शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

भाजपा क्यों जीती, कांग्रेस क्यों हारी ?


- बिखराव के चलते उपचुनावों में कांग्रेस की परंपरागत सीटें भी भाजपा को मिलीं

- संजय द्विवेदी

देश के पांच राज्यों की छः विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनाव के संदेश भारतीय जनता पार्टी के लिए अच्छी खबर लेकर आए हैं। मध्यप्रदेश, छ्त्तीसगढ़, झारखंड, गुजरात की पांच विधानसभा सीटों पर भाजपा की जीत बताती है कि कांग्रेस ने कई राज्यों में मैदान उसके लिए छोड़ दिया है। यह एक संयोग ही है कि इन सभी राज्यों में भाजपा ही सत्तारूढ़ दल है। झारखंड की खरसांवा सीट की बात न करें, जहां राज्य के मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा खुद उम्मीदवार थे तो बाकी सीटों पर बड़े अंतर से भाजपा की जीत बताती है कि कांग्रेस इन चुनावों में गहरे विभ्रम का शिकार थी जिसके चलते मध्यप्रदेश की दोनों सीटें कुक्षी और सोनकच्छ दोनों उसके हाथ से निकल गयीं। ये दोनों कांग्रेस की परंपरागत सीटें थीं,जहां कांग्रेस का लंबे अंतर से हारना एक बड़ा झटका है। मध्यप्रदेश की ये दोनों सीटें हारना दरअसल कांग्रेस के लिए एक ऐसे झटके की तरह है जिस पर उसे गंभीरता से विचार जरूर करना चाहिए।

भाजपा के लिए मुस्कराने का मौकाः

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कुल तीन विधानसभा सीटों के लिए हुए उपचुनाव में भाजपा की जीत के मायने तो यही हैं कि राज्यों में उसकी सरकारों पर जनता का भरोसा कायम है। यह चुनाव भाजपा के लिए जहां शुभ संकेत हैं वही कांग्रेस के लिए एक सबक भी हैं कि उसकी परंपरागत सीटों पर भी भाजपा अब काबिज हो रही है। जाहिर तौर पर कांग्रेस को अपने संगठन कौशल को प्रभावी बनाते हुए मतभेदों पर काबू पाने की कला सीखनी होगी। भाजपा के लिए सही मायने में यह मुस्कराने का क्षण है। इस संदेश को पढ़ते हुए भाजपा शासित जिम्मेदारी भी बढ़ जाती है। उन्हें समझना होगा कि इस समय कांग्रेस की दिल्ली की सरकार से लोग खासे निराश हैं और उम्मीदों से खाली हैं। भाजपा देश का दूसरा बड़ा दल होने के नाते कांग्रेस के पहले स्थान की स्वाभाविक उत्तराधिकारी है। ऐसे में अपने कामकाज से जनता के दिल के जीतने की कोशिशें भाजपा की सरकारों को करनी होगीं। उपचुनाव यह प्रकट करते हैं भाजपा की राज्य सरकारों के प्रति लोगों में गुस्सा नहीं है। किंतु सरकार में होने के नाते उनकी जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में लगातार दूसरी बार सरकार बनाकर भाजपा ने यह साबित किया है उसे जनभावनाओं का साथ प्राप्त है। अब उसे तीसरी पारी के लिए तैयार होना है। अतिआत्मविश्वास न दिखाते हुए अपने काम से वापसी की राह तभी आसान होगी, जब जनभावना इसी प्रकार बनी रहे। क्योंकि राजनीति में सारा कुछ अस्थाई और क्षणभंगुर होता है। भाजपा के पीछे संघ परिवार की एक शक्ति भी होती है। मध्यप्रदेश का जीवंत संगठन भी एक बड़ी ताकत है, इसका विस्तार करने की जरूरत है। सत्ता के लिए नहीं विचार और जनसेवा के लिए संगठन सक्रिय रहे तो उसे चुनावी सफलताएं तो मिलती ही हैं। अरसे बाद देश की राजनीति में गर्वनेंस और विकास के सवाल सबसे प्रभावी मुद्दे बन चुके हैं। भाजपा की सरकारों को इन्हीं सवालों पर खरा उतरना होगा।

खुद को संभाले कांग्रेसः

कांग्रेस की संगठनात्मक स्थिति बेहतर न होने के कारण वह मुकाबले से बाहर होती जा रही है। एक जीवंत लोकतंत्र के लिए यह शुभ लक्षण नहीं है। कांग्रेस को भी अपने पस्तहाल पड़े संगठन को सक्रिय करते हुए जनता के सवालों पर ध्यान दिलाते हुए काम करना होगा। क्योंकि जनविश्वास ही राजनीति में सबसे बड़ी पूंजी है। हमें देखना होगा कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में की तीन सीटों पर हुए उपचुनावों में कांग्रेस का पूरा चुनाव प्रबंधन पहले दिन से बदहाल था। भाजपा संगठन और सरकार जहां दोनों चुनावों में पूरी ताकत से मैदान में थे वहीं कांग्रेस के दोनों पूर्व मुख्यमंत्रियों की छग और मप्र के इन चुनावों में बहुत रूचि नहीं थी। इससे परिवार की फूट साफ दिखती है। कांग्रेस का यह बिखराव ही भाजपा के लिए विजयद्वार खोलता है। कुक्षी और सोनकच्छ की जीत मप्र में कांग्रेस की बदहवासी का ही सबब है। जहां जमुना देवी जैसी नेता की पारंपरिक सीट भी कांग्रेस को खोनी पड़ती है। अब सांसद बन गए सज्जन सिंह वर्मा की सीट भी भाजपा छीन लेती है। कांग्रेस को कहीं न कहीं भाजपा के चुनाव प्रबंधन से सीख लेनी होगी। खासकर उपचुनावों में भाजपा संगठन जिस तरह से व्यूह रचना करता है। उससे सबक लेनी लेने की जरूरत है। वह एक उपचुनाव ही था जिसमें छिंदवाड़ा जैसी सीट भी भाजपा ने अपनी व्यूहरचना से दिग्गज नेता कमलनाथ से छीन ली थी।

राज्यों में समर्थ नेतृत्वः

मप्र भाजपा के अध्यक्ष प्रभात झा और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह के लिए इन चुनावों की जीत वास्तव में एक बड़ा तोहफा है। संगठन की शक्ति और सतत सक्रियता के इस मंत्र को भाजपा ने पहचान लिया है। मप्र में जिस तरह के सवाल थे, किसानों की आत्महत्याओं के मामले सामने थे, पाले से किसानों की बर्बादी के किस्सों के बीच भी शिवराज और प्रभात झा की जोड़ी ने करिश्मा दिखाया तो इसका कारण यही था कि प्रतिपक्ष के नाते कांग्रेस पूरी तरह पस्तहाल है। राज्यों में प्रभावी नेतृत्व आज भाजपा की एक उपलब्धि है। इसके साथ ही सर्वसमाज से उसके नेता आ रहे हैं और नेतृत्व संभाल रहे हैं। भाजपा के लिए साधारण नहीं है कि उसके पास आज हर वर्ग में सक्षम नेतृत्व है। उसके सामाजिक विस्तार ने अन्य दलों के जनाधार को भी प्रभावित किया है। छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश कभी एक भूगोल के हिस्से थे, दोनों क्षेत्रों से एक सरीखी प्रतिक्रिया का आना यह संकेत भी है कि ये इलाके आज भी एक सा सोचते हैं और अपने पिछड़ेपन से मुक्त होने तथा तेजी से प्रगति करने की बेचैनी यहां के गांवों और शहरों में एक जैसी है। ऐसे समय में नेतृत्वकर्ता होने के नाते शिवराज सिंह चौहान और डा. रमन सिंह की जिम्मेदारियां बहुत बढ़ जाती हैं। क्योंकि इस क्षेत्रों में बसने वाले करोड़ों लोगों के जीवन और इन राज्यों के भाग्य को बदलने का अवसर समय ने उन्हें दिया है। उम्मीद है कि वे इन चुनौतियों को स्वीकार कर ज्यादा बेहतर करने की कोशिश करेंगें।

कुल मिलाकर ये उपचुनाव देश के मानस का एक संकेत तो देते ही हैं। एक अकेली सीट सूदूर मणिपुर की भी कांग्रेस को नहीं मिली है, वहां भी इस उपचुनाव से तृणमूल कांग्रेस का खाता खुल गया है। वहां तृणमूल प्रत्याशी ने कांग्रेस प्रत्याशी को हराकर यह सीट जीती है। ऐसे में कांग्रेस को निश्चय ही अपनी रणनीति पर विचार करना चाहिए। अपने विभ्रमों और बेचैनियों से आगे आकर उसे जनता के सवालों पर सक्रियता दिखानी होगी। क्योंकि हालात यह हैं कि आज सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का काम विरोधी दल और उससे जुड़े संगठन ही करते दिख रहे हैं। जैसे मध्यप्रदेश में किसानों के सवाल पर भारतीय किसान संध ने ही सरकार की नाक में दम किया और एक बड़े सवाल को कांग्रेस के खाते में जाने से बचा लिया। ये जमीनी हकीकतें बताती हैं कि कांग्रेस के लिए अभी इन राज्यों में मेहनत की दरकार है तभी वह अपनी खोयी हुयी जमीन बचा पाएगी।

राष्ट्रवादी पत्रकारिता के ध्वजवाहकः पं. मदनमोहन मालवीय


जन्मशताब्दी वर्ष पर विशेषः

- संजय द्विवेदी

यह हिंदी पत्रकारिता का सौभाग्य ही है कि देश के युगपुरूषों ने अपना महत्वपूर्ण समय और योगदान इसे दिया है। आजादी के आंदोलन के लगभग सभी महत्वपूर्ण नेताओं ने पत्रकारिता के माध्यम से अपना संदेश लोगों तक पहुंचाया और अंग्रेजी दासता के विरूद्ध एक कारगर हथियार के रूप में पत्रकारिता का इस्तेमाल किया। इसीलिए इस दौर की पत्रकारिता सत्ता और व्यवस्था की चारण न बनकर उसपर हल्ला बोलने वाली और सामाजिक जागृति का वाहक बनी। लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, लाला लाजपत राय से लेकर महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू, गणेशशंकर विद्यार्थी, अजीमुल्ला खान, पं. माखनलाल चतुर्वेदी, माधवराव सप्रे सबने पत्रकारिता के माध्यम से अपनी आवाज को लोगों तक पहुंचाने का काम किया। ऐसे ही नायकों में एक बड़ा नाम है पं. मदनमोहन मालवीय का, जिन्होंने अपनी पत्रकारिता के माध्यम से जो मूल्य स्थापित किए वे आज भी हमें राह दिखाते हैं। उस दौर की पत्रकारिता का मूल स्वर राष्ट्रवाद ही था। जिसमें भारतीय समाज को जगाने और झकझोरने की शक्ति निहित थी। इस दौर के संपादकों ने अपनी लेखनी से जो इतिहास रचा वह एक ऐसी प्रेरणा के रूप में सामने है कि आज की पत्रकारिता बहुत बौनी नजर आती है। उस दौर के संपादक सिर्फ कलम धिसने वाले कलमकार नहीं, अपने समय के नायक और प्रवक्ता भी थे। समाज जीवन में उनकी उपस्थिति एक सार्थक हस्तक्षेप करती थी। मालवीय जी इसी दौर के नायक हैं। वे शिक्षाविद् हैं,सामाजिक कार्यकर्ता हैं, स्वतंत्रता सेनानी हैं, श्रेष्ठ वक्ता हैं, लेखक हैं, कुशल पत्रकार और संपादक भी हैं। ऐसे बहुविध प्रतिभा सम्पन्न व्यक्ति को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने यूं ही महामना की संज्ञा नहीं दी। मालवीय जी की पत्रकारिता उनके जीवन का एक ऐसा उजला पक्ष है जिसकी चर्चा प्रायः नहीं हो पाती क्योंकि उनके जीवन के अन्य स्वरूप इतने विराट हैं कि इस ओर आलोचकों का ध्यान ही नहीं जाता। किंतु उनकी यह संपादकीय प्रतिभा भी साधारण नहीं थी।

