी हैं।

साहित्य में भी खास जगहः साहित्य के क्षेत्र में रायपुर आज भी खास लेखकों की मौजूदगी से गौरवांवित है। नौकर की कमीज जैसे महत्वपूर्ण उपन्यास के लेखक विनोद कुमार शुक्ल इसी शहर के शैलेन्द्र नगर मुहल्ले में रहते हुए आज भी रचनाशील हैं। गजानन माधव मुक्तिबोध की यादों के साथ उनके बेटे इसी शहर में रहते हैं। परितोष चक्रवर्ती, जया जादवानी, गिरीश पंकज, जयप्रकाश मानस, आनंद हर्षुल, कनक तिवारी, पुष्पा तिवारी, डा चित्तरंजन कर जैसे तमाम लेखक आज भी यहां रचनाओं का सृजन कर हैं। जयप्रकाश मानस का अतिरिक्त उल्लेख यहां इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि उन्होंने एक नई विधा में सार्थक काम करके अपनी जगह बनाई है। वे सृजनगाथा डाट काम नाम से एक मासिक साहित्यिक वेबसाइट चला रहे हैं और राज्य में वेब पत्रकारिता की शुरुआत भी इसी से मानी जाती है। इसके अलावा उन्होंने राज्य के कई लेखकों की कृतियों को आनलाइन करने का भी महत्वपूर्ण काम किया। सुधीर शर्मा ने वैभव प्रकाशन नाम से राज्य के रचनाकारों की लगभग चार सौ किताबें प्रकाशित करने का काम किया है जिससे स्थानीय रचनाकार सामने आ रहे हैं। यहां ऐसे लेखक भी हैं जो क्षेत्रीय स्तर पर भी सक्रिय हैं और जो कल के साहित्य जगत में एक बड़ा हस्तक्षेप कर सकते हैं। रायपुर राजधानी होने के पहले ही इस समूचे छ्तीसगढ़ क्षेत्र का एक केंद्र रहा है सो यहां साहित्य, संस्कृति, पत्रकारिता और कला के क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप होते रहे हैं। यह शहर राजनारायण मिश्र, विष्णु सिंन्हा, रमेश नैयर, बसंतकुमार तिवारी, गोविंदलाल वोरा, बबन प्रसाद मिश्र, ललित सुरजन, सुनील कुमार जैसे पत्रकारों की उपस्थिति से भी जनमुद्दों पर संवाद की गुंजाइश तलाश ही लेता है।


हाशिए पर संस्कृतिः बालीबुड की तर्ज पर छालीवुड का सिनेमा भी अपनी जगह बनाने की जुगत में है। हालांकि भोजपुरी फिल्मों जैसा इस सिनेमा का बाजार तो नहीं दिखता किंतु एकमात्र सफल फिल्म मोर छइयां-भुइयां ने एक उम्मीद तो जगाई ही थी। हां, एलबम का कारोबार जरूर चरम पर है, जिससे छत्तीसगढ़ की संस्कृति तो नहीं दिखती पर वे बालीवुड की भोंड़ी नकल जरूर साबित हो रहे हैं। सांस्कृतिक क्षेत्र में मुक्तिबोध नाट्य समारोह ने अपनी पहचान बनाई है। बावजूद इसके, रायपुर आज भी छ्त्तीसगढ़ की साझी सांस्कृतिक या सामाजिक संस्कृति का प्रतिनिधित्व नहीं करता है। इसे इस रूप से देखा जा सकता है कि राज्योत्सव के अलावा कोई बड़ा सांस्कृतिक हस्तक्षेप पूरे साल भर सुनाई नहीं पड़ता, उसमें भी मेले का माहौल ज्यादा रहता है, जबकि रायगढ़ के चक्रधर समारोह ने अपनी एक राष्ट्रीय पहचान कायम कर ली है। रायगढ़ घराने की सांस्कृतिक भावभूमि और राजनांदगांव जिले में पड़ने वाले खैरागढ़ में संगीत विश्वविद्यालय की मौजूदगी के बावजूद राजधानी में उसके प्रभाव नहीं दिखते। राज्य के तमाम कलाकार जिनकी देश-दुनिया में एक बड़ी जगह है, राजपुत्रों के दिलों में जगह नहीं बना पाते। कई पद्मपुस्कार प्राप्त कलाकार आज भी समाज के ध्यानार्षण की प्रतीक्षा में हैं। छत्तीसगढ़ के मायने सिर्फ रायपुर नहीं, उसे बृहत्तर परिपेक्ष्य में देखना होगा, क्योंकि राज्य के तमाम शिल्पकार, कलाकार, संस्कृति कर्मी रायपुर में ही नहीं रहते। इस मामले में छत्तीसगढ़ की सरकार मप्र के अनुभवों से प्रेरणा ले सकती है और छ्त्तीसगढ़ में अपने कलाकारों के मान- सम्मान की नई परंपराएं गढ़ सकती है। रायपुर के ही शेखर सेन ने अपनी विवेकानंद और कबीर की नाटिकाओं के माध्यम से एक खास जगह बना ली है तो भारती बंधु कबीर गायन में एक नामवर हस्ती हैं। ऐसे में राष्ट्रीय फलक पर रायपुर का हस्तक्षेप धीरे-धीरे मुखर, प्रखर और प्रभावी हो रहा है।