देश के अत्यंत महत्वपूर्ण अखबार हिंदोस्थान का संपादक होने के नाते उन्होंने जो काम किए वे आज भी प्रेरणा का कारण हैं। हिंदोस्थान एक ऐसा पत्र था जिसकी शुरूआत लंदन से राजा रामपाल सिंह ने की थी। वे बेहद स्वतंत्रचेता और अपनी ही तरह के इंसान थे। लंदन में रहते हुए उन्होंने भारतीयों की समस्याओं की ओर अंग्रेजी सरकार का ध्यानाकर्षण करने लिए इस पत्र की शुरूआत की। साथ ही यह पत्र प्रवासी भारतीयों में राष्ट्रीय चेतना भरने का काम भी कर रहा था। कुछ समय बाद राजा रामपाल सिंह स्वयं कालाकांकर आकर रहने लगे और हिंदोस्थान का प्रकाशन भी कालाकांकर से होने लगा। कालाकांकर, उप्र के प्रतापगढ़ जिले में स्थित एक रियासत है। यहां हनुमत प्रेस की स्थापना करके राजा साहब ने इस पत्र का प्रकाशन जारी रखा। कालाकांकर एक गांव सरीखा ही था और यहां सुविधाएं बहुत कम थीं। ऐसे स्थान से अखबार का प्रकाशन एक मुश्किल काम था। बावजूद इसके अनेक महत्वपूर्ण संपादक इस अखबार से जुड़े। जिनमें मालवीय जी का नाम बहुत खास है। राजा साहब की संपादकों को तलाश करने की शैली अद्भुत थी। पं. मदनमोहन मालवीय का सन 1886 की कोलकाता कांग्रेस में एक बहुत ही ओजस्वी व्याख्यान हुआ। इसमें उन्होंने अपने अंग्रेजी भाषा में दिए व्याख्यान में कहा- एक राष्ट्र की आत्मा का हनन और उसके जीवन को नष्ट करने से अधिक और कोई अपराध नहीं हो सकता। हमारा देश इसके लिए ब्रिटिश सरकार को कभी क्षमा नहीं कर सकता कि उसने एक वीर जाति को भेड़-बकरियों की तरह डरपोक बना दिया है। इस व्याख्यान से राजा रामपाल सिंह बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने मालवीय जी से आग्रह किया कि वे उनके अखबार का संपादन स्वीकार करें। मालवीय जी ने उनकी बात तो मान ली किंतु उनसे दो शर्तें भी रखीं। पहला यह कि राजा साहब कभी भी नशे की हालत में उनको नहीं बुलाएंगें और दूसरा संपादन कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगें। यह दरअसल एक स्वाभिमानी संपादक ही कर सकता है। पत्रकारिता की आजादी पर आज जिस तरह के हस्तक्षेप हो रहे है और संपादक की सत्ता और महत्ता दोनों खतरे में हैं, मालवीय जी की ये शर्तें हमें संपादक का असली कद बताती हैं। राजा साहब ने दोनों शर्तें स्वीकार कर लीं। मालवीय जी के कुशल संपादन में हिंदोस्थान राष्ट्र की वाणी बन गया। उसे उनकी प्रखर लेखनी ने एक राष्ट्रवादी पत्र के रूप में देश में स्थापित कर दिया।

हिंदी पत्रकारिता का यह समय एक उज्जवल अतीत है। मालवीय जी ने ही पहली बार इस पत्र के माध्यम से लेखकों के पारिश्रमिक के सवाल को उठाया। उनके नेतृत्व में ही पहली बार विकास और गांवों की खबरों को देने का सिलसिला प्रारंभ हुआ। गांवों की खबरों और विकास के सवालों पर मालवीय जी स्वयं सप्ताह में एक लेख जरूर लिखते थे। जिसमें ग्राम्य जीवन की समस्याओं का उल्लेख होता था। गांवों के माध्यम से ही राष्ट्र को खड़ा किया जा सकता है इस सिद्धांत में उनकी आस्था थी। वे पत्रकारिता के सब प्रकार के कामों में दक्ष थे। मालवीय जी की संपादकीय नीति का मूल लक्ष्य उस दौर के तमाम राष्ट्रवादी नेताओं की तरह भारत मां को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराना ही था। उनकी नजर में स्वराज्य और राष्ट्रभाषा के सवाल सबसे ऊपर थे। भाषा के सवाल पर वे हमेशा हिंदी के साथ खड़े दिखते हैं और स्वभाषा के माध्यम से ही देश की उन्नति देखते थे। भाषा के सवाल पर वे दुरूह भाषा के पक्ष में न थे। अंग्रेजी और संस्कृत पर अधिकार होने के बावजूद वे हिंदी को संस्कृतनिष्ट बनाए जाने को गलत मानते थे।मालवीय जी स्वयं लिखते हैं- भाषा की उन्नति करने में हमारा सर्वप्रथम कर्तव्य यह है कि हम स्वच्छ भाषा लिखें।पुस्तकें भी ऐसी ही भाषा में लिखी जाएं। ऐसा यत्न हो कि जिससे जो कुछ लिखा जाए, वह हिंदी भाषा में लिखा जाए। जब भाषा में शब्द न मिलें तब संस्कृत से लीजिए या बनाइए। अपनी सहज भाषा और उसके प्रयोगों के कारण हिंदोस्थान जनप्रिय पत्र बन गया जिसका श्रेय उसके संपादक मालवीय जी को जाता है।

अपनी संपादकीय नीति के मामले में उन्हें समझौते स्वीकार नहीं थे। वे इस हद तक आग्रही थे कि अपनी नौकरी भी उन्होंने राजा रामपाल सिंह द्वारा उन्हें नशे की हालत में बुलाने के कारण छोड़ दी । संपादक के स्वाभिमान का यह उदाहरण आज के दौर में दुर्लभ है। वे सही मायने में एक ऐसे नायक हैं, जो अपनी इन्हीं स्वाभिमानी प्रवृत्तियों के चलते प्रेरित करता है। एक बार किसी संपादकीय सहयोगी ने संपादकीय नीति के विरूद्ध अखबार में कुछ लिख दिया। मालवीय जी उस समय मिर्जापुर में थे। जब वह टिप्पणी मालवीय जी ने पढ़ी तो संबंधित सहयोगी को लिखा- हमें खेद है कि हमारी अनुपस्थिति में ऐसी टिप्पणी छापी गयी। कोई चिंता नहीं, हम अपनी टिप्पणी कर दोष मिटा देंगें। अपने तीन सालों के संपादन काल में उन्होंने जिस तरह की मिसाल कायम की वह एक इतिहास है। जिस पर हिंदी पत्रकारिता गर्व कर सकती है। आज जबकि हिंदी पत्रकारिता पर संपादक नाम की संस्था के प्रभावहीन हो जाने का खतरा मंडरा रहा है, स्वभाषा के स्थान पर हिंग्लिश को स्थापित करने की कोशिशों पर जोर है, संपादक स्वयं का स्वाभिमान भूलकर बाजार और कारपोरेट के पुरजे की तरह संचालित हो रहे हैं- ऐसे कठिन समय में मालवीय जी की स्मृति बहुत स्वाभाविक और मार्मिक हो उठती है।

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

मैं एक मजदूर हूं। जिस दिन कुछ लिख न लूं, उस दिन मुझे रोटी खाने का कोई हक नहीं। -प्रेमचंद



बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता के खतरे

स्त्री को बाजार में उतारने की नहीं उसकी गरिमा बचाने की जरूरत

-संजय द्विवेदी

कांग्रेस की सांसद प्रिया दत्त ने वेश्यावृत्ति को लेकर एक नई बहस छेड़ दी है, जाहिर तौर पर उनका विचार बहुत ही संवेदना से उपजा हुआ है। उन्होंने अपने बयान में कहा है कि "मेरा मानना है कि वेश्यावृत्ति को कानूनी मान्यता प्रदान कर देनी चाहिए ताकि यौन कर्मियों की आजीविका प्रभावित न हो।" प्रिया के बयान के पहले भी इस तरह की मांगें उठती रही हैं। कई संगठन इसे लेकर बात करते रहे हैं। खासकर पतिता उद्धार सभा ने वेश्याओं को लेकर कई महत्वपूर्ण मांगें उठाई थीं। हमें देखना होगा कि आखिर हम वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाकर क्या हासिल करेंगें? क्या भारतीय समाज इसके लिए तैयार है कि वह इस तरह की प्रवृत्ति को सामाजिक रूप से मान्य कर सके। दूसरा विचार यह भी है कि इससे इस पूरे दबे-छिपे चल रहे व्यवसाय में शोषण कम होने के बजाए बढ़ जाएगा। आज भी यहां स्त्रियां कम प्रताड़ित नहीं हैं। सांसद दत्त ने भी अपने बयान में कहा है कि - "वे समाज का हिस्सा हैं, हम उनके अधिकारों को नजरअंदाज नहीं कर सकते। मैंने उन पर एक शोध किया है और पाया है कि वे समाज के सभी वर्गो द्वारा प्रताड़ित होती हैं। वे पुलिस और कभी -कभी मीडिया का भी शिकार बनती हैं।"