( लेखक माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता एवं संचार विश्वविद्यालय, भोपाल के जनसंचार विभाग के अध्यक्ष हैं)

रविवार, 30 अक्तूबर 2011

छत्तीसगढ़ राज्य के स्थापना दिवस (1 नवंबर) पर विशेषः नक्सली आतंकवाद सबसे बड़ी चुनौती


-संजय द्विवेदी

छत्तीसगढ़ राज्य यानि वह उपेक्षित भूगोल जो पिछले 11 सालों से अपने सपनों में रंग भरने की कोशिशें कर रहा है। छत्तीसगढ़ राज्य की स्थापना के लिए हुए संघर्षों की मूल भावना को समझें तो साफ नजर आएगा कि राज्य इसलिए चाहिए था कि क्योंकि शोषण से मुक्ति चाहिए थी, विकास चाहिए था और राज्य की बड़ी आदिवासी आबादी को राजनैतिक तौर पर सक्षम होते हुए देखना था। विकास आज बड़ा विवादित शब्द बन गया है। विकास के मानक हमें अनेक स्थानों पर बेमानी दिखने लगे हैं कि क्योंकि वे मनुष्य की शर्त पर विकास का सपना साकार करते हैं।

छत्तीसगढ़ इस मामले में नए राज्यों की तुलना में सौभाग्यशाली है कि यहां राजनीतिक स्थिरता बनी रही और मुख्यमंत्री के रूप में दोनों राजनेताओं की दृष्टि विकास को लेकर बहुत साफ रही। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने जहां अपनी तमाम कमियों के बावजूद विकास को सवाल को दरकिनार नहीं किया, वहीं डा. रमन सिंह ने सपनों में रंग भरने का काम तेजी से किया। अब जबकि राज्य की स्थापना के ग्यारह साल पूरे हो चुके हैं तब यह ठहरकर सोचने का वक्त है कि आखिर हम कहां खड़े हैं और हमसे अपेक्षाएं क्या हैं।

सबसे बड़ी चुनौती नक्सलवादः

छत्तीसगढ़ राज्य की आज सबसे बड़ी चुनौती क्या है। शायद इसका सामूहिक उत्तर हो नक्सलवाद। इन 11 सालों में समस्या भयंकर से भयावह हो गयी है और स्थिति खराब से अराजक। युद्ध लड़ने की अपनी साफ प्रतिबद्धता के बावजूद इस मोर्चे पर राज्य की सरकार कुछ कर नहीं पाई। नक्सली आतंकवाद के शिकार पुलिसवाले भी हो रहे हैं और आम आदिवासी भी। इन सालों में नक्सली अपना क्षेत्र विस्तार करते रहे और हम जुबानी जमा खर्च से आगे बढ़ नहीं पाए। हिंसा हमारी स्थायी पहचान बन गयी और कथित मानवाधिकार संगठन उल्टे हमारे लोगों की निरंतर हत्याओं के बावजूद हमारे राज्य को ही हिंसक बताने में लगे रहे। छत्तीसगढ़ में जो हो रहा है वह दरअसल एक ऐसा पाप है जिसके लिए हमें पीढ़ियां माफ नहीं करेंगीं। दुनिया की सबसे खूबसूरत कौम, आदिवासियों का सैन्यीकरण करने का पाप जो अतिवादी वामपंथी कर रहे हैं, उसके लिए इतिहास उन्हें माफ नहीं करेगा। राज्य से भी कुछ गलतियां हो रही हैं किंतु जब कोई जंग हमारे गणतंत्र के खिलाफ हो तो समाज की एकजुटता जरूरी हो जाती है। डा.रमन सिंह से लेकर कल तक नक्सलियों के प्रति उदार रही ममता बनर्जी की बातचीत की अपीलें ठुकराकर भी एक हिंसक लड़ाई जनतंत्र और व्यवस्था के खिलाफ लड़ी जा रही है। दुर्भाग्य यह कि इस रक्तक्रांति को भी महिमामंडित करने वाले हमारे बुद्धिजीवियों की कमी नहीं है। इस जंग में पिस रहे आदिवासी किसी की चिंता का विषय नहीं हैं। इसलिए इस आतंक से लड़ना सरकार की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। अब प्रतीकात्मक कदमों से आगे बढ़ने की जरूरत है और बस्तर के जंगलों से बारूद की गंध हटाने का समय आ गया है।

विकास के सवालों पर तेजी से काम करने की जरूरतः

छत्तीसगढ़ की दूसरी सबसे बड़ी चिंता शिक्षा के स्तर की है। हम देखें तो तमाम बड़े संस्थानों के आगमन के बावजूद हमारे सरकारी स्कूलों का हाल क्या है। इसके साथ ही छत्तीसगढ़ का स्थान राष्ट्रीय मानकों पर खरे उतरने से ही तय होगा। सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरूस्त कर राज्य ने जहां चौतरफा वाहवाही पायी है, वहीं तमाम विकास के सवाल हमें मुंह चिढ़ा रहे हैं। शिशु मृत्यु दर में आज भी छत्तीसगढ़ 62 प्रतिशत पर बना हुआ है जो पहले स्थान पर चल रहे मप्र से मात्र 8 प्रतिशत कम है। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों का आंकड़ा आज भी 30 प्रतिशत को पार कर चुका है तो यह चिंता की बात है। राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की रफ्तार और विकसित राज्यों के मानकों को छूना जरूरी है। किंतु छत्तीसगढ़ में, इन 11 सालों की यात्रा में तेज प्रगति करते हुए दिखने के बावजूद अभी काफी कुछ होना शेष है। छत्तीसगढ़ की विकास दर काफी ठीक है किंतु विकास दर या प्रति व्यक्ति के आंकड़े जिन आधारों पर तैयार होते हैं उससे आम आदमी की स्थिति का सही आकलन व्यक्त नहीं होता। गरीबी- बेरोजगारी से निपटना आज सबसे बड़ी चुनौती है। जाहिर तौर पर इससे निपटने का रास्ता यही है कि हम शिक्षा का स्तर उठाएं और प्रशिक्षण के आधार पर श्रेष्ठ मानव संसाधन का निर्माण करें।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था को समर्थ बनाएं-