सही मायने में स्त्री को आज भी भारतीय समाज में उचित सम्मान प्राप्त नहीं हैं। अनेक मजबूरियों से उपजी पीड़ा भरी कथाएं वेश्याओं के इलाकों में मिलती हैं। हमारे समाज के इसी पाखंड ने इस समस्या को बढ़ावा दिया है। हम इन इलाकों में हो रही घटनाओं से परेशान हैं। एक पूरा का पूरा शोषण का चक्र और तंत्र यहां सक्रिय दिखता है। वेश्यावृत्ति के कई रूप हैं जहां कई तरीके से स्त्रियों को इस अँधकार में धकेला जाता है। आदिवासी इलाकों से लड़कियों को लाकर मंडी में उतारने की घटनाएं हों, या बंगाल और पूर्वोत्तर की स्त्रियों की दारूण कथाएं ,सब कंपा देने वाली हैं। किंतु सारा कुछ हो रहा है और हमारी सरकारें और समाज सब कुछ देख रहा है। समाज जीवन में जिस तरह की स्थितियां है उसमें औरतों का व्यापार बहुत जधन्य और निकृष्ट कर्म होने के बावजूद रोका नहीं जा सकता। गरीबी इसका एक कारण है, दूसरा कारण है पुरूष मानसिकता। जिसके चलते स्त्री को बाजार में उतरना या उतारना एक मजबूरी और फैशन दोनों बन रहा है। क्या ही अच्छा होता कि स्त्री को हम एक मनुष्य की तरह अपनी शर्तों पर जीने का अधिकार दे पाते। समाज में ऐसी स्थितियां बना पाते कि एक औरत को अपनी अस्मत का सौदा न करना पड़े। किंतु हुआ इसका उलटा। इन सालों में बाजार की हवा ने औरत को एक माल में तब्दील कर दिया है। मीडिया माध्यम इस हवा को तूफान में बदलने का काम कर रहे हैं। औरत की देह को अनावृत्त करना एक फैशन में बदल रहा है। औरत की देह इस समय मीडिया का सबसे लोकप्रिय विमर्श है। सेक्स और मीडिया के समन्वय से जो अर्थशास्त्र बनता है उसने सारे मूल्यों को शीर्षासन करवा दिया है । फिल्मों, इंटरनेट, मोबाइल, टीवी चेनलों से आगे अब वह मुद्रित माध्यमों पर पसरा पड़ा है। प्रिंट मीडिया जो पहले अपने दैहिक विमर्शों के लिए प्लेबायया डेबोनियरतक सीमित था, अब दैनिक अखबारों से लेकर हर पत्र-पत्रिका में अपनी जगह बना चुका है। अखबारों में ग्लैमर वर्ल्र्ड के कॉलम ही नहीं, खबरों के पृष्ठों पर भी लगभग निर्वसन विषकन्याओं का कैटवाग खासी जगह घेर रहा है। वह पूरा हल्लाबोल 24 घंटे के चैनलों के कोलाहल और सुबह के अखबारों के माध्यम से दैनिक होकर जिंदगी में एक खास जगह बना चुका है। शायद इसीलिए इंटरनेट के माध्यम से चलने वाला ग्लोबल सेक्स बाजार करीब 60 अरब डॉलर तक जा पहुंचा है। मोबाइल के नए प्रयोगों ने इस कारोबार को शक्ति दी है। एक आंकड़े के मुताबिक मोबाइल पर अश्लीलता का कारोबार भी पांच सालों में 5अरब डॉलर तक जा पहुंचेगा ।बाजार के केंद्र में भारतीय स्त्री है और उद्देश्य उसकी शुचिता का उपहरण । सेक्स सांस्कृतिक विनिमय की पहली सीढ़ी है। शायद इसीलिए जब कोई भी हमलावर किसी भी जातीय अस्मिता पर हमला बोलता है तो निशाने पर सबसे पहले उसकी औरतें होती हैं । यह बाजारवाद अब भारतीय अस्मिता के अपहरण में लगा है-निशाना भारतीय औरतें हैं। ऐसे बाजार में वेश्यावृत्ति को कानूनी जामा पहनाने से जो खतरे सामने हैं, उससे यह एक उद्योग बन जाएगा। आज कोठेवालियां पैसे बना रही हैं तो कल बड़े उद्योगपति इस क्षेत्र में उतरेगें। युवा पीढ़ी पैसे की ललक में आज भी गलत कामों की ओर बढ़ रही है, कानूनी जामा होने से ये हवा एक आँधी में बदल जाएगी। इससे हर शहर में ऐसे खतरे आ पहुंचेंगें। जिन शहरों में ये काम चोरी-छिपे हो रहा है, वह सार्वजनिक रूप से होने लगेगा। ऐसी कालोनियां बस जाएंगी और ऐसे इलाके बन जाएंगें। संभव है कि इसमें विदेशी निवेश और माफिया का पैसा भी लगे। हम इतने खतरों को उठाने के लिए तैयार नहीं हैं। विषय बहुत संवेदनशील है, हमें सोचना होगा कि हम वेश्यावृत्ति के समापन के लिए काम करें या इसे एक कानूनी संस्था में बदल दें। हमें समाज में बदलाव की शक्तियों का साथ देना चाहिए ताकि एक औरत के मनुष्य के रूप में जिंदा रहने की स्थितियां बहाल हो सकें। हमें स्त्री के देह की गरिमा का ख्याल रखना चाहिए, उसकी किसी भी तरह की खरीद-बिक्री को प्रोत्साहित करने के बजाए, उसे रोकने का काम करना चाहिए। प्रिया दत्त ने भले ही बहुत संवेदना से यह बात कही हो, पर यह मामले का अतिसरलीकृत समाधान है। वे इसके पीछे छिपी भयावहता को पहचान नहीं पा रही हैं। हमें स्त्री की गरिमा की बात करनी चाहिए- उसे बाजार में उतारने की नहीं। एक सांसद होने के नाते उन्हें ज्यादा जवाबदेह और जिम्मेदार होना चाहिए।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

जब मोबाइल जिंदगी बन जाए


रेडिएशन के खतरों के बावजूद मोबाइल पर बरस रहा है लोगों का प्यार

-संजय द्विवेदी

यह दौर दरअसल मोबाइल क्रांति का समय है। इसने सूचनाओं और संवेदनाओं दोनों को कानों-कान कर दिया है। अब इसके चलते हमारे कान, मुंह, उंगलियां और दिल सब निशाने पर हैं। मुश्किलें इतनी बतायी जा रही हैं कि मोबाइल डराने लगे हैं। कई का अनुभव है कि मोबाइल बंद होते हैं तो सूकून देते हैं पर क्या हम उन्हें छोड़ पाएगें? मोबाइल फोनों ने किस तरह जिंदगी में जगह बनाई है, वह देखना एक अद्भुत अनुभव है। कैसे कोई चीज जिंदगी की जरूरत बन जाती है- वह मोबाइल के बढ़ते प्रयोगों को देखकर लगता है। वह हमारे होने-जीने में सहायक बन गया है। पुराने लोग बता सकते हैं कि मोबाइल के बिना जिंदगी कैसी रही होगी। आज यही मोबाइल खतरेजान हो गया है। पर क्या मोबाइल के बिना जिंदगी संभव है ? जाहिर है जो इसके इस्तेमाल के आदी हो गए हैं, उनके लिए यह एक बड़ा फैसला होगा। मोबाइल ने एक पूरी पीढ़ी की आदतों उसके जिंदगी के तरीके को प्रभावित किया है।

विकिरण के खतरों के बाद भीः

सरकार की उच्चस्तरीय कमेटी ने जो रिपोर्ट सौंपी है वह बताती है कि मोबाइल कितने बड़े खतरे में बदल गया है। वह किस तरह अपने विकिरण से लोगों की जिंदगी को खतरे में डाल रहा है। रेडियेशन के प्रभावों के चलते आदमी की जिंदगी में कई तरह की बीमारियां घर बना रही हैं, वह इससे जूझने के लिए विवश है। इस समिति ने यह भी सुझाव दिया है कि रेडियेशन संबंधी नियमों भारतीय जरूरतों के मुताबिक नियमों में बदलाव की जरूरत है। जाहिर तौर पर यह एक ऐसा विषय पर जिस पर व्यापक विमर्श जरूरी है। मोबाइल के प्रयोगों को रोका तो नहीं जा सकता हां ,कम जरूर किया जा किया जा सकता है। इसके लिए ऐसी तकनीकों का उपयोग हो जो कारगर हों और रेडियेशन के खतरों को कम करती हों। आज शहरों ही नहीं गांव-गांव तक मोबाइल के फोन हैं और खतरे की घंटी बजा रहे हैं। लोगों की जिंदगी में इसकी एक अनिर्वाय जगह बन चुकी है। इसके चलते लैंडलाइन फोन का उपयोग कम होता जा रहा है और उनकी जगह मोबाइल फोन ले रहे हैं।

फैशन और जरूरतः

ये फोन आज जरूरत हैं और फैशन भी। नयी पीढ़ी तो अपना सारा संवाद इसी पर कर रही है, उसके होने- जीने और अपनी कहने-सुनने का यही माध्यम है। इसके अलावा नए मोबाइल फोन अनेक सुविधाओं से लैस हैं। वे एक अलग तरह से काम कर रहे हैं और नई पीढी को आकर्षित करने का कोई अवसर नहीं छोड़ते। ऐसे में सूचना और संवाद की यह नयी दुनिया मोबाइल फोन ही रच रहे हैं। आज वे संवाद के सबसे सुलभ, सस्ते और उपयोगी साधन साबित हो चुके हैं। मोबाइल फोन जहां खुद में रेडियो, टीवी और सोशल साइट्स के साथ हैं वहीं वे तमाम गेम्स भी साथ रखते हैं। वे दरअसल आपके एकांत के साथी बन चुके हैं। वे एक ऐसा हमसफर बन रहे हैं जो आपके एकांत को भर रहे हैं चुपचाप। मोबाइल एक सामाजिकता भी है और मनोविज्ञान भी। वह बताता है कि आप इस भीड़ में अकेले नहीं हैं। वह बेसिक फोन से बहुत आगे निकल चुका है। वह परंपरा के साथ नहीं है, वह एक उत्तरआधुनिक संवाद का यंत्र है। उसके अपने बुरे और अच्छेपन के बावजूद वह हमें बांधता है और बताता है कि इसके बिना जिंदगी कितनी बेमानी हो जाएगी।

नित नए अवतारः

मोबाइल नित नए अवतार ले रहा है। वह खुद को निरंतर अपडेट कर रहा है। वह आज एक डिजीटल डायरी, कंप्यूटर है, लैपटाप है, कलकुलेटर है, वह घड़ी भी है और अलार्म भी और भी न जाने क्या- क्या। उसने आपको, एक यंत्र में अनेक यंत्रों से लैस कर दिया है। वह एक अपने आप में एक पूरी दुनिया है जिसके होने के बाद आप शायद कुछ और न चाहें। इस मोबाइल ने एक पूरी की पूरी जीवन शैली और भाषा भी विकसित की है। उसने मैसजिंग के टेक्ट्स्ट को एक नए पाठ में बदल दिया है। यह आपको फेसबुक से जोड़ता और ट्विटर से भी। संवाद ऐसा कि एक पंक्ति का विचार यहां हाहाकार में बदल सकता है। उसने विचारों को कुछ शब्दों और पंक्तियों में बाँधने का अभ्यास दिया है। नए दोस्त दिए हैं और विचारों को नए तरीके से देखने का अभ्यास दिया है। उसने मोबाइल मैसेज को एक नए पाठ में बदल दिया है। वे संदेश अब सुबह, दोपहर शाम कभी आकर खड़े हो जाते हैं और आपसे कुछ कहकर जाते हैं। इस पर प्यार से लेकर व्यापार सब पल रहा है। ऐसे में इस मोबाइल के प्रयोगों से छुटकारा तो नामुमकिन है और इसका विकल्प यही है कि हम ऐसी तकनीको से बने फोन अपनाएं जिनमें रेडियेशन का खतरा कम हो। हालांकि इससे मोबाइल कंपनियों को एक नया बाजार मिलेगा और अंततः लोग अपना फोन बदलने के लिए मजबूर होंगें। किंतु खतरा बड़ा है इसके लिए हमें समाधान और बचत के रास्ते तो तलाशने ही होंगें। क्योंकि मोबाइल के बिना अब जिंदगी बहुत सूनी हो जाएगी। इसलिए मोबाइल से जुड़े खतरों को कम करने के लिए हमें राहें तलाशनी होगीं। क्योंकि चेतावनियों को न सुनना खतरे को और बढ़ाएगा।