सिंचाई के साधनों का विकास करते हुए खेती को उन्नत करने की आवश्यकता है। कृषि के विकास से ही ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ताकत मिलेगी। सरकार की अनेक योजनाओं जैसे सस्ता चावल और मनरेगा के चलते गांवों से पलायन कम हुआ है, यह एक शुभ संकेत है। इसके साथ-साथ औद्योगिक निवेश को तर्कसंगत बनाने की जरूरत है। ऐसे उद्यमियों को अनुमति दी जाए जिनके उद्योगों से ज्यादा लोगों को रोजगार मिल सके। इसमें स्थानीय नागरिकों को प्राथमिकता मिलनी चाहिए। गरीबी कम करना वास्तव में सबसे बड़ी चुनौती है। यह तभी कम होगी जब शिक्षा का स्तर बढ़ेगा, स्वावलंबन की भावना आएगी , लोग अनेक फसलें लेने की ओर बढ़ेंगें साथ नशाखोरी कम होगी। शराब ने जिस कदर आम लोगों को जकड़ रखा है उसके खिलाफ भी एक जागरूकता अभियान चलाने की जरूरत है। शराब पीकर मेहनतकश लोग अपनी मेहनत की कमाई गंवा रहे हैं जिसका असर उनके परिवारों पर पड़ रहा है। नशे से मुक्त समाज ज्यादा स्वाभिमान से अपना जीवन यापन करता है। हमें इस ओर भी ध्यान देने की जरूरत है। गांव-गांव में खोली जा रही शराब दुकानें, आखिर हमारा चेहरा कैसा बना रही हैं इस पर भी सोचने की जरूरत है।

प्रदेश की अर्थव्यवस्था की धीमी रफ्तार को तेज करते हुए को देश के साथ कदमताल करना होगा, तभी सपने सच होंगें और राज्य का वास्तविक सौंदर्य़ सामने आएगा। छत्तीसगढ़ वास्तव में एक लोकप्रदेश है उसकी अपनी पहचान इसी विस्तृत लोकजीवन और परंपराओं के चलते है। बाजार और औद्योगीकरण की आंधी में इस पहचान को भी बचाने की जरूरत है। बाजार की तेज हवाएं और पश्चिमीकरण के तूफान के बीच छत्तीसगढ़ आम आदमी के लिए रहने लायक बना रहे, इसके लिए इसके लोक का संरक्षण जरूरी है।

शनिवार, 29 अक्तूबर 2011

स्थापना दिवस (1 नवंबर) पर विशेषः 11 साल का छत्तीसगढ़



अपने सपनों में रंग भरता छत्तीसगढ़

-संजय द्विवेदी

छत्तीस गढ़ों से संगठित जनपद छत्तीसगढ़ । लोकधर्मी जीवन संस्कारों से अपनी ज़मीन और आसमान रचता छत्तीसगढ़। भले ही राजनैतिक भूगोल में उसकी अस्मितावान और गतिमान उपस्थिति को मात्र ग्यारह वर्ष हुए हैं, पर सच तो यही है कि अपने रचनात्मक हस्तक्षेप की सुदीर्घ परंपरा से वह राजनीति, साहित्य,कला और संस्कृति के राष्ट्रीय क्षितिज में ध्रुवतारे की तरह स्थायी चमक के साथ जाना-पहचाना जाता है । यदि उत्तरप्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्यप्रदेश आदि से भारतीय और हिंदी संस्कृति के सूरज उगते रहे हैं तो छत्तीसगढ़ ने भी निरंतर ऐसे-ऐसे चाँद-सितारों की चमक दी है, जिससे अपसंस्कृति के कृष्णपक्ष को मुँह चुराना पड़ा है। अपनी आदर्श परंपराओं और संस्कारों के लिए जाना जाने वाला छत्तीसगढ़ सही अर्थों में सद्भावना का टापू है। भारतीय परम्परा की उदात्तता इसकी थाती है और सामाजिक समरसता इसका मूलमंत्र। सदियों से अपनी इस परंपरा के निर्वहन में लगी यह धरती अपनी ममता के आंचल में सबको जगह देती आयी है। शायद यही कारण है कि राजनीति की ओर से यहां के समाज जीवन में पैदा किए जाने वाले तनाव और विवाद की स्थितियां अन्य प्रांतों की तरह कभी विकराल रूप नहीं ले पाती हैं।