प्यार का एक दिन

वेलैंटाइन डे ( १४ फरवरी) पर विशेषः

-संजय द्विवेदी

क्या प्रेम का कोई दिन हो सकता है। अगर एक दिन है, तो बाकी दिन क्या नफरत के हैं ? वेलेंटाइन डे जैसे पर्व हमें बताते हैं कि प्रेम जैसी भावना को भी कैसे हमने बांध लिया है, एक दिन में या चौबीस घंटे में। पर क्या ये संभव है कि आदमी सिर्फ एक दिन प्यार करे, एक ही दिन इजहार-ए मोहब्बत करे और बाकी दिन काम का आदमी बना रहे। जाहिर तौर पर यह संभव नहीं है। प्यार एक बेताबी का नाम है, उत्सव का नाम है और जीवन में आई उस लहर का नाम है जो सारे तटबंध तोड़ते हुए चली जाती है। शायद इसीलिए प्यार के साथ दर्द भी जुड़ता है और शायर कहते हैं दर्द का हद से गुजरना है दवा हो जाना।

प्रेम के इस पर्व पर आंखों का चार होना और प्रेम प्रस्ताव आज एक लहर में बदल रहे हैं। स्कूल-कालेजों में इसे खासी लोकप्रियता प्राप्त है। इसने सही मायने में एक नई दुनिया रच ली है और इस दुनिया में नौजवान बिंदास घूम रहे हैं और धूम मचा रहे है। भारतीय समाज में प्रेम एक ऐसी भावना है जिसको बहुत आदर प्राप्त नहीं है। दो युवाओं के मेलजोल को अजीब निगाह से देखना आज भी जारी है। हमारी हिप्पोक्रेसी या पाखंड के चलते वेलेंटाइन डे की लोकप्रियता हमारे समाज में इस कदर फैली है। शायद भारतीय समाज में इतने विधिनिषेध और पाखंड न होते तो वेलेंटाइन डे जैसे त्यौहारों को ऐसी सफलता न मिलती। किंतु पाखंड ने इस पर्व की लोकप्रियता को चार चांद लगा दिए हैं। भारत की नौजवानी अपने सपनों के साथ जी रही है किंतु उसका उत्सवधर्मी स्वभाव हर मौके को एक खास इवेंट में बदल देता है। प्रेम किसी भी रास्ते आए उसका स्वागत होना चाहिए। वेलेंटाइन एक ऐसा ही मौका है , आपकी आकांक्षाओं और सपनों में रंग भरने का दिन भी। सेंट वेलेंटाइन ने शायद कभी सोचा भी न हो कि भारत जैसे देश में उन्हें ऐसी लोकस्वीकृति मिलेगी।

बाजार में त्यौहारः

वेलेंटाइन के पर्व को दरअसल बाजार ने ताकत दी है। कार्ड और गिफ्ट कंपनियों ने इसे रंगीन बना दिया है। भारत आज नौजवानों का देश है। इसके चलते यह पर्व एक अद्भुत लोकप्रियता के शिखर पर है। नौजवानों ने इसे दरअसल प्रेम पर्व बना लिया है। इसने बाजार की ताकतों को एक मंच दिया है। बाजार में उपलब्ध तरह-तरह के गिफ्ट इस पर्व को साधारण नहीं रहने देते, वे हमें बताते हैं कि इस बाजार में अब प्यार एक कोमल भावना नहीं है। वह एक आतंरिक अनूभूति नहीं है वह बदल रहा है भौतिक पदार्थों में। वह आंखों में आंखें डालने से महसूस नहीं होता, सांसों और धड़कनों से ही उसका रिश्ता नहीं रहा, वह अब आ रहा है मंहगे गिफ्ट पर बैठकर। वह महसूस होता है महंगे सितारा होटलों की बिंदास पार्टियों में, छलकते जामों में, फिसलते जिस्मों पर। ये प्यार बाजार की मार का शिकार है। उसे और कुछ चाहिए, कुछ रोचक और रोमांचक। उसकी रूमानियत अब पैसे से खिलती है, उससे ही दिखती है। यह हमें बताती है कि प्यार अब सस्ता नहीं रहा। वह यूं ही नहीं मिलता। लैला-मजनूं, शीरी-फरहाद की बातें न कीजिए, यह प्यार बाजार के उपादानों के सहारे आता है, फलता और फूलता है। इस प्यार में रूह की बातें और आत्मा की रौशनी नहीं हैं, चौधिंयाती हुयी सरगर्मियां हैं, जलती हुयी मोमबत्तियां हैं, तेज शोर है, कानफाड़ू म्यूजिक है। इस आवाज को दिल नहीं, कान सुनते हैं। कानों के रास्ते ये आवाज, कभी दिल में उतर जाए तो उतर जाए।

इस दौर में प्यारः

इस दौर में प्यार करना मुश्किल है और निभाना तो और मुश्किल। इस दौर में प्यार के दुश्मन भी बढ़ गए हैं। कुछ लोगों को वेलेंटाइन डे जैसे पर्व रास नहीं आते। इस अवसर पर वे प्रेमियों के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं। देश में अनेक संगठन चाहते हैं कि नौजवान वेलेंटाइन का पर्व न मनाएं। जाहिर तौर पर उनकी परेशानियों हमारे इसी पाखंड पर्व से उपजी हैं। हमें परेशानी है कि आखिर कोई ऐसा त्यौहार कैसे मना सकता है जो प्यार का प्रचारक है। प्यार के साथ आता बाजार इसे प्रमोट करता है, किंतु समाज उसे रोकता है। वह चाहता है संस्कृति अक्षुण्ण रहे। संस्कृति और प्यार क्या एक-दूसरे के विरोधी हैं ? प्यार, अश्ललीलता और बाजार मिलकर एक नई संस्कृति बनाते हैं। शायद इसीलिए संस्कृति के रखवाले इसे अपसंस्कृति कहते हैं। सवाल यह है कि बंधन और मिथ्याचार क्या किसी संस्कृति को समर्थ बनाते हैं ? शायद नहीं। इसीलिए नौजवान इस विधि निषेधों के खिलाफ हैं। वे इसे नहीं मानते, वे तोड़ रहे हैं बंधनों को। बना रहे हैं अपनी नई दुनिया। वे इस दुनिया में किसी के हस्तक्षेप के खिलाफ हैं। वे चाहते हैं प्यार जिए और सलामत रहे। प्यार की जिंदाबाद लगे। बाजार उनके साथ है। वह रंग भर रहा है, उन्हें प्यार के नए फलसफे समझा रहा है। प्यार के नए रास्ते बता रहा है। इस नए दौर का प्यार भी क्षणिक है ,वह एक दिन का प्यार है। इसलिए वन नाइट स्टे एक हकीकत बनकर हमें मुंह चिढ़ा रहा है। ऐसे में रास्ता क्या है ? सहजीवन जब सच्चाई में बदल रहा हो। महानगर अकेले होते इंसान को इन रास्तों से जीना सिखा रहे हों। एक वर्चुअल दुनिया रचते हुए हम अपने अकेले होने के खिलाफ खड़े हो रहे हों तो हमारा रास्ता मत रोकिए। यह हमारी रची दुनिया भले ही क्षणिक और आभासी है, हम इसी में मस्त-मस्त जीना चाहते हैं। नौजवान कुछ इसी तरह से सोचते हैं। प्यार उनके लिए भार नहीं है, जिम्मेदारी नहीं है, दायित्व नहीं है, एक विनिमय है। क्योंकि यह बाजार का पैदा किया हुआ, बाजार का प्यार है और बाजार में कुछ स्थाई नहीं होता। इसलिए उन्हें झूमने दीजिए, क्योंकि इस कोलाहल में वे आपकी सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्हें पता है कि आज वेलेंटाइन डे है, कल नई सुबह होगी जो उनकी जिंदगी में ज्यादा मुश्किलें,ज्यादा चुनौतियां लेकर आने वाली है- इसलिए वे कल के इंतजार में आज की शाम खराब नहीं करना चाहते। इसलिए हैप्पी वेलेंटाइन डे।


मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

जब कोई किसान आत्महत्या करता है

अन्नदाता से को इस जाल से निकालने की जिम्मेदारी सत्ता और समाज दोनों की

- संजय द्विवेदी

यह सप्ताह दुखी कर देने वाली खबरों से भरा पड़ा है। मध्यप्रदेश में किसानों की आत्महत्याओं का सिलसिला चल रहा है। हर दिन एक न किसान की आत्महत्या की खबरों ने मन को कसैला कर दिया है। कर्ज के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्याओं की खबरें बताती हैं कि हालात किस तरह बिगड़े हुए हैं। ऐसे कठिन समय में किसानों को संबल देना समाज और सरकार दोनों की जिम्मेदारी है। क्योंकि यह चलन एक-दूसरे को देखकर जोर पकड़ सकता है। जिंदगी में मुसीबतें आती हैं किंतु उससे लड़ने का हौसला खत्म हो जाए तो क्या बचता है। जाहिर हैं हमें यहीं चोट करनी चाहिए कि लोगों का हौसला न टूटे वरना एक समय विदर्भ में जो हालात बने थे वह चलन यहां शुरू हो सकता है। ऐसे में सरकारी तंत्र को ज्यादा संवेदना दिखाने की जरूरत है, उसे यह प्रदर्शित करना होगा कि वह किसानों के दर्द में शामिल है। कर्ज लेने और न चुका पाने का जो भंवर हमने शुरू किया है, उसकी परिणति तो यही होनी थी।

भारतीय खेती का चेहरा, चाल और चरित्र सब बदल रहा है। खेती अपने परंपरागत तरीकों से हट रही है और नए रूप ले रही है। बैलों की जगह टैक्टर, साइकिल की जगह मोटरसाइकिलों का आना, दरवाजे पर चार चक्के की गाड़ियों की बनती जगह यूं ही नहीं थी। इसके फलित भी सामने आने थे। निजी हाथों की जगह जब मशीनें ले रही थीं। बैलों की जगह जब दरवाजे पर टैक्टर बांधे जा रहे थे तो यह खतरा आसन्न था ही। गांव भी आज सामूहिक सामाजिक शक्ति का केंद्र न रहकर शहरी लोगों, बैंकों और सरकारों की तरफ देखने वाले रह गए। इस खत्म होते स्वालंबन ने सारे हालात बिगाड़े हैं। आज सरकारी तंत्र के यह गंभीर चिंता है कि इतनी सारी किसान समर्थक योजनाओं के बावजूद क्यों किसान आत्महत्या के लिए मजबूर हैं। जाहिर तौर पर इसके पीछे सरकार, उसके तंत्र और बाजार की शक्तियों पर किसानों की निर्भरता जिम्मेदार है। किसान इस जाल में लगातार फंस रहे हैं और कर्ज का बोझ लगातार बढ़ रहा है। बाजार की नीतियों के चलते उन्हें सही बीज, खाद कीटनाशक सब गलत तरीके से और घटिया मिलते हैं। जाहिर तौर पर इसने भी फसलों के उत्पादन पर विपरीत प्रभाव डाला है। इसके चलते आज खेती हानि का व्यवसाय बन गयी है। अन्नदाता खुद एक कर्ज के चक्र में फंस जाता है। मौसम की मार अलग है। सिंचाई सुविधाओं के सवाल तो जुड़े ही हैं। किसान के लिए खेती आज लाभ का धंधा नहीं रही। वह एक ऐसा कुचक्र बन रही है जिसमें फंसकर वह कहीं का नहीं रह जा रहा है। उसके सामने परिवार को पालने से लेकर आज के समय की तमाम चुनौतियों से जूझने और संसाधन जुटाने का साहस नहीं है। वह अपने परिवार की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रहा है। यह अलग व्याख्या का विषय है कि जरूरत किस तरह नए संदर्भ में बहुत बढ़ और बदल गयी हैं।