समता के गहरे भावः समाज की शक्तियों में समता का भाव इतने गहरे पैठा हुआ है कि तोड़ने वाली ताकतों को सदैव निराशा ही हाथ लगी है।संतगुरू घासीदास से लेकर पं. सुन्दरलाल शर्मा तक के प्रयासों ने जो धारा बहाई है वह अविकल बह रही है और सामाजिक तौर पर हमारी शक्ति को, एकता को स्थापित ही करती है। इस सबके मूल में असली शक्ति है धर्म की, उसके प्रति हमारी आस्था की। राज्य की धर्मप्राण जनता के विश्वास ही उसे शक्ति देते हैं और अपने अभावों, दर्दों और जीवन संघर्षों को भूलकर भी यह जनता हमारी समता को बचाए और बनाए रखती है।प्राचीनकाल से ही छत्तीसगढ़ अनेक धार्मिक गतिविधियों और आंदोलनों का केन्द्र रहा है। इसने ही क्षेत्र की जनता में ऐसे भाव भरे जिससे उसके समतावादी विचारों को लगातार विस्तार मिला। खासकर कबीरपंथ और सतनाम के आंदोलन ने इस क्षेत्र को एक नई दिशा दी। इसके ही समानांतर सामाजिक तौर पर महात्मा गांधी और पं. सुन्दरलाल शर्मा के प्रभावों को हम भुला नहीं सकते।


अप्रतिम धार्मिक विरासतः छत्तीसगढ़ में मिले तमाम अभिलेख यह साबित करते हैं तो यहां शिव, विष्णु, दुर्गा, सूर्य आदि देवताओं की उपासना से संबंधित अनेक मंदिर हैं। इसके अलावा बौद्ध एवं जैन धर्मों के अस्तित्व के प्रमाण यहां के अभिलेखों से मिलते हैं। कलचुरिकालीन अभिलेख भी क्षेत्र की धार्मिक आस्था का ही प्रगटीकरण करते हैं। छत्तीसगढ़ में वैष्णव पंथ का अस्तित्व यहां के साहित्य, अभिलेख, सिक्के आदि से पता चलता है। विष्णु की मूर्ति बुढ़ीखार क्षेत्र में मिलती है जिसे दूसरी सदी ईसा पूर्व की प्रतिमा माना जाता है। शरभपुरीय शासकों के शासन में वैष्णव पंथ का यहां व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ। ये शासक अपने को विष्णु का उपासक मानते थे। इस दौर के सिक्कों में गरूड़ का चित्र भी अंकित मिलता है। शरभपुरीय शासकों के बाद आए पांडुवंशियों ने भी वैष्णव पंथ के प्रति ही आस्था जतायी। इस तरह यह पंथ विस्तार लेता गया। बाद में बालार्जुन जैसे शैव पंथ के उपासक रहे हों या नल और नाम वंषीय या कलचुरि शासक, सबने क्षेत्र की उदार परंपराओं का मान रखा और धर्म के प्रति अपनी आस्था बनाए रखी। ये शासक अन्य धर्मों के प्रति भी उदार बने रहे। इसी तरह प्रचार-प्रसार में बहुत ध्यान दिया। कलचुरि नरेशों के साथ-साथ शैव गुरूओं का भी इसके प्रसार में बहुत योगदान रहा।शाक्तपंथ ने भी क्षेत्र में अपनी जगह बनायी। बस्तर से लेकर पाली क्षेत्र में इसका प्रभाव एवं प्रमाण मिलता है। देवियों की मूर्तियां इसी बात का प्रगटीकरण हैं। इसी प्रकार बौद्ध धर्म के आगमन ने इस क्षेत्र में बह रही उदारता, प्रेम और बंधुत्व की धारा को और प्रवाहमान किया। चीनी यात्री हवेनसांग के वर्णन से पता चलता है कि इस क्षेत्र में बौद्ध धर्म का प्रभाव था। आरंग, तुरतुरिया और मल्लार इसके प्रमुख केन्द्र थे। हालांकि कलचुरियों के शासन काल में बौद्ध धर्म की लोकप्रियता कम होने लगी पर इसके समाज पर अपने सकारात्मक प्रभाव छोड़े। जैन धर्म अपनी मानवीय सोच और उदारता के लिए जाना जाने वाला धर्म है। यहां इससे जुड़े अनेक शिल्प मिलते हैं। रतनपुर, आरंग और मल्लार से इसके प्रमाण मिले हैं।

शांति और सद्भाव की धाराओं का प्रवक्ताः छत्तीसगढ़ क्षेत्र में व्याप्त सहिष्णुता की धारा को आगे बढ़ाने में दो आंदोलनों का बड़ा हाथ है। तमाम पंथों और धर्मों की उपस्थिति के बावजूद यहां आपसी तनाव और वैमनस्य की धारा कभी बहुत मुखर रूप में सामने नहीं आयी। कबीर पंथ और सतनाम के आंदोलन ने सामाजिक बदलाव में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बदलाव की इस प्रक्रिया में वंचितों को आवाज मिली और वे अपनी अस्मिता के साथ खड़े होकर सामाजिक विकास की मुख्यधारा का हिस्सा बन गए। कबीर पंथ और सतनाम का आंदोलन मूलतः सामाजिक समता को समर्पित था और गैरबराबरी के खिलाफ था। यह सही अर्थों में एक लघुक्रांति थी जिसका समाज पर व्यापक प्रभाव पड़ा। हिंदू समाज के अंदर व्याप्त बुराइयों के साथ-साथ आत्मसुधार की भी बात संतवर गुरू घासीदास ने की। उनकी शिक्षाओं ने समाज में दमित वर्गों में स्वाभिमान का मंत्र फूंका और आगे बढ़ने की प्रेरणा दी। छत्तीसगढ़ में सतनाम के प्रणेता बाबा गुरूघासीदास थे। 1756 को गिरोद नामक गांव में जन्मे बाबा ने जो क्रांति की, उसके लिए यह क्षेत्र और मानवता सदैव आभारी रहेगी। मूर्तिपूजा, जातिभेद, मांसाहार, शराब व मादक चीजों से दूर रहने का संकल्प दिलवाकर सतनाम ने एक सामाजिक आंदोलन का रूप धारण कर लिया। भारत जैसे धर्मप्राण देश की आस्थाओं का यह क्षेत्र सही अर्थों में एक जीवंत सद्भाव का भी प्रतीक है। रतनपुर, दंतेश्वरी, चंद्रपुर, बमलेश्वरी में विराजी देवियां हों या राजीवलोचन और शिवरीनाराण या चम्पारण में बह रही धार्मिकता सब में एक ऐसे विराट से जोड़ते हैं जो हमें आजीवन प्रेरणा देते हैं। धार्मिक आस्था के प्रति इतने जीवंत विश्वास का ही कारण है कि क्षेत्र के लोग हिंसा और अपराध से दूर रहते अपने जीवन संघर्ष में लगे रहते हैं। यह क्षेत्र अपने कलागत संस्कारों के लिए भी प्रसिद्ध है। जाहिर है धर्म के प्रति अनुराग का प्रभाव यहां की कला पर भी दिखता है। शिल्प कला, मूर्ति कला, स्थापत्य हर नजर से राज्य के पास एक महत्वपूर्ण विरासत मौजूद है। भोरमदेव, सिरपुर, खरौद, ताला, राजिम, रतनपुर, मल्लार ये स्था कलाप्रियता और धार्मिकता दोनों के उदाहरण हैं।इस नजर से यह क्षेत्र अपनी धार्मिक आस्थाओं के कारण अत्यन्त महत्वपूर्ण है। राज्य गठन के बाद इसके सांस्कृतिक वैभव की पहचान तथा मूल्यांकन जरूरी है। सदियों से उपेक्षित पड़े इस क्षेत्र के नायकों और उनके प्रदेय को रेखांकित करने का समय अब आ गया है। इस क्षेत्र की ऐतिहासिकता और योगदान को पुराने कवियों ने भी रेखांकित किया है। आवश्यक है कि हम इस प्रदेय के लिए हमारी सांस्कृतिक विरासत को पूरी दुनिया के सामने बताएं। बाबू रेवाराम ने अपने ग्रंथ विक्रम विलासमें लिखा हैः