कर्ज में डूबा किसान आज मौसम की मार, खराब खाद और बीज जैसी चुनौतियों के कारण अगर हताश और निराश है तो उसे इस हताशा से निकालने की जिम्मेदारी किसकी है। सरकार, उसका तंत्र, समाज और मीडिया सबको एक वातावरण बनाना होगा कि समाज में किसानों के प्रति आदर और संवेदना है। वे मौत को गले न लगाएं लोग उनके साथ हैं। शायद इससे निराशा का भाव कम किया जा सके। मध्यप्रदेश मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने हालांकि तुरंत इस विषय में धोषणा करते हुए कहा कि किसानों को फसल का पूरा मुआवजा मिलेगा और किसानों को आठ घंटे बिजली भी मिलने लगेगी। निश्चय ही मुख्यमंत्री की यह धोषणा कि किसानों को उनके हुए नुकसान के बराबर मुआवजा मिलेगा एक संवेदशील धोषणा है। सरकार को भी इन घटनाओं के अन्य कारण तलाशने में समय गंवाने के बजाए किसानों को आश्वस्त करना चाहिए। अपने अमले को भी यह ताकीद करनी चाहिए कि वे किसानों के साथ संवेदना से पेश आएं। मूल चिंता यह है कि किसानों की स्थिति को देखते हुए जिस तरह बैंक कर्ज बांट रहे हैं और किसानों को लुभा रहे हैं वह कहीं न कहीं किसानों के लिए घातक साबित हो रहा है। कर्ज लेने से किसान उसे समय पर चुका न पाने कारण अनेक प्रकार से प्रताड़ित हो रहा है और उसके चलते उस पर दबाव बन रहा है। सरकार में भी इस बात को लेकर चिंता है कि कैसे हालात संभाले जाएं। सरकार के तंत्र को सिर्फ संवेदनशीलता के बल पर इस विषय से जूझना चाहिए। मुख्यमंत्री की छवि एक किसान समर्थक नेता की है। वे गांव से आने के नाते किसानों की समस्याओं को गंभीरता से समझते हैं इसलिए उनसे उम्मीदें भी बहुत बढ़ जाती हैं। एक बड़ा प्रदेश होने के नाते किसानों की समस्याओं भी बिखरी हुयी हैं। उम्मीद की जानी चाहिए अन्नदाताओं के मनोबल बनाने के लिए सरकार कुछ ऐसे कदम उठाएगी जिससे वे आत्महत्या जैसी कार्रवाई करने के लिए विवश न हों।

भारतीय खेती पर बाजार का यह हमला असाधारण नहीं है। बैंक से लेकर साहूकार ही नहीं, गांवों में बिचौलियों की आमद-रफ्त ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा है। ये सब मिलकर गांव में एक ऐसा लूट तंत्र बनाते हैं, जिससे बदहाली बढ़ रही है। उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में गन्ना किसानों को सालोंसाल भुगतान नहीं होता। व्यावसायिक लाबियों के दबाव में हमारे केंद्रीय कृषि मंत्री किस तरह की बयानबाजी कर रहे हैं, यह सारे देश ने देखा है। एक तरफ बर्बाद फसल, दूसरी ओर बढ़ती महंगाई आखिर आम आदमी के लिए इस गणतंत्र में क्या जगह है ? जो हालात हैं वह एक संवेदनशील समाज को झकझोरकर जगाने के लिए पर्याप्त हैं किंतु फिर भी हमारे सत्ताधीशों की कुंभकर्णी निद्रा जारी है। ऐसे में क्या हम दिल पर हाथ रखकर यह दावा कर सकते हैं कि हम एक लोककल्याणकारी राज्य की शर्तों को पूरा कर रहे हैं।

मध्यप्रदेश की नौकरशाही किसानों की आत्महत्याओं को एक अलग रंग देने में लगी है। कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्याओं के नए कारण रच या गढ़ कर हमारी नौकरशाही क्या इस पाप से मुक्त हो जाएगी,यह एक बड़ा सवाल है। हां, सत्ता में बैठे नेताओं को गुमराह जरूर कर सकती है। किसानों की आह लेकर कोई भी राजसत्ता लंबे समय तक सिंहासन पर नहीं रह सकती है। अगर किसानों की आत्मह्त्याओं को रोकने के लिए सरकार, प्रशासन और समाज तीनों मिलकर आगे नहीं आते, उन्हें संबल नहीं देते तो इस पाप में हम सब भागीदार माने जाएंगें। करोंड़ों का घोटाला करके, करोड़ों की सार्वजनिक संपत्ति को पी-पचा कर बैठे राजनेताओं व नौकरशाहों, बैकों का करोंड़ों का कर्ज दबाकर बैठे व्यापारियों से ये किसान अच्छे हैं जिनकी आंखों में पानी बाकी है कि कुछ लाख के कर्ज की शरम से बचने के लिए वे आत्महत्या जैसे कदम उठा लेते हैं। ऐसे नैतिक समाज (किसानों) को हमें बचाना चाहिए ताकि वे हमारे समाज को जीवंत और प्राणवान रख सकें। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने समय रहते सक्रियता दिखाकर इस हालात को संभालने की दिशा में प्रयास शुरू किए हैं। उन्होंने पीड़ित किसानों और प्रधानमंत्री से मुलाकात कर देश का ध्यान इस ओर खींचा है। केंद्र सरकार को भी इस संकट को ध्यान में रखते हुए राज्य को अपेक्षित मदद देनी चाहिए। समाज जीवन के अन्य अंगों को भी इस विपदा से उबारने के लिए अन्नदाता का संबल बनना चाहिए, क्योंकि यही एक संवेदनशील समाज की पहचान है।

उर्दू पत्रकारिता पर विमर्श के बहाने एक सही शुरूआत


भारतीय भाषाओं को बचाने के लिए आगे आने की जरूरत - संजय द्विवेदी

यह मध्यप्रदेश का सौभाग्य है कि उसकी राजधानी भोपाल से उर्दू पत्रकारिता के भविष्य पर सार्थक विमर्श की शुरूआत हुई है। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय, भोपाल और इसके कुलपति प्रो.बृजकिशोर कुठियाला इसके लिए बधाई के पात्र हैं कि उन्होंने हिंदी ही नहीं भारतीय भाषा परिवार की सभी भाषाओं के विकास और उन्हें एकता के सूत्र में बांधने का लक्ष्य अपने हाथ में लिया है।

यह सुखद संयोग है कि गत 22 जनवरी को विश्वविद्यालय के परिसर में उर्दू भाषा पर संवाद हुआ और 23 जनवरी को भोपाल के शहीद भवन में भारतीय भाषाओं पर बातचीत हुयी। यह शुरूआत मध्यप्रदेश जैसे राज्य से ही हो सकती है, इसे यूं ही देश का ह्दय प्रदेश नहीं कहा जाता। मप्र का भोपाल एक ऐसा शहर है जहां हिंदी और उर्दू पत्रकारिता ही नहीं दोनों भाषाओं का साहित्य फला-फूला है। अपनी सांस्कृतिक विरासतों,भाषाओं व बोलियों का सहेजने का जो उपक्रम मध्यप्रदेश में हुआ है वैसा अन्य स्थानों पर नहीं दिखता।

उर्दू पत्रकारिताः चुनौतियां और अपेक्षाएं विषय पर आयोजित इस सेमीनार में जुटे उर्दू संपादकों, पत्रकारों और अध्यापकों ने जो बातचीत की वह बताती है हमें उर्दू के विकास को एक खास नजर से देखने की जरूरत है और देश के विकास में उसका एक बड़ा योगदान सुनिश्चित किया जा सकता है। शायद इसीलिए पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ बेग का कहते है कि उर्दू अपने घर में ही बेगानी हो चुकी है। सियासत ने इन सालों में सिर्फ देश को तोड़ने का काम किया है। अब भारतीय भाषाओं का काम है कि वे देश को जोड़ने का काम करें।

आजादी के आंदोलन में भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता का खास योगदान रहा है। उसमें उर्दू पत्रकारिता अग्रणी रही है। लाला लाजपत राय जैसे हिंद समाचार के संस्थापक और क्रांतिकारियों ने इसे एक नई दिशा दी। अनेक अखबारों के संपादकों को जेल हुयी, यातनाएं दी गयीं। हिंदी के बड़े लेखक के रूप में जाने जाने वाले मुंशी प्रेमचंद की पहली किताब सोजे वतन को अंग्रेजी सरकार ने जब्त कर लिया था। ऐसे संघर्षों से ही भाषा फली-फूली है। आजादी के आंदोलन की भाषा हिंदी और उर्दू रही है। इन दोनों भाषाओं के अखबारों ने जैसी अलख जगाई उसका एक इतिहास है। इन्होंने राजनीतिक जागरूकता लाने में एक अहम भूमिका निभाई। सामाजिक और राजनीतिक तौर पर समाज को जागृत करने में इन अखबारों की एक खास भूमिका रही है।

उर्दू ,भारत में पैदा हुयी भाषा है जिसका अपना एक शानदार इतिहास है। उसका साहित्य एक प्रेरक विषय है। देश के नामवर शायरों की वजह से दुनिया में हमारी एक पहचान बनी है। लेखकों ने हमें एक उँचाई दिलाई है। उर्दू मीडिया ने भी आजादी के बाद काफी तरक्की की है। नई प्रौद्योगिकी को अपनाने के बाद उर्दू के अखबारों को काफी ताकत मिली है। वे व्यापक कवरेज पर ध्यान दे रहे हैं। किंतु यह दुखद है कि नयी पीढ़ी में उर्दू के प्रति जागरूकता कम हो रही है। वह अब व्यापक रूप से संवाद की भाषा नहीं रह पा रही है।

नए समय में हमें अपनी भारतीय भाषाओं को बचाने की जरूरत है। उनके अच्छे साहित्य का अनुवाद करने की जरूरत है ताकि विविध भाषाओं में लिखे जा रहे अच्छे ज्ञान से हमारा अपरिचय न रह सके। हम एक दूसरे के बेहतर साहित्य से रूबरू हो सकें। हालांकि आंकड़े बताते हैं कि उर्दू अखबारों की स्थिति में लगातार सुधार हो रहा है। खासकर पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र तथा देश के दक्षिणी हिस्से में उर्दू के अखबार लोकप्रिय हो रहे हैं। आज ये अखबार कहीं भी अंग्रेजी या भारतीय भाषाओं के मुकाबले कमजोर नहीं है। सहारा उर्दू रोजनामा (नई दिल्ली) के ब्यूरो चीफ असद रजा की राय में हिंदी व उर्दू पत्रकारिता करने के लिए दोनों भाषाओं को जानना चाहिए। उर्दू अखबारों को अद्यतन तकनीकी के साथ साथ अद्यतन विपणन ( लेटेस्ट मार्केटिंग) को भी अपनाना चाहिए।

तमाम समस्याओं के बीच भी उर्दू मीडिया की एक वैश्विक पहचान बन रही है। वह आज सिर्फ भारत ही नहीं दुनिया की भाषा बन रही है। यह सौभाग्य ही है कि हिंदी, उर्दू , पंजाबी, मलयालम और गुजराती जैसी भाषाएं आज विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना रही है। दुनिया के तमाम देशों में रह रहे भारतवंशी अपनी भाषाओं के साथ हैं और भारत के समाचार पत्र और टीवी चैनल ही नहीं, फिल्में भी विदेशों में बहुत लोकप्रिय हैं। यह सारी भाषाएं मिलकर हिंदुस्तान की एकता को मजबूत करती हैं। एक ऐसा परिवेश रचती हैं जिसमें हिंदुस्तानी खुद को एक दूसरे के करीब पाते हैं।

यह कहना गलत है कि उर्दू किसी एक कौम की भाषा है। वह सबकी भाषा है। कृश्नचंदर, प्रेमचंद, कृष्णबिहारी नूर, रधुपति सहाय फिराक गोरखपुरी, चकबस्त, लालचंद फलक, सत्यानंद शाकिर, गुलजार, उपेंद्र नाथ अश्क, चंद्रभान ख्याल, गोपीचंद नारंग जैसे तमाम लेखकों ने उर्दू को समृद्ध किया है। ऐसी एक लंबी सूची बनाई जा सकती है। इसी तरह आप देखें तो धर्म के आधार पर पाकिस्तान का विभाजन तो हुआ किंतु भाषा के नाम पर देश टूट गया और बांगलाभाषी मुसलमान भाईयों ने अपना अलग देश बांग्लादेश बना लिया। इसलिए यह सोच गलत है कि उर्दू मुसलमानों की भाषा है। यह एक ऐसी भाषा है जिसमें आज भी हिंदुस्तान की सांसें हैं। उसके तमाम बड़े कवि रहीम,रसखान ने देश की धड़कनों को आवाज दी है। हमारे सूफी संतों और कवियों ने इसी परंपरा को आगे बढ़ाया है। इसलिए भाषा के तौर पर इसे जिंदा रखना हमारा दायित्व है।

प्रमुख उर्दू अखबार सियासत (हैदराबाद) के संपादक अमीर अली खान का कहना है कि उर्दू अखबार सबसे ज्यादा धर्म निरपेक्ष होते हैं। उर्दू पत्रकारिता का अपना एक रुतबा है।सेकुलर कयादत के संपादक कारी मुहम्मद मियां मोहम्मद मजहरी (दिल्ली) भी मानते हैं कि उर्दू पत्रकारिता गंगा-जमनी तहजीब की प्रतीक है। इसी तरह जदीद खबर, दिल्ली के संपादक मासूम मुरादाबादी का मानना है कि जबानों का कोई मजहब नहीं होता, मजहब को जबानों की जरुरत होती है। किसी भी भाषा की आत्मा उसकी लिपि होती है जबकि उर्दू भाषा की लिपि मर रही है इसे बचाने की जरूरत है।

ऐसे में अपनी भाषाओं और बोलियों को बचाना हमारा धर्म है। इसलिए मप्र की सरकार ने भोपाल में हिंदी विश्वविद्यालय की स्थापना का फैसला किया है। इस बहाने हम हिंदी और इसकी तमाम बोलियों की रक्षा कर पाएंगें। हम देखें तो हमारे सारे बड़े कवि खड़ी बोली हिंदी के बजाए हमारे लोकजीवन में चल रही बोलियों से आते हैं। सूरदास, कबीरदास, तुलसीदास, मीराबाई, रहीम, रसखान सभी कवि बोलियों से ही आते हैं। इसलिए अंग्रेजी और अंग्रेजियत के हमलों के बीच हमें हमारी भाषाओं और बोलियों के बचाने के लिए सचेतन प्रयास करने चाहिए। यह हम सबका सामाजिक और नैतिक दायित्व है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने देश की आजादी के बाद कहा था दुनियावालों से कह दो गांधी अंग्रेजी भूल गया है, पर हमने उनका रास्ता छोड़कर अपनी भाषाओं की उपेक्षा प्रारंभ कर दी। अब हमें फिर से एक बार अपनी जड़ों को जानने की जरूरत है।

सोमवार, 17 जनवरी 2011

लोकजीवन, बाजार और मीडिया

लोकमीडिया के लिए एक डाउन मार्केट चीज - संजय द्विवेदी

लोकमीडिया के लिए एक डाउन मार्केट चीज है। लोकका बिंब जब हमारी आंखों में ही नहीं है तो उसका प्रतिबिंब क्या बनेगा। इसलिए लोक को मीडिया की आंखों से देखने की हर कोशिश हमें निराश करेगी। क्योंकि लोकजीवन जितना बाजार बनाता है, उतना ही वह मीडिया का हिस्सा बन सकता है। लोक मीडिया के लिए कोई बड़ा बाजार नहीं बनाता, इसलिए वह उसके बहुत काम का नहीं है। मीडिया के काम करने का अपना तरीका है, जबकि लोकजीवन अपनी ही गति से धड़कता है। उसकी गति, लय और समय की मीडिया से संगति कहां है। अगर मीडिया लोकजीवन में झांकता भी है तो कुछ कौतुक पैदा करने या हास्य रचने के लिए। वह लोकजीवन में एक कौतुक दृष्टि से प्रवेश करता है, इसलिए लोक का मन उसके साथ कहां आएगा। लोक को समझने वाली आँखें और दृष्टि यह मीडिया कहां से लाएगा। लोकको विद्वान कितना भी जटिल मानें, उत्तरआधुनिकतावादी उसे अश्पृश्य मानें, किंतु उसकी ताकत को नहीं नकारा जा सकता।

बाजार की ताकतों का लोकजीवन पर हमला

बाजार की ताकतों के लिए यह लोक एक चुनौती सरीखा ही है। इसलिए वह सारी दुनिया को एक रंग में रंग देना चाहता है। एक भाषा, एक परिधान, एक खानपान, एक सरीखा पश्चिम प्रेरित जीवन आरोपित करने की कोशिशों पर जोर है। यह सारा कुछ होगा कैसे ? हमारे ही लोकजीवन को नागर जीवन में बदलकर। यानि हमला तो हमारे लोक पर ही है। सारी दुनिया को एक रंग में रंग देने की यह कोशिश खतरनाक है। राइट टू डिफरेंटएक मानवीय विचार है और इसे अपनाया जाना चाहिए। हम देखें तो भारतीय बाज़ार इतने संगठित रूप में और इतने सुगठित तरीके से कभी दिलोदिमाग पर नहीं छाया था, लेकिन उसकी छाया आज इतनी लंबी हो गई है कि उसके बिना कुछ संभव नहीं दिखता। भारतीय बाज़ार अब सिर्फ़ शहरों और कस्बों तक केंद्रित नहीं रहे। वे अब गाँवों यानि हमारे लोकजीवन में नई संभावनाएं तलाश रहे हैं। भारत गाँव में बसता है, इस सच्चाई को हमने भले ही न स्वीकारा हो, लेकिन भारतीय बाज़ार को कब्जे में लेने के लिए मैदान में उतरे प्रबंधक इसी मंत्र पर काम कर रहे हैं। शहरी बाज़ार अपनी हदें पा चुका है। वह संभावनाओं का एक विस्तृत आकाश प्राप्त कर चुका है, जबकि ग्रामीण बाज़ार और हमारा लोकजीवन एक नई और जीवंत उपभोक्ता शक्ति के साथ खड़े दिखते हैं। बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धा, अपनी बढ़त को कायम रखने के लिए मैनेजमेंट गुरुओं और कंपनियों के पास इस गाँव में झाँकने के अलावा और विकल्प नहीं है। एक अरब आबादी का यह देश जिसके 73 फ़ीसदी लोग आज भी हिंदुस्तान के पांच लाख, 72 हजार गाँवों में रहते हैं, अभी भी हमारे बाज़ार प्रबंधकों की जकड़ से बचा हुआ है। जाहिर है निशाना यहीं पर है। तेज़ी से बदलती दुनिया, विज्ञापनों की शब्दावली, जीवन में कई ऐसी चीज़ों की बनती हुई जगह, जो कभी बहुत गैरज़रूरी थी शायद इसीलिए प्रायोजित की जा रही है। भारतीय जनमानस में फैले लोकजीवन में स्थापित लोकप्रिय प्रतीकों, मिथकों को लेकर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। ये प्रयोग विज्ञापन और मनोरंजन दोनों दुनियाओं में देखे जा रहे हैं। भारत का लोकजीवन और हमारे गांव अपने आप में दुनिया को विस्मित कर देने वाला मिथक है। परंपरा से संग्रही रही महिलाएं, मोटा खाने और मोटा पहनने की सादगी भरी आदतों से जकड़े पुरूष आज भी इन्हीं क्षेत्रों में दिखते हैं। शायद इसी के चलते जोर उस नई पीढ़ी पर है, जिसने अभी-अभी शहरी बनने के सपने देखे हैं। भले ही गाँव में उसकी कितनी भी गहरी जड़ें क्यों न हों। गाँव को शहर जैसा बना देना, गाँव के घरों में भी उन्हीं सुविधाओं का पहुँच जाना, जिससे जीवन सहज भले न हो, वैभवशाली ज़रूर दिखता हो। यह मंत्र नई पीढ़ी के गले उतारे जा रहे हैं।