जिनमें दक्षिण कौशल देसा,
जहॅं हरि औतु केसरी वेसा,
तासु मध्य छत्तीसगढ़ पावन,
पुण्यभूमि सुर-मुनि-मन-भावन।


राजनीति की एक अलग धाराः छत्तीसगढ़ की इसी सामाजिक-धार्मिक परंपरा ने यहां की राजनीति में भी सहिष्णुता के भाव भरे हैं। उत्तर भारत के तमाम राज्यों की तरह जातीयता की भावना आज भी यहां की राजनीति का केंद्रीय तत्व नहीं बन पायी है। मप्र के साथ रहते हुए भी एक भौगोलिक इकाई के नाते अपनी अलग पहचान रखनेवाला यह क्षेत्र पिछले दस सालों में विकास के कई सोपान पार कर चुका है। अपनी तमाम समस्याओं के बीच उसने नए रास्ते देखे हैं। राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी के तीन साल हों या डा. रमन सिंह के कार्यकाल के ये बरस, हम देखते हैं, विकास के सवाल पर सर्वत्र एक ललक दिखती है। राजनीतिक जागरूकता भी बहुत तेजी से बढ़ी है। नवसृजित तीनों राज्यों झारखंड,उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ में अगर तुलना करें तो छत्तीसगढ़ ने तेजी से अनेक चुनौतियों के बावजूद, विकास का रास्ता पकड़ा है। प्रथम मुख्यमंत्री अजीत जोगी का कार्यकाल जहां एक नए राज्य के सामने उपस्थित चुनौतियों को समझने और उससे मुकाबले के लिए तैयारी का समय रहा, वहीं डा. रमन सिंह ने अपने कार्यकाल में कई मानक स्थापित किए। लोगों को सीधे राहत देने वाले विकास कार्यक्रम हों या नक्सलवाद के खिलाफ उनकी प्रतिबद्धता, सबने उन्हें एक नई पहचान दी। अजीत जोगी के कार्यकाल में जिस तरह की राजनीतिक शैली का विकास हुआ, उससे तमाम लोग उनके खिलाफ हुए और भाजपा को मजबूती मिली। डा. रमन सिंह ने अपनी कार्यशैली से विपक्षी दलों को एक होने के अवसर नहीं दिया और इसके चलते आसानी के साथ वे दूसरा चुनाव भी जीतकर पुनः मुख्यमंत्री बन गए। छत्तीसगढ़ की राजनीति के इस बदलते परिवेश को देखें तो पता चलता है कि संयुक्त मप्र में जो राजनेता काफी महत्व रखते थे, नए छत्तीसगढ़ में उनके लिए जगह सिकुड़ती गई। आज का छत्तीसगढ़ सर्वथा नए नेतृत्व के साथ आगे बढ़ रहा है। संयुक्त मप्र में कांग्रेस में स्व. श्यामाचरण शुक्ल, विद्याचरण शुक्ल, मोतीलाल वोरा, अरविंद नेताम, शिव नेताम, गंगा पोटाई, बीआर यादव, सत्यनारायण शर्मा, चरणदास महंत, भूपेश बधेल, बंशीलाल धृतलहरे, नंदकुमार पटेल, पवन दीवान, केयूर भूषण जैसे चेहरे नजर आते थे, तो भाजपा में स्व.लखीराम अग्रवाल, नंदकुमार साय, मूलचंद खंडेलवाल, रमेश बैस, लीलाराम भोजवानी, अशोक शर्मा, शिवप्रताप सिंह, बलीराम कश्यप, बृजमोहन अग्रवाल, प्रेमप्रकाश पाण्डेय जैसे नेता अग्रणी दिखते थे। किंतु पार्टियों का यह परंपरागत नेतृत्व राज्य गठन के बाद अपनी पुरानी ताकत में नहीं दिखता।