सामूहिकता की संस्कृति भी निशाने पर

आज़ादी के 6 दशकों में जिन गाँवों तक हम पीने का पानी तक नहीं पहुँचा पाए, वहाँ कोला और पेप्सी की बोतलें हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था को मुँह चिढ़ाती दिखती हैं। गाँव में हो रहे आयोजन आज लस्सी, मठे और शरबत की जगह इन्हीं बोतलों के सहारे हो रहे हैं। ये बोतलें सिर्फ़ लोक की संस्कृति का विस्थापन नहीं हैं, यह सामूहिकता का भी गला घोंटती हैं। गाँव में हो रहे किसी आयोजन में कई घरों और गाँवों से मांगकर आई हुई दही, सब्जी या ऐसी तमाम चीजें अब एक आदेश पर एक नए रुप में उपलब्ध हो जाती हैं। दरी, चादर, चारपाई, बिछौने, गद्दे और कुर्सियों के लिए अब टेंट हाउस हैं। इन चीज़ों की पहुँच ने कहीं न कहीं सामूहिकता की भावना को खंडित किया है। भारतीय बाज़ार की यह ताकत हाल में अपने पूरे विद्रूप के साथ प्रभावी हुई है। सरकारी तंत्र के पास शायद गाँव की ताकत, उसकी संपन्नता के आंकड़े न हों, लेकिन बाज़ार के नए बाजीगर इन्हीं गाँवों में अपने लिए राह बना रहे हैं। नए विक्रेताओं को ग्रामीण भारत और लोकजीवन की सच्चाइयाँ जानने की ललक अकारण नहीं है। वे इन्हीं जिज्ञासाओं के माध्यम से भारत के ग्रामीण ख़जाने तक पहुँचना चाहते हैं। उपभोक्ता सामग्री से अटे पड़े शहर, मेगा माल्स और बाज़ार अब यदि भारत के लोकजीवन में अपनी जगह तलाश रहे हैं, तो उन्हें उन्हीं मुहावरों का इस्तेमाल करना होगा, जिन्हें भारतीय लोकजीवन समझता है। विविधताओं से भरे देश में किसी संदेश का आख़िरी आदमी तक पहुँच जाना साधारण नहीं होता। कंपनियां अब ऐसी रणनीति बना रही हैं, जो उनकी इस चुनौती को हल कर सकें। चुनौती साधारण वैसे भी नहीं है, क्योंकि पांच लाख, 72 हजार गाँव भर नहीं, वहाँ बोली जाने वाली 33 भाषाएं, 1652 बोलियाँ, संस्कृतियाँ, उनकी उप संस्कृतियाँ और इन सबमें रची-बसी स्थानीय लोकजीवन की भावनाएं इस प्रसंग को बेहद दुरूह बना देती हैं। यह लोकजीवन एक भारत में कई भारत के सांस लेने जैसा है। कोई भी विपणन रणनीति इस पूरे भारत को एक साथ संबोधित नहीं कर सकती। गाँव में रहने वाले लोग, उनकी ज़रूरतें, खरीद और उपभोग के उनके तरीके बेहद अलग-अलग हैं। शहरी बाज़ार ने जिस तरह के तरीकों से अपना विस्तार किया वे फ़ार्मूले इस बाज़ार पर लागू नहीं किए जा सकते। शहरी बाज़ार की हदें जहाँ खत्म होती हैं, क्या भारतीय ग्रामीण बाज़ार वहीं से शुरू होता है, इसे भी देखना ज़रूरी है। ग्रामीण और शहरी भारत के स्वभाव, संवाद, भाषा और शैली में जमीन-आसमान के फ़र्क हैं। देश के मैनेजमेंट गुरू इन्हीं विविधताओं को लेकर शोधरत हैं। यह रास्ता भारतीय बाज़ार के अश्वमेध जैसा कठिन संकल्प है। जहाँ पग-पग पर चुनौतियाँ और बाधाएं हैं। भारत के लोकजीवन में सालों के बाद झाँकने की यह कोशिश भारतीय बाज़ार के विस्तारवाद के बहाने हो रही है। इसके सुफल प्राप्त करने की कोशिशें हमें तेज़ कर देनी चाहिए, क्योंकि किसी भी इलाके में बाज़ार का जाना वहाँ की प्रवृत्तियों में बदलाव लाता है। वहाँ सूचना और संचार की शक्तियां भी सक्रिय होती हैं, क्योंकि इन्हीं के सहारे बाज़ार अपने संदेश लोगों तक पहुँचा सकता है। जाहिर है यह विस्तारवाद सिर्फ़ बाज़ार का नहीं होगा, सूचनाओं का भी होगा, शिक्षा का भी होगा। अपनी बहुत बाज़ारवादी आकांक्षाओं के बावजूद वहाँ काम करने वाला मीडिया कुछ प्रतिशत में ही सही, सामाजिक सरोकारों का ख्याल ज़रूर रखेगा, ऐसे में गाँवों में सरकार, बाज़ार और मीडिया तीन तरह की शक्तियों का समुच्चय होगा, जो यदि जनता में जागरूकता के थोड़े भी प्रश्न जगा सका, तो शायद ग्रामीण भारत का चेहरा बहुत बदला हुआ होगा। भारत के गाँव और वहाँ रहने वाले किसान बेहद ख़राब स्थितियों के शिकार हैं। उनकी जमीनें तरह-तरह से हथियाकर उन्हें भूमिहीन बनाने के कई तरह के प्रयास चल रहे हैं। इससे एक अलग तरह का असंतोष भी समाज जीवन में दिखने शुरू हो गए हैं। भारतीय बाज़ार के नियंता इन परिस्थितियों का विचार कर अगर मानवीय चेहरा लेकर जाते हैं, तो शायद उनकी सफलता की दर कई गुना हो सकती है। फिलहाल तो आने वाले दिन इसी ग्रामीण बाज़ार पर कब्जे के कई रोचक दृश्य उपस्थित करने वाले हैं, जिसमें कितना भला होगा और कितना बुरा इसका आकलन होना अभी बाकी है?

लोक की शक्ति को पहचानना जरूरी

बावजूद इसके कोई भी समाज सिर्फ आधुनिकताबोध के साथ नहीं जीता, उसकी सांसें तो लोकमें ही होती हैं। भारतीय जीवन की मूल चेतना तो लोकचेतना ही है। नागर जीवन के समानांतर लोक जीवन का भी विपुल विस्तार है। खासकर हिंदी का मन तो लोकविहीन हो ही नहीं सकता। हिंदी के सारे बड़े कवि तुलसीदास, कबीर, रसखान, मीराबाई, सूरदास लोक से ही आते हैं। नागरबोध आज भी हिंदी जगत की उस तरह से पहचान नहीं बन सका है। भारत गांवों में बसने वाला देश होने के साथ-साथ एक प्रखर लोकचेतना का वाहक देश भी है। आप देखें तो फिल्मों से लेकर विज्ञापनों तक में लोक की छवि सफलता की गारंटी बन रही है। बालिका वधू जैसे टीवी धारावाहिक हों या पिछले सालों में लोकप्रिय हुए फिल्मी गीत सास गारी देवे (दिल्ली-6) या दबंग फिल्म का मैं झंडू बाम हुयी डार्लिंग तेरे लिए इसका प्रमाण हैं। ऐसे तमाम उदाहरण हमारे सामने हैं। किंतु लोकजीवन के तमाम किस्से, गीत-संगीत और प्रदर्शन कलाएं, शिल्प एक नई पैकेजिंग में सामने आ रहे हैं। इनमें बाजार की ताकतों ने घालमेल कर इनका मार्केट बनाना प्रारंभ किया है। इससे इनकी जीवंतता और मौलिकता को भी खतरा उत्पन्न हो रहा है। जैसे आदिवासी शिल्प को आज एक बड़ा बाजार हासिल है किंतु उसका कलाकार आज भी फांके की स्थिति में है। जाहिर तौर पर हमें अपने लोक को बचाने के लिए उसे उसकी मौलिकता में ही स्वीकारना होगा। हजारों-हजार गीत, कविताएं, साहित्य, शिल्प और तमाम कलाएं नष्ट होने के कगार पर हैं। किंतु उनके गुणग्राहक कहां हैं। एक विशाल भू-भाग में बोली जाने वाली हजारों बोलियां, उनका साहित्य-जो वाचिक भी है और लिखित भी। उसकी कलाचेतना, प्रदर्शन कलाएं सारा कुछ मिलकर एक ऐसा लोक रचती है जिस तक पहुंचने के लिए अभी काफी समय लगेगा। लोकचेतना तो वेदों से भी पुरानी है। क्योंकि हमारी परंपरा में ही ज्ञान बसा हुआ है। ज्ञान, नीति-नियम, औषधियां, गीत, कथाएं, पहेलियां सब कुछ इसी लोकका हिस्सा हैं। हिंदी अकेली भाषा है जिसका चिकित्सक भी कविरायकहा जाता था। बाजार आज सारे मूल्य तय कर रहा है और यह लोकको नष्ट करने का षडयंत्र है। यह सही मायने में बिखरी और कमजोर आवाजों को दबाने का षडयंत्र भी है। इसका सबसे बड़ा शिकार हमारी बोलियां बन रही हैं, जिनकी मौत का खतरा मंडरा रहा है। अंडमान की बोनाम की भाषा खत्म होने के साथ इसका सिलसिला शुरू हो गया है। भारतीय भाषाओं और बोलियों के सामने यह सबसे खतरनाक समय है। आज के मुख्यधारा मीडिया के मीडिया के पास इस संदर्भों पर काम करने का अवकाश नहीं है। किंतु समाज के प्रतिबद्ध पत्रकारों, साहित्यकारों को आगे आकर इस चुनौती को स्वीकार करने की जरूरत है क्योंकि लोककी उपेक्षा और बोलियों को नष्ट कर हम अपनी प्रदर्शन कलाओं, गीतों, शिल्पों और विरासतों को गंवा रहे हैं। जबकि इसके संरक्षण की जरूरत है।

शनिवार, 8 जनवरी 2011

अकेले हम, अकेले तुम !

कैसा समाज बना रही हैं सोशल नेटवर्किंग साइट्स

-संजय द्विवेदी

लंदन की 42 वर्षीय महिला सिमोन बैक की आत्महत्या की खबर एक ऐसी सूचना है जिसने सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर पल रहे रिश्तों की पोल खोल दी है। यह घटना हमें बताती है कि इन साइट्स पर दोस्तों की हजारों की संख्या के बावजूद आप कितने अकेले हैं और आपकी मौत की सूचना भी इन दोस्तों को जरा भी परेशान नहीं करती। सोशल नेटवर्किंग साइट फेसबुक पर सिमोन ने अपनी आखिरी पंक्तियों में लिखा था-मैंने सारी गोलियां ले ली हैं, बाय बाय। उसके 1048 दोस्तों ने इन्हें पढ़ा, लेकिन किसी ने यकीन नहीं किया, न ही किसी ने उसे बचाने या बात करने की कोशिश की। एक दोस्त ने उसे झूठी बताया तो एक ने लिखा उसकी मर्जी। जाहिर तौर पर यह हमारे सामाजिक परिवेश के सच को उजागर करती हुई एक ऐसी सत्यकथा है जो इस नकली दुनिया की हकीकत बताती है। यह हिला देने वाली ही नहीं, शर्मसार कर देने वाली घटना बताती है कि भीड़ में भी हम कितने अकेले हैं और अवसाद की परतें कितनी मोटी हो चुकी हैं। आनलाइन दोस्तों की भरमार आज जितनी है ,शायद पहले कभी न थी किंतु आज हम जितने अकेले हैं, उतने शायद ही कभी रहे हैं।

महानगरीय अकेलेपन और अवसाद को साधने वाली इन साइट्स के केंद्र में वे लोग हैं जो खाए-अधाए हैं और थोड़ा सामाजिक होने के मुगालते के साथ जीना चाहते हैं। सही मायने में यह निजता के वर्चस्व का समय है। व्यक्ति के सामाजिक से एकल होने का समय है। उसके सरोकारों के भी रहस्यमय हो जाने का समय है। वह कंप्यूटर का पुर्जा बन चुका है। मोबाइल और कंप्यूटर के नए प्रयोगों ने उसकी दुनिया बदल दी है, वह एक अलग ही इंसान की तरह सामने आ रहा है। वह नाप रहा है पूरी दुनिया को, किंतु उसके पैरों के नीचे ही जमीन नहीं है। उसे अपने शहर, गली, मोहल्ले या जिस बिल्डिंग में वह रहता है उसका शायद कुछ पता ना हो किंतु वह अपनी रची वर्चुअल दुनिया का सिरमौर है। वह वहां का हीरो है। मोबाइल, लैपटाप और डेस्कटाप स्क्रीन की रंगीन छवियों ने उसे जकड़ है। वह एकांत का नायक है। उसे आसपास के परिवेश का पता नहीं है, वह अब विश्व नागरिक बन चुका है। दोस्तों का ढेर लगाकर सामाजिक भी हो चुका है। कुछ स्फुट, एकाध पंक्ति के विचार व्यक्त कर समाज और दुनिया की चिंता भी कर रहा है। यानि सारा कुछ बहुत ही मनोहारी है। शायद इसी को लीला कहते हैं, वह लीला का पात्र मात्र है। कारपोरेट, बाजार और यंत्रों का पुरजा।