नए राज्य के नए नेता के रूप में डा. रमन सिंह, अजीत जोगी, अमर अग्रवाल, धनेंद्र साहू, अजय चंद्राकर, केदार कश्यप, टीएस सिंहदेव, चंद्रशेखर साहू, धरमलाल कौशिक, राजेश मूणत, रामविचार नेताम, वाणी राव, सरोज पाण्डेय, महेश गागड़ा, रामप्रताप सिंह, डा.रेणु जोगी, हेमचंद्र यादव जैसे नामों का विकास नजर आता है। जाहिर तौर पर राज्य की राजनीति परंपरागत मानकों से हटकर नए आयाम कायम कर रही है। उसकी आकांक्षाओं को स्वर और शब्द देने के लिए अब नया नेतृत्व सामने आ रहा है। ऐसे में ये दस साल दरअसल आकांक्षाओं की पूर्ति के भी हैं और बदलते नेतृत्व के भी हैं। छत्तीसगढ़ एक ऐसी प्रयोगशाला के रूप में भाजपा नेतृत्व के सामने है जहां वह तीसरी बार सरकार आने की उम्मीद पाल बैठी है। जबकि राज्य का परंपरागत वोटिंग पैटर्न इसकी इजाजत नहीं देता। राज्य गठन के पहले इस इलाके की सीटें जीतकर ही कांग्रेस मप्र में सरकार बनाया करती थी। किंतु पिछले दो चुनावों में लोकसभा की 10-10 सीटें दो बार जीतकर और विधानसभा की 50-50 सीटें लगातार दो चुनावों में जीतकर भाजपा ने जो करिश्मा किया है, उसकी मिसाल न मिलेगी। कांग्रेस के लिए आज यह राज्य एक कठिन चुनौती बन चुका है।

देश के दूसरे हिस्सों से छत्तीसगढ़ को देखना एक अलग अनुभव है। बस्तर की निर्मल और निर्दोष आदिवासी संस्कृति, साथ ही नक्सल के नाम मची बारूदी गंध व मांस के लोथड़े, भिलाई का स्टील प्लांट, डोंगरगढ़ की मां बमलेश्लरी, गरीबी, पलायन और अंतहीन शोषण के किस्से यह हमारी पहचान के कुछ दृश्य हैं, जिनसे छतीसगढ़ का एक कोलाज बनता है। छत्तीसगढ़ आज भी इस पहचान के साथ खड़ा है। वह अपने साथ शुभ को रखना चाहता है और अशुभ का निष्कासन चाहता है। विकास के सवालों पर तेजी से काम करने के बावजूद छत्तीसगढ़ आज भी तमाम मानको पर पीछे दिखता है। देश के प्रगतिशील राज्यों की तुलना में वह अभी बहुत पीछे है। नक्सलवाद की कठिन चुनौती के साथ विकास के तमाम मानकों पर उसे खरा उतरना है। सर्वांगीण विकास ही किसी भी राज्य का वास्तविक चित्र बनाता है। हमें उस दिशा में काफी काम करना है। पिछड़े राज्यों की तुलना कर खुश होने के बजाए हमें उन राज्यों से अपनी तुलना करनी होगी जो प्रगति और विकास के मानक बने हुए हैं। जाहिर तौर पर छत्तीसगढ़ को अभी एक लंबी यात्रा तय करनी है। बिना रूके बिना थके। यह ठीक है कि छत्तीसगढ़ महतारी की मुक्ति और उसकी पीड़ा के हरण के लिए तमाम भागीरथ सक्रिय हैं। ग्यारह साल पूरे करने जा रहे छत्तीसगढ़ को देश भी एक आशा के साथ देख रहा है।