सोशल नेटवर्किग साइट्स के सामाजिक प्रभावों का भारतीय संदर्भ में विशद अध्ययन होना शेष है किंतु यह एक बड़ी पीढ़ी को अपनी गिरफ्त में ले रहा है इसमें दो राय नहीं। नई पीढ़ी तो इसी माध्यम पर संवाद कर रही है, प्यार कर रही है, फंतासियां गढ़ रही है, समय से पहले जवान हो रही है। हमारे पुस्तकालय भले ही खाली पड़े हों किंतु साइबर कैफे युवाओं से भरे पड़े हैं और अब इन साइट्स ने मोबाइल की भी सवारी गांठ ली है, यानि अब जेब में ही दुनिया भर के दोस्त भी हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट्स का भारतीय संदर्भ में असर शशि थरूर के बहाने ही चर्चा में आया, जबकि ट्विटर पर वे अपनी कैटल क्लास जैसी टिप्पणियों के चलते विवादों में आए और बाद में उन्हें मंत्री पद भी छोड़ना पड़ा। भारत में अभी कंप्यूटर का प्रयोग करने वाली पीढ़ी उतनी बड़ी संख्या में नहीं हैं किंतु इन साइट्स का सामाजिक प्रभाव बहुत है। ये निरंतर एक नया समाज बन रही हैं। सपने गढ़ रही हैं और एक नई सामाजिकता भी गढ़ रही हैं। नकली प्रोफाइल बनाकर पलने वाले पापों के अलावा छल और झूठे-सच्चे प्यार की तमाम कहानियां भी यहां पल रही हैं। व्यापार से लेकर प्यार सबके लिए इन सोशल साइट्स ने खुली जमीन दी है। सही मायने में यह सूचना, संवाद और रिश्ते बनाने का बेहद लोकतांत्रिक माध्यम हो चुका है जिसने संस्कृति,भाषा और भूगोल की सरहदों को तोड़ दिया है। संचार बेहद सस्ता और लोकतांत्रिक बन चुका है। जहां तमाम अबोली भाषाएं, भावनाएं जगह पा रही हैं। आप यहां तो अपनी बात कह ही सकते हैं। यह आजादी इस माध्यम ने हर एक को दी है। यह आजादी नौजवानों को ही नहीं, हर आयु-वर्ग के लोगों को रास आ रही है, वे विहार कर रहे हैं इन साइट्स पर। यह एक अलग लीलाभूमि है। जो टीवी से आगे की बात करती है। टीवी तमाम अर्थों में आज भी सामाजिकता को साधता है किंतु यह माध्यम एकांत का उत्सव है। वह आपके अकेलेपन को एक उत्सव में बदलने का सामर्थ्य रखता है। वह आपके लिए एक समाज रचता है। आपकी निजता को सामूहिकता में, आपके शांत एकांत को कोलाहल में बदलता है। सोशल साइट्स की सफलता का रहस्य इसी में छिपा है। वे महानगरीय जीवन में, सिकुड़ते परिवारों में, अकेले होते आदमी के साथ हैं। वे उनके लिए रच रही हैं एक वर्चुअल दुनिया जिसके हमसफर होकर हम व्यस्त और मस्त होते हैं। किंतु यह दुनिया कितनी खोखली, कितनी नकली, कितनी बेरहम और संवेदनहीन है, इसे समझने के लिए सिमोन बैक की धीरे-धीरे निकलती सांसों और बाद में उसकी मौत को महसूस करना होगा। सिमोन बैक के अकेलेपन, अवसाद और उससे उपजी उसकी मौत को अगर उसके 1048 दोस्त नहीं रोक सके तो क्या हमारी रची इस वर्चुअल दुनिया के हमारे दोस्त हमें रोने के लिए अपना कंधा देगें ?

शुक्रवार, 7 जनवरी 2011

जब देशभक्ति भी बोझ बन जाए


कश्मीर में तिरंगा फहराने से किसका दिल दुखता है और क्यों

- संजय द्विवेदी

आजादी छः दशकों ने आखिर हमें क्या सिखाया है ? हम राष्ट्र, एक जन का व्यवहार भी नहीं सीख पा रहे हैं। लोकतंत्र की अतिवादिता तो हमने सीख ली है किंतु मर्यादापूर्ण व्यवहार और आचरण हमने नहीं सीखा। वाणी संयम की बात तो जाने ही दीजिए। यूं लगता है कि देशभक्ति, देश की बात करना और कहना ही एक बोझ बन गया है। देश के हालात तो यही हैं कि कुछ भी कहिए शान से रहिए। क्या दुनिया का कोई देश इतनी सारी मुश्किलों के साथ सहजता से सांस ले सकता है। शायद नहीं, पर हम ले रहे हैं क्योंकि हमें अपने गणतंत्र पर भरोसा है। यह भरोसा भी तब टूटता दिखता है जब संवैधानिक पदों पर बैठे लोग ही अलगाववादियों की भाषा बोलने लगते हैं। बात जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर फारूख की हो रही है जिनका कहना है कि गणतंत्र दिवस पर भाजपा श्रीनगर के लालचौक पर तिरंगा न फहराए क्योंकि इससे हिंसा भड़क सकती है। आखिर एक मुख्यमंत्री के मुंह से क्या ऐसे बयान शोभा देते हैं।

अब सवाल यह उठता है कि आखिर लालचौक में तिरंगा फहराने से किसे दर्द होता है। उमर की चेतावनी है कि इस घटना से कश्मीर के हालात बिगड़ते हैं तो इसके लिए भाजपा ही जिम्मेदार होगी। निश्चित ही एक कमजोर शासक ही ऐसे बयान दे सकता है। हालांकि अपने विवादित बयानों को लेकर उमर की काफी आलोचना हो चुकी है किंतु लगता है कि इससे उन्होंने कोई सबक नहीं सीखा है। वे लगातार जो कह और कर रहे हैं उससे साफ लगता है कि न तो उनमें राजनीतिक समझ है न ही प्रशासनिक काबलियत। कश्मीर के शासक को कितना जिम्मेदार होना चाहिए इसका अंदाजा भी उन्हें नहीं है। आखिर मुख्यमंत्री ही अगर ऐसे भड़काऊ बयान देगा तो आगे क्या बचता है। सही मायने में उमर अब अलगाववादियों की ही भाषा बोलने लगे हैं। एक आजाद देश में कोई भी नागरिक या समूह अगर तिरंगा फहराना चाहता है तो उसे रोका नहीं जाना चाहिए। देश के भीतर अगर इस तरह की प्रतिक्रियाएं एक संवैधानिक पद पर बैठे लोग कर रहे हैं तो हालात को समझा जा सकता है। उमर, भारत में कश्मीर के विलय को लेकर एक आपत्तिजनक टिप्पणी कर चुके हैं ऐसे व्यक्ति से क्या उम्मीद की जा सकती है? देश के भीतर तिरंगा फहराना आखिर पाप कैसे हो सकता है? देश के राजनीतिक दल भी भारतीय जनता युवा मोर्चा के इस आयोजन में राजनीति देखते हैं तो यह दुखद ही है। आखिर तिरंगा अगर किसी राजनीति का हिस्सा है तो वह देशभक्ति की ही राजनीति है। किंतु इस देश में तमाम लोगों को भारत माता की जय और वंदेमातरम की गूंज से भी दर्द होता है, शायद उन्हीं लोगों को तिरंगे से भी परेशानी है। आखिर क्या हालात है कि हम अपने राष्ट्रीय पर्वों पर ध्वजारोहण भी अलगाववादियों से पूछकर करेगें। वे नाराज हो जाएंगें इसलिए प्लीज आज तिरंगा न फहराएं। क्या बेहूदे तर्क हैं कि बड़ी मुश्किल से घाटी में शांति आई है। चार लाख कश्मीरी पंडितों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा, अनेक उदारवादी मुस्लिम नेताओं की हत्याएं की गयीं, अभी हाल तक सेना और पुलिस पर पत्थर बरसाए गए और आज भी सेना को वापिस भेजने के सुनियोजित षडयंत्र चल रहे हैं। आप इसे शांति कहते हैं तो कहिए पर इससे चिंताजनक हालात क्या हो सकते हैं? अगर तिरंगा फहराने से किसी इलाके में अशांति आती है तो तय मानिए वे कौन से लोग हैं और उनकी पहचान क्या है।

पाकिस्तान के झंडे और गो इंडियंसका बैनर लेकर प्रर्दशन करने वालों को खुश करने के लिए हमारी सरकार सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव करने का विचार करने लगती है। सेनाध्यक्षों के विरोध के बावजूद आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर्स एक्ट में बदलाव की गंदी राजनीति से हमारे सुरक्षाबलों के हाथ बंध जाएंगें। हमारी सरकार इस माध्यम से जो करने जा रही है वह देश की एकता-अखंडता को छिन्न-भिन्न करने की एक गहरी साजिश है। जिस देश की राजनीति के हाथ अफजल गुरू की फांसी की फाइलों को छूते हाथ कांपते हों वह न जाने किस दबाव में देश की सुरक्षा से समझौता करने जा रही है। यह बदलाव होगा हमारे जवानों की लाशों पर। इस बदलाव के तहत सीमा पर अथवा अन्य अशांत क्षेत्रों में डटी फौजें किसी को गिरफ्तार नहीं कर सकेंगीं। दंगों के हालात में उन पर गोली नहीं चला सकेंगीं। जी हां, फौजियों को जनता मारेगी, जैसा कि सोपोर में हम सबने देखा। घाटी में पाकिस्तानी मुद्रा चलाने की कोशिशें भी इसी देशतोड़क राजनीति का हिस्सा है। यह गंदा खेल,अपमान और आतंकवाद को इतना खुला संरक्षण देख कर कोई अगर चुप रह सकता है तो वह भारत की महान सरकार ही हो सकती है। आप कश्मीरी हिंदुओं को लौटाने की बात न करें, हां सेना को वापस बुला लें।क्या हम एक ऐसे देश में रह रहे हैं जिसकी घटिया राजनीति ने हम भारत के लोगों को इतना लाचार और बेचारा बना दिया है कि हम वोट की राजनीति से आगे की न सोच पाएं? क्या हमारी सरकारों और वोट के लालची राजनीतिक दलों ने यह तय कर लिया है कि देश और उसकी जनता का कितना भी अपमान होता रहे, हमारे सुरक्षा बल रोज आतंकवादियों-नक्सलवादियों का गोलियां का शिकार होकर तिरंगें में लपेटे जाते रहें और हम उनकी लाशों को सलामी देते रहें-पर इससे उन्हें फर्क नहीं पड़ेगा। किंतु अफसोस इस बात का है कि गणतंत्र को चलाने और राजधर्म को निभाने की जिम्मेदारी जिन लोगों पर है वे वोट बैंक से आगे की सोच नहीं पाते। वे देशद्रोह को भी जायज मानते हैं और उनके लिए अभिव्यक्ति के नाम पर कोई भी कुछ भी कहने और बकने को आजाद है। कश्मीर में पाकिस्तानी झंडे लेकर घूमने से शांति और तिरंगा फहराने से अशांति होती है शायद छः दशकों में यही भारत हमने बनाया है। ऐसे में क्या नहीं लगता कि देशभक्ति भी अब एक बोझ बन गयी है शायद इसीलिए हमारे संविधान की शपथ लेकर बैठे नेता भी इसे उतार फेंकना चाहते हैं। कश्मीर का संकट दरअसल उसी देशतोड़क द्विराष्ट्रवाद की मानसिकता से उपजा है जिसके चलते भारत का विभाजन हुआ। पाकिस्तान और द्विराष्ट्रवाद की समर्थक ताकतें यह कैसे सह सकती हैं कि कोई भी मुस्लिम बहुल इलाका हिंदुस्तान के साथ रहे। किंतु भारत को यह मानना होगा कि कश्मीर में उसकी पराजय आखिरी पराजय नहीं होगी। इससे हिदुस्तान में रहने वाले हिंदु-मुस्लिम रिश्तों की नींव हिल जाएगी और सामाजिक एकता का ताना-बाना खंड- खंड हो जाएगा। इसलिए भारत को किसी भी तरह यह लड़ाई जीतनी है। उन लोगों को जो देश के संविधान को नहीं मानते, देश के कानून को नहीं मानते उनके खिलाफ हमें किसी भी सीमा तक जाना पड़े तो जाना चाहिए।